तेरापंथी

तेरापंथ के संस्थापक
आचार्य भिक्षु
जन्म पर्व २५ जुलाई (तिथि नुसार)​

तेरापंथ के प्रवर्तक आचार्य भिक्षु श्रमण परंपरा के महान संवाहक थे, उनका जन्म वि. स. १७८३ आषाढ़ शुक्ला त्रयोदशी को कंटालिया (मारवाड़) में हुआ, पिता का नाम शाह बल्लुजी तथा माता का नाम दींपा बाई था, जाति ओसवाल तथा वंश सकलेचा था। आचार्य भिक्षु का जन्म-नाम भीखण था, प्रारंभ से ही वे असाधारण प्रतिभा के धनी थे, तत्कालीन परंपरा के अनुसार छोटी उम्र में ही उनका विवाह हो गया, वैवाहिक जीवन से बंध जाने पर भी उनका जीवन वैराग्य भावना से ओतप्रोत था। धार्मिकता उनकी रगरग में रमी थी, पत्नी भी उन्हें धार्मिक विचारों वाली मिली, पति-पत्नी दोनों ही दिक्षा लेने के उद्यत हुए, किंतु नियति को शायद यह मान्य नहीं था, कुछ वर्षो के बाद पत्नी का देहावसान हो गया।

 भीखणजी अकेले ही दिक्षा लेने को उद्यत हुए, पर माता ने दीक्षा की अनुमति नहीं दी। तत्कालीन स्थानकवासी संप्रदाय के आचार्य श्री रघुनाथ जी के समझाने पर माता ने कहा – महाराज! मैं इसे दीक्षा की अनुमति कैसे दे सकती हूं क्योंकि जब यह गर्भ में था तब मैंने सिंह का स्वप्न देखा था, उस स्वप्न के अनुसार यह बड़ा होकर किसी देश का राजा बनेगा और सिंह जैसी प्रकृति होगी। आचार्य रघुनाथ जी ने कहा बाई यह तो बहुत अच्छी बात है। राजा तो एक देश में पुजा जाता है, तेरा बेटा तो साधु बन कर सारे जगत का पुज्य बनेगा और सिंह की तरह गुंजेगा, इस प्रकार आचार्य रघुनाथ जी के समझाने पर माता ने सहर्ष दिक्षा की अनुमति दे दी। वि.स. १८०८ मार्गशीर्ष कृष्णा बारस को भीखणजी ने आचार्य रघुनाथजी के पास दीक्षा ग्रहण की। संत भीखण जी की दृष्टि पेनी और मेघा सूक्ष्मग्राही थी, तत्व की गहराई में बैठना स्वाभाविक बात थी, थोड़े ही वर्षों में वे जैन शास्त्रों के पारगामी पंडित बन गए।

वि.स.१८१५ के आस-पास संत भीखणजी के मस्तिष्क में साधु वर्ग के आचार-विचार संबन्धी शिथिलता के प्रति एक क्रांति की भावना पैदा हुई, उन्होंने अपने क्रांति पूर्ण विचारों को आचार्य रघुनाथजी के सामने रखा, दो वर्ष तक विचार विमर्श होता रहा, जब कोई संतोषजनक निर्णय नहीं हुआ तब विचार भेद के कारण वि.स. १८१७ चैत्र शुक्ला नवमी को कुछ साधुओं सहित बगड़ी (मारवाड़) में उनसे पृथक हो गये, उनकी धर्म क्रांति का विरोध हुआ, चुंकि उस समय पुज्य रघुनाथ जी का प्रभाव प्रबल था, इसलिए लोगों ने भीखणजी का असहयोग किया, ठहरने के लिए स्थान नहीं दिया, वहां से विहार किया। गांव के बाहर आये कि तेज आंधी आ गई, व्याघ्र स्थिति वाली कहावत घटित हो गई। पीछे गांव में जगह नहीं, आगे आंधी ने रास्ता रोक लिया, इसलिए उन्होंने पहला पड़ाव गांव के बाहर शमशान में जैतसिंहजी की छतरियों में किया, आज भी वे छतरीयां विद्यमान हैं।

संघ बहिष्कार के साथ ही आचार्य भीक्षु पर जैसे विरोधों के पहाड़ टुट पड़े, पर वे लोह पुरूष थे। विरोधों के सामने झुकना उन्होंने सिखा नहीं था, वे सत्य के महान उपासक थे। सत्य के लिए प्राण न्यौछावर करने के लिए वे तत्पर रहते थे, उन्हीं के मुख से निकले हुए शब्द ‘आत्मा राकारज सारस्यां मर पुरा देस्यां’, सत्य के प्रति आगद्य संपूर्ण के सुचक हैं। वे महान आत्मबलि थे जीवन में सुध-साधुता को प्रतिष्ठित करना चाहते थे। वि. स. १८१७ आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा को केलवा (मेवाड़) में बारह साथियों सहित उन्होंने शास्त्र सम्मत दीक्षा ग्रहण की, यही तेरापंथ स्थापना का प्रथम दिन था, इसी दिन आचार्य भीक्षु के नेतृत्व में एक सुसंगठित साधु संघ का सूत्रपात हुआ जो संघ ‘तेरापंथ’ के नाम से प्रख्यात हैं।

वि.स.१८१७ से लेकर वि.स. १८३१ तक पन्द्रह वर्ष का जीवन आचार्य भीक्षु का संघर्षमय रहा, यहां तक कहा जाता है कि उन्हें पांच वर्ष पेट भर आहार ही नहीं मिलता, कभी मिला तो कभी नहीं मिलता, इस महान संघर्ष की स्थति में आचार्य भीक्षु ने कठोर साधना, तपस्या, शास्त्रों का गंभीर अध्यन एवं संघ की भावी रूप रेखा पर चिंतन किया।

वि.स. १८३२ में आचार्य भिक्षु ने अपने प्रमुख शिष्य भारमल जी को अपना उतराधिकारी घोषित किया, उसी समय संघीय मर्यादाओं का भी निर्माण किया गया, उन्होंने पहला मर्यादा पत्र इसी वर्ष मार्ग शीर्ष कृष्णा सप्तमी को लिखा, उसके बाद समय-समय पर नई मर्यादाओं के निर्माण से संघ को सुदृढ करते रहे, उन्होंने अन्तिम मर्यादा पत्र लिखा स. १८५९ की शुक्ला सप्तमी को, एक आचार्य में संघ की शक्ति को केन्द्रित कर उन्होंने सुदृढ संगठन की नींव डाली, इससे अपने-अपने शिष्य बनाने की परंपरा का विच्छेद हो गया। भावी आचार्य के चुनाव का दायित्व भी उन्होंने वर्तमान आचार्य को सौंपा। आज तेरापंथ धर्म संघ अनुशासित मर्यादित और व्यवस्थित धर्म संघ है, इसका श्रेय आचार्य भिक्षु कृत इन्हीं मर्यादाओं को जाता है।

आचार्य भिक्षु ने अपने मौलिक चिंतन के आधार पर नये मूल्यों की स्थापना की। हिंसा व दान-दया संबंधी उनकी व्याख्या सर्वथा वैज्ञानिक कही जा सकती है।आचार्य भिक्षु की अहिंसा सार्वभौमिक क्षमता पर आधारित थी। बड़ों के लिए छोटों की हिंसा और पंचेन्द्रिय जीवों की सुरक्षा के लिए एकेन्द्रिय प्राणीयों का हनन आचार्य भिक्षु की दृष्टि में आगम सम्मत नहीं था।

अध्यात्म व व्यवहार की भूमिका भी उनकी भिन्न थी, उन्होंने कभी किसी भी प्रसंग पर एक तुला से तोलने का प्रयत्न नहीं किया, उनके अभिमत से व्यवहार व अध्यात्म को सर्वत्र एक कर देना, घी ओर तम्बाकू के सम्मिश्रण जैसा अनुपादाय था।

दान दया के विषय में लौकिक एवं लौकतर भेद रेखा प्रस्तुत कर आचार्य भिक्षु ने जैन समाज में प्रचलित मान्यता के समक्ष नया चिंतन प्रस्तुत किया, उस समय समाजिक सम्मान का मापदण्ड दान-दया पर अवलंबित था। सर्वर्गोपलब्धि और पुण्योपलब्धि की मान्यताएं भी दान दया के साथ जुड़ी हुई थी। आचार्य भिक्षु ने लौकिक दान दया की व्यवस्था को कर्तव्य व सहयोग बता कर मौलिक सत्य का उद्घाटन किया। साध्य साधना के विषय में भी उनका दृष्टिकोण स्पष्ट था, उनके अभिमत से सुध साधना के द्वारा ही सुध साध्य की प्राप्ती सम्भव है, उन्होंने कहा रक्त से सना वस्त्र कभी रक्त से शुद्ध नहीं होता, वैसे ही हिंसा प्रधान प्रवृति कभी अध्यात्म के पावन लक्ष्य तक नहीं पहुंच सकती।

आचार्य भिक्षु एक कुशल विधिवक्ता होने के साथ-साथ एक सहज कवि और महान साहित्यकार भी थे। आचार्य भिक्षु की साहित्य रचना का प्रमुख विषय सुध आचार का प्रतिपादन, तत्व दर्शन का विश्लेषण एवं धर्म संघ की मौलिक मर्यादाओं का निरूपण था, उनकी रचनाओं में प्राचीन वेराग्य में आख्यान भी निबद्ध था। आचार्य भिक्षु ने कभी कवि बनने का प्रयत्न नहीं किया और न कभी उन्होंने भाषा शास्त्र, छंद शास्त्र, अलंकार शास्त्र एवं रस शास्त्र का प्रशिक्षण प्राप्त किया पर उनके द्वारा रचे गये पद्यों में रस, अनुप्रयास और अलंकारों के प्रयोग पाठक को मुग्ध कर देते हैं। आचार्य भिक्षु के साहित्य को पढ कर आधुनिक विद्वान उन्हें हिगल ओर काण्ट की तुला से तोलते हैं।

आचार्य भिक्षु जब तक जिए, ज्योर्तिमय बनकर जिए, उनके जीवन का हर पृष्ठ पुरुषार्थ की गौरवमयी गाथाओं से भरा पड़ा है।

आचार्य भिक्षु के शासन काल में ४९ साधु और ५६ साध्वियां दीक्षित हुई। वि.स. १८६० भाद्रव शुक्ला त्रयोदशी के दिन सिरियारी (मारवाड़) में उन्होंने समाधि मरण प्राप्त किया, उस समय उनकी आयु ७७ वर्ष की थी।

९९ जन्म दिवस के पावन अवसर परआचार्य श्री महाप्रज्ञ का जीवन दर्शन प्रस्तुत

भारत की भूमि पर विभिन्न महापुरुषों ने जन्म लिया भगवान महावीर, महात्मा बुद्ध, श्रीराम, श्रीकृष्ण आदि प्रमुख हैं, उन्होंने स्वयं को ऊपर उठाया, महनीय साधना की, गहन अनुभव प्राप्त किया और अपने अनुभव वैभव के आधार पर दुनियाँ को भी कुछ देने का प्रयास किया, संसार उनके अवदानों से उपकृत हो रहा है।
भारत की भूमि पर विभिन्न धर्म सम्प्रदाय हुए, उनमें एक है- जैनधर्म, उसका सम्बन्ध भगवान ऋषभ आदि चौबीस तीर्थंकरों के साथ है, उनमें अन्तिम और चौबीसवें तीर्थंकर हैं भगवान महावीर! उनके बाद जैनधर्म में अनेक प्रभावशाली आचार्य हुए हैं, १८ वीं शताब्दी में आचार्य भिक्षु हुए, जिनका नाम जैनधर्म के क्रान्तिकारी आचार्यों में गिना जाता है, उनके द्वारा प्रादुर्भावित सम्प्रदाय ‘तेरापंथ’ नाम से प्रख्यात है, उनके नवम आचार्य अणुव्रत अनुशास्ता आचार्य तुलसी के उत्तराधिकारी और तेरापंथ के दशम अधिशास्ता आचार्यश्री महाप्रज्ञ जिन्होंने अपने ज्ञान और साधना के द्वारा जनमानस को प्रभावित किया, वे जैन धर्म के एक प्रभावशाली आचार्य के रुप में प्रतिष्ठित हुए।

राजस्थान प्रान्त के झुँझुनुँ जिला, टमकोर (विष्णुगढ़) नामक गाँव, विक्रम संवत् १९७७, आषाढ़ कृष्णा त्रयोदशी (१४ जून १९२०) का दिन, गोधूली वेला, १७.०९ बजे, स्थानिक समय सायं लगभग १६.४० बजे, सोमवार, वृश्चिक राशि, कृत्तिका नक्षत्र में श्रीमती बालूजी ने खुले आकाश में एक पुत्ररत्न कोे जन्म दिया।

जब बालक का जन्म हुआ, उसकी बुआ जड़ावबाई ने छत पर चढ़कर जोर से शोर मचाया- ‘चोर आ गया’, उनकी आवाज सुनकर चोरड़िया परिवार के पुरूष लाठी लेकर आ गए, जब घर में आए तो उनको सही स्थिति की जानकारी दी गई कि जिस माता के बच्चे जीवित नहीं रहते, उसके लिए ऐसा किया जाता है।

नामकरण संस्कार के अन्तर्गत बालक का नाम ‘इन्द्रचन्द’ रखा गया, किन्तु वह व्यवहार में नहीं आया, फिर उसे परिवर्तित कर ‘नथमल’ नाम रखा गया, कारण यह था कि जन्मजात शिशु के दो अग्रज अल्प अवस्था में ही काल-कवलित हो गए थे, इसलिए वर्तमान शिशु को दीर्घजीवी बनाने के लिए उसका नाक बींध कर उसको ‘नथ’ पहनाई गई, नथ पहनाने के कारण बालक का नाम नथमल रखा गया।

श्री बीजराज चोरड़िया जैन के चार पुत्र थे-
१. गोपीचन्द २. तोलाराम ३.बालचन्द, ४. पन्नालाल, इन चारों ही भाइयों की वंश परम्परा में जन्मीं सन्तानें तेरापंथ धर्मसंघ में दीक्षित हुर्इं, श्री गोपीचन्द चोरड़िया की दौहित्रियाँ साध्वी मंजुला जैन (गणमुक्त), साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा। तोलारामजी चोरड़िया के सुपुत्र आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी एवम सुपुत्री साध्वी मालूजी। बालचन्दजी चोरड़िया जैन की पुत्री साध्वी मोहनाजी (गणमुक्त) पन्नालाल चोरड़िया जैन की पुत्री साध्वी कमलजी।
श्री तोलाराम चोरड़िया के कुल पाँच सन्तानें हुर्इं- तीन पुत्र और दो पुत्रियाँ। तीन पुत्रों में से दो पुत्र तो लघुवय मेंं ही पंचतत्व को प्राप्त हो गए, जिनमें से एक का नाम गोरधन बताया जाता है, एक का नाम अज्ञात है, शायद उसका नामकरण हुआ ही न हो, तीसरा पुत्र ‘नथमल’ नाम से पहचाना गया, बड़ी पुत्री मालीबाई की शादी चूरू निवासी सोहागमल बैद जैन के पुत्र चम्पालाल बैद जैन के साथ और दूसरी पुत्री प्याराँ (पारी) बाई की शादी बीदासर निवासी केशरीमल बोथरा जैन के पुत्र मेघराज बोथरा जैन के साथ हुई।
कालान्तर में पहली पुत्री मालूजी के जीवन में एक नया मोड़ आया, वे अठारह वर्ष की हुर्इं तभी उनके पति का स्वर्गवास हो गया, तत्पश्चात मालूजी की दीक्षा लेने की भावना प्रबल होने लगी, किन्तु श्वसुर-पक्ष वालों ने किसी आशंका के कारण उनको दीक्षा की अनुमति नहीं दी, बाद में वह आशंका निर्मूल हो गई, तब ससुराल की ओर से उन्हें दीक्षा के लिए लिखित आज्ञा मिल गई, फिर दीक्षा-प्राप्ति में कोई अवरोध नहीं रहा, श्री महाप्रज्ञ ने भी गुरूदेव तुलसी से उनकी दीक्षा की प्रार्थना की।

पूज्य गुरुदेव तुलसी का विक्रम संवत् १९९८ का चातुर्मासिक प्रवास राजलदेसर में हो रहा था। कार्तिक कृष्णा सप्तमी के दिन गुरुदेव तुलसी ने मालूजी को दीक्षा की स्वीकृति प्रदान की। दीक्षा में दो दिन शेष थे। कार्तिक कृष्णा नवमी के दिन गुरूदेव ने सत्ताईस मुमुक्षुओं को दीक्षा प्रदान की, उनमें चार भाई और तेईस (मुमुक्षु) बहिनें थीं, इन बहिनों में मालूजी सबसे ज्येष्ठ थीं। साध्वी मालूजी ने चौपन वर्ष चार मास और १५ दिन तक संयम आराधना की, विक्रम संवत २०५२, फाल्गुन शुक्ला नवमी के दिन उन्होंने अनशन के साथ जीवन यात्रा को सम्पन्न किया।

जब बालक लगभग ढाई मास का हुआ तभी उसके सिर से पिता का साया उठ गया, उस समय परिवार में मात्र चार सदस्य थे- माँ बालूजी, बड़ी पुत्री मालीबाई, छोटी पुत्री पारीबाई और पुत्र नथमल। तोलाराम के स्वर्गवास के कुछ समय बाद श्रीमती बालूजी अपनी माँ के पास चली गर्इं, बालक नथमल जब लगभग ढाई वर्ष का हुआ तब बालूजी अपनी सन्तानों के साथ वापस ‘टमकोर’ आ गर्इं, उस समय सब चीजें सस्ती थीं, पास में कुछ संसाधन था और दुकान भी चलती थी। भरण-पोषण में कोई आर्थिक संकट नहीं आया, किन्तु परिवार में पिता का न होना अपने-आप में एक बड़ा संकट था। माँ बालूजी ने इस संकट का अनुभव, अपनी सन्तानों को नहीं होने दिया, जो कि उनके मातृत्व का वैशिष्ट्य था।
माता बालूजी धार्मिक विचारों वाली महिला थीं, प्रतिदिन पश्चिम रात्रि में जल्दी उठकर सामायिक करतीं तथा तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य जीतमलजी द्वारा रचित चौबीसी, आराधना और तेरापंथ के संस्थापक आचार्य भिक्षु के स्तुति-भजनों का संगान करती थी, बालक नथमल सोए-सोए भजनों को सुना करता था।
‘सन्त भीखणजी रो समरण कीजै’ गीत के बार-बार श्रवण से बालक के मन में आचार्य भिक्षु के प्रति श्रद्धा का भाव उत्पन्न हो गया।
माँ बालूजी! बालक नथमल को संस्कारी बनाने में बहुत सजग थीं, जब तक बालक साधुओं/साध्वियों के दर्शन नहीं कर लेता, उसे शान्ति नहीं आती, माता सत्यवादिता पर बल दिया करती और जप करना सिखाती थीं।

बालक नथमल में आकाश को पढ़ने का शुरू से ही आकर्षण था, अपने घर में सोया-सोया वह सामने वाली दीवार पर देखता रहता। श्री गोपीचन्द की हवेली में ऊपर ‘मालिये’ में चला जाता और उसमें खिड़की से घण्टों तक आकाश को देखता रहता, बालक को नई-नई चीजें दिखाई देती।

घर के प्रवेश के रास्ते पर गाय बँधती थी, पारीबाई गाय को दुहती थी। बालक नथमल प्याला लेकर पारीबाई के पास बैठ जाता, वह गाय को दुहती जाती और बालक नथमल दूध पीता जाता।

टमकोर एक छोटा गाँव है, उस समय तो वह सुविधाओं से वंचित था। राजकीय विद्यालय भी वहाँ नहीं था, सम्भवत: यही कारण रहा होगा कि बालक नथमल को राजकीय विद्यालय के अध्ययन से वंचित रहना पड़ा। आर्यसमाजी गुरु विष्णुदत्त शर्मा की पाठशाला में वर्णमाला और पहाड़े पढ़े, कुछ अध्ययन अपने ननिहाल सरदारशहर में किया, बालक अपने ननिहाल में कभी दो महीने तो कभी छह महीने तक भी रहा करता था।

अक्सर छोटे बच्चे चंचल होते हैं, बालक नथमल भी उसका अपवाद नहीं था, एक दिन उसने बालसुलभ चपलता के अनुरुप अपनी आँखों पर पट्टी बाँधी और चलने लगा, थोड़ा सा चला और दीवार से टकरा गया। ललाट पर चोट लग गई। खून बहने लगा। बच्चे के लिए माँ का सबसे बड़ा आलम्बन होता है, वह रोता-रोता माँ के पास गया, उसी दिन उसकी बहिन पारीबाई की शादी थी, इसलिए पारिवारिकजन उसमें लगे हुए थे, किसी ने बालक की ओर ध्यान नहीं दिया, पर माँ! ध्यान कैसे नहीं देती? कुछ उलाहना दिया, कुछ पुचकारा, पट्टी बाँध दी, ठीक हो गया। ‘आज तुम्हारा भाग्य खुल गया’ यह कहकर उसका दर्द दूर कर दिया।

बालक नथमल अपने साथियों के साथ कर्ई प्रकार के खेल खेला करता था, दियासलाई से टेलीफोन बनाना, तिनके का धनुष बनाना, पेड़ से रस्सी बाँधकर झूला झूलना, एक बार खेलते समय कोई नाम गोदने वाला व्यक्ति आया, बालक ने अपने हाथ पर नाम गुदवाया ‘नथमल’, जो आजीवन अंकित रहा।

संसार में विभिन्न देव और देवियाँ प्रतिष्ठित हैं, वे भिन्न-भिन्न लोगों की आस्था के केन्द्र भी बने हुए हैं, श्री महाप्रज्ञ के संसारपक्षीय परिवार में बाबा रामदेव की मान्यता थी, इसलिए वे उनके मुख्य केन्द्र ‘रूणेचा’ भी गए।

सन्त वह होता है, जो शान्त होता है। काम, क्रोध, अहम्, लोभ आदि निषेधात्मक भावों का दीमक सन्तता की पोथी को चट कर जाता है, ये भाव एक बालक में भी हो सकते हैं। बालक नथमल को बचपन में गुस्सा आता था, उस अवस्था में वह कभी खाना नहीं खाता, पढाई बन्द कर देता, बोलना भी बन्द कर देता, वह खम्भा पकड़कर, दरवाजा पकड़कर खड़ा हो जाता, किसी की बात नहीं सुनता, पारिवारिक लोग मनाकर थक जाते, किन्तु वह तभी मानता, जब कड़कड़ाती भूख लग जाती तब की बात और…
आज की स्थिति में जमीन-आसमान का सा अन्तर दिखाई दे रहा है, ज्यों-ज्यों विवेक जागृत हुआ, ज्ञान का विकास हुआ, त्यों-त्यों गुस्सा नियन्त्रित होता चला गया।
एक बार श्री महाप्रज्ञ के कहा-मुझे दीक्षा के बाद गुस्सा कितनी बार आया, यह अंगुलियों पर गिना जा सकता है, ७५ वर्षों में सम्भवत: ७५ बार भी नहीं आया।

प्रसंग उस समय का है, जब बालक नथमल लगभग आठ वर्ष का था। वह अपने घर के अहाते में साथियों के साथ खेल रहा था, उसी समय एक ‘तेलिया’ आया, उसने बालक को देखा और घर के भीतर चला गया, माँ बालूजी कुछ बहनों के साथ बातचीत कर रही थी, तेलिये ने राजस्थानी भाषा में कहा- ‘माँ जी! तेल घाल द्यो।’ बालूजी ने एक बहन को तेल लाने का निर्देश दिया, वह रसोईघर में गई, इस बीच

तेलिया बोला- माँ! तू बड़ी भागवान है। बाखळ (घर के अहाते) में जो थाँरो बालक खेल रह्यो है, बो बड़ो पुनवान है’

बालूजी ने कहा- यदि मैं भागवान हुती तो म्हारो ‘घरवालो’ क्यूँ जातो?

तेलिये ने कहा- थाँरो लड़को, जिको बाखळ में खेलै है, बो एक दिन राजा बणसी’
बालूजी का चेहरा खिल उठा। आस-पास बैठी महिलाओं को उसकी बातों में रस आने लगा, उन्होंने उससे पूछा- ‘अच्छा! और काँई बतावै है? तेलिये ने एक बहन की ओर इशारा करते हुए कहा- ‘आ बहन गर्भवती है, आज स्यूँ आठवें दिन इरै एक लड़को हुसी, वह बहन हरखचन्द चोरड़िया जैन की धर्मपत्नी थी।


तेलिये ने बालूजी से कहा- ‘बा तो पराये घर जासी, आपरै सासरै जासी, म्हांरी सेवा कियाँ करसी?’ चौथी बार तेलिये ने एक दु:खद बात कह डाली- सातवें दिन थाँरे एक पड़ोसी रे लड़कै री मौत होसी’ बहिनों को यह बात बहुत अप्रिय लगी, उन्हें लगा कि यह आदमी ठीक नहीं है, यहाँ से जितनी जल्दी चला जाए, अच्छा है, तेलिये ने स्थिति को समझा, अपने पात्र में तेल का दान लेकर वहाँ से प्रस्थित हो गया।


सातवाँ दिन आया, पड़ोस में रहने वाले अग्रवाल परिवार का आठ वर्षीय लड़का काल-कवलित हो गया, इस दु:खद घटना के घटते ही उस तेलिये को ढूँढा गया, लेकिन उसका कहीं अता-पता नहीं मिला, उसके दूसरे दिन हरखचन्द की धर्मपत्नी ने एक पुत्र को जन्म दिया, तेलिये द्वारा की गई दो भविष्यवाणियाँ सच हो गर्इं।


बालूजी की बड़ी पुत्री मालीबाई का विवाह हो चुका था, बालूजी अपने पुत्र नथमल के साथ संन्यास के पथ पर अग्रसर हो गर्इं। अकस्मात् एक दुर्घटना घटी, बालूजी के दामाद (मालूजी के पति) का देहान्त हो गया।
मालीबाई का मन संसार से उद्विग्न हो उठा, संयम के पथ पर चलने का निश्चय प्रबल बन गया। वे तेरापंथ धर्मसंघ में प्रवर्जित होकर साध्वी मालूजी बन गर्इं। माँ-बेटी के अलग हुए रास्ते पुन: एक बन गए। पूज्य गुरुदेव ने साध्वी बालूजी की सेवा में साध्वी मालूजी को नियोजित किया। साध्वी मालूजी ने अन्तिम समय तक अपनी संसारपक्षीया माँ साध्वी बालूजी की सेवा की। तेलिये की तीसरी भविष्यवाणी भी सत्य साबित हो गई, अब चौथी भविष्यवाणी कसौटी पर चढ़ गई।

बालक नथमल लगभग नौ वर्ष का था। मेमन सिंह (वर्तमान में बाँग्लादेश) में उसकी चचेरी बहिन (माँ की पालित पुत्री) नानूबाई का विवाह था, उसमें सम्मिलित होने के लिए वह अपने स्वजन के साथ जा रहा था, बीच में कोलकाता में अपनी बुआ के घर ठहरा। शादी के लिए कुछ चीजें खरीदनी थीं। बालक नथमल के चाचा पन्नालाल और दुकान के मुनीम सुरजोजी ब्राह्मण सामान खरीदने के लिए बाजार जा रहे थे, नथमल भी उनके साथ हो गया, वह पहली बार ही कोलकाता आया था, उसे यहाँ का वातावरण बड़ा विचित्र-सा लग रहा था। पन्नालालजी और मुनीम ने दुकान से सामान खरीदा और आगे बढ़ गए। नथमल अकेला पीछे रह गया। मार्ग से अपरिचित बालक इधर-उधर झाँकने लगा, उस विकट बेला में उसने अपने हाथ की घड़ी खोली, गले में से स्वर्णसूत्र निकाला और दोनों को जेब में रख लिया, वह पीछे मुड़ा और अज्ञात मार्ग की ओर चल दिया, सौभाग्यवश वह यथास्थान पहुँच गया, उसने आप बीती सारी घटना माँ को सुनाई तो वे अवाक-सी रह गर्इं, तत्काल उनके मुख से निकला- ‘यह सब (पुत्र का यथास्थान पहुँच जाना) भीखणजी स्वामी के प्रताप से हुआ है, नहीं तो, इतने बड़े शहर में न जाने क्या घटित होता?’’ ज्ञातव्य है कि पन्नालालजी का नथमल के प्रति बहुत स्नेहभाव था, वे उसका बहुत ध्यान रखते थे।

श्री गोपीचन्द चोरड़िया की पुत्री छोटीबाई (साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी की संसारपक्षीया माँ) की शादी का प्रसंग था। टमकोर से लाडनूँ आते समय छोटीबाई का भाई नथमल साथ आया। वे लाडनूँ पहुँचे। यह परम्परा रही है कि बहिन को ससुराल पहुँचाने के लिए भाई साथ जाता है। पारिवारिक लोग सेवा केन्द्र में साध्वियों के दर्शनार्थ गए, अन्य जन ऊपर चले गए, नथमल नीचे ही खड़ा रह गया, उस समय बालक नथमल आत्मविभोर हो गया और उसके मानस में वैराग्य भाव का संचार हुआ।

श्री तोलारामजी एक अच्छे व्यक्ति थे, सुन्दर आकृति वाले, लड़ाई-झगड़े से बचकर रहने वाले और उदार व्यवहार वाले थे। वे क्षत्रिय जैसे लगते थे। लगता है, उनको कुछ पूर्वाभास हो गया था, उन्होंने एक दिन मेरी संसारपक्षीया माँ श्रीमती बालूजी से कहा- ‘तुम एक पुत्र को जन्म दोगी, पर मैं नहीं रहूँगा।’ बालूजी तत्काल बोल उठी- ‘ऐसा बेटा मुझे नहीं चाहिए, जिसके आने पर आप न रहें।’ श्री तोलाराम का यह पूर्वाभास कुछ समय बाद ही सत्य साबित हो गया।
श्री बीजराज चोरड़िया कहा करते थे कि हमारे परिवार में दो ऐसे व्यक्तित्व होंगे, जो विशिष्ट कार्य करेंगे, मैं और साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा, हम दोनों ही उस परिवार के सदस्य हैं।
जन्म के बाद दो-तीन वर्ष तक मुझे अन्न दिया ही नहीं गया था, दूध और फल पर ही रखा गया था, ऐसा बालूजी (संसारपक्षीया माँ) कहा करती थीं। साध्वी मालूजी (संसारपक्षीया बहिन) भी कहा करती थीं कि इससे हड्डियाँ मजबूत बनती हैं।
मेरा सह क्रीड़ा बालक मूलचन्द चोरड़िया गणित में अच्छा था, यदि उसे निमित्त मिलता तो वह दुनियाँ का विशिष्ट गणितज्ञ बन जाता।
श्री महालचन्द चोरड़िया जैन (सुपुत्र श्री गोपीचन्द चोरड़िया जैन) प्राणगंज से आए, वे मेरे लिए घड़ी व टॉर्च लाए थे, मैं टॉर्च जलाकर दिखाता व घड़ी बाँधकर समय बताता।
विक्रम संवत् २०६३, भिवानी चातुर्मास। (श्रावण कृष्ण अमावस्या) श्री महाप्रज्ञ ने मातुश्री बालूजी की वार्षिकी के दिन व्यक्तिगत बातचीत के दौरान कहा कि मातुश्री बालूजी मुझे शिक्षा देती थीं कि कभी बाइयों के चक्कर में मत पड़ना।

आचार्य महाप्रज्ञ की प्रमुख कृतियां
  • मन के जीते जीत
  • किसने कहा मन चंचल है
  • जैन योग
  • चेतना का ऊध्र्वारोहण
  • आभारमण्डल
  • मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि
  • एकला चलो रे
  • एसो पंच णमोक्कारो
  • अपने घर में
  • मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता
  • अर्हम
  • नया मानव नया विश्व
  • कर्मवाद
  • महावीर की साधना का रहस्य
  • घट-घट दीप जले
  • मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
  • भिक्षु विचार-दर्शन
  • समस्या को देखना सीखें
  • धर्म के सूत्र
  • विचार को बदलना सीखें
  • मनन और मूल्यांकन
  • जैन दर्शन और अनेकान्त
  • आमंत्रण आरोग्य को
  • जैन दर्शन : मनन और मीमांसा
  • शक्ति की साधना
  • जैन धर्म के साधना सूत्र
  • महावीर का स्वास्थशास्त्र
  • मुक्तभोग की समस्या और ब्रह्मचर्य
  • नया मानव : नया विश्व
  • अहिंसा और शान्ति
  • महावीर का अर्थशास्त्र
  • अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक
  • अहिंसा तत्वदर्शन