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तप और दान के प्रवाह का पर्व- अक्षय तृतीया

ॐराघशुक्लतृतीयाया, दानमासीत् तदक्षयम्पर्वाक्षय तृतीयेति, ततोऽघापि प्रवर्ततेश्रेयांसोपज्ञमवनौ, दान-धर्म प्रवृत्तवान्स्वाम्युपेतमिवाऽ शेषव्यवहार नयक्रम: ‘अक्षय तृतीया’ का दिन महामंगलकारी होता है, इस दिन की महिमा मात्र जैनों में ही नहीं, अजैनों में भी है, वर्ष में कुछ दिन ऐसे हैं जो बिना पूछे मुहूर्त’ कहलाते हैं, वैशाख सुदी तीज की भी यही महिमा है, इस अवसर्पिणी काल में सर्वप्रथम दान धर्म का प्रारंभ इसी दिन से शुरु हुआ था। अक्षय तृतीया – यह ऐसा त्यौहार है, जिसका महात्म्य बहुत बड़ा और व्यापक है। हिंदू, वैदिक और जैन परंपराओं में ‘अक्षय तृतीया’ का महत्व बहुत ज्यादा माना गया है, यह जिज्ञासा उठनी स्वाभाविक है कि इस पर्व का नाम ‘अक्षय तृतीया’ क्यों पड़ा? अ-क्षय, मतलब, जिसका क्षय नहीं, अर्थात हर हाल में यथावत। वैशाख मास की इस तृतीया का कभीक्षय’ नहीं होता, इसीलिए इसे ‘अक्षय तृतीया’ कहा गया है। भारतीय ज्योतिष शास्त्रानुसार तिथियाँ चंद्रमा और नक्षत्रों की गतिनुसार बनती है, जैसे चंद्रमा की कला घटती-बढ़ती है वैसे तिथियाँ भी घटती-बढ़ती है, एकम से लेकर अमावस्या, पुनम आदि सभी तिथियों में घटबढ़ी चलती रहती है, किंतु वैशाख सुदी ३ याने आखा तीज की तिथि हजारों वर्षों में क्षय तिथि नहीं बनी, यह कभी नहीं घट-बढ़ी, इसलिये इसे अक्षय तिथि कहा गया है, इसे आखा तीज भी कहा जाता है। वैदिक परम्परा में कहा जाता है कि ऋषि जमदग्नि के पुत्र, परम बलशाली परशुरामजी का जन्म आखा तीज के दिन हुआ था। कुछ लोग मानते हैं कि सतयुग का प्रारम्भ भी इसी दिन हुआ था, इसलिये यह युगादि तिथि भी है। एक बार राजा युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से ‘आखा तीज’ पर्व की विशेषता पूछी तो उन्होंने बतलाया – वैशाख शुक्ल तृतीय के पूर्वाह्न में जो यज्ञ, दान, तप आदि पुण्य कार्य किये जाते हैं उनका फल अक्षय होता है, यह विश्वास है कि इस दिन का मुहुर्त सबसे श्रेष्ठ है, इसलिये विवाह,गृहप्रवेश, व्यापार आदि का शुभारंभ अक्षय तृतीया के दिन बहुत होता है। गाँवों में तो इस दिन सामुहिक विवाह होते हैं, कई जगह तो आज भी छोटे-छोटे बच्चों का विवाह कर दिया जाता है, इस दिन सोना खरीदना भी शुभ माना जाता है ताकि घर में लक्ष्मी माँ की कृपा बनी रहे, इस दिन वृंदावन में साल में एक बार बिहारीजी के चरणों के दर्शन होते हैं, इस दिन मंदिरों में बिहारीजी का चंदन श्रृंगार होता है। ‘अक्षय तृतीया’ को बद्रीनाथ धाम के द्वार भक्तों के लिये खुलते है, गंगा-स्नान का भी इस दिन बहुत महत्व है। जैन परम्परा में ‘अक्षय तृतीया’ के साथ अत्यंत महत्वपूर्ण घटना जुड़ी है, इसलिये जैनों में इस दिन का बहुत अधिक महत्व है। प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ का एक वर्ष के कठिन तप के बाद, इसी दिन श्रेयांसकुमार ने (जोकि प्रभु के पपौत्र थे) इक्षु (गन्ने) रस द्वारा पारणा करवाया था, इस तिथि को अक्षय पुण्य प्रदान करने वाली तिथि कहा जाता है। ‘अक्षय तृतीया’ को ‘दान और तप’ दोनों का अद्भुत संबंध जुड़ा होने के कारण ही यह ‘अक्षय’ बन गया। तीर्थंकर ऋषभदेव ने चैत्र कृष्णा अष्टमी के दिन बेला (दो उपवास) की तपस्या के साथ दीक्षा ग्रहण की, उनके साथ अन्य ४००० व्यक्तियों ने भीदीक्षा अंगीकार की, इस तपस्या के साथ दो मुख्य बातें थी- अखण्ड मौन तथा पूर्ण निर्जल तप। अखण्ड मौन व्रत धारण कर भगवान ने चऊविहार बेला किया, उसके पश्चात विशेष अभिग्रह ग्रहण कर भिक्षा के लिए नगर में पधारे, परंतु कहीं भी शुध्द आहार नहीं मिलने के कारण ऋषभदेव नगर में भ्रमण करके वापस लौट गये और पुन: आगे का तप ग्रहण किया, इस तरह तप करते हुए १३ महीने और १० दिन व्यतीत हो गये, अंत में वैशाख शुक्ल तृतीया के दिन प्रभु हस्तिनापुर पधारे, उस समय बाहुबलीके पौत्र एवं राजा सोमप्रभ के पुत्र श्रेयांसकुमार युवराज थे, उन्होंने उसी रात एक विचित्र स्वप्न देखा – `सोने के समान दीप्ति वाला सुमेरु पर्वत श्यामवर्ण का कांतिहीन सा हो रहा है, मैने अमृतकलश से उसे सींचकर पुन: दीप्तिमान बना दिया है’ उसी रात्रि में सुबुद्धि नाम के श्रेष्ठि ने सपना देखा सुरज से निकली हजारों किरणों को श्रेयांसकुमार ने पुन: सुर्य में स्थापित कर दिया, जिससे वह सुरज अत्याधिक चमकने लगा। उस रात सोमयश राजा ने भी स्वप्न देखाअनेक शत्रुओं के द्वारा घिरे हुए राजा ने श्रेयांस कुमार की सहायता से शत्रु राजा पर विजय प्राप्त कर ली’ स्वप्न के वास्तविक फल को तो कोई जान न सके परंतु सभी ने यही कयास लगाया कि इसके अनुसार आज श्रेयांसकुमार को विशेष लाभ प्राप्त होगा? राजकुमार श्रेयांस इस विचित्र सपने के अर्थ पर विचार करते हुए गवाक्ष में बैठे हुए थे, उसी समय में राजमार्ग पर प्रभु ऋषभदेव का आगमन हुआ, हजारों लोग उनके दर्शन हेतु विविध प्रकार की भेंट सामग्री लेकर आ रहे थे (लेकिन प्रभु के लिये उन भेटों का कोई महत्व नहीं था, वे तो त्यागी थे, शुध्द आहार की खोज में थे) जनता का कोलाहल, बढ़ती भीड़ और उन सबके आगे चलते प्रभु को देखकर श्रेयांसकुमार विचार में पड़ते हैं और सोचते आज क्या बात है, यह महामानव कौन आ रहा है, इस प्रकार का तपस्वी साधक मैंने पहले भी कहीं देखा है, उनकी स्मृतियाँ अतीत में उतरती हैं, चिन्तन की एकाग्रता बढ़ती है और उन्हें जाति-स्मरण ज्ञान हो जाता है’ वह जान लेते हैं कि यह मेरे परदादा दीर्घ तपस्वी प्रभु आदेश्वर हैं और शुध्द भिक्षा के लिये इधर पधार रहे हैं, श्रेयांसकुमार महल से नीचे उतरते हैं और प्रभु को वंदन कर प्रार्थना करते हैपधारो प्रभु! पधारो’ उसी समय राजमहल में इक्षुरस से भरे १०८ घड़े आये थे, शुध्द और निर्दोष वस्तु और वैसी शुध्द भावना कुमार की, श्रेयांसकुमार इक्षुरस द्वारा प्रभु को पारणा करवाते हैं। उस समय देवों ने आकाश में देव दुंदभि बजाई, रत्नों की पंचवर्ण के पुष्पों की, गंधोदक की और दिव्य वस्त्रों की, सुगंधित जल की वृष्टी की। अहोदानं! अहोदानं की घोषणा हुयी। पांच दिव्यों की वर्षा हुई। जैन साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका भी इस तरह एक साल का व्रत रखते हैं (१ दिन उपवास दूसरे दिन बियासणा) और आखा तीज के दिन गन्ने के रस द्वारा पारणा करते हैं, इस दिन रस पीना और मंदिर में गुड़ चढ़ाना शुभ माना जाता है। तप और दान की दिव्य महिमा से आज का दिन (याने आखा तीज) पवित्र हुआ। भगवान ऋषभदेव का प्रथम पारणाहोने से इस अवसर्पिणी काल में श्रमणों को भिक्षा देने की विधि का प्रथम ज्ञान देने वाले श्रेयांसकुमार हुए, सचमुच ऋषभदेव के समान उत्तम पात्र, इक्षु रस के समान उत्तम द्रव्य और श्रेयांसकुमार के भाव के समान उत्तम भाव का त्रिवेणी संगम होना अत्यंत ही दुर्लभ है। तप और दान की आराधना करने वाला अक्षय पद प्राप्त कर सकेगा, यही संदेश इस पर्व में छिपा है। जैनधर्म में मोक्ष प्राप्ति के चार मार्ग बताये गये हैं। दान, शील, तप और भाव।‘अक्षय तृतीया’ को दान और तप इन दोनों का अद्भुत संबंध जुड़ा होने केकारण यह अक्षय बन गया। विशेष: प्रभु ऋषभदेव के पहले भरत क्षेत्र में युगलिक काल था, इस वजह से लोगों में धर्म की प्रवृत्ति का अभाव था। युगलिक काल में सभी मनुष्य युगल (पुत्र-पुत्री) के रुप में पैदा होते थे, प्रभु के सौ पुत्र और दो पुत्रियां थी, जेष्ठ पुत्र को ७२ कलाएं सिखलायी थी, भरत ने भी अपने सभी भाईयों को ये कलाएं सिखलायी, दूसरे पुत्र बाहुबली को प्रभु ने हस्ति, अश्व, स्त्री और पुरुष के अनेक प्रकार के भेदवाले लक्षणों का ज्ञान दिया। पुत्री ब्राह्मी को दाहिने हाथ से अट्ठारह लिपियां बतलायी और पुत्री सुंदरी को बायेंहाथ से गणित की शिक्षा दी, उनकी सारी मनोकामनाएँ कल्पवृक्ष के द्वारा पूर्ण हो जाती थी, सभी युगलिक भद्रिक परिणामी होने से देवगति प्राप्त करते थे, उस समय विवाह व्यवस्था नहीं थी। उस काल में सर्वप्रथम विवाह प्रभु ऋषभदेव का हुआ था। लग्न के विधि-विधान हेतु स्वयं इंद्र महाराजा उपस्थित थे। प्रभु ने न्याय नीति और व्यवहार धर्म की शिक्षा दी। अपना कल्प (आचार)समझकर प्रभु ने ही पुरुषों को ७२ कलाएं, स्त्रियों को ६४ कलाएं और सभी प्रकार के १०० शिल्प सिखाए थे, परंतु दान आदि धर्मों का बोध नहीं दिया था क्योंकि तारक तीर्थंकर को जब तक केवलज्ञान नहीं प्राप्त हो जाते, धर्म का बोध नहीं देते, असत्य भाषण की संभावना बनी रहती है, केवलज्ञान के पश्चात्प्र भु ने भरतक्षेत्र के जीवों को धर्म की शिक्षा दी। १८ कोडाकोडी सागरोपम से मोक्षमार्ग का जो द्वार बंद था, प्रभु ने उसे खोला, अत: उनका असीम उपकार हम सब पर है। अक्षय तृतीया जो इस वर्ष २२ अप्रैल २०२३ को है, उसका महत्व क्यों है?जानिए कुछ महत्वपुर्ण जानकारी.. आज ही के दिन मां गंगा का अवतरण धरती पर हुआ था। महर्षी परशुराम का जन्म आज ही के दिन हुआ था। मां अन्नपूर्णा का जन्म भी आज ही के दिन हुआ था। द्रोपदी को चीरहरण से कृष्ण ने आज ही के दिन बचाया था। कृष्ण और सुदामा का मिलन आज ही के दिन हुआ था। कुबेर को आज ही के दिन खजाना मिला था। सतयुग और त्रेता युग का प्रारम्भ आज ही के दिन हुआ था। ब्रह्मा जी के पुत्र अक्षय कुमार का अवतरण भी आज ही हुआ था। प्रसिद्ध तीर्थ स्थल श्री बद्री नारायण जी का कपाट आज ही खोला जाता है। बृंदावन के बांके बिहारी मंदिर में साल में केवल आज ही के दिन श्री विग्रहचरण के दर्शन होते हैं, अन्यथा साल भर वो वस्त्र से ढके रहते हैं। इसी दिन महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ था।‘अक्षय तृतीया’ अपने आप में स्वयं सिद्ध मुहूर्त है कोई भी शुभ कार्य का प्रारम्भकिया जा सकता है।

जैन धर्म के इतिहास में अक्षय तृतीया का है विशेष महत्व

भारतीय संस्कृति में बैसाख शुक्ल तृतीया का बहुत बड़ा महत्व है, इसे ‘अक्षय तृतीया’ भी कहा जाता है। जैन दर्शन में इसे श्रमण संस्कृति के साथ युग का प्रारंभ माना जाता है। जैन दर्शन के अनुसार भरत क्षेत्र में युग का परिवर्तन भोगभूमि व कर्मभूमि के रूप में हुआ। भोगभूमि में कृषि व कर्मों की कोई आवश्यकता नहीं, उसमें कल्पवृक्ष होते हैं, जिनसे प्राणी को मनवांछित पदार्थों की प्राप्ति हो जाती है। कर्मभूमि युग में कल्पवृक्ष भी धीरे-धीरे समाप्त हो जाते हैं और जीव को कृषि आदि पर निर्भर रह कर कार्य करने पड़ते हैं। भगवान आदिनाथ इस युग के प्रारंभ में प्रथम जैन तीर्थंकर हुए। प्रथम आहार गन्ने का रस का दिया प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ ने लोगों को कृषि और षट्कर्म के बारे में बताया तथा ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य की सामाजिक व्यवस्थाएं दीं, इसलिए उन्हें आदि पुरुष व युग प्रवर्तक भी कहा जाता है। राजा आदिनाथ को राज्य भोगते हुए जब जीवन से वैराग्य हो गया तो उन्होंने जैन धर्म की दीक्षा ली तथा ६ महीने का उपवास लेकर तपस्या की। ६ माह बाद जब उनकी तपस्या पूरी हुई तो वे आहार के लिए निकले। जैन दर्शन में श्रावकों द्वारा मुनियों को आहार का दान किया जाता है, लेकिन उस समय किसी को भी आहार की चर्या का ज्ञान नहीं था, जिसके कारण उन्हें और ६ महीने तक निराहार रहना पड़ा। बैसाख शुल्क तीज (अक्षय तृतीया) के दिन मुनि आदिनाथ जब विहार (भ्रमण) करते हुए हस्तिनापुर पहुंचे, वहां के राजा श्रेयांस व राजा सोम को रात्रि को एक स्वप्न दिखा, जिसमें उन्हें अपने पिछले भव के मुनि तीर्थंकर आदिनाथ को प्रथम आहार दिया राजा श्रेयांस ने ‘अक्षय तृतीया’ जैन धर्मावलम्बियों का महान धार्मिक पर्व है, इस दिन जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव ने एक वर्ष की पूर्ण तपस्या करने के पश्चात इक्षु (शोरडी-गन्ने) रस से पारायण किया। जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ ने सत्य व अहिंसा का प्रचार करने एवं अपने कर्म बंधनों को तोड़ने के लिए संसार के भौतिक एवं पारिवारिक सुखों का त्याग कर जैन वैराग्य अंगीकार कर लिया। सत्य और अहिंसा के प्रचार करते आदिनाथ प्रभु हस्तिनापुर गजपुर पधारे जहाँ इनके पौत्र सोमयश का शासन था, प्रभु का आगमन सुनकर सम्पूर्ण नगर दर्शनार्थ उमड़ पड़ा। सोमप्रभु के पुत्र राजकुमार श्रेयांस ने आदिनाथ को पहचान लिया और तत्काल शुद्ध आहार के रूप में प्रभु को गन्ने का रस दिया, जिससे आदिनाथ ने व्रत का पारणा किया। जैन धर्मावलंबियों का मानना है कि गन्ने के रस को इक्षुरस भी कहते हैं इस कारण यह दिन इक्षु तृतीया या अक्षय तृतीया के नाम से विख्यात हो गया।तीर्थंकर श्री आदिनाथ ने लगभग ४०० दिवस की तपस्या के पश्चात पारणा किया था, यह लंबी तपस्या एक वर्ष से अधिक समय की थी, अत: जैन धर्म में इसे वर्षीतप से संबोधित किया जाता है। आज भी जैन धर्मावलंबी वर्षीतप की आराधना कर अपने को धन्य समझते हैं, यह तपस्या प्रति वर्ष कार्तिक के कृष्ण पक्ष की अष्टमी से आरम्भ होती है और दूसरे वर्ष वैशाख के शुक्लपक्ष की ‘अक्षय तृतीया’ के दिन पारायण कर पूर्ण की जाती है, तपस्या आरंभ करने से पूर्व इस बात का पूर्ण ध्यान रखा जाता है कि प्रति मास की चौदस को उपवास करना आवश्यक होता है, इस प्रकार का वर्षीतप करीबन १३ मास और दस दिन का हो जाता है, उपवास में केवल गर्म पानी का सेवन किया जाता है। अक्षय तृतीया – दान तीर्थ का प्रारम्भ प्रतिवर्ष वैषाख शुक्ल तृतीया को अक्षय तृतीया पर्व अत्यन्त हर्षोल्लास पूर्वक मनाया जाता है, इसके मूल में कारण है, यह पर्व तीर्थंकर ऋषभदेव से सम्बन्धित है जो कि इसके करोड़ों वर्ष प्राचीनता का प्रमाण है। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव दीक्षोपरान्त मुनिमुद्रा धारण कर छः माह मौन साधना करने के बाद प्रथम आहारचर्या हेतु निकले, ध्यातव्य यह है कि तीर्थंकर क्षुधा वेदनाको शान्त करने के लिये आहार को नहीं निकलते, अपितु लोक में आहार दान अथवा दानतीर्थ परम्परा का उपदेश देने के निमित्त से आहारचर्या हेतु निकलते है। तदनुसार ऋषभदेव के समय चूंकि आहारदान परम्परा प्रचलित नहीं थी, अतः पड़गाहन की उचित विधि के अभाव होने से वे सात माह तक निराहार रहे, एक बार वे आहारचर्या हेतु हस्तिनापुर पधारे, उन्हें देखते ही राजा श्रेयांस को पूर्वभवकास्मरण हो गया, जहां उन्होंने मुनिराज को नवधाभक्ति पूर्वक आहारदान दिया। तत्पश्चात् उन्होंने ऋषभदेव से श्रद्धा विनय आदि गुणों से परिपूर्ण होकर कहा हे भगवन, तिष्ठ! तिष्ठ! यह कहकर पड़गाहन कर, उच्चासन पर विराजमान कर, उनके चरण कमल धोकर, पूजन करके, मन वचन काय से नमस्कार किया। तत्पश्चात् इक्षुरस से भरा हुआ कलश उठाकर कहा कि हे प्रभो! यह इक्षुरस सोलह उद्गम दोष, सोलह उत्पादन दोष, दष एषणा दोश तथा धूम, अंगार, प्रणाम और संयोजन, चार दाता सम्बन्धित दोषों से रहित एवं प्रासुक है, अतः आप इसे ग्रहण कीजिए। तदनन्तर ऋषभदेव ने चारित्र की वृद्धि तथा दानतीर्थ के प्रवर्तन हेतु पारणा की। आहारदान के प्रभाव से राजा श्रेयांस के महल में देवों ने निम्नलिखितपंचाष्चर्य प्रकट किये :– १. रत्नवृष्टि२. पुष्पवृष्टि३. दुन्दुभि बाजों का बजना४. शीतल सुगन्धित मन्द मन्द पवन चलना५. अहोदानम्-अहोदानम् प्रशंसावाक्य की ध्वनित होना प्रथम तीर्थंकर की प्रथम आहारचर्या तथा प्रथम दानतीर्थ प्रवर्तन की सूचना मिलते ही देवों ने तथा भरत चक्रवर्ती सहित समस्त राजाओं ने भी राजा श्रेयांस का अतिशय सम्मान किया। भरत क्षेत्र में इसी दिन से आहारदान देने की प्रथा का शुभारम्भ हुआ। पूर्व भव का स्मरण कर राजा श्रेयांस ने जो दानरूपी धर्म की विधि संसार को बताई उसे दान का प्रत्यक्ष फल देखने वाले भरतादि राजाओं ने बहुत श्रद्धा के साथ श्रवण किया तथा लोक में राजा श्रेयांस ‘दानतीर्थ प्रवर्तक‘ की उपाधि से विख्यात हुए। दान सम्बन्धित पुण्य का संग्रह करने के लिये नवधाभक्ति जानने योग्य है, जिस दिन ऋषभ देव का प्रथमाहार हुआ था उस दिन वैशाख शुक्ला तृतीया थी। आदिनाथ जी की ऋद्धि तथा तप के प्रभाव से राजा श्रेयांस की रसोई में भोजन अक्षीण (कभी खत्म ना होने वाला ‘अक्षय’) हो गया था, अतः आज भी यह तिथि ‘अक्षय तृतीया’ के नाम से लोक में प्रसिद्ध है। ऐसा आगमोल्लेख है कि तीर्थंकर मुनि को प्रथम आहार देने वाला उसी पर्याय से या अधिकतम तीसरी पर्याय से अवश्यमेव मुक्ति प्राप्ति करता है। कुछ नीतिकारों का ऐसा भी कथन है कि तीर्थंकर मुनि को आहारदान देकर राजा श्रेयांस ने अक्षयपुण्य प्राप्त किया था, अतः यह तिथि ‘अक्षय तृतीया’ कहलाती है, वस्तुतः दान देने से जो पुण्य संचय होता है, वह दाता के लिये स्वर्गादिक फल देकर अन्त में मोक्ष फल की प्राप्ति कराता है। ‘अक्षय तृतीया’ को लोग इतना शुभ मानते है कि इस दिन बिना मुहूर्त, लग्नादिक विवाह, नवीन गृह प्रवेश, नूतन व्यापार मुहूर्त के रूप में मानते है। विश्वास यह है कि इस दिन प्रारम्भ किया गया नया कार्य नियमित सफल होता है, अतः ‘अक्षय तृतीया’ पर्व अत्यन्त गौरवशाली है तथा राजा श्रेयांस द्वारा दान का प्रवर्तन कर हमें भी उपकार का स्मरण कराता है।

पूर्वजन्म प्रभू ऋषभदेव का

वैसे तो संसार का प्रत्येक प्राणी अनादि काल से जन्म मरण भोगता आ रहा है लेकिन सार्थक वही जन्म होता है जिसमें जीव ने संसार परित्त (सीमीत) किया, उसी क्रम में प्रभु ऋषभ का जीव भी कई भव पूर्व जम्बूद्वीप के पश्चिम विदेह की क्षिति प्रतिष्ठित नगरी के प्रसन्नचन्द्र राजा के राज्य में धन्ना सार्थवाह था, एक बार व्यापार के लिए बसंतपुर जाने का निश्चय करके, धन्ना ने राजाज्ञा पूर्वक नगर में घोषणा कराई कि यदि उनके साथ कोई चलना चाहे तो यथायोग्य पूर्ण सहयोग दिया जायेगा, इस घोषणा की जानकारी तंत्र विराजित आचार्य धर्मघोष को भी मिली। बसंतपुर की ओर विहार करने का निर्णय करके सार्थवाद से आज्ञा लेकर साथ में विहार कर दिया। रास्ते में वर्षाकाल से मार्ग अवरूद्ध हो जाने से सुरक्षित स्थान देखकर सार्थ को वहीं रूकने का आदेश दे दिया। धन्ना सार्थवाह के मुनीम मणिभ्रद ने आचार्य धर्मघोष व उनके शिष्यों को भी अपने झोपड़े में ठहरने की व्यवस्था करदी, लेकिन वर्षा का क्रम इतना लंबा हो गया, जिससे साथ की, सारी खाद्य सामग्री समाप्त हो गई। लोग कंद मूल खाकर समय निकालने लगे। धन्ना सार्थवाह को जब इस स्थिति का पता चला तो वह विचार में पड़ गया कि ऐसी स्थिति में मुनिराजों को आहार वैâसे प्राप्त हो रहा होगा। चिंतातुर स्थिति में वह सीधा चलकर मुनियों के पास आया और पश्चाताप करता हुआ आहार ग्रहण करने की प्रार्थना करने लगा। सार्थवाह को पश्चाताप करते देख आचार्यश्री के निर्देशानुसार एक शिष्य भिक्षाटन करते हुए उसके आवास पहँुच गया। अपने आवास में मुनिराज को आते देख हर्ष विभोर होते हुए साधुओं के योग्य आहार देखने लगा, लेकिन अन्य सामग्री को अप्रासुक देख चिंतित होते हुए उसकी दृष्टि पास में पड़े (प्रासुक) घी के घड़े पर पड़ी और बड़े प्रमुदित भाव से मुनिराज को ग्रहण करने का आग्रह करने लगा। मुनिराज ने झोली में से पात्र निकाला। सार्थवाह उत्कृष्ट भाव से पात्र में घी बहराने लगा, उसी समय एक देव ने उसकी उत्कृष्ट भावों की परीक्षा हेतु मुनिराज की दृष्टि बांध ली। मुनिराज का पात्र घी से भर, घी बाहर बहने लगा, फिर भी मना नहीं कर सके। सार्थवाह उत्कृष्ट भाव से बहराता ही रहा जिसके फलस्वरूप उन्हीं उत्कृष्ट परिणामों से उसने सम्यक्त्व की प्राप्ति की, वहां की आयु पूर्ण कर तीसरे भव में सौधर्म कल्प में देव बना। आयु पूर्णकर चौथे भव में महाविदेह की गन्धिलावती विजय के गान्धार देश की गंध समृद्धि नगरी के शतबल नामक विद्याधर राजा की चन्द्रकांता रानी की कुक्षि से पुत्र रूप में पैदा हुआ जिसका नाम `महाबल’ रखा गया। यौवनास्था में उसका विवाह सम्पन्न कर राजा शतबल ने महाबल का राज्याभिषेक कर दीक्षा ग्रहण कर ली। महाबल राजा अपने एक बाल साथी व चार प्रधानों के साथ नर्तकी द्वारा किये जा रहे नृत्य में आसक्त हो रहे थे, इधर स्वयंबुद्ध नामक मंत्री, जिसे यह ज्ञात हो चुका था कि जंघाचरण मुनि द्वारा महाबल की सिर्फ एक माह की उम्र शेष है, ने राजा के समक्ष यह बात निवेदित कर दी, इससे प्रतिबोधित होकर राजा महाबल उत्कृष्ट भाव से संयम ग्रहण करके २२ दिन के अनशन पूर्वक देह त्याग कर ५ वें भव में दुसरे देवलोक में श्रीप्रभ विमान के स्वामी ललितांग देव बने। इनकी प्रधान देवी स्वयंप्रभा थी। ज्ञानी महापुरूषों से मुनि महाबल के देवयोनि में जन्मादि विषयक रहस्य जानकर स्वयं बुद्ध मंत्री ने भी सिद्धाचार्य के पास दीक्षा ग्रहण कर ली। उत्कृष्ट आराधना के साथ आयु पूर्णकर मुनि स्वयंबुद्ध ईशानकल्प में देव बना, इधर ललितांग देव व स्वयं प्रभादेवी की आयु पुर्ण करके महाविदेह क्षेत्र की पुष्कलावती विजय में लोहार्दगल नगर के राजा स्वर्ण जंग की महारानी लक्ष्मी की कुक्षि से वङ्काजंग नाम के पुत्र व श्रीमती नामक पुत्री के रूप में उत्पन्न हुए। यौवनावस्था में श्रीमती ने एक देव विमान को देखा, उसे देखकर जातिस्मरण ज्ञान के माध्यम से वह अपने पूर्वभव के पति का स्मरण करने लगी। पूर्वभव के पति की गहरी स्मृतियों के फलस्वरूप उसने यह प्रतिज्ञा धारण कर ली कि जब तक वे उसे नहीं मिलेंगे तब तक वह किसी से नहीं बोलेगी, यह बात उसकी पंडिता नामक दासी ने जान ली। श्रीमती की सहायता करने हेतु दासी ने इशान कल्प के ललितांग देव के विमान का कुछ त्रुटिपूर्ण चित्र बनाकर राजपथ पर टांग दिया, जिसे देखते ही वङ्काजंग को भीजातिस्मरण ज्ञान हो गया और उसने उस चित्र में रही त्रुटि को दूर कर दिया। यह बात उनके पिता सवर्ण जंग को मालूम हुई तब उन्होंने दोनों की शादी कर दी। कुछ समय पश्चात् श्रीमती ने एक पुत्र को जन्म दिया। धीरे-धीरे पुत्र युवावस्था को प्राप्त होने लगा, उसको युवा होते देख रात्रि को दोनों ने उसको राज्य सौंप कर दीक्षा ग्रहण करने का विचार किया, उधर उसी रात्रि को पुत्र ने राज्य लोभ में विषाक्त धुँआ उनकेमहल में छोड़ दिया। फलत: दोनों ने शुभ परिणामों से अपनी आयु पूर्ण कर ७ वें भव में ३ पल्योपम की स्थिति वाले कुरूक्षेत्र के युगलिक रूप से जन्म लिया। वहां की आयु पूर्ण कर दोनों ने ८ वें भव में सौधर्म देवलोक में देव बने, वहां की आयु पूर्णकर ९ वें भव में वज्रजंग का जीव जंबूद्वीप के महाविदेह में क्षिति प्रतिष्ठित नगर के सुविधि वैद्य के यहां जीवानंद नामक पुत्र रूप में जन्म लिया और श्रीमती का जीव इसी नगर में श्रेष्ठि ईश्वरदत्त के पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ, जिसका नाम राव रखा गया। इसी काल में राजा ईशानचंद की रानी कनकवती के भी एक पुत्र हुआ, जिसका नाम महीधर रखा गया। राजा के मंत्री सुवासीर की पत्नी लक्ष्मी के सुबुद्धि नाम का पुत्र हुआ। सागरदत्त सार्थवाह की पत्नी अभागी के पुर्णचंद्र व धनश्रेष्ठि की पत्नी शीलवती के गुणकर पुत्र हुआ, पूर्वभव की प्रीति से सब में परस्पर मित्रता हो गई, यौवनवय में जीवानंद प्रसिद्ध वैद्य बन गया। एक दिन सभी मित्रों ने जंगल में घूमते हुए एक मुनि को ध्यानस्थ देखा। मुनि का शरीर भयंकर व्याधि से ग्रस्त था, इसे देखकर परस्पर उपचार का चिंतन करने लगे। वैद्य जीवानंद बोला-“भैया इनके उपचार हेतु अन्य औषध तो मेरे पास है पर रत्न कंबल और गोशीर्ष चंदन की आवश्यकता है। पांचोें मित्रों ने बाजार में खोज की तो एक श्रेष्ठी के यहां दोनों वस्तुएँ मिल गई। मुनिराज के उपचार की बात सुनकर सेठ ने दोनों चीजें बिना मूल्य लिये ही दे दी और खुद भी सेवा में जुट गया। उपचार करने पर मुनि पूर्णत: नीरोग हो गये। तत्पश्चात् मुनि के उपदेश से प्रभावित होकर सभी मित्रों ने उनसे संयम ग्रहण कर लिया औरवे सब अनुशासन पूर्वक आयु पूर्ण कर दसवें भव में अच्युत कल्प के इन्द्र के सामानिक देव हुए। वहां से जीवानंद का जीव ११वें भव में जंबू द्वीप के महाविदेह क्षेत्र में पुण्डरीकिणी नगरी के वङ्कासेन राजा की धारिणी रानी के गर्भ से १४ स्वप्न के साथ पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ, इसका नाम वङ्कानाभ रखा गया, शेष पांचों ने उनके लघुभ्राता रूप में जन्म लिया। वङ्कानाभ के युवा होने पर वङ्कासेन राजा ने उसका राज्याभिषेक कर स्वयं ने दीक्षा ग्रहण की और केवलज्ञान प्राप्ता fकया। वङ्कानाभ सम ्राट बना। छा ेट े भाई बाहु, सुबाहु, पीठ और महापीठ नामक मांडलिक राजा बनें। सुयश चक्रवर्ती का सारथी बना। पिता वङ्कासेन के उपदेश से प्रतिबोधित हो छहों ने संयम ग्रहण किया। वङ्कानाथ ने बीस बोलों की आराधना से तीर्थंकर गोत्र का उपार्जन किया और अपने साथियों के साथ आयु पूर्णकर सर्वार्थ सिद्ध नामक विमान में देव बनें। विगत चौबीसी के अंतिम तीर्थंकर संप्रति के निर्वाण होने के बाद १८ कोड़ाकोड़ी सागरोपम के बीतने पर भरत क्षेत्र में तीसरे आरे के ८४ लाख पूर्व ३ वर्ष साढ़े आठ महीने शेष रहने पर, सर्वार्थ सिद्ध विमान का आयु पूर्ण कर आषाढ़ कृष्ण चतुर्दशी को उत्तराषाढ़ा नक्षत्र से चंद्र का योग होते ही प्रभु ऋषभदेव का जीव वहां से चलकर नाभि कुलकर की पत्नी मरूदेवी के गर्भ मेंआया। माता मरूदेवी ने हाथी वृषभादि १४ दिव्य स्वप्न देखे। गर्भ में आने के ठीक नौ महीने साढ़े सात रात्रि व्यतीत होने पर चैत्र कृष्णा अष्टमी की रात्रि को उत्तराषाढ़ा नक्षत्र से चंद्रमा का योग होने पर प्रभू ने युगलरूप से जन्म लिया। ५६ दिक्कुमारियोें व शक्रेन्द्र आदि ६४ इन्द्रों ने जन्मोत्सव मनाया, यथासमय इनका नाम ऋषभ रखा गया। इन्द्र द्वारा प्रदत्त ‘इक्षु’ चूसने से इक्ष्वाकु कुल प्रचलित हुआ। अन्य युगलिकों द्वारा ‘काश’ का रस ग्रहण करने से काश्यप गोत्र चल पड़ा।

अहिंसा ही मानव धर्म है : तीर्थंकर महावीर

‘‘मधुरिमा कंठ में न होती तो शब्द विषपान बन गया होता।आस्था दिल में न होती तो हृदय पाषाण बन गया होता।प्रभू वीर से लेकर अब तक अगर ऐसा जिन धर्म न मिलतातो यह संसार वीरान बन गया होता’’ अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है। तीर्थंकर महावीर अहिंसा और अपरिग्रह की साक्षात मूर्ति थे। तीर्थंकर महावीर स्वामी ने हमें अहिंसा का पालन करते हुए, सत्य के पक्ष में रहते हुए, किसी के हक को मारे बिना, किसी को सताए बिना, अपनी मर्यादा में रहते हुए पवित्र मन से, लोभलालच किए बिना, नियम में बंधकर सुख-दुख में संयमभाव में रहते हुए, आकुल-व्याकुल हुए बिना, धर्म संगत कार्य करते हुए ‘मोक्ष पद’ पाने की ओर कदम बढाते हुए दुर्लभ जीवन को सार्थक बनाने का संदेश दिया, वे सभी के साथ समान भाव रखते थे और किसी को भी कोई दुःख नहीं देना चाहते थे, पंचशील सिध्दान्त के प्रवर्तक एवं जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी मूर्तिमान प्रतिक थे, जिस युग में हिंसा, पशुबलि, जात-पात के भेदभाव का बोलबाला था, उसी युग में महावीर ने जन्म लिया, उन्होंने दुनिया सत्य एव अहिंसा जैसे खास उपदेशों के माध्यम से सही राह दिखाने की कोशिश की, उन्होंने जो बोला सहज रूप से बोला, सरल एवं सुबोध शैली में बोला, सापेक्ष दृष्टि से स्पष्टिकरण करते हुए बोला, आपकी वाणी ने लोक हृदय को अपूर्व दिव्यता प्रदान की, आपका समवशरण जहाँ भी गया वह कल्याणधाम हो गया। तीर्थंकर महावीर ने प्राणीमात्र की हितैषिता एवं उनके कल्याण की दृष्टि से धर्म की व्याख्या की, आपने कहा ‘‘धम्मो मंगल मुक्किटठं, अहिंसा संजमा तवो’’ (धर्म उत्कृष्ट मंगल है, वह अहिंसा संयम तथा तप रूप है) एक धर्म ही रक्षा करने वाला है, धर्म के सिवाय संसार में कोई भी मनुष्यका रक्षक नहीं है। धर्म भावना से चेतना शुध्दिकरण होता है। धर्म से वृत्तियों का उन्नयन होता है। धर्म व्यक्ति के आचरण को पवित्र एवं शुध्द बनाता है। धर्म से सृष्टि के प्रति करूणा एवं अपनत्व की भावना उत्पन्न होती है, इसलिए तीर्थंकर महावीर ने कहा, “एगा धम्म पडिमा, जं से आयो पवज्जवजाए’’ अर्थात धर्म ऐसा पवित्र अनुष्ठान है जिससे आत्मा का शुध्दिकरण होता है। तीर्थंकर महावीर ने मानव भव दुर्लभता का वर्णन करते हुए गणधर गौतम से कहा था कि हे गौतम! सब प्राणियों के लिए चिरकाल में मनुष्य जन्म दुर्लभ है क्योंकि कर्मो का आवरण उतीव गहन है, अंततः इस भाव को पाकर एक क्षण के लिए भी प्रमाद तथा आलस नहीं करना चाहिए, अनेक गतियों और योनियों में भटकते जब जीव शुध्दि को प्राप्त करता है तब कहीं जाकर मनुष्य योनि प्राप्त होती है। तीर्थंकर महावीर का कहना था कि किसी आत्मा की सबसे बड़ी गलती अपने असली रूप को नहीं पहचानना है तथा यह केवल आत्मज्ञान प्राप्त कर ही ठीक की जा सकती है। मनुष्य को अपने जीवन में जो धारण करना चाहिए वही धर्म है, धारण करने योग्य क्या है? क्या हिंसा, क्रूरता, कठोरता, अपवित्रता, अहंकार, क्रोध, असत्य, असंयम, व्यभिचार, परिग्रह आदि विकार धारण करने योग्य है? यदि संसार का प्रत्येक व्यक्ति हिंसक हो जाए तो समाज का अस्तित्व ही समाप्त हा े जाएगा तथा सर्व त्र भय, अशा ां fत एव ं पाशविकता का साम्राज्य स्थापित हो जाएगा। संपूर्ण विश्व में एकमात्र ‘जैन धर्म’ ही इस बात में आस्था रखता है कि प्रत्येक आत्मा में परमात्मा बनने की शक्ति विद्यमान है अर्थात्म हावीर की तरह ही प्रत्येक व्यक्ति ‘जैन धर्म’ ज्ञान प्राप्त कर, उसमें सच्ची आस्था रख, उसके अनुसार आचरण कर बड़े पुण्योदय से उसे प्राप्त कर दुर्लभ मानव योनी का एकमात्र सच्चा व अंतिम सुख, संपूर्ण जीवन जन्म-मरण के बंधन से मुक्त होने वाले कर्म करते हुए मोक्ष महाफल पाने हेतु कदम बढ़ाना तथा उसे प्राप्त कर वी महावीर बन, दुर्लभ जीवन को सार्थक कर सकता है। महावीर ने कोई ग्रंथ नहीं लिखा उन्होंने जो उपदेश दिए, गणधरों ने उनका संकलन किया, वे संकलन ही शास्त्र बन गए, इनमें काल, लोक, जीव आदि के भेद–प्रभेदों का इतना विशुध्द एवं सूक्ष्म विवेचन है कि यह एक विश्व कोष का विषय नहीं अपितु ज्ञान विज्ञान की शाखाओं के अलग-अलग विश्व कोषों का समाहार है। आज के भौतिक युग में अशांत जन मानस को तीर्थंकर महावीर की पवित्र वाणी ही परम सुख और शांति प्रदान कर सकती है यदि आज संसार के लोग तीर्थंकर महावीर के अहिंसा परमो धर्म, अपरिग्रह और अनेकांतवाद को अपना लें तो प्रत्येक प्रकार की समस्याएं मिट सकती है, शांति स्थापित को सकती है और मानव सुखी रह सकता है।

इंडिया भारत कहलाएगा – मुनिश्री निरंजनसागर

सुप्रसिद्ध जैन सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर में संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रभावक शिष्य मुनिश्री निरंजनसागरजी महाराज ने महात्मा गांधीजी की पुण्यतिथि पर प्रवचन देते हुए कहा कि भारत आज तक अपने अस्तित्व को नहींपाया है, किसी भी देश की पहचान का प्रमुख अंग उसका नाम हैं, उसकी स्वयं की भाषा है, उसकी स्वयं की आहार शैली, उसकी अपनी वेशभूषा है, उसकी अपनी शिक्षा पद्धति है, उसकी अपनी औषध विद्या है, परंतु आज हम सभी आवश्यकताओं पर विदेशों पर निर्भर होते जा रहे हैं। आज का नवयुवक विदेशी जीवन शैली को अपनाने की होड़ में दौड़ रहा है। यह अंतहीन दौड़ हमें हमारे संस्कारों से हमारे देश से, हमारे धर्म से कोसों दूर करती जा रही है। आज का नवयुवक जो देश का भविष्य कहलाता है, स्वयं अपने भविष्य के बारे में चिंतन से रहित होकर मात्र वर्तमान की चकाचौंध भरी ऐसी जीवनशैली जी रहा है, जिसका कोई ओर-छोर नहीं है। उद्देश्य से भटका हुआ नवयुवक वर्ग ही ‘भारत’ की सबसे बड़ी समस्या है, मात्र गांधी जी के विचारों को अपनाकर ही हम इस विकट समस्या से मुक्ति पा सकते हैं। गांधीजी जैसा व्यक्तित्व कभी मरण को प्राप्त नहीं हो सकता है। गांधीजी आज भी ‘भारत’ की आत्मा में बसे हुए हैं। वर्तमान में राष्ट्रहित चिंतक आचार्य गुरुवर विद्यासागर जी महामुनिराज ने इंडिया नहीं ‘भारत’ बोलो, स्वदेशी रोजगार, भारतीय भाषा, भारतीय वस्त्र शैली, भारतीय औषध विज्ञान, भारतीय शिक्षा पद्धति, भारतीय कृषि का पुनरुत्थान आदि विषयों को अपने उपदेश का विषय बनाया और उनके प्रभावक राष्ट्र चिंतन से प्रभावित होकर एक बड़ा नवयुवक वर्ग उनके उपदेश को पूर्ण करने हेतु तत्पर हुआ, जिसका परिणाम यह है पूर्णायु औषधालय, प्रतिभास्थली विद्यापीठ, भाग्योदय चिकित्सालय, दयोदय गौशाला, श्रमदान हथकरखा केंद्र, शांतिधारा दुग्ध योजना आदि प्रकल्प आज भारतीयता को जीवंत कर हमें पूर्ण स्वदेशीयता के साथ सत्य और अहिंसा की पुनर्स्थापना करने में लगे हुए हैं। आज ऐसा लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब गांधी जी का भारत अपनी खोई हुई पहचान पुनः पा जाएगा और केवल ‘भारत’ ही कहा जाएगा।

तीर्थंकर महावीर का दिव्य संदेश

स्वयं जीयो और दूसरे को भी जीने दा तीर्थंकर महावीर स्वामी का जन्म कल्याणक ‘महावीर जयन्ती’ के नाम से भी प्रसिद्ध है।महावीर स्वामी का जन्म चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में हुआ था। ईस्वी कालगणना के अनुसार सोमवार, दिनांक २७ मार्च, ५९८ ईसा पूर्व के माँगलिक प्रभात में वैशाली के गणनायक राजा सिद्धार्थ के घर महावीर का जन्म हुआ था। महावीर स्वामी का तीर्थंकर के रुप में जन्म उनके पिछले अनेक जन्मों की सतत् साधना का परिणाम था, कहा जाता है कि एक समय महावीर का जीव पुरुरवा भील था, संयोगवश उसने सागरसेन नाम के मुनिराज के दर्शन किए, मुनिराज रास्ता भूल जाने के कारण उधर आ निकले थे। मुनिराज के धर्मोपदेश से उसने धर्म धारण किया। महावीर के जीवन की वास्तविक साधना का मार्ग यहीं से प्रारम्भ होता है, बीच में उन्हें कौन-कौन से मार्गों से जाना पड़ा, जीवन में क्या-क्या बाधाएँ आईं और किस प्रकार भटकना पड़ा? यह एक लम्बी और दिलचस्प कहानी है जो सन्मार्ग का अवलम्बन कर, जीवन के विकास की प्रेरणा देती है। महावीर स्वामी का जीवन हमें एक शान्त पथिक का जीवन लगता है जो कि संसार में भटकते-भटकते थक गया है। भोगों को अनन्त बार भोग लिये, फिर भी तृप्ति नहीं हुई, अत: भोगों से मन हट गया, अब किसी जीज की चाह नहीं रही, परकीय संयोगों से बहुत कुछ छुटकारा मिल गया, अब जो कुछ भी रह गया उससे भी छुटकारा पाकर, महावीर मुक्ति की राह देखने लगे। एक बार बालकों के साथ बहुत बड़े वटवृक्ष के ऊपर चढ़कर खेलते हुए वर्धमान के धैर्य की परीक्षा करने के लिए संगम नामक देव, भयंकर सर्प का रुप देख सभी बालक भाग गए, किन्तु वर्धमान इससे जरा भी विचलित नहीं हुए, वे निडर होकर वृक्ष से नीचे उतरे। संगमदेव उनके धैर्य और साहस को देखकर दंग रह गया, उसने अपना असली रुप धारण किया और महावीर स्वामी नाम की स्तुति कर चला गया। महान् पुरुषों का दर्शन ही संशयचित लोगों की शंकाओं का निवारण कर देता है। संजय और विजय नामक दो चारण ऋद्धिधारी देव थे, जिन्हें तत्त्व के विषय में कुछ शंका थी। कुमार वर्द्धमान को देखते ही उनकी शंका दूर हो गई, उन देव ने प्रसन्नचित हो कुमार का सन्मति नाम रखा। एक दिन ३० वर्ष का वह त्रिशलानन्दन कर्मों का बन्धन काटने के लिए तपस्या और आत्मचिन्तन में लीन रहने का विचार करने लगा, कुमार की विरक्ति का समाचार सुनकर माता-पिता को बहुत चिन्ता हुई। कलिंग के राजा जितशत्रु ने अपनी सुपुत्री यशोदा के साथ कुमार वर्द्धमान के विवाह का प्रस्ताव भेजा, उनके इस प्रस्ताव को सुनकर माता-पिता ने जो स्वप्न संजोए थे, आज वे स्वप्न उन्हें बिखरते हुए नजर आ रहे थे। वर्धमान को बहुत समझाया गया, अन्त में माता-पिता को मोक्षमार्ग की स्वीकृती देनी पड़ी। मुक्ति के राही को भोग जरा भी विचलित नहीं कर सके। मंगशिर कृष्ण दशमी सोमवार, २९ दिसम्बर ५६९ ईसा पूर्व को मुनिदीक्षा लेकर वर्द्धमान स्वामी ने शालवृक्ष के नीचे, तपस्या आरम्भ कर दी, उनकी तप साधना बड़ी कठिन थी।महावीर की साधना मौन साधना थी, जब तक उन्हें पूर्ण ज्ञान की उपलब्धि नहीं हो गई तब तक उन्होेंने किसी को उपदेश नहीं दिया। वैशाख शुक्ल दशमी, २६ अप्रैल, ५५७ ईसा पूर्व का वह दिन चिरस्मरणीय रहेगा जब त्रृम्बक नामक ग्राम में अपराह्न समय गौतम, उनके प्रमुख शिष्य (गणधर) हुए, उनकी धर्मसभा समवसरण कहलाई, इसमें मनुष्य, पशु-पक्षी आदि सभी प्राणी उपस्थित होकर धर्मोपदेश का लाभ लेते थे। लगभग ३० वर्ष तक उन्होंने सारे भारत में भ्रमण कर लोकभाषा प्राकृत में सदुपदेश दिया और कल्याण का मार्ग बतलाया, संसार-समुद्र से पार होने के लिए उन्होंने तीर्थ की रचना की, अत: वे तीर्थंकर कहलाए। आचार्य समन्तभद्र ने भगवान् के तीर्थ को सर्वोदय तीर्थ कहा है, व्यक्ति के हित के साथ-साथ महावीर के उपदेश में समष्टि के हित की बात भी निहित थी। उनका उपदेश मानवमात्र के लिए ही सीमित नहीं था, बल्कि प्राणिमात्र के हित की भावना उसमें निहित थी। महावीर! श्रमण परम्परा के उन व्यक्तियों में से एक थे जिन्होंने यह उद्घोष किया था कि हर प्राणी एक समान है। मनुष्य और क्षुद्र कीट-पतंग में आत्मा के अस्तित्व की अपेक्षा में कोई अन्तर नहीं, उस समय जबकि मनुष्य के बीच में भी दीवारें खड़ी हो रही थीं, किसी वर्ण के व्यक्ति को ऊँचा और किसी को नीचा बतलाकर, एक वर्ग विशेष का स्वत्वाधिकार कायम किया जा रहा था, उस समय मानवमात्र का प्राणिमात्र के प्रति समत्वभाव का उद्घोष करना, बहुत बड़े साहस की बात थी, तत्कालीन अन्य परम्परा के लोगों द्वारा इसका घोर विरोध हुआ, अन्त में सत्य की ही विजय हुई। करोड़ों-करोड़ों पशुओं और दीन-दु:खियों ने चैन की सांस ली। समाज में अहिंसा का महत्व पुर्नस्थापित हुआ। महावीर स्वामी ने नारा बुलन्द किया था कि प्रत्येक आत्मा परमात्मा बन सकती है, कर्मों के कारण आत्मा का असली स्वरुप अभिव्यक्त नहीं हो पाता। कर्मों को नाशकर शुद्ध, बुद्ध और सुखरुप स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार तीस वर्षों तक तत्त्व का भली-भाँति प्रचार करते हुए तीर्थंकर महावीरएक समय मल्लों की राजधानी पावा पहुँचे, वहाँ के उपवन में कार्तिक कृष्ण अमावस्या मंगलवार, १५ अक्टूबर, ५२७ ई.पू. को ७२ वर्ष की आयु में उन्होंने निर्वाण प्राप्त कर लिया।

आचार्यश्री महाश्रमण ने ५० हजार किमी की पदयात्रा कर रचा इतिहास, जगाई अहिंसा की अलख (Acharyashree Mahashraman did a foot journey of 50 thousand km. History created, awakened the light of non-violence)

आचार्यश्री महाश्रमण ने ५० हजार किमी की पदयात्रा कर रचा इतिहास, जगाई अहिंसा की अलख (Acharyashree Mahashraman did a foot journey of 50 thousand km. History created, awakened the light of non-violence) अहिंसा यात्रा के प्रणेता तेरापंथ धर्मसंघ के ११वें अधिशास्ता आचार्यश्री महाश्रमण जी ने अपने पावन कदमों से पदयात्रा करते हुए ५०,००० किलोमीटर के आंकड़े को पार कर एक नए इतिहास का सृजन कर लिया। आज के भौतिक संसाधनों से भरपूर युग में जहां यातायात के इतने साधन हैं, व्यवस्थाएं हैं, फिर भी भारतीय ऋषि परंपरा को जीवित रखते हुए महान परिव्राजक आचार्यश्री महाश्रमणजी जनोपकार के लिए निरंतर पदयात्रा कर रहे हैं। भारत के २३ राज्यों और नेपाल व भूटान में सद्भावना, नैतिकता एवं नशामुक्ति की अलख जगाने वाले आचार्यश्री महाश्रमणजी की प्रेरणा से प्रभावित होकर करोड़ों लोग नशामुक्ति की प्रतिज्ञा स्वीकार कर चुके हैं। देश की राजधानी दिल्ली के लालकिले से सन् २०१४ में अहिंसा यात्रा का प्रारंभ करने वाले आचार्यश्री ने न केवल भारत, अपितु नेपाल, भूटान जैसे देशों में भी मानवता के उत्थान का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। आचार्यश्री देश के राष्ट्रपति भवन से लेकर गांवों की झोंपड़ी तक शांति का संदेश देने का कार्य कर रहे हैं। यात्रा के दौरान राजनेता हो या अभिनेता, न्यायाधीश हो या उद्योगपति, सेना के जवान हो या पुलिस के, विशिष्ट जनों से लेकर सामान्य जन तक जो भी आचार्यश्री के संपर्क में आता है, आपसे प्रेरित होकर अहिंसा यात्रा के संकल्पों को जीवन में उतारने के लिए प्रतिबद्ध हो जाता है। आचार्यश्री की प्रेरणा से हर जाति, धर्म, वर्ग के लाखों-लाखों लोगों ने इस सुदीर्घ अहिंसा यात्रा में सद्भावना, नैतिकता और नशामुक्ति के संकल्पों को स्वीकार किया है।अहिंसा यात्रा के प्रारंभ से पूर्व ही आचार्यश्री महाश्रमणजी ने स्वपरकल्याण के उद्देश्य से करीब ३४,००० किलोमीटर का पैदल सफर कर लिया था। बारह वर्ष की अल्पआयु में अणुव्रत प्रवर्तक आचार्यश्री तुलसी के शिष्य के रूप में दीक्षित तथा प्रेक्षा प्रणेता आचार्यश्री महाप्रज्ञजी के उत्तराधिकारी के रूप में प्रतिष्ठित आचार्यश्री महाश्रमण ने अब तक भारत के दिल्ली, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार, असम, नागालैण्ड, मेघालय, पश्चिम बंगाल, झारखण्ड, उड़ीसा, तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल, पांडिचेरी, आंध्रप्रदेश, तेंलगाना, महाराष्ट्र एवं छत्तीसगढ़ राज्य तथा नेपाल व भूटान की पदयात्रा कर लोगों को सदाचार की राह पर चलने के लिए प्रेरित किया और उन्हें ध्यान, योग आदि का प्रशिक्षण देकर उनकी दुर्वृतियों के परिष्कार का पथ भी प्रशस्त किया। हृदय परिवर्तन पर बल देने वाले आचार्यश्री ने अपनी यात्रा के दौरान विभिन्न संगोष्ठियों, कार्यशालाओं के माध्यम से भी जनता को प्रशिक्षित किया।कच्छ से काठमाण्डू और कांजीरंगा से कन्याकुमारी तक ही नहीं, पाकिस्तान और बांगलादेश की सीमा से लगे भारत के सीमान्त क्षेत्रों में भी आचार्यश्री की पदयात्रा का प्रभाव देखा जा सकता है। आचार्यश्री की पदयात्राएं असाम्प्रदायिक संदेश के साथ होती हैं, यही कारण है कि हर जाति, वर्ग, क्षेत्र, संप्रदाय की जनता की ओर से आचार्यश्री के मानवता को समर्पित अभियान को व्यापक समर्थन प्राप्त होता है। यात्रा के दौरान जहां बौद्ध धर्मगुरु दलाई लामा, बाबा रामदेव, श्री श्री रविशंकर, स्वामी अवधेशानंद गिरि, स्वामी निरंजनानन्द, मौलाना अरशद मदनी जैसे विभिन्न धर्मगुरुओं ने आचार्यश्री से मिलकर उनके जनकल्याणकारी अभियान के प्रति समर्थन प्रस्तुत किया, वहीं राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम, प्रणव मुखर्जी, प्रतिभा पाटिल, नेपाल की राष्ट्रपति विद्या भंडारी, प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली, पूर्व राष्ट्रपति रामवरण यादव, पूर्व प्रधानमंत्री सुशील कोइराला, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत, सुरेश भैया जी जोशी, अमित शाह, लालकृष्ण आडवाणी, पीयूष गोयल, राजनाथ सिंह, सोनिया गांधी, राहुल गांधी, पी चिदंबरम आदि अनेकों राजनेताओं आदि भी आचार्यश्री के सान्निध्य में पहुंचे और उनके द्वारा किए जा रहे समाजोत्थान के महत्त्वपूर्ण कार्यों में अपनी भी संभागिता दर्ज कराई। इसके साथ-साथ नीतिश कुमार, अशोक गहलोत, नवीन पटनायक, सर्वानंद सोनोवाल, ममता बनर्जी, येद्दुयिरप्पा, पलानी स्वामी, अरविन्द केजरीवाल आदि कई मुख्यमंत्रियों व राज्यपालों सहित कई विशिष्ट लोगों ने भी अहिंसा यात्रा में अपनी सहभागिता की।आचार्यश्री महाश्रमणजी अपनी पदयात्राओं के दौरान प्रतिदिन १५-२० किलोमीटर का सफर तय कर लेते हैं। जैन साधु की कठोर दिनचर्या का पालन और प्रातः चार बजे उठकर घंटों तक जप-ध्यान की साधना में लीन रहने वाले आचार्यश्री प्रतिदिन प्रवचन के माध्यम से भी जनता को संबोधित करते हैं। इसके साथ-साथ आचार्यश्री के सान्निध्य में सर्वधर्म सम्मेलनों, प्रबुद्ध वर्ग सहित विभिन्न वर्गों की संगोष्ठियों आदि का आयोजन होता रहता है, जो समाज सुधार की दृष्टि में अत्यन्त लाभप्रदायक सिद्ध होती हैं। प्रलम्ब पदयात्रा में आचार्यश्री के साहित्य सृजन का क्रम भी निरन्तर चलता रहता है। आचार्यश्री के नेतृत्व में ७५० से अधिक साधु-साध्वियां और हजारों कार्यकर्ता भी देश-विदेश में समाजोत्थान के महत्त्वपूर्ण कार्य में संलग्न हैं।चरैवेति-चरैवेति सूत्र के साथ गाfतमान आचार्य श्री की यह ५०,००० किलोमीटर की यात्रा अपने आप में विलक्षण है। आंकड़ों पर गौर करें तो यह पदयात्रा राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की दांडी यात्रा से १२५ गुना ज्यादा बड़ी और पृथ्वी की परिधि से सवा गुना अधिक है। यदि कोई व्यक्ति इतनी पदयात्रा करे तो वह भारत के उत्तरी छोर से दक्षिणी छोर अथवा पूर्वी छोर से पश्चिमी छोर तक की १५ बार से ज्यादा यात्रा कर सकता है। आचार्यश्री महाश्रमण ने ५० हजार किमी की पदयात्रा कर रचा इतिहास, जगाई अहिंसा की अलख (Acharyashree Mahashraman did a foot journey of 50 thousand km. History created, awakened the light of non-violence)

‘जिनागम’ के प्रबुद्ध पाठकों से निवेदन गौवंश की रक्षा में अपना कर्त्तव्य निभायें (A request to the enlightened readers of ‘Jinagam’ Do your duty in protecting cows)

‘जिनागम’ के प्रबुद्ध पाठकों से निवेदन गौवंश की रक्षा में अपना कर्त्तव्य निभायें (A request to the enlightened readers of ‘Jinagam’ Do your duty in protecting cows)भारत के पांच राज्यों में घोषित चुनाव में हमें यह भी वायदा चाहिए क्योंकि गाय का दूध हम मानव के लिए जीवन ही तो है……. उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा राज्य में १० फरवरी से ७ मार्च २०२२ में होने वाले चुनाव के प्रत्याशी उक्त विधानसभा में जाकर गौवंश का वध करने वालों को आजीवन कारावास की घोषणा करवाएंगे हम उन्हें ही उक्त विधानसभा में भेजेंगे। -बिजय कुमार जैन-राष्ट्रीय अध्यक्ष– मैं भारत हूँ फाउंडेशन वर्तमान समय में गोरक्षा का प्रश्न भारत के लिए एक अहम मुद्दा है। गोरक्षा के लिए देश में अनेक लोगों ने अपने प्राणों की आहूति दी। ‘अखिल भारतवर्षीय गो-महासभा’ का गठन भी इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए हुआ तथा गोधन को विदेशों में मांसाहार के लिए की जानेवाली तस्करी पर रोक लगाने और सरकार पर इसके लिए दबाव डालने का प्रयास हुआ, परन्तु वर्त्तमान परिप्रेक्ष्य में यह केवल कोरी कल्पना रह गई है।मैं ताराचंद जैन, उपाध्यक्ष, झारखंड राज्य गौशाला प्रादेशिक संघ एवं उपाध्यक्ष, वैद्यनाथधाम गौशाला एवं संरक्षक एकल श्रीहरि गौ ग्राम योजना, दुम्मा, देवघर। इस आलेख के माध्यम से गौवंश के साथ वर्त्तमान समय में हो रहे क्रूर व्यवहार की ओर ध्यान आकृष्ट कराना चाहता हूँ। देवघर मेरा निवास स्थान है और वर्षों से इस दिशा में अथक प्रयास एवं निस्वार्थ सेवा भाव के कारण मुझे देवघरिया संत बतौर भी जानते हैं।आज इस आलेख में मैं अपना मार्मिक अभ्यावेदन करना चाहता हूँ कि ऐसे पावन पुण्य स्थल के रास्ते हजारों की संख्या में हिन्दू संस्कृति में माता स्वरूप गौ वंश पड़ोसी जिले दुमका होते हुए रामपुरहाट, नलहटी, अहमदपुर एवं लोहापुर तक तस्करों द्वारा गौवंश को हाँक कर पैदल मार्ग से अनेक तस्करों द्वारा ले जाये जाते हैं एवं अपने सहयोगियों के द्वारा बंगाल की सीमा तक ले जाकर वहाँ से गंगा नदी में पार कराकर बांगलादेश तक ले जाते हैं, जो इन गायों का जो हश्र होता है वह अवर्णनीय एवं अकथनीय है। गत समय पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में कतलगाह ले जाने से (९०००) नौ हजार बाछियों को मैंने अध्यक्ष राजकुमार अग्रवाल एवं अपने कर्मयोगी सदस्यों के मार्फत से छुड़ाया एवं उन्हें झारखण्ड के गौशालाओं में नि:शुल्क वितरित किया। गौवंश को नष्ट करने का यह गोरखधंधा वर्षों से लगातार चलता आ रहा है, जो रूकने के बजाय दिनोदिन तीव्रतर गति से फल-फूल रहा है।आज इस आलेख में मैं अपना मार्मिक अभ्यावेदन करना चाहता हूँ कि ऐसे पावन पुण्य स्थल के रास्ते हजारों की संख्या में हिन्दू संस्कृति में माता स्वरूप गौ वंश पड़ोसी जिले दुमका होते हुए रामपुरहाट, नलहटी, अहमदपुर एवं लोहापुर तक तस्करों द्वारा गौवंश को हाँक कर पैदल मार्ग से अनेक तस्करों द्वारा ले जाये जाते हैं एवं अपने सहयोगियों के द्वारा बंगाल की सीमा तक ले जाकर वहाँ से गंगा नदी में पार कराकर बांगलादेश तक ले जाते हैं, जो इन गायों का जो हश्र होता है वह अवर्णनीय एवं अकथनीय है। गत समय पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में कतलगाह ले जाने से (९०००) नौ हजार बाछियों को मैंने अध्यक्ष राजकुमार अग्रवाल एवं अपने कर्मयोगी सदस्यों के मार्फत से छुड़ाया एवं उन्हें झारखण्ड के गौशालाओं में नि:शुल्क वितरित किया। गौवंश को नष्ट करने का यह गोरखधंधा वर्षों से लगातार चलता आ रहा है, जो रूकने के बजाय दिनोदिन तीव्रतर गति से फल-फूल रहा है।गौवंश के निर्यात का यह सिलसिला पड़ोसी राज्यों बिहार, उत्तरप्रदेश एवं मध्यप्रदेश जैसे बड़े राज्यों के संपर्क से होता है, जहाँ गौवंश के स्थानांतरण पर आंशिक प्रतिबन्ध है। हमारे राज्य के गौ तस्कर व्यापारी इन राज्यों से संपर्क साधकर गायों को पड़ोसी राज्य बंगाल के रास्ते बांग्लादेश तक पहुँचाने में सफल हो रहे हैं और गौ हत्या चरम सीमा पर है। यों तो बिहार में गौ हत्या पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं है, परन्तु आंशिक प्रतिबंध तो क्रियान्वित है ही। हमारे राज्य की झारखंड सरकार ने २००५ में एक अध्यादेश लाकर गौ हत्या निषेध अधिनियम पारित किया था। सरकार के इस अधिनियम का कुछ वर्षों तक तो अक्षरश: पालन भी हुआ और गौवंश को तस्करों से जब्त कर स्थानीय गौशालाओं को सुपुर्द भी किया गया, हम लोगों ने २७ गौशालाओं से संपर्क साधकर एक प्रादेशिक संघ बनाकर गौ पालन में सहयोग किया, परन्तु बड़े ही अफसोस के साथ यह सूचित करना पड रहा है कि कालांतर में पुलिस महकमें द्वारा कोई हल्की धारा बैठाकर जब्त ट्रकों को छोड़ा जाने लगा, इससे तस्करों के मनोबल बढ़े।इस गोरखधंधा को अमलीजामा पहनाने के लिए संलिप्त तस्करों ने गौ हस्तांतरण का नया तरीका ढूंढ निकाला और गायों के झुंड बनाकर पैदल यात्रा कर स्वयं अपने सहयोगियों के साथ उन्हें गंतव्य स्थल तक स्थानांतरित करने लगे जो वर्त्तमान में चरमोत्कर्ष पर है। मार्ग में जो भी गश्तीदल होते हैं उनके साथ इनकी सांठ-गाँठ होती है और पैसों का लेन-देन चलता रहता है। वर्त्तमान समय में यह क्रम चौबीस घंटे क्रियान्वित है जिसका देवघर-दुमका पथ पर किसी भी समय अवलोकन किया जा सकता है। ऐसी निर्मम गौ हत्या से हमारा पशुधन विलुप्त होने के कगार पर पहुँच गया है। गाय जो हमारी राष्ट्रीय निधि है उसी पर कुठाराघात देखने को मिल रहा है। वर्त्तमान समय में झारखंड गोवंशीय पशु हत्या प्रतिषेध अधिनियम २००५ शिथिल पड़ता जा रहा है। भारत के संविधान के अनुच्छेद ४८ में राज्यों को गायों और बछड़ों और अन्य पशुधनों और मवेशियों की हत्या को प्रतिबंधित करने का आदेश दिया गया है। २६ अक्टूबर २००५ को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक निर्णय दिया। वर्त्तमान में २९ राज्यों के बीच से २० राज्यों में हत्या या बिक्री प्रतिबंधित है, किन्तु प्रतिबंधित करने वालों में केरल की तरह बंगाल भी शामिल नहीं है। केन्द्र सरकार के घोषणा पत्र में भी गौवंश संरक्षण के लिए कदम उठाने का वादा किया गया है।इस गोरखधंधा को अमलीजामा पहनाने के लिए संलिप्त तस्करों ने गौ हस्तांतरण का नया तरीका ढूंढ निकाला और गायों के झुंड बनाकर पैदल यात्रा कर स्वयं अपने सहयोगियों के साथ उन्हें गंतव्य स्थल तक स्थानांतरित करने लगे जो वर्त्तमान में चरमोत्कर्ष पर है। मार्ग में जो भी गश्तीदल होते हैं उनके साथ इनकी सांठ-गाँठ होती है और पैसों का लेन-देन चलता रहता है। वर्त्तमान समय में यह क्रम चौबीस घंटे क्रियान्वित है जिसका देवघर-दुमका पथ पर किसी भी समय अवलोकन किया जा सकता है। ऐसी निर्मम गौ हत्या से हमारा पशुधन विलुप्त होने के कगार पर पहुँच गया है। गाय जो हमारी राष्ट्रीय निधि है उसी पर कुठाराघात देखने को मिल रहा है। वर्त्तमान समय में झारखंड गोवंशीय पशु हत्या प्रतिषेध अधिनियम २००५ शिथिल पड़ता जा रहा है। भारत के संविधान के अनुच्छेद ४८ में राज्यों को गायों और बछड़ों और अन्य पशुधनों और मवेशियों की हत्या को प्रतिबंधित करने का आदेश दिया गया है। २६ अक्टूबर २००५ को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक निर्णय दिया। वर्त्तमान में २९ राज्यों के बीच से २० राज्यों में हत्या या बिक्री प्रतिबंधित है, किन्तु प्रतिबंधित करने वालों में केरल की तरह बंगाल भी शामिल नहीं है। केन्द्र सरकार के घोषणा पत्र में भी गौवंश संरक्षण के लिए कदम उठाने का वादा किया गया है।ऐसे समय में मेरी यह करबद्ध प्रार्थना होगी कि गौ मांस का निर्यात कर अर्जित धन के बजाय इसके उपयोगिता को चिन्हित कर आय के अन्य स्रोत बनाये जायें। गाय न केवल हमारे देश की राष्ट्रीय निधि है, इसे केवल हिन्दू धर्म से जोड़ा न जाये वरन्‌ा अन्य संप्रदाय के लोग इनके अवशिष्ट पदार्थों जैसे गोबर, गो-मूत्र आदि का व्यवसायिक उपयोग कर एक विशाल धनराशि अर्जित कर सकते हैं। गाय के गोबर से कई फायदे हैं। एक गाय का गोबर ७ एकड़ भूमि का खाद बना सकता है और मूत्र से भूमि की फसल का कीटों से बचाव हो सकता हे। गोबर के कई तरह के फायदे हैं। खादी इंडिया के द्वारा गाय के गोबर से वैदिक पेंट लांच किया जाएगा, ऐसी जानकारी केन्द्रीय मंत्री नितीन गडकरी ने दी की, इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था सुदृढ़ होगी। केवल खाद के रूप में नहीं, बल्कि पेपर, बैग, मैट से लेकर ईंट तक सारे उत्पाद गोबर से बनाए जा सकते हैं। एकल ग्राम योजना के तहत हमलोग इस दिशा में यह काम कर भी रहे हैं। गौ मूत्र एवं गोबर का पेटेंट तैयार कर विदेशों में निर्यात कर आय का स्त्रोत बढ़ा रहे हैं। पर्यावरण मंत्रालय ने ऊप ज्rानहूग्दह दf म्rलत्ग्त्ब्ूद Aहग्स्aत्े (Rल्ूिaूग्दह दf थ्ग्fा ेूदम्व् स्arवू के नियम २०१७ को शिथिल कर दिया है, इसके मुताबिक मवेशी बाजारों में जानवरों की खरीद बिक्री को रेगुलेट करने के साथ मवेशियों के खिलाफ क्रूरता रोकना है। पूरे देश में इसको लेकर बहस शुरू हो गई है। राजनीतिक गलियारों में इस कानून को लेकर विरोध हो रहा है, जिसमें सबसे आगे केरल है। अब सवाल यह है कि आखिर इस कानून को लेकर संशय की स्थिति क्‍यों है? इसका मूल कारण है कि किसी राज्य में अक्षरश: पालन, तो किसी राज्य में आंशिक तो किसी में कोई प्रतिबंध नहीं है, इसके लिए केन्द्रीय स्तर पर कानून बनाए जाने की आवश्यकता है। गोबर एवं गौ मूत्र की विदेशों में भी माँग है, इनके उत्पादों से कई बीमारियाँ दूर होती हैं, इनके औषधियों का निर्माण कर हम आय को बढ़ा सकते हैं।झारखंड के १०० गाँवों में गायें बाँटी जाने का प्रावधान बनाया गया है। एकल ग्राम योजना के तहत प्रत्येक गाँव को ५० गाएं उपलब्ध कराई जाएगी, जिन किसानों को गाएं उपलब्ध कराई जाएगी उन्हें छह महीने का प्रशिक्षण भी दिया जा रहा है। इसके तहत निबंधित किसानों को गोबर व गो-मूत्र से गैस व अन्य सामग्री तैयार कर लाभ कमाने का स्वरोजगार प्रशिक्षण भी दिया जा रहा है, इसके लिये एक वर्ष तक गायों की सेवा सुश्रुषा करने व उनसे होनेवाले व्यवसाय को लाभकारी बनाने के लिए एक वर्ष तक २५,०००/- रुपये बतौर मानदेय भुगतान किया जा रहा है। ऐसे किसानों के घर में बायो गैस प्लांट भी समिति के द्वारा ही निर्मित किया जाएगा। एकल अभियान श्री हरि गौ ग्राम योजना के तहत देशभर में २०,००० गौवंश-गौशाला से निकालकर ग्रामीण इलाकों में पहुँचा कर गौ संरक्षण का संकल्प लिया गया है। देवघर के बाबा नगरी होने की वजह से देश-विदेश से पर्यटकों का आगमन होता है, इसे जोड़कर भी इस योजना को मूर्तरूप देकर गौवंश का संरक्षण किया जा सकता है। केन्द्रीय ग्रामोत्थान योजना के तहत‌ ३० से ५० गायों को पहुँचाने की योजना है, जिससे प्रत्येक किसान को एक-एक गाय दी जाएगी और तीन वर्षों तक इसके चारे का प्रबंध एकल अभियान गौ भक्तों के जरिए किया जाएगा। ५०० से अधिक गाँवों के गौपालकों से भारतीय नस्ल की गायों का दूध बाजार मूल्य से उच्च मूल्य पर क्रय कर यज्ञ, पूजा, अनुष्ठान एवं आरोग्य हेतु पूरे देश के गौ-भक्‍तों को उचित मूल्य पर वितरित किया जा रहा है। पूज्य गौमाता के प्रतिदिन पालन-पोषण हेतु गोपालक योजना है, जिसमें प्रतिगाय प्रतिमाह १५००/- रुपये तथा प्रतिवर्ष घास-चारा का व्यय १८,०००/- रुपये निश्चित किया गया है। आज समय के साथ गोधन विलुप्त होने के कगार पर है। गोचर भूमि-विलुप्त हो रही है। जबकि २ या ३ गोवंश के सहारे ही कोई भी परिवार अपनी गाड़ी खींच सकता है। पशुधन के अभाव में नकली दूध से बनी मिठाईयों से जीवन चक्र चल रहा है, जैविक खाद के स्थान पर रासायनिक खाद के प्रयोग से खाद्यान्न दूषित हो रहा है। आज डॉलर की भूख हमें किसी भी नीचता की ओर ले जा रही है। बीफ निर्यातकों की श्रेणी में आगे बढ़ रहा देश महात्मा गाँधी के उस सपने को अधूरा साबित कर रहा है, जिसमें उन्होंने कहा था कि हमारे लक्ष्य तब तक पूरे नहीं हो सकते जब तक भारत में एक भी कत्लगाह कारगाह रहेगा। यह मानवीय हिंसा मानवीय असंतोष तब तक धरती पर रहेगा जब तक गौ-माता का अंर्तनाद जारी रहेगा। मनुष्य को गौ यज्ञ का फल तभी मिलेगा, जब कत्लखाने जा रही गाय को छुड़ाकर उसके पालन-पोषण की व्यवस्था हो। ईसामसीह ने भी कहा था एक गाय का मरना एक मनुष्य को मारने के समान है। मदन मोहन मालवीय जी की अंतिम इच्छा भी कि गोवंश हत्या निषेध नियम भारतीय संविधान में बने। गौ हत्या भारतीय संस्कृति, सभ्यता एवं आस्था की हत्या के स्वरूप है, ऐसी घिनौनी हरकत करनेवालों की न तो कोई जाति होती है और न धर्म। आज जो बड़े पैमाने पर गौ-मांस के लिए गायों की हत्या की जा रही है, इससे दुधारू गायों की भी संख्या प्रभावित हो रही है जो सवा अरब की आबादी वाले देश के लिए महज सिकुड़ कर १६ करोड़ तक हो गई है।गौ हत्या से जुड़े तमाम अनसुलझें सवाल-जवाबों की इस कशमकश से केवल यही प्रश्न उपजता है कि आखिर देश में गौ हत्या क्‍यों? संविधान निर्मिताओं ने राज्यों को दिए नीति-निर्देशक सिद्धांतों में गौवंश एव्ां अन्य दुधारू पशुओं के वध पर रोक लगाने का परामर्श भी दिया है। यह अच्छी बात है कि राज्यसभा में भी सत्ता पार्टी के सदस्यों द्वारा गौ हत्या पर रोक लगाने संबंधी केन्द्रीय कानून की वकालत करते हुए गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने की मांग चली आ रही है। ऐसा पहली बार नहीं है कि ‘गौ संरक्षण’ चर्चा के केन्द्र में है। गौ हत्या पर प्रतिबंध लगाने के लिए करपात्री जी महाराज ने भी स्व. श्रीमती इंदिरा गांधी जी से करबद्ध प्रार्थना की थी और उन्होंने प्रधानमंत्री पद पर काबिज हो जाने के बाद देश के सारे कतलखाने बंद करवाने का वादा भी किया था, परन्तु कालान्तर में वे ऐसा न कर पाई और जब संतों ने उस वादों को याद दिलाया तो वे अनशनकारी निहत्थे संतों के साथ बेहरमी से पेश आयी, जिसका खामियाजा उन्हें संतों के श्राप से भुगतना पड़ा। गौ हत्या पर रोक और गौ रक्षा के लिए कई आंदोलन होते आये हैं, जो इतिहास के पन्ने में आज भी द़र्ज हैं। गाय केवल एक हिन्दू जाति से संलग्न राष्ट्रीय निधि नहीं, जिसकी रक्षा की जानी है, बल्कि यह राष्ट्रीय धरोहर है और इसकी रक्षा करना हमारा धर्म है। सवा अरब देशवासियों का परम कर्त्तव्य एवं उत्तरदायित्व है कि इस पशुधन को बचाकर गौवंश का संरक्षण किया जाए। ऐसे में मेरी यह करबद्ध प्रार्थना है कि गौ-हत्या पर रोक लगे एवं पड़ोसी देशों में गौ माता के स्थानांतरण पर प्रतिबंध हो, केन्द्र स्तर पर जो भी कानून बनाने पड़े उन्हें अविलंब लागू करें, ताकि हमारी राष्ट्रीय धरोहर मिटने से बच सके। मैं इसी विनती के साथ अपनी आत्म अभिव्यक्ति को विराम देता हूँ। – ताराचन्द जैनदेवघर  ‘जिनागम’ के प्रबुद्ध पाठकों से निवेदन गौवंश की रक्षा में अपना कर्त्तव्य निभायें (A request to the enlightened readers of ‘Jinagam’ Do your duty in protecting cows)

श्री मोहनखेड़ा तीर्थ का संक्षिप्त परिचय (Brief Introduction of Shri Mohankheda Tirtha)

श्री मोहनखेड़ा तीर्थ का संक्षिप्त परिचय (Brief Introduction of Shri Mohankheda Tirtha)वर्तमान अवसर्पणी के प्रथम तीर्थंकर भगवान् श्री ऋषभदेवजी को समर्पित श्री मोहनखेड़ा तीर्थ की गणना आज देश के प्रमुख जैन तीर्थों में की जाती है। मध्यप्रदेश के धार जिले की सरदारपुर तहसील, नगर राजगढ़ से मात्र तीन किलोमीटर दूर स्थित यह तीर्थ देव, गुरु व धर्म की त्रिवेणी है।श्री मोहनखेड़ा तीर्थ की स्थापना: तीर्थ की स्थापना प्रातः स्मरणीय विश्वपूज्य दादा गुरुदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरिश्वरजी म.सा. की दिव्यदृष्टि का परिणाम है, आषाढ़ वदी १०, वि.सं. १९२५ में क्रियोद्धार करने व यति परम्परा को संवेगी धारा में रुपान्तरित कर श्रीमद् देश के विभिन्न भागों में विचरण व चातुर्मास कर जैन धर्म की प्रभावना कर रहे थे, स्वभाविक था कि मालव भूमि भी उनकी चरणरज से पवित्र हो, पूज्यवर संवत् १९२८ व १९३४ में राजगढ़ नगर में चातुर्मास कर चुके थे तथा इस क्षेत्र के श्रावकों में उनके प्रति असीम श्रद्धा व समर्पण था, सं. १९३८ में निकट ही अलिराजपुर में आपने चातुर्मास किया व तत्पश्चात राजगढ़ में पदार्पण हुआ, राजगढ़ के निकट ही बंजारों की छोटी अस्थायी बस्ती थी- खेड़ा, श्रीमद् का विहार इस क्षेत्र से हो रहा था, सहसा यहां उनको कुछ अनुभूति हुई और आपने अपने दिव्य ध्यान से देखा कि यहां भविष्य में एक विशाल तीर्थ की संरचना होने वाली है। राजगढ़ आकर गुरुदेव ने सुश्रावक श्री लुणाजी पोरवाल से कहा कि आप सुबह उठकर खेड़ा जायें व घाटी पर जहां कुमकुम का स्वस्तिक देखें, वहां निशान बना दो, उस स्थान पर तुमको एक मंदिर का निर्माण करना है। परम गुरुभक्त श्री लूणाजी ने गुरुदेव का आदेश शिरोधार्य किया, गुरुदेव के कथनानुसार जहाँ स्वस्तिक दिखा, श्री लूणाजी ने पंच परमेष्ठि-परमात्मा का नाम स्मरण कर उसी समय मुहुर्त कर डाला व भविष्य के एक महान तीर्थ के निर्माण की भूमिका बन गई।मंदिर निर्माण का कार्य प्रारम्भ हुआ व शीघ्र ही पूर्ण भी हो गया। संवत् १९३९ में पू. गुरुदेव का चातुर्मास निकट ही कुक्षी में तथा संवत् १९४० में राजगढ़ नगर में हुआ था। गुरुदेव ने विक्रम संवत १९४० की मृगशीर्ष शुक्ल सप्तमी के शुभ दिन मूलनायक ऋषभदेव भगवान आदि ४१ जिनबिम्बों की अंजनशलाका की। मंदिर में मूलनायकजी एवं अन्य बिम्बों की प्रतिष्ठा की गई। प्रतिष्ठा के समय पू. गुरुदेव ने घोषणा की थी कि यह तीर्थ भविष्य में विशाल रुप धारण करेगा, इसे मोहनखेड़ा के नाम से ही पुकारा जाये। पूज्य गुरुदेव ने इस तीर्थ की स्थापना श्री सिद्धाचल की वंदनार्थ की थी।प्रथम जीर्णोद्धार: संवत १९९१ में मंदिर निर्माण के लगभग २८ वर्ष पश्चात श्री यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के उपदेश से प्रथम जीर्णोद्धार हुआ। यह जीर्णोद्धार आपके शिष्य मुनिप्रवर श्री अमृतविजयजी की देखरेख व मार्गदर्शन में हुआ था। पूज्य मुनिप्रवर प्रतिदिन राजगढ़ से यहां आया-जाया करते थे, इस जीर्णोद्धार में जिनालय के कोट की मरम्मत की गई थी, व परिसर में फरसी लगवाई थी, इस कार्य हेतु मारवाड के आहोर सियाण नगर के त्रिस्तुतिक जैन श्वेताम्बर श्री संघों ने वित्तीय सहयोग प्रदान किया था।द्वितीय जीर्णोद्धार: श्री मोहनखेड़ा तीर्थ का द्वितीय जीर्णोद्धार इस तीर्थ के इतिहास की सबसे अह्म घटना है, परिणाम की दृष्टि से यह जीर्णोद्धार से अधिक तीर्थ का कायाकल्प था, इसके विस्तार व विकास का महत्वपूर्ण पायदान था, इस जीर्णोद्धार, कायाकल्प व विस्तार के शिल्पी थे- प.पू. आचार्य भगवन्त श्री विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी, तीर्थ विकास की एक गहरी अभिप्सा आपके अंतरमन में थी, जिसे आपने अपने पुरुषार्थ व कार्यकुशलता से साकार किया।कुशल नेतृत्व, योजनाबद्ध कार्य, कठिन परिश्रम व दादा गुरुवर एवं आचार्य महाराज के आशीर्वाद के फलस्वरुप ९७६ दिन में नींव से लेकर शिखर तक मंदिर तैयार हो गया, यह नया मंदिर तीन शिखर से युक्त है। श्रीसंघ के निवेदन पर पट्टधर आचार्य श्री विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी ने अपने हस्तकमलों से वि.सं. २०३४ की माघ सुदी १२ रविवार को ३७७ जिनबिम्बों की अंजनशलाका की, अगले दिवस माघ सुदी १३ सोमवार को तीर्थाधिराज मूलनायक श्री ऋषभदेव प्रभु, श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ व श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ आदि ५१ जिनबिम्बों की प्राणप्रतिष्ठा की व शिखरों पर दण्ड, ध्वज व कलश समारोपित किये। जीर्णोद्धार में परमपूज्य आचार्य भगवन्त श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी के समाधि का भी जीर्णोद्धार किया गया व ध्वज, दण्ड व कलश चढ़ाये गये, श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी की समाधि पर भी दण्ड, ध्वज व कलश चढ़ाये गये।मंदिर का वर्तमान स्वरुप : वर्तमान मंदिर काफी विशाल व त्रिशिखरीय है, मंदिर के मूलनायक भगवान आदिनाथ हैं जिसकी प्रतिष्ठा श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी द्वारा की गई थी, अन्य दो मुख्य बिम्ब श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ एवं श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ के हैं, जिनकी प्रतिष्ठा व अंजनशलाका वि. सं. २०३४ में मंदिर पुर्नस्थापना के समय श्रीमद् विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी के करकमलों से हुई थी। गर्भगृह में श्री अनन्तनाथजी, सुमतिनाथजी व अष्ट धातु की प्रतिमायें हैं, गर्भगृह में प्रवेश हेतु संगमरमर के तीन कलात्मक द्वार हैं व उँची वेदिका पर प्रभु की प्रतिमायें विराजित हैं। श्री मोहनखेड़ा तीर्थ का संक्षिप्त परिचय (Brief Introduction of Shri Mohankheda Tirtha)

गुरुदेव श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरिश्वरजी ( Gurudev Shrimad Vijayrajendrasurishwarji )

गुरुदेव श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरिश्वरजी ( Gurudev Shrimad Vijayrajendrasurishwarji )जन्म एवं माता-पिता:-‘श्रीराजेन्द्रसूरिरास’ एवं ‘श्री राजेन्द्रगुणमंजरी’ के अनुसार वर्तमान राजस्थान प्रदेश के भरतपुर शहर में दहीवाली गली में पारिख परिवार के ओसवंशी श्रेष्ठि रुषभदास रहते थे। आपकी धर्मपत्नी का नाम केशरबाई था जिसे अपनी कुक्षि में श्री राजेन्द्र सूरि जैसे व्यक्तित्व को धारण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। श्रेष्ठि रुषभदासजी की तीन संतानें थी, दो पुत्र: बड़े पुत्र का नाम माणिकचन्द एवं छोटे पुत्र का नाम रतनचन्द था एवं एक कन्या थी जिसका नाम प्रेमा था, यही ‘रतनचन्द’ आगे चलकर आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरि नाम से प्रख्यात हुए। पारेख परिवार की उत्पत्ति: आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरि के अनुसार वि.सं. ११९० में आचार्यदेव श्री जिनदत्तसूरि महाराज के उपदेश से राठौड़ वंशीय राजा खरहत्थ ने जैन धर्म स्वीकार किया, उनके तृतीय पुत्र भेंसाशाह के पांच पुत्र थे, उनमें तीसरे पुत्र पासुजी आहेड्नगर (वर्तमान आयड-उदयपुर) के राजा चंद्रसेन के राजमान्य जौहरी थे, उन्होंने विदेशी व्यापारी के हीरे की परीक्षा कर बताया कि यह हीरा जिसके पास रहेगा उसकी स्त्री मर जायेगी, ऐसी सत्य परीक्षा करने से राजा पासुजी के साथ ‘पारखी’शब्द का अपभ्रंश ‘पारिख’शब्द बना। पारिख पासुजि के वंशज वहाँ से मारवाड़, गुजरात, मालवा, उत्तरप्रदेश आदि जगह व्यापार हेतु गये, उन्हीं में से दो भाईयों के परिवार में से एक परिवार भरतपुर आकर बस गया था।जन्मविषयक निमित्तसूचक स्वप्नदर्शन: ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है कि आचार्य श्री के जन्म के पहले एक रात्रि उनकी माता केशरबाई ने स्वप्न में देखा की एक तरुण व्यक्ति ने प्रज्ज्वल कांति से चमकता हुआ रत्न केशरबाई को दिया – ‘गर्भाधानेड््थ साडद््क्षीत स्वप्ने रत्नं महोत्तम्म’ निकट के स्वप्नशास्त्री ने स्वप्न का फल भविष्य में पुत्ररत्न की प्राप्ति होना बताया। जन्म समय – आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरी के अनुसार वि.सं. १८८३ पौष सूदि सप्तमी गुरुवार, तदनुसार ३ दिसम्बर ईस्वी सन् १८२७ को माता केशरबाई ने देदीप्यमान पुत्ररत्न को जन्म दिया। पूर्वोक्त स्वप्न के अनुसार माता-पिता एवं परिवार ने मिलकर नवजात पुत्र का नाम ‘रतनचंद’ रखा। व्यवहारिक शिक्षा – आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरी एवं मुनि गुलाबविजय के अनुसार योग्य उम्र में पाठशाला में प्रविष्ट हुए मेधावी रतनचंद ने केवल १० वर्ष की अल्पायु में ही समस्त व्यवहारिक शिक्षा अर्जित की, साथ ही धार्मिक अध्ययन में विशेष रुचि होने से धार्मिक अध्ययन में प्रगति की, अल्प समय में ही प्रकरण और तात्विक ग्रंथों का अध्ययन कर लिया। तीव्र क्षयोपशम के कारण प्रखरबुद्धि बालक रत्नराज १३ वर्ष की छोटी सी उम्र में अतिशीघ्र विद्या एवं कला में प्रविण हो गए। श्री राजेन्द्रसूरि रास के अनुसार उसी समय विक्रम संवत् १८९३ में भरतपुर में अकाल पड़ने से, कार्यवश माता-पिता के साथ आये, रत्नराज का उदयपुर में आचार्य श्री प्रमोदसूरिजी के प्रथम दर्शन एवं परिचय हुआ, उसी समय उन्होंने रत्नराज की योग्यता देखकर ऋषभदासजी ने रत्नराज की याचना की, लेकिन ऋषभदास ने कहा कि ‘अभी तो बालक है, आगे किसी अवसर पर जब यह बड़ा होगा और उसकी भावना होगी तब देखा जायेगा।’यात्रा एवं विवाह विचार – जीवन के व्यापार-व्यवहार के शुभारंभ हेतु मांगलिक स्वरुप तीर्थयात्रा कराने का परिवार में विचार हुआ। माता-पिता की आज्ञा लेकर बड़े भाई माणेकचंद के साथ धुलेवानाथ – केशरियाजी तीर्थ की पैदल यात्रा करने हेतु प्रयाण किया, पहले भरतपुर से उदयपुर आये, वहाँ से अन्यत्र यात्रियों के साथ केशरियाजी की यात्रा प्रारंभ की, तब रास्ते में पहाड़ियों के बीच आदिवासी भीलों ने हमला कर दिया, उस समय रत्नराज ने यात्रियों की रक्षा की, साथ ही नवकार मंत्र के जाप के बल पर जयपुर के पास अंब ग्राम निवासी शेठ शोभागमलजी की पुत्री रमा को व्यंतर के उपद्रव से मुक्ति भी दिलायी, सभी के साथ केशरियाजी की यात्रा कर वहाँ से उदयपुर, करेडा पार्श्वनाथ एवं गोडवाड के पंचतीर्थों की यात्रा कर वापिस भरतपुर आये। ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है कि शेठ सोभागमलजी ने रत्नराज के द्वारा पुत्री रमा को व्यंतर दोष से मुक्त किये जाने के कारण रमा की सगाई रत्नराज के साथ करने हेतु बात की थी लेकिन वैराग्यवृत्ति रत्नराज ने इसके लिए इंकार कर दिया।व्यापार – रत्नराज के पिता श्रेष्ठि ऋषभदास का हीरे-पन्ने आदि जवेरात एवं सोने-चांदी का वंश परम्परागत व्यापार था, रत्नराज ने भी १४ साल की छोटी सी उम्र में चैत्र सुदि प्रतिपदा के दिन परम्परागत हीरा-पन्ना आदि का व्यापार शुरु किया और केवल दो महिने में ही व्यापार का पुरा अनुभव प्राप्त कर लिया, उसके बाद व्यापार हेतु बड़े भाई के साथ भरतपुर से पावापुरी, समेतशिखरजी आदि तीर्थों की यात्रा कर कलकत्ता पहुँचे, थोड़े समय तक वहाँ व्यापार कर वहाँ से जलमार्ग से व्यापार हेतु सीलोन (श्रीलंका) पहुँचे, वहाँ ढाई से तीन साल तक व्यापार कर न्याय-नीतिपूर्वक कल्पनातीत धन उपार्जन किया। व्यापार में अत्याधिक व्यस्तता एवं मुनाफा होने के बावजूद भी माता-पिता के वृद्धत्व एवं गिरते स्वास्थ्य का समाचार पाकर दोनों भाई व्यापार समेट कर वापिस कलकत्ता होकर भरतपुर आ गये।वैराग्यभाव – माता-पिता की वृद्धावस्था एवं दिन-प्रतिदिन गिरते स्वास्थ्य के कारण दोनों भाई माता- पिता की सेवा में लग गए, रत्नराज ने उनको अंतिम आराधना करवाई एवं एक दिन के अंतर में माता- पिता दोनों ने समाधिभाव से परलोक प्रयाण किया। माता-पिता के स्वर्गवास के पश््चात उदासीन रत्नराज आत्मचिंतन में लीन रहने लगे, नित्य अर्ध-रात्रि में, प्रात:काल में कायोत्सर्ग, ध्यान, स्वाध्याय, चिंतन-मनन आदि में समय व्यतीत करते रहे, सुषुप्त वैराग्यभावना के बीज अंकुरित होने लगे, उसी समय (वि.सं. १९०२) में पूज्य श्री प्रमोदसूरिजी का चातुर्मास भरतपुर में हुआ। आपका तप-त्याग से भरा वैराग्यमय जीवन एवं तत्वज्ञान से ओत-प्रोत वैराग्योत्पादक उपदेशामृत ने रत्नराज के जिज्ञासु मन का समाधान किया, जिससे रत्नराज के वैराग्यभाव में अभिवृद्धि हुई, फलस्वरुप उनकी दीक्षा-भावना जागृत हुई और वे भगवती दीक्षा (प्रवज्या) ग्रहण करने हेतु उत्कंठित हो गये।दीक्षा – दीक्षा को उत्कंठित रत्नराज में उत्पादन उछल रहा था, केवल निमित्त की उपस्थिति आवश्यक थी। निमित्त का योग वि.सं. १९०४ वैशाख सुदि ५ (पंचमी) को उपस्थित हो गया और इस प्रकार अपने बड़े भ्राता माणिकचंदजी की आज्ञा लेकर रत्नराज ने उदयपुर (राज.) में पिछोला झील के समीप उपवन में आम्रवृक्ष के नीचे श्रीपूज्य श्री प्रमोदसूरिजी से यति दीक्षा ग्रहण की, इस प्रकार आपके दीक्षा गुरु आचार्य श्री प्रमोद सूरिजी थे, अब नवदीक्षित मुनिराज मुनि श्री रत्नविजयजी के नाम से पहचाने जाने लगे। अध्ययन – ‘पढमं नाणं तओ दया’ अर्थात ज्ञान के बिना संयम जीवन की शुद्धि एवं वृद्धि नहीं होती, इस बात को निर्विवाद सत्य समझकर गुरुदत्त ग्रहण शिक्षा के साथ-साथ मुनिश्री रत्नविजयजी ने दत्तवित्त होकर अध्ययन प्रारंभ किया। व्याकरण, काव्य, अलंकार, न्याय, दर्शन, ज्योतिष, वैद्यक, कोश, आगम आदि विषयों का सर्वांगीण अध्ययन आरंभ किया। मुनि रत्नविजयजी ने गुरु आज्ञा से खरतगच्छीय यति श्री सागरचंदजी के पास व्याकरण, साहित्य, दर्शन आदि का अध्ययन किया (वि.सं. १९०६ से १९०९) तत्पश््चात निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका, वृत्ति आदि पंचागी सहित जैनागमों का विशद अध्ययन वि.सं. १९१०-११-१२-१३ में श्री पूज्य श्री देवेन्द्रसूरि के पास किया, आपकी अध्ययन जिज्ञासा और रुचि देखकर श्री देवेन्द्रसूरि ने विद्या की अनेक दुरुह और अलभ्य आमनायें प्रदान की, श्री राजेन्द्रसूरि द्वारा (पूर्वार्द्ध) के लेखक रायचन्दजी के अनुसार मुनि रत्नविजय ने ज्योतिष का अभ्यास जोधपुर (राजस्थान) में चंद्रवाणी ज्योतिषी के पास किया।बड़ी दीक्षा – वि.सं. १९०९ में अक्षय तृतीया (वैशाख सुदि तीज) के दिन श्रीमद् विजय प्रमोद सूरिजी ने उदयपुर (राजस्थान) में आपको बड़ी दीक्षा दी, साथ ही श्री पूज्य श्री प्रमोदसूरिजी एवं श्री देवेन्द्रसूरिजी ने आपको उस समय पंन्यास पद भी दिया। अध्यापन – आपकी योग्यता और स्वयं की अंतिम अवस्था ज्ञातकर श्रीपूज्य श्री देवेन्द्रसूरि ने अपने बाल शिष्य धरणेन्द्रसूरिजी (धीर विजय) को अध्ययन कराने हेतु मुनिश्री रत्नविजय जी को आदेश दिया। गुरु आज्ञा व श्रीपूज्यजी के आदेशानुसार आपने वि.सं. १९१४ से १९२१ तक धीरविजय जी आदि ५१ यतियों को विविध विषयों का अध्ययन करवाया और स्व-पर दर्शनों का निष्णांत बनाया। श्री पूज्यश्री धरणेन्द्रसूरि ने भी विद्यागुरु के रुप में सम्मान हेतु आपको ‘दफ्तरी’ पद दिया। दफ्तरी पद पर कार्य करते हुए आपने वि.सं. १९२० में रणकपुर तीर्थ में चैत्र सुदि १३ (महावीर जन्मकल्याणक) के दिन पाँच वर्ष में क्रियोद्धार करने का अभिग्रह किया। वि.सं. १९२२ का चातुर्मास प्रथम बार स्वतंत्र रुप से २१ यतियों के साथ जालोर में किया, इसके बाद वि.सं. १९२३ का चातुर्मास श्री धरणेन्द्रसूरिजी के आग्रह से ‘घाणेराव’में उन्हीं के साथ हुआ।आचार्य पद पर आरोहण: ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है कि वर्षाकाल में ही घाणेराव में ‘इत्र’ के विषय में मुनि रत्नविजय का श्री धरणेन्द्रसूरिजी से विवाद हो गया, श्री रत्नविजय जी साधुचर्या के अनुसार साधुओं को ‘इत्र’ आदि उपयोग करने का निषेध करते थे जबकि धरणेन्द्रसूरि एवं अन्य शिथिलाचारी यति इत्र आदि पदार्थ ग्रहण करते थे। कल्पनासूत्रार्थ प्रबोधिनी के अनुसार वि.सं. १९२३ के पर्युषण पर्व में तेलाधार के दिन शिथिलाचारी को दूर करने के लिये मुनि रत्नविजय ने तत्काल ही मुनि प्रमोदरुचि एवं धनविजय के साथ घाणेराव से विहार कर नाडोल होते हुए आहोर शहर आकर अपने गुरु श्री प्रमोदसूरिजी से संपर्क किया और बीती घटना की जानकारी दी, साथ ही अनेक अन्य विद्वान यतियों ने भी श्री पूज्य श्री प्रमोदसूरिजी शिथिलाचार का उपचार करने हेतु लिखा, तब मुनि रत्नविजय ने आहोर में अट्ठम तप कर मौन होकर ‘नमस्कार महामंत्र’ की एकान्त में आराधना की, आराधना के पश्चात श्री प्रमोदसूरिजी ने रत्नविजय से कहा- ‘रत्न! तुमने क्रियोद्धार करने का निश्चय किया, सो योग्य है, मुझे प्रसन्नता भी है, परंतु अभी कुछ समय ठहरो, पहले इन श्री पूज्यों और यतियों से त्रस्त जनता को मार्ग दिखाओ फिर क्रियोद्धार करो, तत्पश्चात गुरुदेव प्रमोदसूरिजी से विचार विमर्श कर मुनि रत्नविजय ने अपनी कार्य प्रणाली निश्चित की। वि.सं. १९२३ में इत्र विषयक विवाद के समय ही प्रमोदसूरि जी ने मुनि रत्नविजय को आचार्य पद एवं श्रीपूज्य पदवी देना निश्चित कर लिया था।‘श्री राजेन्द्रगुणमंजरी’ आदि में उल्लेख है कि िव.सं. १९२४, वैशाख सुदि पंचमी को श्री प्रमोदसूरिजी ने निज परम्परागत सूरिमंत्रादि प्रदान कर श्रीसंघ आहोर द्वारा किये गये महोत्सव में मुनि श्री रत्नविजय जी को आचार्य पद एवं श्री पूज्य पद प्रदान किया और मुनि रत्नविजय का नाम ‘श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि रखा गया। आहोर के ठाकुर यशवंतसिंह जी ने परम्परानुसार श्रीपूज्य – आचार्य श्रीमद्जय राजेन्द्रसूरि को रजतावृत्त चामर, छत्र, पालकी, स्वर्णमण्डित रजतदण्ड, सूर्यमुखी, चंद्रमुखी एवं दुशाला (कांबली) आदि भेंट दिये, इस प्रकार बालक रत्नराज क्रमश: मुनि रत्नविजय, पंन्यास रत्नविजय और अब श्रीपूज्य एवं आचार्य पद ग्रहण करने के बाद आचार्य ‘श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि नाम से पहचाना जाने लगा। आचार्य पद ग्रहण कर आप मारवाड़ से मेवाड़ की और विहार कर शंभूगढ़ पधारे, वहाँ के राणाजी के कामदार फतेहसागरजी ने पुन: पाटोत्सव किया और आचार्यश्री को शाल (कामली) छड़ी, चँवर आदि भेंट किये। आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि ने शम्भूगढ से विहार करते हुए वि.सं. १९२४ का चातुर्मास जावरा में किया। आचार्य पद पर आरोहण के पश््चात आपका यह प्रथम चातुर्मास था। जावरा चातुर्मास के बाद वि.सं. १९२४ के माघ सुदि ७ को आपने नौकलमी कलमनामा बनाकर श्री पूज्य धरणेन्द्रसूरि द्वारा भेजे गये मध्यस्थ मोतीविजय और सिद्धिकुशलविजय – इन दो यतियों के साथ भेजकर श्री धरणेन्द्रसूरि आदि समस्त यतिगण से अनुमत करवाया।क्रियोद्धार का बीजारोपण : श्री राजेन्द्रसूरिरास (पूर्वार्द्ध) के अनुसार दीक्षा लेकर वि.सं. १९०६ में उज्जैन पधारे तब गुरुमुख से उत्तराध्ययन सूत्र के अन्तर्गत भृगु पुरोहित के पुत्रों की कथा सुनकर मुनि रत्नविजयजी के भावों में वैराग्य वृद्धि हुई और आप क्रियोद्धार करने के विषय में चिंतन करने लगे। श्री राजेन्द्रसूरिरास के अनुसार पंन्यास श्रीरत्नविजयजी जब विहार करते हुए वि.सं. १९२० में राजगढ़ थे तब वहाँ यति मां विजय ने उनको अपने गुरु की खाली गादी पर श्री पूज्य बनकर बैठने को कहा, तब आपने कहा कि मुझे तो क्रियोद्धार करना है – ऐसा कहकर श्रीपूज्य की गादी पर बैठने से मना कर दिया।क्रियोद्धार का अभिग्रह : वि.सं. १९२० में ही पं. रत्नविजयजी अन्य यतियों के साथ विहार करते हुए चैतमास में रणकपुर पधारे तब भगवान महावीर के २३८९ कल्याणक के उपलक्ष में रत्नविजयजी ने अट्ठम (तीन उपवास) तप कर रणकपुर में परमात्मा आदिनाथ की साक्षी से पाँच वर्षों में क्रियोद्धार करने का अभिग्रह लिया था, वहीं पारणा के दिन प्रात:काल में मुनि रत्नविजयजी मन्दिर से दर्शन कर बाहर जिनालय के सोपान उतर रहे थे तब अबोध बालिका ने आकर कहा:- नमो आयरियाणं, महाराज साहब, तेला (अट्ठम तप) सफल हो गया, आप पारणा करो। (क्रियोद्धार) बासठ महीनों में करना – ऐसा कहकर व बालिका दौड़ कर मन्दिर में लुप्त हो गई, इस प्रकार उन्हें दिव्य शक्ति के द्वारा क्रियोद्धार करने का संकेत भी मिला। इसके बाद वि.सं. १९२२ में जालोर (राजस्थान) चातुर्मास में भी आपको क्रियोद्धार करने की तीव्र भावना हुई। यति महेंद्रविजयजी, धनविजयजी आदि ने भी क्रियोद्धार करने में अपनी सहमति बताई। वि.सं. १९२३ में भी जब आप घाणेराव से आहोर पधारे थे तब भी आपने आहोर में एक महिना तक अभिग्रह धारण कर शुद्ध अन्न-पानी ही उपयोग में लिये, इतना ही नहीं अपितु राजेन्द्रसूरिरास में तो स्पष्ट उल्लेख है कि श्रीपूज्य पद ग्रहण करने के पश्चात आपने गुरुश्री प्रमोद्सूरिजी से भी क्रियोद्धार हेतु विचार -विमर्श कर आज्ञा भी प्राप्त की थी, अत: उत्कृष्ट तप- त्यागमय शुद्ध साधु जीवन का आचरण एवं वीरवाणी के प्रचार के लिए एक मात्र ध्येय की पूर्ति हेतु पूर्वोत्कारनुसार धरणेन्द्रसूरि आदि के द्वारा नव कलमनामा अनुमत होने के बाद आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरिश्वर जी ने वि.सं. १९२५ में आषाढ वदि दशमी शनिवार/सोमवार, रेवती नक्षत्र, मीन राशि, शोभन (शुभ) योग, मिथुन लग्न में तदनुसार दिनांक १५-६-१८६८ में क्रियोद्धार कर शुद्ध जीवन अंगीकार किया, उसी समय छड़ी, चामर, पालखी आदि समस्त परिग्रह श्री ऋषभदेव भगवान के जिनालय में श्री संघ जावरा को अर्पित किया, जिसका ताड़पत्र पर उत्कीर्ण लेख श्री सुपार्श्वनाथ के गर्भगृह के द्वार पर लगा हुआ है।क्रियोद्धार के समय आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरिजी ने अट्ठाई (आठ उपवास) तप सहित जावरा शहर के बाहर (खाचरोद की ओर) नदी के तट पर वटवृक्ष के नीचे नाण (चतुर्मुख जिनेश्वर प्रतिमा) के समक्ष केशलोंच किया, पंच महाव्रत उच्चारण किये एवं शुद्ध साधु जीवन अंगीकार कर सुधर्मा स्वामी जी की ६८वीं पाट परम्परा पर आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरिश्वरजी नाम से प्रख्यात हुए, तत्कालीन शिष्यरत्न, राष्ट्रसंत आचार्य श्रीमद्विजय जयंतसेन सूरिश्वरजी के उपदेश से खीमेल (राजस्थान) निवासी किशोरमलजी वालचंदजी खीमावत परिवार के सहयोग से श्री संघ जावरा द्वार क्रियोद्धारस्थली श्री राजेन्द्रसूरि वाटिका – जावरा (म.प्र.) में एक सुरम्य गुरुमन्दिर का निर्माण किया गया। गुरुदेव श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरिश्वरजी ( Gurudev Shrimad Vijayrajendrasurishwarji )