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श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ में गुरुसप्तमी महापर्व पर उमड़ा आस्था का सैलाब दादा गुरुदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीष्वरजी म.सा. के १९७ वीं जन्म जयंती एवं ११७ वीं पुण्यतिथि मनाई गई

श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वेताम्बर पेढ़ी (ट्रस्ट) श्री मोहनखेडा महातीर्थ के तत्वाधान में दादा गुरुदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. की १९७ वीं जन्म जयंती एवं ११७ वीं पुण्यतिथि पंचान्हिका महोत्सव १५ से १९ जनवरी तक बड़े ही हर्षोल्लास एवं पूजा अर्चना के साथ मनाया गया। मोहनखेड़ा महातीर्थ परिसर को विद्युत सज्जा के साथ सजाया गया, पुरे जिन मंदिर परिसर व दादा गुरुदेव के समाधि मंदिर परिसर को पुष्प सज्जा व विद्युत सज्जा के साथ सजाया गया। गुरु सप्तमी के अवसर पर श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ में आने वाले सभी गुरुभक्तों को आवास, भोजन, यातायात, पार्किंग आदि की सभी सुविधाएं प्रतिवर्षानुसार इस वर्ष भी ट्रस्ट मण्डल के द्वारा उपलब्ध कराई गई, साथ ही प्रतिवर्षानुसार इस वर्ष निःशुल्क चाय एवं नास्ते के स्टाल भी लगाये गये। पुरे देश भर से हजारों गुरुभक्त अपनी श्रद्धा, आस्था और विश्वास को लेकर दादा गुरुदेव के चरणों में अपना शीष झुकाने के लिये गुरु सप्तमी महापर्व पर पधारे जिसमें मुम्बई, महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु, राजस्थान, मध्यप्रदेष, मालवांचल, उत्तरांचल सहित कई प्रदेशों के गुरुभक्त श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ पर दादा गुरुदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. दर्शन वंदन पूजन के लिये मोहनखेड़ा पहुंचें, जनजन की आस्था के केन्द्र श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ पर कई राजनैतिक हस्तियों का भी आगमन महापर्व गुरुसप्तमी पर हुआ। पौष सुदी पंचमी से निरंतर सभी गुरुभक्त शत्रुंजयावतार प्रभु श्री आदिनाथ भगवान व दादा गुरुदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. की वाशक्षेप पूजा व केशर पूजा के लिये लम्बी-लम्बी कतारों में लगकर अपनी पूजा अर्चना के लिये इंतजार करते देखे गये, कहा जाता है कि दादा गुरुदेव के दरबार में जो भी भक्त अपनी झोली फेलाकर आता है, उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं, अपनी झोली भरकर ही आनन्द की अनुभुति के साथ अपने आत्म कल्याण की कामना करता है। गुरु सप्तमी महामहोत्सव के अवसर पर प्रातः ५ बजे से दादा गुरुदेव की १९७ वीं जन्म जयंती पर दादा गुरुदेव का पालना द्वारोघटन के साथ लाभार्थी परिवार के द्वारा झुलाया गया, तत्पश्चात् वासक्षेप पूजा, अभिषेक, प्रक्षाल, ब्रास, केसर, फुल, आंगी पूजा आदि के साथ दोपहर में दादा गुरुदेव की गुरुपद महापूजन का आयोजन हुआ। गुरुगुणानुवाद सभा का आयोजन धर्मसभा मण्डप में किया गया। श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वेताम्बर पेढ़ी ट्रस्ट श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ द्वारा गुरु सप्तमी महापर्व पर आये हुए सभी गुरुभक्तों के लिये स्वामीभक्ति का आयोजन भी किया गया। रात्रि में दादा गुरुदेव की महाआरती लाभार्थी परिवार द्वारा उतारी गई। रात्रि में आरती पश्चात् रंगारंग भक्तिभावना का आयोजन रखा गया। तीर्थ पर विराजित आचार्य श्री ने दादा गुरुदेव के जीवन चरित्र पर व्याख्यान माला के तहत प्रवचन वाणी का श्रवण कराया। मंगलवार की रात्रि में चढ़ावों की जाजम के साथ रंगारंग भक्ति भावना का आयोजन संगीतकार नरेन्द्र वाणीगोता एण्ड पार्टी द्वारा पेढ़ी ट्रस्ट के तत्वाधान में किया गया।

तीर्थंकर महावीर के ८ कल्याणकारी संदेश

तीर्थंकर महावीर ने मानव-मात्र के लिए आठ कल्याणकारी सन्देशों का प्रतिपादन किया, जो इस प्रकार है:तीर्थंकर महावीर ने लोगों को कहा कि अपने अन्दर सुनने का अभ्यास उत्पन्न करो, सुनने से पाप-पुण्य की, धर्म-अधर्म की तथा सत्य-असत्य की ठीक-ठीक जानकारी प्राप्त होती है। वास्तविक और यथार्थ के दर्शन होते हैं तथा मनुष्य यथोचित ढंग से जीने की कला सीखता है, इसके द्वारा मन में बैठी अनेक प्रकार की भ्राँतियों का भी निवारण होता है।जो सुना है, उसे याद रखो- अपने अन्दर सुने हुए को याद रखने की प्रवृत्ति का विकास करो, कभी भी कोई बात एक कान से सुनकर दूसरे कान से मत निकालो, जिस प्रकार छलनी जल से परिपूर्ण कर देने के बाद क्षण-भर में ही रिक्त हो जाती है, उसी प्रकार जीवन में प्रमुख तथ्यों को अपने कानों से श्रवण करके भूलो मत, यदि कोई मनुष्य सत्संग अथवा विद्या मन्दिर में सुना हुआ पाठ स्मरण नहीं रखेगा तो वह अपने जीवन में कभी भी उन्नति नहीं कर सकेगा।नए दोष-कर्म को रोको- नवीन दोषों से स्वयं को बचाते रहो। भ्रष्टाचार और पापाचार के भयंकर दलदल से स्वयं को दूर रखो। बुराई के फल से सदैव बचकर रहने वाला मनुष्य ही बुराई से अछुता रहता है और सदैव निर्भयता से जीवन यापन करता है।पुराने पाप कर्मों को तप से नष्ट करो- जो पाप कर्म अथवा रंग-बिरंगी गलतियाँ अतीत में हो चुकी हैं, उनसे छुटकारा पाने के लिए तप-साधना श्रेयस्कर है। तप-साधना पूर्व संचित पाप कर्मों को नष्ट करने के लिए सघन पश्चाताप करना एक सर्वश्रेष्ठ साधन है।ज्ञान की शिक्षा प्रदान करो- इस संसार में जो मनुष्य ज्ञान के प्रकाश से वंचित हैं, उन्हें ज्ञान की शिक्षा देना बहुत बड़ा कल्याणकारी कार्य है, उन्हें ज्ञान का प्रकाश देकर उनमें अज्ञान का निवारण करना अत्यन्त पुनीत कर्म है।जिसका कोई नहीं, उसके बनो- इस संसार में जो अनाथ हैं उन्हें सहारा दो, उनकी रक्षा करो और उन्हें इस बात का विश्वास दिलाओ कि वे बेसहारा नहीं है, ऐसे मनुष्यों को अन्न दो और वस्त्र दो, सदैव इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि यदि हम किसी की सहायता करेंगे तो समय आने पर कोई हमारी सहायता करने वाला भी अवश्य होगा, स्मरण रखो कि यदि आज हमारी सहायता करने वाला कोई नहीं है तो हमने भी कभी किसी की सहायता ना की होगी।ग्लानिरहित सेवाभाव अपनाओ- हमें सेवा-भाव ग्लानिरहित होकर करना चाहिए, यदि सेवक सेवा करने वाले व्यक्ति से घृणा करता है तो उसकी सेवा करने का कोई औचित्य नहीं है, नर-सेवा को नारायण सेवा समझना ही सच्ची सेवा भावना है।निष्पक्ष निर्णय करो- द्वन्द्व दु:ख और अशान्ति का मूल है, द्वन्द्व को शीघ्र-से-शीघ्र समाप्त कर देना चाहिए, द्वन्द्वात्मक स्थिति में निर्णय करने वाले को निष्पक्ष रहना चाहिए, पक्षपात सत्य को असत्य और असत्य को सत्य में बदल देता है इस कारण द्वन्द्व समाप्त होने के बजाय बढ़ता चला जाता है। तीर्थंकर महावीर के इन आठ सन्देशों को अपने जीवन में उतारकर मनुष्य अपना ही नहीं दूसरों का भी कल्याण करता है।

तीर्थंकर महावीर निर्वाण पर्व पर खास प्रस्तुति
निर्वाण प्राप्ति का ध्रुव मार्ग

तीर्थंकर महावीर ने पावापुरी से मोक्ष प्राप्त किया, महावीर की आत्मा कार्तिक की चौदस को पूर्ण निर्मल पर्याय रुप से परिणित हुई और महावीर, सिद्धपद को प्राप्त हुए। पावापुरी में इन्द्रों तथा राजा-महाराजाओं ने निर्वाण-महोत्सव मनाया था, उसी दीपावली तथा नूतनवर्ष का आज दिवस है। भगवान पावापुरी स्वभाव ऊध्र्वगमन कर ऊपर सिद्धालय में विराज रहे हैं, ऐसी दशा भगवान को पावापुरी में प्रगट हुई, इसलिए पावापुरी भी तीर्थधाम बना, हम सम्मेदशिखर की यात्रा के समय पावापुरी की यात्रा करने गये, तब वहाँ भगवान का अभिषेक किया था, वहाँ सरोवर के बीच में – जहाँ से भगवान मोक्ष पधारे वहाँ भगवान के चरण कमल हैं। तीर्थंकरों का द्रव्य त्रिकाल मंगलरुप है तथा जो जीव, केवलज्ञान प्राप्त करने वाला है, उसका द्रव्य भी त्रिकाल मंगलरुप है।भगवान की आत्मा त्रिकाल मंगलस्वरुप है, उनका द्रव्य तो त्रिकाल मंगलरुप है ही, वे जहाँ से मोक्ष को प्राप्त हुए, वह क्षेत्र भी मंगल है, मोक्ष प्राप्त किया, इसलिए आज का काल भी मंगलरुप है और भगवान के केवल ज्ञानादिरुप भाव भी मंगलरुप हैं, इस प्रकार भगवान महावीर परमात्मा द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव से मंगलरुप है, भगवान के मोक्ष प्राप्त करने पर यहाँ भरतक्षेत्र में तीर्थंकर का विरह हुआ, भगवान का स्मरण कर भगवान के भक्त कहते हैं कि-हे नाथ! आपने चैतन्य स्वभाव में अन्तर्मुख होकर आत्मा की मुक्तदशा साथ ली और दिव्यवाणी द्वारा हमें उसी आत्मा का उपदेश दिया, ऐसे स्मरण द्वारा श्रद्धा-ज्ञान की निर्मलता करे, वह मंगलरुप है, जहाँ ऐसी निर्मलदशा प्रगट हो, वह मंगल क्षेत्र है, श्रद्धा-ज्ञान का जो भाव है, वह मंगल भाव है और आत्मा स्वयं मंगलरुप है, भगवान का मोक्षकल्याणक मनाने के बाद इन्द्र और देव नन्दीश्वर द्वीप में जाकर वहाँ आठ दिन तक उत्सव मनाते हैं।भगवान के निर्वाण का दिवस पर ‘अष्टप्राभृत’ में भी निर्वाण की ही गाथा पढ़ी जा रही है, निर्वाण किस प्रकार तथा वैâसे पुरुष का होता है, वह बात शीलप्राभृत की ११-१२ वीं गाथा में कहते हैं-णाणेव दंसणेव य तवेण, चरिएण सम्मसहिएणहोहदि परिणिव्वाणं, जीवाणं चरित्तसुद्धाणंसीलं रक्खंताणं दंसणसुद्धाण दिढचरित्ताणंअत्थि धुवं णिव्वाणं विसएसु विरत्तचित्ताणंउपयोग को अन्तर्मुख करके, धर्मी जीव, चैतन्य के शान्तरस का अनुभव करते हैं, जिस प्रकार कुएँ की गहराई में से पानी खींचते हैं, उसी प्रकार सम्यक् आत्मस्वभावरुप कारण परमात्मा को ध्येय रुप से पकड़ कर, उसमें गहराई तक उपयोग को उतारने से पूर्ण शुद्धता होती है और इसी रीति से निर्वाण होता है। निर्वाण कोई बाह्य वस्तु नहीं है, किन्तु आत्मा की पर्याय परमशुद्ध हो गयी तथा विकार से छुट गयी, उसी का नाम निर्वाण है।भगवान का मनुष्य शरीर था अथवा वङ्काऋषभ नाराचसंहनन था, इसलिए निर्वाण हुआ ऐसा नहीं है, किन्तु सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्याचारित्र और सम्य तप से भगवान ने मुक्ति प्राप्त की है, आज भगवान महावीर का शासन चल रहा है, भगवान अपने परम आनन्द में तृप्त हो रहे हैं… अतीन्द्रिय आनन्द का अनुभव कर रहे हैं, ऐसी निर्वाण दशा का आज मंगल दिवस है और यह निर्वाण के उपाय की गाथा भी मंगल है, इस प्रकार दीपावली मंगलमय है।जिसने चैतन्य में ही उपयोग लगाकर उसे बाह्य ध्येय से विमुख किया है, अर्थात् विषयों से विरक्त होकर चैतन्य के आनन्द-रस का स्वाद लेता है, आनन्दानुभव को उग्र बनाकर स्वाद में लेता है, ऐसा पुरुष नियमपूर्वक ध्रुवरुप से निर्वाण को प्राप्त होता है।देखो, यह निर्वाण का ध्रुवमार्ग! अन्तर्मुख होकर जिसने ऐसा मार्ग प्रगट किया, वह वहाँ से लौटता नहीं है… ध्रुवरुप से निर्वाण को प्राप्त करता है, जो जीव, दर्शन शुद्धि पूर्वक दृढ़ चारित्र द्वारा चैतन्य में एकाग्र होता है, उसे बाह्य विषयों से विरक्ति हो जाती है, उसी का नाम शील है और ऐसा शीलवान जीव अवश्य मोक्ष प्राप्त करता है।चैतन्यध्येय से च्युत होकर जिसने पर को ध्येय बनाया है, उस जीव के शील की रक्षा नहीं है, उसकी दर्शनशुद्धि नहीं है, उसके उपयोग में राग के एकतारुपी विषयों का ही सेवन है, जिसने चैतन्य स्वभाव की रुचि प्रगट की है और राग की रुचि छोड़ी है, उसे चैतन्य ध्येय से बाह्य विषयों का ध्येय छूट जाता है- ऐसा शील निर्वाणमार्ग में प्रधान है, इस प्रकार से दो गाथाओं में तो दर्शनशुद्धि के उपरान्त चारित्र की बात कह कर साक्षात् निर्वाण मार्ग का कथन किया गया है।अब, एक दूसरी बात कहते हैं- किन्हीं ज्ञानी धर्मात्मा को कदाचित् विषयों से विरक्ति न हुई हो अर्थात् चारित्रदशा की स्थिरता प्रगट न हुई हो, किन्तु श्रद्धा बराबर है तथा मार्ग तो विषयों की विरक्ति रुप ही है, इस प्रकार यथार्थ प्रतिप्रादन करते हैं तो उस ज्ञानी को मार्ग की प्राप्ति कही जाती है, सम्यग्मार्ग का स्वयं को भान है और उसी की भली-भाँति प्रतिपादन करते हैं, किन्तु अभी विषयों से विरक्ति रुप मुनिदशा आदि नहीं है।अस्थिरता है तो भी वे ज्ञानी धर्मात्मा मोक्षमार्ग के साधक हैं, वे मंगलरुप हैं, उन्हें इष्टमार्ग की प्राप्ति है और यथार्थ मार्ग दर्शाने वाले हैं, इसलिए उनके द्वारा दूसरों को भी सम्यकमार्ग की प्राप्ति होती है, किन्तु जो जीव, विषयों के राग को लाभ मानता है, उसे तो सम्यग्मार्ग की श्रद्धा ही नहीं है, वह तो उन्मार्ग पर है तथा उन्मार्ग को बतलाने वाला है। धर्मात्मा को राग होता है, किन्तु उसे वे बन्ध का ही कारण जानते हैं, इसलिए राग होने पर भी उनकी श्रद्धा में विपरीतता नहीं है, उन्हें मार्ग की प्राप्ति है और उनसे दूसरे जीव भी मार्ग प्राप्त कर सवेंâगे, सत्मार्ग को प्राप्त जीव ही सत्मार्ग की प्राप्ति में निमित्तरुप होते हैं।अज्ञानी, राग को स्वयं लाभ मानता है और दूसरों को भी मनवाता है, इसलिए वह स्वयं मार्ग से भ्रष्ट है और उसके निकट धर्म मार्ग की प्राप्ति नहीं हो सकती। अहा! चैतन्य के श्रद्धा-ज्ञान तथा उसमें लीनता रुप वीतरागता किंचित् कर्तव्य नहीं है। राग का एक कण भी मोक्ष को रोकनेवाला है, वह मोक्ष का साधन वैâसे हो सकता है? ऐसे ज्ञानी को श्रद्धा है। ज्ञानी जहाँ पुण्यभाव को भी छोड़ने योग्य मानते हैं, वहाँ वे पाप में स्वच्छन्तापूर्वक वैâसे बरतेगें? चारित्र दशारहित हो तो भी सम्यग्दृष्टि मोक्षमार्ग में ही है, क्योंकि उन्हें वीतराग चारित्र की भावना है और राग की भावना नहीं है। श्रद्धा में वे सारे जगत् से विरक्त हैं, ज्ञान-वैराग्य की अद्भुत शक्ति उनको प्रगट हुई है, अन्तर में चैतन्य को ध्येय बनाकर राग से भिन्नता का भान हुआ है- ऐसे भान बिना कोई राग से लाभ माने तथा उसका प्ररुपण करे तो वह उन्मार्ग में हैं, उसके ज्ञान का विकास निरर्थक है, भगवान के मार्ग को उसने नहीं जाना है, भगवान किस प्रकार मोक्ष को प्राप्त हुए- उसकी उसे खबर नहीं है। अस्थिरता के कारण सम्यक्त्वी के विषय न छूटे तथापि उनका ज्ञान नहीं बिगड़ता, दृष्टि के विषय में शुद्ध चैतन्य स्वभाव को पकड़ा है, वह कभी नहीं छूटता, उस ध्येय के आश्रम से वे सम्यक मार्ग बरतते हैं, मोक्ष के माणिक स्तम्भ उनके आत्मा में जम गये हैं… वीर प्रभु के मंगलमार्ग पर चलकर वे भी मुक्ति को साथ रहे हैं। पूर्णतारुप परिनिर्वाण, मंगलरुप है और उसके प्रारम्भ रुप सम्यक्त्व भी मंगलरुप है, इस साध्य और साधक दोनों की बात दीपावली के मांगलिक में आयी है।

मैं भारत हूँ फाउंडेशन द्वारा ऐतिहासिक कार्यक्रम का आयोजन
हम सभी जानते हैं की किसी भी इंसान के संवैधानिक नाम
२ नहीं हो सकते, तो हमारे देश के २ नाम क्‍यों?

रायपुर: लोग कहते हैं और हम सभी भारतीयों को बताया भी गया है कि इंडिया का मतलब ‘भारत’ होता है, ‘भारत’ का मतलब इंडिया होता है, क्या कभी नाम का अनुवाद हो सकता है, जब नाम का अनुवाद नहीं हो सकता तो इंडिया का मतलब भारत या भारत का मतलब इंडिया कैसे हो सकता है? हमारे देश का नाम भी एक ही रहना चाहिए केवल ‘भारत’।क्योंकि हजारों सालों से हमारे देश का नाम भारत’ ही रहा है, हमने लगभग ढाई सौ साल गुलामी की दास्तॉ सही और अपने आप को इंडियन कहने के लिए मजबूर रहे, पर आज हम स्वतंत्र हैं और हम चाहते हैं कि हम भारतीय बने रहें, क्योंकि पुराणों व वेदों में हमारे देश के नाम का उल्लेख ‘भारत’ ही मिलता है।पिछले १५ सालों से लगातार हमारा प्रयास रहा है कि पूरी दुनिया अपने देश को एक ही नाम से पुकारें केवल ‘भारत’।‘मैं भारत हूं फाउंडेशन’ एक अंतरराष्ट्रीय संस्थान है, संस्थान ने विश्व के कोने-कोने में फैले भारतीयों को बताने का प्रयास किया है कि नाम का कभी अनुवाद नहीं होता, भारत को केवल ‘भारत’ ही बोला जाना चाहिए और इसमें आंशिक सफलता भी मिली है। संस्थान ने भारत का ही एक राज्य ‘उत्तर प्रदेश’ के हर गलियों में ‘रथ यात्रा’ निकाली। भारत की राजधानी ‘दिल्ली’ में जन-जन तक अभियान को पहुंचाने के लिए भारत मां के रथ के साथ लोगों से संपर्क किया। दिल्‍ली के सुप्रीम कोर्ट के प्रांगण में अधिवक्ताओं के बीच कार्यक्रम किया। दिल्‍ली में स्थापित जनपथ में बाबा साहेब अंबेडकर इंटरनेशनल सभागार में विशाल कार्यक्रम किया, जिसमें कई राजनीतिक दलों के शिरोधार्य उपस्थित हुए। भारत की जितनी भी सामाजिक संस्थाएं हैं उनसे संपर्क किया गया। देश के कोने-कोने में रहने वाले भारतीयों से सोशल मीडिया व युवा छात्र-छात्राओं से संबंध स्थापित कर पूछा गया कि देश का नाम एक ही कैसे हो केवल ‘भारत’, क्योंकि हजारों सालों से हमारे देश का नाम ‘भारत’ ही रहा है यह वैदिक पुराणों में भी हमें लिखा मिलता है।‘भारत’ को केवल ‘भारत’ ही बोला जाए’ अभियान को आंशिक सफलता भी मिली है लेकिन जब तक भारतीय संविधान के अनुच्छेद क्रमांक १ में, जहां ‘इंडिया देट इज भारत’ लिखा है वहां ‘भारत ईज भारत’ नहीं लिखा जाएगा तब तक हम भारतीय चैन से नहीं बैठेंगे।‘मैं भारत हूं फाउंडेशन’ के पदाधिकारीयों ने भारत के केंद्रीय सरकार,सभी राज्यों के मुख्यमंत्री, राज्यपाल आदि से संपर्क कर निवेदन किया है। दिनांक ८ अक्टूबर २०२३ को ‘मैं भारत हूं फाउंडेशन’ के पदाधिकारी भारत का एक राज्य छत्तीसगढ की राजधानी ‘रायपुर’ में स्थापित वृंदावन सभागार में आप सबके समक्ष निवेदन लेकर आए हैं की छत्तीसगढ़ की राजधानी का हर बच्चा, युवा, बुजुर्ग, महिला-पुरुष जब भी किसी का अभिवादन करें ‘जय भारत’ से ही करें।हमें पूरा विश्वास है कि आप सभी का साथ हमें मिलेगा और आप अपने क्षेत्र में इस अभियान का उल्लेख जरूर करेंगे और जन जन तक यह बात पहुंचाने में साथ देंगे, क्योंकि हम सभी भारतीय हैं, भारत के रहने वाले हैं और हमारे देश का नाम एक ही रहे केवल ‘भारत’।कार्यक्रम में उपस्थित राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष श्रीमती निशा लढ्ढा ने अपने गरिमामयी उद्बोधन से सभागार में उपस्थित छत्तीसगढ वासियों को संबोधित किया। छत्तीसगढ के संयोजक वैâलाश रारा ने सभी का परिचय कराया और कहा कि जब तक ‘भारत को केवल भारत नहीं बोला जाएगा’ मैं चावल ग्रहण नहीं करâंगा। मंच का संचालन चिर-परिचित मंच संचालिका ‘मैं भारत हूँ फाउंडेशन’ की राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष ने अपनी गरिमामयी वाणी से संचालित कर रही थीं। उपस्थित मंचासीन वैâलाश रारा रायपुर- छत्तीसगढ संयोजक (मैं भारत हूँ फाउंडेशन), प्रो. रमेन्द्रनाथ मिश्रा रायपुर- अध्यक्ष इतिहास विभाग (Rएन्न्), गिरीश पंकज रायपुर- वरिष्ठ पत्रकार व साहित्यकार, बिजय कुमार जैन मुंबई- राष्ट्रीय अध्यक्ष (मैं भारत हूँ फाउंडेशन), प्रदीप जैन रायपुर- सम्पादक दैनिक विश्व परिवार, सुरेन्द्र पाटनी रायपुर- प्रदेश अध्यक्ष भाजपा (र्‍उध् प्रकोष्ठ), राजकुमार राठी रायपुर- महामंत्री अंतर्राष्ट्रीय वैश्य महासम्मेलन ने अपने उद्बोधन दिए। जय भारत! -मैंभाहूँ

उत्तम क्षमा ही है महापर्व

जैन धर्म में दशलक्षण पर्व मनाया जाता है, यदि इन दसलक्षणों को जीवन में अपना लिया जाए तो मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है, इसमें पहला है- ‘उत्तम क्षमा’!मुनि महाराज ने जीवन भर इन गुणों को अपनाया है, कई अपशब्द सुनने के बाद भी मुनि महाराज प्रतिक्रिया नहीं देते, सामने वाले को क्षमा कर देते हैं। करीब सौ साल से भी अधिक समय की बात है, सन्‌ा १९०० में भारत में ब्रिटिश सरकार का शासन था, उस समय जीवन अभी की तरह आसान नहीं हुआ करता था। उस समय आचार्यश्री शान्ति सागर जी महाराज महान संत के रूप में जाने जाते थे, उसी कालावधि में शान्ति सागर जी विहार करते हुए धौलपुर के राजखेड़ा शहर पहुंचे, वहां पर उन्होंने तीन दिन तक प्रवचन दिया। बहुत से लोग उनका प्रवचन सुनने आते थे। चौथे दिन उन्हें विहार करने का विचार आया, तो वहां के श्रावकों ने उन्हें वहीं रुकने की प्रार्थना की, तब महाराज श्री ने श्रोताओं का निवेदन स्वीकार कर लिया। पांचवें दिन आचार्य श्री आहार करने के लिए जल्दी निकल गए, आहार करने के बाद वे सामायिक करने का विचार कर रहे थे, तभी उन्हें आकाश में काले बादल दिखाई दिए, उन्हें यह संकेत सही नहीं लगे, उन्होंने अंदर कक्ष में बैठकर सामायिक की।महाराज श्री ने ध्यान मग्न होकर सभी जीवों के प्रति समता का भाव रखने की प्रार्थना की, उसी समय अचानक ५०० से ज्यादा लोग वहां हथियार के साथ पहुंचे। श्रावकों के साथ मारपीट करने लगे। कुछ बदमाश आचार्य श्री के ध्यान कक्ष तक जाने वाले थे, तभी कुछ श्रावकों ने रोकने का प्रयास किया, तो उन्हें हाथ-पैरों में चोटें पहुंचाई गई, फिर वहां पुलिस पहुंची, जो लोग आचार्यश्री को नुकसान पहुंचाने आए थे, उनके मुखिया को पकड़ लिया गया, उस समय आचार्यश्री ध्यान में तल्लीन थे। पुलिस अधिकारी आचार्यश्री के दर्शन की इच्छा के साथ जब उनके कमरे में गए, तो पुलिस अधिकारियों ने तय किया इतने शांत मन वाले मुनि पर आक्रमण करने वालों को कड़ी सजा देनी चाहिए। आचार्यश्री को जब पता चला कि पुलिस ने बदमाशों को कड़ी सजा देने का निर्णय लिया है, तो आचार्यश्री ने प्रतिज्ञा ले ली, जब तक उन बदमाशों को छोड़ा नहीं जाता, तब तक वे अन्न-जल ग्रहण नहीं करेंगे।पुलिस अधिकारियों ने कहा- इन बदमाशों के प्रति दया भाव रखना उचित नहीं हैं। आप ऐसा क्यों कर रहे हैं? तब आचार्यश्री ने जवाब दिया, मेरे मन में इन लोगों के प्रति बिलकुल भी नफरत का भाव नहीं है, हमारी वजह से आप इन लोगों को सजा दे रहे हैं, यह देखकर आहार करना हमारे लिए संभव नहीं है।ऐसा सुनकर पुलिस वाले आश्चर्यचकित रह गए कि कोई इतना उदार हृदय वाला और दयावान कैसे हो सकता है, इस बात पर पुलिस ने सभी को बिना सजा दिए ही छोड़ दिया, जो लोग हमला करने आए थे, उन्हें भी बेहद पछतावा हुआ।अगर हम अपने आसपास देखें, तो कई लोग छोटी-बड़ी गलतियों के लिए माफ कर देते है, हमें भी अपने जीवन में ‘क्षमा’ का भाव अपनाना चाहिए, अपने शत्रु के प्रति भी मन में नफरत के भाव नहीं लाने चाहिए।

आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज जी की जीवन-गाथा

भारत-भू पर सुधारस की वर्षा करने वाले अनेक महापुरुष और संत कवि जन्म ले चुके हैं, उनकी साधना और कथनी-करनी की एकता ने सारे विश्व को ज्ञान रूपी आलोक से आलोकित किया है, इन स्थितप्रज्ञ पुरुषों ने अपनी जीवनानुभव की वाणी से त्रस्त और विघटित समाज को एक नवीन संबल प्रदान किया है, जिसने राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, शैक्षणिक और संस्कृतिक क्षेत्रों में क्रांतिक परिवर्तन किये हैं, भगवान राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, ईसा, हजरत मुहम्मदौर आध्यत्मिक साधना के शिखर पुरुष आचार्य कुन्दकुन्द, पूज्यपाद, मुनि योगिन्दु, शंकराचार्य, संत कबीर, दादू, नानक, बनारसीदास, द्यानतराय तथा महात्मा गाँधी जैसे महामना साधकों की अपनी आत्म-साधना के बल पर स्वतंत्रता और समता के जीवन-मूल्य प्रस्तुत कर सम्पूर्ण मानवता को एक सूत्र में बाँधा है, उनके त्याग और संयम में, सिद्धांतों और वाणियों से आज भी सुख शांति की सुगन्ध सुवासित हो रही है, जीवन में आस्था और विश्वास, चरित्र और निर्मल ज्ञान तथा अहिंसा एवं निर्बेर की भावना को बल देने वाले इन महापुरुषों, साधकों, संत कवियों के क्रम में संतकवि दिगम्बर जैनाचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज वर्तमान में शिखर पुरुष हैं, जिनकी ओज और माधुर्यपूर्ण वाणी में ऋजुता, व्यक्तित्व में समता, जीने में संयम की त्रिवेणी है। जीवन-मूल्यों को प्रतिस्ठित करने वाले बाल ब्रह्मचारी श्री विद्यासागर जी स्वभाव से सरल और सब जीवों के प्रति मित्रवत व्यवहार के संपोषक हैं, इसी के कारण उनके व्यक्तित्व में विश्व-बन्धुत्व की, मानवता की सौंधी-सुगन्ध विद्यमान है।आश्विन शरदपूर्णिमा संवत २००३ तदनुसार १० अक्टूबर १९४६ को कर्नाटक प्रांत के बेलगाम जिले के सुप्रसिद्ध सदलगा ग्राम में श्रेष्ठी श्री मलप्पा पारसप्पा जी अष्टगे एवं श्रीमती श्रीमतीजी के घर जन्में इस बालक का नाम ‘विद्याधर’ रखा गया। धार्मिक विचारों से ओतप्रोत, संवेदनशील सदह्य्दस्थ मल्लपा जी नित्य जिनेन्द्र दर्शन एवं पूजन के पश्चात ही भोजनादि आवश्यक करते थे। साधु-सत्संगति करने से परिवार में संयम, अनुशासन, रीति-नीति की चर्या का ही परिपालन होता था।आप माता-पिता की द्वितीय संतान हो कर भी अद्वितीय संतान रहे। बड़े भाई श्री महावीर प्रसाद स्वस्थ परम्परा का निर्वहन करते हुए सात्विक पूर्वक सदह्य्दस्थ जीवन-यापन कर रहे हैं। माता-पिता, दो छोटे भाई अनंतनाथ तथा शांतिनाथ एवं बहिनें शांता व सुवर्णा भी आपसे प्रेरणा पाकर घर-गृहस्थी के जंजाल से मुक्त हो कर जीवन-कल्याण हेतु जैनेश्वरी दीक्षा ले कर आत्म-साधनारत हुए। धन्य है वह परिवार जिसमें सात सदस्य सांसारिक प्रपंचों को छोड़ कर मुक्ति-मार्ग पर चल रहे हैं, इतिहास में ऐसी अनोखी घटना का उदाहरण बिरले ही दिखता है।विद्याधर का बाल्यकाल घर तथा गाँव वालों के मन को जीतने वाली आश्चर्यकारी घटनाओं से युक्त रहा है। खेलकूद के स्थान पर स्वयं या माता-पिता के साथ मन्दिर जाना, धर्म-प्रवचन सुनना, शुद्ध सात्विक आहार करना, मुनि आज्ञा से संस्कृत के कठिन सूत्र एवं पदों को कंठस्थ करना आदि अनेक घटनाएँ मानो भविष्य में आध्यात्म मार्ग पर चलने का संकेत दे रही थी। आप पढाई हो या गृहकार्य, सभी को अनुशासित और क्रमबद्ध तौर पर पूर्ण करते, बचपन से ही मुनि-चर्या को देखने, उसे स्वयं आचरित करने की भावना से ही बावडी में स्नान के साथ पानी में तैरने के बहाने आसन और ध्यान लगाना, मन्दिर में राजित मूर्ति के दर्शन के समय उसमें छिपी विराटता को जानने का प्रयास करना, बिच्छू के काटने पर भी असीम दर्द को हँसते हुए पी जाना, परंतु धार्मिक-चर्या में अंतर ना आने देना, उनके संकल्पवान पथ पर आगे बढने के संकेत थे।गाँव की पाठशाला में मातृभाषा कन्नड में अध्ययन प्रारम्भ कर समीपस्थ ग्राम बेडकीहाल में हाई स्कूल की नवमी कक्षा तक अध्ययन पूर्ण किया। चाहे गणित के सूत्र हों या भूगोल के नक्शे, पल भर में कड़ी मेहनत और लगन से उसे पूर्ण करते थे। उन्होंने शिक्षा को संस्कार और चरित्र की आधारशिला माना और गुरुकुल व्यवस्थानुसार शिक्षा को ग्रहण किया, तभी तो आज तक गुरुशिष्य-परम्परा के विकास में वे सतत शिक्षा दे रहे हैं।वास्तविक शिक्षा तो ब्रह्मचारी अवस्था में तथा पुन: मुनि विद्यासागर के रूप में गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी के सात्निध्य में पूरी हुई, तभी वे प्रकृत, अपभ्रंस, संस्कृत, कन्नड, मराठी, अंग्रेजी, हिन्दी तथा बंग्ला जैसी अनेक भाषाओं के ज्ञाता और व्याकरण, छन्दशास्त्र, न्याय, दर्शन, साहित्य और अध्यात्म के प्रकाण्ड विद्वान आचार्य बने। आचार्य विद्यासागर मात्र दिवस काल में ही चलने वाले नग्नपाद पदयात्री हैं। राग, द्वेष, मोह आदि से दूर इन्द्रियजित, नदी की तरह प्रवाहमान, पक्षियों की तरह स्वच्छन्द, निर्मल, स्वाधीन, चट्टान की तरह अविचल रहते हैं। कविता की तरह रम्य, उद्प्रेरक, उदात्त, ज्ञेय और सुकोमल व्यक्तित्व के धनी आचार्य विद्यासागर भौतिक कोलाहलों से दूर, जगत मोहिनी से असंपृकत तपस्वी हैं।आपके सुदर्शन व्यक्तित्व को संवेदनशीलता, कमलवत उज्जवल एवं विशाल नेत्र, सम्मुन्नत ललाट, सुदीर्घ कर्ण, अजान बाहु, सुडौल नासिका, तप्त स्वर्ण-सा गौरवर्ण, चम्पकीय आभा से युक्त कपोल, माधुर्य और दीप्ति सन्युक्त मुख, लम्बी सुन्दर अंगुलियाँ, पाटलवर्ण की हथेलिय्ााँ, सुगठित चरण आदि और अधिक मंडित कर देते हैं। वे ज्ञानी, मनोज्ञ तथा वाम्मी साधु हैं, हाँ प्रज्ञा, प्रतिभा और तपस्या की जीवंत-मूर्ति।बाल्यकाल में खेलकूद में शतरंज खेलना, शिक्षाप्रद फिल्में देखना, मन्दिर के प्रति आस्था रखना, तकली कातना, गिल्ली-डंडा खेलना, महापुरुषों और शहीद पुरुषों के तैलचित्र बनाना आदि रुचियाँ आपमें विद्यमान थी। नौ वर्ष की उम्र में ही चारित्र चक्रवर्ती आचार्य प्रवर श्री शांतिसागर जी महाराज के शेडवाल ग्राम में दर्शन कर वैराग्य-भावना का उदय आपके हृदय में हो गया था, जो आगे चल कर ब्रह्मचर्यव्रत धारण कर प्रस्फुटित हुआ। २० वर्ष की उम्र, जो की खाने-पीने, भोगोपभोग या संसारिक आनन्द प्राप्त करने की होती है, तब आप साधु- सत्संगति की भावना को हृदय में धारण कर आचार्य श्री देशभूषण महाराज के पास जयपुर (राज.) पहुँचे, वहाँ अब ब्रह्मचारी विद्याधर उपसर्ग और परीषहों को जीतकर ज्ञान, तपस्या और सेवा का पिण्ड/प्रतीक बन कर जन-जन के मन का प्रेरणा स्त्रोत बन गया था।आप संसार की असारता, जीवन के रहस्य और साधना के महत्व को पहचान गये थे, तभी तो हृष्ट-पुष्ट, गोरे चिट्टे, लजीले, युवा विद्याधर की निष्ठा, दृढता और अडिगता के सामने मोह, माया, श्रृंगार आदि घुटने टेक चुके थे। वैराग्य भावना दृढवती हो चली, पदयात्री और करपात्री बनने की भावना से आप गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पास मदनगंज-किशनगढ (अजमेर) राजस्थान पहुँचे। गुरुवर के निकट सम्पर्क में रहकर लगभग वर्ष तक कठोर साधना से परिपक्व हो कर मुनिवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के द्वारा राजस्थान की ऐतिहासक नगरी अजमेर में आषाढ शुक्ल पंचमी, वि.सं. २०२५, रविवार, ३० जून १९६८ ईस्वी को लगभग २२ वर्ष की उम्र में संयम का परिपालन हेतु आपने पिच्छि-कमन्डलु धारण कर संसार की समस्त वाह्य वस्तुओं का परित्याग कर दिया। परिग्रह से अपरिग्रह, असार से सार की ओर बढने वाली यह यात्रा माना आपने अंगारों पर चलकर/बढकर पूर्ण की। विषयोन्मुख वृत्ति, उद्दंडता एवं उच्छृंखलता उत्पन्न करने वाली इस युवावस्था में वैराग्य एवं तपस्या का ऐसा अनुपम उदाहरण मिलना कठिन ही है।ब्रह्मचारी विद्याधर नामधारी, पूज्य मुनि श्री विद्यासागर महाराज का अब धरती ही बिछौना, आकाश ही उडौना और दिशाएँ ही वस्त्र बन गये हैं। दीक्षा के उपरांत गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज की सेवा-सुश्रुषा करते हुए आपकी साधना उत्तरोत्त्र विकसित होती गयी, तब से आज तक आपने प्रति वज्र से कठोर, परंतु दूसरों के प्रति नवनीत से भी मृदु बनकर शीत-ताप एवं वर्षा के गहन झंझावातों में भी आप साधना हेतु अरुक-अथक रूप में प्रवर्तमान हैं। श्रम और अनुशासन, विनय और संयम, तप और त्याग की अग्नि में तपी आपकी साधना गुरु-आज्ञा पालन, सबके प्रति समता की दृष्टि एवं समस्त जीव कल्याण की भावना सतत प्रवाहित होती रहती है।गुरुवर आचार्य श्री ज्ञानसागर जी की वृद्धावस्था एवं साइटिकासे रुग्ण शरीर की सेवा में कडकडाती शीत हो या तमतमाती धूप या हो झुलसाती गृष्म की तपन मुनि विद्यासागर के हाथ गुरुसेवा में अहर्निश तत्पर रहते, आपकी गुरु सेवा अद्वितीय रही, जो देश, समाज और मानव को दिशा बोध देने वाली थी, तभी तो डॉ. पन्नालाल साहित्याचार्य ने लिखा था कि १० लाख की सम्पत्ति पाने वाला पुत्र भी जितनी माँ-बाप की सेवा नहीं कर सकता, उतनी तत्परता एवं तन्मयता पूर्वक आपने अपने गुरुवर की सेवा की, सल्‍लेखना के पहले गुरुवर्य ज्ञानसागर जी महाराज ने आचार्य-पद का त्याग आवश्यक जान कर आपने आचार्य पद मुनि विद्यासागर को देने की इच्छा जाहिर की, परंतु आप इस गुरुत्तर भार को धारण करने किसी भी हालत में तैयार नहीं हुए, तब आचार्य ज्ञानसागर जी ने सम्बोधित कर कहा कि साधक को अंत समय में सभी पद का परित्याग आवश्यक माना गया है, इस समय शरीर की ऐसी अवस्था नहीं है कि मैं अन्यत्र जा कर सल्‍्लेखना धारण कर सकूँ, तुम्हें आज गुरु दक्षिणा अर्पण करनी होगी और उसी के प्रतिफल स्वरूप यह पद ग्रहण करना होगा, गुरु-दक्षिणा की बात सुन कर मुनि विद्यासागर निरुत्तर हो गये, तब धन्य हुई नसीराबाद (अजमेर) राजस्थान की वह घड़ी जब मगसिर कृष्ण द्वितीया, संवत २०२९, बुधवार, २२ नवम्बर, १९७२ ईस्वी को आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने अपने कर कमलों से आचार्य पद पर मुनि श्री विद्यासागर महाराज को संस्कारित कर विराजमान किया, इतना ही नहीं मान मर्दन के उन क्षणों को देख कर सहस्त्रों नेत्रों से आँसूओं की धार बह चली जब आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने मुनि श्री विद्यासागर महाराज को आचार्य पद पर विराजमान किया एवं स्वयं आचार्य पद से नीचे उतर कर सामान्य मुनि के समान नीचे बैठ कर नूतन आचार्य श्री विद्यासागर महाराज के चरणों में नमन कर बोले – ‘हे आचार्य वर! नमोस्तु, यह शरीर रत्नत्रय साधना में शिथिल होता जा रहा है, इन्द्रियाँ अपना सम्यक काम नहीं कर पा रही, अतः आपके श्री चरणों में विधिवत सल्लेखना पूर्वक समाधिमरण धारण करना चाहता हूँ, कृपया मुझे अनुगृहित करें। आचार्य श्री विद्यासागर जी ने अपने गुरु की अपूर्व सेवा की। पूर्ण निर्मत्व भावपूर्वक आचार्य ज्ञानसागर जी मरुभूमि में वि. सं. २०३० वर्ष की ज्येष्ठ मास की अमावस्या को प्रचंड ग्रीष्म की तपन के बीच ४ दिनों के िनर्जल उपवास पूर्वक नसीराबाद (राज.) में शुक्रवार, जून १९७३ ईस्वी को १० बजकर १० मिनट पर इस नश्वर देह को त्याग कर समाधिमरण को प्राप्त हुए।आचार्य विद्यासागरजी द्वारा रचित रचना-संसार में सर्वाधिक चर्चित ओर महत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में ‘मूक माटी’ महाकाव्य ने हिन्दी-साहित्य और हिन्दी सत-सहित्य जगत में आचार्य श्री को काव्य की आत्मा तक पहुँचाया है। – सुशीला पाटनीआर.के. हाऊसमदनगंज- किशनगढ़,राजस्थान, भारत

स्थानकवासी संप्रदाय के श्रमण संघ के
आचार्य डॉ. शिवमुनि क्रांतीकारी संतपुरूष हैं

सूरत: भारत की रत्नगर्भा वसुंधरा ने अनेक महापुरुषों को जन्म दिया है, जो युग के साथ बहते नहीं, बल्कि युग को अपने बहाव के साथ ले चलते हैं, ऐसे लोग सच्चे जीवन के धनी होते हैं। उनमें जीवन-चैतन्य होता है, वे स्वयं आगे बढ़ते हैं, जन-जन को आगे बढ़ाते हैं। उनका जीवन साधनामय होता है और जन-जन को वे साधना की पगडंडी पर ले जाते हैं, प्रकाश स्तंभ की तरह उन्हें जीवन पथ का निर्देशन देते हैं एवं प्रेरणास्रोत बनते हैं। आचार्य सम्राट डॉ. शिव मुनिजी महाराज एक ऐसे ही क्रांतिकारी महापुरुष एवं संतपुरुष हैं, जिनका इस वर्ष हीरक जयन्ती महोत्सव वर्ष मनाया जा रहा है, हाल ही में उन्हें इन्दोर-मध्यप्रदेश में एक भव्य समारोह में अध्यात्म ज्योति के अलंकरण से सम्मानित किया गया।आचार्य डॉ. शिव मुनि जी पारसमणि हैं, उनके सानिध्य में हजारों मनुष्यों का जीवन सर्वोत्तम और स्वर्णिम हुआ है, वे युगद्रष्टा एवं युगस्रष्टा धर्माचार्य हैं, उन्होंने युग की समस्याओं को समझा और उनका समाधान प्रदान किया। देश में सांप्रदायिकता, अराजकता, भोगवाद और अंधविश्वास का विष फैलाने वाले धर्माचार्य बहुत हैं। धर्म का यथार्थ स्वरूप बताने वाले आचार्य शिव मुनि जैसे धर्माचार्य कम ही हैं, उन्होंने धर्म के वैज्ञानिक और जीवनोपयोगी स्वरूप का मार्गदर्शन किया, वे प्रगतिशील हैं क्योंकि उन्होंने धर्म के क्षेत्र में नये-नये प्रयोग किये हैं, आप महान परिव्राजक हैं।कठोर चर्या भूख और प्यास से अविचलित रहकर गांव-गांव घूमे, हजारों किलोमीटर की पदयात्रा की, विशाल दृष्टि के धारक हैं, क्योंकि वे सबके होकर ही सबके पास पहुंचे, स्वयं में ज्ञान के सागर विद्यापीठ हैं, क्योंकि अध्ययन, अध्यापन, स्वाध्याय और साहित्य निर्माण उनकी सहज प्रवृत्तियां हैं, आप महान हैं क्योंकि गति महान लक्ष्य की ओर है, सिद्ध हैं, आस्थाशील हैं और विलक्षण हैं, इसलिये जन-जन के लिये पूजनीय हैं।धार्मिक जगत के इतिहास में आचार्य शिव मुनि इन शताब्दियों का एक दुर्लभ व्यक्तित्व हैं, आपकी जीवनगाथा भारतीय चेतना का एक एक अभिनव उन्मेष है। आपके जीवन से आपके दर्शन और मार्गदर्शन से असंख्य लोगों ने शांति एवं संतुलन का अपूर्व अनुभव किया।आपका जन्म ८ सितम्बर १९४२ को भादवा सुदी पंचमी के दिन पंजाब एवं हरियाणा की सीमा पर बसे ‘रानिया’ नामक गांव में, आपके ननिहाल में हुआ। आपके पिता सेठ चिरंजीलाल जैन एवं माता श्रीमती विद्यादेवी जैन एक धार्मिक, संस्कारी, कुलीन एवं संपन्न परिवार के श्रावक-श्राविका थे। धर्म के प्रति यह परिवार ५ पीढ़ियों से समर्पित रहा है। यही कारण है कि पारिवारिक संस्कारों एवं धार्मिक निष्ठा की पृष्ठभूमि में आपने एवं आपकी बहन ने ४७ मई १९७२ को मलोठ मगण्डी में दीक्षा स्वीकार की। आप शिव मुनि बने एवं बहन महासाध्वी निर्मलाजी महाराज के नाम से साधना के पथ पर अग्रसर हुयीं। तृतीय पट्टधर आचार्य श्री देवेन्द्रमुनिजी के देवलोकगमन के पश्चात ९ जून १९९९ को अहमदनगर (महाराष्ट्र) में श्रमण संघ के विधानानुसार आपश्री को श्रमण संघ के चतुर्थ पट्टधर आचार्य के रूप में अभिषिक्त किया गया, इससे पूर्व द्वितीय पट्टथधर आचार्य श्री आनंद ऋषि जी महाराज ने ३ मई १९८७ को आपको युवाचार्य घोषित किया था। लगभग २०० साधु-साध्वियों तथा लाखों श्रावकों वाले इस विशाल चतुर्विद श्रीसंघ के नेतृत्व का दायित्व आपने संभालने के पश्चात संपूर्ण भारत को अपने नन्हे पांव से नापा।आचार्य बनने के पश्चात आपने श्रमण संघ को नये-नये आयाम दिये।नीतिशास्त्री डब्ल्यू, सी. लूसमोर ने विकसित व्यक्तित्व को तीन भागों में बांटा है- विवेक, पराक्रम और साहचर्य।नीतिशास्त्री ग्रीन ने नैतिक प्रगति के दो लक्षण बतलाए हैं-सामंजस्य और व्यापकता, इनके विकास से मनुष्य आधिकारिक महान बनता है। व्यक्तित्व के विकास के लिए अपने आपको स्वार्थ की सीमा से हटाकर दूसरों से जोड़ देने वाला सचमुच महानता का वरण करता है। आचार्य सम्राट शिव मुनि का व्यक्तित्व इसलिए महान है कि वे पारमार्थिक दृष्टि वाले हैं। श्रेष्ठता और महानता आपकी ओढनी नहीं है, कृत्रिम भी नहीं, बल्कि व्यक्तित्व की सहज पहचान है। पुरुषार्थ की इतिहास परम्परा में इतने बड़े पुरुषार्थी पुरुष का उदाहरण कम ही है, जो अपनी सुख-सुविधाओं को गौण मानकर जन-कल्याण के लिए जीवन जी रहे हैं।अध्यात्म क्रांति के साथ-साथ समाज क्रांति के स्वर और संकल्प भी आपके आस-पास मुखरित होते रहे हैं। संत वही है जो अपने जीवन को स्व परकल्याण में नियोजित कर देता है। आचार्य शिव मुनि साधना के पथ पर अग्रसर होते ही धर्म को क्रियाकांड से निकालकर आत्म-कल्याण और जनकल्याण के पथ पर अग्रसर किया, आपका मानना है कि धर्म न स्वर्ग के प्रलोभन से हो, न नरक के भय से, जिसका उद्देश्य हो जीवन की सहजता और मानवीय आचारसंहिता का धुव्रीकरण, आपने धर्म को अंधविश्वास की काया से मुक्त कर प्रबुद्ध लोकचेतना के साथ जोड़ा। समाज सुधार के क्षेत्र में पिछले बारह वर्षों से आप त्रि-सूत्रीय कार्यक्रम को लेकर सक्रिय हैं, यह त्रि-सूत्रीय कार्यक्रम हैं- व्यसनमुक्त जीवन, जन-जागरण तथा बाल संस्कार इन्हीं तीन मूल्यों पर आदर्श समाज की रचना संभव है, आपने अपने धर्मसंघ के कार्यक्रमों को आगे बढ़ाते हुए जन-जन को ध्यान का प्रशिक्षण दिया। आप महान ध्यान योगी हैं। ध्यान और मुनि ये दो शब्द ऐसे हैं जैसे दीपक की लौ और उसका प्रकाश, सूर्य की किरणें और उसकी उष्मा। साधुत्व की सार्थकता और साधुत्व का बीज आपकी साधना में है जो निरंतर स्वाध्याय और ध्यान में संलग्न रहता है, स्वाध्याय से ज्ञान के द्वार उद्घाटित होते हैं, उसी ज्ञान को स्व की अनुभूतियों पर उतारने का नाम ध्यान है, इसी साधना को आचार्य सम्राट शिव मुनि ने अपने अस्तित्व का अभिन्न अंग बनाया है। स्वयं तो साधना की गहराइयों में उतरते ही हैं, हजारों-हजारों श्रावकों को भी ध्यान की गहराइयों में ले जाते हैं। इस वैज्ञानिक युग में उस धर्म की अपेक्षा है जो पदार्थवादी दृष्टिकोण से उत्पन्न मानसिक तनाव जैसी भयंकर समस्या का समाधान कर सके, पदार्थ से न मिलने वाली सुखानुभूति करा सके। नैतिकता की चेतना जगा सके। आचार्य शिव मुनि जी ने अपने ध्यान के विभिन्न प्रयोगों से धर्म को जीवंत किया है।आचार्य सम्राट शिवमुनि जी का जीवन विलक्षण विविधताओं का समवाय है, आप कुशल प्रवचनकार, ध्यानयोगी, तपस्वी, साहित्यकार और सरल व्यक्तित्व के धनी हैं। सृजनात्मक शक्ति, सकारात्मक चिंतन, स्वच्छ भाव, सघन श्रद्धा, शुभंकर संकल्प, सम्यक‌ पुरुषार्थ, साधनामय जीवन, उन्नत विचार इन सबके समुच्चय से गुम्फित है आपका जीवन। आप महान‌ साधक एवं कठोर तपस्वी संत हैं। लगभग पिछले ४० वर्षों से लगातार एकांतर तप कर रहे हैं। इक्कीसवीं शताब्दी को अपने विलक्षण व्यक्तित्व, अपरिमेय कर्तत्व एवं क्रांतिकारी दृष्टिकोण से प्रभावित करने वाले युगद्रष्टा ऋषि एवं महर्षि हैं, आपकी साधना जितनी अलौकिक हैं, उतने ही अलौकिक हैं आपके अवदान, धर्म को अंधविश्वास एवं कुरीढ़ियों से मुक्त कर जीवन व्यवहार का अंग बनाने का अभिनव प्रयत्न आपने किया है।‘जैन एकता’ की दृष्टि से आपने निरंतर उदारता का परिचय दिया है। जय भारत!

युगपुरूष राष्ट्रसंत प. पू. श्री. आनंदऋषिजी म.सा.
संक्षिप्त परिचय

गुरू आनंद के पुण्य स्मृति पर हम सभी प्रेमी श्रावकगणधार्मिक भावोें के दीप जलायें, भवसागर से तिर जायें…हमने इस युग में चलते-फिरते तीर्थंकर के रूप में गुरूवरजी को देखा है, माना है। हमारे दु:ख, दर्द वो ही पहचाने हैं, उनको हम शीश झुकाकर त्रिवार वंदना कर आशिष चाहते हैं। गुरू आनंद की ज्योति हमें प्रकाश दिलाती है, जीवन जीने की राह दिखाती है। हमारी जीवन नैया मांझी बनकर पार लगाती है। आचार्य सम्राट प.पू. आनंद गुरूवर को पाकर यह धरा भी धन्य हो गयी। हमारे गुरूवर अंबर के भव्य दिवाकर थे। चांद से धवल किर्ती और मिश्री सी मिठी वाणी गुरूवर की थी। मरूस्थल में भी आपने नंदनवन सजाया। राष्ट्रसंत आचार्य सम्राट प.पू. आनंदगुरूवरजी की जन्मभूमि ‘चिंचौडी’ बहुत ही पवित्र पावन हुई है, कण-कण पूजनीय बन गया है। आचार्य भगवन ने समस्त जैनियों को एवम् जैनेत्तर जनता को अपने आचार-विचार प्रवचन द्वारा प्रभावित किया। आप आज भी राष्ट्रसंत की तरह पुजे जाते हैं। आचार्य भगवंत समन्वय में विश्वास करते थे, आपका पुरा जीवन पावन रहा, आप ब्रम्हचारी थे, संयमी पंच महाव्रतधारी महान मानवतावादी महात्मा थे। उच्च वैराग्य भावना से जीवन जीया, कईयों को सार्थक बनाया। जिन शासन की सेवा में हमेशा लगे रहे, आपकी कर्मभूमि हम सभी को बारंबार धर्म की ओर प्रेरित करती है।प्रेरणादायी व्यक्तित्व के धनी थे पूज्य गुरूवर, हजारों आनंद भक्त इस तीर्थ की यात्रा कर, अपने आपको धन्य समझते हैं। गुरूवर में बहुत कुछ करके दिखलाया। आनंदगुरू आज हमारे बीच नहीं हैं, उनकी अमर कहानी, पावन स्मृति आज भी यादगार बनी हुई है, प्रेरणा देती है। आनंद गुरू सदा प्रसन्नता के प्रतिक रहे, आपकी जिन्दगी का हर प्रयास अभय का वरदान रहा, हर प्रकाश हृदय की मुस्कान रही, हर प्रयास विजय का गान रहा।महापुरूष मानव समाज के बगीया में कभी न मुरझाने वाले फुल होते हैं, ऐसे ही महापुरूष थे हमारे गुरू आनंद, हम सभी के जीवन में अपनी मधुर वाणी से आनंद भर देते थे, आपका जीवन ही आनंद से ओत-प्रोत था। दीर्घकाल तपस्या कर जीवन को अत्युच्च शिखर पर पहँुचाया। माँ हुलसा ने आपको बचपन में सुसंस्कार दिये। जीवन की नींव सुदृढ बनायी, बालक नेमीचंद को एक वीर पुरूष बनाना चाहा, पं.रत्नऋषिजी म. की सेवा में तीर्थंकर महावीर के चरणों में समर्पित कर दिया और आप महावीर के अनुयायी बन गये। आनंद ऋषिवरजी ने ज्ञान, धर्म, दर्शन, आगम, काव्य संगीत का गहरा अध्ययन पुरा किया। अज्ञानी लोगों का मार्गदर्शन किया। आपका लोकसंग्रह बहुत विशाल ही था। आप कईयों के केंद्र बिंदु बन गये। समाज संगठन आपका लक्ष्य रहा, संघ को, साधु-वृंद को संगठित करने का महान कार्य किया। जीवन साधना के बल पर शानदार आत्मविकास किया। प.पू. आनंद ऋषिजी श्रमण संघ के प्राण थे। राष्ट्रसंत गुरूदेव के आशीर्वाद एवम् प्रेरणा से अनेकों ने आध्यात्म के अमृत का पान किया। शाश्वत आनंद, अनुपम अनुभुति को प्राप्त किया तथा उन्मत बनें। आनंद गुरूवर भक्तों की भक्ती श्रद्धास्थान, गुणरत्नों की खान, समता के सागर, ध्यानीध्यान थे, आपको सारा जहॉ आज भी याद करता है, आपने पर उपकार में जीवन बिताया, हर मुरझाया फूल खिलाया, आखों में अमृत भरा था, कंचन सी काया थी, गगन जैसा विशाल मन था, शांती के सागर थे। आपकी दृष्टि में अमीर-गरीब सरीखे थे, कोई भेद नहीं था। राष्ट्रसंत आचार्य आनंदऋषि जी हॉस्पीटल एण्ड मेडिकल रिसर्च सेंटर द्वारा नगर (महाराष्ट्र) में अनवरत मानव सेवा यज्ञ कार्यरत है, हजारों मरिजोें को आरोग्य लाभ मिल रहा है, जो की मानव सेवा के पथ पर अग्रसर है।

वर्धमान स्थानकवासी श्रमणसंघ के द्वितीय
राष्ट्रसंत आचार्यश्री आनंद ऋषिजी म.सा.

संसारी नाम – नेमीचंदजीपिता का नाम – श्री. देवीचंदजीसंसारी उपनाम – गुगलिया/गुगलेजन्म तिथि – श्रावण शुक्ल एकम्माता का नाम – श्रीमती हुलसाबाईजन्म स्थान – चिचोंडी, जिला. अहमदनगरआनंद ऋषिजी महाराज एक जैन धार्मिक आचार्य थे। भारत सरकार ने ९ अगस्त २००२ को उनके सम्मान में एक स्मारक डाक टिकट जारी किया, उन्हें महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री द्वारा राष्ट्र संत की मानद उपाधि से सम्मानित किया गया, वे वर्धमान स्थानकवासी श्रमण संघ के दूसरे आचार्य थे।प्रारंभिक जीवनउनका जन्म (श्रावण शुक्ल १ विक्रम संवत १९५७) को चिंचोड़ी, महाराष्ट्र में हुआ था और उन्होंने तेरह वर्ष की आयु में आचार्य रत्न ऋषिजी महाराज से दीक्षा प्राप्त की थी, जिनका स्वर्गवास १९२७ में महाराष्ट्र के अलीपुर में हुआ।आध्यात्मिक जीवन१३ साल की उम्र में नेमीचंद ने अपना शेष जीवन जैन संत के रूप में बिताने का फैसला किया। उनकी दीक्षा (अभिषेक) ७ दिसंबर १९१३ (मार्गशीर्ष शुक्ल नवमी) को अहमदनगर जिले के मिरी में हुई थी, तब उन्हें आनंद ऋषि जी महाराज नाम दिया गया, उन्होंने पंडित राजधारी त्रिपाठी के मार्गदर्शन में संस्कृत और प्राकृत स्तोत्र सीखना शुरू किया, उन्होंने जनता को अपना पहला प्रवचन १९२० में अहमदनगर में दिया।रत्न ऋषि जी महाराज के साथ मिलकर आनंद ऋषि जी ने जैन धर्म का प्रचार-प्रसार शुरू किया था। १९२७ में अलीपुर में गुरु रत्न ऋषि जी महाराज की संथारा मृत्यु के बाद, आनंद ऋषि जी टूट गए थे। हालाँकि, वह अपने गुरु के आदेशों ‘कभी दुखी मत हो, और हमेशा मानव जाति की भलाई के लिए काम करते रहो’ को कभी नहीं भूले। अपने गुरु के बिना उनका पहला चातुर्मास १९२७ में हिंगनघाट में हुआ। १९३१ में वे जैन धर्म दिवाकर चोथमलजी महाराज के साथ धार्मिक चर्चा करते थे, जिन्हें आनंद ऋषि जी की आचार्य बनने की क्षमता का एहसास हुआ उन्होंने अपने अनुयायियों को इसकी इच्छा बताई।आनन्द ऋषि जी ने श्रावकों के कल्याण हेतु अनेक कार्यक्रम प्रारम्भ किये। चातुर्मास के लिए घोडनदी में रहते हुए उन्होंने श्री नामक एक धार्मिक केंद्र स्थापित करने का निर्णय लिया। तिलोक रत्न स्थानकवासी जैन धार्मिक परीक्षा बोर्ड स्थापना २५ नवंबर १९३६ को अहमदनगर में हुई थी।१९५२ में राजस्थान के सादड़ी साधु सम्मेलन में आनंद ऋषि जी को जैन श्रमण संघ का प्रधान मंत्री घोषित किया गया। १९५३ में कई प्रसिद्ध जैन साधु राजस्थान के जोधपुर में एक सामान्य चातुर्मास के लिए एक साथ आये। १३ मई १९६४ (फाल्गुन शुक्ल एकादशी) को आनंद ऋषि जी श्रमण संघ के दूसरे आचार्य बने। यह समारोह राजस्थान के अजमेर में हुआ।१९७४ में मुंबई में अपने चातुर्मास के बाद आनंद ऋषि जी पुणे पहुंचे। शनिवार वाडा में एक विशाल स्वागत समारोह हुआ। १३ फरवरी १९७५ (माघ शुक्ल द्वितीया) को उन्हें महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री वसंतराव नाइक द्वारा राष्ट्र संत की उपाधि से सम्मानित किया गया, यह उनके ७५वें जन्मदिन का वर्ष भी था, उसी वर्ष ‘आनंद फाउंडेशन’ की स्थापना हुई, १९८७ को साधु के रूप में उनके अभिषेक का हीरक जयंती वर्ष था। यह नौ अभिषेकों के साथ और पूज्य शंकराचार्य और मुख्यमंत्री शंकरराव चव्हाण की उपस्थिति में मनाया गया।श्रद्धेय आचार्य के बारे में एक और दिव्य बात यह है कि उनके पैर के बीच में पदम चिन्ह था, वह इसे केवल उन्हीं भक्तों को प्रदर्शित करते थे, जो उनकी किसी आदत से इनकार करते थे या जीवन भर के लिए कुछ ना करने की कसम खाते थे।वह कई शैक्षणिक संस्थानों के संस्थापक थे। अहमदनगर में आनंदधाम, आनंदऋषिजी अस्पताल, आनंदऋषिजी नेत्रालय और आनंदऋषिजी ब्लड बैंक उनकी याद में बनाए गए, और उनके नाम पर रखे गए।मोक्षधाम :८ मार्च १९९२ को अहमदनगर, महाराष्ट्र में मोक्षगामी के समय से पहले उन्होंने संथारा (उपवास द्वारा) स्वीकार किया।

७६वां स्वतंत्रता दिवस १५ अगस्त १९४७

स्वतंत्रता दिवस भारतीयों के लिये एक बहुत ही खास दिन है क्योंकि, इसी दिन वर्षों की गुलामी के बाद ब्रिटिश शासन से भारत को आजादी मिली थी। भारतीय स्वतंत्रता दिवस के इस ऐतिहासिक और महत्वपर्ू्ण दिन के बारे में अपनी वर्तमान और आने वाली पीढियों को निबंध लेखन, भाषण व्याख्यान और चर्चा के द्वारा प्रस्तुत करते हैं।१५ अगस्त १९४७, भारतीय इतिहास का सर्वाधिक भाग्यशाली और महत्वपर्ू्णं दिन था, जब हमारे भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों ने अपना सब कुछ न्योछावर कर भारत देश के लिये आजादी हासिल की। भारत की आजादी के साथ ही भारतीयों ने अपने पहले प्रधानमंत्री का चुनाव पंडित जवाहर लाल नेहरु के रुप में किया था, जिन्होंने राष्ट्रीय राजधानी नई दिल्ली के लाल किले पर तिरंगे झंडे को पहली बार फहराया, आज भी हर भारतीय इस खास दिन को एक उत्सव की तरह मनाता हैं।१५ अगस्त १९४७, भारत की आजादी का दिन और इस खास दिन को एक उत्सव की तरह हर साल भारत में स्वतंत्रता दिवस के रुप में मनाया जाता है, इस कार्यक्रम को नई दिल्ली में राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित किया जाता है जिसमें भारत के प्रधानमंत्री द्वारा लाल किले पर झंडा फहराया जाता है तथा लाखों लोग स्वतंत्रता दिवस समारोह में शामिल होता हैं।लाल किले पर उत्सव के दौरान, झंडारोहण और राष्ट्रगान के बाद प्रधानमंत्री द्वारा भाषण दिया जाता है, जिसके बाद तीनों भारतीय सेनाओं द्वारा अपनी ताकत का प्रदर्शन किया जाता है साथ ही कई सारे रंगारंग कार्यक्रम प्रदर्शित किये जाते हैं, जैसे-भारत के राज्यों द्वारा झाकियों के माध्यम से अपनी कला और संस्कृति की प्रस्तुति, स्कूली बच्चों द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम का प्रदर्शन करना आदि, इस खास अवसर पर हम भारत के उन महान हस्तियों को याद करते हैं जिन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए महत्वपूर्णं योगदान दिया, साथ ही यह उत्सव देश के विभिन्न स्कूलों, कॉलेजों तथा अन्य स्थलों पर भी पूरे हर्षाल्लास के साथ मनाया जाता है।भारत में स्वतंत्रता दिवस, सभी धर्म, परंपरा और संस्कृति के लोग पूरी खुशी से एक साथ मनाते हैं। १५ अगस्त १९४७ को हर साल यह दिन इसलिए पर्व स्वरूप मनाया जाता है क्योंकि इसी दिन लगभग २०० साल बाद भारत को ब्रिटिश हुकुमत से आजादी मिली थी, इस दिन को राष्ट्रीय अवकाश के रुप में घोषित किया गया साथ ही सभी स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय तथा कार्यालय आदि भी बंद रहते हैं, इसे सभी स्कूल, कॉलेज और शिक्षण संस्थानों के विद्यार्थीयों द्वारा पूरे उत्साह के साथ मनाया जाता है। विद्यार्थी खेल, कला तथा साहित्य के माध्यम से भाग लेते हैं, इन कार्यक्रमों के आरंभ से पहले मुख्य अतिथि अथवा प्रधानाचार्य द्वारा झंडारोहण किया जाता है जिसमें सभी मिलकर एक साथ बाँसुरी और ड्रम की धुन पर राष्ट्रगान करते हैं और उसके बाद परेड और विभिन्न कार्यक्रमों द्वारा इस दिन को खास बना दिया जाता है।स्वतंत्रता दिवस के इस खास मौके पर भारत की राष्ट्रीय राजधानी नई दिल्ली के राजपथ पर भारत सरकार द्वारा इस दिन को एक उत्सव का रुप दिया जाता है जहाँ सभी धर्म, संस्कृति और परंपरा के लोग भारत के प्रधानमंत्री को भाषण सुनते हैं, इस अवसर पर हमलोग उन सभी महान व्यक्तित्व को याद करते हैं, जिनके बलिदान की वजह से हम सभी आजाद भारत में सांसें ले रहे हैं।भारत में स्वतंत्रता दिवस हर साल १५ अगस्त को राष्ट्रीय अवकाश के रुप में मनाया जाता है जब भारतीय ब्रिटिश शासन से अपने राष्ट्र की स्वतंत्रता की लंबी गाथा को याद करते हैं, ये आजादी मिली ढेरों आंदोलनों और सैकड़ों स्वतंत्रता सेनानियों की आहुतियों से, आजादी के बाद पंडित जवाहर लाल नेहरु भारत के पहले प्रधानमंत्री बनें, जिन्होंने दिल्ली के लाल किले पर झंडा फहराया, इस दिन को शिक्षक, विद्यार्थी, अभिभावक और सभी लोग झंडारोहण के साथ ‘राष्ट्रगान’ गीत गाते हैं। हमारा तिरंगा भारत के प्रधानमंत्री द्वारा दिल्ली के लाल किले पर फहराया जाता है, इसके बाद राष्ट्रीय ध्वज को २१ बंदूकों की सलामी के साथ उस पर हेलिकॉप्टर से पुष्प वर्षा कर सम्मान दिया जाता है, हमारे तिरंगे झंडे में केसरिया रंग हिम्मत और बलिदान को, सफेद रंग शांति और सच्चाई को, हरा रंग विश्वास और शौर्य को प्रदर्शित करता है।तिरंगे के मध्य एक अशोक चक्र होता है जिसमें २४ तिलियाँ होती हैं, इस खास दिन पर हम भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, गांधीजी जैसे उन साहसी पुरुषों के महान बलिदानों को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उनके अविस्मरणीय योगदानों के लिये याद करते है। इस दौरान स्कूलों में विद्यार्थी स्वतंत्रता सेनानियों पर व्याख्यान देते हैं तथा परेड में भाग लेते हैं, इस खास मौके को सभी अपनी-अपनी तरह मनाते हैं,कोई देशभक्ति की फिल्में देखता है तो कोई अपने परिवार और मित्रों के साथ घर के बाहर घूमने जाता है साथ ही कुछ लोग स्वतंत्रता दिवस के कार्यक्रमों में भाग लेते हैं।स्वतंत्रता का महत्वभारत का स्वतंत्रता दिवस ऐतिहासिक महत्व रखता है, क्योंकि इस दिन हम राजनीतिक तौर पर आजाद हुए और हमने लोगों के दिल और दिमाग में राष्ट्रीयता का विचार पैदा करना शुरू किया, अगर ऐसा न होता तो लोग अपनी जाति, समुदाय व धर्म आदि के आधार पर ही सोचते रह जाते, हालांकि भारतीय होने का यह गौरव केवल एक भौगोलिक सीमा के ऊपर खड़ा था।भारत का असली व पूरा गौरव, इसकी सीमाओं में नहीं, बल्कि इसकी संस्कृति, आध्यात्मिक मूल्यों तथा सार्वभौमिकता में है।तीन ओर से सागर तथा एक ओर से हिमालय पर्वत शृंखला से घिरा भारत स्थिर जीवन का केंद्र बन कर सामने आया है, यहां के निवासी सालों से बिना किसी बड़े संघर्ष के रहते आ रहे हैं, जबकि बाकी संसार में ऐसा नहीं रहा, जब आप संघर्ष की स्थिति में जीते हैं, तो आपके लिए प्राणों की रक्षा ही जीवन का सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य बना रहता है, जब लोग स्थिर समाज में जीते हैं, तो जीवन-रक्षा से परे जाने की इच्छा पैदा होती है।भारत में लंबे अरसे से, स्थिर समाजों का उदय हुआ और नतीजन आध्यात्मिक प्रक्रियाएं विकसित हुईं।आज आप अमेरिका में लोगों के बीच आध्यात्मिकता को जानने की तड़प को देख रहे हैं, उसका कारण यह है कि उनकी आर्थिक दशा पिछली तीन-चार पीढ़ियों से काफी स्थिर रही है, उसके बाद उनके भीतर कुछ और अधिक जानने की इच्छा बलवती हो रही है।भारत में आज से कुछ हजार साल पहले ऐसा ही घट चुका है, यह अविश्वसनीय जान पड़ता है कि हमने कितने रूपों में आध्यात्मिकता को अपनाया है, इन्सान बुनियादी रूपें में क्या है, इस मुद्दे पर इस धरती की किसी ने भी दूसरी संस्कृति ने उतनी गहराई से विचार नहीं किया, जैसा हमारे देश में किया गया, यही इस देश का मुख्य आकर्षण है।