दिगम्बर जैन धर्म में ‘मुनि’ पद मानव जीवन की सर्वोत्कृष्ट अवस्था

जैन धर्म अपनी प्राचीनता संयम व तपष्चरण की परम पराकाष्ठा एवं दिगम्बरत्व रूप के कारण विश्व के अन्य धर्मों से स्थान विशेषता रखता है। जैनधर्म के प्राचीन ग्रन्थों में निहित साहित्य को जैनागम कहा जाता है। जैनागम साहित्य में ग्रन्थों के माध्यम से गृहस्थ, श्रावक व मुनि की जीवन चर्चा पर सूक्ष्म से सूक्ष्म बिन्दुओं पर सर्वांगीण रूप से प्रकाश प्राप्त होता है। जैन धर्म को मानने के लिए जाति की सीमा नहीं होती है मात्र आचरण का पालन करना होता है। जैन धर्म के आचरण को पालन करने वाला किसी भी जाति का हो जैन-धर्मावलम्बी के रूप में यम, नियम, संयम व आचरण करने के कारण दिया जाता है।
जैन धर्म के साधु परम्परा को श्रमण कहा गया है। जैन साधु श्रमण भी कहे जाते हैं, जो कोई व्यक्ति जैनधर्म की चर्चा का पालन करना चाहे, करने के लिए वह स्वतंत्र है। गृहस्थ व्यक्ति की प्रथम अवस्था है, श्रावक उससे आगे
की एवं मुनि पद साधक की श्रेष्ठ अवस्था है।
मुनि को साधु परमेष्ठी भी कहा गया है, मुनि अवस्था क्या है, मुनि अवस्था की आन्तरिक स्थिति को जानने से पहले, बाह्य स्थिति को जानना आवश्यक है।
मुनि दिगम्बर रहकर, पैदल बिहारी एवं समस्त परिग्रहों का त्याग करते हुए मात्र तीन उपकरण क्रमश: पिच्छिका (मोर पंख की), कमण्डल एवं ग्रन्थ को अपने पास रखते हैं। २४ घंटे में एक बार विधि मिलने पर आहार (भोजन) लेते हैं। मुनि की इन बाह्य स्थितियों को समझना जरूरी है, मुनि की दिगम्बर अवस्था इस बात का प्रमाण है कि वे यथाजात रूपी अर्थात जैसे जन्म हुआ था वह स्वभाव की मूल अवस्था है जिसमें वे जीते हैं, समस्त प्रकार के परिग्रह को त्याग कर अपने शरीर पर किसी प्रकार के वस्त्र का परिग्रह भी धारण नहीं करते। मुनि की इस शैली पर विचार करने पर ज्ञान होता है कि मात्र परिग्रह त्याग का जीवन जीकर उत्तम ब्रह्मचर्य के धारक होते हैं, अतएव धरती बिछौना और आकाश वस्त्र होते हैं, इसलिए इन्हें दिगम्बर कहा जाता है।

उपकरण मोर पंख की पिच्छिका जीवों की रक्षा के लिए, कमण्डलु में जल शुद्धि के लिए एवं स्वाध्याय हेतु जैनागम साहित्य, मात्र इन तीन उपकरणों के धारक मुनिराज सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवों की रक्षार्थ पिच्छिका साथ में रखकर जहाँ पर बैठना है, उठना है या ग्रन्थ आदि खोलना है तो पूर्व इसके परिमार्जन हेतु इस पिच्छिका का उपयोग करते हुए जीवों की रक्षा करते हैं, इसी प्रकार प्रासुक (शुद्ध) जल कमण्डलु में रखते हुए बाह्य शुद्धि के उपयोग में लेते हैं एवं चिन्तन, मनन व गहन ज्ञान हेतु जैनानम ग्रन्थों को अपने पास रखते हैं जो स्वाध्याय हेतु उपयोगी होता है, दिगम्बर मुनिराज विधि मिलने पर ही आहार लेते हैं।
प्रश्न है कि यह विधि क्या है? प्रात: देव-दर्शन के उपरान्त एक विधि (नियम) ले लेते हैं कि यदि पड़गाहन हेतु जा रहे हैं और उन्हें वह विधि मिल जाती है तो आहार हो जाता है।

२४ घंटे में एक बार यह क्रम होता है और यदि विधि नहीं मिली तो वे निराहार अपने स्वाध्याय, चिन्तन, मनन, सामायिक, प्रतिक्रमण इत्यादि क्रियाओं में लग जाते हैं।
दिगम्बर मुनिराज भीषण ठंड, तपती हुई धूप एवं मुसलाधार बारिश की विषम परिस्थितियाँ रहते हुए संसार के समस्त विकल्पों को त्याग कर आत्मकल्याण, आत्मानुभूति, आत्मान्वेषण के परम लक्ष्य की ओर उन्मुख जीवन शैली को धारण कर अन्तरंग में जिन व्रतों, गुणों व तपों का पालन करते हैं, वह सभ्यता के इतिहास में पठनीय, चिन्तनीय योग्य व मननीय है, उन अन्तरंग गुणों पर विचार करना अनिवार्य है जो इस प्रकार हैजैन धर्म गुणवाचक है, यही कारण है कि जैन साधु बहिरंग एवं अन्तरंगगुणों के विकास हेतु सतत् जागृत व साधनारत रहते हैं। जैन मुनियों को आचार्य, उपाध्याय, साधु परमेष्ठी भी कहा जाता है और इन्हें अपने पद के अनुसार मूलगुणों का पालन करना होता है, मुल गुणों के पालन करने के कारण महाव्रती व महा-तपस्वी कहा जाता है।

आचार्य परमेष्ठी के ३६ मूलगुण जिनमें बहिरंग ६ तप एवं अन्तरंग ६ तप, १२ तप का पालन करना होता है, जो इस प्रकार है- अनशन, ऊनोदर, व्रत परिसंस्थान, रस परित्याग, कायकलेश, प्रायश्चित, विनय, वैय्यावृत्ति, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग एवं ध्यान, इन्हीं ३६ मूलगुणों में पाँच पंचाचार क्रमश: दर्शनाचार, ज्ञानाचार, तपाचार, चारित्राचार एवं वीर्याचार तथा १० धर्म क्रमश: उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग आकिंचन व ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है एवं छह आवश्यक क्रमश: समता, वन्दना, स्तुति, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान एवं कार्योत्सर्ग के अतिरिक्त तीन युक्ति क्रमश: मनोगुप्ति, वचनगुप्ति एवं कायगुप्ति की साधना आचार्य परमेष्ठी के लिए आवश्यक है, इसी प्रकार उपाध्याय एवं साधु परमेष्ठी १४ अंग और १४ पूर्व एवं २४ मूलगुण के धारी होते हैं और साधु परमेष्ठी पाँच महाव्रत क्रमश: अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के धारक होते है, इन्हें पॉच समितियाँ क्रमश: ईर्या, भाषा, ऐष्णा, प्रतिस्थापना एवं व्युत्सर्ग समिति का पालन करते हुए पांच इन्द्रिय निराध अर्थात, इन्द्रियों को बस में रखना अनिवार्य है। साधु के शेष गुणों में केशलोंच, नग्न रहना, स्नान नहीं करना, भूमि पर लेटना, दाँतों को नहीं धोना, खड़े होकर हाथ में आहार लेना और दिन में एक बार आहार लेना मुनिजनों की जीवन चर्या होती है।

दिगम्बर जैन मुनि यम, नियम, संयम व तपस्या के प्रमाणिक प्रज्ञापुरूष होते हैं जिनका जीवन अन्तरंग साधना के निरन्त रहता है और जगत कल्याण की भावना से ओत-प्रोत होते हैं। भारतीय सभ्यता के इतिहास में श्रमण संस्कृति और श्रमण सभ्यता रेखांकन योग्य वह अध्याय है जो मानव के विकास की धरोहर है। दिगम्बर जैन मुनि साधना व तप के उन प्रमाण पुरूषों में से होते है जिन्हें मात्र दर्शन कर ही जीवन के अंधकार को मिटा सकती है।

- डॉ. तब्बसुम

जैन परम्परा में परमेष्ठी का प्रतीक

अरहंता असरीरा आईरिया तह उवज्झाया मुणिणो। पढमक्खरणिप्पणो ओंकारो पंचपरमेष्ठी।।

जैनागम में अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं मुनि रूप पांच परमेष्ठी ही आराध्य माने गए हैं, इनके आद्य अक्षरों को परस्पर मिलाने पर ‘ओम’/‘ओं’ बन जाता है, यथा, इनमें पहले परमेष्ठी ‘अरिहंत’ या ‘अरहंत’ ‘अशरीरी’ कहलाते हैं, अत: ‘अशरीरी’ के प्रथम अक्षर ‘अ’ को ‘अरिहन्त’ के ‘अ’ से मिलाने पर अ+अ=‘आ’ ही बनता है, उसमें चतुर्थ परमेष्ठी ‘उपाध्याय’ का पहले अक्षर ‘उ’ को मिलाने पर आ+उ मिलकर ‘ओ’ हो जाता है, अंतिम पाँचवें परमेष्ठी ‘साधु’ को जैनागम में ‘मुनि’ भी कहा जाता है, अत: मुनि के प्रारम्भिक अक्षर ‘म’ को ‘ओ’ से मिलाने पर ओ+म्= ‘ओम्’ या ‘ओं’ बन जाता है, इसे ही प्राचीन लिपि में न के रूप में बनाया जाता रहा है। ‘जैन’ शब्द में ‘ज’, ‘न’ है इसमें ‘ज’ के ऊपर ‘ऐ’ सम्बन्धी दो मात्राएँ बनी होती है, इनके माध्यम से जैन परम्परागत ‘ओ’ का चिन्ह बनाया जा सकता है, इस ‘ओम्’ के प्रतीक चिन्ह को बनाने की सरल विधि चार चरणों में निम्न प्रकार हो सकती है।
१. ‘जैन’ शब्द के पहले अक्षर ‘ज’ को अँग्रेजी में जे-लिखा जाता है, अत: सबसे पहले ‘जे’-को बनाए-
२. तदुपरान्त ‘जैन’ शब्द में द्वितीय अक्षर ‘न’ है, अत: उसे ‘जे’-के भीतर/साथ में हिन्दी का ‘न’ बनाएँ-न
३.चूंकि ‘जैन’ शब्द ‘ज’ के ऊपर ‘ऐ’ सम्बन्धी दो मात्राएं होती हैं, अत: प्रथम मात्रा के प्रतीक स्वरूप उसके ऊपर पहले चन्द्रबिन्दु बनाएं-
४. तदुपरान्त द्वितीय मात्रा के प्रतीक स्वरूप उसके ऊपर चन्द्र बिन्दु के दाएँ बाजू में ‘रेफ’ जैसी आकृति बनाएँ- नँ इस प्रकार जैन परम्परा सम्मत परमेष्ठी प्रतीक ‘ओम्’/‘ओं’ की आकृति निर्मित हो जाती है।

प्रत्येक धर्म की मौलिक विशेषताएं है जिसे अपनाने में कोई बुराई नहीं

जैन धर्म सबसे प्राचीन धर्म माना जाता है, जिसके अवशेष सिंधु सभ्यता में भी देखने को मिलते हैं जो सबसे प्राचीन सभ्यता है।
तब्बसुम बानों आज जैन समाज में एक जाना-माना नाम है जिन्होंने ‘मोहनखेड़ा तीर्थ क्षेत्र’ के विषय पर जैनिजम में पी. एच.डी. की उपाधि प्राप्त की है, आप इतिहासकार के रूप में जानी जाती हैं, इस विषय पर आज तक किसी ने शोध कार्य नहीं किया था। आपको कर्नाटक से महावीर पुरस्कार, राष्ट्रीय आदर्श नारी पुरस्कार, सर्व धर्म समन्वय पुरस्कार, श्री अंतर्राष्ट्रीय भगवान पाश्र्वनाथ पुरस्कार के साथ कई राज्य व राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। आप कन्नड़ भाषी हैं आपका जन्म व शिक्षा कर्नाटक में ही सम्पन्न हुई है।
जैन समाज में अपनी रूचि को दर्शाते हुए कहती हैं कि भगवंत पुराण, पद्मावती माता आदि की कहानियां मैंने पढी हैं, जिनसे मैं काफी प्रभावित हुई। पद्मावती माता भगवान पाश्र्वनाथ के यक्ष-यक्षणि थे, उनकी कहानीयां काफी रोचक ही नहीं, ‘अहिंसा परमो धरम:’की बातें बहुत अच्छी है, साथ ही ये बातें मुसलमानों के नियमों में भी काफी समानताएं नजर आती है, पिछले दिनों मेरे जीवन में काफी घटनाएं भी हुई, जब भी मैंने पद्मावती माता का नाम लिया, मेरे सारे कार्य बनते गए व मेरी रक्षा होती रही, अब इसे संयोग कहें या मेरा पूर्व जन्म का कोई संबंध हो, मेरी जैन धर्म में रूचि बढ़ती गई।
जैन समाज पूर्व में क्या था, वर्तमान समय में जैन समाज किस रूप में इसे अपना रहा है, यक्ष-यक्षणियों का व उनकी सम्पूर्ण मुद्राओं का ज्ञान, पौराणिक व धार्मिक आदि पर आपने शोध कार्य व अध्ययन किया है तथा इन विषयों पर आपने कई लेख भी लिखे हैं। जैन धर्म समाज का प्रत्येक क्षेत्र में बारिकी से अध्ययन किया है।
जैन समाज में पंथवाद के संदर्भ में कहती हैं कि जैन के जितने पंथ हैं उन सभी के अपने नियम व दिनचर्या है जिससे उनके विचारों में ‘एकता’ स्थापित करना मुश्किल लगता है। ‘जैन एकता’ की बहुत सारी कठिनाईयां है, जिसका निराकरण मुश्किल लगता है, यदि सभी जैन समाज एक हो जाए तो इससे अच्छी बात और हो ही नहीं सकती।
मातृभाषा से ही व्यक्ति में मौलिक तत्वों का विकास होता है, व्यक्ति के सर्वांगिण विकास के लिए मातृभाषा आवश्यक है, ‘हिंदी’ भारत के प्रत्येक राज्य में बोली व अपनायी जाती है, अत: ‘हिंदी’ को राष्ट्रभाषा का सम्मान अवश्य मिलना चाहिए।

तबस्सुम भानो
इतिहासकार
कर्नाटक निवासी
भ्रमणध्वनि: ९६११३१७०७६

मुनि श्री विश्व ध्येय सागर जी महाराज ने समाधि ली

रांची: पूज्य गणाचार्य १०८ श्री विराग सागर जी महाराज के शिष्य ९३ वर्षीय मुनि श्री विश्व ध्येय सागर जी महाराज ने दिगम्बर जैन मंदिर में समाधि ली, उनकी अंतिम यात्रा दिगम्बर जैन मंदिर से हरमू मुक्तिधाम तक के लिए निकली, जहां उनका अंतिम संस्कार किया गया, इसमें आचार्य श्री के अलावा संत व जैन समाज के काफी संख्या में लोग शामिल हुए, मालूम हो कि १८ जनवरी को मुनि श्री इटखोरी में गिर गये थे, वहां उनका इलाज भी किया गया था, किंतु उन्हें अपनी आयु पूर्ण होने का पूवार्भास हो गया था, इसलिए उन्होंने आचार्य श्री से सल्लेखना समाधि मरण व्रत ग्रहण किया, हजारीबाग में उनके स्वास्थ्य की बिगड़ती स्थिति को देख कर उन्हें रांची में महाराज जी के पास लाया गया, उन्होंने आचार्य श्री से मुनि दीक्षा देने के लिए प्रार्थना की। मुनि दीक्षा की प्रार्थना के बाद उन्हें चारों प्रकार के आहार का त्याग कराया गया। गुरुदेव मुनि दीक्षा के संस्कारों के साथ अंतिम संबोधन देते हुए नमोकार मंत्र सुनाया, इस मंत्र को सुनते ही उन्होंने गुरु के चरण में अंतिम सांस ली और अपने जीवन को सार्थक किया। अंतिम सांस लेने के समय वहां समाज के काफी संख्या में श्रद्धालु उपस्थित थे, सभी ने उनके चरणों में श्रीफल अर्पित कर उन्हें श्रद्धांजलि दी। मुनिश्री को कंधा देने का सौभाग्य टीकम चंद संजय कुमार छाबड़ा, छीतर मल राजेश कुमार, राकेश कुमार गंगवाल, अशोक अजमेरा, अनु अमन छावड़ा, शांति धारा का सौभाग्य महावीर प्रसाद, संजय कुमार, अजय कुमार सोगानी, अभिषेक करने का सौभाग्य नंद लाल जी छाबड़ा, मुनिश्री के कमंडल लेकर चलने का सौभाग्य राजेंद्र कुमार, सुबोध कुमार बड़जात्या परिवार को मिला। अंतिम संस्कार के सभी नियमकर्म पंडित अरविंद शास्त्री एवं मुनि महाराज ने संपन्न कराये।

जानकी दास जैन (कंगारू ग्रुप संस्थापक) की पुण्य समृति पर ५१ जरूरतमंद परिवारों को राशन वितरण

लुधियाना: महिला शाखा भगवान महावीर सेवा सोसाइटी रजि. द्वारा महासाधवी उपप्रर्वतनी कोकिल कण्ठनी मीना जी महाराज ठाणा-४ के पावन सानिध्य में ५१ परिवारों को राशन वितरण सिविल लाईन्ज़ के जैन स्थानक में आयोजित किया गया। समारोह का शुभारंभ महामन्त्र नवकार के सामुहिक से उच्चारण शुरू किया गया। एशिया की नं. १ कम्पनी कंगारू ग्रुप ऑफ इंडस्ट्रीज़ के संस्थापक स्व. श्री जानकी दास जैन जी की पुण्य समृति पर उनके परिवार अरिंहत जैन, विश्वा-नीलम जैन, अमरीश-आरती जैन, गौतम-नेहा जैन, वेदांश, गोरेश, सुमेर, आंनदिनी जैन आदि ने ५१ परिवारों को राशन वितरण का लाभ लिया।
महिला शाखा भगवान महावीर सेवा सोसाईटी की प्रधान नीलम जैन ने बताया आज जो भी कुछ समाज से हमें मिला है वो हमारे बाऊजी जी स्व. श्री जानकी दास जी जैन के पुण्य से प्राप्त हुआ है और आज हमारा परिवार उन्हीं के पुण्य को आगे बढ़ा रहा है यह हमारी समाजिक जिम्मेवारी भी है जो परिवार आज असहाय महसूस कर रहे हैं उनकी सहायाता कर हम पुण्य का उपार्जन कर रहे हैं, इस मौके पर महिला शाखा भगवान महावीर सेवा सोसायटी के नीरा जैन, रमा जैन, नीलम जैन, सुषमा जैन, विनोद देवी जैन, मंजू जैन, रीचा जैन, आदर्श जैन, प्रवेश जैन, डोली जैन एवं भगवान महावीर सेवा संस्थान के प्रधान राकेश जैन, उप-प्रधान राजेश जैन, सहमंत्री सुनील गुप्ता, राकेश अग्रवाल, अरिदमन जैन, प्रमोद जैन, फूलचन्द जैन इत्यादि गणमान्य उपस्थित थे।

मालवा की पंचतीर्थी

मालवा में जैन धर्मावलम्बियों की संख्या काफी है। प्राचीन काल से मालवा में जैनों का प्रभुत्व रहा है, उसी अनुपात में इस क्षेत्र में तीर्थ स्थानों का निर्माण भी हुआ है। मालवा के पश्चिमी क्षेत्र में स्थित कुछ जैन तीर्थों का संक्षिप्त परिचय यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। यथा:-
मांडवगढ़: मालवा के ऐतिहासिक स्थानों में मांडवगढ़ का प्रमुख स्थान है। राजा जयसिंह तृतीय का मंत्री पृथ्वीधर या पेथड़ सेनापति धार्मिक स्वभाव का भी था, उसके समय में यहाँ तीन सौ मंदिर थे, उसने प्रत्येक पर सोने के कलश चढ़ाये थे। पेथड़ के पश्चात् उसका पुत्र आमंत्रण मंत्री पद पर नियुक्त हुआ। उसने संवत १३४९ में शत्रुंजय का संघ निकाला था, उसने करेड़ा में सात मंजिला भव्य मंदिर बनवाया था, उस समय लाखों जैन मतावलम्बी यहाँ निवास करते थे। किवदंती है कि यहाँ जब भी कोई नया जैन मतावलम्बी रहने आता, तो प्रत्येक घर से उसे एक स्वर्ण मुद्रा व एक ईंट दी जाती थी, जिससे उसके रहने के लिए भवन बन जाता और व लखपति हो जाता था। वर्तमान में यहां जैन मंदिर हैं, अब प्राचीनता जिनालयों में दिखाई नहीं देती है। मूलनायक भगवान श्री भगवान् श्री सुपाश्र्वनाथ की प्रतिमा श्वेतवर्णी है।

धार: धार मालवा के पराक्रमी और संस्कारप्रिय राजा मुंज और प्रसिद्ध विद्वान राजा भोज की राजधानी थी, धनपाल जैसा प्रकाण्ड विद्वान भी इसी राजसभा की शोभा था। धनपाल द्वारा रचित ग्रन्थ जैन साहित्य की अमूल्य निधि हैं। भोज के समय कितने ही जैनाचार्य का यहाँ आवागमन होता रहता था, बाद में मुसलमान शासकों का अधिपत्य होने से हिन्दू और जैन मंदिर खण्डित किये गये, अनेक मंदिरों को मस्जिदों में परिवर्तित कर दिया गया, जिसका उदाहरण राजा भोज द्वारा निर्मित भोजशाला है।
यहां बनिपावाड़ी में एक प्राचीन जैन मंदिर है। मूलनायक भगवान आदीश्वर की प्रतिमा श्वेतवर्णी है तथा ४-५ फीट ऊँची है जिस पर से १२०३ का लेख है, इस मंदिर की अन्य प्रतिमाओं पर सं. १३६२, १३२८ और १५४७ के लेख हैं। परमार चाल में वहां संगमरवर का एक जैन मंदिर था, आज भी धार में बड़ी संख्या में जैन धर्मावलंबी रहते हैं, धार इन्दौर से ६५ कि.मी. की दूरी पर है।
श्रीलक्ष्मणी तीर्थ: मालवा और निमाड़ की सीमा पर अलीराजपुर से लगभग ६-७ कि.मी. की दूरी पर लक्ष्मणी ग्राम स्थित है, यह स्थान एक ओर जंगल में स्थित है तथा दाहोद रेलवे स्टेशन से अलीराजपुर होते हुए यहाँ पहुँचा जा सकता है, इस तीर्थ के विषय में किसी को कोई जानकारी नहीं थी किन्तु जब यहां भूगर्भ से चौदह जिन प्रतिमाएँ प्राप्त हुई तो और खोज हुई तब पाँच से सात मंजिले सात जिनालय, एक भव्य बावन जिनालय और वर्गाकार भूमि पर एक जैन मंदिर के स्तम्भ, तोरण जैन मूर्तियाँ आदि प्राप्त हुई, इन अवशेषों से इस तीर्थ की प्राचीनता ज्ञात होती है। यहाँ सं. १०९३ का लेख भी है। मूलनायक भगवान पद्मप्रभ के आसपास नेमिनाथ और मल्लिनाथ की बत्तीस उंची मूर्तियाँ है। भगवान आदिनाथ की दो बादामी प्रस्त की प्रतिमाएं तेरह इंची है, एक प्रतिमा पर सं. १३१० का लेख है, व्याख्यान वाचस्पति आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरिश्वरजी महाराज साहेब ने इस तीर्थ का जीर्णोद्धार करवाया था।

तालनपुर: दाहोद रेवले स्टेशन से लगभग एक सौ दस कि.मी. और कुक्षि से पांच कि.मी. की दूरी पर तालनपुर नामक एक प्राचीन जैन तीर्थ है, इसका प्राचीन नाम तुगियापवन या तारणापुर है। यहाँ सं. १९१६ में २५ जैन प्रतिमाएं निकली। सं. १९५० में कुक्षि जैन संघ ने एक मंदिर बनवाया था, उसी में जैन मूर्तियाँ प्राप्त हुयी। प्रतिमाओं पर कोई लेख नहीं है। मूर्तिकला के आधार पर प्रतिमाएँ विक्रम की छठी-सातवीं शताब्दी की प्रतीत होती है। मूलनायक श्री गोड़ी पाश्र्वनाथ है और इस प्रतिमा पर सं. १०२२ का लेख है, दूसरा मंदिर भगवान आदिनाथ का है। मूलनायक के दाहिनी और चौथी प्रतिमा के आसन पर संवत ६१२ का लेख है, जो विचारणीय है, संभवत: प्रस्ताव में एक मिट गया हो। यह लेख सं. १६१२ का संभावित लगता है। यहां कार्तिक पूर्णिमा और चैत्र पूर्णिमा पर प्रतिवर्ष मेला लगता है। ग्राम के आसपास के अवशेष इसकी प्राचीनता और समृद्धि के प्रतीक है।

भोपावर तीर्थ: रतलाम से बम्बई की ओर मेघनगर रेलवे स्टेशन से लगभग ६५ कि.मी. की दूरी पर राजगढ़ नामक एक कस्बाई ग्राम है। राजगढ़ के दक्षिण में लगभग ७.५ कि.मी. की दूरी पर भोपावर जैन तीर्थ है। यहाँ भगवान शांतिनाथ का एक सुन्दर जिनालय है। मूलनायक की प्रतिमा बारह फीट ऊँची है जो भव्य एवं तेजस्वी है। हाथ के नीचे नौ देवियों की प्रतिमाएँ हैं। मूलनायक के बायीं ओर भगवान चन्द्रप्रभ आदि की प्रतिमाएँ हैं। बाहरी भाग में महाराज शीतलनाथ की प्रतिमा है और ऊपरी भाग में महाराज चंद्रप्रभ एवं महावीर स्वामी आदि की प्रतिमा है, यहां प्रति वर्ष मगसर कृष्णा दशमी को मेला लगता है। मंदिर के सभा मंडप और शिखर में कांच का काम है।
श्री मोहनखेड़ा तीर्थ: प्रात:स्मरणीय विश्वपूज्य गुरूदेव श्रीमज्जैनाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरिश्वर जी महाराज साहेब ने युवक श्रीलूणाजी पोरवाल को प्रेरणा प्रदान कर राजगढ़ जिला धार के निकट एक तीर्थ का निर्माण प्रारम्भ करवाया गया। वि. सं. १९४० का चातुर्मास गुरुदेव का राजगढ़ में था। मंदिर का निर्माण पूर्ण होने पर गुरूदेव ने वि.सं. १९४० मृगशीर्ष शुक्ला सप्तमी को मूलनायक भगवान ऋषभदेव आदि ४१ जिनबिम्बों की अंजनशलाका की। प्रतिष्ठा के साथ ही गुरूदेव ने इस तीर्थ के विशाल रूप धारण करने की घोषणा के साथ इस तीर्थ का विकास होता रहा, यहां वि.सं. १९९१ में आचार्य श्री यतीन्द्र सूरिश्वर जी महाराज साहेब की प्रेरणा से प्रथम जीर्णोद्धार हुआ। तीर्थ का द्वितीय जीर्णोद्धार कविरत्न आचार्य श्रीमद् विजय विद्याचन्द्र सूरिश्वर जी महाराज साहेब की प्रेरणा एवं मार्गदर्शन में हुआ, वस्तुत: आचार्य श्रीमद् विजय विद्याचन्द्रसूरिश्वर जी महाराज इस तीर्थ के विस्तार के शिल्पी थे, उनके मानस में इस तीर्थ के विकास की परिपूर्ण रूपरेखा थी। द्वितीय जीर्णोद्धार के समय वि.सं. २०३४ माघ शुक्ला द्वादशी रविवार को ३७७ जिनबिम्बों की अंजनशलाका की और अगले दिन माघ शुक्ला त्रयोदशी सोमवार को तीर्थधराज मूलनायक श्री ऋषभदेवप्रभु, श्री शंखेश्वर पाश्र्वनाथ व श्री चिंतामणि पाश्र्वनाथ आदि ५१ जिनबिम्बों की प्राण प्रतिष्ठा की व शिखरों का दण्ड, ध्वज व कलश समारोपित किये गये, साथ ही अन्य प्रतिमाएँ भी प्रतिष्ठित की गई, इसी अवसर पर आचार्य भगवंत ने गुरूदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरिजी महाराज की समाधि का भी जीर्णोद्धार किया गया व दण्ड ध्वज व कलश चढ़ाये गये।
यहाँ वर्तमान जिनालय भव्य रूप से बना हुआ है। मूलनायक भगवान की इकतीस इंच की सुदर्शन प्रतिमा है। मंदिर के ऊपरी भाग में भगवान शांतिनाथ भगवान का मंदिर है, मुख्य मंदिर के बायी ओर भगवान आदिनाथ का त्रिशिखरी मंदिर है, यहाँ गुरूदेव आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरि जी महाराज का समाधिमंदिर है जो अब स्वर्णजड़ित बन चुका है, यह समाधि मंदिर अति भव्य है। मूल रूप से उसकी प्रतिष्ठा आचार्य विजय भूपेन्द्र सूरि जी महाराज ने सं. १९८१ जेष्ठ शुक्ला द्वितीया को की गयी थी, पुन: प्रतिष्ठा आचार्य विजय यतीन्द्र सूरि जी महाराज द्वारा हुई। गुरूदेव का समाधि मंदिर दर्शनार्थियों को आकर्षण का केन्द्र हुआ है, आचार्य विजय विद्याचन्द्र सूरि जी महाराज का समाधि मंदिर भी यहीं है।
वर्तमान में श्री मोहनखेड़ा तीर्थ देश के विकसित तीर्थों में से एक है, यहाँ तीर्थ यात्रियों के लिए आवास, भोजन, अवागमन, दूरसंचार आदि की सुविधाएं उपलब्ध हैं, इतना सब होते हुए भी निर्माण कार्य चल ही रहे हैं, यहां हाईस्कूल तक अध्यापन की सुविधाएँ तथा शोध संस्थान भी है। प्राणिमात्र की सेवा को ध्यान में रखते हुए यहां क्षेत्र चिकित्सालय एवं गोशाला भी है।

राज्यपाल को पत्र लिख आरोग्य दानं योजना से करवाया गया अवगत

उज्जैन : आल मीडिया जर्नलिस्ट सोशल वेलफेयर एसोसिएशन के संस्थापक अध्यक्ष विनायक अशोक लुनिया ने देश के १९ राज्यों के मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखकर मीडिया संगठन एवं जैन मीडिया सोशल वेलफेयर सोसायटी के बैनर तले संचालित होने जा रहे स्वास्थ योजना ‘आरोग्य दानं’ से अवगत करवाया, श्री लुनिया ने पत्र में बताया कि देश भर में कितनी बड़ी तादात में दवाओं की बर्बादी हो रही है तो वहीं देश बड़ी तादात में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग दवाओं के अभाव में दम तोड़ रहे हैं। सरकार भी कई स्वास्थवर्धक योजनाएं चलाती है, किंतु उसमें सरकार की एक मोटी रकम भी खर्च होती है, लेकिन ‘आरोग्य दानं’ आम जनता के पास से बची हुई दवाओं को प्राप्त करके, दवा बाजार एवं मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव से भी दवाओं का सहयोग लेकर जरूरतमंद मरीजों को दवा निःशुल्क उपलब्ध करवाया जाएगा, श्री लुनिया ने कहा कि उक्त योजना से सरकार पर भी स्वास्थ्य संबंधित दवाओं में दिए जाने वाले अनुदान के बोझ में कमी आएगी।

योजना प्रभारी राष्ट्रीय अध्यक्ष शिव चौरसिया ने बताया कि उक्त योजना संस्थापक अध्यक्ष विनायक अशोक लुनिया जी के द्वारा संस्थापक स्व. श्री अशोक जी लुनिया जी को श्रद्धांजलि स्वरूप होगा। उक्त योजना का कुशल नेतृत्व संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष सचिन कासलीवाल जी करेंगे, वहीं योजना को सम्पूर्ण देश में पहुंचाने एवं कुशल संचालन की जिम्मेदारी देश भर से संगठन का प्रतिनिधित्व करने वाले ४१ पदाधिकारियों की रहेगी, जो कि अपने क्षेत्र में योजना संबंधित समिति का गठन कर योजना का संचालन करेंगे।

क्या है आरोग्य दानं, कैसे करेंगे कार्य – आरोग्य दानं योजना भारत में प्रतिदिन अनुपयोगी दवाएं एक्सपायर होने के कारण बर्बाद हो जाती है जिसका देश भर में न्युनतम अनुमानित मूल्य २ करोड़ रुपये प्रतिदिन के करीब आंका गया है, वही देश भर में केंद्र व राज्य सरकारों के माध्यम से विभिन्न योजनाओं में निःशुल्क दवा व सहायता राशि से कम मूल्यों पर दवा उपलब्ध करवाने में सरकार करोड़ों रूपये प्रतिदिन का अनुदान देती है। आरोग्य दानं योजना उन अनुपयोग दवाओं को अपने कार्यकर्ताओं के माध्यम से एकत्रित कर स्वास्थ विभाग / चिकित्सज्ञों के सहयोग से शिविर व सेंटरों के माध्यम से जरूरतमंद गरीब मरीजों को निःशुल्क रूप से दवाएं उपलब्ध करवाएगी, जिससे जरूरतमंद को जहां दवायें प्राप्त हो जाएगी, वही उपयोग में ना आ पाने के कारण घरों में पड़ी-पड़ी दवायें एक्सपायर हो जाने से देश मे करोड़ो रुपयों की बर्बादी होने से बचेगी जिसके फल स्वरूप सरकारों को अनुदान के साथ सस्ती या निःशुल्क दवाएं उपलब्ध करवाए जाने वाले योजना में आर्थिक बचत होगी जो कि देश हित में अन्य कार्यों में लगायी जा सकेगी।
क्या चाहिए सहयोग– स्थानीय स्वास्थ विभाग हमें प्रदेश के प्रत्येक जिले में स्वास्थ्य विभाग से जिले के समस्त तहसील में एक चिकित्सज्ञ की सुविधा की जरूरत होगी जो कि मरीजों को जरूरत की दवायें हमारे स्टॉक के अनुसार सबस्टीटयूट दे सके, जिस पर हमारे द्वारा स्वास्थ्य सेवा सहयोगी दवा का निःशुल्क वितरण कर सके।

स्थानीय जिला प्रशासन– स्थानीय जिला प्रशासन का सहयोग, स्थानीय जिला प्रशासन का सहयोग इस योजना में बेहद महत्वपूर्ण है, हमें जिला प्रशासन से क्षेत्र की जनता को इस योजना में जुड़ने के लिए प्रोहत्साहित करने में सहयोग की आवश्यकता है, जिला प्रशासन के द्वारा स्वास्थ केंद्रों में आरोग्य दानं योजना के लिए एक सहयोग डेस्क की भी जरूरत रहेगी।
यातायात में सहयोग– योजना के संचालन एवं प्रचार के लिए सम्पूर्ण प्रदेश में स्वास्थ्य विभाग एवं कार्यकर्ता व प्रचारक समिति द्वारा यातायात के दौरान टोल नाकों पर संगठन के कार्यकर्ताओं को टोल छूट हेतु प्रशासन के द्वारा मान्यता पत्र जारी करने में सहयोग।
स्थानीय पुलिस प्रसाशन से सहयोग – दानं योजना में संगठन के माध्यम से सेवा कार्य करने वाले कार्यकर्ताओं का थाना क्षेत्र स्तर पर संगठन के द्वारा परिचय पत्र को अधिकृत कर कार्य में सहयोग प्रदान करने की अपेक्षा।
इन राज्यों में होगा योजनाओं का संचालन – मध्य प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात, हरियाणा, झारखण्ड, कर्णाटक, महाराष्ट्र, ओड़िशा, पंजाब, राजस्थान, सिक्किम, तमिलनाडु, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, चण्डीगढ़, दिल्ली एवं पुडुच्चेरी में योजनाओं का संचालन संगठन के कार्यकर्ताओं एवं पदाधिकारीगण द्वारा प्रसाशन के सहयोग से नियमानुसार किया जायेगा।

पूर्ण योजना होगी ऑनलाईन मोनिटराईज – सम्पूर्ण दान में प्राप्त दवाओं का विवरण एवं दान दाताओं का नाम पता मोबाईल न. वेबसाईट पर अंकित किया जायेगा, जिससे यह पता चल सकेगा कि कितने मूल्य की दवायें प्राप्त हुयी है, वहीं योजना का लाभ लेने वाले मरीजों का भी विवरण नाम, पता, मोबाईल क्र. व डॉक्टर का पर्चा ऑनलाईन होगा अपडेट।

प्रधानसेवक का महान कार्य..!

भारत के प्रधान सेवक नरेंद्र मोदीजी ने भारतीय एकता के परम समर्थक सरदार वल्लभ भाई पटेल का विश्व का सबसे ऊँचा ‘‘स्टेच्यू’’ बनाकर एक महान आदर्श उपस्थित किया है जो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी सहयोगी थे, आपसी मतभेद थे किंतू मनभेद नहीं था, इसलिए वे आदरभाव रखते थे। मेरा काँग्रेस नेताओं से अनुरोध है कि प्रधान सेवक के इस महान कार्य की प्रशंसा करे।

- अ‍ेम. सी. जैन, चिकलठाणा

कृष्ण ने कर्म, राम ने मर्यादा और महावीर ने मुक्ति सिखाई

परमपूज्य आचार्यश्री सुनील सागरजी महाराज ने अपने मंगल प्रवचन में कहा कि मनुष्य के साथ ४ तरह की परिस्थिति घटती है, परतंत्र में जन्म होना, परतंत्रता में ही मरण होना, परतंत्र में जन्म होना, स्वतंत्र होकर मरना, स्वतंत्रता में जन्में और परतंत्र होकर मरना और स्वतंत्रता में जन्म लेना और पूर्ण स्वतंत्र होकर जाना।
आज नवम नारायण श्रीकृष्ण का जन्म दिवस है, जिनका सबसे अधिक प्रतिष्ठित नाम है।
देखा जाए तो देश में सर्वाधिक प्रतिष्ठा श्रीराम, कृष्ण और महावीर ने पाई है, कृष्ण ने अपने जन्म से ही जैसे उपदेश देना प्रारम्भ कर दिया था, उनका जन्म तो कारागृह में हुआ, तो इससे यह सीख मिलती है कि यह जरूरी नहीं कि मरण भी कारागृह में ही हो। जन्म कहीं भी हो लेकिन अपने पुरुषार्थ से परतंत्रता में भी पूज्यता प्राप्त कर परमहंस बन सकते हैं। कृष्ण उनके माता-पिता के ७वें पुत्र थे, उनके पहले ६ पुत्रों को मार दिया गया था, वे कहते थे जब-जब विपरीत परिस्थिति आती है तब-तब वह जन्म लेते हैं, लेकिन आज सृष्टि पर इतना आतंक होने के बावजूद भी वह जन्म नहीं ले पाते, क्योंकि अपने देश का सिद्धान्त है हम दो हमारे दो, अत: या तो ब्रह्मचर्य का पालन करें या तो गर्भ में आये बालक का जन्म होने दें, गर्भपात जैसा महापाप न करें, सब जीव का अपना-अपना भाग्य है।
क्या पता कौन श्रीकृष्ण, राम, महावीर या गांधी बन जाए, आगे उनके चरित्र पर प्रकाश डालते हुए आचार्यश्री कहते हैं कि वह बचपन से शरारती, उद्यमी थे, जो यह सीस देता है कि शरारती बच्चा ही महारथी बनता है, हमेशा बच्चों की चंचलता का सदुपयोग करें, लोगों के सामने उसकी निंदा न करें, उनकी शक्ति व सामथ्र्य को समझें।
बच्चे नादान होते हैं हजार संकट हों लेकिन जब बच्चों को देखेंगे तो सब भूल जाते हैं, वे ही मनोरंजन का साधन बन जाते हैं डरना और किसी को मारना मत सिखाओ, उनके कोमल मन पर तुरंत छाप पड़ती है और कहते हैं स्वदेशी चीजों का अपन भरपूर उपयोग करें, कृष्ण ने कर्म सिखाया, राम ने मर्यादा और महावीर ने मुक्ति सिखाई, विकास के लिए तीनों जरूरी है। बच्चों को स्वतंत्रता व सही संस्कार से प्रोत्साहन हो तो माता-पिता से भी आगे बढ़ सकते हैं।
दुर्योधन और कंस जैसे लोग स्वतंत्रता में जन्में और अपने कर्म से परतंत्र होकर मरे। महावीर स्वतंत्र आए और पूर्ण स्वतंत्र होकर चले गए, अपना जन्म भले ही परतंत्रता में हुआ पर स्वतंत्र परिवार व धर्मशासन में अपनी आत्मा को निर्मल करने का पुरुषार्थ करिए, श्रीकृष्ण के जीवन से तत्व की बातें लेकर जीवन मंगलमय बनायें, यही शुभाशीष…

आचार्यश्री सुनील सागरजी

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