Category: अप्रैल-२०१९

ऐतिहासिक क्षण… महानगरी मुंबई की धरा हुई धन्य

दीक्षा महोत्सव: ४४ दीक्षार्थियों का संयम मार्ग पर प्रयाण, ६५० साधु-साध्वियों की मौजूदगी में हजारों लोग हुए साक्षी माया-मोह की नगरी में छूटा मोह का जाल मुंबई: सांसारिक जीवन को छोड़ जैन समाज के ४४ दीक्षार्थियों ने संयम मार्ग पर प्रयाण किया, बोरीवली के चीकूवाड़ी ग्राउंड में बनाई गई दीक्षा नगरी ६५० से ज्यादा साधु-साध्वियों की मौजूदगी में हजारों लोग सामूहिक दीक्षा के साक्षी बने, दीक्षा नगरी में इतनी भीड़ जुटी की समारोह के लिए बनाया गया विशाल मंडप छोटा पड़ गया, समाज के लोग दीक्षा महोत्सव देख सकें, इसके लिए मंडप को खोलना पड़ा, इसके साथ ही फाल्गुन सुदी सप्तमी,१३ मार्च का दिन मोह-माया की नगरी के इतिहास में सुनहरे अक्षरों में अंकित हो गया, नौ मार्च से शुरू हुआ दीक्षा महोत्सव का समापन हुआ।सामूहिक दीक्षा कार्यक्रम के तहत सबसे पहले योगतिलक सूरिश्वर के प्रथम शिष्य आर्यातिलक विजय म.सा.जिन शासन के युवराज समान उपाध्याय पद पर आरूढ़ किया गया, वे सूरिशांति समुदाय के प्रथम उपाध्याय बने चीकूवाड़ी ग्राउंड में बने प्रवज्या परिणय वाटिका में श्रावकों का आगमन शुरू हो गया था, सामूहिक दीक्षा के लिए बनाया गया विशाल मंडप पूरी तरह से ज्यादा लोगों की मौजूदगी में ४४ दीक्षा महोत्सव पूरी भव्यता के साथ संपन्न हुआ। गाजे-बाजे के साथ मंडप प्रवेश इससे पहले ४४ मुमुक्षुओं, सूरिराम और सूरिशांति समुदाय के १५ आचार्यों और ६५० श्रमण-श्रमणी का सुबह पांच बजे दीक्षा मंडप में गाजे-बाजे के साथ प्रवेश हुआ, सुबह ६.४० बजे दीक्षा विधि शुरू हुई, जबकि रजोहरण की विधि ८.०४ बजे हुई, दोपहर बाद ३.३० बजे दीक्षा विधि संपन्न हुई। यह हस्तियां हुईं शामिल शामूहिक दीक्षा में विधायक मंगल प्रभात लोढ़ा, योगेश सागर, प्रवीण शाह, भरत शाह, पृथ्वीराज कोठारी, किशोर खाबिया, दिनेश भाई, निमेश कंपाणी आदि लोग शामिल हुए। होली चातुर्मास पर जैन धर्म के आचार्य एवं संतों का मिलन अनादि जैन धर्म में एकता बनी रहे सुभाष ओसवाल जैन समाज रत्न व हिंदी प्रेमी मंचस्थ मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के विश्व विख्यात राष्ट्रसंत जैनाचार्य श्रीमद पद्म सागर सूरिश्वर जी महाराज एवं पूज्य गुरूदेव श्री सुदर्शन लाल जी महाराज के सुशिश्य आगमज्ञाता योगिराज युवा प्रेरक श्री अरूण मुनि जी महाराज का न्यू फ्रैण्ड्स कॉलोनी साउथ दिल्ली श्री संघ में मंगल मिलन एवं संयुक्त धर्मसभा का दृश्य। दिल्ली: सुप्रसिद्ध जैन संत पूज्य गुरूदेव श्री सुदर्शन लाल जी महाराज के सुशिष्य आगमज्ञाता योगिराज युवा प्रेरक श्री अरूण मुनि जी महाराज ने न्यू फ्रैण्ड्स कॉलोनी श्री संघ की पुरजोर विनती को मान देते हुए वर्ष २०१९ की होली चातुर्मास का सौभाग्य प्रदान किया, श्री संघ के असीम पुण्योदय से मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के विश्वविख्यात राष्ट्रसंत जैनाचार्य श्रीमद पद्म सागर सूरिश्वर जी महाराज का भी मंगल पदार्पण हुआ।वैसे तो हमारे क्षेत्र में निरन्तर साधु-संतों का आवागमन बना रहता है, लेकिन दो महान मुनिराजों के मिलन सोने पर सुहागा वाली कहावत को सार्थक कर गया। आगमज्ञाता योगिराज युवा प्रेरक श्री अरूण मुनि जी महाराज ने स्थानक भवन की सीढ़ियों से उतरकर गुरूदेव की अगवानी की। दोनों पूजनीय मुनिराज अपनी-अपनी मर्यादा के अनुसार ऐसे मिले, जैसे इनका धर्म से इतर भी अन्य कोई पुरातन नाता हो। गुरूदेवों के मिलन तक सभी श्रद्धालु भक्त जनों की नजरें इस दुर्लभ दृश्य को अपलक निहारती रही।बुधवार २० मार्च २०१९ को लगभग दो घण्टे तक चले प्रवचन कार्यक्रम में हॉल का कोना-कोना जनमेदिनी से भरा हुआ था, जो प्रायः देखने में बहुत कम आता है, गुरूदेव श्री जी ने अपने उद्बोधन से सुस्त नसों में रवानगी की ताजगी भरते हुए ‘ओपन हार्ट सर्जरी’ विषय की सविस्तार व्याख्या करते हुए बताया कि आधुनिकता की चकाचौंध में उन्मत्त प्राणियों के प्रत्येक तर्क का मुँह बन्द था। अहिंसा प्रधान आडम्बर रहित व संवर सहित धर्म को पाकर हमें इसकी सार्थकता का अहसास करना चाहिए। गुरूदेव की खुली ललकार ने श्रद्धालु भक्तजनों को अपने में मौजूद कमियों को देखने पर मजबूर कर दिया। बड़े ही पुण्य से मिले अपने को निहारने के इस पर्व की आराधना में गुरूदेव ने कोई कसर नहीं छोड़ी। मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के विश्व विख्यात राष्ट्रसंत जैनाचार्य श्रीमद पद्म सागर सूरिश्वर जी महाराज से आशीर्वाद प्राप्त करते हुए न्यू फ्रैण्ड्स कॉलोनी साउथ दिल्ली श्री संघ के अध्यक्ष समाजरत्न श्री सुभाष ओसवाल जैन एवं उनकी सहधर्मिणी श्रीमती नीलम ओसवाल जैन। राष्ट्रसंत जैनाचार्य श्रीमद पद्म सागर सूरिश्वर जी महाराज ने बहुत ही सारगर्भित उद्बोधन दिया, जिसमें बेचैनी, द्वेश एवं आक्रोष के साम्राज्य को गिराने के बड़े ही अनमोल सूत्र बताये, हमारा मन धर्म में नहीं लगता, हमारे सतत् धर्म करने बावजूद भी हमें अभी तक सफलता नहीं मिली, इत्यादि प्रश्नों के उत्तरों से परिपूर्ण उद्बोधन देकर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया, आचार्य श्री जी के मंगलपाठ से सभा का समापन हुआ।दो सम्प्रदायों के मिलन में कट्टरता का कोई अंश नहीं मिला, आज हम कट्टरता का इस कदर समर्थन कर देते हैं कि हमारी सामाजिक एकता ही विखण्डित होने लग जाती है, लेकिन इस मिलन में हमें ऐसा कुछ नहीं मिला, दोनों मुनिराजों की परस्पर वार्ता भी हुई। कार्यक्रम के संयोजक महेश जैन ने राष्ट्रसंत जैनाचार्य श्रीमद पद्मसागर सूरिश्वर जी महाराज एवं आगमज्ञाता योगिराज युवाप्रेरक श्री अरूण मुनि जी महाराज के प्रति आभार व्यक्त करते हुए कहा कि सेवा के क्षेत्र में ख्याति प्राप्त जैन संस्था ‘जीतो’ की स्थापना आचार्य पद्मसागर जी महाराज की प्रेरणा से ही हुई है।सभा का संचालन करते हुए साउथ दिल्ली श्री संघ के अध्यक्ष, जैन एकता और समन्वय के सहयोगी समाजरत्न सुभाष ओसवाल जैन ने कहा कि यह हमारे साउथ दिल्ली जैन समाज का परम सौभाग्य है कि ऐसी महान परम्पराओं के दो महान संतों ने स्नेहमय मंगल मिलन हेतु हमारे क्षेत्र को अवसर देकर कृतार्थ किया, हमने मिलन तो अनेक देखे पर इस मिलन की छटा ही निराली रही, साथ ही गुरूदेवों के मंगल मिलन ने हमें यह प्रेरणा दी है कि हमें अपनी कुण्ठाओं के दायरे से बाहर निकलना चाहिए, ताकि इस अनादि जैन धर्म की एकता बनी रहे।कार्यक्रम को नव्य-भव्य व ऐतिहासिक रूप से सफल बनाने में नवनीत जैन, अशोक लोढ़ा, राजकुमार जैन (पटियाला वाले) एवं महेश संगीता जैन, नीलम ओसवाल आदि का भरपूर सहयोग प्राप्त हुआ। श्रवणबेलगोला जैन तीर्थ श्रवणबेलगोला मंदिर कर्नाटक राज्य के हसन में स्थित एक प्रसिद्ध जैन तीर्थ है, यह तीर्थ मैसूर से ८४ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है, यहॉं का मुख्य आकर्षण गोमतेश्वर बाहुबलि स्तम्भ है, यह तीर्थ श्रवणबेलगोला गांव के पास तलहटी से १७८.४२ मीटर उँचे पर्वत पर स्थित है, जिसे विन्ध्यगिरी पर्वत कहते हैं। मान्यता है कि यहॉं स्थित चेमते पर बनी प्रतिमा काफी वर्षों से पुरानी है। यह इंद्रचिरि पर्वत पर ५८-८ फीट ऊँची पत्थर से बनी मूर्ति है, यहॉं स्थापित गोमतेश्वर की प्रतिमा के लिए यह मान्यता है कि इस मूर्ति से शक्ति साधुत्व, बलय तथा उदारवादी भावनाओं का अद्भुत प्रदर्शन होता है।यह तीर्थ चन्द्रबेत और इन्द्रबेत नामक पहाड़ियों के बीच स्थित है, प्राचीनकाल में यह स्थान जैन धर्म एवं संस्कृति का महान् केन्द्र था, जैन अनुश्रुति के अनुसार मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त ने अपने राज्य का परित्याग कर अंतिम दिन मैसूर के श्रवणबेलगोला में व्यतीत किए, यहां के गंग शासक रचमल्ल के शासनकाल में चामुण्डराय नामक मंत्री ने लगभग ९८३ ई. में बाहुबलि (गोमट) की विशालकाय जैन मूर्ति का निर्माण करवाया था, यह प्रतिमा विद्यगिरी नामक पहाड़ से भी दिखाई देती है।श्रवणबेलगोला में गोमतेश्वर द्वार के बाईं ओर एक पाषाण पर शक सं. ११०२ का एक लेख कन्नड़ भाषा में है, इसके अनुसार ऋषभ के दो पुत्र भरत और बाहुबलि थे। ऋषभदेव जंगल चले जाने के बाद राज्याधिकारी के लिए बाहुबलि और भरत में युद्ध हुआ। बाहुबलि ने युद्ध में भरत को परास्त कर दिया, लेकिन इस घटना के बाद उनके नाम में भी विरक्ति भाव जागृत हुआ और उन्होंने भरत को राजपाट लेने को कहा, तब वे खुद घोर तपश्चरण में लीन हो गए, तपस्या के पश्चात उनको यहीं पर केवल ज्ञान प्राप्त हुआ था।श्री गंगरस राजा के प्रधान श्री चामुण्डराय की माता विक्रम संवत् में श्री बाहुबलि भगवान् के दर्शन के लिए पोदनपुर जा रही थी, उन्होंने विन्ध्यगिरी पर्वत के सम्मुख स्थित चन्द्रगिरी पर्वत पर विश्राम किया, यहीं उन्हें स्वप्न में अदृश्य रूप से विन्ध्यगिरी पर्वत पर श्री बाहुबली भगवान् की मूर्ति स्थापित करने की प्रेरणा मिली, तुरंत ही प्रधान ने निर्णय लेकर उत्साह पूर्वक अपनी अमूल्य धन राशि का सदुपयोग कर इस तीर्थ की स्थापना की, जिसे हजार वर्ष से ज्यादा हुए हैं।भरत ने बाहुबलि के सम्मान में पोदनपुर में ५२५ धनुष की बाहुबलि की मूर्ति प्रतिष्ठित की। यहां महामस्ताभिषेक पूजा १२ वर्षों में एक बार होती है, इस अवसर पर सारे भारत से लाखों यात्री यहां आते हैं। विमान द्वारा पुष्पदृष्टि की जाती है। मूर्ति को केसर, घी, दूध, दही, सोने के सिक्कों तथा अन्य वस्तुओं से नहलाया जाता है। कुछ वर्षो पूर्व तक मैसूर महाराजा के हाथों प्रथम पूजा होती थी। लगभग दो हजार वर्ष पूर्व उत्तर भारत में बारह वर्षीय अकाल पड़ा, तब आचार्य भद्रबाहु स्वामी अनेक मुनियों के साथ आकर विन्ध्यगिरी के सम्मुख पर्वत पर ठहरे थे, उनके साथ सम्राट चंद्रगुप्त भी थे। सम्राट तपस्या करते हुए यहीं पर स्वर्ग सिधारे, इसलिए इस पर्वत का नाम चन्द्रगिरी पड़ा।विन्ध्यागिरी पर्वत पर सात मंदिर हैं। सामने चंद्रगिरी पर्वत पर चौदह मंदिर हैं, जिनमें श्री आदीश्वर भगवान् का मंदिर सबसे पुरातन है, यहां भद्रबाहु स्वामी की चरण पादुकाएं हैं। चंद्रगिरी पर्वत पर स्थित जमीन में आधी गढ़ी मूर्ति को श्री आदीश्वर भगवान के पुत्र भरत चक्रवर्ती का बताया जाता है। श्रवणबेलगोला गांव में सात मंदिरों में से एक मंदिर में ‘जैन मठ’ स्थापित है। श्रीचारूकीर्ति स्वामीजी भट्टाचार्य यहां विराजते हैं तथा नवरत्नों की सत्रह प्रतिमाओं का दिव्य दर्शन कराया जाता है।श्री बाहुबलि भगवान् की इतनी प्राचीन मूर्ति होते हुए भी ऐसा लगता है जैसे अभी-अभी बनकर तैयार हुई हो, इस भव्य प्रतिमा का सौम्य, शांत, गंभीर रूप बरबस मन को भक्तिभाव की ओर खींच लेता है। कला की दृष्टि से भारतीय शिल्प कला का एक सर्वोत्कृष्ठ उदाहरण है। मंदिर के निकट का दृश्य अत्यन्त मनोहर है। विन्ध्यगिरी व चन्द्रगिरी पर्वतों के बीच विशाल जलकुंड की अपनी एक विशिष्ट शोभा है।श्रवणबेलगोला के नजदीक के रेलवे स्टेशन में अरसीकरे ६४ कि.मी. हासन ५१ कि.मी. और मन्दगिरी १६ कि. मी. की दूरी पर है। निकट का गांव चन्नरायपट्टणम लगभग १३ कि.मी. दूर है, इन स्थानों से बस व टैक्सी की व्यवस्था है। बैंगलोर से बस द्वारा करीब १५० कि.मी. तथा मैसूर से ८० कि. मी. दूर है। तलहटी तक पक्की सड़क है, इसी पहाड़ के पत्थर को काटकर सुंदर सीढ़ियों बनवायी गयी हैं। तलहटी से ऊपर मंदिर तक लगभग ६५० सीढ़ियों हैं। तलहटी गांव के निकट ही है। ठहरने के लिए तलहटी में धर्मशाला, अतिथिगृह व हॉल हैं जहां पर पानी, बिजली, व भोजनशाला की सुविधाएं उपलब्ध हैं। -कोमल कुमार जैन चेयरमैन, ड्यूक फैशन्स (इंडिया) लि. एफ.सी.पी.‘जीतो’ जैन कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष पारस मोदी द्वारा जैन महासतियों को दर्शन वंदन जैन काँन्फ्रेंस के राष्ट्रीय अध्यक्ष पारस मोदी जैन गुरु गणेश नगर औरंगाबाद में आराध्य गुरुदेव प.पू. श्री गणेशलालजी मसा एवं प पू श्री मिश्रीलाल मसा के पावन समाधीस्थल पर पहुँच कर यहाँ विराजित महासती प.पू. श्री किरणसुधाजी मसा. आदी ठाणा के दर्शन वंदन कर धर्मचर्चा की एवं प.पू. प्रग्याजी मसा. की स्वास्थ्य की जानकारी लेकर सुखसाता पुछते हुए स्वास्थ्य हेतु मंगलकामना की..बाद में उन्होंने श्री संघ कार्यालय में समाज के श्रावकों से चर्चा-विमर्श किया, श्री संघ की ओर से आपका सम्मान अध्यक्ष झुंबरलाल पगारीया, मंत्री ताराचंद बाफना किया, इस अवसर पर जैन काँन्फ्रेंस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष तनसुख झाबंड, वरिष्ठ कार्यकारिणी सदस्य मिठालाल कांकरीया, मदनलाल लोढा, चंद्रकांत चोरडीया, कन्हैयालाल रुणवाल, डाँ प्रकाश झाबंड आदी उपस्थित थे। जैन काँन्फ्रेंस में औरंगाबाद में अनेक पदाधिकारी सेवारत हैं! जैन काँन्फ्रेंस के विभिन्न कार्य तथा सामाजिक धार्मिक उपक्रम की जानकारी श्री पारस मोदी ने देकर मार्गदर्शन किया। प्रकाश कोचेटा अमृता फडणवीस ने ‘जितो उड़ान २०१९’ ट्रेड फेयर का उद्घाटन किया मुंबई: जैन इंटरनेशनल ट्रेड ऑर्गेनाइजेशन (जितो) १२वां स्थापना दिवस मनाने के लिए जितो मुंबई जोन, उसके ११ जितो चेप्टर और उसके सदस्यों ने मिलकर ‘जितो उड़ान २०१९’ का आयोजन किया। ३ दिन का यह ट्रेड फेयर और बिजनेस कॉन्क्लेव १५ से १७ मार्च २०१९ के दौरान मुंबई-गोरेगांव के नेस्को संकुल के दो लाख वर्गफीट क्षेत्र में आयोजित किया गया था। शुक्रवार १५ मार्च को श्रीमती अमृता देवेन्द्र फडणवीस के करकमलों द्वारा इस फेयर का उद्घाटन हुआ।जितो मुंबई जोन के चेयरमैन हितेश दोशी जैन ने समस्त जैन समाज की एकमात्र ने पत्रिका कहा कि देश-विदेश के उद्योगपतियों, बिजनेसमैनों, प्रोफेशनल्स, उत्पादकों, रीयल एस्टेट डेवलपरों, रिटेलरों, व्यापारियों, वितरकों और स्टार्ट-अप्स वेंचर के लिए उनके उत्पाद और सेवा प्रदर्शित करने हेतु यह श्रेष्ठतम मंच है, जहॉ जेम-ज्वेलरी, रीयल एस्टेट और कंस्ट्रक्शन के लिए, फैशन वेयर क्लोदिंग तथा स्टार्ट-अप्स के लिए खास पेविलियन लगाई गई थी। जितो इनोवेशन एंड इक़्यूबेशन फाउंडेशन और जितो (जेआईआईएफ-जितो) ने पात्र स्टार्ट अप्स के लिए १० लाख यूएस डालर के फंड का प्रावधान किया है। स्टार्ट-अप्स के लिए खास ५० स्टॉल आबंटित किए गए थे जहॉ जॉब फेयर भी आयोजित किया गया था।युवाओं को नौकरी का उत्तम अवसर प्रदान करने के लिए जितो ने टाइम्स एसेन्ट के साथ सहयोग किया था।यहां विभिन्न विषयों पर सेमिनार, परिसंवाद आदि का आयोजन किया गया था। जितो एपेक्स ने पुलवामा शहीदों के लिए ३.०६ करोड़ रू. का दान दिया गया। ‘जितो उड़ान २०१९’ में फॉरेन कॉन्स्युलेट पेविलियन, युथ एंट्रिप्युनरशिप समिट, जेबीएन ट्रेड मिटिंग्स, सीईओ कान्कलेव और प्रोफेशनल फोरम है, जहॉ जैन एनजीओ के लिए खास पेविलियन है, जहां एनजीओ अपनी प्रवृत्तियां दर्शाकर, मुलाकातियों के साथ बातचीत कर अपनी प्रवृत्तियों के लिए जरूरी समर्थन प्राप्त कर सकेंगे। जैन इंटरनेशनल ट्रेड आर्ग (जितो) जैन बिजनेसमैनों, उद्योगपतियों, नॉलेज वर्करों, प्रोफेशनलों का प्रतिनिधित्व करनेवाली अंतरराष्ट्रीय संस्था है।‘जितो’ की स्थापना २००७ में हुई थी। भारत में ‘जितो’ के ६९ चेप्टर और ११ अंतरराष्ट्रीय चेप्टर हैं, उसकी सदस्य संख्या ९००० सदस्यों की है। श्री मिथिला तीर्थ खोज व पुर्नस्थापना जैन धर्म एवं परम्परा में धर्म को प्ररूपित करने वाले महामानव को तीर्थंकर कहा जाता है, जिन्होंने पूर्ण ज्ञान अर्थात् कैवल्य प्राप्त कर तीर्थ की स्थापना की है। जैन परम्परा में २४ तीर्थंकर हुए हैं, जिनमें सर्वप्रथम प्रभु श्री ऋषभदेव स्वामी थे, जिनके पुत्र व प्रथम चक्रवर्ती सम्राट भरत के नाम पर इस उपमहाद्वीप का नाम ‘भरत खण्ड’ पड़ा।अंतिम २४वें तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी हुए हैं, तीर्थंकर के च्यवन, गर्भ प्रवेश, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान तथा मोक्षप्राप्ति की भूमि को कल्याणक भूमि एवं जिस तिथि को ये कल्याणक हुए, उसे कल्याणक तिथि कहा जाता है।जैन धर्म के १९वें तीर्थंकर श्री मल्लिनाथ जी व २१वें तीर्थंकर श्री नमिनाथ जी के च्यवन, गर्भ अवतरण, जन्म, दीक्षा व केवलज्ञान भूमि श्री मिथिला तीर्थ है। दोनों तीर्थंकरों के ४-४ कल्याणक भूमि होने से मिथिला ८ कल्याणक भूमि तीर्थ कहलाता है, मिथिला तीर्थ वर्तमान का सीतामढ़ी शहर है। पूर्व में यह क्षेत्र विदेह नामक जनपद, तिरहुत देश व जगई के नाम से भी जाना जाता था, वर्तमान बिहार प्राचीन काल से मगध, अंग देश एवं त्रीभुक्ति क्षेत्र को मिलाकर एक प्रदेश था, वर्तमान तिरहुत वही त्रीभुक्ति है, इसका मुख्य भाग मिथिला है, प्राचीन वैशाली भी मिथिला का प्रभाव क्षेत्र था। जैन धर्म की सोलह सतियों में से एक सती माता सीता जानकी का भी जन्म स्थान सीतामढ़ी है। जनकपुर के राजा जनक को भयंकर दुष्काल से निजात पाने के लिए एक महर्षि ने खेत में हल चलाने को कहा था। राजा ने इसी स्थान सीतामढ़ी पूर्व में सारा क्षेत्र मिथिलांचल के नाम से जाना जाता था, हल चलाया गया व वहीं खेत में घड़े में उन्हें सीता मिली, इस कारण यह वैष्णव तीर्थ भी है, जानकी के पिता जनक को विदेह व सीता को वैदेही भी कहा जाता है, अद्भुत संयोग है कि देह में रहकर विदेह की साधना जैन धर्म का दर्शन भी है।१९वें तीर्थंकर श्री मल्लिनाथ जी:- फाल्गुन-शुक्ला चतुर्थी को अश्विनी नक्षत्र से चन्द्रमा का योग होने पर मिथिला नगर के महाराजा कुंभ की महारानी प्रभावती के गर्भ में परमात्मा मल्लिनाथ के जीव का अवतरण हुआ। मार्गशीर्ष-शुक्ल ११ को अश्विनी नक्षत्र में चन्द्रमा का योग होने पर और उच्च स्थान पर रहे हुए ग्रहों के समय, आधी रात में माता प्रभावती ने सभी शुभ लक्षणों से युक्त तीर्थंकर पद को प्राप्त होने वाली पुत्री को जन्म दिया।दिगम्बर पुत्र के रूप में मानते हैं, कारण वे स्री को मोक्ष का अधिकारी नहीं मानते। पौष शुक्ल एकादशी को अश्विनी नक्षत्र में, दिन के पूर्व-भाग में तेले के तप सहित मल्लि ने स्वयं पंच-मुष्टि लोच किया और नमस्कार कर स्वयं सामायिक चारित्र, दीक्षा/संन्यास/प्रवज्या, ग्रहण किया, उसी दिन शाम को उन्हें मिथिला में ही अशोक वृक्ष के नीचे केवलज्ञान एवं केवलदर्शन पूर्ण ज्ञान/बोधि भी प्राप्त हुआ। श्री सम्मेतशिखर पर्वत पर चैत्र-शुक्ल ४, भरणी नक्षत्र में श्री मल्लिनाथ जी मोक्ष पधारे।२१वें तीर्थंकर नमिनाथ जी-अश्विनी-पूर्णिमा की रात्रि में अश्विनी-नक्षत्र में मिथिला नगर के महाराजा विजयसेन की महारानी वप्रा की कुक्षि में परमात्मा नमिनाथ का जीव उत्पन्न हुआ।श्रावण-कृष्णा अष्टमी की रात्रि को अश्विनी-नक्षत्र में माता वप्रा को पुत्र की प्राप्ति हुई। आषाढ़-कृष्णा नवमी को अश्विनी-नक्षत्र में, दिन के अंतिम पहर में, बेले के तप सहित कई राजाओं के साथ नमि कुमार ने प्रवज्या स्वीकार की। मार्गशीष-शुक्ला एकादशी के दिन अश्विनी-नक्षत्र में घातीकर्मों को नष्ट कर मिथिला में ही बकुल वृक्ष के नीचे उन्हें केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त किया। श्री सम्मेतशिखर पर्वत पर वैशाख-कृष्णा दशमी को अश्विनी-नक्षत्र के योग में, प्रभु नमि समस्त कर्मों का अंत कर के मोक्ष सिधारे।श्री मिथिला तीर्थ के कुछ अति महत्वपूर्ण प्रसंग:- २४वें तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी के जीवन काल के २५, २६, २७, ३६, ३९, व ४० वां चातुर्मास अर्थात् कुल ६ चातुर्मास मिथिला में हुए, यहाँ श्री महावीर प्रभु के अष्टम गणधर अकम्पित का जन्म हुआ था, यहाँ जुगबाहु-पयणरेहा के पुत्र नमी नामक महाराजा वलयचूड़ियों के शब्द से और सौधर्मेन्द्र परीक्षित वैराग्य निश्चय वाले हुए। पूर्व में यहाँ मल्लिनाथ चैत्य में वैरफट्या देवी, कुबेर यक्ष एवं नमिनाथ चैत्य में गंधारी देवी और भृकुटि यक्ष आराधक जनों के विघ्न हरण करते थे।यहाँ ही लक्ष्मीगृह चैत्य में आर्य महागिरि के शिष्य कौणिन्य गोत्रीय अश्वमित्रा श्री वीर-निर्वाण के दो सौ बीस वर्ष बीतने पर अणुप्रवाद पूर्व में रही हुई नैपुणिका वस्तु को पढ़ते हुए प्रवचन-स्थविरों द्वारा अनेकान्तिक युक्तियों से समझाकर मना करने पर भी वह उत्सूत्र प्ररूपणा कर चतुर्थ निह्नव हुआ, यहाँ जनकसुता महासती सीता की जन्मभूमि का स्थान विशाल वट विटपी प्रसिद्ध है, यहाँ श्री राम-सीता का विवाह-स्थान साकल्लकुण्ड नाम से लोकरूढ़ है और पाताललिंग संभवतः नेपाल स्थित जलेश्वर शिवलिंग आदि अनेक लौकिक तीर्थ भी विद्यमान हैं। करीब १२५ वर्ष पूर्व काल के प्रभाव से मिथिला जैन तीर्थ का विच्छेद हो गया और यह तीर्थ गुमनामी के घेरे में आ गया। पुनः खोज व पुनस्र्थापना में निम्नलिखित प्रामाणिक सन्दर्भ सहायक बने। प्रमाणिक सन्दर्भों को शब्दशः लिखा गया है ताकि प्रामाणिकता बनी रहे।श्री मिथिला तीर्थ खोज हेतु आधारित सन्दर्भ श्री जिनप्रभसूरि रचित-‘विविध् तीर्थ-कल्प’ विक्रम सम्वत् १३६४-१३८९ का यात्रा वर्णन अनुवादक/लेखक-अगरचन्द भंवरलाल नाहटा, प्रकाशक-श्री जैन श्वेताम्बर नाकोड़ा पाश्र्वनाथ तीर्थ, मेवानगर वाया बालोतरा, संस्करण १९७८, ‘श्री तीर्थ माला अमोलकरत्न’-श्री शीतलप्रसाद छाजेड़ जौहरी काशी बनारस द्वारा प्रकाशित, सन् १८९३, पृष्ठ २, ५, व ३० पद्ध ‘खण्डहरों का वैभव’ द्वितीय संस्करण १९५८, लेखकमुनि कान्तिसागर, प्रकाशन-भारतीय ज्ञानपीठ दुर्गाकुण्ड रोड, काशी पृष्ठ १४८ पर श्री मिथिला तीर्थ के बारे में उल्लेख है। ‘कुशल निर्देश’ मासिक पत्रिका सितम्बर, १९७७ में प्रकाशित में आलेख-‘मिथिला तीर्थ कैसे विच्छेद हुआ?’ लेखक- भंवरलाल नाहटा, पृष्ठ १९ व २० में श्री मिथिला तीर्थ का उल्लेख है।‘चम्पापुरी तीर्थ’, लेखक भंवरलाल नाहटा, प्रकाशन: वीर निर्वाण सम्वत: २५०१ पृष्ठ १३, १५ में श्री मिथिला तीर्थ का विस्तृत उल्लेख है।‘प्राचीन तीर्थ माला-संग्रह’ अमृतलाल छगनलाल अनोपचंद नरसिंहदास से श्री यशोविजय जी जैन ग्रंथमाला, भावनगर द्वारा गुजराती में प्रकाशित वि.सं. १९७८, सन् १९२१में पृष्ठ संख्या २६ व २७. ‘जैन तीर्थों नो इतिहास’ गुजराती में प्रकाशित पृष्ठ ५४०, ५४१ व ५४२. ‘श्री चारित्र स्मारक ग्रंथ माला १७’ जैन तीर्थों के नक्शों के साथ।प्रकाशक: मफतलाल माणेकलाल, बोड़ी बाजार, वीरमगांव, गुजरात काठियावाड़।मौलिकता को बनाये रखने के लिये संदर्भित ग्रंथों के आलेखों को शब्दशः प्रस्तुत किया गया है, उपरोक्त स्पष्ट प्रमाणों के आधार पर करीब १०० वर्षों पश्चात् श्री मिथिला तीर्थ की खोज शुरू हुई। खोज में निम्नलिखित उपरोक्त प्रामाणिक संदर्भ सहयोगी बने। १९९३ से अपने बाबासा ‘साहित्य वाचस्पति’ भंवरलालजी नाहटा की प्रेरणा से व पिताजी श्रेष्ठिवर्य श्री हरखचन्दजी नाहटा द्वारा इस तीर्थ पुनस्र्थापना हेतु देखे गए स्वप्न को पूरा करने के लिये ललित कुमार नाहटा द्वारा खोज आरम्भ हुयी, पूर्व में खोज का केन्द्र जनकपुर, नेपाल रहा, जिसमें श्री हुलासचन्दजी गोलछा के नेतृत्व में काठमाण्डू जैन संघ का योगदान रहा। ‘जैन कल्याणक तीर्थ न्यास’ का पंजीयन २४ मई, २००६ को ही करा लिया गया था। सन् २००६ के अन्त में कुछ पुख्ता व स्पष्ट प्रमाण मिले कि विच्छेदित श्री मिथिला तीर्थ सीतामढ़ी, बिहार-भारत में था, तब सीतामढ़ी में भूमि प्राप्ति हेतु प्रयास अशोक कुमार जैन के द्वारा शुरू हुआ व श्री शिवकुमारजी अग्रवाल के सहयोग से भूमि का चयन किया गया। श्रीमती रफक्खमणिदेवी नाहटा ने १७/०४/२००७ को भूमि क्रय कर अपने ७०वें जन्म दिवस ६ जुलाई, २००७ को न्यास को भेंट कर दी गई।कहा जायेगा कि १४ साल की लाख कोशिशों के उपरान्त भी जब तक हम सही जगह नहीं पहुँचे, हमें ज़मीन नहीं मिली व जैसे ही सही स्थान सीतामढ़ी पहुँचे, दूसरी-तीसरी यात्रा में ही जगह उपलब्ध् हो गयी। यह स्पष्ट संकेत है कि अधिष्ठायक देव शासन देव ने जगह उपलब्ध् नहीं होने दी व सही जगह पहुँचते ही बिना देरी के जगह उपलब्ध् करवा दी।जगह का चयन करते वक्त विशेष सावधानी बरती गयी थी कि यात्रियों को पूर्ण सुरक्षा मिले व सहजता व सुगमता से उस जगह पर पहुँच भी सके, इस कारण जगह की कीमत भी बहुत अधिक देनी पड़ी। राष्ट्रीय राजमार्ग पर भूमि है व अच्छी बस्ती व अच्छे लोगों के साथ लगती भूमि है।‘श्री मिथिला तीर्थ’ की पुनस्र्थापना स्व-द्रव्य से एक ही परिवार-श्री हरख चन्द नाहटा परिवार द्वारा हुई। ज़मीन क्रय से लेकर जिनालय, धर्मशाला व प्रतिष्ठा का सम्पूर्ण लाभ नाहटा परिवार ने लिया। भाग्यशाली हैं कि हमें कल्याणक तीर्थ पुनस्र्थापना का सम्पूर्ण लाभ मिला। धन्य हैं वे जिन्होंने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इसमें अपनी सेवाएँ दी, हमने इस बात का विशेष ध्यान रखा कि यह परमात्मा का कल्याणक तीर्थ है एवं परमात्मा गच्छातीत होते हैं, इसलिये अपनी व्यक्तिगत आस्थाओं से उपर उठ कर किसी भी गच्छ या समुदाय की छाप नहीं लगने दी।मन्दिर के अन्दर किसी तरह का पट्ट नहीं लगने दिया अर्थात् मन्दिर में गये तो आप व आपका सम्बन्ध् सीधे परमात्मा से होगा, बीच में कोई व्यवधान या नाम प्रलोभन नहीं। प्रतिमा भी एक ही-जिनका कल्याणक तीर्थ उनकी ही एकमात्र प्रतिमा अर्थात् श्री शीतलनाथ जी की, ताकि मन में एकाग्रता बनी रहे।प्रतिमा की साइज़ २७’’ की है। न्यासीगण से पूछा गया कि कल्याणक तीर्थ के अनुसार क्या प्रतिमा छोटी नहीं तो उत्तर मिला कि कल्याणक तीर्थ है, तभी २७’’ की है अन्यथा २१’’ की प्रतिमा एक आदर्श साइज़ की प्रतिमा होती है। २७’’ से अधिक होने पर प्रक्षाल करते वक्त अशातना की संभावना बहुत प्रबल रहती है, कारण प्रक्षाल का पानी प्रक्षाल करने वाले के अंग पर साधारण रूप में पड़ता ही है, प्रश्नकर्ता तर्क संगत उत्तर सुन संतुष्ट हुये। श्री मिथिला तीर्थ की पुनस्र्थापना हेतु भूमि पूजन १ फरवरी, २००८ को हुआ व इसके उपरान्त भूमि में मिट्टी भरवा कर राष्ट्रीय राजमार्ग के बराबर लाया गया। तीर्थ का शिलान्यास २५ जून, २०१४ को हुआ। तीर्थ का निर्माण कार्य आनन्दजी कल्याणजी पेढ़ी के अध्यक्ष सेठ श्री श्रेणिक भाई के सुझाव, मन्दिर निर्माण के मार्गदर्शक सत्येन्द्र कुमार कोचर के निर्देशन व श्री पंकज कुमार अग्रवाल एवं श्री नारायण अग्रवाल की देख-रेख में शुरू हुआ। मन्दिर शिल्पश्री हुक्मेश्वर सोमपुरा, तीर्थ वास्तु सलाहकार ई.पी. रेड्डी रहे। मूर्तियों व चरणों के शिल्पकार श्री सत्यनारायण शर्मा, जयपुर हैं। धर्मशाला के आर्किटेक्ट श्री सुधीर गुप्ता हैं।श्रेष्ठिवर्य श्री हरखचन्दजी रुक्खमणिदेवी नाहटा परिवार ने मन्दिर, प्रतिमायें व धर्मशाला का सम्पूर्ण निर्माण का लाभ लिया। दोनों परमात्मा की प्रतिमाओं की अंजनशलाका अध्यात्मयोगी श्री महेन्द्रसागर जी म.सा. के हस्ते १२ मई, २०१४ को श्री भद्दिलपुर तीर्थ की अंजनशलाका प्रतिष्ठा के शुभ अवसर पर हुई। २३ फरवरी, २०१५ को विधिकारक श्री हर्षद भाई शाह अकोला वालों के मार्गदर्शन में दोनों प्रतिमाओं की चल प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई। प्रतिष्ठा मुहूर्त प्रदाता पूज्य उपाध्याय श्री विमलसेन जी म.सा. ने प्रदान किया।वर्तमान में सुविधाजनक २७ कमरों की धर्मशाला, भोजनशाला, कार्यालय व कर्मचारी आवास हैं। भोजनशाला अभी शुरू नहीं हुई है, तीर्थ यात्रियों का आवागमन शुरू है।तीर्थ का पताः श्री मिथिला जैन तीर्थ, श्री जैन श्वेताम्बर कल्याणक तीर्थ न्यास, ‘हरखमणि भवन’, मल्लि-नमि मार्ग, शंकर चौक, डूमरा, सीतामढ़ी, बिहार, भारत-८४३३०१, भ्रमणध्वनि: ७०७९०७२०००, ७०७९१७२००० – ललित कुमार नाहटा जैन

पूर्वजन्म प्रभू ऋषभदेव का जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर

वैसे तो संसार का प्रत्येक प्राणी अनादि काल से जन्म-मरण भोगता आ रहा है लेकिन सार्थक वही जन्म होता है जिसमें जीव ने संसार परित्त (सीमीत) किया, उसी क्रम में प्रभु ऋषभ का जीव भी कई भव पूर्व जम्बूद्वीप के पश्चिम विदेह की क्षिति प्रतिष्ठित नगरी के प्रसन्नचन्द्र राजा के राज्य में धन्ना सार्थवाह था, एक बार व्यापार के लिए बसंतपुर जाने का निश्चय करके, धन्ना ने राजाज्ञा पूर्वक नगर में घोषणा कराई कि यदि उनके साथ कोई चलना चाहे तो यथायोग्य पूर्ण सहयोग दिया जायेगा, इस घोषणा की जानकारी तंत्र विराजित आचार्य धर्मघोष को भी मिली। बंसतपुर की ओर विहार करने का निर्णय करके सार्थवाद से आज्ञा लेकर साथ में विहार कर दिया। रास्ते में वर्षाकाल से मार्ग अवरूद्ध हो जाने से सुरक्षित स्थान देखकर सार्थ को वहीं रूकने का आदेश दिया। धन्ना सार्थवाह के मुनीम मणिभ्रद ने आचार्य धर्मघोष व उनके शिष्यों को भी अपने झोपड़े में ठहरने की व्यवस्था कर दी, लेकिन वर्षा का क्रम इतना लंबा हो गया, जिससे साथ की, सारी खाद्य सामग्री समाप्त हो गई। लोग कंद मूल खाकर समय निकालने लगे।धन्ना सार्थवाह को जब इस स्थिति का पता चला तो वह विचार में पड़ गया कि ऐसी स्थिति में मुनिराजों को आहार कैसे प्राप्त हो रहा होगा। चिंतातुर स्थिति में वह सीधा चलकर मुनियों के पास आया और पश्चाताप करता हुआ आहार ग्रहण करने की प्रार्थना करने लगा। सार्थवाह को पश्चाताप करते देख आचार्य श्री के निर्देशानुसार एक शिष्य भिक्षाटन करते हुए उसके आवास पहुँच गया, अपने आवास में मुनिराज को आते देख हर्ष विभोर होते हुए साधुओं के योग्य आहार खोजने लगा लेकिन अन्य सामग्री को अप्रासुक देख चिंतित होते हुए उसकी दृष्टि पास में पड़े (प्रासुक) घी के घड़े पर पड़ी और बड़े प्रमुदित भाव से मुनिराज को ग्रहण करने का आग्रह करने लगा। मुनिराज ने झोली में से पात्र निकाला।सार्थवाह उत्कृष्ट भाव से पात्र में घी बहराने लगा, उसी समय एक देव ने उसकी उत्कृष्ट भावों की परीक्षा हेतु मुनिराज की दृष्टि बांध ली। मुनिराज का पात्र घी से भर, घी बाहर बहने लगा, फिर भी मना नहीं कर सके। सार्थवाह उत्कृष्ट भाव से बहराता ही रहा जिसके फलस्वरूप उन्हीं उत्कृष्ट परिणामों से उसने सम्यक्त्व की प्राप्ति की, वहां की आयु पूर्ण कर तीसरे भव में सौधर्म कल्प में देव बना।आयु पूर्णकर चौथे भव में महाविदेह की गन्धिलावती विजय के गान्धार देश की गंध समृद्धि नगरी के शतबल नामक विद्याधर राजा की चन्द्रकांता रानी की कुक्षि से पुत्र रूप में पैदा हुआ, जिसका नाम `महाबल’ रखा गया। यौवनास्था में उसका विवाह सम्पन्न कर राजा शतबल ने महाबल का राज्याभिषेक कर दीक्षा ग्रहण कर ली।महाबल राजा अपने एक बाल साथी व चार प्रधानों के साथ नर्तकी द्वारा किये जा रहे नृत्य में आसक्त हो रहे थे, एक बार की बात है, इधर स्वयंबुद्ध नामक मंत्री, जिसे यह ज्ञात हो चुका था कि जंघाचरण मुनि द्वारा महाबल की सिर्फ एक माह की उम्र शेष है, ने राजा के समक्ष यह बात निवेदित कर दी, इससे प्रतिबोधित होकर राजा महाबल उत्कृष्ट भाव से संयम ग्रहण करके २२ दिन के अनशन पूर्वक देह त्याग कर ५ वें भव में दुसरे देवलोक में श्रीप्रभ विमान के स्वामी ललितांग देव बने, इनकी प्रधान देवी स्वयंप्रभा थी।ज्ञानी महापुरूषों से मुनि महाबल के देवयोनि में जन्मादि विषयक रहस्य जानकर स्वयं बुद्ध मंत्री ने भी सिद्धाचार्य के पास दीक्षा ग्रहण कर ली। उत्कृष्ट आराधना के साथ आयु पूर्ण कर मुनि स्वयंबुद्ध ईशानकल्प में देव बना, इधर ललितांग देव व स्वयं प्रभादेवी वहां की आयु पुर्ण करके महाविदेह क्षेत्र की पुष्पकलावती विजय में लोहार्दगल नगर के राजा स्वर्ण जंग की महारानी लक्ष्मी की कुक्षि से वङ्काजंग नाम के पुत्र व श्रीमती नामक पुत्री के रूप में उत्पन्न हुये।यौवनावस्था में श्रीमती ने एक देव विमान को देखा, उसे देखकर जातिस्मरण ज्ञान के माध्यम से वह अपने पूर्वभव के पति का स्मरण करने लगी। पूर्वभव के पति की गहरी स्मृतियों के फलस्वरूप उसने यह प्रतिज्ञा धारण कर ली कि जब तक वे उसे नहीं मिलेंगे तब तक वह किसी से नहीं बोलेगी, यह बात उसकी पंडिता नामक दासी ने जान ली। श्रीमती की सहायता करने हेतु दासी ने इशान कल्प के ललितांग देव के विमान का कुछ त्रुटिपूर्ण चित्र बनाकर राजपथ पर टांग दिया, जिसे देखते ही वज्रजंग को भी जातिस्मरण ज्ञान हो गया और उसने उस चित्र में रही त्रुटि को दूर कर दिया, यह बात उनके पिता सवर्ण जंग को मालूम हुई तब उन्होंने दोनों की शादी कर दी। कुछ समय पश्चात् श्रीमती ने एक पुत्र को जन्म दिया, धीरे-धीरे पुत्र युवावस्था को प्राप्त होने लगा, उसको युवा होते देख रात्रि को दोनों ने उसको राज्य सौंप कर दीक्षा ग्रहण करने का विचार किया, उधर उसी रात्रि को पुत्र ने राज्य लोभ में विषाक्त धुँआ उनके महल में छोड़ दिया, फलत: दोनों ने शुभ परिणामों से अपनी आयु पूर्ण कर ७ वें भव में ३ पल्योपम की स्थिति वाले कुरूक्षेत्र के युगलिक रूप से जन्म लिया, वहां की आयु पूर्ण करके दोनों ८ वें भव में सौधर्म देवलोक में देव बने, वहां की आयु पूर्णकर ९ वें भव में वज्रजंग का जीव जंबूद्वीप के महाविदेह में क्षिति प्रतिष्ठित नगर के सुविधि वैद्य के यहां जीवानंद नामक पुत्र रूप में जन्म लिया और श्रीमती का जीव इसी नगर में श्रेष्ठि ईश्वरदत्त के पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ जिसका नाम राव रखा गया, इसी काल में राजा ईशानचंद की रानी कनकवती के भी एक पुत्र हुआ, जिसका नाम महीधर रखा गया। राजा के मंत्री सुवासीर की पत्नी लक्ष्मी के सुबुद्धि नाम का पुत्र हुआ। सागरदत्त सार्थवाह की पत्नी अभागी के पुर्णचंद्र व धनश्रेष्ठि की पत्नी शीलवती के गुणकर पुत्र हुआ, पूर्वभव की प्रीति से सब में परस्पर मित्रता हो गई। यौवनवय में जीवानंद प्रसिद्ध वैद्य बन गया।एक दिन सभी मित्रों ने जंगल में घूमते हुए एक मुनि को ध्यानस्थ देखा। मुनि का शरीर भयंकर व्याधि से ग्रस्त था, इसे देखकर परस्पर उपचार का चिंतन करने लगे। वैद्य जीवानंद बोला-“भैया इनके उपचार हेतु अन्य औषध तो मेरे पास है पर रत्न कंबल और गोशीर्ष चंदन की आवश्यकता है। पांचोें मित्रों ने बाजार में खोज की तो एक श्रेष्ठी के यहां दोनों वस्तुएँ मिल गई। मुनिराज के उपचार की बात सुनकर सेठ ने दोनों चीजें बिना मूल्य लिये ही दे दी और खुद भी सेवा में जुट गया। उपचार करने पर मुनि पूर्णत: नीरोगी हो गये, तत्पश्चात् मुनि के उपदेश से प्रभावित होकर सभी मित्रों ने उनसे संयम ग्रहण कर लिया और वे सब अनशनपूर्वक आयु पूर्ण कर दसवें भव में अच्युत कल्प के इन्द्र के सामानिक देव हुए, वहां से जीवानंद का जीव ११वें भव में जंबू द्वीप के महाविदेह क्षेत्र में पुण्डरीकिणी नगरी के वज्रसेन राजा की धारिणी रानी के गर्भ से १४ स्वप्न के साथ पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ, जिसका नाम वज्रनाभ रखा गया, शेष पांचों ने उनके लघुभ्राता रूप में जन्म लिया।वज्रनाभ के युवा होने पर वज्रसेन राजा ने उसका राज्याभिषेक कर स्वयं ने दीक्षा ग्रहण की और केवलज्ञान प्राप्त किया। वज्रनाभ सम्राट बना। छोटे भाई बाहु, सुबाहु, पीठ और महापीठ नामक मांडलिक राजा बनें। सुयश चक्रवर्ती का सारथी बना। पिता वज्रसेन के उपदेश से प्रतिबोधित हो छहों ने संयम ग्रहण किया। वज्रनाथ ने बीस बोला की आराधना से तीर्थंकर गोत्र का उपार्जन किया और अपने साथियों के साथ आयु पूर्णकर सर्वार्थ सिद्ध नामक विमान में देव बनें। विगत चौबीसी के अंतिम तीर्थंकर संप्रति के निर्वाण होने के बाद १८ कोड़ाकोड़ी सागरोपम के बीतने पर भरत क्षेत्र में तीसरे आरे के ८४ लाख पूर्व ३ वर्ष साढ़े आठ महीने शेष रहने पर, सर्वार्थ सिद्ध विमान का आयु पूर्ण कर आषाढ़ कृष्ण चतुर्दशी को उत्तराषाढ़ा नक्षत्र से चंद्र का योग होते ही प्रभु ऋषभदेव का जीव वहां से चलकर नाभि कुलकर की पत्नी मरूदेवी के गर्भ में आया, माता मरूदेवी ने हाथी वृषभादि १४ दिव्य स्वप्न देखे।गर्भ में आने के ठीक नौ महीने साढ़े सात रात्रि व्यतीत होने पर चैत्र कृष्णा अष्टमी की रात्रि को उत्तराषाढ़ा नक्षत्र से चंद्रमा का योग होने पर प्रभू ने युगलरूप से जन्म लिया। ५६ दिक्कुमारियोें व शक्रेन्द्र आदि ६४ इन्द्रों ने जन्मोत्सव मनाया, यथासमय इनका नाम ऋषभ रखा गया। इन्द्र द्वारा प्रदत्त ‘इक्षु’ चूसने से इक्ष्वाकु कुल प्रचलित हुआ, अन्य युगलिकों द्वारा ‘काश’ का रस ग्रहण करने से काश्यप गोत्र चल पड़ा, जो आज भी जारी है। विश्वस्तर पर बने रहने के लिए ‘ग्लोबल एक्स्पो’ उपयुक्त पुणे : मॅनेजमेंट क्षेत्र में टीम वर्क तथा टीम बिल्डिंग बहुत महत्वपूर्ण है, विश्वस्तर पर अपनी पहचान बनाने के लिए ग्लोबल एक्सपो जैसे उपक्रमों की जरुरत है, अच्छा व्यवस्थापक बनने के लिए विद्यार्थियों को इस उपक्रम की मदद होगी, चिकित्सक प्रवृत्ती का विकास, प्रदर्शन कौशल्य, विद्यार्थियों की संगठन भावना, कौशल और व्यवस्थापन को बढावा देने के लिए ऐसे एक्सपो महत्वपूर्ण रहेंगे। वैश्विक बाजार के लिए तैयार रहने में यह मददगार होगा, इसी बात को ध्यान में लेकर सूर्यदत्ता द्वारा नियमित रूप से विविध कार्यशाला, सेमिनार और तज्ञ मार्गदर्शन का आयोजन किया जाता है, ऐसा प्रतिपादन सूर्यदत्ता ग्रुप ऑफ इन्स्टिट्यूट के संस्थापक अध्यक्ष डॉ. संजय बी. चोरडिया ने कहा।सूर्यदत्ता इन्स्टिट्यूट्स ऑफ मॅनेजमेंट के छात्रों ने आयोजित किये गए ‘ग्लोबल एक्सपो’ में डॉ. चोरडिया बोल रहे थे, इस एक्सपो द्वारा अलग  अलग देशों के भौगोलिक, राजकीय और आर्थिक जानकारी मिली, छात्र, शिक्षक और अन्य मान्यवरों को जागतिक व्यापार, व्यावसायिक स्थिति, सामाजिक, सांस्कृतिक विशेषता और देश की राजनीतिक नीतियां समझने के लिए इस एक्स्पो से लाभ हुआ। पीजीडीएम और एमबीए के छात्रों ने इसका आयोजन किया था। पांच विद्यार्थियों के एक गुट, ऐसे २३ गुटों में छात्र विभाजित थे, हर एक गुटों ने एक -एक देश चुना और भौगोलिक-राजकीय और आर्थिक जानकारी को प्रदर्शित किया गया था, जिसके लिए सर्च इंजिन, सोशल मीडिया, एक-दूसरे से संवाद और बाजार संशोधन का उपयोग किया गया था। अमेरिका, कॅनाडा, फ्रान्स, संयुक्त अरब अमिरात, रशिया, जर्मनी, नेदरलँड, चीन, इंग्लंड इत्यादि देशों का दर्शन इस एक्सपो में दिखाया गया, इसके लिए पॉवरपॉइंट प्रदर्शन, व्हिडिओ, जानकारी आलेख, चाट्र्स, फ्लैक्स जैसे साधन सामग्री का उपयोग किया गया था, १००० से ज्यादा छात्र, कर्मचारी, अभ्यासगत और उद्योग क्षेत्रों के लोगों ने देकर छात्रों को प्रोत्साहित किया।२३ गुटों ने किये हुए प्रदर्शन की वजह से २३ देशों की जानकारी विस्तार से समझ में आई, इस एक्सपो के दौरान अंतरराष्ट्रीय अतिथियों, सहकारीयों तथा विद्यार्थी सहकारी गुटों ने मुल्यांकन किया। मनोज बर्वे – बीव्हीएमडब्लयू के (जर्मन फेडरेशन एसोसिएशन ऑफ एसएमई) भारत प्रमुख, काझुको बॅरिसिक- जापानी कलाकार और सलाहगार, टॉमियो इसोगई इंडोजापानी रिलेशनशिप के सलाहगार, आशिष जोशी- स्किल्समार्ट वल्र्ड के संचालक, मार्केट रिस्क चेंज मॅनेजमेंट के पुष्कर पानसे आदी एक्सपो को भेंट देकर विद्यार्थियों की प्रशंसा की, एक्सपो के विजेता गुट को ११,००० रुपयों का ईनाम मिला तथा दूसरे, तीसरे, चौथे और पाचवें स्थान के गुटों को क्रमश: ७००० रुपये, ५००० रुपये, ३००० रुपये और १००० रूपयों का इनाम दिया गया। फ्री मल्टी स्पैशलटी कैम्प में ३२५ मरीजों ने लिया लाभ जैन इंन्टरनैशनल ट्रेड आर्गेनाइजेशन (लेडिज़ विंग) लुधियाना चैप्टर द्वारा वर्धमान इंन्टरनैशनल पब्लिक स्कूल ३८ सैक्टर चंडीगढ़ रोड में एक विशाल फ्री मल्टी स्पैशलटी कैम्प का आयोजन मोहन भाई ओसवाल अस्पताल के सहयोग से किया गया। कैम्प का शुभारम्भ महामंत्र नवकार के सामुहिक उच्चारण से शुरू किया गया, यह कैम्प डॉ. तेजिंदर कौर (स्त्री रोग), डॉ. गीति पुरी अरोड़ा (इंट मेडिसिन एंड डायबेटोलॉजी), डॉ. परवीन गुप्ता (ऑर्थो), डॉ. मनिंदर सिंह (पेडेट्रिक्स), डॉ. वैशाली मारिया (डेंटिस्ट) डॉ. जसप्रीत (डायटेटिक्स), राकेश शर्मा एचआर हेड, वीना शर्मा (नर्सिंग हेड) आदि की देख-रेख में चला, कैम्प में लगभग ३२५ मरीजों ने लाभ लिया, जिसमें फ्री चैकअप, फ्री शुगर चैक, फ्री दवाइयां भी दी गई, इस मौके पर जीतो लेडिज विंग की चेयरपर्सन अभिलाष ओसवाल, महामंत्री सोनिया जैन, कोषाध्यक्ष रंजना जैन, उप-प्रधान मंजु ओसवाल, करूणा जैन, ओसवाल जैन, सीरत जैन, एकता जैन, भाणु जैन, कंचन जैन, शालु जैन, श्वेता जैन, अर्चणा जैन, शिवानी जैन, रीचा जैन, मंजू सिंघी, रूबी जैन, रूचिका जैन, मीनू जैन, नीशु जैन, सुची जैन, नमीता जैन, नीतु जैन, नीरा जैन, श्रेया जैन, निधी जैन, रेखा जैन, जीतो लुधियाना चैप्टर के मंत्री राकेश जैन, तरूण जैन एवं वर्धमान स्कूल की प्रिंसिपल डा. अनिमा जैन, मैनेजर संजीव जैन, विजय जैन, अलका जैन, हर्ष जैन, इकबाल सिंह आदि गणमान्य उपस्थित थे। -अभिलाष ओसवाल चेयरपर्सन-लेडिज विंग जीतो के सेवा कार्य अनुमोदनीय अहमदाबाद: रविवार ३ मार्च के रोज समग्र भारतवर्ष की जैन कम्युनिटी की अम्ब्रेला संस्था के अहमदाबाद चैप्टर ने ‘लक्ष्य’ नाम के कार्यक्रम का आयोजन अहमदाबाद के यूनिवर्सिटी कन्वेंशन हॉल में किया, जिसमें २००० से भी ज्यादा लोग उपस्थित रहे, कार्यक्रम के अंतर्गत, भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रिय अध्यक्ष अमितभाई शाह, बी.जे.पी. गुजरात अध्यक्ष जीतूभाई वाघाणी, नामांकित उद्योगपति सुधीरभाई मेहता (टोरेंट ग्रुप), राजेशभाई अदाणी (अदाणी ग्रुप), भारतीय माइनॉरिटी कमीशन के सदस्य सुनील सिंघी उपस्थित थे, जीतो अहमदाबाद ने अपने कई सारे प्रोजेक्ट्स की घोषणा की।जीतो अहमदाबाद की और से जरूरतमंद जैन परिवारों के लिए सौ करोड़ से भी ज्यादा लागत से ५४० फ्लैट्स बनाये जाएंगे जो जैन परिवारों को काफी किफायती कीमत से दिए जाएंगे।‘जीतो’ अहमदाबाद, शहर के मध्य में एक हॉस्टल का निर्माण भी करेगा जिसमें जैन विद्यार्थी एवं विद्यार्थिनी सुन्दर एवं आध्यात्मिक वातावरण में, सम्पूर्ण आवश्यक सहूलियतों के बिच रह कर, शिक्षा का स्वप्न पूर्ण कर सकेंगे।‘जीतो’ अहमदाबाद ने ‘लक्ष्य’ के इस प्रसंग पर यह भी घोषित किया गया कि जीतो ने कश्मीर के पुलवामा में हुए आतंकवादी हमले में शहीद हुए सिपाही परिवारों के लिए ३.१५ करोड़ की राशि एकत्र की है जो इन परिवारों को दी जाएगी। जन-सेवा के इस शुभ अवसर पर ‘जीतो’ अहमदाबाद के चेयरमैन जिगिषभाई दोशी, जीतो अपैक्स के अध्यक्ष गणपतराज चौधरी, जीतो श्रमण आरोग्यम के चेयरमैन हिमांशु शाह ने ‘जीतो’ के बारे में कई सारी अन्य जानकारी भी दी।इस शुभ प्रसंग पर जीतो के प्रोजेक्ट जो कि प्रतिभा सम्पन्न विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करने के लिए एवं उन्हें जरुरी सहूलियत प्रदान करने के लिए तैयार किया गया है, इसमें १२ दाताओं ने अपना योगदान घोषित किया एवं जीतो के साधू एवं साध्वी भगवंत की स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए बनाये गए श्रमण आरोग्यम में ८ दाताओं ने अपना योगदान घोषित किया, इस शुभ अवसर पुरे भारत भर से जीतो अपैक्स के कई सारे पदाधिकारी भी उपस्थित थे जिन्होंने जैन सेवा कार्यों को अनुमोदन दिया। जीतो के सेवाकार्यों के लिए भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रिय अध्यक्ष अमित शाह ने तारीफ की। अमित शाह राष्ट्रिय अध्यक्ष भाजपा जीवन में हेड, हार्ट और हैंड को सदा पवित्र रखें जोधपुर: राष्ट्र-संत चन्द्रप्रभ महाराज ने कहा कि जीवन में तीन चीज को हमेशा पवित्र रखिए – हैड, हार्ट और हेंड। हैड में रखिए निर्मल विचार, हैंड में रखिए ईमानदारी और हार्ट में रखिए करुणा और प्यार, उन्होंने कहा कि अगर आप संसार के एटीएम से प्रेम, शांति और आनंद का धन निकालना चाहते हैं तो उसका पासवर्ड है ध्यान और प्रार्थना। ध्यान आपको खुद से जोड़ेगा और प्रार्थना आपको परमात्मा से, उन्होंने कहा कि उस स्वर्ग को पाने के लिए धर्म की पनाह मत लीजिए, जो मरने के बाद हमें कहीं और स्वर्ग दिखाए, बल्कि धर्म को जीवन में इसलिए अख्तियार कीजिए कि हमारी खुद की धरती स्वर्ग बने। जीवन में ६० साल की उम्र तक तरक्की के लिए हर क्षेत्र में मेहनत का इस्तेमाल कीजिए, पर साठ के बाद स्वयं को मुक्ति की ओर ले जाएँ, याद रखें, आवश्यकताओं को पूरा कीजिए, पर इच्छाओं पर अंकुश लगाइए। आवश्यकताएँ तो फकीर की भी पूरी हो जाती हैं, जबकि इच्छाएँ सम्राट की भी अधूरी रह जाती हैं।संतप्रवर कायलाना रोड स्थित संबोधि धाम में ध्यान योग शिविर के समापन पर आयोजित मंगल मैत्री महोत्सव में भाई-बहनों को संबोधित कर रहे थे, उन्होंने कहा कि महीने में चाहे एक बार ही सही, संतजनों की संगत अवश्य कीजिए। संतों की संगत उस इत्र की तरह होती है, जिसे भले ही बदन पर न लगाएँ, तब भी उसकी महक से दिल अवश्य ही आनंदित होता है, याद रखना, भगवान चित्र में नहीं, चरित्र में निवास करते हैं। चित्र तो गधे का भी सुन्दर हो सकता है, पर चरित्र को सुन्दर बनाने के लिए इंसान का अच्छा होना जरूरी है, उन्होंने कहा कि खान-पान शुद्ध रखिए, इससे आपका खानदान शुद्ध रहेगा।रहन-सहन पवित्र रखिए, इससे आपका चरित्र शुद्ध रहेगा। विचार निर्मल रखिए, इससे आपके संस्कार शुद्ध रहेंगे, आपसे कोई धर्म-कर्म नहीं होता तो कोई बात नहीं, आप कभी किसी की निंदा मत कीजिए, केवल इस एक पुण्य के कारण आपका मरने के बाद देवलोक का इन्द्र बनना तय है, उन्होंने कहा कि सोने से पहले आप किसी की एक गलती को माफ करने का बड़प्पन दिखाइए, भगवान आपके जागने से पहले आपकी १०० गलतियों को माफ करने की उदारता अवश्य दिखाएँगे, यदि कोई आपका दिल दुखाए तो यह सोचकर मन में धैर्य और शांति धारण करें कि पत्थर अक्सर उसी पेड़ पर मारे जाते हैं, जिस पर फल लदे होते हैं, उन्होंने कहा कि आप सच बोलिए, सच बोलने से आज भले ही खतरा हो, पर सत्य एक दिन आपके सम्मान और विश्वास को पहले से सौ गुना अधिक मजबूती से लौटा लाएगा। कोई गाली दे तो आप स्माइल दीजिए, कोई गंदगी करे तो आप सफाई कीजिए, आपके व्यवहार से उसे शर्म महसूस होगी, आपकी अहिंसा उसे सत्य-पथ पर ले आएगी।उन्होंने कहा कि कभी – कभी आँखें बंद करके साँस की गति को धीमी करते हुए दिमाग में चलने वाली तरंगों को शांत करने का अभ्यास कीजिए। मात्र २१ दिन में आप शांति और सहज आनंद के साम्राज्य में प्रवेश पा लेंगे। राष्ट्र-संत चन्द्रप्रभ वर्षीतप के आराधकों की हस्तिनापुर तीर्थ यात्रा राजगढ़: दादा गुरुदेव की पाट परम्परा के अष्टम पट्टधर वर्तमान गच्छाधिपति आचार्य देवेश श्रीमद्विजय ऋषभचंद्रसूरीश्वरजी म. सा. के सदुपदेश से राजगढ़ नगर में ६० आराधक वर्षीतप की आराधना में लीन रहे, इन सभी तपस्वियों को हस्तिनापुर की यात्रा करवाने का लाभ राजगढ़ निवासी शेलेन्द्र कुमार शेतानमल जी जैन परिवार ने प्राप्त किया। आचार्य श्री के मंगलाचरण के बाद मुनिराज पुष्पेंद्रविजयजी म.सा. ने सभी आराधकों को हस्तिनापुर तीर्थ यात्रा क्यों की जाती हैं इसका महत्व विस्तार से बताया। आचार्य श्री ने सभी आराधकों को मांगलिक का श्रवण करवाकर सभी को आशीर्वाद प्रदान किया, इस अवसर पर श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वे. पेढ़ी ट्रस्ट की ओर से मैनेजिंग ट्रस्टी सुजानमल सेठ, महाप्रबन्धक अर्जुनप्रसाद मेहता, सन्तोष चत्तर, सेवंतीलाल मोदी, राजेन्द्र खजांची, दिलीप भंडारी, नरेंद्र भंडारी पार्षद आदि वरिष्ठ समाजजनों ने लाभार्थी श्री शेलेन्द्रकुमार शेतानमल जैन परिवार का ट्रस्ट की ओर से बहुमान किया गया आराधकों को यात्रा के लिये शुभकामना दी गयी।

महावीर स्वामी का संक्षिप्त जीवन परिचय

पूरे भारत वर्ष में महावीर जन्म कल्याणक पर्व जैन समाज द्वारा उत्सव के रूप में मनाया जाता है। जैन समाज द्वारा मनाए जाने वाले इस त्यौहार को महावीर जयंती के साथ-साथ महावीर जन्म कल्याणक नाम से भी जानते हैं, महावीर जन्म कल्याणक हर वर्ष चैत्र माह के १३ वें दिन मनाई जाती है, जो हमारे वर्किंग केलेन्डर के हिसाब से मार्च या अप्रैल में आता है, इस दिन हर तरह के जैन दिगम्बर-श्वेताम्बर आदि एकसाथ मिलकर इस उत्सव को मनाते हैं, भगवान महावीर के जन्म उत्सव के रूप में मनाए जाने वाले इस त्यौहार में पूरे भारत में सरकारी छुट्टी घोषित की गयी है।जैन धर्म के प्रवर्तक भगवान महावीर का जीवन उनके जन्म के ढाई हजार साल से उनके लाखों अनुयायियों के साथ ही पूरी दुनिया को अहिंसा का पाठ पढ़ा रहा है, पंचशील सिद्धान्त के प्रर्वतक और जैन धर्म के चौबिसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी अहिंसा के प्रमुख ध्‍वजवाहकों में हैं, जैन ग्रंथों के अनुसार २३वें तीर्थंकर पाश्र्वनाथ जी के मोक्ष प्राप्ति के बाद २९८ वर्ष बाद महावीर स्वामी का जन्म‍ ऐसे युग में हुआ, जहां पशु‍बलि, हिंसा और जाति-पाति के भेदभाव का अंधविश्वास जारी था।महावीर स्वामी के जीवन को लेकर श्वेताम्बर और दिगम्बर जैनियों में कई तरह के अलग-अलग तथ्य हैं: भगवान महावीर के जन्म और जीवन की जानकारी भगवान महावीर का जन्म लगभग ६०० वर्ष पूर्व चैत्र शुक्ल त्रयोदशी के दिन क्षत्रियकुण्ड नगर में हुआ, भगवान महावीर की माता का नाम महारानी त्रिशला और पिता का नाम महाराज सिद्धार्थ थे, भगवान महावीर कई नामों से जाने गए उनके कुछ प्रमुख नाम वर्धमान, महावीर, सन्मति, श्रमण आदि हैं, महावीर स्वामी के भाई नंदिवर्धन और बहन सुदर्शना थी, बचपन से ही महावीर तेजस्वी और साहसी थे, किंवदंतियोंनुसार शिक्षा पूरी होने के बाद इनके माता-पिता ने इनका विवाह राजकुमारी यशोदा के साथ कर दिया गया था।भगवान महावीर का जन्म एक साधारण बालक के रूप में हुआ था, इन्होंने अपनी कठिन तपस्या से अपने जीवन को अनूठा बनाया, महावीर स्वामी के जीवन के हर चरण में एक कथा व्याप्त है, हम यहां उनके जीवन से जुड़े कुछ चरणों तथा उसमें निहित कथाओं को उल्लेखित कर रहे हैं: महावीर स्वामी जन्म और नामकरण संस्कार :महावीर स्वामी के जन्म के समय क्षत्रियकुण्ड गांव में दस दिनों तक उत्सव मनाया गया, सारे मित्रों-भाई बंधुओं को आमंत्रित किया गया तथा उनका खूब सत्कार किया गया, राजा सिद्धार्थ का कहना था कि जब से महावीर का जन्म उनके परिवार में हुआ है, तब से उनके धन-धान्य कोष भंडार बल आदि सभी राजकीय साधनों में बहुत ही वृध्दी हुई है, उन्होंने सबकी सहमति से अपने पुत्र का नाम वर्द्धमान रखा।महावीर स्वामी का विवाह:कहा जाता है कि महावीर स्वामी अन्तर्मुखी स्वभाव के थे, शुरुवात से ही उन्हें संसार के भोगों में कोई रुचि नहीं थी, परंतु माता-पिता की इच्छा के कारण उन्होंने वसंतपुर के महासामन्त समरवीर की पुत्री यशोदा के साथ विवाह किया, कहीं-कहीं लिखा हुआ यह भी मिलता है कि उनकी एक पुत्री हुई, जिसका नाम प्रियदर्शना रखा गया था। महावीर स्वामी का वैराग्य:महावीर स्वामी के माता-पिता की मृत्यु के पश्चात उनके मन में वैराग्य लेने की इच्छा जागृत हुई, परंतु जब उन्होंने इसके लिए अपने बड़े भाई से आज्ञा मांगी तो भाई ने कुछ समय रुकने का आग्रह किया, तब महावीर ने अपने भाई की आज्ञा का मान रखते हुये २ वर्ष पश्चात ३० वर्ष की आयु में वैराग्य लिया, इतनी कम आयु में घर का त्याग कर ‘केशलोच’ के पश्चात जंगल में रहने लगे, १२ वर्ष के कठोर तप के बाद जम्बक में ऋजुपालिका नदी के तट पर एक साल्व वृक्ष के नीचे सच्चा ज्ञान प्राप्त हुआ, इसके बाद उन्हें ‘केवलि’ नाम से जाना गया तथा उनके उपदेश चारों और फैलने लगे, बड़े-बड़े राजा महावीर स्वा‍मी के अनुयायी बनें, उनमें से बिम्बिसार भी एक थे। ३० वर्ष तक महावीर स्वामी ने त्याग, प्रेम और अहिंसा का संदेश फैलाया और बाद में वे जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर बनें और विश्व के श्रेष्ठ तीर्थंकरों में शुमार हुए।उपसर्ग, अभिग्रह, केवलज्ञान:तीस वर्ष की आयु में महावीर स्वामी ने पूर्ण संयम के साथ श्रमण बन गये, तथा दीक्षा लेते ही उन्हें मन पर्याय का ज्ञान हो गया, दीक्षा लेने के बाद महावीर स्वामी ने बहुत कठिन तपस्या की और विभिन्न कठिन उपसर्गों को समता भाव से ग्रहण किया।साधना के बारहवें वर्ष में महावीर स्वामी जी मेढ़िया ग्राम से कोशम्बी आए तब उन्होंने पौष कृष्णा प्रतिपदा के दिन एक बहुत ही कठिन अभिग्रह धारण किया, इसके पश्चात साढ़े बारह वर्ष की कठिन तपस्या और साधना के बाद ऋजुबालिका नदी के किनारे महावीर स्वामी जी शाल वृक्ष के नीचे वैशाख शुक्ल दशमी के दिन केवल ज्ञान- केवल दर्शन की उपलब्धि हुई। महावीर और जैन धर्ममहावीर को वीर, अतिवीर और स न्मती के नाम से भी जाना जाता है, वे महावीर स्वामी ही थे, जिनके कारण २३वें तीर्थंकर पाश्र्वनाथ द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों ने एक विशाल धर्म ‘जैन धर्म’ का रूप धारण किया। भगवान महावीर के जन्म स्थान को लेकर विद्वानों में कई मत प्रचलित हैं, लेकिन उनके भारत में अवतरण को लेकर एकमत है, वे भगवान महावीर के कार्यकाल को ईराक के जराथ्रुस्ट, फिलिस्तीन के जिरेमिया, चीन के कन्फ्यूसियस तथा लाओत्से और युनान के पाइथोगोरस, प्लेटो और सुकरात के समकालीन मानते हैं, भारत वर्ष को भगवान महावीर ने गहरे तक प्रभावित किया, उनकी शिक्षाओं से तत्कालीन राजवंश खासे प्रभावित हुए और ढेरों राजाओं ने जैन धर्म को अपना राजधर्म बनाया, बिम्बसार और चंद्रगुप्त मौर्य का नाम इन राजवंशों में प्रमुखता से लिया जा सकता है, जो जैन धर्म के अनुयायी बने। भगवान महावीर ने अहिंसा को जैन धर्म का आधार बनाया, उन्होंने तत्कालीन हिन्दु समाज में व्याप्त जाति व्यवस्था का विरोध किया और सबको समान मानने पर जोर दिया, उन्होंने ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धान्त पर जोर दिया, सबको एक समान नजर में देखने वाले तीर्थंकर महावीर अहिंसा और अपरिग्रह के साक्षात मूर्ति थे, वे किसी को भी कोई दु:ख नहीं देना चाहते थे।महावीर स्वामी के उपदेश :भगवान महावीर ने अहिंसा, तप, संयम, पांच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ती, अनेकान्त, अपरिग्रह एवं आत्मवाद का संदेश दिया। महावीर स्वामी ने यज्ञ के नाम पर होने वाले पशु-पक्षी तथा नर की बली का पूर्ण रूप से विरोध किया तथा सभी जाती और धर्म के लोगों को धर्म पालन का अधिकार बतलाया, महावीर स्वामी ने उस समय जातीपाति और लिंग भेद को मिटाने के लिए उपदेश दिये।निर्वाण :कार्तिक मास की अमावस्या को रात्री के समय महावीर स्वामी निर्वाण को प्राप्त हुये, निर्वाण के समय भगवान महावीर स्वामी की आयु ७२ वर्ष की थी। विशेष तथ्य: भगवान महावीर भगवान महावीर के जिओ और जीने दो के सिद्धान्त को जन-जन तक पहुंचाने के लिए जैन धर्म के अनुयायी भगवान महावीर के निर्वाण दिवस को हर वर्ष कार्तिक पूर्णिमा को त्यौहार की तरह मनाते हैं, इस अवसर पर वह दीपक प्रज्वलित करते हैं। जैन धर्म के अनुयायियों के लिए उन्होंने पांच व्रत दिए, जिसमें अहिंसा, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह बताया गया। अपनी सभी इंन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लेने की वजह से वे जितेन्द्रिय या ‘जिन’ कहलाए। जिन से ही जैन धर्म को अपना नाम मिला। जैन धर्म के गुरूओं के अनुसार भगवान महावीर के कुल ११ गणधर थे, जिनमें गौतम स्वामी पहले गणधर थे। भगवान महावीर ने ५२७ ईसा पूर्व कार्तिक कृष्णा द्वितीया तिथि को अपनी देह का त्याग किया, देह त्याग के समय उनकी आयू ७२ वर्ष थी। बिहार के पावापूरी जहां उन्होंने अपनी देह को छोड़ा, जैन अनुयायियों के लिए यह पवित्र स्थल की तरह पूजित किया जाता है। भगवान महावीर की मृत्यु के दो सौ साल बाद, जैन धर्म श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायों में बंट गया। दिगम्बर सम्प्रदाय के जैन संत वस्त्रों का त्याग कर देते हैं, इसलिए दिगम्बर कहलाते हैं जबकि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के संत श्वेत वस्त्र धारण करते हैं। भगवान महावीर स्वामी की शिक्षाएं: भगवान महावीर द्वारा दिए गए पंच शील सिद्धान्त ही जैन धर्म का आधार बने है, इस सिद्धान्त को अपना कर ही एक अनुयायी सच्चा जैन अनुयायी बन सकता है, सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को पंचशील कहा जाता है।सत्य – भगवान महावीर ने सत्य को महान बताया है, उनके अनुसार, सत्य इस दुनिया में सबसे शक्तिशाली है और एक अच्छे इंसान को किसी भी हालत में सच का साथ नहीं छोड़ना चाहिए, एक बेहतर इंसान बनने के लिए जरूरी है कि हर परिस्थिति में सच बोला जाए।अहिंसा – दूसरों के प्रति हिंसा की भावना नहीं रखनी चाहिए, जितना प्रेम हम खुद से करते हैं उतना ही प्रेम दूसरों से भी करें, अहिंसा का पालन करें।अस्तेय – दूसरों की वस्तुओं को चुराना और दूसरों की चीजों की इच्छा करना महापाप है, जो मिला है उसमें ही संतुष्ट रहें।ब्रह्मचर्य – तीर्थंकर महावीर के अनुसार जीवन में ब्रहमचर्य का पालन करना सबसे कठिन है, जो भी मनुष्य इसको अपने जीवन में स्थान देता है, वो मोक्ष प्राप्त करता है।अपरिग्रह – ये दुनिया नश्वर है. चीजों के प्रति मोह ही आपके दु:खों को कारण है. सच्चे इंसान किसी भी सांसारिक चीज का मोह नहीं करते।१. कर्म किसी को भी नहीं छोड़ते, ऐसा समझकर कर्म बांधने से भय रखो।२. तीर्थंकर स्वयं घर का त्याग कर साधू धर्म स्वीकारते हैं तो फिर बिना धर्म किए हमारा कल्याण कैसे हो?३. भगवान ने जब इतनी उग्र तपस्या की तो हमें भी शक्ति अनुसार तपस्या करनी चाहिए।४. भगवान ने सामने जाकर उपसर्ग सहे तो कम से कम हमें अपने सामने आए उपसर्गों को समता से सहन करना चाहिए। वर्ष २०१९ में महावीर जन्म कल्याणक पर्व कब है?वर्ष २०१९ में महावीर जन्म कल्याणक १७ अप्रैल, बुधवार के दिन मनाई जाएगी, जहां भी जैनों के मंदिर है, वहां इस दिन विशेष आयोजन किए जाते हैं परंतु महावीर जन्म कल्याणक अधिकतर त्योहारों से अलग, बहुत ही शांत माहौल में विशेष पूजा अर्चना द्वारा मनाया जाता है, इस दिन भगवान महावीर का विशेष अभिषेक किया जाता है तथा जैन बंधुओं द्वारा अपने मंदिरों में जाकर विशेष ध्यान और प्रार्थना की जाती है, इस दिन हर जैन मंदिर मे अपनी शक्ति अनुसार गरीबो मे दान दक्षिणा का विशेष महत्व है. भारत मे गुजरात, राजेस्थान, बिहार और कोलकाता मे उपस्थित प्रसिध्द मंदिरों में यह उत्सव विशेष रूप से मनाया जाता है। महावीर स्वामी के जैन धर्म का इतिहास महावीर स्वामी, जिन्हें वर्धमान भी कहते हैं, २४वें और अंतिम तीर्थंकर थे। जैन धर्म में तीर्थंकर एक सर्वज्ञानी गुरु होता है जो धर्म का पाठ पढाता है तथा पुनर्जन्म और स्थानांतर गमन के बीच पुल का निर्माण करता है। ब्रह्मांडीय समय चक्र के हर अर्ध भाग तक में आज तक २४ तीर्थंकर हुए। महावीर स्वामी अवसरपाणी के अंतिम तीर्थंकर थे। महावीर का जन्म शाही परिवार में हुआ और बाद में घर छोड़ कर आध्यात्म की खोज में चले गये और साधू बन गये, कई वर्षों की कठोर तपस्या के बाद भगवान महावीर सर्वज्ञानी बने और ७२ वर्ष की उम्र में मोक्ष को प्राप्त हो गये। जैन धर्म के सिद्धांतों को पुरे विश्व में फैलाया।महावीर स्वामी का जन्म राजसी क्षत्रिय परिवार में हुआ था, उनके पिता का नाम सिद्धार्थ और माता का नाम त्रिशला था। उनका जन्म वीर निर्वाण संवत पंचांग के अनुसार चढ़ते चन्द्रमा के १३वें दिन हुआ था और ग्रेगोरियन पंचाग के अनुसार यह दिवस मार्च या अप्रैल में पड़ता है जिसे ‘महावीर जयंती’ के रूप में भी मनाया जाता है। उनका गोत्र कश्यप था। वैशाली के पुराने शहर कुंडलपूर को उनका जन्म स्थान बताया गया है।राजा के पुत्र होते हुए महावीर ने सारे सुख और वैभव का आनंद लिया। माता-पिता भगवान पाश्र्वनाथ के स-ख्त अनुयायी थे। जैन परम्परा में उनके वैवाहिक जीवन के बारे में सर्वसम्मत नहीं है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार महावीर के पिता की इच्छा थी कि उनकी शादी यशोदा से हो, लेकिन उन्होंने मना कर दिया, श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार उन्होंने यशोदा से विवाह किया था और उनके एक पुत्री भी थी, जिसका नाम प्रियदर्शना था।तीर्थंकर महावीर का सन्यास और सर्वज्ञता का ज्ञान: ३० वर्ष की उम्र में उन्होंने सारे धन वैभव त्यागकर घर छोड़कर चले गये और आध्यात्मिक जागृति की खोज में तपस्वी जीवन बिताने लगे, वे कुंडलपुर के निकट संदावन नामक एक बाग़ में गये, वहॉ पर उन्होंने बिना कपड़ों के अशोक के पेड़ के नीचे कठोर तपस्या की। आचारंग सूत्र में उनके कठिनाइयों और अपमान को दर्शाया गया है। बंगाल के पूर्वी भाग में वे बड़ी पीड़ाओं से गुजरे। बच्चों ने उन पर पत्थर फेंके और लोगों ने उनको अपमानित किया। कल्पसूत्र के अनुसार अस्तिग्राम, चम्पापुरी, प्रस्तिचम्पा, वैशाली, वाणीजग्रम, नालंदा, मिथिला, भद्रिका, अलाभिका, पनिताभूमि, श्रस्वती और पावनपुरी में उन्होंने अपने तपस्वी जीवन के ४२ मानसून गुजारे।१२ वर्षों की कठिन तपस्या के बाद ४२ वर्ष की उम्र में उनको केवली जन्म की अवस्था प्राप्त हुयी, जिसका अर्थ है अलगाव-एकीकरण का ज्ञान, इससे उन्हें सर्वज्ञता के तात्पर्य का ज्ञान हुआ और बौधिक ज्ञान से छुटकारा मिला, ये ज्ञान रजुपल्लिका नदी के किनारे एक शाल के पेड़ के नीचे हुआ। सूत्रक्रितंग में महावीर की सारी खूबियों और ज्ञान को बताया गया है। ३० साल की सर्वज्ञता के बाद महावीर भारत और अन्य देशों में घुमे और दर्शन शादाा का ज्ञान दिया, परम्परा के अनुसार महावीर के १४,००० योगी, ३६,००० मठवासिनी, १५९,००० श्रावक ३१८,००० श्राविका अनुयायी बने, कुछ शाही परिवार भी उनके अनुयाई बने थे। महावीर स्वामी को मोक्ष : जैन ग्रंथों के अनुसार महावीर ने मोक्ष प्राप्त किया, क्योंकि उनकी आत्मा सिद्ध हो गयी थी, उसी दिन उनके मुख्य अनुयायी गांधार ने केवली जन्म लिया, मह्मपुराण के अनुसार तीर्थंकरों के निर्वाण के बाद देवताओं ने उनका अंतिम संस्कार किया, एक ग्रन्थ के अनुसार तीर्थंकर महावीर के केवल नाख़ून और बाल बच गये थे और बाकी शरीर  हवा में घुल गया था। महावीर को चित्रों में शेर के चिन्ह के साथ ध्यान मुद्रा में दर्शाया गया है, जिस जगह से तीर्थंकर महावीर ने मोक्ष प्राप्त किया था वहॉ पर जलमन्दिर नाम से जैन मन्दिर बना है।महावीर स्वामी के पिछले अवतार:भगवान महावीर जैन धर्म के २४वें और अंतिम तीर्थंकर हैं, उन्होंने बहुमुखी व्यक्तित्व का विकास किया था, उनकी आत्मा के सारे गुण और शक्तियां जागृत और सक्रीय थे, उनके पास अनंत शक्ति के अलावा अनंत करुणांभी थी। आत्मा की इन असीम शक्तियों से वो एक पूर्ण विकसित और मिश्रित इन्सान बने, लेकिन भगवान महावीर स्वामी के भव्यता और महानता के बीज सुदूर अतीत में बो दिए गये थे, उनके पिछले कई जन्मों में वो कठोर तपस्या,परोपकारिता में लिप्त और गहरे ध्यान का अभ्यास कर रहे थे, इस दृष्टि से जैन धर्म को समझने के लिए उनके पिछले अवतारों के बारे में जानना भी आवश्यक है, इस कड़ी में उनकी पहली घटना को ‘धर्म का पहला स्पर्श’ कहा जाता है, सूत्रोनूसार ये भगवान महावीर की आत्मा के २७वें अवतार से पहले की बात है।सही ज्ञान की पहली झलक : नयासर में २७वें जन्म से पहले भगवान महावीर स्वामी ने पश्चिम महाविदेह क्षेत्र में प्रतिष्ठान शहर में राजा शत्रुमर्धन के यहां नयासर नामक वनपाल थे, वो जंगल से लकड़ियां काटकर निर्माण प्रयोजनों के लिए लेकर जाते थे, एक दिन दोपहर में सभी मजदूर मध्याहन-भोजन करने के पश्चात विश्राम कर रहे थे। नयासर भी एक वृक्ष के नीचे बैठ कर भोजन ग्रहण करने के लिए बैठे थे, जैसे ही वो भोजन ग्रहण करने वाले थे तभी उनको निकट की पहाड़ियों से कुछ सन्यासी भटकते दिखे। नयासर ने सोचा कि ये सन्यासी बिना भोजन और पानी के इस कड़ी धुप में भटक रहे हैं, इसलिए अगर वो इस तरफ आयेंगे तो मैं उनको अपने भोजन का हिस्सा दूँगा, इस तरह मेहमानों की सेवा से लाभान्वित होकर मेरा आज का दिन सफल हो जाएगा। अबोध नयासर ने साधुओं को उनकी ओर आते देखा और उनके आने पर गहरी भक्ति से उन्हें भोजन कराया, जब वे नगर की ओर रवाना होने लगे, नयासर भी कुछ दूर तक उनके साथ चलने लगे, जब नयासर नतमस्तक होकर उनसे विदा लेने के लिए झुके तो उन साधुओं ने उनको सच्चे मार्ग , करुणा, दया, सादगी, विनम्रता और धैर्य के सरल उपदेश दिए। नयासर प्रबुद्ध हो गये और धर्म का बीज उनके मन में अंकुरित हो गया, उनके आध्यात्मिक विकास का ये पहला बिंदु था जब उन्होंने भ्रम के अंधेरे से आध्यात्मिक प्रकाश की पहली झलक को देखा। भगवान महावीर स्वामी की आत्मा के पहले अवतार की गिनती यहां से शुरू होती है। महावीर स्वामी का तीसरा अवतार : मरिची नयासर की आत्मा ने सौधर्म कल्प के रूप में एक भगवान की तरह पुनर्जन्म लिया, इसके बाद उन्होंने तीसरा जन्म अयोध्या के चक्रवर्ती भरत के पुत्र मरीचि के रूप में लिया।भगवान ऋषभदेव का पहला प्रवचन सुनकर वो श्रमण बन गये लेकिन वो कठोर तपस्वी नियम नहीं अपना सकते थे इसलिए उन्होंने श्रमण के वस्त्र त्याग दिए और श्रमण सिद्दांतों के कठोर नियमों में ऐच्छिक बदलाव कर त्रिदंडी परिवर्जक भिक्षुओं का एक वर्ग बनाया, इस तरह उन्होंने एक छाता और खड़ाऊँ पहनकर रहना शुरू कर दिया, वो प्रतिदिन नहा धोकर चन्दन का लेप लगाते थे, हालांकि अभी भी वो भगवान ऋषभदेव का मार्ग सही मानते थे, भगवान ऋषभदेव के समवसरन में बैठ जाते और अपनी वेशभूषा के बारे में पूछने पर अपनी कमजोरी स्वीकार कर लेते और आस-पास के लोगों को श्रमण धर्म अपनाने के लिए प्रेरित करते।एक दिन चक्रवर्ती भरत ने भगवान ऋषभदेव से पुछा ‘प्रभु क्या आपकी तरह दिव्य आत्मा मौजूद है जो आपकी तरह तीर्थंकर बन सकती है’ भगवान ऋषभदेव ने जवाब दिया ‘भरत ! इस धार्मिक मण्डली से बाहर परिवर्जक के वेश में तुम्हारा पुत्र बनेगा’ कई वर्षों तक कठोर तपस्याओं के बाद वो इस चक्र का अंतिम तीर्थंकर बनेगा, उसके मरीचि से महावीर बनने के दौरान वो एक जन्म में त्रिपरिष्ठ वासुदेव और दुसरे में प्रियमित्र चक्रवर्ती भी बनेगा। भगवान ऋषभदेव की ये बातें सुनकर अपने पुत्र मरीचि की आत्मा के उज्ज्वल भविष्य को जानकर स्तब्ध रह गए और खुशी मनाने लगे, इस सुचना को लेकर वो मरीचि के पास गये और कहा ‘मरीचि, तुम बहुत भाग्यशाली हो, मैं तुम्हें भविष्य के तीर्थंकर के रूप में अभिवादन करता हॅू।मरीचि भगवान ऋषभदेव की इस भविष्वाणी को सुनकर बहुत खुश हुए और उनकी खुशी की सीमा नहीं रही, लेकिन उसी समय वो अपने वंश के वैभव के बारे में भी सोचने लगे और अपने वंश के लिये गौरवान्वित होते हुए कहा कि ‘मेरा वंश कितना महान है, मेरे पितामह पहले तीर्थंकर हैं, मेरे पिताजी चक्रवर्ती हैं और मैं वासुदेव बनुंगा, इस चक्र के अंत में अंतिम तीर्थंकर बनूंगा, धीरे-धीरे वो आध्यात्मिक उत्कृष्टता की उâचाइयों की ओर सरकने लगे और जातीय वर्चस्व की अहंकार में गोते खाने लगे।जैन धर्म के अनुसार मरीचि परिवर्जक विद्यालयों के संस्थापक थे, मरीचि का कहना था कि श्रमण! मन, वाणी और शरीर की विकृतियों से मुक्त होते हैं लेकिन परिवर्जक के पास ये सब चीजें थी। परिवर्जकों ने त्रिशूल को अपना चिन्ह बनाकर अपने साथ रखने लगे, उनके जीवन के अंतिम दिनों में उन्होंने राजकुमार कपिल को अपना अनुयायी बनाया और कपिल ने उनके मार्ग पर चलते हुए परिवर्जक विद्यालय बनाये। महावीर स्वामी का १६वां अवतार विश्वभूती: मरीचि की आत्मा मनुष्य जन्म से भगवान की तरफ चलायमान हुयी और फिर वैकल्पिक रूप से १२ अवतार बाद आयी, जब उन्होंने मनुष्य रूप में जन्म लिया तो कई बार परिवर्जक बने और कई तपस्यायें की, उनके १६वें अवतार में वो राजगृह के राजा विश्वनंदी के भतीजे राजकुमार विश्वभुती के रूप में जन्म लिया और तपस्वी बनकर अपनी अन्तिम सांस तक कठोर तपस्या करते रहे। १७वें अवतार में उन्होंने देवताओं का रूप महाशक्र के रूप में जन्म लिया था, १८वें अवतार में वो त्रिप्रिष्ट वासुदेव बने।महावीर स्वामी का १८वां अवतार : पाटनपुर के राजा प्रजापति की पत्नी मृगवती ने एक अत्यंत शक्तिशाली पुत्र दिया, जिसका नाम त्रिपरिष्ठ था। प्रजापति एक अधीनस्थ राज्य प्रतिवासुदेव के साधारण राजा थे। त्रिपरिष्ठ बहुत बहादुर और शूरवीर युवक था, जब उसकी वीरता के किस्से अश्वग्रीव तक पहुंचे, वो भुत भयभीत हो गया, उसने अपने ज्योतिष से पूछा कि किस तरह उसका विनाश करे, ज्योतिष ने कहा ‘जो आदमी तुम्हारे शक्ति-शाली राज्य चन्दनमेघ को कुचल सकता है और तुंग पर्वत पर क्रूर शेर को मार सकता है, वो तुम्हारे दिए मौत का दूत बनेगा।एक दिन अश्वग्रीव ने एक दूत को पाटनपुर भेजा और जब दूत ने बदसलूकी की तो त्रिपरिष्ठ ने उसे बाहर निकाल दिया, तब प्रजापति को एक सुचना मिली कि एक क्रूर शेर शालीप्रदेश पर कहर ढा रहा है, तुरंत उस स्थान पर जाकर उस शेर से किसानों को बचाओ, जब प्रजापति जाने के लिए तैयार हुए तब त्रिपरिष्ठ ने विनती की ‘पिताजी मेरे होते हुए आपको परेशान होने की आवश्यकता नहीं है, आपका पुत्र उस नरभक्षी को आसानी से मार देगा । त्रिपरिष्ठ और उसका ज्येष्ठ भाई बलदेव अचल कुमार जंगल में गये और स्थानीय लोगों से शेर के बारे में पूछा, उनके निर्देशानुसार वो उस शेर की तरफ बढे, लोगों की आवाज सुनकर शेर अपनी गुफा से बाहर आ गया और राजकुमार की तरफ बढ़ना शुरु किया, शेर को अपनी ओर आता देख त्रिपरिष्ठ ने सोचा ‘शेर अकेला चल कर आ रहा है तो मुझे अंगरक्षक और रथ की क्या आवश्यकता है, उसके पास हथियार नही है तो मै क्यों हथियार लेकर जाऊँ मैं उससे खाली हाथ और अकेला मुकाबला करूंगा’ त्रिपरिष्ठ अपने रथ से उतर गया और अपने सभी अस्त्र फ़ेंक दिए, वो खाली हाथ और अकेला उस नरभक्षी से लड़ा और अंत में उसने शेर का जबड़ा फाड़ दिया। रथ का सारथी कराहते शेर के पास गया, उससे सहानभूति के कुछ शब्द कहे और उसके घावों पर औषधीयां जड़ी-बूटियाँ लगा दी। नरभक्षी के मौत के क्षण शांतिपूर्ण थे, उस मरते हुए शेर के दिमाग में उस सारथी के लिए स्नेह का भाव आया, उस सारथी ने भगवान महावीर स्वामी के मुख्य अनुयायी इंद्रभूति गौतम के रूप में पुनर्जन्म लिया था और उस शेर ने एक किसान के रूप में जन्म लिया, जब उस किसान ने गौतम को देखा तो गौतम के लिए बन्धुत्व और सम्मान की भावना का संचार हुआ और वो किसान गौतम का अनुयायी बन गया, लेकिन जब उसने महावीर स्वामी को देखा तो उसके मन में डर और प्रतिशोध की भावना आयी, भगवान महावीर स्वामी ने तब उसकी सुषुप्त भावनाओं के कारण को बताने के लिए उसके पहले के जीवन की कहानी सुनाई।राजकुमार त्रिपरिष्ठ ने अश्वग्रीव पर आक्रमण कर दिया और तीन महाद्वीपों पर अपना साम्राज्य बना लिया, इसके बाद वो अपने चक्र के प्रथम वासुदेव बने, एक दिन वासुदेब अपनी सभा में संगीत सभा का आनन्द ले रहे थे, जब नींद के कारण उनकी पलकें भारी होने लगी तो उन्होंने अपना बिस्तर तैयार करने का आदेश दिया और कहा ‘जब मैं सो जाऊँ तो ये कार्यक्रम समाप्त कर देना, कुछ क्षणों बाद त्रिपरिष्ठ ने अपनी आँखें बंद कर ली और उन्हें नींद आ गयी, अब वहां उपस्थित सभी दरबारी वापस संगीत में तल्लीन हो गये।वो कार्यक्रम पुरी रात चला, अचानक वासुदेव जाग गये और उन्होंने संगीत की आवाज सूनी तो वो गुस्से से लाल हो गये और वहां उपस्थित सभी लोगों पर चिल्लाये ‘संगीत अभी तक रुका क्यों नहीं, बिस्तर लगाने वाले ने हाथ जोड़ कर कहा ‘सभी संगीत के मधुर स्वरों में खो गये थे, मैं भी संगीत में खो गया था उसके आदेश की अवमानना करने से क्रोधित होकर उन्होंने अपना सारा क्रोध उस लापरवाह बिस्तर लगाने वाले पर निकाला और कहा ‘पिघले हुए सीसे की छड़ों को इस संगीत के शौकीन के कानों में डाल दो, उसे ये एहसास होना चाहिये कि मालिक की अवमानना करने का क्या अंजाम होता है, वासुदेव के आदेश की पालना हुयी और असहनीय पीड़ा से उस बिस्तर लगाने वाले की मौके पर ही मौत हो गयी। त्रिपरिष्ठ के रूप में उनके क्रूर स्वभाव के कारण उनकी आत्मा ने कलंकित कर्मों का बंधन संचित किया, उनके इसी क्रूर स्वभाव के कारण महावीर के रूप में उनको कष्टदायी परिणाम भुगतने पड़े, महावीर अवतार में इसी बिस्तर परिचर ने किसान का रूप लिया और श्रमण के रूप में तपस्या करते समय इनके कानों में कीलें ठोकी थी। सत्ता के नशे, भव्यता के लिए जुनून और क्रूर बर्ताव के कारण त्रिपरिष्ठ वासुदेव ने अपना जीवन जीने के बाद अगले जन्म में सातवें नर्क में जन्म लिया, उनके २१वें अवतार में वो शेर बने, २२वें अवतार में फिर चौथे नर्क में गये और उसके बाद २३वें अवतार में उन्होंने प्रियमित्र चक्रवर्ती के रूप में जन्म लिया।महावीर स्वामी का २३वां अवतार: प्रियमित्र चक्रवर्ती कई शुभ स्वप्न देखने के बाद मुकनगरी के राजा धनंजय की पत्नी ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम प्रियमित्र था, उनके धार्मिक कर्मों और बहादुरी की वजह से उन्होंने सातों महाद्वीप पर कब्ज़ा कर लिया और चक्रवर्ती बन गये। चक्रवर्ती बनने के बाद वो बहुत सुख और वैभव से रहे, अंत समय में अलगाव हो गया और पोत्तिलाचार्य से दीक्षा लेकर श्रमण बन गये। कई वर्ष तक कठोर तपस्या से अपने पिछले जन्मों का ज्ञान हुआ, अपना जीवन पूरा कर वो महाशुक्र कल्प के रूप में पुनर्जन्म लिया और इसके बाद अगले अवतार में वो चात्त्रंगेरी के राजा जीतशत्रु के पुत्र के रूप में जन्म लिया।महावीर स्वामी का २४वां अवतार : नन्दन मुनि जीत शत्रु के पुत्र का नाम राजकुमार नंदन था जो सांसारिक भोग और वासना में लिप्त संसार में एक कमल के फूल की तरह था, उसके आध्यात्मिक खोज की भावना को सुन्दरता का आकर्षण मोड़ नहीं पायी। अंत में वो पोट्टीलाचार्य के अनुयायी बने। तपस्वी बनकर उसने तपस्या की अग्नि से अपनी आत्मा को शुद्ध किया, उसने तपस्या के २० कदमों का कठोर पालन किया, जिसके फलस्वरूप उन्होंने तीर्थंकर नाम और गोत्र कर्म अर्जित किया ताकि अगले जन्म में वो तीर्थंकर बने, इसके बाद उन्होंने प्रनत पुस्पोत्तर विमान के रूप में जन्म लिया, तत्पश्चात महावीर रूप में जन्म लिया। तीर्थंकर महावीर के युग में भी गणतंत्र था स्वयं महावीर गणतंत्र की राजधानी वैशाली के राजकुमार थे और दीक्षा के पश्चात् अरहन्त अवस्था को प्राप्त होते ही उन्होंने चतुर्विध संघ की स्थापना की, उनका अध्यात्म अनुशासन भी गणतंत्र पर आधारित था। महावीर ने कहा- जनतंत्र के तीन सूत्र हैं – स्वतंत्रता, समता और सह अस्तित्व। जनतंत्र और महावीर राजनीति विशारदों का मत हैं कि सबसे श्रेष्ठ शासन पद्धति वह है, जो जनता द्वारा स्वयं निर्मित हो, नियंत्रित हो, जनता के लिए हो तथा जनता का हो, जिसे जनतंत्र कहते हैं। भारत गणराज्य जनतंत्रात्मक है, विश्व के अधिकांश देशों की शासन पद्धति जनतंत्र पर आधारित है। बीसवीं शताब्दी की यह सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जाती है, इस उपस्थिति में महावीर दर्शन का योगदान अभूतपूर्व, असाधारण एवं श्रेष्ठतम है। तीर्थंकर महावीर के युग में भी गणतंत्र था, स्वयं महावीर गणतंत्र की राजधानी वैशाली के राजकुमार थे और दीक्षा के पश्चात् अरहन्त अवस्था को प्राप्त होते ही उन्होंने चतुर्विध संघ की स्थापना की, उनका अध्यात्म अनुशासन भी गणतंत्र पर आधारित था। महावीर ने कहा- जनतंत्र के तीन सूत्र हैं – स्वतंत्रता, समता और सह अस्तित्व। जनतंत्र का प्रथम सूत्र है स्वतंत्रता-महावीर धर्म का शाश्वत और धु्रव तत्व इसी को मानते थे कि किसी प्राणी का हनन, शोषण, पीड़न और दासत्व न हो, न कोई हीन है और न ही कोई उच्च है, अत: महावीर की मान्यता थी कि हर आत्मा मूलत: परमात्मा का स्वरूप है वह स्वयं अपना भाग्य विधाता है, वही अपना मित्र है और वही अपना शत्रु है। स्वतंत्रता का अर्थ स्वच्छन्दता एवं तन्त्र हीनता नहीं है, स्वतंत्र का अर्थ है तंत्र दूसरे द्वारा आरोपित नहीं, बल्कि अपने द्वारा निर्मित एवं स्वीकृत हो, स्वतंत्र अर्थात् अपना तंत्र, अत: स्वतंत्र का अर्थ हैं आत्म संयम। संयम का अभाव स्वतंत्रता नहीं, तंत्र हीनता है, स्वच्छन्दता है, जिसका प्रजातंत्र में कोई स्थान नहीं है। स्वच्छन्दता दूसरों के हितों का अतिक्रमण कर सकती है, उससे शोषण तथा विषमताओं की वृद्धि होती है, जो प्रजातंत्र का विलोम है। संयम ही स्वतंत्रता है – यह महावीर का सूत्र वर्तमान भारतीय प्रजातंत्र के लिए एक महत्वपूर्ण दिशा दर्शक तत्व है। संयम, नैतिक स्वतंत्रता है – जिसके अभाव में राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्वतंत्रता का कोई मूल्य नहीं होता। प्रजातंत्र का दूसरा सूत्र समता है-महावीर ने समता को ही धर्म कहा है, यह समता सुख-दु:ख के प्रति समभाव है तथा प्राणी-मात्र के प्रति समत्व दृष्टि है, समता मानवीय अधिकारों का संरक्षक है और सामाजिक एवं आर्थिक विषमताओं को भी स्वयं समाप्त कर देता है। प्रजातंत्र का तीसरा सूत्र है सहअस्तित्व – इसका अर्थ है, हर व्यक्ति दूसरे के जीवन तथा अधिकार का आदर करे, उसका अतिक्रमण न करे। महावीर सह-अस्तित्व के सूत्र को विचारों को, चिन्तन की अतल गहराई तक ले गये। वैचारिक क्षेत्र में किसी पर जबरदस्ती अपना विचार थोपना गलत है। महावीर ने कहा – मैं उपदेश दे रहा हूँ, आदेश नहीं, तुम इसे अपनी प्रज्ञा की कसौटी पर कस कर देखो, खरा उतरता हो तो मानों, अत: दूसरे को गलत और अपने को ही एक मात्र सही नहीं मानना चाहिए, अपने विचार से हम सही हो सकते हैं, तो दूसरा भी अपनी दृष्टि से सही हो सकता है। अत: विचारों को लेकर किसी के प्रति असहिष्णु नहीं होना चाहिए, किसी के आत्मनिर्णय के अधिकार का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए। महावीर का अनेकान्त दर्शन ही प्रजातंत्र का प्राण सूत्र है। संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना का मूल हेतु आत्म निर्णय की भावना थी, जो महावीर की दृष्टि से ही समाप्त किया जा सकता है। आज देश में भाषा, प्रान्त, सम्प्रदाय, मत, पंथ आदि को लेकर जो विघटन की प्रवृत्तियां चल रही हैं, वे अनेकान्त की प्रतिष्ठा से स्वत: निर्मूल हो सकती है, इस प्रकार हम जनतंत्र के मूल आदर्शों की सरल एवं व्यापक आधार भूमि महावीर के चिन्तन में पाते हैं, जनतंत्र का मूल आदर्श है अहिंसा, जो श्रमण-संस्कृति का, जैन-धर्म का केन्द्र बिन्दु रहा है। अहिंसा की ही निष्पत्ति अनेकान्त, समता और स्वतंत्रता है, इस अहिंसा को लोक जीवन में व्यापक प्रतिष्ठा होने से ही भारतीय जनतंत्र सर्वतोभावेन निष्कलुष और सफल हो सकेगा।

३० मार्च राजस्थान स्थापना दिवस

पूर्व संध्या पर किया गया राजस्थानी संस्थाओं का सम्मान राजस्थान स्थापना दिवस की पूर्व संध्या पर आयोजित भव्यातिभव्य ‘आपणों राजस्थान’ कार्यक्रम में उपस्थित दिलिप सांगानेरिया, वरिष्ठ पत्रकार व सम्पादक बिजय कुमार जैन ‘हिंदी सेवी’, प्रसिद्ध समाजसेविका व लोढा फाऊंडेशन की संस्थापिका श्रीमती मंजु लोढा, कार्यक्रम समन्वयक एवं अग्रबंधु सेवा समिति के ट्रस्टी कानबिहारी अग्रवाल, राष्ट्रपति सम्मान प्राप्त ‘जैन एकता’ के परम समर्थक हिरालाल साबद्रा व शब्दों के जाल बुनने वाले प्रख्यात मंच संचालक त्रिलोक सिरसरेवाला लोखंडवाला: मुंबई का ह्रदय कहा जाने वाला सभ्रांत इलाका लोखंडवाला कॉम्पलेक्स में स्थित लोखंडवाला गार्डेन क्र.२ में चतुर्थ वर्षीय ‘आपणों राजस्थान’ कार्यक्रम की रंगारंग शुरूआत २२-२४ फरवरी, त्रीदिवसीय रूप में शुरू हुयी, जिसका उद्घाटन २२ फरवरी को प्रसिद्ध समाजसेवी सुश्री मंजु लोढा ने किया और कहा कि ऐसे कार्यक्रम में आकर मुझे अपने बचपन की याद आ गयी, अपने भाषण में मंजु जी ने सम्पूर्ण राजस्थान का गुणगान कर श्रोताओं की तालियां बटोरी। विभिन्न परिधानों, खान-पान व सजावटी समानों की स्टॉल के साथ का आयोजन वरिष्ठ पत्रकार व सम्पादक बिजय कुमार जैन ने बच्चों के लिए विभिन्न झूले, कठपुतली, नृत्य, बाईस्कोप आदि का भी आयोजन किया, जिसका लुत्फ कार्यक्रम में पधारे राजस्थानी परिवारों ने उठाया।आयोजक वरिष्ठ पत्रकार व सम्पादक बिजय कुमार जैन ‘हिंदी सेवी’ ने कहा कि ‘आपणों राजस्थान’ कार्यक्रम के आयोजन का उद्देश्य मुंबई में फैले राजस्थानी संस्थाओं को एकमंच पर लाना ही एकमात्र है जिसमें दिनों-दिन सफलता भी मिल रही है, लोग जुड़ते चले जा रहे हैं कारवॉ बनते जा रहा है, इसी कड़ी में इस वर्ष १३५ राजस्थानी संस्थाओं का सम्मान किया जा रहा है, श्री जैन ने कहा कि मेरे जीवन का उद्देश्य सभी भारतीय भाषाओं का सम्मान बढाना है, और भारत की एक राष्ट्रभाषा को प्रतिष्ठापित करवानी है जिसमें मुझे सफलता भी प्राप्त हो रही है और एक दिन विश्व के सभी राष्ट्रों की तरह मेरे भारत की भी एक राष्ट्रभाषा घोषित होकर रहेगी। श्री जैन ने कहा कि मेरे आदर्श महात्मा गांधी जी कहा करते थे कि ‘जिस देश की कोई राष्ट्रभाषा नहीं होती वह राष्ट्र गूंगा होता है’ साथ यह भी कहा कि भारतीय आजादी के योद्धा नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने कहा था कियदि भारत को अखंड रखना है तो हम सभी को ‘हिंदी’ में ही संवाद करना चाहिए।श्री जैन ने ‘राजस्थान स्थापना दिवस’ के बारे में भी उल्लेख करते हुए कहा कि वीरों की भूमि आज के राजस्थान को बनने के लिए सात साल लगे थे, जिसके लिए अथक परिश्रम सरदार वल्लभ भाई पटेल ने किया था, जिनके कार्यों का भुलाया नहीं जा सकता।रंगारंग ‘आपणों राजस्थान’ कार्यक्रम की संगीतमय प्रस्तुति बंटी ठाकूर-प्रिया ठाकूर के सहयोगियों द्वारा की गयी थी।गणेश वंदना व विभिन्न राजस्थानी गीतों को कोकिला कंठी इंदु श्यामसुंदर अग्रवाल ने प्रस्तुति दी।राजस्थानी नृत्य की छटा बिखेरी प्रसिद्ध नृत्यांगना व अभिनेत्री बरखा पंडित ने, प्रसिद्ध गीतकार व संगीतकार दिलिप सेन द्वारा गीतों की प्रस्तुति पर प्रसिद्ध राजस्थानी अभिनेता अरविंद कुमार ने जमकर नृत्य कर दर्शकों का मन मुग्ध कर दिया।सुनिल चौहान, जो दिलिप सेन जी के शिष्य हैं गीत गाकर पुराने दिनों की याद दिला दी। अतिथि स्वतंत्रता संचालन प्रसिद्ध समाजसेवी कानबिहारी जी अग्रवाल व शब्दों के जाल बुनने के लिए प्रख्यात त्रिलोक सिरसलेवाला ने किया।२२ मार्च यानि पहले दिन राजस्थानी कर्मठता सम्मान ‘राजस्थानश्री’ से सम्मानित होने वाले सर्वश्री हीरालाल सबाद्रा, सुधीर अग्रवाल, गोपालदास गोयल, श्रीधर गुप्ता, श्रीमती मंजू लोढ़ा, श्रीमती ऊषा सरावगी, दिलीप सेन, सतीश सुराणा, अरविंद वाघेला व अन्य है।कार्यक्रम में अपनी विशेष उपस्थिति दी सर्वश्री ओमप्रकाश शाह, बंकेश अग्रवाल, अमित अग्रवाल, छोटेलाल अग्रवाल, शिव कुमार बागड़ी, प्रमोद अग्रवाल, श्री बुबना, दिलीप सांगानेरिया, अजय माहेश्वरी, टिवी सिरियल निर्माता सन्नी मंडावरा, सुश्री वर्षा जालान, सुमन बोहरा, ललिता अग्रवाल, शीला गोयल, श्रीमति संतोष बिजय जैन, पायल सौरभ जैन आदि-आदि ने उपस्थिति दी, कार्यक्रम में लगे स्टॉल (दुकानों) के सहयोगी, कठपुतली, राजस्थानी बाईस्कोप के साथ आगंतुकों का स्वागत अम्रत भट्ट एण्ड कम्पनी ने किया। आपणो राजस्थान कार्यक्रम के संस्थापक बिजय कुमार जैन, सर्वश्री श्रीधर गुप्ता (उपाध्यक्ष मुंबई अग्रवाल सामुहिक विवाह सम्मेलन), श्री गोपालदास गोयल (मंत्री: आगरा नागरिक संघ), श्री सुधीर अग्रवाल (ट्रस्टी: अग्रवाल जनसेवा चेरिटेबल ट्रस्ट), श्री हीरालाल साबाद्रा (अध्यक्ष, नवी मुंबई स्थानकवासी जैन संघ) राजस्थानी समाज सेवी कानबिहारी अग्रवाल व ओमप्रकश शाह बच्चों के लिए झूले वगैरह की व्यवस्था श्री राजेश जैसवाल ने की थी।सुरक्षा व्यवस्था विश्वनाथ द्वारा की गयी थी।कार्यक्रम के आर्थिक सहयोगी जीटीव्ही इंफ्रा. लि., अग्रवाल बिल्डर, जालान वायर्स, शारदा वल्र्ड वाइड, राजस्थानी सेवा संघ, बांसवारा सिन्टेक्स, मुरारका फाउंडेशन, पदमा ट्रेडर्स, पुश इन्टरप्राइजेस, मोगरा असोसियेशन, डॉ. श्याम अग्रवाल (नेत्र चिकित्सक विशेषज्ञ), लोढा फाउंडशेन, आर.एन. तिवारी, ब्लेन्ड फाइनेन्श, गुरूजी ठंडाईवाला, कुचामण विकास परिषद मुंबई, सिद्धार्थ कुलिंग कॉरपोरेशन, भारत बैंक व आकाश मार्बल आदि एम.टी.सी. ग्रुप, गुप्ता इन्वेसमेंट, ब्युटीफुल ग्रुप, श्रीधर गुप्ता अग्रवाल जनसेवा चेरिटेबल ट्रस्ट रहे। प्रथम दिवसीय कार्यक्रम के विशेष सहयोगी ‘आपणों राजस्थान’ के सह संयोजिका सुश्री अनुपमा शर्मा के साथ गेलार्ड ग्रुप के सर्वश्री आकाश कुम्भार, संध्या मौर्या, आशा कुमार, भूपेंन्द्र कोरी, विजय जांगड़ा, रंजना पाटील, रोशनी जाधव, राजेश्री पेडणेकर, अक्षय डोंगरे, रोशनी माने, ज्योति नाईक, करिश्मा पाटोळे, मोनिका खरात, स्वरूपा दळवी, अंकिता माने, मंगेश चव्हाण, अस्मिता मस्कर, रंगारंग कार्यक्रम के विशेष सहयोगी ‘राजस्थानी मंडल लोखंडवाला कॉम्पलेक्स’ के साथ स्थानीय पुलिस विभाग, मनपा विभाग, अग्निशमन दल के साथ लोखंडवाला गार्डन के पदाधिकारियों के सहयोग को सराहा जा सकता है। -जिनागम महाराष्ट्र की भूमि पर देखा गया राजस्थान दिनांक २३ मार्च २०१९ को ‘आपणों राजस्थान’ कार्यक्रम के दूसरे दिन की शुरूवात बड़े हर्षोल्लास व उमंग भरी रही, कार्यक्रम की शुरूवात नैनमल सुराणा फांउडेशन के ट्रस्टी श्री कैलाश सुराणा, सतीश सुराणा, सुमन अग्रवाल द्वारा दीप प्रज्वलित कर किया गया, सांस्कृतिक कार्यक्रम का प्रारंभ पाश्र्वगायक व संगीतकार रवि जैन ने गीत के माध्यम से किया, जिसमें उनका सहयोग दिया गायिका अर्चना जैन ने दिया, राजस्थानी महिला मण्डल की बच्चियों ने कथक नृत्य प्रस्तुत कर सभी को अपनी ओर आकर्षित कर किया। नृत्यांगना बरखा पंडित के ‘इंजन की सीटी’ पर नृत्य प्रस्तुती से सभी दर्शक झुम उठे। राजस्थान लोखण्डवाला मंडल के तीन बच्चों ने आज की पीढी का प्रतिनिधित्व करते हुए नृत्य प्रस्तुत किया, श्रीमती शीतल जी के मधुर गीत सुन सभी दर्शक-श्रोतागण उनकी तारिफ किए बगैर नहीं रह सके, कार्यक्रमों के बीच विभिन्न संस्थाओं के पधारे अध्यक्षों का सम्मान किया गया, सम्मानित होने वाली हस्तीयों में सर्वश्री जगदीश लढ्ढा, जगदीश प्रसाद अग्रवाल, आशीर्वाद संस्था के उमाशंकर वाजपेयी, राजस्थानी मुस्लिम समाज के हाजी इकबाल तंवर, बच्छराज दुग्गड़, दीनदयाल मुरारका, राम प्रकाश बुबना, गोपाल सारडा आदि, इसी दौरान पद्मकथा श्री जैन रामायण, सीरियल के पोस्टर का विमोचन किया गया, जिसमें जैन रामायण की पूर्ण टीम मंच पर उपस्थित रही, संगीतकार दिलीप सेन को उनके राजस्थानी गीत व संगीत के प्रति समर्पण के लिए सम्मान पत्र प्रदान किया गया। कोकिला कंठी इंदु अग्रवाल ने अपनी सुमधुर आवाज में गणेश वंदना व होली गीत प्रस्तुत की, जिससे पुरा माहोल तालियों की गड़गड़ाहट से गुंज उठा। ना देखा गया आजतक-ना ही सोचा गया आश्विरकार सम्पन्न हुआ २४ मार्च को आपणों राजस्थान का कार्यक्रम दिनांक २४ मार्च को सुबह आयोजित विश्व प्रसिद्ध अमृतवाणी सत्संग के पश्चात अमृतवाणी प्रवर्तक आध्यात्मिक गुरू डॉ. श्री राजेन्द्र जी महाराज जी को ‘आपणों राजस्थान’ की तरफ राजस्थान रत्न से संस्थापक बिजय कुमार जैन जी द्वारा सम्मानित किया गया।दिनांक २४ मार्च को कार्यक्रम का शुभारंभ शाम को आए हुए अतिथियों द्वारा ईश्वर के सम्मुख दीप प्रज्वलित कर किया गया, स्वस्थ तन में ही स्वस्थ मन निवास करता है, इसी की तर्ज पर कोकीला बेन धीरूभाई अम्बानी हॉस्पीटल से पधारे डॉक्टर्स की श्रृंखला में डॉ. विलास लढ्ढा, हृदय चिकित्सा डॉ. प्रविण कहाले, कैंसर विशेषज्ञ डॉ. प्रशांत न्याति ने लोगों को बीमारीयों के कारण व उनसे बचने के उपायों पर चर्चा प्रस्तुत की, मुख्य रूप से कैंसर के लक्षण पर चर्चा की गई तत्पश्चात गायक सतिश देहरा द्वारा संगीतमय संध्या का कार्यक्रम प्रस्तुत किया गया, इसी बीच विभिन्न संस्थाओं के अध्यक्ष को सम्मान पत्र व पगड़ी पहना कर सम्मानित होने वाली हस्तियां सर्वश्री सतिश देहरा, बंटी ठाकुर (गायक), कानबिहारी अग्रवाल, अमरीशचंद अग्रवाल, महेश बंसीधर अग्रवाल, लक्ष्मीनारायण अग्रवाल (मन्नुसेठ), उदेश अग्रवाल, बृजमोहन अग्रवाल (बिरजू भाई), अशोक जैन, विजय सिंह सिसोदिया, तुलसीराम कयाल, नवरत्न दुग्गड, विश्वनाथ जोशी, मुरली बालाण, जे. पी. खेमका, तुलसीराम कयाल, सुभाष जांगीड, सुरजमल माकड़, पन्नालाल सारडा आदि ने अपनी उपस्थिति देकर कार्यक्रम में चार चांद लगा दिया। पूर्व अध्यक्ष मुंबई कांग्रेस संजय निरूपम ने अपनी उपस्थिति देकर कार्यक्रम की शोभा बढ़ा दी, कार्यक्रम को सम्पन्न बनाने के लिए सर्वश्री कानबिहारी अग्रवाल व राजस्थानी मंडल के पदाधिकारी दिलीप सांगानेरिया, ओम प्रकाश शाह, अमित अग्रवाल, गगन गुप्ता, शिव बागड़ी, श्रीमती अनुपमा शर्मा, स्वरूपा, आशा कुमार, संध्या मौर्या, आकाश कुंभार, मंगेश, भूपेंद्र कोरी का विशेष सहयोग रहा। ने संभाली तीन दिवसीय भव्यातिभव्य सांस्कृतिक कार्यक्रम का समापन जय-जय राजस्थान के घोष के साथ सम्पन्न हुआ। -जिनागम