१७०० वर्ष प्राचीन गोड़वाड़ में हथुंडी तीर्थ श्री रातामहावीर जी ( 1400 year old Hathundi shrine in Godwad Shri Ratamahaveer ji in hindi)

१७०० वर्ष प्राचीन गोड़वाड़ में हथुंडी तीर्थ श्री रातामहावीर जी ( 1400 year old Hathundi shrine in Godwad Shri Ratamahaveer ji in hindi)

राता महावीरजी के नाम से विख्यात प्राचीन तीर्थ हथुंडी का जैन तीर्थों में महत्वपूर्ण स्थान है।

१७०० वर्ष प्राचीन गोड़वाड़ में हथुंडी तीर्थ श्री रातामहावीर जी ( 1400 year old Hathundi shrine in Godwad Shri Ratamahaveer ji in hindi) : राष्ट्रीय राजमार्ग नं. १४ पर गोड़वाड़ की सबसे बड़ी मंडी सुमेरपुर से ३० कि. मी. एवं जवाईबांध रेलवे स्टेशन से २२ कि.मी. दूर पूर्व में बीजापुर नगर से ५ कि. मी. दूर निर्जन वन में अरावली पर्वत श्रृंखलाओं के बीच अलौकिक प्राकृतिक सौंदर्य से युक्त यह पावन तीर्थ गोड़वाड़ क्षेत्र को सुशोभित कर रहा है।

यह पुनीत ध्यान-साधना के लिए शांत एकांत स्थान है। शास्त्रकारों के अनुसार इसे हस्तिकुण्डी, हाथिउण्डी, हस्तकुण्डिका, हस्तिकुंड, हस्तितुंडी आदि नामों से जाना जाता था। यह राष्ट्रकुटों की राजधानी थी। इस उजड़ी नगरी का एकमात्र वैभव अब ‘राता महावीर तीर्थ’ का मंदिर रह गया है, जो सदियों पुराने इतिहास को संजोए हुए। अनेक उतार-चढ़ाव की कहानी कह रहा है, इसकी संपदा और वैभव गाथा कहने वाले सं. २५८ के शिलालेख, भारत सरकार के पाली में बांगड संग्रहालय में और अन्य शिलालेख तीर्थ परिसर में सुरक्षित है। इन शिलालेखों एवं अन्य प्रशस्तियों में, इस तीर्थ के गौरवमयी इतिहास का वर्णन मिलता है।
प्राचीनता: इस विशाल नगरी का कोट अरावली पर्वत की गिरिमाला में हथुंडी से गढ़ मुक्तेश्वर एवं हर गंगा के मंदिर तक आज भी टूटी-फूटी अवस्था में विद्यमान है। र्१.५ ें १ फुट की ३ इंच मोटी बड़ी ईंटें एवं स्थान-स्थान पर पत्थरों की चौड़ी नींवें नगरी की विशालता का परिचय देती है। पहाड़ पर थोड़ी ऊंचाई पर दुर्ग एवं महलों के खण्डहर मिलते हैं। ‘आठ कुआं-नव बावड़ी, सोलहसो पणिहार’' के १४वीं शताब्दी के उल्लेख के अनुसार, यहां लगातार सोलह सौ पणिहारियां पानी भरती थीं। साथ ही आस-पास बिखरे खंडहरों व प्राचीन किले के अवशेष इस बात को पुष्ट करते हैं कि यहां कभी कोई विशाल नगरी अस्तित्व में थी।

१७०० वर्ष प्राचीन गोड़वाड़ में हथुंडी तीर्थ श्री रातामहावीर जी ( 1400 year old Hathundi shrine in Godwad Shri Ratamahaveer ji in hindi)

यहां के शिलालेखों से तो उस काल के राजाओं की व्यवस्था और जैनाचार्यों के प्रति उनकी श्रद्धा की पूरी जानकारी प्राप्त होती है। राजस्थान के इतिहासकार पू.मुनिश्री जिनविजयजी ने इसे राजस्थान के ५५६ जैन मंदिरों में सबसे प्राचीन माना है।
इस मंदिर की प्राचीनता का उल्लेख मुनि श्री ज्ञानसुंदरजी द्वारा रचित ‘श्री पार्श्वनाथ भगवान की परंपरा का इतिहास' में भगवान महावीर के इस मंदिर का निर्माण वि. सं. ३६० में ‘श्री वीरदेव श्रेष्ठि' द्वारा होकर भ. पार्श्वनाथ के ३०वें पट्टधर आ. श्री सिद्धसूरिजी के सुहस्ते प्रतिष्ठित होने का उल्लेख है। इससे इस मंदिर के १७०० वर्ष प्राचीन होने का अनुमान आता है। वि. सं. ७७८ में आ. कंकूसूरिजी के उपदेश से, हस्तिकुंडी में २७ मंदिरों का निर्माण करवाया गया था। राजा हरिवर्धन के पुत्र विदग्धराज ने महान प्रभावक आचार्य श्री यशोभद्रसूरिजी के शिष्य, आ. श्री बलिभद्रसूरिजी से प्रतिबोध पाकर जैन धर्म अंगीकार किया था। वि. सं. ९७३ के लगभग इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाके प्रतिष्ठा करवाई थी, इनके वंशज राजा मम्मटराज, हरिवर्मा, धवलराज, सिंहाजी, बालप्रासाद, मुज्जासिंह चौहान आदि राजा भी जैन धर्म के अनुयायी थे।
वि. सं. १०५३, माघ शुक्ल त्रयोदशी रविवार का शिलालेख सं. २५८ अनुसार,जो कि मंदिर के प्रवेश द्वार की बायीं ओर खुदा हुआ था, वह प्रथम बीजापुर की धर्मशाला, बाद में अजमेर संग्रहालय व वर्तमान में पाली बांगड संग्रहालय में सुरक्षित है, इसमें हस्तिकुण्डी चौहान वंश के शासकों का उल्लेख है एवं धवल के संबंध में लिखा गया है। उस समय लिखी प्रशस्ति के अनुसार विदग्धराज द्वारा जीर्णोद्धार करवाए गए मंदिर में प्रथम बार ऋषभदेव भगवान की मूर्ति की स्थापना की गई। वि. सं. १०५३ में विदग्धराज के पौत्र एवं मम्मट के पुत्र धवल द्वारा पुनः जीर्णोद्धार हुआ और माघ सु. १३ रविवार को पुष्य नक्षत्र में श्री ऋषभदेव की श्री शान्त्याचार्यजी के सुहस्ते प्रतिष्ठा की गई और महाध्वज का आरोपण किया गया।
सूत्रों के अनुसार, १२वीं सदी के बाद इस आदिनाथ मंदिर में पुनः महावीर भगवान की लाल वर्ण की प्रतिमा प्रतिष्ठित कर दी गई होगी। १३वीं शताब्दी से अद्यावधि तक प्राप्त सभी ‘तीर्थमालाओं' से यह तथ्य प्राप्त होते हैं कि यह मंदिर राता महावीर का था, वि. सं. १३३५ के शिलालेख में इस मंदिर में पुनः राता महावीर के नाम का उल्लेख हुआ है। ‘‘रातो वीर पूरि मननी आस''- पं. शीलविजयजी अर्थात्‌ लाल वर्ण के महावीर मेरे मन की आशा पूरी करें। सं. १३३५ में सेवाड़ी के श्रावकों द्वारा यहां श्री राता महावीर के मंदिर में ध्वजा चढ़ाने का उल्लेख मिलता है। वि. सं. ९९६ के शिलालेख अनुसार ‘ऐतिहासिक रास संग्रह-भाग २’ विजयधर्मसूरिजी विरचित में, इसे भगवान महावीर का चैत्य कहा गया है।

१७०० वर्ष प्राचीन गोड़वाड़ में हथुंडी तीर्थ श्री रातामहावीर जी ( 1400 year old Hathundi shrine in Godwad Shri Ratamahaveer ji in hindi)

लावण्यसमयजी ने वि. सं. १५८६ में बलिभद्र (वासुदेवसूरि) रास में लिखा है-
‘हस्तिकुंड एहवुं अभिधान, 
स्थापिउं गच्छपति प्रगट प्रदान।
महावीर केरइं प्रासादि,
बाजई भुंगल भेरी नादि।।

लावण्यसमयजी (सं.१५२१-१५९०) एवं शीलविजयजी आदि आचार्यों की तीर्थमाला, किसी सुदृढ़ आधार पर लिखी गई है। जिन तिलक सूरिजी ने भी अपनी तीर्थमाला में हथुंडी, लावण्यसमय ने ‘हस्तिकुंड' और यहां के उपलब्ध शिलालेखों में ‘हस्तिकुंडी' लिखा है। कुछ मान्यता के अनुसार वि. सं. १३२५, फाल्गुन सुदि ८ को हस्तिकुण्डी गच्छ के वासुदेवाचार्य द्वारा हस्तिकुण्डी में लालवर्ण की भगवान महावीर की पुनः स्थापना कर ऋषभदेव भगवान की मूर्ति को उदयपुर के निकट बाबेला में प्रतिष्ठित कर दी गई। प्राचीन काल में समय-समय पर कई आचार्य हस्तिकुण्डी पधारे और तीर्थदर्शन कर धर्मार्थ कार्य के लिए उपदेश दिए। आचार्य कक्‍्कसूरिजी सप्तम्‌ा (वि. सं. ५५८ से ६०१), आ. श्री देवगुप्तसूरिजी सप्तम्‌ा (वि. सं. ६०१ से ६२८), आ. श्री ककक्‍्कसूरिजी अष्टम्‌ा (वि. सं. ६६० से ६८०) एवं भगवान पार्श्वनाथ के ४४वें पाट पर आ. श्री सिद्धसूरिजी नवम्‌ा (वि. सं.८९३ से ९५२) के अलावा आ. श्री यशोभद्रसूरिजी (वि. सं. ९५७ से १०२९), शान्तिभद्राचार्य, वासुदेवाचार्य, सूर्याचार्य, रत्नप्रभोपाध्याय, पूर्णचंद्रोपाध्याय, सुमनहस्ति आदि ने इस तीर्थ में धर्म प्रभावना के कार्य किए।
वि. सं. १२०८ में आ. श्री जयसिंह देवसूरिजी हस्तिकुण्डी पधारे। उस समय यहां का राजा अनंत सिंह राठौड़ पूर्व कर्म के विपाक से जलोदर (रेवती दोष रोग) के भयंकर रोग से पीड़ित था। आ. श्री ने जल को अभिमंत्रित कर राजा को पिलाया। इसके सेवन से राजा का रोग दूर हो गया और इससे प्रभावित होकर उसने जैन धर्म अंगीकार किया। झामड व रातडिया राठौर, हथुंडिया राठौड़ गोत्र का उत्पत्ति स्थान भी यही है। ओसवालों में यह गोत्र आज भी विद्यमान है। इसी नगर के नाम से हस्तिकुंडी नामका गच्छ प्रसिद्धि में आया। छह संडेरकगच्छ की यह उपशाखा बलभद्र (वासुदेवाचार्य) से निकली। राता महावीर मंदिर के मंडप में हस्तिकुण्डीयगच्छ के एक आचार्य की मूर्ति भी स्थापित है। मंदिर के स्तंभों आदि पर शिलालेखों से भी प्राचीनता का पता चलता है। वि. सं. ९८८ में राजा जगमाल ने आ. श्री देवसूरिजी से प्रेरणा पाकर पूरे परिवार सहित अहिंसा का व्रत धारण किया, साथ ही हजारों नागरिकों ने भी अहिंसा का व्रत लेकर, राजा के साथ मांसाहार त्यागकर जैन धर्म स्वीकार किया। वि. सं. १००० में सांभर के लाखणसी चौहान ने नाडोल में एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की, तब से चौहानों और हस्तिकुंडी के राठौड़ों में (सन्‌ा १०२३ ई.) में, महमूद गजनवी ने नाडोल के रामपाल चौहान व हस्तिकुण्डी के दत्तवर्मा राठौड़ से सोमनाथ जाते हुए युद्ध किया। इस युद्ध में ये दोनों राजा पराजित हुए। गजनवी ने इन दोनों नगरों को उजाड़ दिया, जिससे मंदिर भी आक्रमण के प्रभाव से अछूते नहीं रहे। बालीसा चौहानों के बडुओं की बहियों से ज्ञात होता है कि इस नगरी का अंतिम शासक सींगा हथुंडिया राठौड़ था, जिसे वि. सं. १२३२ में वरसिंह चौहान ने मारकर बेडा सह ४२ गांवों पर कब्जा किया।
वि. सं. २००१ में जीर्णोद्धारित राता महावीर के मुख्य मंदिर में कुल २४ देवकुलिकाएं हैं। द्वार के दोनों ओर ६-६ और अंदर की ओर दाएं-बाएं ६-६ हैं। मुख्य गर्भगृह में मूलनायक श्री महावीर स्वामी भगवान की, पद्मासनस्थ रक्त प्रवाल वर्ण की, १३५ सें.मी. (५२ इंची) की अत्यन्त प्रभावशाली प्रतिमा, सौध शिखरी चैत्य में प्रतिष्ठित है। इस पर लाल विलेप चढ़ा हुआ है। अतः इस मंदिर का नाम ‘राता महावीरजी' पड़ा। प्रभु प्रतिमा ईंट व लाल चूने के मिश्रण से प्रथम दीवार बनाकर, कलाकार ने प्रतिमा का घड़न किया है, फिर लाल विलेपन है अर्थात यह प्रतिमा पाषाण की नहीं है। प्रतिमा की विशेषताएं: प्रतिमा के नीचे जो सिंह का लांछन अंकित है, उसका मुख हाथी का है अर्थात यह ‘गजसिंह’ का लांछन भगवान महावीर के लांछन सिंह एवं हस्तिकुंडी में हाथियों की बहुतायत की ओर संकेत करता है। सिंह के हाथी का मुख होने के कारण ही इस नगरी को ‘हस्तिकुण्डी’ कहते थे, जो आज अपभ्रंश होकर ‘हथुंडीr' हो गया है। परमात्मा के गले में दो आटे की मोतियों की माला, हाथों पर बाजूबंद पक पंजों के पास दोनों हाथों में कड़े पहने हुए हैं, जो इस प्रतिमा की अलौकिक निशानियां हैं।
अंतिम जीर्णोंद्धार व प्रतिष्ठा: वि. सं. १०५३ के पश्चात्‌ा मंदिर के किसी बड़े जीर्णोद्धार का प्रमाण नहीं मिलता, सिर्फ छोटी-मोटी मरम्मत होती रही। वि. सं. १९९९ तक यह मंदिर लगभग खंडहर हो गया था। अतः बीजापुर निवासियों ने जीर्णोद्धार का बीड़ा उठाकर सं. १९९८ माघ सु. १० दि. २७.१.१९४२ को श्री जवेरचंदजी व श्री हजारीमलजी के नेतृत्व में कमेटी बनाकर कार्य प्रारंभ किया गया। मंदिर की प्राचीनता को कायम रखते हुए नया रूप प्रदान करने का तय हुआ। सं. २००१ में प्रारंभ हुआ कार्य सं. २००६ तक चलता रहा।
श्रीसंघ ने सादड़ी चातुर्मास विराजित गोड़वाड़ उद्धारक पंजाब केशरी आ. श्री वल्लभसूरिजी को प्रतिष्ठा की विनंती की। वि. सं. १०५३, माघ शुक्ल त्रयोदशी रविवार का शिलालेख सं. २५८ अनुसार, जो कि मंदिर के प्रवेश द्वार की बायीं ओर खुदा हुआ था, वह प्रथम बीजापुर की धर्मशाला, बाद में अजमेर संग्रहालय व वर्तमान में पाली बांगड संग्रहालय में सुरक्षित है। इसमें हस्तिकुण्डी चौहान वंश के शासकों का उल्लेख है एवं धवल के संबंध में लिखा गया है। उस समय लिखी प्रशस्ति के अनुसार विदग्धराज द्वारा, जीर्णोद्धार करवाए गए। मंदिर में प्रथम बार ऋषभदेव भगवान की मूर्ति की स्थापना की गई। वि. सं. १०५३ में कु विदग्धराज के पौत्र एवं मम्मट के पुत्र धवल द्वारा पुनः जीर्णोद्धार हुआ और माघ सु. १३ रविवार को पुष्य नक्षत्र में श्री ऋषभदेव की श्री शान्त्याचार्यजी के सुहस्ते प्रतिष्ठा की गई और महाध्वज का आरोपण किया गया। सूत्रों के अनुसार, १२वीं सदी के बाद इस आदिनाथ मंदिर में, पुनः महावीर भगवान की लाल वर्ण की प्रतिमा प्रतिष्ठित कर दी ग्ाई होगी। १३वीं शताब्दी से अद्यावधि तक प्राप्त सभी 'तीर्थमालाओं' से यह तथ्य प्राप्त होते हैं कि यह मंदिर राता महावीर का था, वि. सं. १३३५ के शिलालेख में इस मंदिर में पुनः राता महावीर के नाम का उल्लेख हुआ है।

‘रातो वीर पूरि मननी आस’- पं. शीलविजयजी अर्थात्‌ लाल वर्ण के महावीर मेरे मन की आशा पूरी करें। सं. १३३५ में सेवाड़ी के श्रावकों द्वारा यहां श्री राता महावीर के मंदिर में ध्वजा चढ़ाने का उल्लेख मिलता है। वि. सं. ९९६ के शिलालेख अनुसार ‘ऐतिहासिक रास संग्रह-भाग २ विजयधर्म सूरिजी विरचित में इसे भगवान महावीर का चैत्य कहा गया है। लावण्यसमयजी ने वि. सं. १५८६ में बलिभद्र (वासुदेवसूरि) रास में लिखा है- 
‘हस्तिकुंड एहवुं अभिधान, स्थापिउं गच्छपति प्रगट प्रदान।
महावीर केरइं प्रासादि, बाजई भुंगल भेरी नादि।।

लावण्यसूरिजी (सं.१५२१-१५९०) एवं शीलविजयजी आदि आचार्यों की तीर्थमाला किसी सुदृढ़ आधार पर लिखी गई है। जिन तिलक सूरिजी ने भी अपनी तीर्थमाला में हथुंडी, लावण्यसमय ने ‘हस्तिकुंड' और यहां के उपलब्ध शिलालेखों में ‘हस्तिकुंडी’ लिखा है। कुछ मान्यता के अनुसार वि. सं. १३२५, फाल्गुन सुदि ८ को, हस्तिकुण्डी गच्छ के वासुदेवाचार्य द्वारा, हस्तिकुण्डी में लालवर्ण की भगवान महावीर की पुनः स्थापना कर, ऋषभदेव भगवान की मूर्ति को उदयपुर के निकट बाबेला में प्रतिष्ठित कर दी गई।
प्राचीन काल में समय-समय पर कई आचार्य हस्तिकुण्डी पधारे और तीर्थदर्शन कर धर्मार्थ कार्य के लिए उपदेश दिए। आचार्य कक्‍्कसूरिजी सप्तम्‌ा् (वि. सं. ५५८ से ६०१), झलक आ. श्री देवगुप्तसूरिजी सप्तम् (वि. सं. ६०१ से ६२८), आ. श्री कक्‍्कसूरिजी अष्टाम् (वि. सं. ६६० से ६८०) एवं भगवान पार्श्वनाथ के ४४वें पाट पर आ. श्री सिद्धसूरिजी नवम्‌ (वि. सं. ८९२ से ९५२) के अलावा आ. श्री यशोभद्रसूरिजी (वि. सं. ९५७ से १०२९), शान्तिभद्राचार्य, वासुदेवाचार्य, सूर्याचार्य, रत्नप्रभोपाध्याय, पूर्णचंद्रोपाध्याय, सुमनहस्ति आदि ने इस तीर्थ में धर्म प्रभावना के कार्य किए।
आचार्य श्री ने अपने शिष्य परिवार आ. श्री ललितसूरिजी, आ. श्री विद्यासूरिजी, पंन्यासश्री समुद्रविजयजी, पूर्णानंदविजयजी आ. ठा. सहित, वि. सं २००६, मार्गशीर्ष शुक्ल ६, शुक्रवार दि. २६.१२.१९४९ को ठीक १० बजकर ३९ मिनट पर, प्राचीन जिनबिंबों सह नूतन १२५ जिन प्रतिमाओं की अंजनशलाका प्रतिष्ठा संपन्न की एवं साथ ही आ. श्री विजयानंदसूरिजी (आत्मारामजी) की प्रतिमा स्थापित हुई। मंदिर का खात मुहूर्त वि. सं. २००२, माघ शु. १३ को पं. विकासविजयजी (वल्लभ) के हस्ते संपन्न हुआ था। बाद में मार्गशीर्ष, शु. १०, बुधवार दि. ३०.१२.१९४९, मंदिर के नीचे भोयरे में गुलाबी वर्ण की पाषाण की ५१ इंच की विशाल प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवाई तथा इस अवसर पर तीन मुमुक्षुओं को दीक्षा प्रदान की एवं मु. श्री न्यायविजयजी, प्रीतिविजयजी एवं हेमविजयजी नामकरण किया। इसी मुहूर्त है में पास बीजापुर में भी प्रतिष्ठा संपन्न करवाई।
तत्पश्चात वि. सं. २०२६, मार्गशीर्ष कृष्ण १२ को, अष्टाह्निका महोत्सव आ. श्री समुद्रसूरिजी के करकमलों से, आ. श्री जम्बुसूरिजी आदि ठाणा की उपस्थिति में, पंजाबकेशरी आ. श्री वल्लभसूरिजी की गुरु प्रतिमा की प्रतिष्ठा संपन्न हुई, साथ ही आ. श्री यशोभद्रसूरिजी की वि. सं. १३४४, माघ सुदि ११ की प्राचीन प्रतिमाजी एवं चरणपादुकाओं की प्रतिष्ठा हुई। आ. श्री नित्यानंदसूरिजी के हस्ते वि. सं. २०५१, वै. कृ. २, बुधवार को वल्लभसूरिजी प्रतिमा व पादुका की प्रतिष्ठा संपन्न हुई। समवसरण मंदिर: बीजापुर रत्न पू. पंन्यास प्रवर डॉ. श्री अरुणविजयजी की प्रेरणा एवं कुशल मार्गदर्शन से, शिल्पशास्त्र के अनुसार गोलाकृति वाले कलाकृतिमय, भव्य समवसरण मंदिर का निर्माण हुआ एवं वि. सं. २०५२, माघ शु. ७ को प्रतिष्ठा संपन्न हुई। अशोक वृक्ष के नीचे ५१ इंच भगवान की चौमुखी प्रतिमाओं को प्रतिष्ठित किया गया। छः खंडों से निर्मित समवसरण मंदिर में परमात्मा के चरित्रदर्शक चित्रपट बनाए गए हैं।
इसी मुहूर्त में मुख्य मंदिर के तहखाने में, नागेश्वर पार्श्वनाथ व सहस्रफणा पार्श्वनाथ की काऊसग्ग मुद्रा सुंदर प्रतिमाजी विराजमान की गई। प्राचीन प्राप्त सभी अवशेषों को भमती में एक दीवार में सुंदर ढंग से प्रदर्शित किया गया है। मंदिरजी का अति प्राचीन प्रवेशद्वार, जिसे आ. श्री यशोभद्रसूरिजी की देहरी के बाहर, पुनः स्थापित किया गया। मूलनायक के प्राचीन वि. सं. १०५३ के अंकित लेख वाला प्रभासन मंदिर के तहखाने में सुरक्षित है। सिंदूर से लिपटी खंडित प्रतिमा रेवती दोष के शामक देवता की है, जिसकी बलिभद्राचार्य ने वि. सं. ५० १९७३ में स्थापना की थी। अधिष्ठायकदेव: मुख्य मंदिर के सामने एक छोटा-सा कलात्मक मंदिर है, जो अति प्राचीन रकक्‍तवर्णीय ‘महावीर यक्ष' का है, जिसके एक हाथ में बिजोरा है व दूसरे हाथ में नाग है। ये तीर्थरक्षक जागृत अधिष्ठाकदेव हैं।
वार्षिक मेला : यहां प्रति वर्ष चैत्र शु. एवं कार्तिक शु. १० को मेला भरता है, जिसमें आस-पास के जंगलों से हजारों भील, गरासिये आदिवासी आकर नृत्य करते हुए भगवान महावीर की आराधना करते हैं। यहां के रेवती यक्ष अति चमत्कारी है। मंदिर से पूर्व २ कि.मी. दूर, विकट पहाड़ियों के बीच हथुण्डी गांव है, जिसमें काश्तकारों की छोटी-सी बस्ती है। मंदिर के आगे बाएं उत्तर िदशा में एक खेत में, श्री पंचमुक्तेश्वर महादेवजी का मंदिर खंडहर अवस्था में है। पास ही १४वीं शताब्दी की विशाल बावड़ी है। दंतकथाओं के के अनुसार महाभारत काल में, पांडव अपनी माता कुन्ती सहित लाक्षागृह से निकलकर इस वनक्षेत्र में आए व अपने नित्यकर्म में शिव आराधना हेतु, उक्त पंच तीर्थेश्वर महादेव मंदिर का निर्माण करवा कर पूजा अर्चना करते थे।
मार्गदर्शन: बाली से पिण्डवाड़ा मुख्य सड़क पर २० कि.मी. दूर, बीजापुर से बायीं तरफ घोरिया जाने वाली सड़क पर ४ कि.मी. दूर यह तीर्थ स्थित है। यह रेलवे स्टेशन जवाईबांध से २० कि.मी., फालना से २७ कि.मी., सेवाड़ी से १० कि.मी., सुमेरपुर से ३० कि.मी., राणकपुर से ४५ कि.मी., बेड़ा से १७ कि.मी. और जूनाबेड़ा दादा पार्श्वनाथ से २० कि.मी. दूर पड़ता है। यहां प्रायवेट बस, ऑटो, टैक्सी जैसे साधनों से पहुंचा जा सकता है। नजदीक का हवाई अड्डा उदयपुर करीब १५० कि.मी. दूर है व जोधपुर से वाया फालना १७० कि.मी. दूर है।
सुविधाएं: आधुनिक सुविधाओं युक्त ब्लॉक्स, विशाल यात्रिक भवन, अतिथिगृह, संघ भवन आदि उपलब्ध हैं। धर्म आराधना हेतु आराधना भवन, उपाश्रय की सुविधा है। विशाल भोजनशाला भवन के साथ संघ के लिए अलग रसोड़े की उपयुक्त व्यवस्था है। यहां की भोजनशाला में हर रोज सुबह दाल-बाटी बनती है, जो कि पूरे क्षेत्र में प्रसिद्ध है। सुंदर बगीची है।
पेढ़ी: श्री हथुंडी राता महावीरस्वामी तीर्थ ट्रस्ट, मु. पो. बीजापुर-३०६७०७, वाया बाली, जिला-पाली, स्टेशन जवाईबांध, राजस्थान भारत, संपर्क: ०२९३३-२४०१३९, मैनेजर: श्री छगनलालजी जैन, श्री तोलारामजी- ०९९८२४६३४६० प्रस्तुती सहयोगी ट्रस्ट अध्यक्ष: बाबूलालजी पी. जैन, मुंबई, भ्रमणध्वनि: ०९८९२६९०८३३
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