जैन धर्म है अति प्राचीन धर्म (Jainism is very ancient religion)

जैन धर्म है अति प्राचीन धर्म (Jainism is very ancient religion)

जैन धर्म है अति प्राचीन धर्म (Jainism is very ancient religion)

वैदिक पुराणों के पन्नों से
जैन धर्म है अति प्राचीन धर्म (Jainism is very ancient religion) हमारा यह संसार अनादिकाल से विद्यमान है, इस जगत का न कोई आदि है न कोई अन्त, जैसे यह संसार अनादि निदान है वैसे ही जैन धर्म भी अनादि निधन है, ऋग्वेद के पूर्वकाल में भी जैनधर्म विद्यमान था। इतिहास के विभिन्न काल खंडों में जैन धर्म को विभिन्न नामों से जाना जाता था, कभी यह श्रमण धर्म के नाम से, कभी व्रात्य के नाम से, कभी अर्हत के नाम से, तो कभी लोग इसे निर्ग्रन्थ धर्म के नाम से पहचानते थे, परन्तु महावीर युग से इसे जैन धर्म के नाम से जाना जाने लगा।
जैन धर्म की प्राचीनता को वैदिक संस्कृत के प्राचीनतम ग्रंथों, वेदों, पुराणों में प्राप्त कतिपय उल्लेखों ने स्पष्ट कर दिया है, इस सन्दर्भ में प्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान डॉ.राधाकृष्ण का कथन उल्लेखनीय है। ‘‘इस बात के प्रमाण पाये जाते हैं कि ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की पूजा होती थी, इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जैन धर्म वर्द्धमान और पार्श्वनाथ से पहले प्रचलित था। यजुर्वेद में ऋषभदेव, अजितनाथ और अरिष्टनेमि, इन तीन तीर्थंकरों के नामों का उल्लेख है, भागवत पुराण भी इस बात का समर्थन करता है कि ऋषभदेव जैन धर्म के संस्थापक थे’’
प्रो.विरूपाक्ष वाडिया वेदों में जैन तीर्थंकरोें के उल्लेखों को प्रस्तुत करते हुए बताते हैं कि-‘‘प्रकृतिवादी मरीषि ऋषभदेव का परिवार था। मरीचि ऋषि के स्रोत वेद-पुराण आदि ग्रन्थों में है और स्थान-स्थान पर जैन तीर्थंकरों का उल्लेख पाया जाता है, कोई ऐसा कारण नहीं कि हम वैदिक काल में जैन धर्म के अस्तित्व को न मानें। विविध वैदिक ग्रन्थों में-‘श्रमण’ शब्द को विविध रूपों में परिभाषित किया गया है यथा- ‘श्राम्यन्तीत श्रमण: मपस्यन्ते इत्यर्थ’ अर्थात् जो श्रम करता है, कष्ट सहता है, तप करता है वह श्रमण है, श्रीमद भागवद में श्रमण की व्याख्या इस प्रकार की गयी है- ‘‘श्रमण वातरशना, आत्मविद्या विशारदा’’ अर्थात श्रमण दिगम्बर मुनि होते ऊर्ध्वरेता, वात रशना एवं आत्मविद्या में विशारद होते हैं।
वैदिक ग्रन्थों में जैन धर्मानुयायियों को अनेक स्थलों पर व्रात्य भी कहा गया है। व्रतों का आचरण करने के कारण वे व्रात्य कहे जाते हैं, ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि वैदिक आर्य व्रात्यों के जब सर्म्पक में आये तो वे उनसे बहुत प्रभावित हुए और उनके सम्मान में, उनकी प्रशंसा में अनेक मंत्रों की रचना भी की, जबकि व्रात्य यज्ञ विरोधि थे। व्रात्यों की यह प्रशंसा ऋग्वेद काल से अथर्वेद काल तक होती रही, श्रमण संस्कृति और वैदिक संस्कृति दोनों मिलकर भारतीय संस्कृति को अपना गरिमामयी योगदान देते हुए मानव जीवन को संवारते हुए पुराण युग तक आ पहुंचे। विष्णुपुराण के रचना काल में वैदिक ऋषियों के भाव बदल गये और वे व्रात्यों की निन्दा करने लगे, संभवत: इसका कारण यह रहा हो कि व्रात्यों की आध्यात्मिक धारा से प्रभावित होकर वैदिक कर्मकांड मूलक विचारधारा अपने मूल रूप को छोड़ कर औपनिषदिक ज्ञान काण्ड की ओर मुड़ने लगी थी, ऐसा स्थिति में अपने मूल रूप को स्थिर रखने के लिए वैदिक ऋषियों की चिन्ता स्वाभाविक थी, अत: इस काल में व्रात्यों को वैदिक अनुयायियों की दृष्टि में गिराने के प्रयत्न किये जाने लगे। साथ ही व्रात्यों को अंग-वंग-कलिंग और मगध राज्य में जाना निषिद्ध घोषित कर दिया गया। पुराणों में ऐसी भी रचनायें होने लगी कि एक राजा रानी को एक व्रात्य (जैन) से केवल बात करने के अपराध का प्रायश्चित अनेक जन्मों तक करना पड़ा, अथवा प्राणों पर संकट आने की दशा में यदि जैन मंदिर में जाकर प्राण रक्षा की संभावना हो सकती हो तो भी जैन मंदिर में प्रवेश करके प्राण रक्षा करने श्रेयस्कर है, इस प्रकार तमाम वैदिक पुराणों और वेदों में श्रमण, व्रात्य, अहित, ऋषभदेव और जैनधर्म इन शब्दों का प्रयोग जगह-जगह पर हुआ है। वैदिक ग्रन्थों में वातरशन, उर्ध्वमन्थी शब्दों का प्रयोग भी श्रमण मुनियों के लिए हुआ है, जहाँ-जहाँ भी इन शब्दों का प्रयोग हुआ है, अत्यन्त सम्मान पूर्ण आशय से हुआ है, अत: विभिन्न वैदिक ग्रन्थों में उक्त चर्चाओं से स्वत: ही सिद्ध हो जाता है कि जैन धर्म अति प्राचीन धर्म है और यह धर्म वैदिक सभ्यता से बहुत पहले ही भारत में फल-फूल रहा था, इतिहासकार भी अब इस बात को स्वीकार करने लगे हैं कि भारत में वैदिक सभ्यता का जब प्रचार-प्रसार हुआ, उससे पहले यहाँ जो सभ्यता थी वह अत्यन्त समृद्ध और समुन्नत थी।

जैन धर्म है अति प्राचीन धर्म (Jainism is very ancient religion)

You may also like...

?>