श्री मोहनखेडा तीर्थ

मालवा का जैन महातीर्थ - मोहनखेड़ा

इतिहास के लिए विख्यात रहे धार जिले की सरदारपुर तहसील के मोहनखेड़ा में श्वेताम्बर जैन समाज का एक ऐसा महातीर्थ विकसित हुआ है, जो देश और दुनिया में ख्यात हो चुका है। परम पूज्य दादा गुरुदेव श्रीमद् विजय..राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज साहब की तीर्थ नगरी मानवसेवा का भी तीर्थ बन चुकी है। 

गुरू सप्तमी पर हर साल यहाँ श्रद्धालुओं का सैलाब उमड़ता है। लाखों श्रद्धालु पूज्य गुरुदेव का जयघोष कर अपने कल्याण का मार्ग प्राप्त करते हैं। दरअसल पूजनीय दादा गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेंद्र सूरीश्वरजी मसा की दिव्य दृष्टि का परिणाम मोहनखेड़ा महातीर्थ है। श्री राजेंद्र सूरीश्वरजी संवत १९२८ व १९३४ में राजगढ़ में चातुर्मास कर चुके थे। संवत १९३८ में उन्होंने आलीराजपुर में चातुर्मास किया और उसके पश्चात उनका धार जिले के राजगढ़ में फिर पदार्पण हुआ। इस दौरान गुरुदेव ने श्रावक श्री लुणाजी पोरवाल से कहा कि आप सुबह उठकर खेड़ा जाएँ व घाटी पर जहाँ कुमकुम का स्वास्तिक दिखें वहां निशान बनाएँ तथा उस स्थान पर एक मंदिर का निर्माण करें ।

इतिहास के लिए विख्यात रहे धार जिले की सरदारपुर तहसील के मोहनखेड़ा में श्वेताम्बर जैन समाज का एक ऐसा महातीर्थ विकसित हुआ है जो देश और दुनिया में विख्यात हो चुका है।

गुरुदेव के आदेशानुसार, लुणाजी ने मंदिर निर्माण प्रारंभ करवाया। संवत १९३८ में गुरुदेव का चातुमार्स निकट ही कुक्षी में हुआ और संवत १९४० में वे राजगढ़ नगर में रहे। श्री गुरुदेव ने इसी दौरान शुक्ल सप्तमी के शुभ दिन मूलनायक ऋषभदेव भगवान आदि ४१ जिन बिंबियों की अंजनशलाका की। मंदिर में मूल नायकजी व अन्य बिंबियों की प्रतिष्ठा के साथ ही उन्होंने घोषणा की कि यह तीर्थ भाविष्य में विशाल रूप धारण करेगा और इसे मोहनखेड़ा के नाम से पुकारा जाएगा। आज यह तीर्थ उनके ही आशीर्वाद की वजह से महातीर्थ बन चुका है। 

मंदिर का वर्तमान स्वरूप

वर्तमान में तीर्थ परिसर में विशाल व त्रिशिखरीय मंदिर में मूल नायक भगवान आदिनाथ की ३१ इंच की सुदर्शना प्रतिमा विराजित है, जिसकी प्रतिष्ठा गुरुदेव द्वारा की गई थी। अन्य बिंवियों में श्री शंखेश्वर पाश्र्वनाथ उवं श्री चिंतामणि पाश्र्चनाथ हैं। गर्भगृह में प्रवेश हेतु संगमरमर के तीन कलात्मक द्वार हैं। गर्भगृह में श्री अनंतनाथजी, श्री सुमतिनाथजी व अष्टधातु की प्रतिमाएँ हैं।

इसमें भगवान पाश्र्वनाथ की श्यामवर्ण की दो पद्यासन प्रतिमाएँ स्थपित भगवान आदिनाथ के पगलियाजी स्थापित है, जहाँ एक मंदिर बना हुआ है।

गुरुदेव की पावन प्रतिमा मोहनखेड़ा में स्थापति की गई। उनका अग्नि संस्कार मोहनखेड़ा में ही किया गया था। आज इस प्रतिमा के आसपास स्वर्ण जड़ा जा चुका है, साथ ही इस समाधि मंदिर की दीवारों पर अभी भी स्वर्ण जड़ने का कार्य जारी है। गुरुदेव की पावन प्रतिमा मोहनखेड़ा में स्थापित की गई। उनका अग्नि संस्कार मोहनखेड़ा में ही किया गया था। आज इस प्रतिमा के आसपास स्वर्ण जड़ा जा चुका है, साथ ही इन समाधि मंदिर की दीवारों पर अभी भी स्वर्ण जड़ने का कार्य जारी है।

गुरुदेव के ही आशीर्वाद का परिणाम है कि तीर्थ अब मानवसेवा का भी महातीर्थ बन चुका है, यहां श्री आदिनाथ राजेंद्र जैन गुरुकुल का संचालन किया जा रहा है, जिसमें विद्यार्थियों के आवास, भोजन व शिक्षण हेतु व्यवस्था की जाती है, इसके अलावा श्री राजेंन्द्र विद्या हाईस्कूल का भी संचालन किया जा रहा है, जिसमें सैकड़ों विद्यार्थी अध्ययनरत हैं। दुनिया का प्रत्येक धर्म यह शिक्षा देता है कि मानवसेवा से बड़ा कोई धर्म नहीं है, इसी ध्येय वाक्य के साथ यहाँ पर श्री गुरू राजेंन्द्र मानवसेवा मंदिर चिकित्सालय संस्था भी संचालित है। इस चिकित्सालय में नाममात्र के शुल्क पर सुविधाएँ दी जाती है।

नेत्रसेवा के लिए भी यह तीर्थ प्रसिद्ध है। १९९९ में तीर्थ पर ५ हजार ४२७ लोगों के ऑपरेशन किए गए। इसके अलावा आदिवासी अंचल में शाकाहार के प्रचार के व्यसन मुक्ति हेतु शिविरों का आयोजन किया जाता है।

इतना ही नहीं गोवंश के लिए यहाँ ९ हजार वर्गफुट आकार की श्री राजेंद्र सुरि कुंदन गोशाला है, जिसमें सर्वसुविधायुक्त ४ गोसदन बनाए गए हैं, पशुओं के उपयोग के लिए घास आदि के संग्रह हेतु १० हजार वर्गफुट का विशाल घास मैदान भी है। इस तरह कई सामाजिक सरोकार से भी यह तीर्थ जुड़ा हुआ है। सामाजिक सरोकार में मुनिराज ज्योतिष सम्राट श्री ऋषभचंद्र विजयजी म.सा. की प्रेरणा और उनकी मेहनत काफी महत्वपूर्ण है।

श्री गुरू राजेंन्द्र विद्या शोध संस्थान की स्थापना मोहनखेड़ा तीर्थ में की गई, इसका मुख्य उद्देश्य जैन साहित्य में रुचि रखने वाले लोगों को पुस्तकालय की सुविधा उपलब्ध कराना व शोधपरक साहित्य का प्रकाशन करना है। इसके अतिरिक्त गुरुदेव द्वारा रचित राजेंद्र अभिधान कोष के ७ भागों का संक्षिप्तिकरण कर उनका हिंदी अनुवाद किया जा रहा है।

मोहनखेड़ा पहुँचने के लिए धार जिले के सरदारपुर तहसील की व्यापारिक नगरी राजगढ़ पहुँचकर वहाँ से महज ५ किमी दूर स्थित तीर्थ पर आसानी से पहुँचा जा सकता है। इंदौर से लेकर राजगढ़ तक सीधी बस सेवाएँ संचालित हैं। धार जिला मुख्यालय से भी हर घंटे में बस सेवा उपलब्ध है, जबकि मोहनखेड़ा से निकट यानी करीब ६० किमी पर मेघनगर पर रेलवे स्टेशन है, यहाँ यात्रियों के ठहरने के लिए सर्वसुविधायुक्त धर्मशालाएँ उपलब्ध हैं। इस तीर्थ की मुख्य धर्मशाला विद्याविहार है, जिसमें २०५ कमरे व ४ हॉल बनाए गए हैं, भोजन शाला का निर्माण भी ट्रस्ट मंडल द्वारा करवाया।

मोहनखेड़ा महातीर्थ...

वर्तमान अवसर्पणी के प्रथम तीर्थंकर भगवान श्री ऋषभदेवजी को समर्पित

श्री मोहनखेड़ा तीर्थ की गणना आज देश के प्रमुख जैन तीर्थो में की जाती है।

मध्यप्रदेश के धार जिले की सरदारपुर तहसील, नगर राजगढ से मात्र

तीन किलोमीटर दूर स्थित यह तीर्थ देव गुरू व धर्म की त्रिवेणी है।

श्री मोहनखेडा तीर्थ की स्थापना :

तीर्थ की स्थापना प्रात:स्मरणीय विश्वपूज्य दादा ‘गुरूदेव’ श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. की दिव्य दृष्टि का परिणाम है। आषाढ वदि १० वि.सं. १९२५ में क्रियोद्धार करने व यति परम्परा को संवेगी धारा में रूपान्तरित कर श्रीमद् देश के विभिन्न भागों में विचरण व चातुर्मास कर जैन धर्म की प्रभावना कर रहे थे, यह स्वाभाविक था कि मालव भूमि भी उनकी चरणरज से पवित्र हो। पूज्यवर संवत् १९२८ व १९३४ में राजगढ़ नगर में चातुर्मास कर चुके थे तथा इस क्षेत्र के श्रावकों में उनके असीम श्रद्धा व समर्पण था। सं. १९३८ में निकट ही अलिराजपुर में आपने चातुर्मास किया व तत्पश्चात राजगढ में पदार्पण हुआ। राजगढ़ के निकट ही बंजारों की छोटी अस्थायी बस्ती थी-खेडा। श्रीमद् का विहार इस क्षेत्र से हो रहा था, सहसा यहाँ उनको कुछ अनुभुति हुई और आपने अपने दिव्य ध्यान से देखा कि यहाँ भविष्य में एक विशाल तीर्थ की संरचना होने वाली है। राजगढ़ आकर गुरूदेव ने सुश्रावक श्री लुणाजी पोरवाल से कहा कि आप सुबह उठकर जावें व घाटी पर जहाँ कुमकुम का स्वस्तिक देखे, वहाँ निशान बना आना, उस स्थान पर तुमको एक मंदिर का निर्माण करना है। परम गुरूभक्त श्री लूणाजी ने गुरूदेव का आदेश शिरोधार्य किया, गुरूदेव के कथानुसार स्वस्तिक दिखा। श्री लूणाजी ने पंच परमेष्ठि परमात्मा का नाम स्मरण कर उसी समय मुहूर्त कर डाला और भविष्य में एक महान तीर्थ के निर्माण की भूमिका बन गई।

मंदिर निर्माण का कार्य प्रारम्भ हुआ व शीघ्र ही पूर्ण भी हो गया। संवत् १९३९ में पू. गुरूदेव का चातुर्मास निकट ही कुक्षी में तथा संवत् १९४० में राजगढ़ नगर में था। श्री गुरूदेव ने विक्रम संवत् १९४० की मृगशीर्ष शुक्ला सप्तमी के शुभ दिन मूलनायक ऋषभदेव भगवान आदि ४१ जिनबिम्बों की अंजनशलाका की। मंदिर में मूलनायकजी एवं अन्य बिम्बों की प्रतिष्ठा की, प्रतिष्ठा के समय पू. गुरूदेव ने घोषणा की थी यह तीर्थ भविष्य में विशाल रूप धारण करेगा, इसे मोहनखेड़ा के नाम से ही पुकारा जाये। पूज्य गुरूदेव ने इस तीर्थ की स्थापना श्री सिद्धाचल की वंदनार्थ की थी। कुछ क्षण व तिथियाँ भाग्यवान होती है व किसी महान घटना से जुड़कर इतिहास में अमर हो जाती है।

अपनी स्थापना के समय मंदिर तथा मंदिर परिसर का आकार बहुत छोटा था। मुख्य मंदिर में सम्मुख एक दरवाजा था। गर्भगृह में मूलनायक भगवान आदिनाथ व अन्य तीर्थंकर प्रतिमाएं थी। मंदिर में ही गर्भगृह के बाहर श्री मणिभद्रजी व श्री क्षेत्रपाल जी की देवली थी। मंदिर में मंदिर निर्माता सेठ श्री लुणाजी व उनकी धर्मपत्नी श्रीमती जडावबाई की मूलनायकाभिमुख वंदन करती हुई लगभग डेढ फुट की मूर्तियां थी। मंदिर के बाहर दो छोटे छोटे मंदिर थे। वर्तमान में जहां युगाधिदेव का मंदिर है, बडनगर निवासी लुणाजी रखबदासजी द्वारा निर्मित मंदिर था, जिसमें पाश्र्वनाथ भगवान के प्रतिमाएं थी, इसी प्रकार एक मंदिर इसके सामने था। मंदिर के पृष्ठ भाग में श्रीमद् द्वारा श्री आदिश्वर दादा भगवान के पगलिये भी प्रतिष्ठित किये गये थे, इस भूमि पर श्वेत मणिधर सर्पराज का निवास है, छोटी सी बांबी पर अब घुमट शिखरी है, कभी कभी सर्पराज आकर गुरूभक्तों को दर्शन दे जाते हैं।

उस समय मंदिर परिसर कच्चा था, प्राय: घास उगी रहती थी, सर्प आदि का भी भय बना रहता था। मंदिर की व्यवस्था जमींदार लूणाजी का परिवार ही करता था, यदा-कदा बाहर के यात्री और अक्सर राजगढ़ के श्रावकगण ही यहाँ आकर पूजा अर्चना करते थे। मोहनखेड़ा राजगढ़ के मध्य मार्ग में बना था। एक गाड़ी गडार थी जो प्राय: कीचड़युक्त रहती थी। दर्शनार्थी व विहार पर आने वाले मुनि व साध्वीगण नाले के किनारे बनी पगडण्डी से आना जाना करते थे। वर्षा के दिनों में मार्ग और भी दुरूह हो जाता था, बीच में बहने वाला नाला भी कई बार रास्ता रोका करता था, फिर भी भक्तों की भक्ति कठिनाईयों पर हमेशा ही विजय पाती थी।

संवत् १९९१ में मंदिर निर्माण के लगभग २८ वर्ष पश्चात् श्री यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के उपदेश से प्रथम जीर्णोद्धार हुआ, यह जीर्णोद्धार उनके शिष्य मुनिप्रवर श्री अमृतविजयजी की देखरेख व मार्गदर्शन में हुआ था। पूज्य मुनिप्रवर प्रतिदिन राजगढ़ से यहां आया करते थे, इस जीर्णोद्धार में जिनालय की मरम्मत की गई थी एवं परिसर में फरसी गलवाई थी इस कार्य हेतु मारवाड़ के आहोर सियाणा नगर के त्रिस्तुतिक जैन श्वेताम्बर श्री संघों ने वित्तीय सहयोग प्रदान किया था। जीर्णोद्धार व सहयोग के लेख गुरू मंदिर की बाहरी दीवार में लगे हुए हैं, इसके पश्चात् भी समय-समय पर विभिन्न कार्य होते रहे। मूल मंदिर में चित्र भी बनाये गये थे।

श्री मोहनखेड़ा तीर्थ का द्वितीय जीर्णोद्धार  इतिहास की सबसे अहम् घटना है। परिणाम की दृष्टि से यह जीर्णोद्धार से तीर्थ का कायाकल्प था, विस्तार व विकास का महत्वपूर्ण कार्य था, जीर्णोद्धार, कायाकल्प व विस्तार के शिल्पी थे- प.पू. आचार्य भगवंत श्री विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी। तीर्थ विकास की एक गहरी अभिप्सा उनके अंतरमन में थी जिसे उन्होंने अपने पुरूषार्थ व कार्यकुशलता से साकार किया, अपने सतत् विहार में उन्होंने तीर्थ विकास के लिए दानदाताओं को प्रेरित किया। निर्माण के नौ दशक पूर्ण हो चुके थे, अत: श्रीमद् यतीन्द्रसूरीजी द्वारा पूर्व निर्देशित योजना के अनुसार जीर्णोद्धार की रूपरेखा बनाई गई।

वैशाख शुक्ला द्वितीया सं. २०३२ दिनांक १३ मई १९७५ को आचार्य भगवंत श्री मोहनखेडा तीर्थ पधारे। मुहूर्तानुसार २३ मई १९७५ को मूलनायकजी का उत्थापन हुआ। ज्येष्ठ शुक्ला एकादशी सं. २०३२, गुरूवार, दिनांक १९ जून १९७५ को भव्य समारोह के साथ शिलान्यास किया गया और तीव्र गति से निर्माण प्रारम्भ हो गया। आचार्य महाराज ने एक चातुर्मास धानेरा में करने के पश्चात सं २०३४ का चातुर्मास जीर्णोद्धार के कार्य को ध्यान में रखते हुए राजगढ़ में ही किया, जिससे निर्माण कार्य की गति बढ़ी, इसी वर्ष श्रावण शुक्ला षष्ठी को अखिल भारतीय त्रिस्तुतिक श्री संघ की बैठक आमंत्रित कर महोत्सव की रूपरेखा सुनिश्चित की गई। माघ शुक्ला १३ सं २०३४ तदनुसार २० फरवरी १९७८ सोमवार को प्रतिष्ठोत्सव करने का मुहूर्त निश्चित हुआ।

कुशल नेतृत्व, योजनाबद्ध कार्य, कठिन परिश्रम व दादा गुरूवर एवं आचार्य महाराज के आशीर्वाद के फलस्वरूप ९७६ दिन में नींव से लेकर शिखर तक मंदिर तैयार हो गया। मंदिर तीन शिखर से युक्त है, श्री संघ के निवेदन पर पट्टधर आचार्य श्री विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी ने अपने हस्तकमलों से वि.सं. २०३४ की माघ सुदी १२ रविवार को ३७७ जिन बिम्बों की अंजनशलाका की। अगले दिवस माघ सुदी १३ सोमवार को तीर्थाधिराज मूलनायक श्री ऋषभदेव प्रभु, श्री शंखेश्वर पाश्र्वनाथ व श्री चिंतामणी पाश्र्वनाथ आदि ५१ जिनबिम्बों की प्राण प्रतिष्ठा की व शिखरों पर दण्ड, ध्वज व कलश समारोपित किये गये। मंदिर में इनके साथ ही शुभ मुहूर्त में मुख्य मंदिर के दक्षिण में श्यामवर्णी १६ फूट १ इंच के कार्योत्सर्गस्थ श्री आदिनाथजी, दो शाश्वत चौमुखी प्रतिष्ठित किये तथा वाम पाश्र्व में एकावन व एकतालिस इंच की दो पाश्र्व प्रतिमाएं व सिद्धचक्र की प्रतिष्ठा आचार्य भगवंत ने की।

जीर्णोद्धार में परमपूज्य आचार्य भगवंत श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी के समाधि का भी जीर्णोद्धार किया गया व ध्वज, दण्ड व कलश चढाये गये। श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी की समाधि पर भी दण्ड, ध्वज व कलश चढाये गये, महोत्सव में स्वगच्छीय मुनिमंडल में से मुनिराज श्री हेमेन्द्रविजयजी, मुनिराज श्री सौभाग्यविजय, मुनिराज श्री शांतिविजयजी, मुनिराज श्री देवेन्द्रविजयजी, मुनिराज श्री जयंतविजयजी, मुनिराज श्री जयप्रभविजय आदि चौबीस मुनि व छब्बीस साध्वीजी पधारे थे। भारतवर्षीय सौधर्मवृहत्ततोगच्छीय समस्त श्री श्रीसंघों द्वारा आयोजित इस तेरह दिवसीय कार्यक्रम में देश के विभिन्न भागों से पधारे हजारों श्रावकों व श्रद्धालुओं ने भाग लिया, जिनके आवास व भोजन की समुचित व्यवस्था की गई थी, द्वितीय जीर्णोद्धार में आहोर श्री संघ की जीर्णोद्धार समिति के प्रमुख स्व. श्री घेवरचंदजी जेठमलजी मुथा का परिश्रम सराहनीय रहा।

मंदिर का वर्तमान स्वरूप

वर्तमान मंदिर काफी विशाल व त्रिशिखरीय है। मंदिर के मूलनायक भगवान आदिनाथ है जिनकी ३१ इंच की सुदर्शता प्रतिमा विराजित है, जिसकी प्रतिष्ठा श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी द्वारा की गई थी अन्य दो मुख्य बिम्ब श्री शंखेश्वर पाश्र्वनाथ एवं श्री चिंतामणी पाश्र्वनाथ के हैं, जिनकी प्रतिष्ठा व अंजनशलाका वि.सं. २०३४ में मंदिर पुर्नस्थापना के समय श्रीमद विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी के करकमलों से हुई थी। गर्भगृह में इनके अतिरिक्त श्री अनन्तनाथजी, सुमतिनाथजी व अष्टधातु की प्रतिमाएं हैं। गर्भगृह में प्रवेश हेतु संगमरमर के तीन कलात्मक द्वार हैं व ऊंची वेदिका पर प्रभु प्रतिमाएं विराजित हैं।

गर्भगृह के बाहर वाले मंडप में दीवार पर निर्मित चार गुरूकुलिका है जिसमें भगवान आदिनाथ के प्रथम गणधर पुण्डरिकस्वामी, भगवान महावीर के गणधर लब्धिकारक श्री गौतम स्वामी एवं सुधर्मास्वामी एवं महान प्रभावक आचार्य श्री रत्नसूरीश्वरजी म.सा. की प्रतिमाएं प्रतिष्ठित हैं, इसी भाग में दो देवकुलिका भी है, जिनमें श्री चक्रेश्वरीदेवी एवं श्री गोमुखयक्ष यहां विराजमान हैं, ये सभी प्रतिमाएं भी श्रीमद विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी द्वारा प्रतिष्ठित हैं, मुख्य मंदिर भूमि से कुछ ऊंचाई पर वेदिका पर निर्मित है।

यह मुख्य मंदिर एक ऊंची पीठीका पर निर्मित है, प्रवेश के पूर्व संगमरमर के दो वंदनवार है तत्पश्चात तीन प्रवेश द्वार स्थापित हैं।

मंदिर के मंडप से भी दोनों और द्वार हैं। मंदिर की दीवारों, द्वारों, स्तम्भों, छतों एवं गुम्बदों के आंतरिक भागों पर सुंदर नक्कासी का कार्य किया गया है। मंदिर के चारों ओर विस्तृत परिक्रमा वृत है। समाधि मंदिर के बाद दोनों तरफ क्षेत्रपालजी और मणिभद्रजी वीर का तीर्थ रक्षक के रूप में देवली है।

भगवान आदिनाथजी के पगलियाजी

जैन परम्परा में तीर्थंकर भगवन्तों, आचार्य व मुनि भगवंतों के चरण पादुकाओं की स्थापना की भी परम्परा है। मुख्य मंदिर के पीछे श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. द्वारा स्थापित भगवान आदिनाथजी के पगलियाजी हैं जिस पर छोटासा मंदिर बना हुआ है।

गुरुदेव श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरिश्वरजी

जन्म नाम               :

जन्म स्थल              :

जन्मतिथि               :              

पिता का नाम        :

माता का नाम        :              

अग्रज नाम            :

बहनों के नाम        :

दीक्षा तिथि             :              

दीक्षा स्थल             :

दीक्षा दाता             :

दीक्षा नाम              :           

ज्ञानदाता                :          

बड़ी दीक्षा              :

रत्नराज पारख

भरतपुर (राजस्थान)

वि.सं. १८८३ पौष शुक्ल सप्तमी, गुरुवार, ३ दिसम्बर १८२७

श्रेष्ठी ऋषभदास पारख

धर्मपरायणा केसर बाई पारख

माणकचंद पारख

सुश्री गंगा एवं प्रेमा पारख

वि.सं. १९०४ वैशाख शुक्ला पंचमी, शुक्रवार

झीलों की सुरम्य नगरी, उदयपुर (राजस्थान)

आ. श्री प्रमोदसूरीजी के ज्येष्ठ गुरु भ्राता श्री हेम विजयजी म. सा.

मुनि श्री रत्नविजयजी म.

सरस्वती विद्याधारी मुनि श्री सागरचन्द्रजी म. सा.

वैशाख शुक्ल अक्षय तृतीया सं. १९०९ उदयपुर में मुनि श्री हेमविजयजी म.द्वारा पण्डित पद प्रदान। 

वि.सं. १९२१ में धरणेंद्र सूरिजी द्वारा दफ्तरी पद प्रदान

आचार्यपद                        :

नामकरण                        :       

क्रियोद्धार अभिग्रह          :        

क्रियोद्धार अभिग्रहपूर्ति     :

प्रतिष्ठा व  अन्जनशलाका   :

देहत्याग (स्वर्गारोहण)        :      

साहित्यसाधना                   :   

वि.सं. १९२४ वैसाख शुक्ल पंचमी, बुधवार, आहोर में

श्री पू.विजय राजेन्द्रसूरिजी म.

महावीर स्वामी का २३८९ वाँ जन्म दिन चैत्र शुक्ल त्रयोदशी 

वि.सं. आषाढ़ बदी १० शनिवार

जालोर,कुक्षी,मोहनखेड़ा,निम्बाहेड़ा,रिंगनोद,झाबुआ,कड़ौद,आहोर,

सियाणा,सरसी, शिवगंज आदि।

राजगढ़ में वि.सं. १९६३ पौष शुक्ल सप्तमी २२ दिसम्बर १९०६

श्री अभिधान राजेन्द्रकोष का ग्रंथ सं. १९६० में पूर्ण हुआ। १९ दिसम्बर, १९०६ पौष शुक्ल तृतीया को दीप विजय व यतीन्द्र विजय को प्रकाशन हेतु सौंपना,  संस्कृत, प्राकृत भाषा में ६० विद्वतापूर्ण ग्रन्थों की स्वतन्त्र रचना की।

उल्लेखनीय चातुर्मास एवं प्रतिष्ठा व अन्जनशलाका                   :

प्रतिष्ठा व अन्जनशलाका         :

उदयपुर, इन्दौर, नागौर, आहोर, खाचरौद, रतलाम, कुक्षी, थराद, भीनमाल अलिराजपुर, सियाणा, सूरत, गुड़ा।

जालोर, कुक्षी, मोहनखेड़ा, निम्बाहेड़ा, रिंगनोद, झाबुआ, कड़ौद, आहोर,सियाणा, सरसी, शिवगंज आदि।

जन्मस्थान एवं माता-पिता-परिवार

‘श्रीराजेन्द्रसुरिरास’ एवं श्री राजेन्द्रगुणमंजरी के अनुसार, वर्तमान राजस्थान प्रदेश के भरतपुर शहर में दहीवाली गली में पारिख परिवार के ओसवंशी श्रेष्ठि ऋषभदास रहते थे, आपकी धर्मपत्नी का नाम केशरबाई था, जिसे अपनी कुक्षि में श्री राजेन्द्र सुरि जैसे व्यक्तित्व को धारण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। श्रेष्ठि रुषभदास की तीन संतानें थीं, दो पुत्र : बड़े पुत्र का नाम माणिकचन्द एवं छोटे पुत्र का नाम रतनचन्द था एवं एक कन्या थी, जिसका नाम प्रेमा था, छोटा पुत्र रतनचन्द आगे चलकर आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरि नाम से प्रख्यात हुए।

आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्रसुरि के अनुसार, वि.सं. ११९० में आचार्यदेव श्री जिनदत्तसुरि महाराज के उपदेश से राठौड़ वंशीय राजा खरहत्थ ने जैन धर्म स्वीकार किया, उनके तृतीय पुत्र भेंसाशाह के पांच पुत्र थे, उनमें तीसरे पुत्र पासुजी आहेडनगर (वर्तमान आयड-उदयपुर) के राजा चंद्रसेन के राजमान्य जौहरी थे, उन्होंने विदेशी व्यापारी के हीरे की परीक्षा करके बताया कि यह हीरा जिसके पास रहेगा, उसकी स्त्री मर जायेगी, ऐसी सत्य परीक्षा करने से राजा पासु जी के साथ ‘पारखी’ शब्द का अपभ्रंश ‘पारिख’ शब्द बना। पारिख पासुजी के वंशज वहाँ से मारवाड़, गुजरात, मालवा, उत्तरप्रदेश आदि जगह व्यापार हेतु गये, उन्हीं में से दो भाइयों के परिवार में से एक परिवार भरतपुर आकर बस गया था। जन्म को लेकर ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है कि आचार्य श्री के जन्म के पहले एक रात्रि में उनकी माता केशरबाई ने स्वप्न में देखा कि एक तरुण व्यक्ति ने प्रोज्ज्वल कांति से चमकता हुआ रत्न केशरबाई को दिया –

‘गर्भाधानेड़थ साडदक्षित स्वप्ने रत्नं महोत्तम्म’

निकट के स्वप्नशास्त्री ने स्वप्न का फल भविष्य में पुत्ररत्न की प्राप्ति होना बताया।

Rajendra-suri-maharaj053आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्र सुरी के अनुसार, वि.सं. १८८३ पौष सुदि सप्तमी, गुरुवार, तदनुसार ३ दिसम्बर सन् १८२७ को माता केशरबाई ने देदीप्यमान पुत्ररत्न को जन्म दिया। पूर्वोक्त स्वप्न के अनुसार माता-पिता एवं परिवार ने मिलकर नवजात पुत्र का नाम ‘रत्नराज’ रखा।

आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्र सुरी एवं मुनि गुलाबविजय के अनुसार योग्य उम्र में पाठशाला में प्रविष्ट हुए, मेधावी रत्नराज ने केवल १० वर्ष की अल्पायु में ही समस्त व्यावहारिक शिक्षा अर्जित की, साथ ही धार्मिक अध्ययन में विशेष रुचि होने से धार्मिक अध्ययन में प्रगति की। अल्प समय में ही प्रकरण और तात्विक ग्रंथों का अध्ययन कर लिया। तीव्र क्षयोपशम के कारण प्रखरबुद्धि बालक रत्नराज १३ वर्ष की छोटी सी उम्र में अतिशीघ्र विद्या एवं कला में प्रवीण हो गए। श्री राजेन्द्रसूरि रास के अनुसार उसी समय विक्रम संवत् १८९३ में भरतपुर में अकाल पड़ने से कार्यवश माता-पिता के साथ आये रत्नराज का उदयपुर में आचार्य श्री प्रमोदसुरि जी के प्रथम दर्शन एवं परिचय हुआ, उसी समय उन्होंने रत्नराज की योग्यता देखकर ऋषभदास जी ने रत्नराज की याचना की लेकिन ऋषभदास ने कहा कि अभी तो बालक है, आगे किसी अवसर पर, जब यह बड़ा होगा और उसकी भावना होगी, तब देखा जायेगा।’

जीवन के व्यापार-व्यवहार के शुभारंभ हेतु मांगलिक स्वरुप तीर्थयात्रा कराने का परिवार में विचार हुआ। माता-पिता की आज्ञा लेकर बड़े भाई माणेकचंद के साथ धुलेवानाथ – केशरियाजी तीर्थ की पैदल यात्रा करने हेतु प्रयाण किया, पहले भरतपुर से उदयपुर आये, वहाँ से अन्यत्र यात्रियों के साथ केशरियाजी की यात्रा प्रारंभ की, तब रास्ते में पहाड़ियों के बीच आदिवासी भीलों ने हमला कर दिया, उस समय रत्नराज ने यात्रियों की रक्षा की। साथ ही नवकार मंत्र के जाप के बल पर जयपुर के पास अंब ग्राम निवासी शेठ शोभागमलजी की पुत्री रमा को व्यंतर के उपद्रव से मुक्ति भी दिलायी। सभी के साथ केशरियाजी की यात्रा कर वहाँ से उदयपुर, करेडा पाश्र्वनाथ एवं गोडवाड के पंचतीर्थों की यात्रा कर वापिस भरतपुर आये।

ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है कि शेठ सोभागमलजी ने रत्नराज के द्वारा पुत्री रमा को व्यंतर दोष से मुक्त किये जाने के कारण रमा की सगाई रत्नराज के साथ करने हेतु बात की थी लेकिन वैराग्यवृत्ति रत्नराज ने इसके लिए इंकार कर दिया।

रत्नराज के पिता श्रेष्ठि ऋषभदास का हीरे-पन्ने आदि जेवरात एवं सोने-चांदी का वंश परम्परागत व्यापार था। रत्नराज ने १४ साल की छोटी सी उम्र में चैत्र सुदि प्रतिपदा के दिन परम्परागत हीरा-पन्ना आदि का व्यापार शुरु किया और केवल दो महिने में ही व्यापार का पुरा अनुभव प्राप्त कर लिया, उसके बाद व्यापार हेतु बड़े भाई के साथ भरतपुर से पावापुरी, सम्मेद शिखर जी आदि तीर्थों की यात्रा कर कलकत्ता पहुँच गये। थोड़े समय तक वहाँ व्यापार कर वहाँ से जलमार्ग से व्यापार हेतु सीलोन (श्रीलंका) पहुँचे। वहाँ ढाई से तीन साल तक व्यापार कर न्याय-नीतिपूर्वक कल्पनातीत धन उपार्जन किया। व्यापार में अत्याधिक व्यस्तता एवं मुनाफा होने के बावजूद भी माता-पिता के वृद्धत्व एवं गिरते स्वास्थ्य का समाचार पाकर दोनों भाई व्यापार समेटकर वापिस कलकत्ता होकर भरतपुर आ गये।

Rajendra-suri-maharaj054माता-पिता की वृद्धावस्था एवं दिन-प्रतिदिन गिरते स्वास्थ्य के कारण दोनों भाई माता-पिता की सेवा में लग गए, रत्नराज ने उनको अंतिम आराधना करवाई एवं एक दिन के अंतर में माता-पिता दोनों ने समाधिभाव से परलोक प्रयाण किया। माता-पिता के स्वर्गवास के पश्चात उदासीन रत्नराज आत्मचिंतन में लीन रहने लगे, नित्य अर्ध-रात्रि में, प्रात:काल में कायोत्सर्ग, ध्यान, स्वाध्याय, चिंतन-मनन आदि में समय व्यतीत करते रहे। सुषुप्त वैराग्यभावना के बीज अंकुरित होने लगे, इतने में उसी समय (वि.सं. १९०२) में पूज्य श्री प्रमोदसूरिजी का चातुर्मास भरतपुर में हुआ, आपका तप-त्याग से भरा वैराग्यमय जीवन एवं तत्वज्ञान से ओत-प्रोत वैराग्योत्पादक उपदेशामृत ने रत्नराज के जिज्ञासु मन का समाधान किया, जिससे रत्नराज के वैराग्यभाव में अभिवृद्धि हुई, फलस्वरुप उनकी दीक्षा-भावना जागृत हुई और वे भागवती दीक्षा (प्रवज्या) ग्रहण करने हेतु उत्कंठित हो गये।

दीक्षा को उत्कंठित रत्नराज में उत्पादन उछल रहा था, केवल निमित्त की उपस्थिति आवश्यक थी। निमित्त का योग वि.सं. १९०४ वैशाख सुदि ५ (पंचमी) को उपस्थित हो गया और इस प्रकार अपने बड़े भ्राता माणिकचंदजी की आज्ञा लेकर रत्नराज ने उदयपुर (राज.) में पिछोला झील के समीप उपवन में आम्रवृक्ष के नीचे श्रीपूज्य श्री प्रमोदसूरिजी से यति दीक्षा ग्रहण की, इस प्रकार आपके दीक्षा गुरु आचार्य श्री प्रमोद सूरि जी थे, अब नवदीक्षित मुनिराज मुनि श्री रत्नविजयजी के नाम से पहचाने जाने लगे।

‘पढमं नाणं तओ दया’ अर्थात् ज्ञान के बिना संयम जीवन की शुद्धि एवं वृद्धि नहीं है, इस बात को निर्विवाद सत्य समझकर गुरुदत्त ग्रहण शिक्षा के साथ-साथ मुनिश्री रत्नविजयजी ने दत्तवित्त होकर अध्ययन प्रारंभ किया। व्याकरण, काव्य, अलंकार, न्याय, दर्शन, ज्योतिष, वैद्यक, कोश, आगम आदि विषयों का सर्वांगीण अध्ययन आरंभ किया। मुनि रत्नविजयजी ने गुरु आज्ञा से खरतरगच्छीय यति श्री सागरचंदजी के पास व्याकरण, साहित्य, दर्शन आदि का अध्ययन किया (वि.सं. १९०६ से १९०९)। तत्पश्चात निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका, वृत्ति आदि पंचागी सहित जैनागमों का विशद अध्ययन वि.सं. १९१०-११-१२-१३ में श्री पूज्य श्री देवेन्द्रसूरि के पास किया, आपकी अध्ययन जिज्ञासा और रुचि देखकर श्री देवेन्द्रसूरि ने इन्हें विद्या की अनेक दुरुह और अलभ्य आमनायें प्रदान की। श्री राजेन्द्रसूरि द्वारा (पूर्वाद्र्ध) के लेखकरायचन्दजी के अनुसार मुनि रत्नविजय ने ज्योतिष का अभ्यास जोधपुर (राजस्थान) में चंद्रवाणी ज्योतिषि के पास किया।

वि.सं. १९०९ में अक्षय तृतीया (वैशाख सुदि तीज) के दिन श्री मद्विजय प्रमोद सूरिजी ने उदयपुर (राजस्थान) में आपको बड़ी दीक्षा दी। साथ ही श्री पूज्य श्री प्रमोदसूरिजी एवं श्री देवेन्द्रसुरिजी ने आपको उस समय पंन्साय पद भी दिया।

आपकी योग्यता और स्वयं की अंतिम अवस्था ज्ञातकर श्रीपूज्य श्री देवेन्द्रसूरि ने अपने बाल शिष्य धरणेन्द्रसूरिजी (धीर विजय) को अध्ययन कराने का मुनिश्री रत्नविजय जी को आदेश दिया। गुरु आज्ञा व श्रीपूज्यजी के आदेशानुसार आपने वि.सं. १९१४ से १९२१ तक धीरविजय आदि ५१ यतियों को विविध विषयों का अध्ययन करवाया और स्व-पर दर्शनों का निष्णांत बनाया। श्री पूज्यश्री धरणेन्द्रसूरि ने भी विद्यागुरु के रुप में सम्मान हेतु आपको ‘दफ्तरी’ पद दिया। दफ्तरी पद पर कार्य करते हुए आपने वि.सं. १९२० में रणकपुर तीर्थ में चैत्र सुदि १३ (महावीर जन्मकल्याणक) के दिन पाँच वर्ष में क्रियोद्धार करने का अभिग्रह किया। वि.सं. १९२२ का चातुर्मास प्रथम बार स्वतंत्र रुप से २१ यतियों के साथ जालोर में किया, इसके बाद वि.सं. १९२३ का चातुर्मास श्री धरणेन्द्रसुरिजी के आग्रह से ‘घाणेराव’ में उन्हीं के साथ हुआ।

Rajendra-suri-maharaj055ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है कि वर्षाकाल में ही घाणेराव में ‘इत्र’ के विषय में मुनि रत्नविजय का श्री धरणनेद्रसुरिजी से विवाद हो गया। श्री रत्नविजय जी साधुचर्या के अनुसार साधुओं को ‘इत्र’ आदि उपयोग करने का निषेध करते थे जबकि धरणेन्द्रसुरि एवं अन्य शिथिलाचारी यति इत्र आदि पदार्थ ग्रहण करते थे। कल्पनासूत्रार्थ प्रबोधिनी के अनुसार वि.सं. १९२३ के पर्युषण पर्व में तेलाधार के दिन शिथिलाचारी को दूर करने के लिये मुनि रत्नविजय ने तत्काल ही मुनि प्रमोदरुचि एवं धनविजय के साथ घाणेराव से विहार कर नाडोल होते हुए आहोर शहर आकर अपने गुरु श्री प्रमोदसूरिजी से संपर्क किया और बीती घटना जानकारी दी, साथ ही अनेक अन्य विद्वान यतियों ने भी श्री पूज्य श्री प्रमोदसूरिजी शिथिलाचार का उपचार करने हेतु लिखा, तब मुनि रत्नविजय ने आहोर में अट्ठम तप कर मौन होकर ‘नमस्कार महामंत्र’ की एकान्त में आराधना की। आराधना के पश्चात श्री प्रमोदसुरिजी ने रत्नविजय से कहा- ‘रत्न, …तुमने क्रियोद्धार करने का निश्चय किया है सो योग्य है व मुझे प्रसन्नता भी है, परंतु अभी कुछ समय ठहरो। पहले इन श्री पूज्यों और यतियों से त्रस्त जनता को मार्ग दिखाओ, फिर क्रियोद्धार करो, तत्पश्चात गुरुदेव प्रमोदसुरिजी से विचार विमर्श कर मुनि रत्नविजय ने अपनी कार्य प्रणाली निश्चित की। वि.सं. १९२३ में इत्र विषयक विवाद के समय ही प्रमोदसूरि जी ने मुनि रत्नविजय को आचार्य पद एवं श्रीपूज्य पदवी देना निश्चित कर लिया था। ‘श्री राजेन्द्र गुणमंजरी’ आदि में उल्लेख है कि वि.सं. १९२४, वैशाख सुदि पंचमी बुधवार को श्री प्रमोदसूरिजी ने निजपरम्परागत सूरिमंत्रादि प्रदान कर श्रीसंघ आहोर द्वारा किये गये महोत्सव में मुनि श्री रत्नविजय जी को आचार्य पद एवं श्री पूज्य पद प्रदान किया और मुनि रत्नविजय का नाम ‘श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि रखा गया। आहोर के ठाकुर यशवंतसिंह जी ने परम्परानुसार श्रीपूज्य – आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि को रजतावृत्त चामर, छत्र, पालकी, स्वर्णमण्डित रजतदण्ड, सूर्यमुखी, चंद्रमुखी एवं दुशाला (कांबली) आदि भेंट दिये, इस प्रकार बालक रत्नराज क्रमश: मुनि रत्नविजय, पंन्यास रत्नविजय और अब श्रीपूज्य एवं आचार्य पद ग्रहण करने के बाद आचार्य ‘श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि नाम से पहचाना जाने लगा। आचार्य पद ग्रहण कर आप मारवाड़ से मेवाड़ की और विहार कर शंभूगढ़ पधारे। वहाँ के राणाजी के कामदार फतेहसागरजी ने पुन: पाटोत्सव किया और आचार्यश्री को शाल (कामली) छड़ी, चँवर आदि भेंट किये।

आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि ने शम्भूगढ से विहार करते हुए वि.सं. १९२४ का चातुर्मास जावरा में किया। आचार्य पद पर आरोहण के पश्चात आपका यह प्रथम चातुर्मास था। जावरा चातुर्मास के बाद वि.सं. १९२४ के माघ सुदि ७ को आपने नौकलमी कलमनामा बनाकर श्री पूज्य धरणेन्द्रसूरि द्वारा भेजे गये मध्यस्थ मोतीविजय और सिद्धिकुशलविजय – इन दो यतियों के साथ भेजकर श्री धरणेन्द्रसूरि आदि समस्त यतिगण से अनुमत करवाया।

श्री राजेन्द्रसूरिरास (पूर्वाद्र्ध) के अनुसार दीक्षा लेकर वि.सं. १९०६ में उज्जैन पधारे तब गुरुमुख से उत्तराध्ययन सूत्र के अन्तर्गत भृगु पुरोहित के पुत्रों की कथा सुनकर मुनि रत्नविजयजी के भावों में वैराग्य वृद्धि हुई और आप क्रियोद्धार करने के विषय में चिंतन करने लगे। श्री राजेन्द्रसूरिरास के अनुसार पंन्यास श्रीरत्नविजयजी जब विहार करते हुए वि.सं. १९२० में राजगढ थे तब वहाँ यति मांविजय ने उनको अपने गुरु की खाली गादी पर श्री पूज्य बनकर बैठने को कहा, तब आपने ने कहा कि मुझे तो क्रियोद्धार करना है – ऐसा कहकर श्रीपूज्य की गादी पर बैठने से मना कर दिया।

Rajendra-suri-maharaj056वि.सं. १९२० में ही पं. रत्नविजयजी अन्य यतियों के साथ विहार करते हुए चैतमास में राणकपुर पधारे तब भगवान महावीर के २३८९ कल्याणक के उपलक्ष में रत्नविजयजी ने अट्ठम (तीन उपवास) तप कर राणकपुर में परमात्मा आदिनाथ की साक्षी से पाँच वर्षों में क्रियोद्धार करने का अभिग्रह लिया था। वही पारणा के दिन प्रात:काल में मुनि रत्नविजयजी मन्दिर से दर्शन कर बाहर जिनालय के सोपान उतर रहे थे तब अबोध बालिका ने आकर कहा – नमो आयरियाणं -आयरियाणं-महाराज साहब, तेला (अट्ठम तप) सफल हो गया। आप पारणा करो। (क्रियोद्धार) बासठ महीनों में करना – ऐसा कहकर व बालिका दौड़कर मन्दिर में लुप्त हो गई, इस प्रकार उन्हें दिव्य शक्ति के द्वारा क्रियोद्धार करने का संकेत भी मिला।

इसके बाद वि.सं. १९२२ में जालोर (राजस्थान) चातुर्मास में भी आपको क्रियोद्धार करने की तीव्र भावना हुई। यति महेंद्रविजयजी, धनविजयजी आदि ने भी क्रियोद्धार करने में अपनी सहमति बताई। वि.सं. १९२३ में भी जब आप घाणेराव से आहोर पधारे थे तब भी आपने आहोर में एक महिना तक अभिग्रह धारण कर शुद्ध अन्न-पानी ही उपयोग में लिये, इतना ही नहीं अपितु राजेन्द्रसूरिरास में तो स्पष्ट उल्लेख है कि श्रीपूज्य पद ग्रहण करने के पश्चात आपने अपने गुरुश्री प्रमोद्सूरिजी से भी क्रियोद्धार हेतु विचार विमर्श कर आज्ञा भी प्राप्त की थी, अत: उत्कृष्ट तप-त्यागमय शुद्ध साधु जीवन का आचरण एवं वीरवाणी के प्रचार के अपने एक मात्र ध्येय की पूर्ति हेतु पूर्वोत्कारनुसार धरणेन्द्रसूरि आदि के द्वारा नव कलमनामा अनुमत होने के बाद आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरिश्वर जी ने वि.सं. १९२५ में आषाढ वदि दशमी शनिवार/सोमवार, रेवती नक्षत्र, मीन राशि, शोभन (शुभ) योग, मिथुन लग्न में तदनुसार दिनांक १५-६-१८६८ में क्रियोद्धार कर शुद्ध जीवन अंगीकार किया, उसी समय छड़ी, चामर, पालखी आदि समस्त परिग्रह श्री ऋषभदेव भगवान के जिनालय में श्री संघ जावरा को अर्पित किया, जिसका ताड़पत्र पर उत्कीर्ण लेख श्री सुपार्श्वनाथ के गर्भगृह के द्वार पर लगा हुआ है।

क्रियोद्धार के समय आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरिजी ने अट्ठाई (आठ उपवास) तप सहित जावरा शहर के बाहर (खाचरोद की ओर) नदी के तट पर वटवृक्ष के नीचे नाण (चतुर्मुख जिनेश्वर प्रतिमा) के समक्ष केश लोंच किया, पंच महाव्रत उच्चारण किये एवं शुद्ध साधु जीवन अंगीकार कर सुधर्मा स्वामी जी की ६८वीं पाट पर आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरिश्वरजी नाम से प्रख्यात हुए। आपके प्रशिष्यरत्न, राष्ट्रसंत आचार्य श्रीमद्विजय जयंतसेन सूरिश्वरज (देवलोक) के सुपदेश से खीमेल (राजस्थान) निवासी किशोरमलजी वालचंदजी खीमावत परिवार के सहयोग से श्री संघ जावरा द्वार क्रियोद्धारस्थली श्री राजेन्द्रसूरि वाटिका – जावरा (म.प्र.) में एक सुरम्य गुरुमन्दिर का निर्माण किया गया।

श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ चातुर्मास 2018
पर्युषण महापर्व द्वितीय दिन

राजगढ़ (धार) म.प्र. 07 सितम्बर 2018 । दादा गुरुदेव की पाटपरम्परा के अष्ठम पट्टधर वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यदेवेश श्रीमद्विजय ऋषभचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के आज्ञानुवर्ती प्रवचनकार मुनिराज श्री पुष्पेन्द्रविजयजी म.सा. ने पर्युषण पर्व के द्वितीय दिन कहा कि श्रावक के 11 कर्तव्य शास्त्रों में बताये गये है- संघ पूजा, साधार्मिकभक्ति, तीर्थयात्रा, स्नात्र महोत्सव, देवद्रव्य की वृद्धि, महापूजन, रात्रि जागरण, श्रुतज्ञान, उद्यापन, तीर्थ प्रभावना, आलोचना, जो हमें आवश्यक रुप से पर्युषण पर्व के दौरान करना चाहिये । जो प्रदूषण से मुक्त कर दे उसे पर्युषण महापर्व कहा जाता है । हम पर्युषण 8 दिन ही मनाते है इस 8 के अंक में बड़ा रहस्य छुपा हुआ है । एक से 10 तक अंकों में सिर्फ आठ अंक ही ऐसा है जिसमें किसी प्रकार की गठान नहीं होती है । हमारे ह्रदय में किसी प्रकार की गठान नहीं रखते हुये पर्युषण पर्व में धर्मक्रिया करते हुये सभी से परस्पर क्षमायाचना करके सारी गांठे खोलने का यह अनुपम अवसर आया है । इस अवसर का पूरा फायदा उठाना है । जब हमारा ह्रदय शून्य होगा तभी ह्रदय में उत्कृष्ट शुभ भावों की उत्पत्ति होगी । पर्व के दिनों में हमें सम्यक दृष्टि रखना है । प्रभु महावीर ने हमें जगत दर्शन का मार्ग बताया है । हमारा जिनशासन हमें जगत दर्शन की विधि बताता है । आत्मा के सिवा हमारा जगत में कुछ भी नहीं है । जो हमारा नहीं है हमने उसे अपना मान लिया और जो हमारा अपना है उसकी और हमारा कोई ध्यान नहीं है । शास्त्रों के अनुसार कर्म भी 8 होते है । इन कर्मो का जो नाश कर दे उसे पर्युषण महापर्व कहते है । जो दिखता है वह अपना नहीं है और जो नहीं दिखता है वही महत्वपूर्ण होकर अपना है । हमने परमात्मा को पदार्थो के साथ जोड़ रखा है जब आत्मा से आत्मा मिलती है तब परमात्मा बनते है । रिक्शा मंजिल तक पहुंचा देती है पर दीक्षा व्यक्ति को मोक्ष तक पहुंचा सकती है । प्रवचन के दौरान मुनिश्री ने बताया कि आज बालमुनि श्री रुपेन्द्रविजयजी म.सा. का जन्मदिवस है आप 8 वर्ष की उम्र में जिन शासन को समर्पित हुये । लगभग 1 दशक पूरा होने को आया है । मुनिश्री की जन्मदिवस की सुचना मिलते ही आराधकों ने जीवदया के लिये घोषणा प्रारम्भ की । श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ स्थित श्री राजेन्द्रसूरि कुन्दन गौशाला में गायों को 11 क्विंटल गुड़-लापसी और हरी घास परोसी गई । दानदाताओं ने बढ़चढ़कर दानराशी की घोषणा की ।
दादा गुरुदेव की पाटपरम्परा के अष्ठम पट्टधर वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यदेवेश श्रीमद्विजय ऋषभचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा.,  मुनिराज श्री पुष्पेन्द्रविजयजी म.सा., मुनिराज श्री रुपेन्द्रविजयजी म.सा., मुनिराज श्री जिनचन्द्रविजयजी म.सा., मुनिराज श्री जीतचन्द्रविजयजी म.सा., मुनिराज श्री जनकचन्द्रविजयजी म.सा., आदि ठाणा एवं साध्वी श्री सद्गुणाश्री जी म.सा., साध्वी श्री संघवणश्रीजी म.सा., साध्वी श्री प्रमितगुणाश्री जी म.सा. आदि ठाणा की निश्रा में श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वे. पेढ़ी ट्रस्ट श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ में 700 आराधकों के साथ चातुर्मास 2018 चल रहा है । इस वर्ष पर्युषण पर्व का लाभ श्री पारसमलजी नेनमलजी संकलेचा मदुराई वालों को दिया गया ।
प्रवचन की गहुंली दीक्षार्थी आरजुबेन सेठ द्वारा की गई । प्रवचन पश्चात् लोच के तपस्वी शरद पगारिया बदनावर, के.एम. जैन धार एवं श्रीमती माणकबेन लोढ़ा का बहुमान चातुर्मास समिति एवं ट्रस्ट की और से श्री नवरत्नराज संघवी, हीरालाल मेहता, शांतिलाल जैन आदि ने किया । प्रवचन पश्चात् प्रभुजी की आरती श्रीमती अंगुरबाला राजेन्द्रजी खजांची एवं दादा गुरुदेव की आरती का लाभ श्रीमती जड़ावी बेन जीवाणा द्वारा की गई । मंच संचालन श्री हेमन्त वेदमूथा ने किया एवं संगीत प्रस्तुति श्री भूपत खण्डेलवाल द्वारा दी गई । श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ में चातुर्मास 2018 में वर्षीतप के आराधकों के साथ सिद्धितप, महामृंत्युजय मासक्षमण तप, 36 दिवसीय गुरुतप की चल रही है एवं पर्युषण महापर्व में सामुहिक अठ्ठाई तपस्या में बड़ी संख्या में आराधक जूड़े है ।

पर्युषण महापर्व चतुर्थ दिन

राजगढ़ (धार) म.प्र. 09 सितम्बर 2018 । दादा गुरुदेव की पाटपरम्परा के अष्ठम पट्टधर वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यदेवेश श्रीमद्विजय ऋषभचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. को पर्युषण महापर्व के चतुर्थ दिन इन्दौर निवासी पूर्व सांसद श्री मेघराज चम्पालालजी लोढ़ा ने कल्पसूत्र बालावबोध सूत्र वोहराया । सूत्र वोहराने के पश्चात् कल्पसूत्र की अष्टप्रकारी पूजा श्री भंवरलाल दरगाजी जोगाणी परिवार भीनमाल ने की । कल्पसूत्र की प्रथम वासक्षेप पूजा श्रीमती शांतिदेवी बाबुलालजी संघवी परिवार, द्वितीय वासक्षेप पूजा श्री हीरालाल टी. मेहता, तृतीय वासक्षेप पूजा श्री नवरत्नराज चुन्नीलालजी संघवी भूति, चतुर्थ वासक्षेप पूजा श्रीमती मौनिका विजयजी नाहर जावरा, पंचम वासक्षेप पूजा श्रीमती हंसाबेन नवीनचंदजी इन्दौर वालों की ओर से दीक्षार्थी बहनों ने की ।
आचार्यश्री ने बताया कि जिस प्रकार प्रतिष्ठा अंजनशलाका महामहोत्सव में भगवान के पंचकल्याणकों का आयोजन होता है उसी तर्ज पर सोमवार को श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ में प्रथम बार भगवान महावीर स्वामी का जन्म प्रसंग वाचन महामहोत्सव मनाया जावेगा । इसमें प्रभु के माता-पिता श्री सिद्धार्थ राजा एवं त्रिशला रानी, सौधर्म इन्द्र-इन्द्राणी, नगर सेठ, कोषाध्यक्ष आदि पात्र प्रसंग को प्रस्तुत करेगें । उसी के साथ माता त्रिशला द्वारा देखे गये 14 दिव्य स्वप्न के चढ़ावें होगें । दोपहर 2 बजे से जन्म कल्याणक महामहोत्सव कार्यक्रम प्रारम्भ होगा ।
दादा गुरुदेव की पाटपरम्परा के अष्ठम पट्टधर वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यदेवेश श्रीमद्विजय ऋषभचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा., मुनिराज श्री पुष्पेन्द्रविजयजी म.सा., मुनिराज श्री रुपेन्द्रविजयजी म.सा., मुनिराज श्री जिनचन्द्रविजयजी म.सा., मुनिराज श्री जीतचन्द्रविजयजी म.सा., मुनिराज श्री जनकचन्द्रविजयजी म.सा. आदि ठाणा एवं साध्वी श्री सद्गुणाश्री जी म.सा., साध्वी श्री संघवणश्रीजी म.सा., साध्वी श्री प्रमितगुणाश्री जी म.सा. आदि ठाणा की निश्रा में श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वे. पेढ़ी ट्रस्ट श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ में 700 आराधकों के साथ चातुर्मास 2018 चल रहा है । इस वर्ष पर्युषण पर्व का लाभ श्री पारसमलजी नेनमलजी संकलेचा मदुराई वालों को दिया गया ।
प्रवचन की गहुंली श्रीमती साधना सूरेन्द्रजी भण्डारी राजगढ़ द्वारा की गई । पर्युषण महापर्व के चतुर्थ दिन कल्पसूत्र बालावबोध सूत्र वोहराने के लाभार्थी श्री मेघराज चम्पालालजी लोढ़ा एवं समस्त आराधकों ने विशाल चल समारोह के साथ कल्पसूत्रजी ग्रन्थ को दादा गुरुदेव के मंदिर से प्रातः प्रवचन पाण्डाल में लाया गया । प्रवचन पश्चात् प्रभुजी की आरती श्री मफतलालजी मेहता भीनमाल एवं दादा गुरुदेव की आरती का लाभ श्री मयुर भाई अंकलेश्वर द्वारा की गई । मंच संचालन श्री हेमन्त वेदमूथा ने किया एवं संगीत प्रस्तुति श्री भूपत खण्डेलवाल द्वारा दी गई । श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ में रात्रि भक्ति भावना में श्री शंकर लख्खा ने एम. एस. म्युजिकल ग्रुप मोहनखेड़ा के साथ भक्ति की रमझट जमायी । श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ में चातुर्मास 2018 में वर्षीतप के आराधकों के साथ सिद्धितप, महामृंत्युजय मासक्षमण तप, 36 दिवसीय गुरुतप की चल रही है एवं पर्युषण महापर्व में सामुहिक अठ्ठाई तपस्या में बड़ी संख्या में आराधक जूड़े है ।

पर्युषण महापर्व पंचम दिन

राजगढ़ (धार) म.प्र. 10 सितम्बर 2018 । दादा गुरुदेव की पाटपरम्परा के अष्ठम पट्टधर वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यदेवेश श्रीमद्विजय ऋषभचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. को पर्युषण महापर्व के पंचम दिन इन्दौर निवासी श्री सुरेशकुमार बाबुलालजी लोढ़ा की विनंती पर जन्म प्रसंग वाचन कार्यक्रम हुआ । 14 स्वप्न के चढ़ावें किये गये । जिसमें हाथी- श्री दिनेश कटकानी सिरोही, वृषभ- श्री अभय दायजी थान्दला, केसरीसिंह- श्री जेठमल जावंतराजजी लुक्कड़ भीनमाल, लक्ष्मीजी के स्वप्न का लाभ श्री विनोदकुमार वालचंदजी बाबेल परिवार झाबुआ वालों ने लिया साथ ही राज दरबार में लाभार्थी परिवार ने नगर सेठ बनने का भी लाभ लिया । फुलमाला- नैतिककुमार भरतजी शाह लुणावाड़ा, चन्द्रमा- श्री नवीनकुमारजी शिवपुरी बड़वानी, सूर्य- मेघराजजी लोढ़ा इन्दौर, धर्मध्वजा- सुजानमल मोहनलालजी सेठ राजगढ़, पूर्णकलश- श्री ओटमल साकलचंदजी बागरा, पद्म सरोवर- श्री विकास दिलीपकुमारजी नाहर राजगढ़, क्षीर समुद्र- श्री सुगंधीलाल वेणीरामजी सराफ राजगढ़, देव विमान- श्री के.एम. जैन धार, रत्नराशी- श्री नवरत्नराज चुन्नीलालजी संघवी भूति, निर्धुम अग्नि- श्री भावेश सुजानमलजी ओस्तवाल मन्दसौर, जन्म पश्चात् प्रभु के पालना झुलाने का लाभ श्री दिपेशकुमारजी जैन रत्नराज स्टुडियों दाहोद वालों ने लिया, प्रभु का पालना घर ले जाने का लाभ श्री दिलीपकुमार मनोहरलालजी भण्डारी को प्राप्त हुआ । प्रभु के मुनीमजी बनने का लाभ महेन्द्रकुमार रीद्धराजजी जैन बाग वालों ने लिया । प्रभु की माता को पुष्पमाला व स्वर्ण चेन पहनाने का लाभ श्री भंवरलाल दरगाजी जोगाणी भीनमाल को प्राप्त हुआ । विनोदकुमार वालचंदजी बाबेल परिवार झाबुआ ने थाली डंका बजाकर सभी को प्रभु के जन्म की खुशी दी । केसर थापे श्री नैतिककुमारजी लुणावाड़ा वालों ने लगाये । जन्म के पश्चात् प्रभुजी की आरती श्री उमेशजी सदायत जोधपूरवालों ने एवं मंगल दीपक श्री जसराज छगनराजजी पालगोता भीनमाल वालों ने उतारी इस परिवार ने प्रभु के माता-पिता बनने का लाभ भी लिया । दादा गुरुदेव की आरती का लाभ श्री नैतिककुमारजी लुणावाड़ा को मिला ।

        दादा गुरुदेव की पाटपरम्परा के अष्ठम पट्टधर वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यदेवेश श्रीमद्विजय ऋषभचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा., मुनिराज श्री पुष्पेन्द्रविजयजी म.सा., मुनिराज श्री रुपेन्द्रविजयजी म.सा., मुनिराज श्री जिनचन्द्रविजयजी म.सा., मुनिराज श्री जीतचन्द्रविजयजी म.सा., मुनिराज श्री जनकचन्द्रविजयजी म.सा. आदि ठाणा एवं साध्वी श्री सद्गुणाश्री जी म.सा., साध्वी श्री संघवणश्रीजी म.सा., साध्वी श्री प्रमितगुणाश्री जी म.सा. आदि ठाणा की निश्रा में श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वे. पेढ़ी ट्रस्ट श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ में 700 आराधकों के साथ चातुर्मास 2018 चल रहा है । इस वर्ष पर्युषण पर्व का लाभ श्री पारसमलजी नेनमलजी संकलेचा मदुराई वालों को दिया गया ।

        मंच संचालन श्री हेमन्त वेदमूथा ने किया एवं संगीत प्रस्तुति श्री भूपत खण्डेलवाल द्वारा दी गई । श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ में रात्रि भक्ति भावना में श्री किरण खण्डेलवाल ने एम.एस. म्युजिकल ग्रुप मोहनखेड़ा के साथ भक्ति की रमझट जमायी । श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ में चातुर्मास 2018 में वर्षीतप के आराधकों के साथ सिद्धितप, महामृंत्युजय मासक्षमण तप, 36 दिवसीय गुरुतप की चल रही है एवं पर्युषण महापर्व में सामुहिक अठ्ठाई तपस्या में बड़ी संख्या में आराधक जूड़े है।

श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ में सरस्वती महापूजन का भव्य अनुष्ठान हुआ

राजगढ़ (धार) म.प्र. 22 अक्टुबर 2018 । दादा गुरुदेव की पाटपरम्परा के अष्ठम पट्टधर वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यदेवेश श्रीमद्विजय ऋषभचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा., मुनिराज श्री पुष्पेन्द्रविजयजी म.सा., मुनिराज श्री रुपेन्द्रविजयजी म.सा., मुनिराज श्री जिनचन्द्रविजयजी म.सा., मुनिराज श्री जीतचन्द्रविजयजी म.सा., मुनिराज श्री जनकचन्द्रविजयजी म.सा. आदि ठाणा एवं साध्वी श्री सद्गुणाश्री जी म.सा., साध्वी श्री संघवणश्रीजी म.सा., साध्वी श्री प्रमितगुणाश्री जी म.सा. आदि ठाणा की निश्रा में श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वे. पेढ़ी ट्रस्ट श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ में चातुर्मास 2018 चल रहा है ।
वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यदेवेश श्रीमद्विजय ऋषभचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. की प्रेरणा से श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वे. पेढ़ी ट्रस्ट श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ के तत्वाधान में राजगढ़ नगर की विभिन्न शैक्षणिक संस्थाओं से आये बच्चों के बुद्धि एवं स्मरण शक्ति के विकास के लिये सोमवार को प्रातः 9 बजे श्री सरस्वती महापूजन का भव्य आयोजन हुआ । यह आयोजन 4 घण्टे तक चला । इस आयोजन में श्री गुरु राजेन्द्र जैन इन्टरनेशनल स्कूल, श्री राजेन्द्र विद्या संस्कार धाम, श्री राजेन्द्र विद्या हाई स्कूल एवं संस्कार वाटिका, लक्ष्य इन्टरनेशनल स्कूल, न्यू टेलेंट पब्लिक स्कूल, सिद्धि साई एकेडमी, रेडरोज पब्लिक हायर सेकेन्डरी स्कूल, न्यू मधुकर हायर सेकेन्डरी स्कूल, रिद्धि सिद्धि इन्टरनेशनल स्कूल सहित विभिन्न संस्थाओं के 2500 से अधिक बच्चों ने ज्ञान प्रदायनी माॅं सरस्वती देवी का मंत्रोचार के साथ पूजन किया । सरस्वती महापूजन के दौरान जादूगर हिरेन्द्र त्रिवेद्वी राजकोट द्वारा कामेडी की प्रस्तुति दी गई । आयोजन का मुख्य लाभ पासेटीया राजस्थान निवासी श्री हसमुखलाल अगरचंदजी गुलाबचंदजी धोका परिवार ठाणे मुम्बई द्वारा लिया गया । इस महापूजन में शाश्वत नवपद ओली आराधना के आराधक भी शामिल हुये । श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ का प्रवचन पाण्डाल स्कूली बच्चों से खचाखच भरा हुआ था । महापूजन में आचार्यश्री एवं मुनिमण्डल ने मंत्रोच्चार किये । विधिकारक हेमन्त वेदमुथा ने महापूजन के विधिविधान को पूर्ण कराया । सरस्वती महापूजन का पारस टी.वी. चैनल पर 26 अक्टुबर 2018 को रात्रि 8 बजे से प्रसारण किया जावेगा ।
मुनिश्री ने ओली आराधना के छठे दिन सम्यक ज्ञान पद की आराधना करवाते हुये मयणा सुन्दरी श्रीपाल रास पर आधारित प्रवचन का श्रवण कराया । श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ में श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वे. पेढ़ी ट्रस्ट श्री मोहनखेड़ा तीर्थ के तत्वाधान श्री शाश्वत नवपद ओलीजी आराधना चल रही है ओलीजी का समापन 24 अक्टूम्बर को होगा । 25 अक्टुबर को ओलीजी के आराधकों का पारणा होगा ।

श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ चातुर्मास 2018

राजगढ़ (धार) म.प्र. 12 नवम्बर 2018 । दादा गुरुदेव की पाटपरम्परा के अष्ठम पट्टधर वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यदेवेश श्रीमद्विजय ऋषभचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा., मुनिराज श्री पुष्पेन्द्रविजयजी म.सा., मुनिराज श्री रुपेन्द्रविजयजी म.सा., मुनिराज श्री जिनचन्द्रविजयजी म.सा., मुनिराज श्री जीतचन्द्रविजयजी म.सा., मुनिराज श्री जनकचन्द्रविजयजी म.सा. आदि ठाणा एवं साध्वी श्री सद्गुणाश्री जी म.सा., साध्वी श्री संघवणश्रीजी म.सा., साध्वी श्री प्रमितगुणाश्री जी म.सा. आदि ठाणा की निश्रा में श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वे. पेढ़ी ट्रस्ट श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ के तत्वाधान में भगवान श्री महावीरस्वामी के निर्वाण कल्याणक व श्री गौतमस्वामी केवल ज्ञान कल्याणक दिवस के सन्दर्भ में दीपावली महामहोत्सव का आयोजन चातुर्मास के दौरान हुआ इस कार्यक्रम के अन्तिम दिन ज्ञान पंचमी के अवसर पर समस्त आराधकों ने 51 अक्षत स्वस्तिक, 51 लोगस्स का काउस्सग, 51 प्रदक्षिणा करते हुये ओम ह्रीं नमो नाणस्य मंत्र की 20 माला का जाप कर वासक्षेप से ज्ञान पूजा की । ज्ञान पंचमी की आराधना तप कार्तिक शुक्ला पंचमी से शुरु करने का विधान शास्त्रों में बताया गया है जिसकी अवधि पांच वर्ष पांच माह की होती है । इस आराधना मंे आराधक उपवास, आयंबिल, एकासना आदि की तपस्या करते हुये देव वंदन सामायिक प्रतिक्रमण आदि करते है । दोपहर में श्रीमद्विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. पूजन, अष्टप्रकारी पूजन का आयोजन हुआ ।
प.पू. गच्छाधिपति आचार्यदेवेश श्रीमद्विजय ऋषभचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. की निश्रा में जैन पाठशाला के सभी छोटे-छोटे अजैन बच्चों को ड्रेस का वितरण किया गया ।

श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ चातुर्मास 2018

राजगढ़ (धार) म.प्र. 12 नवम्बर 2018 । दादा गुरुदेव की पाटपरम्परा के अष्ठम पट्टधर वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यदेवेश श्रीमद्विजय ऋषभचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा., मुनिराज श्री पुष्पेन्द्रविजयजी म.सा., मुनिराज श्री रुपेन्द्रविजयजी म.सा., मुनिराज श्री जिनचन्द्रविजयजी म.सा., मुनिराज श्री जीतचन्द्रविजयजी म.सा., मुनिराज श्री जनकचन्द्रविजयजी म.सा. आदि ठाणा एवं साध्वी श्री सद्गुणाश्री जी म.सा., साध्वी श्री संघवणश्रीजी म.सा., साध्वी श्री प्रमितगुणाश्री जी म.सा. आदि ठाणा की निश्रा में श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वे. पेढ़ी ट्रस्ट श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ के तत्वाधान में भगवान श्री महावीरस्वामी के निर्वाण कल्याणक व श्री गौतमस्वामी केवल ज्ञान कल्याणक दिवस के सन्दर्भ में दीपावली महामहोत्सव का आयोजन चातुर्मास के दौरान हुआ इस कार्यक्रम के अन्तिम दिन ज्ञान पंचमी के अवसर पर समस्त आराधकों ने 51 अक्षत स्वस्तिक, 51 लोगस्स का काउस्सग, 51 प्रदक्षिणा करते हुये ओम ह्रीं नमो नाणस्य मंत्र की 20 माला का जाप कर वासक्षेप से ज्ञान पूजा की । ज्ञान पंचमी की आराधना तप कार्तिक शुक्ला पंचमी से शुरु करने का विधान शास्त्रों में बताया गया है जिसकी अवधि पांच वर्ष पांच माह की होती है । इस आराधना मंे आराधक उपवास, आयंबिल, एकासना आदि की तपस्या करते हुये देव वंदन सामायिक प्रतिक्रमण आदि करते है । दोपहर में श्रीमद्विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. पूजन, अष्टप्रकारी पूजन का आयोजन हुआ ।
प.पू. गच्छाधिपति आचार्यदेवेश श्रीमद्विजय ऋषभचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. की निश्रा में जैन पाठशाला के सभी छोटे-छोटे अजैन बच्चों को ड्रेस का वितरण किया गया ।