Author: Bijay Kumar Jain

जैन एकता के प्रवर्तक आचार्य देवेश श्री ऋषभचन्द्र सूरीश्वरजी 0

जैन एकता के प्रवर्तक आचार्य देवेश श्री ऋषभचन्द्र सूरीश्वरजी

भारत अपनी अध्यात्म प्रधान संस्कृति से विश्रुत था, किन्तु आज इसने ‘जगद्गुरु’ होने की पहचान खोयी तो खोयी हुई पहचान को पुन: प्राप्त करने एवं अध्यात्म के तेजस्वी स्वरूप को पाने के लिये अनेक संत मनीषी अपनी साधना, अपने त्याग, अपने कार्यक्रमों से प्रयासरत रहे हैं, ताकि जनता के मन में ‘अध्यात्म’ एवं धर्म के प्रति आकर्षण रह सके। अध्यात्म ही एक ऐसा तत्व है, जिसको उज्जीवित और पुनर्प्रतिष्ठित कर ‘भारत’ अपने खोए गौरव को पुन: प्रस्थापित रख सकता है, इस महनीय कार्य में एक थे ज्योतिष सम्राट के नाम से चर्चित मुनिप्रवर श्री ऋषभचन्द्र विजयजी, आप महान् तपोधनी, शांतमूर्ति, परोपकारी संत थे, जिन्होंने संसार की असारत का बोध बताया, संयम जीवन का सार समझाया एवं मानवता के उपवन को महकाया और ‘जैन एकता’ के अभियान को बुलंद किया। मुनि श्री ऋषभचन्द्रजी का जन्म ज्येष्ठ सुदी ७, संवत २०१४ दिनांक ४ जून १९५७ को सियाना (राजस्थान) में हुआ, आपके पिता का नाम शा.श्री मगराजजी तथा माता का नाम श्रीमती रत्नावती था, बचपन का नाम मोहनकुमार था। आपकी माताश्री एवं भ्राता भी दीक्षित होकर संयममय जीवन जी रहे हैं एवं माता संयम जीवन में तपस्वीरत्ना श्री पीयूषलताश्री एवं भ्राता आचार्यदेवेश श्री रवीन्द्रसूरीश्वरजी, आपकी दीक्षा द्वितीय ज्येष्ठ सुदी १०, दिनांक २३ जून १९८०, श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ (म.प्र.)में जैन धर्म परंपरा के प्रेरक आचार्य ऋषभचंद सुरीश्वरजी ही इनके भीतर था, शून्य जुड़ते गए और संख्या की समृद्धअक्षय बनती गई। ऋषभचंद्र विजयजी का अतीत सृजनशील सफर का साक्षी है, इसके हर पड़ाव पर शिशु-सी सहजता, युवा-सी तेजस्विता, प्रौढ़-सी विवेकशीलता और वृद्ध-सी अनुभवप्रवणता के पदचिन्ह हैं जो हमारे लिए सही दिशा में मील के पत्थर बनते हैं। आपकी तेजस्विता और तपस्विता की ऊंची मीनार, जिसकी बुनियाद में जीए गए अनुभूत सत्यों का इतिहास संकलित है, जो साक्षी है सतत अध्यवसाय और पुरुषार्थ की कर्मचेतना का, परिणाम है तर्क और बुद्धि की समन्वयात्मक ज्ञान चेतना का और उदाहरण है निष्ठा तथा निष्काम भाव चेतना का। आपकी करुणा में सह-अस्तित्व का भाव था, निष्पक्षता में सबके प्रति गहरा विश्वास है। न्याय प्रवणता में सूक्ष्म अन्वेषणा के साथ व्यक्ति की गलतियों के परिष्कार की मुख्य भूमिका, सापेक्ष चिंतन में अहं, आग्रह, विरोध और विवाद का अभाव, विकास की यात्रा में सबके अभ्युदय की अभीप्सा, उनकी मूल प्रवृत्ति में रचनात्मकता और जुझारूपन, आप अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जूझते रहे अपनों से भी, परायों से भी और कई बार खुद से भी, इस जुनून में आपने मान-अपमान की भी परवाह नहीं की, सिद्धांतों को साकार रूप देने की रचनात्मक प्रवृत्ति के कारण मुनियों के लिए ज्यादा करणीय माने जाने कार्यों की अपेक्षा जीवदया, मानव सेवा व तीर्थ विकास में रूचि आचार्यदेवेश श्री विद्याचंद्र सूरीश्वरजी ‘पथिक’ के करकमलों से हुई। आपने अपने गुरु से जैन दर्शन के साथ-साथ विशेषत: अध्ययन व्याकरण, न्याय, आगम, वास्तु, ज्योतिष, मंत्र विज्ञान, आयुर्वेद, शिल्प आदि का गहन अध्ययन किया, आपने ४० से अधिक पुस्तकें लिखी, जिसमें अभिधान राजेन्द्र कोष (हिन्दी संस्करण) प्रथम भाग, अध्यात्म का समाधान (तत्वज्ञान), धर्मपुत्र (दादा गुरुदेव का जीवन वृत्त), पुण्यपुरुष, सफलता के सूत्र (प्रवचन), सुनयना, बोलती शिलाएं, कहानी किस्मत की, देवताओं के देश में, चुभन (उपन्यास), सोचकर जिओ, अध्यात्म नीति वचन (निबंध) आदि मुख्य हैं। मुनिश्री ऋषभचंद्रविजयजी का जन्म और जीवन दोनों विशिष्ट अर्हताओं से जुड़ा दर्शन रहा जिसे जब भी पढ़ेंगे, सुनेंगे, कहेंगे, लिखेंगे और समझेंगे तब यह प्रशस्ति नहीं, प्रेरणा और पूजा का मुकाम बना रहेगा, क्योंकि ऋषभचंद्र विजय जी किसी व्यक्ति का नाम नहीं, पद नहीं, उपाधि नहीं, अलंकरण भी नहीं, यह तो विनय और विवेक की समन्विति का आदर्श है, श्रद्धा और समर्पण की संस्कृति है, प्रज्ञा और पुरुषार्थ की प्रयोगशाला है, आशीष और अनुग्रह की फलश्रुति है, व्यक्तिगत निर्माण की रचनात्मक शैली है और अनुभूत सत्य की स्वस्थ प्रस्तुति है, यह वह सफर था, जिधर से भी गुजरता है उजाले बांटता हुआ आगे बढ़ता ही जाता है, कहा जा सकता है कि निर्माण की प्रक्रिया में इकाई का अस्तित्व जन्म से ज्यादा परिलक्षित होती है। जीवदया व मानवसेवा के कई प्रकल्प आपने चला रखे थे। मन्दिरों के निर्माण एवं जीर्णोद्धार के द्वारा न केवल जैन संस्कृति, बल्कि भारतीय संस्कृति सुदृढ़ करते रहे। गौरक्षा एवं गौसेवा के प्रेरक रहे। गौशालाओं के साथ-साथ गौ-कल्याण के अनेक उपक्रम संचालित करते रहे। संवेदना एवं संतुलित समाज रचना के संकल्प के चलते आपके ‘मोहनखेड़ा तीर्थ’ पर गरीब एवं आदिवासी बच्चों के लिए विद्यालय भी संचालित रखा, जहां आज सैकड़ों विद्यार्थी ज्ञानार्जन कर रहे हैं। नेत्र, विकलांगता, नशामुक्ति, कटे हुए (कुरूप) होंठ, कुष्ठ, मंदबुद्धि निवारण आदि के विशिष्ट सेवा प्रकल्प आपके नेतृत्व में संचालित होते रहे, अपने गुरु के हॉस्पिटल, गौशाला एवं गुरुकुल आदि के सपनों को आकार देने में जुटे रहते, आपने पांच करोड़ की लागत से श्री महावीर पवित्र सरोवर को निर्मित कर जन आवश्यकता की पूर्ति की, अलौकिक, अनुपम एवं विलक्षण जैन संस्कृति पार्क को निर्मित कर आपने अपनी मौलिक सोच का परिचय दिया, जगह-जगह मन्दिरों का निर्माण, तीर्थ यात्राएं निकालना, कार सेवा एवं तीर्थशुद्धि एवं स्वच्छता अभियान तीर्थों की स्थापना आदि अनेक अद्भुत एवं संस्कृति प्रभावना के कार्य आपने करवाए, आपमें निर्माण की वृत्ति व शक्ति भी थी। राजगढ़ का मानव सेवा हॉस्पिटल, मोहनखेड़ा का नेत्र चिकित्सालय, सहकारी सोसायटियां, अनेक मंदिर व गौशालाएं इसी वृत्ति व शक्ति का परिचायक है, आप कार्य के प्रति अपनी लगन को दूसरे में भी उतार देते और दूसरे ही पल उनकी शक्ति बन जाते थे। मुनि श्री ऋषभचन्द्र विजयजी के बारे में लिखना मेरे लिये सौभाग्य का सूचक है, आपके उदार और व्यापक दृष्टिकोण का ही प्रभाव है कि आज किसी भी जाति, वर्ग, धर्म, समुदाय या संप्रदाय से जुड़ा व्यक्ति, वह चाहे प्रबुद्ध हो या अप्रबुद्ध आपके करीब आता, पूरे चाव से पढ़ता, सुनता और आपके कार्यक्रमों का सहभागी बन जाता। आपका व्यक्तित्व और कर्तृत्व इक्कीसवीं सदी के क्षितिज पर पूरी तरह छाया रहा। आपके प्रकल्पों, विचारों व प्रवचनों में कोरी आदर्शवादिता या सिद्धांतवादिता के दर्शन ही नहीं, प्रयोग सिद्ध वैज्ञानिक स्वरूप उपलब्ध होता था। अपने ज्ञान गर्भित प्रवचनों व साहित्य के माध्यम से आध्यात्मिक एवं नैतिक क्रांति का शंखनाद आपने किया, आप धर्म को रूढ़िया परंपरा के रूप में स्वीकार नहीं करते, धार्मिक आराधना-उपासना से व्यक्ति की जीवनशैली और वृत्तियों में बदलाव लाते थे, समग्र जीवनदर्शन का निचोड़ भी यही है, ऐसे महान् संत का एक आचार्य के रूप में पदाभिषेक होना एक शुभ भविष्य की आहट बनी। विश्व-क्षितिज पर अशांति की काली छाया, रक्तपात, मारकाट की त्रासदी, मानवीय चेतना का दम घुट रहा है, कारण चाहे राजनीतिक हो या सामाजिक, आर्थिक हो या धार्मिक, कश्मीर का आतंकवाद हो या सांप्रदायिक ज्वालामुखी, तलाक का मसला हो या राष्ट्रगीत गाये जाने पर आपत्ति, भारत को दो नामों से बोला जाना ‘इंडिया व भारत’, भारत की कोई भी राष्ट्रभाषा को घोषित ना होना, ऐसी ही अन्य दर्दनाक घटनाएं, हिंसा एवं संकीर्णता की पराकाष्ठा, आर्थिक असंतुलन, जातीय संघर्ष, मानसिक तनाव, छुआछूत आदि राष्ट्र की मुख्य समस्याएं मुंह बाए खड़ी थी, जन-मानस चाहता था, अंधेरों से रोशनी में प्रस्थान। अशांति में शांति की प्रतिष्ठा किंतु दिशा दर्शन कौन दे? यह अभाव-सा प्रतीत हो रहा था, ऐसी स्थिति में मुनि श्री ऋषभ का अहिंसक जीवन और विविध मानवतावादी उपक्रम ही वस्तुत: मानव-मानव के दिलो-दिमाग पर पड़े संत्रास के घावों पर मरहम का-सा चमत्कार करने की संभावनाओं को उजागर करते, आप आचार्य बनकर मानव को उन्नत जीवन की ओर अग्रसर करने का भगीरथ प्रयत्न किया। मुनि श्री ऋषभचन्द्र विजयजी का व्यक्तित्व बुद्धिबल, आत्मबल, भक्तिबल, कीर्तिबल और वाग्बल का विलक्षण समवाय है। दृढ़-इच्छाशक्ति, आग्नेय संकल्प, पुरुषार्थ और पराक्रम के द्वारा आपने उपलब्धियों के अनेक शिखर स्थापित किए, जो आप जैसे गरिमामय व्यक्तित्व ही कर सकते हैं। दादा गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के नेतृत्व में त्रिस्तुतिक श्रीसंघ एवं श्री मोहन खेड़ा महातीर्थ ने विकास की अलंघ्य ऊंचाइयों का स्पर्श किया, उसकी नाभि केंद्र में मुनि श्री ऋषभचन्द्र विजयजी ही रहे, आपने भारत की अध्यात्म विद्या और संस्कार-संपदा को पुनरुज्जीवित कर उसे जन-मानस में प्रतिष्ठित करने का भगीरथ प्रयत्न किया, ऐसे युग प्रणेता, युग निर्माता अध्यात्मनायक के आचार्य पर संपूर्ण जैन समाज गौरवान्वित होता रहा और होता रहेगा।

समय का सदुपयोग चेतना की निर्मलता के विकास में हो 0

समय का सदुपयोग चेतना की निर्मलता के विकास में हो

समय का सदुपयोग चेतना की निर्मलता के विकास में हो – आचार्य महाश्रमण काल प्रतिलेखना का मतलब है समय की प्रतिलेखना करना, उसको पहचान लेना, समझ लेना। आज तो घड़ियां उपलब्ध हैं और लोगों के हाथों में घड़ी बंधी रहती है। यह समय को बताने वाला यंत्र नवजवानों के लिए हाथ का आभूषण-सा बना हुआ है, घड़ी की यह विशेषता है कि यह समय को सूचित करती है, कुछ समय पूर्व तक तो हमारी श्राविकाएं रेत की घड़ी रखा करती थीं, मुहूर्त का समय जानने में उसका उपयोग होता था, आज तो समय को जानना बहुत आसान हो गया है, रात्रि के अंधेरे में भी समय को जाना जा सकता है, कई घड़ियां रात्रि में देखने वाली होती हैं, कईयों में लाईट होती है अथवा टॉर्च आदि के प्रकाश से देखी जा सकती हैं, साधु संस्था में भी समय को जानना आवश्यक होता है, किस समय प्रतिलेखना करना, किस समय स्वाध्याय करना, किस समय प्रतिक्रमण करना आदि साधुचर्या के अनेक अंग हैं, जिनका निर्वाह करना अनिवार्य होता है और वे समयबद्ध होने चाहिए। समय प्रबंधन का ध्यान रखने वाला व्यक्ति पांच-पांच मिनट का भी उपयोग कर लेता है, आदमी दिनचर्या कोठीक बनाने के लिए यह निश्चित करे कि मेरा उठने और सोने का समय कौन-सा होना चाहिए, किस समय, कौन-सा काम करना चाहिए, कब अध्ययन करना, कब जनसम्पर्क करना, कब व्यवसाय आदि का काम करना? इस प्रकार समय की ठीक निर्धारणा हो, कदाचित् उसमें परिवर्तन भी किया जा सकता है, परन्तु सामान्यतया दिनचर्या व्यवस्थित हो तो समय का सदुपयोग और व्यवस्थित उपयोग किया जा सकता है। अंग्रेजी भाषा का एक सुन्दर सूक्त है- जैसे एक सामान्य स्थिति वाला आदमी पांच रुपये भी सोच समझकर खर्च करता है, उसके लिए धन का कितना मूल्य होता है, इसी प्रकार समय का मूल्यांकन भी करना चाहिए और समय का व्यय भी सोच-सोचकर अच्छे कार्यों में करना चाहिए, जो लोग बुद्धिमान हैं, समझदार हैं, उनका समय काव्य की चर्चा, शास्त्र की चर्चा यानि ज्ञानचर्चा और अच्छे कार्यों में व्यतीत होता है। हर आदमी नादानगी न करे, बड़ी समझदारी के साथ समय का उपयोग करने का प्रयास करे। आदमी ब्रह्ममुहूर्त में उठने का प्रयास करे, ब्रह्ममुहूर्त का समय पवित्र समय माना जाता है, वैसे तो आदमी जिस समय अच्छा काम करे, वह समय उसके लिए पवित्र हो जाता है, फिर भी सूर्योदय से एक घंटा पहले आदमी निद्रा को त्याग दे, वह एक घंटा मुख्यतया सामायिक, स्वाध्याय, धर्म की साधना आदि में लगे तो आदमी के दिन का प्रारंभ मंगल के साथ होगा, उसे एक आध्यात्मिक खुराक प्राप्त हो जाएगी। प्रत्येक व्यक्ति को चौबीस घंटे का समय मिलता है, ऐसा कभी नहीं होता कि किसी मंत्री महोदय को तो पच्चीस घंटे का समय मिलेगा और संतरी को तेईस घंटे का समय मिलेगा, सबको बराबर समय मिलता है, यह प्रकृति की देन है, यहां प्रश्न होता है कि इस महत्वपूर्ण समय का आदमी उपयोग क्या और किस रूप में करता है? क्या हमारा समय केवल शरीर के लिए ही व्यतीत होता है या कुछ समय चेतना के लिए भी लगता है? खाना-पीना, सोना, कमाना आदि कार्य मुख्यतया शरीर को केन्द्र में रखकर किए जाते हैं। आदमी आत्मा को भी याद रखे, कुछ आत्मा के लिए भी करे, शरीर नश्वर है, आत्मा को अमर कहा गया है, आदमी इस नश्वर शरीर से अमर आत्मा के लिए क्या करता है? शरीर अध्रुव है, धन सम्पत्ति भी अध्रुव है, मृत्यु निकट हो रही है, इसलिए धर्म का संचय करना चाहिए, चौबीस घंटों में से अधिक समय न निकाल सकें तो प्रत्येक घंटे में से कम से कम एक या दो मिनट का समय निकालकर अलग से उसका संग्रह कर लिया जाए तो हर दिन २४ या ४८ मिनट का समय साधना में लगाया जा सकता है, उस समय में चाहे अच्छे ग्रंथ का स्वाध्याय किया जाए, ध्यान किया जाए, कोई न कोई आध्यात्मिक साधना यदि कुछ समय के लिए हो जाती है तो जीवनचर्या या दिनचर्या का सुन्दर क्रम बन सकता है। शरीर के लिए भोजन अनिवार्य होता है तो चेतना के लिए भी भोजन आवश्यक है, शरीर के लिए स्नान किया जाता है तो चेतना की शुद्धि के लिए भी स्नान जरूरी है, शरीर का भोजन रोटी आदि है तो चेतना का भोजन भजन,स्वाध्याय, सामायिक आदि है। शरीर का स्नान पानी से किया जाता है किन्तु चेतना का स्नान  प्रतिक्रमण, आत्मा निरीक्षण, आत्मालोचन, ध्यान आदि से हो सकता है। आदमी अपने जीवन में महत्वपूर्ण कार्य करे। गरिमापूर्ण कार्यों में अपना समय लगाए। बड़ी-बड़ी कंपनियों में काम करने वाले हों अथवा अन्य कोई कार्य करने वाले हों, यदि समय प्रबंधन ठीक नहीं है तो कार्य की सफलता में बाधा उत्पन्न हो जाती है, उस बाधा को निवारित करने के लिए समय प्रबंधन  को सीखना और उसे क्रियान्वित करना आवश्यक है, वह मनुष्य सामान्य है, जो समय का सामान् कार्यों में उपयोग करता है। अध्यात्म के संदर्भ में चेतना के लिए समय नियोजित करना समय का उत्तम उपयोग है। मात्र भोग में ही समय को लगा देना समय का पूर्णतया उत्तम उपयोग नहीं होता, इसलिए आदमी चेतना के प्रति जागरूकता रखे, चेतना की निर्मलता के विकास में समय का नियोजन हो तो समय का उत्तम उपयोग हो सकेगा। 

तीर्थंकर महावीर स्वामीसत्य, अहिंसा, अनेकान्त के महानायक थे 0

तीर्थंकर महावीर स्वामीसत्य, अहिंसा, अनेकान्त के महानायक थे

पूरे भारत वर्ष में ‘महावीर जन्म कल्याणक’ पर्व जैन समाज द्वारा उत्सव के रूप में मनाया जाता है। जैन समाज द्वारा मनाए जाने वाले इस त्यौहार को महावीर जयंती के साथ-साथ महावीर जन्म कल्याणक नाम से भी जानते हैं, ‘महावीर जन्म कल्याणक’ हर वर्ष चैत्र माह के १३ वें दिन मनाया जाता है, जो अंग्रेजी केलेन्डर के हिसाब से इस वर्ष १० अप्रैल को है, इस दिन हर पंथ के जैन दिगम्बर-श्वेताम्बर आदि एकसाथ मिलकर इस उत्सव को मनाते हैं। तीर्थंकर महावीर के जन्म उत्सव के रूप में मनाए जाने वाले इस त्यौहार में भारत के कई राज्यों में सरकारी छुट्टी घोषित की गयी है।जैन धर्म के वर्तमान प्रवर्तक तीर्थंकर महावीर का जीवन उनके जन्म के ढाई हजार साल से उनके लाखों अनुयायियों द्वारा पूरी दुनिया को अहिंसा का पाठ पढ़ा रहा है, पंचशील सिद्धान्त के प्रर्वतक और जैन धर्म के चौबिसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी अहिंसा के प्रमुख ध्‍वजवाहकों में से एक हैं। जैन ग्रंथों के अनुसार २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ जी के मोक्ष प्राप्ति के बाद २९८ वर्ष बाद तीर्थंकर महावीर स्वामी का जन्म‍ ऐसे युग में हुआ, जहां पशु‍बलि, हिंसा और जाति-पाति के भेदभाव का अंधविश्वास जारी था।महावीर स्वामी के जीवन को लेकर श्वेताम्बर और दिगम्बर पंथ में कई तरह के अलग-अलग तथ्य हैं:तीर्थंकर महावीर के जन्म और जीवन की जानकारीतीर्थंकर महावीर का जन्म लगभग २६०० वर्ष पूर्व चैत्र शुक्ल त्रयोदशी के दिन क्षत्रियकुण्ड नगर में हुआ, तीर्थंकर महावीर की माता का नाम महारानी त्रिशला और पिता का नाम महाराज सिद्धार्थ था, तीर्थंकर महावीर कई नामों से जाने गए उनके कुछ प्रमुख नाम वर्धमान, महावीर, सन्मति, श्रमण आदि हैं। तीर्थंकर महावीर स्वामी के भाई का नाम नंदिवर्धन और बहन का नाम सुदर्शना था, बचपन से ही महावीर तेजस्वी और साहसी थे। किंवदंतियोंनुसार शिक्षा पूरी होने के बाद माता-पिता ने इनका विवाह राजकुमारी यशोदा के साथ कर दिया गया था।तीर्थंकर महावीर का जन्म एक साधारण बालक के रूप में हुआ था, इन्होंने अपनी कठिन तपस्या से अपने जीवन को अनूठा बनाया, महावीर स्वामी के जीवन के हर चरण में एक कथा व्याप्त है, ‘जिनागम’ पत्रिका परिवार उनके जीवन से जुड़े कुछ चरणों तथा उसमें निहित कथाओं को उल्लेखित कर रहा है:महावीर स्वामी जन्म और नामकरण संस्कार: तीर्थंकर महावीर स्वामी के जन्म के समय क्षत्रियकुण्ड गांव में दस दिनों तक उत्सव मनाया गया, सारे मित्रों-भाई बंधुओं को आमंत्रित किया गया तथा उनका खूब सत्कार किया गया, राजा सिद्धार्थ का कहना था कि जब से महावीर का जन्म उनके परिवार में हुआ, तब से उनके धन-धान्य कोष भंडार बल आदि सभी राजकीय साधनों में बहुत ही वृद्धी हुई, उन्होंने सबकी सहमति से अपने पुत्र का नाम ‘वर्धमान’ रखा।महावीर स्वामी का विवाह: कहा जाता है कि महावीर स्वामी अन्तर्मुखी स्वभाव के थे, शुरुवात से ही उन्हें संसार के भोगों में कोई रुचि नहीं थी, परंतु माता-पिता की इच्छा के कारण उन्होंने वसंतपुर के महासामन्त समरवीर की पुत्री यशोदा के साथ विवाह किया, कहीं-कहीं लिखा हुआ यह भी मिलता है कि उनकी एक पुत्री हुई, जिसका नाम प्रियदर्शना रखा गया था।तीर्थंकर महावीर स्वामी का वैराग्य: तीर्थंकर महावीर स्वामी के माता-पिता की मृत्यु के पश्चात उनके मन में वैराग्य लेने की इच्छा जागृत हुई, परंतु जब उन्होंने इसके लिए अपने बड़े भाई से आज्ञा मांगी तो भाई ने कुछ समय रुकने का आग्रह किया, तब महावीर ने अपने भाई की आज्ञा का मान रखते हुये २ वर्ष पश्चात ३० वर्ष की आयु में वैराग्य लिया, इतनी कम आयु में घर का त्याग कर ‘केशलोच’ के पश्चात जंगल में रहने लगे। १२ वर्ष के कठोर तप के बाद जम्बक में ऋजुपालिका नदी के तट पर एक साल्व वृक्ष के नीचे केवल ज्ञान प्राप्त हुआ, इसके बाद उन्हें ‘केवलि’ नाम से जाना गया तथा उनके उपदेश चारों और फैलने लगे। बड़े-बड़े राजा महावीर स्वा‍मी के अनुयायी बनें, उनमें से बिम्बिसार भी एक थे। ३० वर्ष तक महावीर स्वामी ने त्याग, प्रेम और अहिंसा का संदेश फैलाया और बाद में वे जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर बनें और विश्व के श्रेष्ठ तीर्थंकरों में शुमार हुए।उपसर्ग, अभिग्रह, केवलज्ञान: तीस वर्ष की आयु में तीर्थंकर महावीर स्वामी ने पूर्ण संयम के साथ श्रमण बन गये तथा दीक्षा लेते ही उन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हो गया। दीक्षा लेने के बाद तीर्थंकर महावीर स्वामी ने बहुत कठिन तपस्या की और विभिन्न कठिन उपसर्गों को समता भाव से ग्रहण किया।साधना के बारहवें वर्ष में महावीर स्वामी जी मेढ़िया ग्राम से कोशाम्बी आए तब उन्होंने पौष कृष्णा प्रतिपदा के दिन एक बहुत ही कठिन अभिग्रह धारण किया, इसके पश्चात साढ़े बारह वर्ष की कठिन तपस्या और साधना के बाद ऋजुबालिका नदी के किनारे महावीर स्वामी शाल वृक्ष के नीचे वैशाख शुक्ल दशमी के दिन केवल ज्ञान-केवल दर्शन की उपलब्धि हुई।तीर्थंकर महावीर और जैन धर्म: महावीर को वीर, अतिवीर और स​न्मती के नाम से भी जाना जाता है, वे तीर्थंकर महावीर स्वामी ही थे, जिनके कारण २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों ने एक विशाल धर्म ‘जैन धर्म’ का रूप धारण किया। तीर्थंकर महावीर के जन्म स्थान को लेकर विद्वानों में कई मत प्रचलित हैं, लेकिन उनके ‘भारत’ में अवतरण को लेकर एकमत हैं, तीर्थंकर महावीर के कार्यकाल को ईराक के जराथ्रुस्ट, फिलिस्तीन के जिरेमिया, चीन के कन्फ्यूसियस तथा लाओत्से और युनान के पाइथोगोरस, प्लेटो और सुकरात के समकालीन मानते हैं। भारत वर्ष को तीर्थंकर महावीर ने गहरे तक प्रभावित किया, उनकी शिक्षाओं से तत्कालीन राजवंश खासे प्रभावित हुए और ढेरों राजाओं ने जैन धर्म को अपना राजधर्म बनाया। बिम्बसार और चंद्रगुप्त मौर्य का नाम इन राजवंशों में प्रमुखता से लिया जा सकता है, जो जैन धर्म के अनुयायी बने। तीर्थंकर महावीर ने ‘अहिंसा’ को जैन धर्म का आधार बनाया, उन्होंने तत्कालीन सनातन समाज में व्याप्त जाति व्यवस्था का विरोध किया और सबको समान मानने पर जोर दिया, उन्होंने ‘जियो और ​जीने दो’ के सिद्धान्त पर जोर दिया, सबको एक समान नजर में देखने वाले तीर्थंकर महावीर अहिंसा और अपरिग्रह के साक्षात मूर्ति थे, वे किसी को भी कोई दु:ख नहीं देना चाहते थे।महावीर स्वामी के उपदेश :तीर्थंकर महावीर ने अहिंसा, तप, संयम, पांच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ती, अनेकान्त, अपरिग्रह एवं आत्मवाद का संदेश दिया। महावीर स्वामी ने यज्ञ के नाम पर होने वाले पशु-पक्षी तथा नर की बली का पूर्ण रूप से विरोध किया तथा सभी जाती और धर्म के लोगों को धर्म पालन का अधिकार बतलाया, महावीर स्वामी ने उस समय जाती-पाति और लिंग भेद को मिटाने के लिए उपदेश दिये।निर्वाण: कार्तिक मास की अमावस्या को रात्री के समय तीर्थंकर महावीर स्वामी निर्वाण को प्राप्त हुये, निर्वाण के समय तीर्थंकर महावीर स्वामी की आयु ७२ वर्ष की थी।विशेष तथ्य:तीर्थंकर महावीर के जिओ और जीने दो के सिद्धान्त को जन-जन तक पहुंचाने के लिए जैन धर्म के अनुयायी तीर्थंकर महावीर के निर्वाण दिवस को हर वर्ष कार्तिक पूर्णिमा को त्यौहार की तरह मनाते हैं, इस अवसर पर वह दीपक प्रज्वलित करते हैं।जैन धर्म के अनुयायियों के लिए उन्होंने पांच व्रत दिए, जिसमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह बताया गया।अपनी ​सभी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लेने की वजह से वे जितेन्द्रिय या ‘जिन’ कहलाए।जिन से ही जैन धर्म को अपना नाम मिला।जैन धर्म के गुरूओं के अनुसार तीर्थंकर महावीर के कुल ११ गणधर थे, जिनमें गौतम स्वामी पहले गणधर थे।तीर्थंकर महावीर ने ५२७ ईसा पूर्व कार्तिक कृष्णा द्वितीया तिथि को अपनी देह का त्याग किया, देह त्याग के समय उनकी आयु ७२ वर्ष थी।बिहार के पावापूरी जहां उन्होंने अपनी देह को छोड़ा, जैन अनुयायियों के लिए यह पवित्र स्थल की तरह पूजित किया जाता है।तीर्थंकर महावीर के मोक्ष के दो सौ साल बाद, जैन धर्म श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायों में बंट गया।तीर्थंकर सम्प्रदाय के जैन संत वस्त्रों का त्याग कर देते हैं, इसलिए दिगम्बर कहलाते हैं जबकि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के संत श्वेत वस्त्र धारण करते हैं।तीर्थंकर महावीर की शिक्षाएं: तीर्थंकर महावीर द्वारा दिए गए पंच​शील सिद्धान्त ही जैन धर्म का आधार है, इस सिद्धान्त को अपनाकर ही एक अनुयायी सच्चा जैन अनुयायी हो सकता है। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को पंचशील कहा जाता है। ​सत्य– तीर्थंकर महावीर ने ‘सत्य’ को ही महान बताया है, उनके अनुसार, सत्य इस दुनिया में सबसे शक्तिशाली है और एक अच्छे इंसान को किसी भी हालत में ‘सच’ का साथ नहीं छोड़ना चाहिए, एक बेहतर इंसान बनने के लिए जरूरी है कि हर परिस्थिति में ‘सच’ बोला जाए।अहिंसा – दूसरों के प्रति हिंसा की भावना नहीं रखनी चाहिए, जितना प्रेम हम खुद से करते हैं उतना ही प्रेम दूसरों से भी करें, अहिंसा का पालन करें।अस्तेय – दूसरों की वस्तुओं को चुराना और दूसरों की चीजों की इच्छा करना महापाप है, जो मिला है उसमें ही संतुष्ट रहें।ब्रह्मचर्य – तीर्थंकर महावीर के अनुसार जीवन में ब्रहमचर्य का पालन करना सबसे कठिन है, जो भी मनुष्य इसको अपने जीवन में स्थान देता है, वो मोक्ष प्राप्त करता है।अपरिग्रह – ये दुनिया नश्वर है, चीजों के प्रति मोह ही आपके दु:खों को कारण है, सच्चे इंसान किसी भी सांसारिक चीज का मोह नहीं करते।१. कर्म किसी को भी नहीं छोड़ते, ऐसा समझकर बुरे कर्म से दूर रहो।२. तीर्थंकर स्वयं घर का त्याग कर साधू धर्म स्वीकारते हैं तो फिर बिना धर्म किए हमारा कल्याण वैसे हो?३. तीर्थंकर ने जब इतनी उग्र तपस्या की तो हमें भी शक्ति अनुसार तपस्या करनी चाहिए।४. तीर्थंकर ने सामने जाकर उपसर्ग सहे तो कम से कम हमें अपने सामने आए उपसर्गों को समता से सहन करना चाहिए।वर्ष २०२५ में तीर्थंकर महावीर जन्म कल्याणक पर्व कब है?वर्ष २०२५ में तीर्थंकर महावीर जन्म कल्याणक १० अप्रैल को मनाया जाएगा, जहां भी जैनों के मंदिर हैं, वहां इस दिन विशेष आयोजन किए जाएगें, परंतु ‘महावीर जन्म कल्याणक’ अधिकतर त्योहारों से अलग, बहुत ही शांत माहौल में विशेष पूजा अर्चना द्वारा मनाया जाता है, इस दिन तीर्थंकर महावीर का अभिषेक किया जाता है तथा जैन बंधुओं द्वारा अपने मंदिरों द्वारा जाकर विशेष ध्यान और प्रार्थना की जाती है, इस दिन हर जैन मंदिर में अपनी शक्ति अनुसार गरीबों में दान दक्षिणा का विशेष महत्व है।भारत में गुजरात, राजस्थान, बिहार, महाराष्ट्र और कोलकाता, आसाम व भारत के कई राज्यों में आदि में उपस्थित प्रसिध्द मंदिरों में ‘महावीर जन्म कल्याणक’ उत्सव विशेष रूप से मनाया जाता है।

आचार्य श्री विद्यासागर जी की प्रेरणा से आज भारत विकसीत हो रहा है 0

आचार्य श्री विद्यासागर जी की प्रेरणा से आज भारत विकसीत हो रहा है

जेल में कैद कैदियों की स्थिति देखकर आचार्य श्री का हृदय द्रवित हो उठा तब उन्होंने जेल प्रशासन को प्रेरणा प्रदान दी कि कैदियों को अर्थ पुरूषार्थ का अवसर देना चाहिये। आचार्य श्री जी की प्रेरणा से केन्द्रीय जेल सागर, तिहाड़ जेल दिल्ली, मिर्जापुर, बनारस, आगरा, मथुरा आदि जेलों में समाज के द्वारा ‘हथकरघा’ प्रशिक्षण प्रारंभ किया गया। भारत का पशुधन सुरक्षित रहे, गौहत्या बंद हो, इस हेतु आचार्य प्रवर की मांगलिक प्रेरणा से ‘दयोदय पशु संवर्धन’ के नाम से शताधिक गौशालायें पूरे ‘भारत’ देश में स्थापित हैं। भारत में भारतीय शिक्ष पद्धति लागू हो, अतः अंग्रेजी नहीं, भारतीय भाषा में व्यवहार हो, ये प्रेरणा देने के साथ-साथ आचार्य प्रवर ने ‘इंडिया नहीं भारत बोलो’ का नारा ‘भारत’ की जनता को प्रदान किया। संक्षेप में आचार्य श्री जी की प्ररेणा से अनेक विशिष्ट कार्य किये गये, जिसमें शिक्षा के क्षेत्र प्रतिभास्थली, चिकित्सा के क्षेत्र में भाग्योदय एवं पूर्णायु, अहिंसक रोजगार एवं स्वावलंबी जीवन जीने हेतु हथकरघा ‘हस्त शिल्प’ पिछड़े एवं गरीब वर्ग को आजीविका प्राप्त हो सके, मैत्री के नाम से लघु कुटीर उद्योग शुद्ध एवं पौष्टिक अनाज एवं फल सब्जी प्राप्त हो सके, इस हेतु जैविक खेती की प्रेरणा दी, संप्रदायवाद से दूर आचार्य श्री जी ने सदैव राष्ट्र धर्म को ही प्रमुखता प्रदान की। कलयुग के कमल राष्ट्रीय विचार सम्प्रेरक और सम्पोषक के रूप में प्रसिद्ध राष्ट्रीय संत आचार्य श्री विद्यासागर जी ने अपने उदस्त विचारों से अपनी निर्मल वाणी और अपने श्रेष्ठ कार्यों से भारतीय संस्कृति को ऊँचाई प्रदान की, किसी भी देश की रीढ़ वहाँ की शिक्षा एवं चिकित्सा पद्धति होती है। शिक्षा के क्षेत्र में आचार्य श्री जी की प्रेरणा से भारत के पाँच राज्यों, जिसमें जबलपुर (म.प्र.), इन्दौर (म.प्र.), रामटेक (महाराष्ट्र), ललितपुर (उ.प्र.) एवं डोंगरगढ़ (छ.ग.) ज्ञानोदय विद्यापीठ प्रतिभास्थली के नाम से कन्या छात्रावास के साथ विद्यालय, शिक्षा के साथ संस्कारों का शंखनाद, के उद्देश्य से विद्यालय स्थापित किये गये, इन विद्यालयों में अध्ययन कराने वाली सभी शिक्षिकायें आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत से अलंकृत हैं। प्रतिभा प्रतीक्षा इंदौर, प्रतिभा चयन इंदौर एवं जयपुर, आगरा, पूणे,हैदराबाद, भोपाल आदि में छात्रावास स्थापित किये गये, छात्र-छात्रायें प्रशासनिक परीक्षा की तैयारी कर सके, इस हेतु जबलपुर, भोपाल एवंदिल्ली में अनुशासन प्रशासनिक प्रशिक्षण केन्द्र की स्थापना आचार्य श्री जी की प्रेरणा का ही सुफल है। चिकित्सा के क्षेत्र में भाग्योदय तीर्थ धर्मार्थ चिकित्सालय की स्थापना आचार्य श्री की मांगलिक प्रेरणा से सागर (म.प्र.) में हुई, जिसका उद्देश्य गरीब एवं मध्यम वर्ग, जो चिकित्सा से वंचित रहजाता है, उन्हें समुचित चिकित्सा उपलब्ध होती रहे। जबलपुर (म.प्र.) में भारतीय शिक्षा पद्धति आयुर्वेद संरक्षण संवर्धन हेतु पूर्णायु आयुर्वेदिक चिकित्सालय एवं महाविद्यालय की स्थापना हुई। विदेशी कम्पनियों के भ्रमजाल से ‘भारत’ मुक्त रहे और सभी जीव सुख-शांति चैन अमन से जी सके, ‘जिओ और जीने दो’ के सिद्धान्त को चरितार्थ करने के लिए स्वदेशी और अहिंसक रोजगार को प्रोत्साहित करते हुए आचार्य भगवन ने लघु उद्योग के रूप में पूरी मैत्री, जबलपुर में हथकरघा प्रशिक्षण केन्द्र की स्थापना, पाँचों प्रतिभास्थली के साथ बीनाबारह, कुण्डलपुर, मण्डला, गुना, अशोकनगर, भोपाल, आरोन आदि स्थानों में की, ऐसे आचार्य श्री!जिन्हें वरिष्ठ पत्रकार व संपादक, आचार्य श्री को चलते-फिरते तीर्थंकर बोलने वाले, ‘भारत को ‘भारत’ ही बोलें, ‘एक राष्ट्र-एक नाम भारत’ ‘हिंदी’ राष्ट्रभाषा बनें का आर्तनाद करने वाले बिजय कुमार जैन आचार्य श्री विद्यासागर जी के चरणों में नमन होते

आचार्य भिक्षु 0

आचार्य भिक्षु

तेरापंथ के संस्थापकआचार्य भिक्षुजन्म पर्व १९ जुलाई (तिथिनुसार) तेरापंथ के प्रवर्तक आचार्य भिक्षु श्रमण परंपरा के महान संवाहक थे, उनका जन्म वि. स. १७८३ आषाढ़ शुक्ला त्रयोदशी को कंटालिया (मारवाड़) में हुआ, पिता का नाम शाह बल्लुजी तथा माता का नाम दीपा बाई था, जाति ओसवाल तथा वंश सकलेचा था। आचार्य भिक्षु का जन्म-नाम भीखण था, प्रारंभ से ही वे असाधारण प्रतिभा के धनी थे, तत्कालीन परंपरा के अनुसार छोटी उम्र में ही उनका विवाह हो गया, वैवाहिक जीवन से बंध जाने पर भी उनका जीवन वैराग्य भावना से ओतप्रोत था। धार्मिकता उनकी रगरग में रमी थी, पत्नी भी उन्हें धार्मिक विचारों वाली मिली, पति-पत्नी दोनों ही दिक्षा लेने के उद्यत हुए, किंतु नियति को शायद यह मान्य नहीं था, कुछ वर्षों के बाद पत्नी का देहावसान हो गया। भीखणजी अकेले ही दिक्षा लेने को उद्यत हुए, पर माता ने दीक्षा की अनुमति नहीं दी। तत्कालीन स्थानकवासी संप्रदाय के आचार्य श्री रघुनाथ जी के समझाने पर माता ने कहा ‘महाराज’ मैं इसे दीक्षा की अनुमति कैसे दे सकती हूं क्योंकि जब यह गर्भ में था तब मैंने सिंह का स्वप्न देखा था, उस स्वप्न के अनुसार यह बड़ा होकर किसी देश का राजा बनेगा और सिंह जैसी प्रकृति होगी। आचार्य रघुनाथ जी ने कहा बाई यह तो बहुत अच्छी बात है। राजा तो एक देश में पुजा जाता है, तेरा बेटा तो साधु बन कर सारे जगत का पुज्य बनेगा और सिंह की तरह गुंजेगा, इस प्रकार आचार्य रघुनाथ जी के समझाने पर माता ने सहर्ष दिक्षा की अनुमति दे दी। वि.स. १८०८ मार्गशीर्ष कृष्णा बारस को भीखणजी ने आचार्य रघुनाथजी के पास दीक्षा ग्रहण की। संत भीखण जी की दृष्टि पैनी और मेधा सूक्ष्मग्राही थी, तत्व की गहराई में बैठना स्वाभाविक बात थी, थोड़े ही वर्षों में वे जैन शास्त्रों के पारगामी पंडित बन गए। वि.स.१८१५ के आस-पास संत भीखणजी के मस्तिष्क में साधु वर्ग के आचार-विचार संबन्धी शिथिलता के प्रति एक क्रांति की भावना पैदा हुई, उन्होंने अपने क्रांति पूर्ण विचारों को आचार्य रघुनाथजी के सामने रखा, दो वर्ष तक विचार विमर्श होता रहा, जब कोई संतोषजनक निर्णय नहीं हुआ तब विचार भेद के कारण वि.स. १८१७ चैत्र शुक्ला नवमी को कुछ साधुओं सहित बगड़ी (मारवाड़) में उनसे पृथक हो गये, उनकी धर्म क्रांति का विरोध हुआ, चूंकि उस समय पुज्य रघुनाथ जी का प्रभाव प्रबल था, इसलिए लोगों ने भीखणजी का असहयोग किया, ठहरने के लिए स्थान नहीं दिया, वहां से विहार किया। गांव के बाहर आये कि तेज आंधी आ गई, व्याघ्र स्थिति वाली कहावत घटित हो गई। पीछे गांव में जगह नहीं, आगे आंधी ने रास्ता रोक लिया, इसलिए उन्होंने पहला पड़ाव गांव के बाहर शमशान में जैतसिंहजी की छतरियों में किया, आज भी वे छतरीयां विद्यमान है। संघ बहिष्कार के साथ ही आचार्य भीक्षु पर जैसे विरोधों के पहाड़ टूट पड़े, पर वे लोह पुरूष थे। विरोधों के सामने झुकना उन्होंने सिखा नहीं था, वे सत्य के महान उपासक थे। सत्य के लिए प्राण न्यौछावर करने के लिए वे तत्पर रहते थे, उन्हीं के मुख से निकले हुए शब्द ‘आत्मा राकारज सारस्यां मर पुरा देस्यां’, सत्य के प्रति आगद्य संपूर्ण के सुचक हैं। वे महान आत्मबलि थे जीवन में सुध-साधुता को प्रतिष्ठित करना चाहते थे। वि. स. १८१७ आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा को केलवा (मेवाड़) में बारह साथियों सहित उन्होंने शास्त्र सम्मत दीक्षा ग्रहण की, यही तेरापंथ स्थापना का प्रथम दिन था, इसी दिन आचार्य भीक्षु के नेतृत्व में एक सुसंगठित साधु संघ का सूत्रपात हुआ जो संघ ‘तेरापंथ’ के नाम से प्रख्यात है। वि.स.१८१७ से लेकर वि.स. १८३१ तक पन्द्रह वर्ष का जीवन आचार्य भीक्षु का संघर्षमय रहा, यहां तक कहा जाता है कि उन्हें पांच वर्ष पेट भर आहार ही नहीं मिलता, कभी मिला तो कभी नहीं मिलता, इस महान संघर्ष की स्थति में आचार्य भीक्षु ने कठोर साधना, तपस्या, शास्त्रों का गंभीर अध्यन एवं संघ की भावी रूप रेखा पर चिंतन किया। वि.स. १८३२ में आचार्य भिक्षु ने अपने प्रमुख शिष्य भारमल जी को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया, उसी समय संघीय मर्यादाओं का भी निर्माण किया गया, उन्होंने पहला मर्यादा पत्र इसी वर्ष मार्ग शीर्ष कृष्णा सप्तमी को लिखा, उसके बाद समय-समय पर नई मर्यादाओं के निर्माण से संघ को सुदृढ करते रहे, उन्होंने अन्तिम मर्यादा पत्र लिखा स. १८५९ की शुक्ला सप्तमी को, एक आचार्य में संघ की शक्ति को केन्द्रित कर उन्होंने सुदृढ संगठन की नीव डाली, इससे अपने-अपने शिष्य बनाने की परंपरा का विच्छेद हो गया। भावी आचार्य के चुनाव का दायित्व भी उन्होंने वर्तमान आचार्य को सौपा। आज तेरापंथ धर्म संघ अनुशासित मर्यादित और व्यवस्थित धर्म संघ है, इसका श्रेय आचार्य भिक्षु कृत इन्हीं मर्यादाओं को जाता है। आचार्य भिक्षु ने अपने मौलिक चिंतन के आधार पर नये मूल्यों की स्थापना की। हिंसा व दान-दया संबंधी उनकी व्याख्या सर्वथा वैज्ञानिक कही जा सकती है। आचार्य भिक्षु की अहिंसा सार्वभौमिक क्षमता पर आधारित थी, बड़ों के लिए छोटों की हिंसा और पंचेन्द्रिय जीवों की सुरक्षा के लिए एकेन्द्रिय प्राणीयों का हनन आचार्य भिक्षु की दृष्टि में आगम सम्मत नहीं था। अध्यात्म व व्यवहार की भूमिका भी उनकी भिन्न थी, उन्होंने कभी किसी भी प्रसंग पर एक तुला से तोलने का प्रयत्न नहीं किया, उनके अभिमत से व्यवहार व अध्यात्म को सर्वत्र एक कर देना, घी और तम्बाकू के सम्मिश्रण जैसा अनुपादाय था। दान-दया के विषय में लौकिक एवं लौकतर भेद रेखा प्रस्तुत कर आचार्य भिक्षु ने जैन समाज में प्रचलित मान्यता के समक्ष नया चिंतन प्रस्तुत किया, उस समय समाजिक सम्मान का मापदण्ड दान-दया पर अवलंबित था। सर्वगोपलब्धि और पुण्योपलब्धि की मान्यताएं भी दान-दया के साथ जुड़ी हुई थी। आचार्य ने लौकिक दान-दया की व्यवस्था को कर्तव्य व सहयोग बता कर मौलिक सत्य का उद्घाटन किया। साध्य साधना के विषय में भी उनका दृष्टिकोण स्पष्ट था, उनके अभिनत से सुध साधना के द्वारा ही सुध साध्य की प्राप्ती सम्भव है, उन्होंने कहा रक्त से सना वस्त्र कभी रक्त से शुद्ध नहीं होता, वैसे ही हिंसा प्रधान प्रवृत्ति कभी अध्यात्म के पावन लक्ष्य तक नहीं पहुंच सकती। आचार्य भिक्षु एक कुशल विधिवक्ता होने के साथ-साथ एक सहज कवि और महान साहित्यकार भी थे। आचार्य भिक्षु की साहित्य रचना का प्रमुख विषय सुध आचार का प्रतिपादन, तत्व दर्शन का विश्लेषण एवं धर्म संघ की मौलिक मर्यादाओं का निरूपण था, उनकी रचनाओं में प्राचीन वैराग्य में आख्यान भी निसद्ध था। आचार्य भिक्षु ने कभी कवि बनने का प्रयत्न नहीं किया और न कभी उन्होंने भाषा शास्त्र, छंद शास्त्र, अलंकार शास्त्र एवं रस शास्त्र का प्रशिक्षण प्राप्त किया पर उनके द्वारा रचे गये पदयों में रस, अनुप्रयास और अलंकारों के प्रयोग पाठक को मुग्ध कर देते हैं। आचार्य भिक्षु के साहित्य को पढ़ कर आधुनिक विद्वान उन्हें हिगल ओर काण्ट की तुला से बोलते हैं। आचार्य भिक्षु जब तक जिए, ज्योर्तिमय बनकर जिए, उनके जीवन का हर पृष्ठ पुरुषार्थ की गौरवमयी गाथाओं से भरा पड़ा है। आचार्य भिक्षु के शासन काल में ४९ साधु और ५६ साध्वियां दीक्षित हुई। वि.स. १८६० भाद्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन सिरियारी (मारवाड़) में उन्होंने समाधि मरण प्राप्त किया, उस समय उनकी आयु ७७ वर्ष की थी।

श्वेताम्बर तेरापंथ (संक्षिप्त इतिहास) 0

श्वेताम्बर तेरापंथ (संक्षिप्त इतिहास)

श्वेताम्बर तेरापंथ  श्वेताम्बर तेरापंथ जैन धर्म में श्वेताम्बर संघ की एक शाखा है, इसका उद्भव विक्रम संवत् १८१७ (सन् १७६०) में हुआ, इसका प्रवर्तन मुनि भीखण (भिक्षु स्वामी) ने किया था जो कालान्तर में आचार्य भिक्षु कहलाये, वे मूलतः स्थानकवासी संघ के सदस्य और आचार्य रघुनाथ जी के शिष्य थे। आचार्य संत भीखण जी ने जब आत्मकल्याण की भावना से प्रेरित होकर शिथिलता का बहिष्कार किया था, तब उनके सामने नया संघ स्थापित करने की बात नहीं थी, परंतु जैनधर्म के मूल तत्वों का प्रचार एवं साधुसंघ में आई हुई शिथिलता को दूर करना था, उस ध्येय में वे कष्टों की परवाह न करते हुए अपने मार्ग पर अडिग रहे। संस्था के नामकरण के बारे में भी उन्होंने कभी नहीं सोचा था, फिर भी संस्था का नाम ‘तेरापंथ’ हो ही गया, इसका कारण निम्नोक्त घटना है: जोधपुर में एक बार आचार्य भिक्षु के सिद्धांतों को मानने वाले १३ श्रावक एक दुकान में बैठकर सामायिक कर रहे थे, उधर से वहाँ के तत्कालीन दीवान फतेहसिंह जी सिंधी गुजरे, तो देखा श्रावक यहाँ सामायिक क्यों कर रहे हैं? उन्होंने इसका कारण पूछा, उत्त्तर में श्रावकों ने बताया श्रीमान् हमारे संत भीखण जी ने स्थानकों को छोड़ दिया है, वे कहते है, एक घर को छोड़कर गाँव-गाँव में स्थानक बनवाना साधुओं के लिये उचित नहीं है, हम भी उनके विचारों से सहमत हैं, इसलिये यहाँ सामायिक कर रहे है। दीवान जी के आग्रह पर उन्होंने सारा विवरण सुनाया, उस समय वहाँ एक सेवक जाति का कवि खड़ा सारी घटना सुन रहा था, उसने तत्काल १३ की संख्या को ध्यान में लेकर एक दोहा कह डाला-  आप आपरौ गिलो करै, ते आप आपरो मंत। सुणज्यो रे शहर रा लाका, ऐ तेरापंथी संत  बस यही घटना ‘तेरापंथ’ के नाम का कारण बनी, जब स्वामी जी को इस बात का पता चला कि हमारा नाम ‘तेरापंथी’ पड़ गया है तो उन्होंने तत्काल आसन छोड़कर भगवान को नमस्कार करते हुए इस शब्द का अर्थ किया– हे भगवान यह तेरा पंथ है।  हमने तेरा अर्थात् तुम्हारा पंथ स्वीकार किया है, अतः तेरा पंथी है। आचार्य संत भीखण जी ने सर्वप्रथम साधु संस्था को संगठित करने के लिये एक मर्यादा पत्र लिखा- (१) सभी साधु-साध्वियाँ एक ही आचार्य की आज्ञा में रहे। (२) वर्तमान आचार्य ही भावी आचार्य का निर्वाचन करें। (३) कोई भी साधु अनुशासन का भंग न करें। (४) अनुशासन भंग करने पर संघ से तत्काल बहिष्कृत कर दिया जाए। (५) कोई भी साधु अलग शिष्य न बनाए। (६) दीक्षा देने का अधिकार केवल आचार्य को ही हो। (७) आचार्य जहाँ कहें, वहाँ मुनि विहार या चातुर्मास करें, अपनी इच्छानुसार ना करें। (८) आचार्य के प्रति निष्ठाभाव रखें, आदि। इन्हीं मर्यादाओं के आधार पर आज २५९ वर्षों से तेरापंथ श्रमणसंघ अपने संगठन को कायम रखते हुए अपने ग्यारहवें आचार्य श्री महाश्रमणजी के नेतृत्व में लोककल्याणकारी प्रवृत्तियों में महत्वपूर्ण भाग अदा कर रहा है। संघव्यवस्था : तेरापंथ संघ में इस समय ६५१ साधु-साध्वियाँ हैं, इनके संचालन का भार वर्तमान में आचार्य श्री महाश्रमण पर है, वे ही इनके विहार, चातुर्मास आदि के स्थानों का निर्धारण करते हैं। प्रायः साधु और साध्वियाँ क्रमशः ३-३ व ५-५ के वर्ग रूप में विभक्त किए होते हैं, प्रत्येक वर्ग में आचार्य द्वारा निर्धारित एक अग्रणी होता है, प्रत्येक वर्ग को ‘सिंघाड़ा’ कहा जाता है। ये सिंघाड़े पदयात्रा करते हुए भारत के विभिन्न भागों, राजस्थान, पंजाब, गुजरात, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, मध्यभारत, बिहार, बंगाल आदि में अहिंसा आदि का प्रचार करते रहते हैं। वर्ष भर में एक बार माघ शुक्ला सप्तमी को सारा संघ जहाँ आचार्य होते है, वहाँ एकत्रित होते हैं और आगामी वर्ष भर का कार्यक्रम आचार्य वहीं निर्धारित कर देते हैं और चातुर्मास तक सभी सिंघाड़े अपने-अपने स्थान पर पहुँच जाते हैं।  आचारसंहिता: तेरापंथी जैन साधु जैन सिद्धांतानुसार अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि पाँच महाव्रतों का पालन करते हैं। (१) उनके उपाश्रय, मठ आदि नहीं होते। (२) वे किसी भी परिस्थिति में रात्रिभोजन नहीं कर सकते। (३) वे अपने लिये खरीदे गए या बनाए गए भोजन, पानी व औषध आदि का सेवन नहीं करते। पदयात्रा उनका जीवनव्रत है। विचार पद्धतिः (१) संसार में सभी प्राणी जीवन चाहते है, मरना कोई नहीं चाहता अतः किसी की हिंसा करना पाप हैं। (२) मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी है, अतः उसकी रक्षा के लिये अन्य कुछ प्राणियों का वध सामाजिक क्षेत्र में मान्य होने पर भी धार्मिक क्षेत्र में मान्य नहीं हो सकता क्योंकि धर्म मानवतावाद को मानकर नहीं चलता।  (३) धर्म जोर जबरदस्ती में नहीं, हृदय परिवर्तन कर देने में हैं। (४) धर्म पैसों से नहीं खरीदा जा सकता, वह तो आत्मा की सत्प्रवृत्तियों में स्थित है। (५) जहाँ हिंसा है, वहाँ धर्म नहीं हो सकता।  (६) धर्म त्याग में है, भोग में नहीं।  (७) हर जाति और हर वर्ग का मनुष्य धर्म करने का अधिकारी है. धर्म में जाति और वर्ग का भेद नहीं होता। (८) गुणयुक्त पुरुष ही बंदनीय है, केवल वेश नहीं। (९) धर्म सारे ही कर्तव्य है पर सारे कर्तव्य धर्म नहीं, क्योंकि एक सैनिक के लिये युद्ध करना कर्तव्य हो सकता है पर आध्यात्मिक धर्म नहीं। दीक्षापद्धति: दीक्षार्थी उपदेश या अपने जन्म के संस्कारों से प्रेरणा पाकर जब आचार्यश्री के पास दीक्षा की प्रार्थना करता है तो उसके आचरण, ज्ञान्ा, वैराग्य आदि की कठोर परीक्षा ली जाती है, किसी-किसी की परीक्षा में तो पाँच सात वर्ष तक बीत जाते हैं, जो परीक्षा में उत्तीर्ण होता है, उसे ही दीक्षित किया जाता है। दीक्षा हजारों नागरिकों के बीच माता-पिता आदि पारिवारिक जनों की सहर्ष मौखिक और लिखित स्वीकृति, जिसमें कौटुंबिक तथा अन्य कुछ विशिष्ट व्यक्तियों के हस्ताक्षर हों, के पश्चात् दी जाती है। तपश्चर्या : तपश्चर्या के क्षेत्र में भी तेरापंथ श्रमण संघ किसी से पीछे नहीं है। एक दिन आहार और एक दिन निराहार, इस प्रकार आजीवन तपश्चर्या करनेवाले तो संघ में अनेक साधु-साध्वियों है। पाँच, सात, आठ, दिन की तपस्या तो साधारण सी बात मानी जाती है। संघ में ऊंची से ऊंची १०८ दिन की तपस्या हो चुकी है, इन तपस्याओं में केवल पानी के सिवाय और कुछ नहीं लिया जाता है। उबली हुई छाछ (तक्र) का निथरा हुआ पानी पीकर तो चार, छः, नौ महीने (२७२ दिन) तक की तपस्या हो चुकी है। शिक्षाप्रणाली: तेरापंथ की शिक्षाप्रणाली भी प्राचीन गुरु परंपरा के आधार पर चलती है। सारे संघ में कोई भी वैतनिक पंडित नहीं रहता, स्वयं आचार्य ही सबको अध्ययन कराते हैं और फिर वे शिक्षित साधु-साध्वियों अपने से छोटों को, इसी परंपरा के आधार पर परीक्षाएं होती है, जिनमें व्याकरण, न्याय, दर्शन, कोश, आगम आदि का अध्ययन होता है। शिक्षा के साथ कला का भी विकास हुआ है। साधुचर्या के उपयोगी उपकरण बड़े कलापूर्ण ढंग से संपन्न किए जाते हैं, जिन्हें देखने से ही पता चल सकता है। हस्तलिपि का कौशल भी बहुत समुद्रत है। आज इस मुद्रणप्रधान युग में नौ इंच लंबे व चार इंच चौड़े पन्ने पर ८० हजार अक्षरों को बिना ऐनक के लिखना और वह भी डिग्री की कलम से, सचमुच आश्चर्यजनक घटना है, इसी प्रकार चित्र, धातु रहित प्लास्टिक के ऐनक, दूरवीक्षण मंत्र, आई ग्लास आदि भी बड़े कलापूर्ण ढंग से अपने हाथों से बना लेते हैं। साहित्यसर्जन साहित्यसर्जन के बारे में भी तेरापंथ श्रमण संघ अपना स्थान रखता है, विहार क्षेत्र अधिकांश राजस्थान में रहा, इसीलिये आचार्य श्री तुलसी के पहले की रचना राजस्थानी भाषा में हैं। तेरापंथ के आद्य प्रवर्तक आचार्य श्री भीखण जी ने अपने जीवनकाल में ३८,००० पद्यों की रगना की है जो आज ‘भिक्षु ग्रंथ रत्नाकर’ नाम से सुरक्षित है, तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य श्री जयाचार्य ने भी विपुल साहित्य रचा है, उसका परिमाण लगभग तीन या साढ़े तीन लाख श्लोकों के बीच है, जिसमें सबसे बड़ो उनकी रचना है –भगवतीसूत्र का पद्यमय राजस्थानी भाषा में अनुवाद। इसकी श्लोक रचना करीब ८०,००० है, यह ग्रंथ राजस्थानी भाष का सबसे बड़ा ग्रंथ माना जाता है। तेरापंथ में संस्कृत का विकास अष्टमाचार्य कालुगणों के काल में हुआ, उनके समय में संस्कृत का वृहत् व्याकरण, भिक्षुशब्दानुशासन, लघु व्याकरण, कालकौमुदी व अन्य अनेक काव्यों की रचना हुई, नवम आचार्य श्री तुलसीगणी के काल में संस्कृत के साथ-साथ ‘हिंदी’ का भी द्रुत गति से विकास हुआ, स्वयं आचार्यश्री ने मिथुन्यायकर्णिका, जैनसिद्धांतदीपिका, कर्तव्यषदिवंशिका आदि ग्रंथों को संस्कृत में रचना की है और उनके शिष्यों ने भी अनेक सुंदर काव्यग्रंथों का निर्माण किया है, कई संतों ने हिंदी जगत् को भी अनेक पुस्तकें दी हैं, जिनमें जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व, तेरापंथ का इतिहास, विजययात्रा, आचार्य श्री तुलसी, अहिंसा और उसके विचारक, तेरापंथ, अणुव्रत दर्शन, अणुव्रत, जीवनदर्शन, आचार्य भिक्षु और महात्मा गांधी, दर्शन और विज्ञान, अणु से पूर्ण की ओर आदि है, आजकल आचार्यश्री के सानिध्य में जैनागमों का हिंदी अनुवाद, बृहत् जैनागम शब्दकोश व आगमों के मूग पाठों का संपादन आदि कार्य चल रहे हैं।  तेरापंथ में ११ आचार्यों की गौरवशाली परम्पराः १ आचार्य श्री भिक्षु जी २ आचार्य श्री भारीमल जी ३ आचार्य श्री रायचन्द जी ४ आचार्य श्री जीतमल जी ५ आचार्य श्री मघराज जी ६ आचार्य श्री माणकलाल जी ७ आचार्य श्री डालचन्द जी ८ आचार्य श्री कालूराम जी ९ आचार्य श्री तुलसी जी १० आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी ११ आचार्य श्री महाश्रमण (वर्तमान आचार्य) जी

श्री मोहनखेड़ा: गुरुसप्तमी महापर्व 2024 0

श्री मोहनखेड़ा: गुरुसप्तमी महापर्व 2024

श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वेताम्बर पेढ़ी (ट्रस्ट) श्री मोहनखेडा महातीर्थ के तत्वाधान में दादा गुरुदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. की १९७ वीं जन्म जयंती एवं ११७ वीं पुण्यतिथि पंचान्हिका महोत्सव १५ से १९ जनवरी तक बड़े ही हर्षोल्लास एवं पूजा अर्चना के साथ मनाया गया। मोहनखेड़ा महातीर्थ परिसर को विद्युत सज्जा के साथ सजाया गया, पुरे जिन मंदिर परिसर व दादा गुरुदेव के समाधि मंदिर परिसर को पुष्प सज्जा व विद्युत सज्जा के साथ सजाया गया। गुरु सप्तमी के अवसर पर श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ में आने वाले सभी गुरुभक्तों को आवास, भोजन, यातायात, पार्किंग आदि की सभी सुविधाएं प्रतिवर्षानुसार इस वर्ष भी ट्रस्ट मण्डल के द्वारा उपलब्ध कराई गई, साथ ही प्रतिवर्षानुसार इस वर्ष निःशुल्क चाय एवं नास्ते के स्टाल भी लगाये गये। पुरे देश भर से हजारों गुरुभक्त अपनी श्रद्धा, आस्था और विश्वास को लेकर दादा गुरुदेव के चरणों में अपना शीष झुकाने के लिये गुरु सप्तमी महापर्व पर पधारे जिसमें मुम्बई, महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु, राजस्थान, मध्यप्रदेष, मालवांचल, उत्तरांचल सहित कई प्रदेशों के गुरुभक्त श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ पर दादा गुरुदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. दर्शन वंदन पूजन के लिये मोहनखेड़ा पहुंचें, जनजन की आस्था के केन्द्र श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ पर कई राजनैतिक हस्तियों का भी आगमन महापर्व गुरुसप्तमी पर हुआ। पौष सुदी पंचमी से निरंतर सभी गुरुभक्त शत्रुंजयावतार प्रभु श्री आदिनाथ भगवान व दादा गुरुदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. की वाशक्षेप पूजा व केशर पूजा के लिये लम्बी-लम्बी कतारों में लगकर अपनी पूजा अर्चना के लिये इंतजार करते देखे गये, कहा जाता है कि दादा गुरुदेव के दरबार में जो भी भक्त अपनी झोली फेलाकर आता है, उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं, अपनी झोली भरकर ही आनन्द की अनुभुति के साथ अपने आत्म कल्याण की कामना करता है। गुरु सप्तमी महामहोत्सव के अवसर पर प्रातः ५ बजे से दादा गुरुदेव की १९७ वीं जन्म जयंती पर दादा गुरुदेव का पालना द्वारोघटन के साथ लाभार्थी परिवार के द्वारा झुलाया गया, तत्पश्चात् वासक्षेप पूजा, अभिषेक, प्रक्षाल, ब्रास, केसर, फुल, आंगी पूजा आदि के साथ दोपहर में दादा गुरुदेव की गुरुपद महापूजन का आयोजन हुआ। गुरुगुणानुवाद सभा का आयोजन धर्मसभा मण्डप में किया गया। श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वेताम्बर पेढ़ी ट्रस्ट श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ द्वारा गुरु सप्तमी महापर्व पर आये हुए सभी गुरुभक्तों के लिये स्वामीभक्ति का आयोजन भी किया गया। रात्रि में दादा गुरुदेव की महाआरती लाभार्थी परिवार द्वारा उतारी गई। रात्रि में आरती पश्चात् रंगारंग भक्तिभावना का आयोजन रखा गया। तीर्थ पर विराजित आचार्य श्री ने दादा गुरुदेव के जीवन चरित्र पर व्याख्यान माला के तहत प्रवचन वाणी का श्रवण कराया। मंगलवार की रात्रि में चढ़ावों की जाजम के साथ रंगारंग भक्ति भावना का आयोजन संगीतकार नरेन्द्र वाणीगोता एण्ड पार्टी द्वारा पेढ़ी ट्रस्ट के तत्वाधान में किया गया।

तीर्थंकर महावीर के ८ कल्याणकारी संदेश 0

तीर्थंकर महावीर के ८ कल्याणकारी संदेश

तीर्थंकर महावीर ने मानव-मात्र के लिए आठ कल्याणकारी सन्देशों का प्रतिपादन किया, जो इस प्रकार है:तीर्थंकर महावीर ने लोगों को कहा कि अपने अन्दर सुनने का अभ्यास उत्पन्न करो, सुनने से पाप-पुण्य की, धर्म-अधर्म की तथा सत्य-असत्य की ठीक-ठीक जानकारी प्राप्त होती है। वास्तविक और यथार्थ के दर्शन होते हैं तथा मनुष्य यथोचित ढंग से जीने की कला सीखता है, इसके द्वारा मन में बैठी अनेक प्रकार की भ्राँतियों का भी निवारण होता है।जो सुना है, उसे याद रखो- अपने अन्दर सुने हुए को याद रखने की प्रवृत्ति का विकास करो, कभी भी कोई बात एक कान से सुनकर दूसरे कान से मत निकालो, जिस प्रकार छलनी जल से परिपूर्ण कर देने के बाद क्षण-भर में ही रिक्त हो जाती है, उसी प्रकार जीवन में प्रमुख तथ्यों को अपने कानों से श्रवण करके भूलो मत, यदि कोई मनुष्य सत्संग अथवा विद्या मन्दिर में सुना हुआ पाठ स्मरण नहीं रखेगा तो वह अपने जीवन में कभी भी उन्नति नहीं कर सकेगा।नए दोष-कर्म को रोको- नवीन दोषों से स्वयं को बचाते रहो। भ्रष्टाचार और पापाचार के भयंकर दलदल से स्वयं को दूर रखो। बुराई के फल से सदैव बचकर रहने वाला मनुष्य ही बुराई से अछुता रहता है और सदैव निर्भयता से जीवन यापन करता है।पुराने पाप कर्मों को तप से नष्ट करो- जो पाप कर्म अथवा रंग-बिरंगी गलतियाँ अतीत में हो चुकी हैं, उनसे छुटकारा पाने के लिए तप-साधना श्रेयस्कर है। तप-साधना पूर्व संचित पाप कर्मों को नष्ट करने के लिए सघन पश्चाताप करना एक सर्वश्रेष्ठ साधन है।ज्ञान की शिक्षा प्रदान करो- इस संसार में जो मनुष्य ज्ञान के प्रकाश से वंचित हैं, उन्हें ज्ञान की शिक्षा देना बहुत बड़ा कल्याणकारी कार्य है, उन्हें ज्ञान का प्रकाश देकर उनमें अज्ञान का निवारण करना अत्यन्त पुनीत कर्म है।जिसका कोई नहीं, उसके बनो- इस संसार में जो अनाथ हैं उन्हें सहारा दो, उनकी रक्षा करो और उन्हें इस बात का विश्वास दिलाओ कि वे बेसहारा नहीं है, ऐसे मनुष्यों को अन्न दो और वस्त्र दो, सदैव इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि यदि हम किसी की सहायता करेंगे तो समय आने पर कोई हमारी सहायता करने वाला भी अवश्य होगा, स्मरण रखो कि यदि आज हमारी सहायता करने वाला कोई नहीं है तो हमने भी कभी किसी की सहायता ना की होगी।ग्लानिरहित सेवाभाव अपनाओ- हमें सेवा-भाव ग्लानिरहित होकर करना चाहिए, यदि सेवक सेवा करने वाले व्यक्ति से घृणा करता है तो उसकी सेवा करने का कोई औचित्य नहीं है, नर-सेवा को नारायण सेवा समझना ही सच्ची सेवा भावना है।निष्पक्ष निर्णय करो- द्वन्द्व दु:ख और अशान्ति का मूल है, द्वन्द्व को शीघ्र-से-शीघ्र समाप्त कर देना चाहिए, द्वन्द्वात्मक स्थिति में निर्णय करने वाले को निष्पक्ष रहना चाहिए, पक्षपात सत्य को असत्य और असत्य को सत्य में बदल देता है इस कारण द्वन्द्व समाप्त होने के बजाय बढ़ता चला जाता है। तीर्थंकर महावीर के इन आठ सन्देशों को अपने जीवन में उतारकर मनुष्य अपना ही नहीं दूसरों का भी कल्याण करता है।

महावीर निर्वाण पर्व: ध्रुव मार्ग 0

महावीर निर्वाण पर्व: ध्रुव मार्ग

तीर्थंकर महावीर ने पावापुरी से मोक्ष प्राप्त किया, महावीर की आत्मा कार्तिक की चौदस को पूर्ण निर्मल पर्याय रुप से परिणित हुई और महावीर, सिद्धपद को प्राप्त हुए। पावापुरी में इन्द्रों तथा राजा-महाराजाओं ने निर्वाण-महोत्सव मनाया था, उसी दीपावली तथा नूतनवर्ष का आज दिवस है। भगवान पावापुरी स्वभाव ऊध्र्वगमन कर ऊपर सिद्धालय में विराज रहे हैं, ऐसी दशा भगवान को पावापुरी में प्रगट हुई, इसलिए पावापुरी भी तीर्थधाम बना, हम सम्मेदशिखर की यात्रा के समय पावापुरी की यात्रा करने गये, तब वहाँ भगवान का अभिषेक किया था, वहाँ सरोवर के बीच में – जहाँ से भगवान मोक्ष पधारे वहाँ भगवान के चरण कमल हैं। तीर्थंकरों का द्रव्य त्रिकाल मंगलरुप है तथा जो जीव, केवलज्ञान प्राप्त करने वाला है, उसका द्रव्य भी त्रिकाल मंगलरुप है।भगवान की आत्मा त्रिकाल मंगलस्वरुप है, उनका द्रव्य तो त्रिकाल मंगलरुप है ही, वे जहाँ से मोक्ष को प्राप्त हुए, वह क्षेत्र भी मंगल है, मोक्ष प्राप्त किया, इसलिए आज का काल भी मंगलरुप है और भगवान के केवल ज्ञानादिरुप भाव भी मंगलरुप हैं, इस प्रकार भगवान महावीर परमात्मा द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव से मंगलरुप है, भगवान के मोक्ष प्राप्त करने पर यहाँ भरतक्षेत्र में तीर्थंकर का विरह हुआ, भगवान का स्मरण कर भगवान के भक्त कहते हैं कि-हे नाथ! आपने चैतन्य स्वभाव में अन्तर्मुख होकर आत्मा की मुक्तदशा साथ ली और दिव्यवाणी द्वारा हमें उसी आत्मा का उपदेश दिया, ऐसे स्मरण द्वारा श्रद्धा-ज्ञान की निर्मलता करे, वह मंगलरुप है, जहाँ ऐसी निर्मलदशा प्रगट हो, वह मंगल क्षेत्र है, श्रद्धा-ज्ञान का जो भाव है, वह मंगल भाव है और आत्मा स्वयं मंगलरुप है, भगवान का मोक्षकल्याणक मनाने के बाद इन्द्र और देव नन्दीश्वर द्वीप में जाकर वहाँ आठ दिन तक उत्सव मनाते हैं।भगवान के निर्वाण का दिवस पर ‘अष्टप्राभृत’ में भी निर्वाण की ही गाथा पढ़ी जा रही है, निर्वाण किस प्रकार तथा वैâसे पुरुष का होता है, वह बात शीलप्राभृत की ११-१२ वीं गाथा में कहते हैं-णाणेव दंसणेव य तवेण, चरिएण सम्मसहिएणहोहदि परिणिव्वाणं, जीवाणं चरित्तसुद्धाणंसीलं रक्खंताणं दंसणसुद्धाण दिढचरित्ताणंअत्थि धुवं णिव्वाणं विसएसु विरत्तचित्ताणंउपयोग को अन्तर्मुख करके, धर्मी जीव, चैतन्य के शान्तरस का अनुभव करते हैं, जिस प्रकार कुएँ की गहराई में से पानी खींचते हैं, उसी प्रकार सम्यक् आत्मस्वभावरुप कारण परमात्मा को ध्येय रुप से पकड़ कर, उसमें गहराई तक उपयोग को उतारने से पूर्ण शुद्धता होती है और इसी रीति से निर्वाण होता है। निर्वाण कोई बाह्य वस्तु नहीं है, किन्तु आत्मा की पर्याय परमशुद्ध हो गयी तथा विकार से छुट गयी, उसी का नाम निर्वाण है।भगवान का मनुष्य शरीर था अथवा वङ्काऋषभ नाराचसंहनन था, इसलिए निर्वाण हुआ ऐसा नहीं है, किन्तु सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्याचारित्र और सम्य तप से भगवान ने मुक्ति प्राप्त की है, आज भगवान महावीर का शासन चल रहा है, भगवान अपने परम आनन्द में तृप्त हो रहे हैं… अतीन्द्रिय आनन्द का अनुभव कर रहे हैं, ऐसी निर्वाण दशा का आज मंगल दिवस है और यह निर्वाण के उपाय की गाथा भी मंगल है, इस प्रकार दीपावली मंगलमय है।जिसने चैतन्य में ही उपयोग लगाकर उसे बाह्य ध्येय से विमुख किया है, अर्थात् विषयों से विरक्त होकर चैतन्य के आनन्द-रस का स्वाद लेता है, आनन्दानुभव को उग्र बनाकर स्वाद में लेता है, ऐसा पुरुष नियमपूर्वक ध्रुवरुप से निर्वाण को प्राप्त होता है।देखो, यह निर्वाण का ध्रुवमार्ग! अन्तर्मुख होकर जिसने ऐसा मार्ग प्रगट किया, वह वहाँ से लौटता नहीं है… ध्रुवरुप से निर्वाण को प्राप्त करता है, जो जीव, दर्शन शुद्धि पूर्वक दृढ़ चारित्र द्वारा चैतन्य में एकाग्र होता है, उसे बाह्य विषयों से विरक्ति हो जाती है, उसी का नाम शील है और ऐसा शीलवान जीव अवश्य मोक्ष प्राप्त करता है।चैतन्यध्येय से च्युत होकर जिसने पर को ध्येय बनाया है, उस जीव के शील की रक्षा नहीं है, उसकी दर्शनशुद्धि नहीं है, उसके उपयोग में राग के एकतारुपी विषयों का ही सेवन है, जिसने चैतन्य स्वभाव की रुचि प्रगट की है और राग की रुचि छोड़ी है, उसे चैतन्य ध्येय से बाह्य विषयों का ध्येय छूट जाता है- ऐसा शील निर्वाणमार्ग में प्रधान है, इस प्रकार से दो गाथाओं में तो दर्शनशुद्धि के उपरान्त चारित्र की बात कह कर साक्षात् निर्वाण मार्ग का कथन किया गया है।अब, एक दूसरी बात कहते हैं- किन्हीं ज्ञानी धर्मात्मा को कदाचित् विषयों से विरक्ति न हुई हो अर्थात् चारित्रदशा की स्थिरता प्रगट न हुई हो, किन्तु श्रद्धा बराबर है तथा मार्ग तो विषयों की विरक्ति रुप ही है, इस प्रकार यथार्थ प्रतिप्रादन करते हैं तो उस ज्ञानी को मार्ग की प्राप्ति कही जाती है, सम्यग्मार्ग का स्वयं को भान है और उसी की भली-भाँति प्रतिपादन करते हैं, किन्तु अभी विषयों से विरक्ति रुप मुनिदशा आदि नहीं है।अस्थिरता है तो भी वे ज्ञानी धर्मात्मा मोक्षमार्ग के साधक हैं, वे मंगलरुप हैं, उन्हें इष्टमार्ग की प्राप्ति है और यथार्थ मार्ग दर्शाने वाले हैं, इसलिए उनके द्वारा दूसरों को भी सम्यकमार्ग की प्राप्ति होती है, किन्तु जो जीव, विषयों के राग को लाभ मानता है, उसे तो सम्यग्मार्ग की श्रद्धा ही नहीं है, वह तो उन्मार्ग पर है तथा उन्मार्ग को बतलाने वाला है। धर्मात्मा को राग होता है, किन्तु उसे वे बन्ध का ही कारण जानते हैं, इसलिए राग होने पर भी उनकी श्रद्धा में विपरीतता नहीं है, उन्हें मार्ग की प्राप्ति है और उनसे दूसरे जीव भी मार्ग प्राप्त कर सवेंâगे, सत्मार्ग को प्राप्त जीव ही सत्मार्ग की प्राप्ति में निमित्तरुप होते हैं।अज्ञानी, राग को स्वयं लाभ मानता है और दूसरों को भी मनवाता है, इसलिए वह स्वयं मार्ग से भ्रष्ट है और उसके निकट धर्म मार्ग की प्राप्ति नहीं हो सकती। अहा! चैतन्य के श्रद्धा-ज्ञान तथा उसमें लीनता रुप वीतरागता किंचित् कर्तव्य नहीं है। राग का एक कण भी मोक्ष को रोकनेवाला है, वह मोक्ष का साधन वैâसे हो सकता है? ऐसे ज्ञानी को श्रद्धा है। ज्ञानी जहाँ पुण्यभाव को भी छोड़ने योग्य मानते हैं, वहाँ वे पाप में स्वच्छन्तापूर्वक वैâसे बरतेगें? चारित्र दशारहित हो तो भी सम्यग्दृष्टि मोक्षमार्ग में ही है, क्योंकि उन्हें वीतराग चारित्र की भावना है और राग की भावना नहीं है। श्रद्धा में वे सारे जगत् से विरक्त हैं, ज्ञान-वैराग्य की अद्भुत शक्ति उनको प्रगट हुई है, अन्तर में चैतन्य को ध्येय बनाकर राग से भिन्नता का भान हुआ है- ऐसे भान बिना कोई राग से लाभ माने तथा उसका प्ररुपण करे तो वह उन्मार्ग में हैं, उसके ज्ञान का विकास निरर्थक है, भगवान के मार्ग को उसने नहीं जाना है, भगवान किस प्रकार मोक्ष को प्राप्त हुए- उसकी उसे खबर नहीं है। अस्थिरता के कारण सम्यक्त्वी के विषय न छूटे तथापि उनका ज्ञान नहीं बिगड़ता, दृष्टि के विषय में शुद्ध चैतन्य स्वभाव को पकड़ा है, वह कभी नहीं छूटता, उस ध्येय के आश्रम से वे सम्यक मार्ग बरतते हैं, मोक्ष के माणिक स्तम्भ उनके आत्मा में जम गये हैं… वीर प्रभु के मंगलमार्ग पर चलकर वे भी मुक्ति को साथ रहे हैं। पूर्णतारुप परिनिर्वाण, मंगलरुप है और उसके प्रारम्भ रुप सम्यक्त्व भी मंगलरुप है, इस साध्य और साधक दोनों की बात दीपावली के मांगलिक में आयी है।

“भारत हूँ” फाउंडेशन का ऐतिहासिक कार्यक्रम 0

“भारत हूँ” फाउंडेशन का ऐतिहासिक कार्यक्रम

रायपुर: लोग कहते हैं और हम सभी भारतीयों को बताया भी गया है कि इंडिया का मतलब ‘भारत’ होता है, ‘भारत’ का मतलब इंडिया होता है, क्या कभी नाम का अनुवाद हो सकता है, जब नाम का अनुवाद नहीं हो सकता तो इंडिया का मतलब भारत या भारत का मतलब इंडिया कैसे हो सकता है? हमारे देश का नाम भी एक ही रहना चाहिए केवल ‘भारत’।क्योंकि हजारों सालों से हमारे देश का नाम भारत’ ही रहा है, हमने लगभग ढाई सौ साल गुलामी की दास्तॉ सही और अपने आप को इंडियन कहने के लिए मजबूर रहे, पर आज हम स्वतंत्र हैं और हम चाहते हैं कि हम भारतीय बने रहें, क्योंकि पुराणों व वेदों में हमारे देश के नाम का उल्लेख ‘भारत’ ही मिलता है।पिछले १५ सालों से लगातार हमारा प्रयास रहा है कि पूरी दुनिया अपने देश को एक ही नाम से पुकारें केवल ‘भारत’।‘मैं भारत हूं फाउंडेशन’ एक अंतरराष्ट्रीय संस्थान है, संस्थान ने विश्व के कोने-कोने में फैले भारतीयों को बताने का प्रयास किया है कि नाम का कभी अनुवाद नहीं होता, भारत को केवल ‘भारत’ ही बोला जाना चाहिए और इसमें आंशिक सफलता भी मिली है। संस्थान ने भारत का ही एक राज्य ‘उत्तर प्रदेश’ के हर गलियों में ‘रथ यात्रा’ निकाली। भारत की राजधानी ‘दिल्ली’ में जन-जन तक अभियान को पहुंचाने के लिए भारत मां के रथ के साथ लोगों से संपर्क किया। दिल्‍ली के सुप्रीम कोर्ट के प्रांगण में अधिवक्ताओं के बीच कार्यक्रम किया। दिल्‍ली में स्थापित जनपथ में बाबा साहेब अंबेडकर इंटरनेशनल सभागार में विशाल कार्यक्रम किया, जिसमें कई राजनीतिक दलों के शिरोधार्य उपस्थित हुए। भारत की जितनी भी सामाजिक संस्थाएं हैं उनसे संपर्क किया गया। देश के कोने-कोने में रहने वाले भारतीयों से सोशल मीडिया व युवा छात्र-छात्राओं से संबंध स्थापित कर पूछा गया कि देश का नाम एक ही कैसे हो केवल ‘भारत’, क्योंकि हजारों सालों से हमारे देश का नाम ‘भारत’ ही रहा है यह वैदिक पुराणों में भी हमें लिखा मिलता है।‘भारत’ को केवल ‘भारत’ ही बोला जाए’ अभियान को आंशिक सफलता भी मिली है लेकिन जब तक भारतीय संविधान के अनुच्छेद क्रमांक १ में, जहां ‘इंडिया देट इज भारत’ लिखा है वहां ‘भारत ईज भारत’ नहीं लिखा जाएगा तब तक हम भारतीय चैन से नहीं बैठेंगे।‘मैं भारत हूं फाउंडेशन’ के पदाधिकारीयों ने भारत के केंद्रीय सरकार,सभी राज्यों के मुख्यमंत्री, राज्यपाल आदि से संपर्क कर निवेदन किया है। दिनांक ८ अक्टूबर २०२३ को ‘मैं भारत हूं फाउंडेशन’ के पदाधिकारी भारत का एक राज्य छत्तीसगढ की राजधानी ‘रायपुर’ में स्थापित वृंदावन सभागार में आप सबके समक्ष निवेदन लेकर आए हैं की छत्तीसगढ़ की राजधानी का हर बच्चा, युवा, बुजुर्ग, महिला-पुरुष जब भी किसी का अभिवादन करें ‘जय भारत’ से ही करें।हमें पूरा विश्वास है कि आप सभी का साथ हमें मिलेगा और आप अपने क्षेत्र में इस अभियान का उल्लेख जरूर करेंगे और जन जन तक यह बात पहुंचाने में साथ देंगे, क्योंकि हम सभी भारतीय हैं, भारत के रहने वाले हैं और हमारे देश का नाम एक ही रहे केवल ‘भारत’।कार्यक्रम में उपस्थित राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष श्रीमती निशा लढ्ढा ने अपने गरिमामयी उद्बोधन से सभागार में उपस्थित छत्तीसगढ वासियों को संबोधित किया। छत्तीसगढ के संयोजक वैâलाश रारा ने सभी का परिचय कराया और कहा कि जब तक ‘भारत को केवल भारत नहीं बोला जाएगा’ मैं चावल ग्रहण नहीं करâंगा। मंच का संचालन चिर-परिचित मंच संचालिका ‘मैं भारत हूँ फाउंडेशन’ की राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष ने अपनी गरिमामयी वाणी से संचालित कर रही थीं। उपस्थित मंचासीन वैâलाश रारा रायपुर- छत्तीसगढ संयोजक (मैं भारत हूँ फाउंडेशन), प्रो. रमेन्द्रनाथ मिश्रा रायपुर- अध्यक्ष इतिहास विभाग (Rएन्न्), गिरीश पंकज रायपुर- वरिष्ठ पत्रकार व साहित्यकार, बिजय कुमार जैन मुंबई- राष्ट्रीय अध्यक्ष (मैं भारत हूँ फाउंडेशन), प्रदीप जैन रायपुर- सम्पादक दैनिक विश्व परिवार, सुरेन्द्र पाटनी रायपुर- प्रदेश अध्यक्ष भाजपा (र्‍उध् प्रकोष्ठ), राजकुमार राठी रायपुर- महामंत्री अंतर्राष्ट्रीय वैश्य महासम्मेलन ने अपने उद्बोधन दिए। जय भारत! -मैंभाहूँ