श्वेताम्बर एवं दिगम्बर समुदाय

श्वेताम्बर एवं दिगम्बर समुदाय के लाखों परिवारों की मनोभावना के अनुकूल की सम्मेद शिखर जी के सम्बन्ध में चल रहे विवाद की समाप्ति के संदर्भ में करबद्ध विनम्र अनुरोध प्रिय श्रावकगण

अभी सर्वोच्च न्यायालय में सम्मेद शिखर जी के संदर्भ में चल रहे मुकदमे की सुनवाई होने को है और श्वेताम्बर तथा दिगम्बर दोनों ही पक्षों के लोग उनके द्वारा नियुक्त देश के जाने-माने विख्यात अधिवक्तागण लाखों रूपयों की प्रतिदिन आमदनी लेने में आनन्द का अनुभव कर रहे है। दान से प्राप्त राशि का ऐसा दुरूपयोग होते रहने से समग्र देश के अधिकांश यानि ९९% से अधिक जैन श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों समुदायों के लोग दुखित है।
भगवान महावीर के उपासक जो अपरिगृह के पुजारी बताये जाते हैं उनके द्वारा जैन धर्म के सिद्धान्तों की धज्जियां उड़ाते हुए चल रहे मुकदमे को आपसी समझोते से निवारण नहीं करा कर दान के रूप में प्राप्त करोड़ों रूपये की राशि को रवाना करने में जो लोग प्रत्यक्ष/ परोक्ष रूप से सहभागी हैं उन्हें भगवान महावीर के आदर्श कभी माफ नहीं करने देगी, धारणा मेरी ही नहीं बल्कि हजारों-हजार श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परिवार की है।
ऐसी कोई समस्या नहीं है जिसका निदान सम्भव नहीं और कोर्ट के निर्णय के पश्चात् जो गांठ बंधेगी वह कभी नहीं टूट पायेगी, इसके लिए दोनों ही समुदाय के लोग जिम्मेदार होंगे। परम आदरणीय एक न्यायमूर्ति उच्च न्यायालय महोदय ने इस मामले की सुनवाई करते हुए दुखित मन से यह टिप्पणी करते हुए ऐसे लोगों की मानसिकता में परिवर्तन हेतु कहा कि भगवान महावीर के उपासक जिन्होंने समस्त विश्व को अपरिगृह, अहिंसा, करूणा एवं मैत्री का पाठ पढाकर उस सिद्धान्त को मानने वाले दोनों ही पक्षों के लोग झगड़ालुओं की तरह झगड़ा कर रहे हैं।
एक श्रावक के नाते आप लोग जिन्हें देश के जैन समुदाय के लोग अग्रणी व्यक्ति मान रहे हैं उनसे विनम्र अनुरोध है कि जैन धर्म की मर्यादा के हित में और जैन समाज की एकता के हित में कोर्ट को संयुक्त आवेदन देकर न्यायालय को आपसी समझोते की प्रक्रिया की जानकारी देते हुए दोनों ही पक्ष मुकदमा वापस ले और न्यायालय के बाहर दोनों ही पक्षों के चार-चार लोग तथा नौवें व्यक्ति का चयन दोनों की सहमति से कर वर्ष २००७-२००८ के समझोते में आपसी सहमति बनाकर और आवश्यकतानुसार दोनों की सहमति प्राप्त कर, जैन संस्कारों के अनुरूप इस उलझन भरी समस्या का निदान करें, ऐसा हो जाने पर पूरे देश के श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दीप जलाकर आप महानुभावों के प्रति श्रद्धा सुमन अर्पित करेंगे क्योंकि इस ऐतिहासिक फैसले के कर्णधार आप ही लोग होंगे।
आशा है ऐसे ऐतिहासिक फैसले के लिए आप लोग आशानुरूप मानसिकता बनाकर जैन इतिहास में एक स्वर्णिम कार्य कर जैन मर्यादा को सुरक्षित रखेंगे। परम आदर सहित।

- एम.पी. अजमेरा
वर्तमान की सर्वोच्च आवश्यकता जैन धर्म गुरूओं एवं समाज के कर्णधारों से एक मार्मिक अपील विभिन्न आयोजनों पर भारी खर्च एक चिन्तनीय स्थिति

(क) हमारे पूजनीय आचार्य एवं मुनिगण तथा राष्ट्रीय स्तर के श्वेताम्बर एवं दिगम्बर समाज में अग्रणी महानुभावों से आमजनों की भावनाओं का यह प्रेषण करते हुए विनम्र निवेदन है कि इन बिन्दुओं पर गंभीरता पूर्वक विचारोपरान्त निर्णय लेकर ऐतिहासिक उपलब्धियों से समाज का गौरव बढ़ावें।
१. विद्यालयों की स्थापना: युवा पीढ़ी में जैन संस्कारों की शून्यता प्रबल रूप में जो दिख रही है उसमें सुधार के लिए अपने सम्पूर्ण भारत के सभी प्रमुख प्रदेशों में कम से कम एक जैन संस्कारों से परिपूर्ण विश्व स्तरीय शिक्षा का स्तर लिए आवासीय व्यवस्था के साथ शिक्षालयों की स्थापना वर्तमान की सर्वापरि आवश्यकता है ताकि हम अपनी युवाओं में तथा आने वाले पीढी में जैन संस्कारों की उपलब्धता प्राप्त कराकर एक सुन्दरतम वातावरण की स्थापना में योगदान करें।
अगर विश्व विख्यात तीर्थ की सदा-सदा के लिए सुरक्षा करनी है तो वहां पर संस्कार युक्त राष्ट्र स्तरीय, आवासीय विद्यालय की स्थापना करना आवश्यक है, ताकि इस विद्यालय के माध्यम से मधुबन पंचायत में बसे बच्चों को तथा अन्य बच्चों को संस्कार युक्त भगवान महावीर के आर्दशों के अनुरूप उच्च स्तरीय शिक्षा प्रदान कर सम्पूर्ण क्षेत्र में अपनी ऐसी उपस्थिति दर्ज करे, ताकि वहां के सारे परिवार हमारे अनुसार चलें।
२. २४ तीर्थंकरों के नाम आदर्श ग्रामों का सम्यक चयन: जैन-धर्म में २४ तीर्थंकर हुए है जिनके प्रत्येक के नाम से एक-एक ग्राम का चयन कर उसे गोद लेकर आर्दश ग्राम बनाने की आवश्यकता है, ताकि हम राष्ट्र की मुख्यधारा में अपने दायित्वों के निर्वाहन करने के साथ-साथ उक्त ग्राम में अहिंसा युक्त वातावरण बनाते हुए निरामिष एवं नशामुक्त ग्राम बनावें तथा उक्त ग्राम के रहने वाले सारे लोग को सरकार से मिलने वाली सभी सहायता का पूर्ण लाभ ग्रामजनों को दिलावें एवं ऐसा वातावरण तैयार करावें जहां भगवान महावीर के आदर्शों के अनुरूप ग्राम निर्माण में सहयोग कर एक आदर्श उपस्थित करें।
३. सभी जैन धर्मावलम्बियों का एक संगठन: वर्तमान में न केवल श्वेताम्बर-दिगम्बर बल्कि इनमें भी अनेक आन्तरिक संगठनों की प्रबलता के प्रतिफल आज सामाजिक तथा राजनैतिक क्षेत्र में हमारी कोई पहचान नहीं है, अभी अजैन लोग अपने सभी समाज को विखन्डित समाज की संज्ञा देते हैं। वर्तमान की सर्वोच्च आवश्यकता है कि हम सब अपने भेदभाव भुलाकर एक सूत्र में बंधकर प्रगति पथ के पथिक बने और पूरे देश के जैन धर्मावलम्बियों को एक नई दिशा दें ताकि हमारी पहचान सर्वत्र अन्य लोग महसूस कर सकें।
४. प्रशासनिक सेवाओं में हमारे अति विशिष्ट प्रतिभावान जैन छात्र-छात्राओं का प्रवेश: विशिष्ठ प्रतिभावानों को सिविल सेवा में जाने के प्रयास करना हमारी जैन समाज की सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए ताकि हमारे प्रतिभावान छात्र/छात्राएँ सिविल सेवा यथा IAS, IPS आदि में जाकर वर्तमान परिपेक्ष में आहत आमजनों को राहत मिल सके। समाज के सभी पुत्र गोद लेकर उन्हें प्रशासनिक सेवाओं के शीर्ष पर पहुँचाने में सहयोग करें तो नवीन जागरण प्रज्वलित होगा एवं ऐसे लक्ष्मी पुत्रों की आर्थिक सम्पन्नता का लाभ समाज को मिलेगा। हमारे ये प्रतिभावान अधिकारी जैन समाज एवं जैन धर्म की पताका सम्पूर्ण देश में आदरपूर्वक लहरायेंगे एवं मानवता की रक्षा कर पूरे देश को एक नई दिशा प्रदान करेंगे।

५. राष्ट्रस्तरीय शिष्ट मंडल का गठन कर हमारे पूजनीय आचार्यों मुनियों एवं माताजी आदि से मिलकर समाज एवं धर्म हित के वर्तमान परिपेक्ष में उनके प्रवचनों का लाभ मिले सेवा अनुरोध किया जाये:- राष्ट्रस्तरीय जैन समाज के शीर्ष महानुभावों से राय लेकर उनका एक शिष्टमंडल बनाकर समय निर्धारित कर आचार्यों एवं मुनी महाराजों से मिलकर उसने निवेदन करें कि वे अपने प्रवचनों में वर्तमान की आवश्यकता के अनुरूप और भगवान महावीर के आर्दशों के हितार्थ जैन समाज में फैले दिखावे पर प्रतिबंध करावें, ‘जैन एकता’ सुनिश्चित हो और विभिन्न आदर्श कार्यक्रमों को देने-दिलाने में उनकी भूमिका का लाभ जैन समाज को मिले और प्रतिवर्ष हो रहे करोड़ों रूपयों की बर्बादी पर अंकुंश लगाकर जनहित की व्यापक योजनाओं का संचालन जैन धर्म तथा जैन समाजों के हित में हो, इन धर्म गुरूओं के आशीर्वाद से उनके बताये मार्ग पर चलने में समस्त जैन समाज के लोग अपनी अग्रणी भूमिका निभाने में आगे आयेंगे एवं यह काल स्वर्णिम काल होगा, ऐसी भावना है। पूर्ववत मन्दिर निर्माण या जीर्णोद्धार अवश्य होता रहे जहां अति आवश्यक हो पर साथ-साथ इन आदर्श कार्यक्रमों पर भी उनका आशीर्वाद मिले।
निवेदन मात्र इतना ही है कि हमारे पूजनीय गुरूजन अपने प्रवचनों के माध्यम से इस वर्ष को और कम से कम आने वाले तीन बरसों में उपर्युक्त ४ मुद्दों को कार्य रूप में परिवर्तित करने हेतु दिशा निर्देश दें इससे समाज एवं जैन धर्म की प्रतिभा चमत्कृत होगी जो वर्तमान की सर्वोच्च आवश्यकता आमजन महसूस कर रहे है, अनावश्यक खर्च पर कड़ी पाबन्दी जैन समाज और जैन धर्म के व्यापक हित में होगा।

- (एम.पी. अजमेरा) L.A.S. (Rtd.) चीफ कोर्डिनेटर-तीर्थराज श्री शिखरजी जैन समन्वय समिति तथा संस्थापक अध्यक्ष प्रतिभा उत्थान परिषद एवं शिखर संस्कार निदेशक श्री सेवायतन ट्रस्ट मधुबन

स्वागत है ‘जैन एकता’ के सिपाहियों का

आचार्य श्री के.सी. महाराज के सानिध्य में नाहूर मुलुंड में पाश्र्वनाथ भगवान प्राण प्रतिष्ठा महोत्सव का आयोजन किया गया। कार्यक्रम में प्रसिद्ध उद्योगपति समाजसेवक चम्पालाल वर्धन को ‘भामाशाह रत्न’ से सम्मानित किया गया, समारोह में पृथ्वीराज कोठारी, प्रदीप राठोड़, सुभाष रूणवाल, सुखराज नाहर व विधायक राज के.पुरोहित पत्रकार प्रशांत जवेरी के साथ कई भक्तजनों का समावेश रहा।

हजारों श्रद्धालु के सानिध्य में जालना नगरी में गुरू गणेशलालजी म.सा. का पुण्यतिथि समारोह संपन्न

अनेक साधु-संत, राजकीय, सामाजिक एवं अन्य महानुभावों की उपस्थिति जालना दि. ४ फरवरी २०१९: जालना नगरी की पावन तपोभुमी में जैन समाज के आराध्य दैवत पु. गुरूदेव १००८ श्री गणेशलालजी म.सा. की ५७ वीं पुण्यतिथि समारोह में अनेक जैन साधु-संत, राजकीय, सामाजिक क्षेत्र के अनेक मान्यवर एवं अनेक महानुभाव, भारत भर से पधारे हजारों गुरू गणेश भक्तों के सानिध्य में बड़े ही धुमधाम व उत्साहपुर्वक मनाया गया।
ता. २ ते ४ फरवरी तक अनेक गुरूभक्तों का इस पुण्य भुमी पर तांता लगा रहा, तीन दिवशीय कार्यक्रम में धार्मिक रॅली, मोटर सायकल रॅली, गुरू गणेश भक्ती संध्या, तपस्या, त्याग, आराधना, आयंबील दिवस, तेला तप
आराधना आदि अनेक धार्मिक कार्यक्रमों भक्तों ने लाभ लिया। देश भर के करीब-करीब ३० ते ३५ हजार गुरू गणेश भक्त इस समारोह में शामिल रहे, इसमें लगभग अनेक नगरों से ४ ते ५ हजार भक्त पैदल यात्रा कर इस
पुण्यभुमी पर पधारे थे, इन सभी गुरू भक्तों के आवास, भोजन व्यवस्था जालना में स्थित कई मंगल कार्यालय, स्कुल, फ्लॅट, रो हाऊस, लॉन्स आदि जगह पर सुनियोजीत रूप में व्यवस्था की गई थी।
समारोह सफल बनाने में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, जालना के संघपती स्वरूपचंद रूणवाल, अध्यक्ष डॉ. गौतमचंद रूणवाल, उपाध्यक्ष नरेन्द्रकुमार लुणिया, महामंत्री स्वरूपचंद ललवाणी, सहमंत्री भरत गादिया, कोषाध्यक्ष विजयराज सुराणा, संजयकुमार मुथा, सुदेशकुमार सकलेचा, डॉ. धरमचंद गादिया, कचरूलाल कूंकूलोळ, डॉ. कांतीलाल मांडोत, सुरजमल मुथा, मार्गदर्शन मंडल के सभी सम्माननिय सदस्य, समाज के गुरू गणेश भक्त युवाओं ने अथक परिश्रम किया।

श्रीमती सोनाबाई श्राविकाश्रम

बात उस समय की है जब सम्पूर्ण भारत वर्ष स्वतंत्रता आंदोलन की लड़ाई लड़ रहा था, उस समय भी केवल स्वतंत्रता प्राप्त करना ही चुनौती नहीं थी अपितु और भी अनेकानेक समस्याओं से, जिनसे भारत घिरा हुआ था, जिनमें प्रमुख रूप से स्वाधीनता, शिक्षा, बुनियादी सुविधायें, महिला सुरक्षा, विधवा उत्पीड़न पर रोक आदि अनेकानेक समस्यायें मौजूद थी, ऐसे समय में व्यक्ति हो या समाज इन समस्याओं में से किसी भी एक समस्या को केन्द्रित करके अपने-अपने स्तर से दूर करने के प्रयास में लगे हुए थे।
१२-१५ वर्ष की आयु में विवाहित ऐसी महिलायें जो कम समय में ही पति वियोग में विधवा हो जाती थी, समाज के दबाव के कारण पुन: विवाह करने का साहस नहीं कर सकीं, जिन्हें समाज में अपशकुन के रूप में तिरस्कृत किया जाता था, ऐसी समस्त विधवा महिलाओं के उत्थान के लिए काम करने वाली करुणामयी माँ का नाम था श्रीमती सोनाबाई जैन, पत्नी रायबहादुर श्रीमंत सेठ मोहनलाल जैन का संक्षिप्त परिचय समस्त जैन समाज की एकमात्र पत्रिका ‘जिनागम’ के प्रबुद्ध पाठकों के लिए प्रस्तुत: श्रीमती सोनाबाई ने एक माँ के ह्य्दय से विचार करते हुए ऐसी समस्त विधवा महिलाओं हेतु एक श्राविकाश्रम के निर्माण का विकल्प पाला और उस विकल्प को पूर्ण करती हुई उन्होंने अपने परिवार से प्राप्त आर्थिक सहयोग से सन् १९२४, वीर निर्वाण संवत् २४५० को मांगलिक अक्षय तृतीया के शुभ दिन एक श्राविकाश्रम के प्रारंभ की मंगल उद्घोषणा की, इस श्राविकाश्रम की घोषणा के बाद से ही इसमें अनवरत् विधवा बहिनों के आवास, भोजन, धार्मिक अध्ययन आदि की नि:शुल्क व्यवस्था श्रीमंत परिवार के द्वारा की जाने लगी।
धीरे-धीरे समय व्यतीत होता रहा और सन् १९६०-१९६५ के लगभग वह समय आ गया जब विधवाओं की स्थिति समाज में सम्माननीय हो गई और श्राविकाश्रम में विधवाओं का आना कम हो गया, परन्तु यह कारवाँ रुका नहीं, वो महिलाएं जो आर्थिक रूप से कमजोर थीं या जिनके पालक उनका भरण-पोषण करने में असमर्थ थे।

विधवाओं और निर्धन बलिकाओं का यह क्रम अद्यतन १९२४-१९२५ से १९७८-१९७९ तक चलता रहा।
समय परिवर्तन के साथ सामाजिक स्थिति और सुदृढ़ हुई, साथ ही लोगों की विचारधारा में भी परिवर्तन आया और धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ लौकिक शिक्षा की आवश्यकता महसूस की गई, जिसके उपचार हेतु संस्था द्वारा प्रयास किये गए, यहाँ निवासरत् समस्त बालिकाओं को लौकिक शिक्षा हेतु एस. पी. जैन गुरुकुल उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में अध्ययन के लिए भेजा जाने लगा।
आज के वर्तमान समय में भी यह श्राविकाश्रम अपने उद्देश्य को पूरा करने में दृढ़ संकल्पित है, जिसका परिणाम यह है कि आज भौतिकता के युग में भी लगभग ५० बालिकायें इस श्राविकाश्रम में रहकर लौकिक एवं परलौकिक शिक्षा का अध्ययन कर रही हैं, जिसकी सम्पूर्ण व्यवस्था आज भी श्रीमंत परिवार के द्वारा ही की जा रही है। एक बात ध्यान देने योग्य है कि इस श्राविकाश्रम के संचालन में कोई रुकावट न आये इस हेतु श्रीमंत परिवार के द्वारा ही एक खेती योग्य उपजाऊ भूमि का विशाल भाग इस श्राविकाश्रम हेतु दान किया गया है ताकि इसके संचालन में कभी किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न न हो सके, बढती हुई बालिकाओं की संख्या को देखकर सन् १९९८, वीर निर्वाण संवत् २५२४, विक्रम संवत् २०५५ को एक नवीन भवन का निर्माण कराया गया और जिसका उद्घाटन तात्कालिक अखिल भारतीय दिगम्बर जैन परिषद् की प्रदेश अध्यक्षा श्रीमती डॉ. विमला जैन एवं ओजस्वनी पत्रिका की संपादक भाजपा की प्रदेश अध्यक्ष श्रीमती सुधा मलैया के कर कमलों से हुआ। वर्तमान समय श्राविकाश्रम के लिए गौरवान्वित करने वाला है क्योंकि आज यहाँ की बालिकायें पढ़-लिख कर परिवारों तक संकुचित नहीं हैं अपितु कई छात्रायें डॉक्टर, इंजीनियर, चार्टर्ड अकाउण्टेंट, वकालत जैसे क्षेत्रों से जुड़ी हैं या उनकी तैयारी में हैं, यहाँ केवल लौकिक शिक्षा पर बल नहीं दिया जाता अपितु अपने जीवन को जैनागम के अनुसार कैसे मोक्षमार्ग में लगाया जाये इसका भी पाठ पढ़ाया जाता है, जिसका परिणाम यह हुआ कि यहाँ अध्ययनरत् कुछ बालिकायें अपने जन्म-मरण के अभाव हेतु आर्यिका व्रत को भी धारण कर चुकी हैं और आत्मा आराधना में लीन हैं।

आज भी इस श्राविकाश्रम में उन्हीं छात्राओं को प्रमुखता दी जाती है जो या तो निर्धन हैं, जिनके माता-पिता (दोनों की या किसी एक की भी) की अनुपस्थिति है, किसी संबंधी के आश्रित हैं या फिर जिनके यहाँ विद्यालय के अभाव में आगे शिक्षा की कमी है, यदि किसी छात्रा की स्थिति आर्थिक रुप से बहुत कमजोर है तो उनके विवाह आदि का प्रबंध भी श्री सोनाबाई दिगम्बर जैन श्राविकाश्रम के द्वारा कराया जाता है। श्री सोनाबाई दिगम्बर जैन श्राविकाश्रम नित नई ऊँचाइयों को स्पर्श करते हुए निरंतर प्रगति पर है, जिस उद्देश्य से श्राविकाश्रम की स्थापना की गई थी उसी उद्देश्य से आज भी कार्यरत् है।

-प्रयंक जैन

श्री दिगम्बर जैन लाल मंदिर

महाराज और पूज्य गणेशप्रसाद जी वर्णी के मंगल आशीर्वाद से गुरूकुल छात्रावास की स्थापना हुई तो छात्रों के लिए जिनशासन की दिनचर्या से रूबरू कराने के लिए जिनमंदिर एवं जिनबिम्ब की आवश्यकता महसूस की गई, यदि जिनप्रतिमा ही न हो तो छात्रों को जिनेन्द्र अभिषेक, पूजन, प्रक्षाल आदि कैसे सिखाया जाये, इसी विकल्प की पूर्ति सन् १९५३ में एक चैत्यालय की स्थापना की गई और देवाधिदेव १००८ भगवान पाश्र्वनाथ के भाववाही जिनबिम्ब को स्थापित किया गया। कुछ समय पश्चात् सम्पूर्ण सकल दिगम्बर जैन समाज के सहयोग से संस्था की अदभुत छटा से बिखेरने हेतु सन् १९७५ में ३५ फुट ऊंचे एक गगनचुम्बी मानस्तम्भ का निर्माण कराया गया, जिसकी वेदी प्रतिष्ठा आध्यात्मिक सत्पुरूष पूज्य गुरूदेव श्री कानजी स्वामी की मंगलकारी उपस्थिति में पंडित जगनमोहनलाल जी, कटनी वालों के निर्देशन में सम्पन्न हुआ, इस महोत्सव को ऐतिहासिक बनाने के लिए आर्थिक सहयोग अजमेर के कुबेर भागचंद जी सोनी का प्राप्त हुआ, तब से लेकर आज तक इसकी धवल छटा चतुर्दिक बिखरी रहती है साथ ही प्रत्येक आगन्तुक को गुरूकुल के धार्मिक वातावरण से परिचय कराता है।
जैसे- जैसे समय व्यतीत हुआ वैसे- वैसे छात्रों की बढ़ती संख्या, दर्शनार्थियों की बढ़ती संख्या एवं चैत्यालय जी के जीर्णशीर्ण होने के कारण श्रीमंत सेठ धर्मेन्द्र कुमार जी की प्रेरणा से एवं श्री सिंघई आलोकप्रकाश जी के निर्देशन में चैत्यालय के स्थान पर नवीन शिखरयुक्त द्विमंजिल दिगम्बर जैन मंदिर का निर्माण कार्य प्रारंभ हुआ और मंदिर निर्माण पूर्ण होने पर १६ फरवरी २००२ को अध्यात्म सरोवर के राजहंस, संत शिरोमणि आचार्य श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज की परम शिष्या १०५ आर्यिका पूर्णमति माता जी के सानिध्य में सम्पूर्ण विधि-विधान के साथ वेदी प्रतिष्ठापूर्वक श्री जी को नवीन जिनमंदिर में स्थापित किया गया, इस मंदिर का निर्माण लाल पत्थर से होने के कारण इसे लाल मंदिर भी कहा जाने लगा, श्री लाल मंदिर में छोटे बड़े कुल २३ शिखर हैं तथा इस मंदिर जी में कमलाकर मूलवेदी पर भगवान श्री १००८ पाश्र्वनाथ जी विराजमान हैं तो वहीं एक तरफ शासननायक भगवान महावीर स्वामी तो दूसरी ओर भगवान चंद्रप्रभ विराजमान हैं।

-प्रयंक जैन

अमृतवाणी अनुभव

‘हम’ की शक्ति पहचानें, जिनशासन को महकाएँ

आध्यात्मिक जगत में ‘मैं’ का विराट स्वरूप है ‘हम’ ‘हम’ अर्थात अपनापन ‘हम’ अर्थात एकता। ‘हम’ अर्थात ‘वासुधैव कुटुंबकम’। ‘हम’ अर्थात समस्त आत्माएं। जहाँ ‘हम’ हैं, वहाँ ‘मैं’ का समर्पण हो जाता है। जहां ‘हम’ है वहां संगठन है। जहां ‘हम’ हैं वहाँ संघ है |
‘संघे शक्ति कलीयुगे’। नन्दी सूत्र में संघ को नगर, चक्र, रथ, सूर्य, चंद्र, पद्म सरोवर, समुद्र, सुमेरू आदि विशेषणों से अलंकृत किया है। संघ की महिमा अपार है। आगमों में ‘णमो तित्थस्स’ के द्वारा साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका इन चार तीर्थ रूपी संघ की महिमा को उजागर किया है। जिनशासन में ‘हम’ भावना का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है कि मोक्ष मार्ग का साधक अपने स्व-कल्याण के साथ ही सभी के कल्याण की भावना रखे, इस हेतु स्वयं प्रभु महावीर ने अपनी अंतिम देशना में उत्तराध्ययन सूत्र के ग्यारहवें अध्य्यन ‘अहुस्सूयपुज्जं’ में साधु के आचार का वर्णन करते हुए इसकी अंतिम गाथा में कहा है-
‘तम्हा सुय महिट्ठिज्जा, उत्तमट्ठ गवेसये।  जेण अप्पाणं परं चेव, सिद्धिं सम्पाउणिज्जासि।।’
उपरोक्त गाथा द्वारा ‘हम’ भावना का महान आदर्श समग्र विश्व को अनुकरण हेतु उद्घोषित किया गया है।
‘हम’ की शक्ति सर्वोपरि – ‘व्यक्ति अकेला निर्बल होता है, संघ सबल होता मानें’ संघ समर्पणा गीत की सुंदर पंक्तियाँ हमारा मार्ग प्रशस्त कर रही है, जिस प्रकार एक लकड़ी आसानी से तोड़ी जा सकती है लेकिन वही जब समूह रूप में हो तो उसे तोड़ना दुस्सम्भव है, जिस प्रकार साधारण से समझे जाने वाले सूत (धागे) जब साथ मिल जाते हैं तो वह मजबूत रस्सी का रूप ले लेते हैं और बलशाली हस्ती को भी बांधकर रख सकते हैं, इसी प्रकार जब हम संगठित हो जाते हैं तो दुस्सम्भव कार्य को भी संभव बना सकते हैं। जंगल में बलवान पशु भी समूह में रहे हुए प्राणियों पर आक्रमण करने की हिम्मत नहीं करता, वह उसी को अपना शिकार बनाता है जो समूह से अलग हो जाते हैं।
निर्बल से निर्बल भी संगठित होने पर सशक्त एवं सुरक्षित हो जाते हैं और कई बार ऐसा भी देखने में आता है की निर्बलों की संगठित शक्ति के सामने अकेला बलवान भी हार जाता है। सैकड़ों मक्खियां मिलकर बलशाली शेर को भी परेशान कर देती है, एकता का सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत है ‘जाल में फैसे कबूतरों और बहेलिये की कहानी’ बहेलिये द्वारा बिछाये गए जाल में फँसे कबूतर जब सिर्फ स्वयं की मुक्ति के लिए अलग-अलग प्रयास कर रहे थे तो जाल में और अधिक उलझते जा रहे थे लेकिन जब अपने मुखिया की बात मानकर उन्होंने एकतापूर्वक एक साथ अपने पंख फड़फड़ाये तो पूरा जाल लेकर आसमान में उड़ गए और बहेलिये के चंगुल से बच गए, यह है एकता की शक्ति। लोकतंत्र में भी उन्हीं की बात मानी जाती है जो संगठित होते हैं, आज विश्व में वो ही शक्तिशाली एवं सुरक्षित हैं जो एकजुट हैं, संगठित हैं।
जहाँ ‘मैं’ में सिर्फ स्वार्थ भाव होता है वहीं ‘हम’ में परमार्थ का विराटतम भाव समाहित है। ‘हम’ भावना आते ही सारे द्वेष के बंधन खुल जाते हैं। सारे वैर-विरोध के कारण नष्ट हो जाते हैं। ‘हम’ भाव वाला किसी को कष्ट नहीं दे सकता, उसके मन में दूसरों के दु:ख को अपने दु:ख जैसा समझने की भावना होती है, वह अपने ऊपर हर प्राणी का उपकार मानता है इसलिए वह जैसा अपने लिए शाश्वत सुख चाहता है, उसका चिंतन होता है कि विश्व के सभी प्राणी अपने है, कोई पराया नहीं, कोई शत्रु नहीं, उसके मन में ‘सत्वेषु मैत्रीम्’ का अनवरत प्रवाह गतिमान रहता है, यही विश्व शांति का मूल मंत्र है।
हर वस्तु या विषय को जानने व समझने के लिए भिन्नभिन्न दृष्टिकोण होते हैं जिसे ‘अनेकांतवाद’ कहा जाता है। ‘मैं’ और ‘हम’ को भी अनेकांत दृष्टि से समझने की आवश्यकता है। आत्मचिंतन के दृष्टिकोण
से ‘मैं’ का चिंतन करना अर्थात ‘स्व’ का चिंतन, अपने आत्मा का चिंतन, अपने वास्तविक स्वरूप का चिंतन और अपने आत्म कल्याण का चिंतन कर उस हेतु पुरूषार्थ करना होता है। स्व की अनुभूति के बिना सब कुछ व्यर्थ है, जिसने स्व को नहीं जाना उसने कुछ नहीं जाना। ‘स्वयं’ को जानने वाला ही स्वयं के अनंत गुणमय शुद्ध स्वरूप की सिद्धि कर अनंत आनंद को प्राप्त कर सकता है। ज्ञान, दर्शन, चरित्र, तप, वीर्य एवं उपयोग अर्थात आत्मा के शुद्ध गुण हैं, जहां ‘मैं’ अर्थात् आत्मा के शुद्ध गुणों की अनुभूति हो वहाँ ‘मैं’ का चिंतन पूर्ण रूप से सार्थक है। ‘मैं’ अर्थात् अपने स्वरूप का अनुभव करते हुए उसकी वर्तमान अवस्था में परतत्त्व के संयोग से उत्पन्न दोषों का समीक्षण करके उन दोषों को दूर कर पूर्ण शुद्ध गुणों से युक्त वास्तविक स्वरूप की प्राप्ति हेतु पुरूषार्थ, जिसे आत्म साधना कहा जाता है, वह सर्वश्रेष्ठ है, यही स्वचेतना की अनुभूति है, यही ज्ञेय है और यही उपादेय है, यही आत्म धर्म है, यही समस्त धर्म का सार है।
लेकिन जब ‘मैं’ का चिंतन विकारयुक्त हो, क्रोध-मान-माया-लोभ आदि कषायों से कलुषित हो, राग-द्वेष की गंदगी से दूषित हो, तो अनुचित है, वह हेय है, त्यागने योग्य है, दूसरों को हानि पहुंचाकर स्वयं की भौतिक वासनाओं
की पूर्ति करना लोक व्यवहार में भी सबसे बड़ा पाप है, अपने भौतिक स्वार्थ के लिए दूसरों का अधिकार छीन लेना निंदनीय है, कोई भी व्यक्ति दूसरों को तभी हानि पहुंचाता है जब उसके मन में सांसारिक विकारी ‘मैं’ के विचारों का अधिकार हो जाता है, वह क्रोध के वश, अहंकार के वश, माया के वश, लोभ के वश, प्रतिष्ठा की कामना के वश या प्रतिशोध के वश में आकर दूसरों को कष्ट देने में भी पीछे नहीं रहता और जगत के जीवों को आघात पहुंचाते हुए अपनी आत्मा के सद्गुणों का घात करके स्वयं भी अशांति एवं घोर दु:खों का भागी बनता है।
जैन दर्शन के अनुसार हमारी आत्मा शाश्वत है, अनादि काल से इसने अनंत जन्म-मरण किए हैं और इन अनंत भवों में हमारी आत्मा ने लोक के सभी जीवों के साथ हर तरह के संबंध किये हैं, हर जन्म में हमारे ऊपर अनगिनत जीवों का असीम उपकार रहा है और अनंत भवों के हमारे जन्म-मरण हिसाब से हमारे ऊपर हर जीव का असीम उपकार रहा हुआ है, हम अगर सामान्य दृष्टि से भी सोचें तो हम हमारा छोटा सा जीवन भी अनगिनत जीवों के उपकार एवं सहयोग से ही जी पा रहे हैं, अगर संसार के दूसरे जीव हमारे शत्रु बन जाएं तो कुछ पल भी जी नहीं पाएंगे, इस प्रकार संसार के हर जीव का हमारे ऊपर ऋण है और उन सभीके हित की भावना और हित का कार्य करके ही हम उस ऋण से मुक्त हो सकते हैं, इसीलिए जैन धर्म सम्यक् रूप से समझने वाला व्यक्ति जीव हिंसा से दूर रहना अपना सर्वोपरि कर्तव्य एवं सर्वोपरि धर्म समझता है, आइए ‘हम’ भावना के व्यापक स्वरूप को जीवन में अपनाकर समग्र विश्व में शांति के निर्माण में सहभागी बनें |

‘हम’ की भावना से प्रगति का जीता-जागता उदाहरण है जापान– अपने चारों तरफ फैले हुए समुद्र की भयानक आपदाओं को जापान प्रति वर्ष झेलता है और जिसने पिछली एक शताब्दी में अनेक भयानक भूकंप एवं सुनामियों की विनाशलीला भी झेली है लेकिन वहाँ के निवासियों ने आपसी एकता एवं अपनत्व की भावना के बलबूते जापान को दुनिया के अति विकसित राष्ट्र की श्रेणी में खड़ा कर दिया है। जापान में किसी भी व्यक्ति को हानि होने पर जापानी लोग उसे अपना मानकर उसकी सहायता करके सक्षम बना देते हैं, इसीलिए आज जापान किसी भी बात पर दूसरों पर निर्भर नहीं है।

विश्व के इतिहास पर करें दृष्टिपात – आज हम भारत सहित विश्व के देशों का इतिहास देखें तो पता चलेगा कि जब-जब ‘मैं’ और ‘मेरा’ का संकुचित भाव हावी हुआ तब-तब विनाश दृष्टिगोचर हुआ। रामायण, महाभारत आदि में वर्णित महाविनाश में स्वार्थपूर्ण ‘मैं’ ही कारण रहा। स्वार्थपूर्ण ‘मैं’ की क्षुद्र भावना में बिखर कर भारत आदि अनेक देश मुगलों और अंग्रेजों के गुलाम बने और सदियों तक घोर कष्ट सहा, आज जो भी विकसित देश नजर आ रहे हैं वे सभी ‘हम’ भावना की शक्ति से ही सशक्त और समृद्ध बने हैं। पूर्ववर्ती मध्यकाल में देश के विभिन्न राज्यों के नरेश आपस में छोटे-छोटे स्वार्थ या प्रतिशोध की भावना से एक दूसरे राज्य पर आक्रमण किया करते थे, आपस में एकता नहीं होने का लाभ विदेशी लुटेरों एवं आक्रमणकारियों ने उठाया जिसके कारण सभी को महाविनाश झेलने पड़े और देश को सदियों तक पराधीन रहना पड़ा, लेकिन जैसे ही ‘हम’ की भावना जगी और संगठित हुए तो गुलामी की सारी जंजीरें टूट गई। बीती हुई करीब १० सदियों की तुलना में आज भारत देश काफी सुरक्षित और सशक्त है तो उसका कारण है देश की ५६५ रियासतों का एकजुट होकर स्वतंत्र भारत में विलय। अनेक भाषाओं एवं विभिन्न भौगोलिक स्थितियों के होते हुए भी हम एकजुट भारत के होने से ही प्रगति कर रहे हैं और करते रहेंगे, आज देश को कुछ समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है, उसका बहुत बड़ा कारण राजनेताओं के स्वार्थरूपी ‘मैं’ की वजह से १९४७ में देश का विभाजित होना है, हमसे विभाजित हुए राष्ट्र हमारे देश को निरंतर बहुत बड़ी हानि पहुंचा रहे है। विकास में लगने वाली हमारी क्षमता का बहुत बड़ा हिस्सा उनसे अपनी रक्षा में लगाना पड़ रहा है जिसके कारण यथेष्ट विकास नहीं हो पा रहा है, हमसे विलग हुए राष्ट्र यदि हमसे शत्रुता छोड़ कर परस्पर एकता और सहयोग का वातावरण निर्माण करें तो हमारी एवं उनकी सभी की विशेष प्रगति हो सकती है, सुखी एवं समृद्ध बन सकते हैं।

आपस में एकता नहीं होने से जिनशासन को पहुंची बड़ी क्षति – शासनेश प्रभु महावीर के निर्वाण के कुछ वर्षों पश्चात जैन धर्मानुयायी विभिन्न सम्प्रदायों में विभाजित हो जाने के कारण जैन समाज को भारी क्षति उठानी पड़ी। जैन धर्म का मौलिक इतिहास देखने पर पता लगेगा कि हम में आपस में एकता के अभाव के कारण, हमारे सम्पूर्ण विश्व के लिए कल्याणकारी श्रेष्ठतम सिद्धांतों को नहीं समझ पाने से अन्य धर्मावलम्बियों ने द्वेषवश जैन समाज पर अनेक प्रकार के घोर अत्याचार एवं सामूहिक नरसंहार तक किये, जिसके कारण बहुसंख्यक जैन समाज आज अल्पसंख्यक स्थिति में आ गया है। अपने स्वार्थ एवं अहंकार में अंधा होने पर व्यक्ति घनिष्ठ प्रेम, आत्मीय सम्बन्ध, सिद्धांत, नैतिकता आदि सब कुछ भुला देता है और अपने परम उपकारी तक का भी अनिष्ट कर डालता है, हमें इतिहास से सबक लेकर उन कारणों से दूर रहकर उज्जवल भविष्य के लिए कार्य करना है।

आपसी एकता से महक सकता है जिनशासन: जिन शासन को महकाने के लिए जगायें ‘हम’ का भाव-जैन धर्म इस विश्व का सबसे महान धर्म है, एक ऐसा धर्म जो विश्व के हर जीव को अपना मानता है, अपने समान मानता है जो हर प्राणी के दु:ख को अपने दु:ख के जैसा ही समझता है, जो हर जीव की रक्षा में धर्म मानता है। ऐसा धर्म जिसको अपनाने से सारे जीवों में वैर-विरोध समाप्त हो सकता है, एक ऐसा धर्म है जिसका संदेश है किसी को मत सताओ। ऐसा महान धर्म जिसका पालन निर्धन से निर्धन व्यक्ति से लेकर संपन्न से सम्पन्नतम व्यक्ति भी कर सकता है।
निर्बल से लेकर सफलतम व्यक्ति भी कर सकता है, ऐसा धर्म जो एक छोटे से त्याग से भी व्यक्ति को शाश्वत सुख के मार्ग पर आगे बढ़ा देता है, जिसका पालन दुनिया का ही संज्ञाशील प्राणी कर सकता है, जो सकल विश्व का धर्म है, ऐसा महान विश्व शांतिकारी जैन धर्म अल्पसंख्यक स्थिति में पहुंच गया है। ६४ इंद्र एवं असंख्य देव-देवी, जिन तीर्थंकर भगवान के उपदेश सुनने के लिए लालायित रहते हैं, ऐसे महान जैन धर्म का अनुसरण करने वाले व्यक्ति सिर्फ कुछ प्रतिशत ही हैं, यह अत्यंत ही चिंतनीय विषय है। अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकांतवाद, समता, सदाचार, ‘जियो और जीने दो’, ‘परस्परोपग्रहो’ आदि अमर सिद्धांतों के होते हुए भी विश्व पटल में शामिल होते दिखाई दे रहे हैं।
हिंसा, द्वेष, अशांति, स्वार्थ, कुव्यसन, दुराचार, भ्रष्टाचार आदि का प्रभाव बढ़ रहा है, क्या इसमें हमारा बिखराव भी बहुत बड़ा कारण नहीं रहा है? आपस में एक नहीं होने की वजह से हम जीवदया, अहिंसा, करूणा, समता, सदाचार, नैतिकता के महान सिद्धांतों को जन-जन तक नहीं पहुंचा पा रहे हैं, इसके कारण विश्व में फैले हुए जीव हिंसा, मांसाहार, दुराचार, दुव्र्यसन आदि को मिटाने में हम सक्षम नहीं बन पा रहे हैं, जिन शासन में एक से बढ़कर एक साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका हुए हैं और वर्तमान में भी चतुर्विध संघ में अनेक रत्न हैं, अगर यह सभी ‘संगठन’ की शक्ति ‘हम’ की शक्ति को समझ लें तो प्रभु महावीर के सिद्धांतों का प्रचार-प्रसार कर सारे विश्व में प्रेम, शांति और सहकार का वातावरण बनाया जा सकता है, पूर्वी जर्मनी और पश्चिमी जर्मनी आपस में जुड़ जाते हैं, तो ‘खामेमि सव्वजीवे’ एवं क्षमा वीरस्य भूषणम् का सारे जग को संदेश देने वाले ‘जैन’ क्या संगठन के सूत्र में नहीं बंध

संकल्प करें कि हमें एक महान लक्ष्य को प्राप्त करना है। ‘सत्वेषु मैत्री, गुणिषु प्रमोदं’ का भाव सारी दुनिया में उद्घोष करने वाले हम छोटे से अहंकार एवं स्वार्थ के पीछे कभी नहीं पड़ेंगे। चंडकौशिक विषधर, क्रुर देव संगम, घोर हत्यारे अर्जुन माली एवं रौहिणेय चोर को भी क्षमा कर उनको सत्पथ पर लाकर उद्धार करने वाले करूणा निधान प्रभु महावीर के हम उपासक हैं, हमारे आदर्श हैं चींटियों की रक्षा के लिए अपने प्राण न्योछावर करने वाले धर्मरूचि अणगार और कबूतर की रक्षा के लिए शिकारी को अपने
शरीर का मांस काट कर दे देने वाले राजा मेघरथ, हमारा चिंतन हो कि ऐसे महान जैन धर्म के अनुयायी जो आत्म सिद्धि के लिए संसार के सारे मनमोहक सुखों का त्याग करने में भी पीछे नहीं रहते हैं, सर्वोत्कृष्ट सिद्धांतों एवं विचारों के धनी हम अहंकार, क्रोध, प्रतिशोध या पद-प्रतिष्ठा आदि किसी भी लोभ एवं नश्वर स्वार्थ के वशीभूत होकर अपनी आत्मा को कलुषित नहीं करेंगे। विश्व कल्याणकारी जिनशासन की प्रभावना के लिए हम सारे वैर-विरोध को भूलाकर आपस में आत्मीयता एवं विश्व मैत्री का सारे विश्व के सामने उदाहरण प्रस्तुत
करेंगे। वीतराग प्रभु द्वारा प्ररूपित सिद्धांतों को पूर्ण रूप से जीवन में अपनाएंगे, जिससे हमारा जीवन दूसरों के लिए आदर्श बनें, हमारा चिंतन हो कि हमारे किसी भी प्रकार के व्यक्तिगत स्वार्थ की वजह से जिनशासन को कहीं हानि तो नहीं पहुंच रही है, यदि हमारी किसी भी छोटी सी गलती से भी जिनशासन को कोई क्षति पहुँच रही है तो तुरंत उसका सुधार करें।
सभी जैन धर्मानुयायी यदि एक दूसरे के सद्गुणों का सम्मान करते हुए उन अच्छाईयों को नि:संकोच अपनाने का सिलसिला प्रारम्भ करें और ‘मैं’ नहीं ‘हम’ की पवित्र भावना के साथ जैन धर्म के कल्याणकारी सिद्धांतों को जन-जन तक पहुंचाए तो पुन: जिनशासन को समग्र विश्व में पूर्ववत गौरवशाली प्रतिष्ठा प्राप्त हो सकती है, हर अच्छे कार्य का दुनिया पर प्रभाव पड़ता ही है, कोशिश जरूर कामयाब होती है, अगर दुनिया में हमारे कार्यों का एक प्रतिशत लोगों पर भी प्रभाव पड़ गया तो करोड़ों नए लोग सच्चे धर्म से जुड़ जायेंगे। आइये हम दृढ़-संकल्प करें कि हम आपस के मतभेदों को दूर रखते हुए संगठन के महत्त्व को जानकर एकजुट होकर प्रयास करें, जैन धर्म के शुद्ध सिद्धांतों को अपने जीवन में पूर्ण रूप से अपनाते हुए समग्र विश्व में जिनशासन को महकायें।

अशोक नागोरी बैंगलुरू

श्री पाश्र्वनाथ ब्रह्मचर्याश्रम जैन गुरूकुल (छात्रावास)

खुरई: आजादी के पूर्व की बात है जब शहरों में तो शिक्षा के अनेक आयतन थे परंतु ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा के आयतनोें के नितान्त अभाव और लोगों के पास अर्थाभाव के कारण अन्यत्र शिक्षा लेने की बाधा को दूर करने हेतु भाँति- भाँति की कल्पनायें तो हुई परंतु कोई ठोस निष्कर्ष नहीं निकल पा रहा था और अन्तत: खुरई समाज के द्वारा निर्णय लिया गया कि दक्षिणान्चल में स्थित कारंजा, कुम्भोज बाहुबलि आदि गुरूकुलों के अनुकरण पर ही इस गुरूकुल का शारीरिक सौष्ठव सँवारा जाये, जो आत्मधर्म के चैतन्य प्राणों से अभिभूत रहकर अपने लौकिक परिकर को भले ही ओढ़े रहे, इसे साकार रूप देने के लिए तत्कालीन क्षुल्लक सम्प्रति समाधिस्थ आचार्य श्री १०८ समन्तभद्र जी महाराज, पंडित श्री देवकीनंदन सिद्धांतशास्त्री एवं पूज्य १०५ श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी को आमंत्रित करने का निश्चय किया गया, मानवता की इस त्रिवेणी से अभिषिक्त योजना ही गुरूकुल के गर्भ ग्रहण का अविस्मरणीय प्रसंग था।
गुरूकुल का जन्मोत्सव अप्रैल सन् १९४४ वि. सं. २००१ की अक्षय तृतीया के दिन सागर के जिलान्तर्गत खुरई नगर में हुआ, इसका मांगलिक शुभारंभ शिक्षा प्रचारक, धर्मप्रेमी गुरूवर्य श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी के कर-कमलों द्वारा सम्पन्न हुआ, जिसमें स्थानीय धनकुबेर श्रीमंत सेठ ऋषभ कुमार जी ने सर्वप्रथम १९४४ में नगर में बाहर स्वयं के पुराने बगीचा से इसकी शुरूआत की, तत्पश्चात शहर के बीचोबीच स्थित मिड टाउन १९५४ में स्टेशन के समीप ७ एकड़ भूमि पर चैत्यालय, विद्यालय भवन, भोजनशाला, खेल मैदान एवं शिक्षक निवास का निर्माण कराकर दान स्वरूप संस्था को दिया तथा सिंघई गनपतलाल जी गुरहा ने २०,०००/- राशि देने का संकल्प किया, उससे एक द्विमंजिला छात्रावास बनवाया गया। संस्था के स्थापना के उपरान्त सन् १९६८ में ओलावृष्टि के कारण संस्था की स्थिति इतनी दयनीय हो गई छात्रों के भोजन हेतु घर-घर से खाद्य सामग्री एकत्रित की जाती थी, तदुपरान्त सिंघई श्री श्रीनंदनलाल जी जैन बीना वालों का सम्बल मिला, उन्होंने संस्था को ग्राम लाखनखेड़ा में स्थित ८४ एकड़ भूमि दान स्वरूप दी, जिसकी उपज गुरूकुल छात्रावास की स्थायी आय का साधन बना, साथ ही श्रीमति नायकन राजरानी बहू जी द्वारा पारस चौराहा पर स्थित महावीर धर्मशाला संस्था को दान स्वरूप दी गई। वर्तमान में जैन समाज के दूरदराज के साधन विहिन एवं निर्धन छात्रों को जीवन निर्माण एवं निर्वाण की शिक्षा प्राप्त कराने के उद्देश्य से यह छात्रावास मात्र ५ छात्रों से प्रारंभ हुआ था जिसमें वर्तमान में ३०० छात्र रहकर हिंदी एवं अग्रेजी माध्यम की आधुनिक शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं।
छात्रों को शुद्ध सात्विक भोजन, प्राथमिक चिकित्सा के साथ-साथ जीवनोपयोगी समस्त व्यवस्थायें उपलब्ध हैं।
छात्रावास की वर्तमान व्यवस्थाओं को देखते हुए यहां पर जैन ही नहीं अपितु जैनेतर अभिभावक भी छात्रावास में अपने बालक का प्रवेश कराने हेतु आतुर रहते हैं।

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