जिनागम

जीवन मोक्ष: सत्संग, समर्पण, और संत

Jivan Moksh

सन्त और सत्संग के बिना यह दुर्लभतम मानव जीवन भी व्यर्थ है जो सन्तों की कीमत समझ लेते हैं, उनके भीतर से यह वचन निकलता है- ‘‘जो दिन साधु न मिले, वो दिन होय उपास’’ उन्हें सत्संग के बिना उपवास-सा महसूस होता है।
सत्संग आत्मा की खुराक है। आत्मा की व्यवस्था सिर्फसंतकृपा से ही हो सकती है, अपितु जिस शरीर में भव्यात्मा विराजमान है, उस शरीर की व्यवस्था तो माँ-बहन, बेटी, पत्नी या बेटा कोई भी कर सकता है, जब हम संतों के समीप जाते हैं, उनके सत्संग में मन लगाकर बैठते हैं तो वे हमें ‘‘ज्ञानामृत भोजन’’ अर्थात् ज्ञान का अमृत परोसते हैं, अगर हम उसे श्रद्धा से ग्रहण करते हैं और धीरे-धीरे आचरण में उतारते है तो हमें दुगुना लाभ मिलता है, हमारी ज्ञान की प्यास खुलती है और आचरण से मन शुद्ध एवं शरीर स्वस्थ बनता है।
ज्ञान पिपासा है जो हमें सन्त की तलाश करायेगी। प्यासा व्यक्ति पानी एवं ज्ञानी ज्ञान की तलाश करता है, यदि हमें ज्ञान होगा तो सन्त की तलाश करेंगे और सुराहीरुपी सन्त के समक्ष प्याला बनकर समर्पित हो जाएंगे, समर्पित होने से ही प्याला भरता है और प्याला भरे होने से ही प्यास बुझती है। आत्मा की भूख और प्यास मिटाने के लिए सन्त समागम और प्रभुभजन अति आवश्यक है। सत्संग और प्रभु भजन जीवन में बड़ी दुर्लभता से मिलते हैं। सत्संग मिलने का मतलब है – सन्तों का दीदार होना और सन्तों से प्यार होना। दीदार में सिर्फ दर्शन होता है और प्यार में सम्पूर्ण समर्पण। समर्पण के साथ किया गया सत्संग ही जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन लाता है। समर्पण से मिट्टी के द्रौणाचार्य से भी एकलव्य की शिक्षा और सिद्धि प्राप्त हुई थी।

‘‘सम्यक दर्शन, ज्ञान चारित्रणि मोक्ष मार्ग’’

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