Author: Bijay Kumar Jain

उत्तम क्षमा ही है महापर्व 0

उत्तम क्षमा ही है महापर्व

जैन धर्म में दशलक्षण पर्व मनाया जाता है, यदि इन दसलक्षणों को जीवन में अपना लिया जाए तो मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है, इसमें पहला है- ‘उत्तम क्षमा’!मुनि महाराज ने जीवन भर इन गुणों को अपनाया है, कई अपशब्द सुनने के बाद भी मुनि महाराज प्रतिक्रिया नहीं देते, सामने वाले को क्षमा कर देते हैं। करीब सौ साल से भी अधिक समय की बात है, सन्‌ा १९०० में भारत में ब्रिटिश सरकार का शासन था, उस समय जीवन अभी की तरह आसान नहीं हुआ करता था। उस समय आचार्यश्री शान्ति सागर जी महाराज महान संत के रूप में जाने जाते थे, उसी कालावधि में शान्ति सागर जी विहार करते हुए धौलपुर के राजखेड़ा शहर पहुंचे, वहां पर उन्होंने तीन दिन तक प्रवचन दिया। बहुत से लोग उनका प्रवचन सुनने आते थे। चौथे दिन उन्हें विहार करने का विचार आया, तो वहां के श्रावकों ने उन्हें वहीं रुकने की प्रार्थना की, तब महाराज श्री ने श्रोताओं का निवेदन स्वीकार कर लिया। पांचवें दिन आचार्य श्री आहार करने के लिए जल्दी निकल गए, आहार करने के बाद वे सामायिक करने का विचार कर रहे थे, तभी उन्हें आकाश में काले बादल दिखाई दिए, उन्हें यह संकेत सही नहीं लगे, उन्होंने अंदर कक्ष में बैठकर सामायिक की।महाराज श्री ने ध्यान मग्न होकर सभी जीवों के प्रति समता का भाव रखने की प्रार्थना की, उसी समय अचानक ५०० से ज्यादा लोग वहां हथियार के साथ पहुंचे। श्रावकों के साथ मारपीट करने लगे। कुछ बदमाश आचार्य श्री के ध्यान कक्ष तक जाने वाले थे, तभी कुछ श्रावकों ने रोकने का प्रयास किया, तो उन्हें हाथ-पैरों में चोटें पहुंचाई गई, फिर वहां पुलिस पहुंची, जो लोग आचार्यश्री को नुकसान पहुंचाने आए थे, उनके मुखिया को पकड़ लिया गया, उस समय आचार्यश्री ध्यान में तल्लीन थे। पुलिस अधिकारी आचार्यश्री के दर्शन की इच्छा के साथ जब उनके कमरे में गए, तो पुलिस अधिकारियों ने तय किया इतने शांत मन वाले मुनि पर आक्रमण करने वालों को कड़ी सजा देनी चाहिए। आचार्यश्री को जब पता चला कि पुलिस ने बदमाशों को कड़ी सजा देने का निर्णय लिया है, तो आचार्यश्री ने प्रतिज्ञा ले ली, जब तक उन बदमाशों को छोड़ा नहीं जाता, तब तक वे अन्न-जल ग्रहण नहीं करेंगे।पुलिस अधिकारियों ने कहा- इन बदमाशों के प्रति दया भाव रखना उचित नहीं हैं। आप ऐसा क्यों कर रहे हैं? तब आचार्यश्री ने जवाब दिया, मेरे मन में इन लोगों के प्रति बिलकुल भी नफरत का भाव नहीं है, हमारी वजह से आप इन लोगों को सजा दे रहे हैं, यह देखकर आहार करना हमारे लिए संभव नहीं है।ऐसा सुनकर पुलिस वाले आश्चर्यचकित रह गए कि कोई इतना उदार हृदय वाला और दयावान कैसे हो सकता है, इस बात पर पुलिस ने सभी को बिना सजा दिए ही छोड़ दिया, जो लोग हमला करने आए थे, उन्हें भी बेहद पछतावा हुआ।अगर हम अपने आसपास देखें, तो कई लोग छोटी-बड़ी गलतियों के लिए माफ कर देते है, हमें भी अपने जीवन में ‘क्षमा’ का भाव अपनाना चाहिए, अपने शत्रु के प्रति भी मन में नफरत के भाव नहीं लाने चाहिए।

आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज जी की जीवन-गाथा 0

आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज जी की जीवन-गाथा

भारत-भू पर सुधारस की वर्षा करने वाले अनेक महापुरुष और संत कवि जन्म ले चुके हैं, उनकी साधना और कथनी-करनी की एकता ने सारे विश्व को ज्ञान रूपी आलोक से आलोकित किया है, इन स्थितप्रज्ञ पुरुषों ने अपनी जीवनानुभव की वाणी से त्रस्त और विघटित समाज को एक नवीन संबल प्रदान किया है, जिसने राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, शैक्षणिक और संस्कृतिक क्षेत्रों में क्रांतिक परिवर्तन किये हैं, भगवान राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, ईसा, हजरत मुहम्मदौर आध्यत्मिक साधना के शिखर पुरुष आचार्य कुन्दकुन्द, पूज्यपाद, मुनि योगिन्दु, शंकराचार्य, संत कबीर, दादू, नानक, बनारसीदास, द्यानतराय तथा महात्मा गाँधी जैसे महामना साधकों की अपनी आत्म-साधना के बल पर स्वतंत्रता और समता के जीवन-मूल्य प्रस्तुत कर सम्पूर्ण मानवता को एक सूत्र में बाँधा है, उनके त्याग और संयम में, सिद्धांतों और वाणियों से आज भी सुख शांति की सुगन्ध सुवासित हो रही है, जीवन में आस्था और विश्वास, चरित्र और निर्मल ज्ञान तथा अहिंसा एवं निर्बेर की भावना को बल देने वाले इन महापुरुषों, साधकों, संत कवियों के क्रम में संतकवि दिगम्बर जैनाचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज वर्तमान में शिखर पुरुष हैं, जिनकी ओज और माधुर्यपूर्ण वाणी में ऋजुता, व्यक्तित्व में समता, जीने में संयम की त्रिवेणी है। जीवन-मूल्यों को प्रतिस्ठित करने वाले बाल ब्रह्मचारी श्री विद्यासागर जी स्वभाव से सरल और सब जीवों के प्रति मित्रवत व्यवहार के संपोषक हैं, इसी के कारण उनके व्यक्तित्व में विश्व-बन्धुत्व की, मानवता की सौंधी-सुगन्ध विद्यमान है।आश्विन शरदपूर्णिमा संवत २००३ तदनुसार १० अक्टूबर १९४६ को कर्नाटक प्रांत के बेलगाम जिले के सुप्रसिद्ध सदलगा ग्राम में श्रेष्ठी श्री मलप्पा पारसप्पा जी अष्टगे एवं श्रीमती श्रीमतीजी के घर जन्में इस बालक का नाम ‘विद्याधर’ रखा गया। धार्मिक विचारों से ओतप्रोत, संवेदनशील सदह्य्दस्थ मल्लपा जी नित्य जिनेन्द्र दर्शन एवं पूजन के पश्चात ही भोजनादि आवश्यक करते थे। साधु-सत्संगति करने से परिवार में संयम, अनुशासन, रीति-नीति की चर्या का ही परिपालन होता था।आप माता-पिता की द्वितीय संतान हो कर भी अद्वितीय संतान रहे। बड़े भाई श्री महावीर प्रसाद स्वस्थ परम्परा का निर्वहन करते हुए सात्विक पूर्वक सदह्य्दस्थ जीवन-यापन कर रहे हैं। माता-पिता, दो छोटे भाई अनंतनाथ तथा शांतिनाथ एवं बहिनें शांता व सुवर्णा भी आपसे प्रेरणा पाकर घर-गृहस्थी के जंजाल से मुक्त हो कर जीवन-कल्याण हेतु जैनेश्वरी दीक्षा ले कर आत्म-साधनारत हुए। धन्य है वह परिवार जिसमें सात सदस्य सांसारिक प्रपंचों को छोड़ कर मुक्ति-मार्ग पर चल रहे हैं, इतिहास में ऐसी अनोखी घटना का उदाहरण बिरले ही दिखता है।विद्याधर का बाल्यकाल घर तथा गाँव वालों के मन को जीतने वाली आश्चर्यकारी घटनाओं से युक्त रहा है। खेलकूद के स्थान पर स्वयं या माता-पिता के साथ मन्दिर जाना, धर्म-प्रवचन सुनना, शुद्ध सात्विक आहार करना, मुनि आज्ञा से संस्कृत के कठिन सूत्र एवं पदों को कंठस्थ करना आदि अनेक घटनाएँ मानो भविष्य में आध्यात्म मार्ग पर चलने का संकेत दे रही थी। आप पढाई हो या गृहकार्य, सभी को अनुशासित और क्रमबद्ध तौर पर पूर्ण करते, बचपन से ही मुनि-चर्या को देखने, उसे स्वयं आचरित करने की भावना से ही बावडी में स्नान के साथ पानी में तैरने के बहाने आसन और ध्यान लगाना, मन्दिर में राजित मूर्ति के दर्शन के समय उसमें छिपी विराटता को जानने का प्रयास करना, बिच्छू के काटने पर भी असीम दर्द को हँसते हुए पी जाना, परंतु धार्मिक-चर्या में अंतर ना आने देना, उनके संकल्पवान पथ पर आगे बढने के संकेत थे।गाँव की पाठशाला में मातृभाषा कन्नड में अध्ययन प्रारम्भ कर समीपस्थ ग्राम बेडकीहाल में हाई स्कूल की नवमी कक्षा तक अध्ययन पूर्ण किया। चाहे गणित के सूत्र हों या भूगोल के नक्शे, पल भर में कड़ी मेहनत और लगन से उसे पूर्ण करते थे। उन्होंने शिक्षा को संस्कार और चरित्र की आधारशिला माना और गुरुकुल व्यवस्थानुसार शिक्षा को ग्रहण किया, तभी तो आज तक गुरुशिष्य-परम्परा के विकास में वे सतत शिक्षा दे रहे हैं।वास्तविक शिक्षा तो ब्रह्मचारी अवस्था में तथा पुन: मुनि विद्यासागर के रूप में गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी के सात्निध्य में पूरी हुई, तभी वे प्रकृत, अपभ्रंस, संस्कृत, कन्नड, मराठी, अंग्रेजी, हिन्दी तथा बंग्ला जैसी अनेक भाषाओं के ज्ञाता और व्याकरण, छन्दशास्त्र, न्याय, दर्शन, साहित्य और अध्यात्म के प्रकाण्ड विद्वान आचार्य बने। आचार्य विद्यासागर मात्र दिवस काल में ही चलने वाले नग्नपाद पदयात्री हैं। राग, द्वेष, मोह आदि से दूर इन्द्रियजित, नदी की तरह प्रवाहमान, पक्षियों की तरह स्वच्छन्द, निर्मल, स्वाधीन, चट्टान की तरह अविचल रहते हैं। कविता की तरह रम्य, उद्प्रेरक, उदात्त, ज्ञेय और सुकोमल व्यक्तित्व के धनी आचार्य विद्यासागर भौतिक कोलाहलों से दूर, जगत मोहिनी से असंपृकत तपस्वी हैं।आपके सुदर्शन व्यक्तित्व को संवेदनशीलता, कमलवत उज्जवल एवं विशाल नेत्र, सम्मुन्नत ललाट, सुदीर्घ कर्ण, अजान बाहु, सुडौल नासिका, तप्त स्वर्ण-सा गौरवर्ण, चम्पकीय आभा से युक्त कपोल, माधुर्य और दीप्ति सन्युक्त मुख, लम्बी सुन्दर अंगुलियाँ, पाटलवर्ण की हथेलिय्ााँ, सुगठित चरण आदि और अधिक मंडित कर देते हैं। वे ज्ञानी, मनोज्ञ तथा वाम्मी साधु हैं, हाँ प्रज्ञा, प्रतिभा और तपस्या की जीवंत-मूर्ति।बाल्यकाल में खेलकूद में शतरंज खेलना, शिक्षाप्रद फिल्में देखना, मन्दिर के प्रति आस्था रखना, तकली कातना, गिल्ली-डंडा खेलना, महापुरुषों और शहीद पुरुषों के तैलचित्र बनाना आदि रुचियाँ आपमें विद्यमान थी। नौ वर्ष की उम्र में ही चारित्र चक्रवर्ती आचार्य प्रवर श्री शांतिसागर जी महाराज के शेडवाल ग्राम में दर्शन कर वैराग्य-भावना का उदय आपके हृदय में हो गया था, जो आगे चल कर ब्रह्मचर्यव्रत धारण कर प्रस्फुटित हुआ। २० वर्ष की उम्र, जो की खाने-पीने, भोगोपभोग या संसारिक आनन्द प्राप्त करने की होती है, तब आप साधु- सत्संगति की भावना को हृदय में धारण कर आचार्य श्री देशभूषण महाराज के पास जयपुर (राज.) पहुँचे, वहाँ अब ब्रह्मचारी विद्याधर उपसर्ग और परीषहों को जीतकर ज्ञान, तपस्या और सेवा का पिण्ड/प्रतीक बन कर जन-जन के मन का प्रेरणा स्त्रोत बन गया था।आप संसार की असारता, जीवन के रहस्य और साधना के महत्व को पहचान गये थे, तभी तो हृष्ट-पुष्ट, गोरे चिट्टे, लजीले, युवा विद्याधर की निष्ठा, दृढता और अडिगता के सामने मोह, माया, श्रृंगार आदि घुटने टेक चुके थे। वैराग्य भावना दृढवती हो चली, पदयात्री और करपात्री बनने की भावना से आप गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पास मदनगंज-किशनगढ (अजमेर) राजस्थान पहुँचे। गुरुवर के निकट सम्पर्क में रहकर लगभग वर्ष तक कठोर साधना से परिपक्व हो कर मुनिवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के द्वारा राजस्थान की ऐतिहासक नगरी अजमेर में आषाढ शुक्ल पंचमी, वि.सं. २०२५, रविवार, ३० जून १९६८ ईस्वी को लगभग २२ वर्ष की उम्र में संयम का परिपालन हेतु आपने पिच्छि-कमन्डलु धारण कर संसार की समस्त वाह्य वस्तुओं का परित्याग कर दिया। परिग्रह से अपरिग्रह, असार से सार की ओर बढने वाली यह यात्रा माना आपने अंगारों पर चलकर/बढकर पूर्ण की। विषयोन्मुख वृत्ति, उद्दंडता एवं उच्छृंखलता उत्पन्न करने वाली इस युवावस्था में वैराग्य एवं तपस्या का ऐसा अनुपम उदाहरण मिलना कठिन ही है।ब्रह्मचारी विद्याधर नामधारी, पूज्य मुनि श्री विद्यासागर महाराज का अब धरती ही बिछौना, आकाश ही उडौना और दिशाएँ ही वस्त्र बन गये हैं। दीक्षा के उपरांत गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज की सेवा-सुश्रुषा करते हुए आपकी साधना उत्तरोत्त्र विकसित होती गयी, तब से आज तक आपने प्रति वज्र से कठोर, परंतु दूसरों के प्रति नवनीत से भी मृदु बनकर शीत-ताप एवं वर्षा के गहन झंझावातों में भी आप साधना हेतु अरुक-अथक रूप में प्रवर्तमान हैं। श्रम और अनुशासन, विनय और संयम, तप और त्याग की अग्नि में तपी आपकी साधना गुरु-आज्ञा पालन, सबके प्रति समता की दृष्टि एवं समस्त जीव कल्याण की भावना सतत प्रवाहित होती रहती है।गुरुवर आचार्य श्री ज्ञानसागर जी की वृद्धावस्था एवं साइटिकासे रुग्ण शरीर की सेवा में कडकडाती शीत हो या तमतमाती धूप या हो झुलसाती गृष्म की तपन मुनि विद्यासागर के हाथ गुरुसेवा में अहर्निश तत्पर रहते, आपकी गुरु सेवा अद्वितीय रही, जो देश, समाज और मानव को दिशा बोध देने वाली थी, तभी तो डॉ. पन्नालाल साहित्याचार्य ने लिखा था कि १० लाख की सम्पत्ति पाने वाला पुत्र भी जितनी माँ-बाप की सेवा नहीं कर सकता, उतनी तत्परता एवं तन्मयता पूर्वक आपने अपने गुरुवर की सेवा की, सल्‍लेखना के पहले गुरुवर्य ज्ञानसागर जी महाराज ने आचार्य-पद का त्याग आवश्यक जान कर आपने आचार्य पद मुनि विद्यासागर को देने की इच्छा जाहिर की, परंतु आप इस गुरुत्तर भार को धारण करने किसी भी हालत में तैयार नहीं हुए, तब आचार्य ज्ञानसागर जी ने सम्बोधित कर कहा कि साधक को अंत समय में सभी पद का परित्याग आवश्यक माना गया है, इस समय शरीर की ऐसी अवस्था नहीं है कि मैं अन्यत्र जा कर सल्‍्लेखना धारण कर सकूँ, तुम्हें आज गुरु दक्षिणा अर्पण करनी होगी और उसी के प्रतिफल स्वरूप यह पद ग्रहण करना होगा, गुरु-दक्षिणा की बात सुन कर मुनि विद्यासागर निरुत्तर हो गये, तब धन्य हुई नसीराबाद (अजमेर) राजस्थान की वह घड़ी जब मगसिर कृष्ण द्वितीया, संवत २०२९, बुधवार, २२ नवम्बर, १९७२ ईस्वी को आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने अपने कर कमलों से आचार्य पद पर मुनि श्री विद्यासागर महाराज को संस्कारित कर विराजमान किया, इतना ही नहीं मान मर्दन के उन क्षणों को देख कर सहस्त्रों नेत्रों से आँसूओं की धार बह चली जब आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने मुनि श्री विद्यासागर महाराज को आचार्य पद पर विराजमान किया एवं स्वयं आचार्य पद से नीचे उतर कर सामान्य मुनि के समान नीचे बैठ कर नूतन आचार्य श्री विद्यासागर महाराज के चरणों में नमन कर बोले – ‘हे आचार्य वर! नमोस्तु, यह शरीर रत्नत्रय साधना में शिथिल होता जा रहा है, इन्द्रियाँ अपना सम्यक काम नहीं कर पा रही, अतः आपके श्री चरणों में विधिवत सल्लेखना पूर्वक समाधिमरण धारण करना चाहता हूँ, कृपया मुझे अनुगृहित करें। आचार्य श्री विद्यासागर जी ने अपने गुरु की अपूर्व सेवा की। पूर्ण निर्मत्व भावपूर्वक आचार्य ज्ञानसागर जी मरुभूमि में वि. सं. २०३० वर्ष की ज्येष्ठ मास की अमावस्या को प्रचंड ग्रीष्म की तपन के बीच ४ दिनों के िनर्जल उपवास पूर्वक नसीराबाद (राज.) में शुक्रवार, जून १९७३ ईस्वी को १० बजकर १० मिनट पर इस नश्वर देह को त्याग कर समाधिमरण को प्राप्त हुए।आचार्य विद्यासागरजी द्वारा रचित रचना-संसार में सर्वाधिक चर्चित ओर महत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में ‘मूक माटी’ महाकाव्य ने हिन्दी-साहित्य और हिन्दी सत-सहित्य जगत में आचार्य श्री को काव्य की आत्मा तक पहुँचाया है। – सुशीला पाटनीआर.के. हाऊसमदनगंज- किशनगढ़,राजस्थान, भारत

आचार्य डॉ. शिवमुनि: क्रांतिकारी संत 0

आचार्य डॉ. शिवमुनि: क्रांतिकारी संत

सूरत: भारत की रत्नगर्भा वसुंधरा ने अनेक महापुरुषों को जन्म दिया है, जो युग के साथ बहते नहीं, बल्कि युग को अपने बहाव के साथ ले चलते हैं, ऐसे लोग सच्चे जीवन के धनी होते हैं। उनमें जीवन-चैतन्य होता है, वे स्वयं आगे बढ़ते हैं, जन-जन को आगे बढ़ाते हैं। उनका जीवन साधनामय होता है और जन-जन को वे साधना की पगडंडी पर ले जाते हैं, प्रकाश स्तंभ की तरह उन्हें जीवन पथ का निर्देशन देते हैं एवं प्रेरणास्रोत बनते हैं। आचार्य सम्राट डॉ. शिव मुनिजी महाराज एक ऐसे ही क्रांतिकारी महापुरुष एवं संतपुरुष हैं, जिनका इस वर्ष हीरक जयन्ती महोत्सव वर्ष मनाया जा रहा है, हाल ही में उन्हें इन्दोर-मध्यप्रदेश में एक भव्य समारोह में अध्यात्म ज्योति के अलंकरण से सम्मानित किया गया।आचार्य डॉ. शिव मुनि जी पारसमणि हैं, उनके सानिध्य में हजारों मनुष्यों का जीवन सर्वोत्तम और स्वर्णिम हुआ है, वे युगद्रष्टा एवं युगस्रष्टा धर्माचार्य हैं, उन्होंने युग की समस्याओं को समझा और उनका समाधान प्रदान किया। देश में सांप्रदायिकता, अराजकता, भोगवाद और अंधविश्वास का विष फैलाने वाले धर्माचार्य बहुत हैं। धर्म का यथार्थ स्वरूप बताने वाले आचार्य शिव मुनि जैसे धर्माचार्य कम ही हैं, उन्होंने धर्म के वैज्ञानिक और जीवनोपयोगी स्वरूप का मार्गदर्शन किया, वे प्रगतिशील हैं क्योंकि उन्होंने धर्म के क्षेत्र में नये-नये प्रयोग किये हैं, आप महान परिव्राजक हैं।कठोर चर्या भूख और प्यास से अविचलित रहकर गांव-गांव घूमे, हजारों किलोमीटर की पदयात्रा की, विशाल दृष्टि के धारक हैं, क्योंकि वे सबके होकर ही सबके पास पहुंचे, स्वयं में ज्ञान के सागर विद्यापीठ हैं, क्योंकि अध्ययन, अध्यापन, स्वाध्याय और साहित्य निर्माण उनकी सहज प्रवृत्तियां हैं, आप महान हैं क्योंकि गति महान लक्ष्य की ओर है, सिद्ध हैं, आस्थाशील हैं और विलक्षण हैं, इसलिये जन-जन के लिये पूजनीय हैं।धार्मिक जगत के इतिहास में आचार्य शिव मुनि इन शताब्दियों का एक दुर्लभ व्यक्तित्व हैं, आपकी जीवनगाथा भारतीय चेतना का एक एक अभिनव उन्मेष है। आपके जीवन से आपके दर्शन और मार्गदर्शन से असंख्य लोगों ने शांति एवं संतुलन का अपूर्व अनुभव किया।आपका जन्म ८ सितम्बर १९४२ को भादवा सुदी पंचमी के दिन पंजाब एवं हरियाणा की सीमा पर बसे ‘रानिया’ नामक गांव में, आपके ननिहाल में हुआ। आपके पिता सेठ चिरंजीलाल जैन एवं माता श्रीमती विद्यादेवी जैन एक धार्मिक, संस्कारी, कुलीन एवं संपन्न परिवार के श्रावक-श्राविका थे। धर्म के प्रति यह परिवार ५ पीढ़ियों से समर्पित रहा है। यही कारण है कि पारिवारिक संस्कारों एवं धार्मिक निष्ठा की पृष्ठभूमि में आपने एवं आपकी बहन ने ४७ मई १९७२ को मलोठ मगण्डी में दीक्षा स्वीकार की। आप शिव मुनि बने एवं बहन महासाध्वी निर्मलाजी महाराज के नाम से साधना के पथ पर अग्रसर हुयीं। तृतीय पट्टधर आचार्य श्री देवेन्द्रमुनिजी के देवलोकगमन के पश्चात ९ जून १९९९ को अहमदनगर (महाराष्ट्र) में श्रमण संघ के विधानानुसार आपश्री को श्रमण संघ के चतुर्थ पट्टधर आचार्य के रूप में अभिषिक्त किया गया, इससे पूर्व द्वितीय पट्टथधर आचार्य श्री आनंद ऋषि जी महाराज ने ३ मई १९८७ को आपको युवाचार्य घोषित किया था। लगभग २०० साधु-साध्वियों तथा लाखों श्रावकों वाले इस विशाल चतुर्विद श्रीसंघ के नेतृत्व का दायित्व आपने संभालने के पश्चात संपूर्ण भारत को अपने नन्हे पांव से नापा।आचार्य बनने के पश्चात आपने श्रमण संघ को नये-नये आयाम दिये।नीतिशास्त्री डब्ल्यू, सी. लूसमोर ने विकसित व्यक्तित्व को तीन भागों में बांटा है- विवेक, पराक्रम और साहचर्य।नीतिशास्त्री ग्रीन ने नैतिक प्रगति के दो लक्षण बतलाए हैं-सामंजस्य और व्यापकता, इनके विकास से मनुष्य आधिकारिक महान बनता है। व्यक्तित्व के विकास के लिए अपने आपको स्वार्थ की सीमा से हटाकर दूसरों से जोड़ देने वाला सचमुच महानता का वरण करता है। आचार्य सम्राट शिव मुनि का व्यक्तित्व इसलिए महान है कि वे पारमार्थिक दृष्टि वाले हैं। श्रेष्ठता और महानता आपकी ओढनी नहीं है, कृत्रिम भी नहीं, बल्कि व्यक्तित्व की सहज पहचान है। पुरुषार्थ की इतिहास परम्परा में इतने बड़े पुरुषार्थी पुरुष का उदाहरण कम ही है, जो अपनी सुख-सुविधाओं को गौण मानकर जन-कल्याण के लिए जीवन जी रहे हैं।अध्यात्म क्रांति के साथ-साथ समाज क्रांति के स्वर और संकल्प भी आपके आस-पास मुखरित होते रहे हैं। संत वही है जो अपने जीवन को स्व परकल्याण में नियोजित कर देता है। आचार्य शिव मुनि साधना के पथ पर अग्रसर होते ही धर्म को क्रियाकांड से निकालकर आत्म-कल्याण और जनकल्याण के पथ पर अग्रसर किया, आपका मानना है कि धर्म न स्वर्ग के प्रलोभन से हो, न नरक के भय से, जिसका उद्देश्य हो जीवन की सहजता और मानवीय आचारसंहिता का धुव्रीकरण, आपने धर्म को अंधविश्वास की काया से मुक्त कर प्रबुद्ध लोकचेतना के साथ जोड़ा। समाज सुधार के क्षेत्र में पिछले बारह वर्षों से आप त्रि-सूत्रीय कार्यक्रम को लेकर सक्रिय हैं, यह त्रि-सूत्रीय कार्यक्रम हैं- व्यसनमुक्त जीवन, जन-जागरण तथा बाल संस्कार इन्हीं तीन मूल्यों पर आदर्श समाज की रचना संभव है, आपने अपने धर्मसंघ के कार्यक्रमों को आगे बढ़ाते हुए जन-जन को ध्यान का प्रशिक्षण दिया। आप महान ध्यान योगी हैं। ध्यान और मुनि ये दो शब्द ऐसे हैं जैसे दीपक की लौ और उसका प्रकाश, सूर्य की किरणें और उसकी उष्मा। साधुत्व की सार्थकता और साधुत्व का बीज आपकी साधना में है जो निरंतर स्वाध्याय और ध्यान में संलग्न रहता है, स्वाध्याय से ज्ञान के द्वार उद्घाटित होते हैं, उसी ज्ञान को स्व की अनुभूतियों पर उतारने का नाम ध्यान है, इसी साधना को आचार्य सम्राट शिव मुनि ने अपने अस्तित्व का अभिन्न अंग बनाया है। स्वयं तो साधना की गहराइयों में उतरते ही हैं, हजारों-हजारों श्रावकों को भी ध्यान की गहराइयों में ले जाते हैं। इस वैज्ञानिक युग में उस धर्म की अपेक्षा है जो पदार्थवादी दृष्टिकोण से उत्पन्न मानसिक तनाव जैसी भयंकर समस्या का समाधान कर सके, पदार्थ से न मिलने वाली सुखानुभूति करा सके। नैतिकता की चेतना जगा सके। आचार्य शिव मुनि जी ने अपने ध्यान के विभिन्न प्रयोगों से धर्म को जीवंत किया है।आचार्य सम्राट शिवमुनि जी का जीवन विलक्षण विविधताओं का समवाय है, आप कुशल प्रवचनकार, ध्यानयोगी, तपस्वी, साहित्यकार और सरल व्यक्तित्व के धनी हैं। सृजनात्मक शक्ति, सकारात्मक चिंतन, स्वच्छ भाव, सघन श्रद्धा, शुभंकर संकल्प, सम्यक‌ पुरुषार्थ, साधनामय जीवन, उन्नत विचार इन सबके समुच्चय से गुम्फित है आपका जीवन। आप महान‌ साधक एवं कठोर तपस्वी संत हैं। लगभग पिछले ४० वर्षों से लगातार एकांतर तप कर रहे हैं। इक्कीसवीं शताब्दी को अपने विलक्षण व्यक्तित्व, अपरिमेय कर्तत्व एवं क्रांतिकारी दृष्टिकोण से प्रभावित करने वाले युगद्रष्टा ऋषि एवं महर्षि हैं, आपकी साधना जितनी अलौकिक हैं, उतने ही अलौकिक हैं आपके अवदान, धर्म को अंधविश्वास एवं कुरीढ़ियों से मुक्त कर जीवन व्यवहार का अंग बनाने का अभिनव प्रयत्न आपने किया है।‘जैन एकता’ की दृष्टि से आपने निरंतर उदारता का परिचय दिया है। जय भारत!

युगपुरूष राष्ट्रसंत प. पू. श्री. आनंदऋषिजी म.सा 0

युगपुरूष राष्ट्रसंत प. पू. श्री. आनंदऋषिजी म.सा

गुरू आनंद के पुण्य स्मृति पर हम सभी प्रेमी श्रावकगणधार्मिक भावोें के दीप जलायें, भवसागर से तिर जायें…हमने इस युग में चलते-फिरते तीर्थंकर के रूप में गुरूवरजी को देखा है, माना है। हमारे दु:ख, दर्द वो ही पहचाने हैं, उनको हम शीश झुकाकर त्रिवार वंदना कर आशिष चाहते हैं। गुरू आनंद की ज्योति हमें प्रकाश दिलाती है, जीवन जीने की राह दिखाती है। हमारी जीवन नैया मांझी बनकर पार लगाती है। आचार्य सम्राट प.पू. आनंद गुरूवर को पाकर यह धरा भी धन्य हो गयी। हमारे गुरूवर अंबर के भव्य दिवाकर थे। चांद से धवल किर्ती और मिश्री सी मिठी वाणी गुरूवर की थी। मरूस्थल में भी आपने नंदनवन सजाया। राष्ट्रसंत आचार्य सम्राट प.पू. आनंदगुरूवरजी की जन्मभूमि ‘चिंचौडी’ बहुत ही पवित्र पावन हुई है, कण-कण पूजनीय बन गया है। आचार्य भगवन ने समस्त जैनियों को एवम् जैनेत्तर जनता को अपने आचार-विचार प्रवचन द्वारा प्रभावित किया। आप आज भी राष्ट्रसंत की तरह पुजे जाते हैं। आचार्य भगवंत समन्वय में विश्वास करते थे, आपका पुरा जीवन पावन रहा, आप ब्रम्हचारी थे, संयमी पंच महाव्रतधारी महान मानवतावादी महात्मा थे। उच्च वैराग्य भावना से जीवन जीया, कईयों को सार्थक बनाया। जिन शासन की सेवा में हमेशा लगे रहे, आपकी कर्मभूमि हम सभी को बारंबार धर्म की ओर प्रेरित करती है।प्रेरणादायी व्यक्तित्व के धनी थे पूज्य गुरूवर, हजारों आनंद भक्त इस तीर्थ की यात्रा कर, अपने आपको धन्य समझते हैं। गुरूवर में बहुत कुछ करके दिखलाया। आनंदगुरू आज हमारे बीच नहीं हैं, उनकी अमर कहानी, पावन स्मृति आज भी यादगार बनी हुई है, प्रेरणा देती है। आनंद गुरू सदा प्रसन्नता के प्रतिक रहे, आपकी जिन्दगी का हर प्रयास अभय का वरदान रहा, हर प्रकाश हृदय की मुस्कान रही, हर प्रयास विजय का गान रहा।महापुरूष मानव समाज के बगीया में कभी न मुरझाने वाले फुल होते हैं, ऐसे ही महापुरूष थे हमारे गुरू आनंद, हम सभी के जीवन में अपनी मधुर वाणी से आनंद भर देते थे, आपका जीवन ही आनंद से ओत-प्रोत था। दीर्घकाल तपस्या कर जीवन को अत्युच्च शिखर पर पहँुचाया। माँ हुलसा ने आपको बचपन में सुसंस्कार दिये। जीवन की नींव सुदृढ बनायी, बालक नेमीचंद को एक वीर पुरूष बनाना चाहा, पं.रत्नऋषिजी म. की सेवा में तीर्थंकर महावीर के चरणों में समर्पित कर दिया और आप महावीर के अनुयायी बन गये। आनंद ऋषिवरजी ने ज्ञान, धर्म, दर्शन, आगम, काव्य संगीत का गहरा अध्ययन पुरा किया। अज्ञानी लोगों का मार्गदर्शन किया। आपका लोकसंग्रह बहुत विशाल ही था। आप कईयों के केंद्र बिंदु बन गये। समाज संगठन आपका लक्ष्य रहा, संघ को, साधु-वृंद को संगठित करने का महान कार्य किया। जीवन साधना के बल पर शानदार आत्मविकास किया। प.पू. आनंद ऋषिजी श्रमण संघ के प्राण थे। राष्ट्रसंत गुरूदेव के आशीर्वाद एवम् प्रेरणा से अनेकों ने आध्यात्म के अमृत का पान किया। शाश्वत आनंद, अनुपम अनुभुति को प्राप्त किया तथा उन्मत बनें। आनंद गुरूवर भक्तों की भक्ती श्रद्धास्थान, गुणरत्नों की खान, समता के सागर, ध्यानीध्यान थे, आपको सारा जहॉ आज भी याद करता है, आपने पर उपकार में जीवन बिताया, हर मुरझाया फूल खिलाया, आखों में अमृत भरा था, कंचन सी काया थी, गगन जैसा विशाल मन था, शांती के सागर थे। आपकी दृष्टि में अमीर-गरीब सरीखे थे, कोई भेद नहीं था। राष्ट्रसंत आचार्य आनंदऋषि जी हॉस्पीटल एण्ड मेडिकल रिसर्च सेंटर द्वारा नगर (महाराष्ट्र) में अनवरत मानव सेवा यज्ञ कार्यरत है, हजारों मरिजोें को आरोग्य लाभ मिल रहा है, जो की मानव सेवा के पथ पर अग्रसर है।

आचार्यश्री आनंद ऋषिजी: राष्ट्रसंत 0

आचार्यश्री आनंद ऋषिजी: राष्ट्रसंत

संसारी नाम – नेमीचंदजीपिता का नाम – श्री. देवीचंदजीसंसारी उपनाम – गुगलिया/गुगलेजन्म तिथि – श्रावण शुक्ल एकम्माता का नाम – श्रीमती हुलसाबाईजन्म स्थान – चिचोंडी, जिला. अहमदनगरआनंद ऋषिजी महाराज एक जैन धार्मिक आचार्य थे। भारत सरकार ने ९ अगस्त २००२ को उनके सम्मान में एक स्मारक डाक टिकट जारी किया, उन्हें महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री द्वारा राष्ट्र संत की मानद उपाधि से सम्मानित किया गया, वे वर्धमान स्थानकवासी श्रमण संघ के दूसरे आचार्य थे।प्रारंभिक जीवनउनका जन्म (श्रावण शुक्ल १ विक्रम संवत १९५७) को चिंचोड़ी, महाराष्ट्र में हुआ था और उन्होंने तेरह वर्ष की आयु में आचार्य रत्न ऋषिजी महाराज से दीक्षा प्राप्त की थी, जिनका स्वर्गवास १९२७ में महाराष्ट्र के अलीपुर में हुआ।आध्यात्मिक जीवन१३ साल की उम्र में नेमीचंद ने अपना शेष जीवन जैन संत के रूप में बिताने का फैसला किया। उनकी दीक्षा (अभिषेक) ७ दिसंबर १९१३ (मार्गशीर्ष शुक्ल नवमी) को अहमदनगर जिले के मिरी में हुई थी, तब उन्हें आनंद ऋषि जी महाराज नाम दिया गया, उन्होंने पंडित राजधारी त्रिपाठी के मार्गदर्शन में संस्कृत और प्राकृत स्तोत्र सीखना शुरू किया, उन्होंने जनता को अपना पहला प्रवचन १९२० में अहमदनगर में दिया।रत्न ऋषि जी महाराज के साथ मिलकर आनंद ऋषि जी ने जैन धर्म का प्रचार-प्रसार शुरू किया था। १९२७ में अलीपुर में गुरु रत्न ऋषि जी महाराज की संथारा मृत्यु के बाद, आनंद ऋषि जी टूट गए थे। हालाँकि, वह अपने गुरु के आदेशों ‘कभी दुखी मत हो, और हमेशा मानव जाति की भलाई के लिए काम करते रहो’ को कभी नहीं भूले। अपने गुरु के बिना उनका पहला चातुर्मास १९२७ में हिंगनघाट में हुआ। १९३१ में वे जैन धर्म दिवाकर चोथमलजी महाराज के साथ धार्मिक चर्चा करते थे, जिन्हें आनंद ऋषि जी की आचार्य बनने की क्षमता का एहसास हुआ उन्होंने अपने अनुयायियों को इसकी इच्छा बताई।आनन्द ऋषि जी ने श्रावकों के कल्याण हेतु अनेक कार्यक्रम प्रारम्भ किये। चातुर्मास के लिए घोडनदी में रहते हुए उन्होंने श्री नामक एक धार्मिक केंद्र स्थापित करने का निर्णय लिया। तिलोक रत्न स्थानकवासी जैन धार्मिक परीक्षा बोर्ड स्थापना २५ नवंबर १९३६ को अहमदनगर में हुई थी।१९५२ में राजस्थान के सादड़ी साधु सम्मेलन में आनंद ऋषि जी को जैन श्रमण संघ का प्रधान मंत्री घोषित किया गया। १९५३ में कई प्रसिद्ध जैन साधु राजस्थान के जोधपुर में एक सामान्य चातुर्मास के लिए एक साथ आये। १३ मई १९६४ (फाल्गुन शुक्ल एकादशी) को आनंद ऋषि जी श्रमण संघ के दूसरे आचार्य बने। यह समारोह राजस्थान के अजमेर में हुआ।१९७४ में मुंबई में अपने चातुर्मास के बाद आनंद ऋषि जी पुणे पहुंचे। शनिवार वाडा में एक विशाल स्वागत समारोह हुआ। १३ फरवरी १९७५ (माघ शुक्ल द्वितीया) को उन्हें महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री वसंतराव नाइक द्वारा राष्ट्र संत की उपाधि से सम्मानित किया गया, यह उनके ७५वें जन्मदिन का वर्ष भी था, उसी वर्ष ‘आनंद फाउंडेशन’ की स्थापना हुई, १९८७ को साधु के रूप में उनके अभिषेक का हीरक जयंती वर्ष था। यह नौ अभिषेकों के साथ और पूज्य शंकराचार्य और मुख्यमंत्री शंकरराव चव्हाण की उपस्थिति में मनाया गया।श्रद्धेय आचार्य के बारे में एक और दिव्य बात यह है कि उनके पैर के बीच में पदम चिन्ह था, वह इसे केवल उन्हीं भक्तों को प्रदर्शित करते थे, जो उनकी किसी आदत से इनकार करते थे या जीवन भर के लिए कुछ ना करने की कसम खाते थे।वह कई शैक्षणिक संस्थानों के संस्थापक थे। अहमदनगर में आनंदधाम, आनंदऋषिजी अस्पताल, आनंदऋषिजी नेत्रालय और आनंदऋषिजी ब्लड बैंक उनकी याद में बनाए गए, और उनके नाम पर रखे गए।मोक्षधाम :८ मार्च १९९२ को अहमदनगर, महाराष्ट्र में मोक्षगामी के समय से पहले उन्होंने संथारा (उपवास द्वारा) स्वीकार किया।

७६वां स्वतंत्रता दिवस १५ अगस्त १९४७ 0

७६वां स्वतंत्रता दिवस १५ अगस्त १९४७

स्वतंत्रता दिवस भारतीयों के लिये एक बहुत ही खास दिन है क्योंकि, इसी दिन वर्षों की गुलामी के बाद ब्रिटिश शासन से भारत को आजादी मिली थी। भारतीय स्वतंत्रता दिवस के इस ऐतिहासिक और महत्वपर्ू्ण दिन के बारे में अपनी वर्तमान और आने वाली पीढियों को निबंध लेखन, भाषण व्याख्यान और चर्चा के द्वारा प्रस्तुत करते हैं।१५ अगस्त १९४७, भारतीय इतिहास का सर्वाधिक भाग्यशाली और महत्वपर्ू्णं दिन था, जब हमारे भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों ने अपना सब कुछ न्योछावर कर भारत देश के लिये आजादी हासिल की। भारत की आजादी के साथ ही भारतीयों ने अपने पहले प्रधानमंत्री का चुनाव पंडित जवाहर लाल नेहरु के रुप में किया था, जिन्होंने राष्ट्रीय राजधानी नई दिल्ली के लाल किले पर तिरंगे झंडे को पहली बार फहराया, आज भी हर भारतीय इस खास दिन को एक उत्सव की तरह मनाता हैं।१५ अगस्त १९४७, भारत की आजादी का दिन और इस खास दिन को एक उत्सव की तरह हर साल भारत में स्वतंत्रता दिवस के रुप में मनाया जाता है, इस कार्यक्रम को नई दिल्ली में राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित किया जाता है जिसमें भारत के प्रधानमंत्री द्वारा लाल किले पर झंडा फहराया जाता है तथा लाखों लोग स्वतंत्रता दिवस समारोह में शामिल होता हैं।लाल किले पर उत्सव के दौरान, झंडारोहण और राष्ट्रगान के बाद प्रधानमंत्री द्वारा भाषण दिया जाता है, जिसके बाद तीनों भारतीय सेनाओं द्वारा अपनी ताकत का प्रदर्शन किया जाता है साथ ही कई सारे रंगारंग कार्यक्रम प्रदर्शित किये जाते हैं, जैसे-भारत के राज्यों द्वारा झाकियों के माध्यम से अपनी कला और संस्कृति की प्रस्तुति, स्कूली बच्चों द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम का प्रदर्शन करना आदि, इस खास अवसर पर हम भारत के उन महान हस्तियों को याद करते हैं जिन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए महत्वपूर्णं योगदान दिया, साथ ही यह उत्सव देश के विभिन्न स्कूलों, कॉलेजों तथा अन्य स्थलों पर भी पूरे हर्षाल्लास के साथ मनाया जाता है।भारत में स्वतंत्रता दिवस, सभी धर्म, परंपरा और संस्कृति के लोग पूरी खुशी से एक साथ मनाते हैं। १५ अगस्त १९४७ को हर साल यह दिन इसलिए पर्व स्वरूप मनाया जाता है क्योंकि इसी दिन लगभग २०० साल बाद भारत को ब्रिटिश हुकुमत से आजादी मिली थी, इस दिन को राष्ट्रीय अवकाश के रुप में घोषित किया गया साथ ही सभी स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय तथा कार्यालय आदि भी बंद रहते हैं, इसे सभी स्कूल, कॉलेज और शिक्षण संस्थानों के विद्यार्थीयों द्वारा पूरे उत्साह के साथ मनाया जाता है। विद्यार्थी खेल, कला तथा साहित्य के माध्यम से भाग लेते हैं, इन कार्यक्रमों के आरंभ से पहले मुख्य अतिथि अथवा प्रधानाचार्य द्वारा झंडारोहण किया जाता है जिसमें सभी मिलकर एक साथ बाँसुरी और ड्रम की धुन पर राष्ट्रगान करते हैं और उसके बाद परेड और विभिन्न कार्यक्रमों द्वारा इस दिन को खास बना दिया जाता है।स्वतंत्रता दिवस के इस खास मौके पर भारत की राष्ट्रीय राजधानी नई दिल्ली के राजपथ पर भारत सरकार द्वारा इस दिन को एक उत्सव का रुप दिया जाता है जहाँ सभी धर्म, संस्कृति और परंपरा के लोग भारत के प्रधानमंत्री को भाषण सुनते हैं, इस अवसर पर हमलोग उन सभी महान व्यक्तित्व को याद करते हैं, जिनके बलिदान की वजह से हम सभी आजाद भारत में सांसें ले रहे हैं।भारत में स्वतंत्रता दिवस हर साल १५ अगस्त को राष्ट्रीय अवकाश के रुप में मनाया जाता है जब भारतीय ब्रिटिश शासन से अपने राष्ट्र की स्वतंत्रता की लंबी गाथा को याद करते हैं, ये आजादी मिली ढेरों आंदोलनों और सैकड़ों स्वतंत्रता सेनानियों की आहुतियों से, आजादी के बाद पंडित जवाहर लाल नेहरु भारत के पहले प्रधानमंत्री बनें, जिन्होंने दिल्ली के लाल किले पर झंडा फहराया, इस दिन को शिक्षक, विद्यार्थी, अभिभावक और सभी लोग झंडारोहण के साथ ‘राष्ट्रगान’ गीत गाते हैं। हमारा तिरंगा भारत के प्रधानमंत्री द्वारा दिल्ली के लाल किले पर फहराया जाता है, इसके बाद राष्ट्रीय ध्वज को २१ बंदूकों की सलामी के साथ उस पर हेलिकॉप्टर से पुष्प वर्षा कर सम्मान दिया जाता है, हमारे तिरंगे झंडे में केसरिया रंग हिम्मत और बलिदान को, सफेद रंग शांति और सच्चाई को, हरा रंग विश्वास और शौर्य को प्रदर्शित करता है।तिरंगे के मध्य एक अशोक चक्र होता है जिसमें २४ तिलियाँ होती हैं, इस खास दिन पर हम भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, गांधीजी जैसे उन साहसी पुरुषों के महान बलिदानों को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उनके अविस्मरणीय योगदानों के लिये याद करते है। इस दौरान स्कूलों में विद्यार्थी स्वतंत्रता सेनानियों पर व्याख्यान देते हैं तथा परेड में भाग लेते हैं, इस खास मौके को सभी अपनी-अपनी तरह मनाते हैं,कोई देशभक्ति की फिल्में देखता है तो कोई अपने परिवार और मित्रों के साथ घर के बाहर घूमने जाता है साथ ही कुछ लोग स्वतंत्रता दिवस के कार्यक्रमों में भाग लेते हैं।स्वतंत्रता का महत्वभारत का स्वतंत्रता दिवस ऐतिहासिक महत्व रखता है, क्योंकि इस दिन हम राजनीतिक तौर पर आजाद हुए और हमने लोगों के दिल और दिमाग में राष्ट्रीयता का विचार पैदा करना शुरू किया, अगर ऐसा न होता तो लोग अपनी जाति, समुदाय व धर्म आदि के आधार पर ही सोचते रह जाते, हालांकि भारतीय होने का यह गौरव केवल एक भौगोलिक सीमा के ऊपर खड़ा था।भारत का असली व पूरा गौरव, इसकी सीमाओं में नहीं, बल्कि इसकी संस्कृति, आध्यात्मिक मूल्यों तथा सार्वभौमिकता में है।तीन ओर से सागर तथा एक ओर से हिमालय पर्वत शृंखला से घिरा भारत स्थिर जीवन का केंद्र बन कर सामने आया है, यहां के निवासी सालों से बिना किसी बड़े संघर्ष के रहते आ रहे हैं, जबकि बाकी संसार में ऐसा नहीं रहा, जब आप संघर्ष की स्थिति में जीते हैं, तो आपके लिए प्राणों की रक्षा ही जीवन का सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य बना रहता है, जब लोग स्थिर समाज में जीते हैं, तो जीवन-रक्षा से परे जाने की इच्छा पैदा होती है।भारत में लंबे अरसे से, स्थिर समाजों का उदय हुआ और नतीजन आध्यात्मिक प्रक्रियाएं विकसित हुईं।आज आप अमेरिका में लोगों के बीच आध्यात्मिकता को जानने की तड़प को देख रहे हैं, उसका कारण यह है कि उनकी आर्थिक दशा पिछली तीन-चार पीढ़ियों से काफी स्थिर रही है, उसके बाद उनके भीतर कुछ और अधिक जानने की इच्छा बलवती हो रही है।भारत में आज से कुछ हजार साल पहले ऐसा ही घट चुका है, यह अविश्वसनीय जान पड़ता है कि हमने कितने रूपों में आध्यात्मिकता को अपनाया है, इन्सान बुनियादी रूपें में क्या है, इस मुद्दे पर इस धरती की किसी ने भी दूसरी संस्कृति ने उतनी गहराई से विचार नहीं किया, जैसा हमारे देश में किया गया, यही इस देश का मुख्य आकर्षण है।

मानव जाति के प्रज्ञापुरुष थे आचार्य महाप्रज्ञ 0

मानव जाति के प्रज्ञापुरुष थे आचार्य महाप्रज्ञ

प्रज्ञापुरूष आचार्य महाप्रज्ञ जी युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी के सक्षम उतराधिकारी हैं। बुद्धि, प्रज्ञा, विनय और समर्पण का उनके जीवन में अद्भुत संयोग है। वे महान्‌ा दार्शनिक, कवि, वक्ता एवं साहित्यकार होने के साथ-साथ प्रेक्षाध्यान पद्धति के महान अनुसंधाता एवं प्रयोक्ता रहे।आचार्य महाप्रज्ञ जी का जन्म वि.स. १९७७ आषाढ़ कृष्णा त्रयोदशी को टमकोर (राजस्थान) के चोरड़िया परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री तोलारामजी एवं माता का नाम बालूजी था। युवाचार्यश्री का जन्म नाम नथमल था। जब वे बहुत छोटे थे, तभी पिता का साया उनके सिर से उठ गया था। माता बालूजी धार्मिक प्रकृति की महिला थीं। उनकी धार्मिक वृतियों से बालक की धार्मिक चेतना उदृद्ध हुई। माता और पुत्र दोनों ही संयम-पथ पर बढ़ने के लिए उत्सुक थे।वि.स. १९८७ माघ शुक्ला दसमी को सरदारशहर में बालक नथमल ने अपनी माता के साथ पूज्य कालूगणी से दीक्षा ग्रहण की। उस समय उनकी आयु मात्र दस वर्ष की थी। संयमी जीवन में उनकी पहचान मुनि नथमल के रूप में होने लगी। मुनि नथमल अपनी सौम्य आकृति एवं सरल स्वभाव के कारण सबके प्रिय बन गए। पूज्य कालूगणी का उन पर असीम वात्सल्य था। कालूगणी के निर्देश से उन्हें विद्या-गुरू के रूप में मुनि तुलसी (आचार्य तुलसी) की सन्निधी मिली। मुनि नथमल की आशुग्राही मेधा, विविध विषयों का ज्ञान करने में सक्षम हुई। दर्शन, न्याय, व्याकरण, कोष, मनोविज्ञान, ज्योतिष, आयुर्वेद आदि शायद ही कोई ऐसा विषय हो, जो उनकी प्रज्ञा की पकड़ से अछुता रहा हो। जैनागमों के गम्भीर अध्ययन के साथ-साथ उन्होंने भारतीय एवं भारतीयेत्तर सभी दर्शनों का तलस्पर्शी एवं तुलनात्मक अध्ययन किया। संस्कृत, प्राकृत एवं हिन्दी भाषा पर उनका पूर्ण अधिकार रहा। वे संस्कृत भाषा के सफल आशुकवि है। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों में वे दूसरे विवेकानन्द थे।वि.स. २०२२ माद्य शुक्ला सप्तमी को हिसार (हरियाणा) में आचार्यश्री तुलसी ने उन्हें निकाय-सचिव के गरिमामय पद पर विभुषित किया। वि.स. २०३४ कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी, गंगाशहर में आचार्यश्री तुलसी ने उन्हें महाप्रज्ञ की उपाधि से अंलकृत किया। महाप्रज्ञ की उपाधि से अंलकृत करते समय आचार्यश्री तुलसी ने कहा-मुनि नथमल की अपूर्व सेवाओं के प्रति समूचा तेरापंथ संघ कृतज्ञता ज्ञापित करता है। यह महाप्रज्ञ अलंकार उस कृतज्ञता की स्मृति मात्र है।वि.स. २०३५ राजलदेसर (राजस्थान) मर्यादा महोत्सव के अवसर पर आचार्यश्री तुलसी ने अपने उतराधिकारी के रूप में उनकी घोषणा की। वि.स. २०५० सुजानगढ़ मर्यादा महोत्सव के ऐतिहासिक समारोह के मध्य आचार्यश्री तुलसी ने अपनी सक्षम उपस्थिति में अपने आचार्यपद का विर्सजन कर युवाचार्य महाप्रज्ञ को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित कर दिया।यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आचार्य महाप्रज्ञ जी को आचार्यश्री तुलसी जैसे समर्थ गुरु मिले तो आचार्यश्री तुलसी को आचार्य महाप्रज्ञ जैसे समर्पित शिष्य एवं योग्य उतराधिकारी मिले। विश्व क्षितिज पर आचार्यश्री तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ जैसी आध्यात्मिक विभूतियाँ गुरु शिष्य के रूप में शताब्दियों के बाद प्रकट होती हैं।आचार्य महाप्रज्ञ आचार्यश्री तुलसी के हर आयाम में और हर कदम पर अनन्य सहयोगी रहे। गुरु के प्रत्येक निर्देश को क्रियान्वित करने एवं उनके द्वारा प्रारंभ किए हुए कार्य को उत्कर्ष के बिन्दु तक पहूंचाने में वे सदा प्रस्तुत रहते थे।आचार्यश्री तुलसी की वाणी महाप्रज्ञ के कण-कण में क्षण-क्षण प्रतिध्वनित होती है। तेरांपथ की प्रगति-यात्रा के हर आरोह-अवरोह में आचार्य महाप्रज्ञ ने अपने गुरु श्री तुलसी के सधे हुए द्रुतगामी कदमों का सदा साथ निभाया, यह कहना असंगत नहीं होगा कि तेरापंथ और आचार्य तुलसी को विश्व प्रतिष्ठित करने में आचार्य महाप्रज्ञ की भूमिका अनान्य रही है।आचार्य महाप्रज्ञ कुशल प्रवचनकार होने के साथ-साथ एक महान्‌ा लेखक, महान श्रुतधार और महान साहित्कार बने। उनकी सारस्वत वाणी से निकला हर शब्द साहित्य बन जाता था, उन्होंने विविध विषयों पर शताधिक ग्रन्थ लिखे हैं।प्रत्येक ग्रन्थ में उनका मौलिक चिन्तन प्रस्फुटित होता था, उनके ग्रन्थ जहाँ साहित्य जगत की अमूल्य धरोहर हैं, वहाँ मानवता कि विशिष्ट सेवा भी। आचार्यश्री तुलसी के वाचना प्रमुखत्व में जैनागमों के वैज्ञानिक विश्लेषण के साथ आधुनिक सम्प्रदाय उनकी विलक्षण प्रतिभा का परिचायक है, अर्हत्‌ा वाणी के प्रति महान समर्पण का सूचक है।शोध विद्वानों के लिए आचार्य महाप्रज्ञ एक विश्वकोष थे। शायद ही कोई ऐसा विषय हो जो आचार्य महाप्रज्ञ के ज्ञानकोष्ठ में अवतरित ना हुआ हो।आचार्य महाप्रज्ञ ने प्रेक्षाध्यान एवं जीवन विज्ञान के रूप में एक विशिष्ठ वैज्ञानिक साधना-पद्धति का अधिकार प्राप्त किया। इस साधना-पद्धति के द्वारा प्रतिवर्ष सैकड़ों व्यक्ति मानसिक विकृति से दूर हटकर आध्यत्मिक ऊर्जा प्राप्त करते हैं। थोड़े शब्दों में कहा जाए तो आचार्य महाप्रज्ञ की सृजन चेतना से तेरापंथ धर्म-संघ लाभान्वित हुआ है और सम्पूर्ण मानव जाति लाभान्वित होती रहेगी।

श्वेताम्बर तेरापंथ: आचार्य भीखण की भूमिका 0

श्वेताम्बर तेरापंथ: आचार्य भीखण की भूमिका

जैन धर्म में श्वेताम्बर संघ की एक शाखा का नाम श््वेताम्बर तेरापंथ है, इसका उद्भव विक्रम संवत् १८१७ (सन् १७६०) में हुआ, इसका प्रवर्तन मुनि भीखण (भिक्षु स्वामी) ने किया था जो कालान्तर में आचार्य भिक्षु कहलाये, वे मूलतः स्थानकवासी संघ के सदस्य और आचार्य रघुनाथ जी के शिष्य थे।आचार्य संत भीखण जी ने जब आत्मकल्याण की भावना से प्रेरित होकर शिथिलता का बहिष्कार किया था, तब उनके सामने नया संघ स्थापित करने की बात नहीं थी, परंतु जैनधर्म के मूल तत्वों का प्रचार एवं साधुसंघ में आई हुई शिथिलता को दूर करना था, उस ध्येय मे वे कष्टों की परवाह न करते हुए अपने मार्ग पर अडिग रहे। संस्था के नामकरण के बारे में भी उन्होंने कभी नहीं सोचा था, फिर भी संस्था का नाम ‘तेरापंथ’ हो ही गया, इसका कारण निम्नोक्त घटना है:जोधपुर में एक बार आचार्य भिक्षु के सिद्धांतों को माननेवाले १३ श्रावक एक दूकान में बैठकर सामायिक कर रहे थे, उधर से वहाँ के तत्कालीन दीवान फतेहसिंह जी सिंघी गुजरे तो देखा, श्रावक यहाँ सामायिक क्यों कर रहे हैं, उन्होंने इसका कारण पूछा। उत्तर में श्रावकों ने बताया श्रीमान् हमारे संत भीखण जी ने स्थानकों को छोड़ दिया है, वे कहते हैं, एक घर को छोड़कर गाँव-गाँव में स्थानक बनवाना साधुओं के लिये उचित नहीं है, हम भी उनके विचारों से सहमत हैं इसलिये यहाँ सामायिक कर रहे हैं। दीवान जी के आग्रह पर उन्होंने सारा विवरण सुनाया, उस समय वहाँ एक सेवक जाति का कवि खड़ा सारी घटना सुन रहा था, उसने तत्काल १३ की संख्या को ध्यान में लेकर एक दोहा कह डालाआप आपरौ गिलो करै, ते आप आपरो मंत।सुणज्यो रे शहर रा लाका, ऐ तेरापंथी तंतबस यही घटना तेरापंथ के नाम का कारण बनी, जब स्वामी जी को इस बात का पता चला कि हमारा नाम ‘तेरापंथी’ पड़ गया है तो उन्होंने तत्काल आसन छोड़कर तीर्थंकरों को प्रणाम कर इस शब्द का अर्थ किया:हे भगवान यह ‘तेरापंथ’ है, हमने तेरा अर्थात् तुम्हारा पंथ स्वीकार किया है, अत: हम तेरापंथी हैं।संगठनआचार्य संत भीखण जी ने सर्वप्रथम साधु संस्था को संगठित करने के लिये एक मर्यादा पत्र लिखा:(१) सभी साधु-साध्वियाँ एक ही आचार्य की आज्ञा में रहें।(२) वर्तमान आचार्य ही भावी आचार्य का निर्वाचन करें।(३) कोई भी साधु अनुशासन को भंग न करे।(४) अनुशासन भंग करने पर संघ से तत्काल बहिष्कृत कर दिया जाए।(५) कोई भी साधु अलग शिष्य न बनाए।(६) दीक्षा देने का अधिकार केवल आचार्य को ही है।(७) आचार्य जहाँ कहें, वहाँ मुनि विहार कर चातुर्मास करे, अपनी इच्छानुसार ना करे।(८) आचार्य श्री के प्रति निष्ठाभाव रखे, आदि।इन्हीं मर्यादाओं के आधार पर आज २६३ वर्षों से तेरापंथ श्रमणसंघ अपने संगठन को कायम रखते हुए अपने ग्यारहवें आचार्य श्री महाश्रमणजी के नेतृत्व में लोक कल्याणकारी प्रवृत्तियों में महत्वपूर्ण भाग अदा कर रहा है।संघव्यवस्थातेरापंथ संघ में इस समय करीबन ७०० साधु साध्वियाँ हैं, इनके संचालन का भार वर्तमान आचार्य श्री महाश्रमण पर है, वे ही इनके विहार, चातुर्मास आदि के स्थानों का निर्धारण करते हैं। प्राय: साधु और साध्वियाँ क्रमश: ३-३ व ५-५ के वर्ग रूप में विभक्त किए होते हैं, प्रत्येक वर्ग में आचार्य द्वारा निर्धारित एक अग्रणी होता है, प्रत्येक वर्ग को ‘सिंघाड़ा’ कहा जाता है।ये सिंघाड़े पदयात्रा करते हुए भारत के विभिन्न भागों, राजस्थान, पंजाब, गुजरात, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, मध्यभारत, बिहार, बंगाल आदि में अहिंसा आदि का प्रचार करते रहते हैं। वर्ष भर में एक बार माघ शुक्ला सप्तमी को सारा संघ जहाँ आचार्य होते हैं वहाँ एकत्रित होता है और आगामी वर्ष भर का कार्यक्रम आचार्य श्री वहीं पर निर्धारित कर देते हैं और चातुर्मास तक सभी ‘सिंघाड़े’ अपने-अपने स्थान पर पहुँच जाते हैं।

आचार्यश्री महाश्रमणजी का संक्षिप्त जीवन परिचय 0

आचार्यश्री महाश्रमणजी का संक्षिप्त जीवन परिचय

जन्म : वि.सं.२०१९, वैशाख शुक्ला नवमी(१३ मई १९६२) सरदारशहरजन्म नाम : मोहनलाल दुगड़पिता : स्व श्री झूमरमलजी दुगड़माता : स्व.श्रीमती नेमादेवी दुगड़दीक्षा : वि.सं.२०३१ वैशाख शुक्ला चतुर्दशी(५ मई १९७४) सरदारशहर(आचार्य तुलसी की अनुज्ञा सेमुनि सुमेरमलजी‘लाडनूं’ द्वारा)अन्तरंग सहयोगी : वि.सं.२०४२, माघ शुक्ला सप्तमी(१६ फरवरी १९८६) उदयपुरसाझपति : वि.सं.२०४३, वैशाख शुक्ला चतुर्थी(१३ मई १९८६) ब्यावरमहाश्रमण पद : वि.सं.२०४६, भाद्रव शुक्ला नवमी(९ सितम्बर १९८९) लाडनूंयुवाचार्य पर : वि.सं.२०५४, भाद्रव शुक्ला द्वादशी(१४ सितम्बर १९९७) गंगाशहरआचार्य पदाभिषेक : वि.सं.२०६७, द्वितीय वैशाख शुक्ला दशमी(२३ मई २०१०) सरदारशहरमहातपस्वी : वि.सं.२०६४, भाद्रपद शुक्ला पंचमी(१७ सितम्बर २००७) उदयपुरशान्तिदूत : वि.सं.२०६८, ज्येष्ठ कृष्ण द्वादशी(२९ मई २०११) उदयपुरश्रमण संस्कृति उद्गाता : वि.सं.२०६९, आश्विन कृष्णा चतुदर्शी(१४ अक्टूबर २०१२) जसोलअिंहसा यात्रा शुभारम्भ : २०७१, मार्गशीर्ष बदी तृतीया(९ नवम्बर २०१४) दिल्ली सेप्रथम विदेश यात्रा : वि.सं.२०७२, चैत्र शुक्ला एकादशी(३१ मार्च २०१५) वीरगंज (नेपाल)प्रकाशित पुस्तकें : आओ हम जीना सीखें, दु:ख मुक्ति का मार्ग,क्या कहता है जैन वाड्.मय,संवाद भगवान से (भाग-१, २), शिक्षा सुधा,शेमुषी, मेरे गीत,धम्मो मंगलमुक्किंट्ठं,महात्मा महाप्रज्ञ, सुखी बनो, संपन्न बनो,विजयी बनो, रोज की एक सलाह,शिलान्यास धर्म का, अदृश्य हो गया महासूर्य…. जिसमें आसमान को छूने का जज्बा होता है, जमीन भी उसकी हो जाती है, वस्तुत: जो व्यक्ति कुछ होने की तमन्ना रखता है, कुछ कर गुजरने का हौसला रखता है, वह एक दिन अवश्य ही अपने भाग्य, बुद्धि और परिश्रम के बलबुते पर जनमानस के मानचित्र पर सफल व्यक्तित्व के रूप में उभर जाता है। विलक्षण कर्त्तृत्व और विशिष्ट व्यक्तित्व के धनी आचार्य महाश्रमण का जन्म वि.सं. २०१९ वैशाख शुक्ला ९ (१३ मई १९६२) रविवार को ‘सरदाशहर’ में हुआ।‘सरदारशहर’ राजस्थान का एक प्रमुख क्षेत्र है। गांधी विद्या मंदिर की स्थापना के बाद यह नगर राजस्थान के शैक्षणिक मानचित्र पर उभरकर आ गया, यहां अनेक आकर्षक दर्शनीय स्थल हैं। सरदारशहर तेरापंथ धर्मसंघ के अनेक ऐतिहासिक प्रसंगों का केन्द्र-बिन्दु रहा है, यहां की आबादी एक लाख से भी ज्यादा है।पारिवारिक पृष्ठभूमि : ‘सरदारशहर’ में दूगड़ जाति के परिवार सबसे अधिक हैं, अनेक गांवों से आकर यहां बसने वाले दूगड़ परिवारों में एक परिवार है श्रीमान झूूमरमलजी दूगड़ का, उनके पूर्वज ‘मेहरी’ गांव से आकर बसे थे इसलिए वे मेहरी वाले ‘दूगड़’ कहलाने लगे। श्री झूमरमलजी दूगड़ के दस सन्तानें हुई-सात पुत्र और तीन पुत्रियां। उस समय ‘माता’ (चेचक) एक असाध्य बीमारी थी, उस लाइलाज बीमारी से ग्रस्त एक पुत्र और एक पुत्री का अल्पवय में ही स्वर्गवास हो गया। श्री झूमरमलजी जोरहाट (असम) में रहते थे, उनका हार्डवेयर का व्यवसाय था, वे सहज, सरल, शांत स्वभावी और ईमानदार व्यक्ति थे। पन्द्रह-बीस मिनट तक नवकार महामंत्र का जाप करना उनका नित्यक्रम था।मानव जीवन की मूल्यवत्ता को समझने वाली और उसे निपुणता से जीने वाली श्रीमती नेमादेवी दूगड़ विवेक-सम्पन्न, व्यवहार-कुशल और समझदार महिला थी, वे अपने दायित्व के प्रति पूर्ण जागरूक थी। संघ और संघपति के प्रति उनमें गहरी श्रद्धा थी। उनका भाषा-विवेक गजब का था। जीवन के सन्ध्याकाल में उनको पक्षाघात हो गया, उस समय अनेक लोग उनसे मिलने आते। एक दिन एक भाई ने पूछा-‘माजी! आपको तो बहुत गर्व होता होगा कि मेरा बेटा युवाचार्य है।’ उन्होंने तत्काल कहा- ‘मैं इस बात का गर्व नहीं करती कि बेटा युवाचार्य है पर मुझे इस बात का गौरव अवश्य है कि बेटा संघ की सेवा कर रहा है।’बातें बचपन की : मोहन बचपन से ही प्रतिभा सम्पन्न था, उसमें गहरी सूझबूझ ग्रहणशीलता और प्रशासनिक योग्यता प्रारंभ से ही थी, उसने जैसे ही अपनी उम्र के पांच वर्ष संपन्न किए, राजेन्द्र विद्यालय में प्रवेश किया। लगभग साढ़े पांच वर्ष तक इसी स्कूल में अध्ययन किया, उस समय स्कूल के प्रधानाध्यापक श्री रेवतमलजी भाटी थे। मोहन ने स्कूल जाने से पहले ही वर्णमाला और कुछ पहाड़े सीख लिए थे। तीसरी, चौथी और पाचवीं कक्षा में वह कक्षा-प्रतिनिधि (मोनिटर) के रूप में निर्वाचित हुआ, तीनों कक्षाओं में गणित और सामान्य विज्ञान में विशेष योग्यता प्राप्त की और कक्षा तीसरी और पाचवांr में प्रथम स्थान भी प्राप्त किया। तीसरी कक्षा में खेलकूद/सांस्कृतिक प्रतियोगिता के अंतर्गत उपस्थिति में भी प्रथम स्थान प्राप्त किया। अनेक धार्मिक व अन्य प्रतियोगिताओं में भी वह प्राय: प्रथम रहता। मोहन अपनी कक्षा के दो-तीन मेधावी छात्रों में से एक था, वह अध्ययन में होशियार था तो लड़ाई-झगड़े में भी कम नहीं था। मोहन बचपन से बहुत ही चंचल था। घर में अनेक बच्चे थे। भाई-भतीजों के साथ लड़ाई-झगड़ा चलता रहता। छुट्टियों के दिनों में तो उसका अधिकांश समय खेलकूद में ही व्यतीत होता। कभी-कभी जब माँ परेशान होकर बच्चों को पकड़ने के लिए उठती तक मोहन का छोटा भाई तो घर से बाहर दौड़ जाता और मोहन पकड़ा जाता। मां जैसे ही चपत लगाने लगती, मोहन कहता- ‘माँ! आपके ही हाथों में लगेगी।’ यह सुनते ही माँ का हाथ वहीं रूक जाता और वह मार खाने से बच जाता।मोहन की खेलने में भी अच्छी रूचि थी। कबड्डी, कांच के गोले, सतोलिया, छुपाछुपी आदि उसके प्रिय खेल थे। खेलकुद प्रतियोगिताओं में वह प्राय: भाग लेता था।प्रहर रात्रि के बाद : एक बार प्रवास में मुनिश्री सुमेरमलजी के साथ मुनिश्री सोहनलालजी (चाड़वास), मुनिश्री पूनमचंदजी (श्रीडूंगरगढ़), मुनिश्री रोशनलालजी (सरदारशहर) थे। मोहन मुनिश्री सोहनलालजी के निर्देशन में अध्ययनरत रहा। विद्यार्थियों को सिखाने-पढ़ाने में मुनिश्री सोहनलालजी की कला बेजोड़ थी, वे केवल सिखाते ही नहीं थे, वैराग्य के संस्कार भी देते थे, आप धर्मसंघ के एक श्रेष्ठ कलाकार, स्वाध्यायशील और आचारनिष्ठ सन्त थे, आपने मोहन को तत्त्वज्ञान के अनेक थोकड़े कंठस्थ करा दिए, जैसे-पचीस बोल, तेरहद्वार, बासठिया, बावन-बोल, गतागत, पाना की चर्चा, लघुदण्डक तथा थोकड़ों में अन्तिम थोकड़ा माना जाने वाला ‘गमा’ भी कंठस्थ करा दिया, आचार्य भिक्षु के ‘दान-दया’ के सिद्धांत से भी मोहन को अवगत कराया। मोहन घंटों-घंटों तक मुनिश्री सोहनलालजी के पास अध्ययन करता, कंठस्थ ज्ञान का पुनरावर्तन करता और तात्त्विक चर्चा करता। मोहन का उनके प्रति लगाव जैसा हो गया, जब कभी वे अस्वस्थ हो जाते तो मोहन का किसी भी कार्य में मन नहीं लगता और तो क्या, भोजन करने में भी मन नहीं लगता, जब वह खाना खाने घर आता तब मां से कहता- ‘मां! आज जल्दी खाना डाल दो, मुझे अभी वापस जाना है, आज हमारे ‘बापजी’ ठीक नहीं है।’मुनिश्री रोशनलालजी वैरागियों के परिवार वालों से संपर्क करने तथा वैरागियों की देखभाल रखने में बड़े दक्ष थे, मोहन उनके संपर्क करने तथा वैरागियों की देखभाल रखने में बड़े दक्ष हो गए। मोहन उनके संपर्क में भी बहुत रहा, वे गोचरी के लिए पधारते तब मोहन प्राय: उनके साथ रहता, रास्ते में सेवा करता।मुनिजन मोहन को यदा-कदा दीक्षा लेने के लिए प्रेरित करते रहते। मुनिश्री सुमेरमलजी ने भी मोहन को कई बार दीक्षा लेने के लिए कहा पर मोहन हमेशा एक अच्छा श्रावक की बात कहता रहा।जल उठा दीप : वि.सं. २०३० भाद्रव शुक्ला षष्ठी। अष्टमाचार्य पूज्य कालूगणी का महाप्रयाण दिवस। मुनिश्री सुमेरमलजी ने कहा – ‘मोहन! आज तुम्हें एक निर्णय कर लेना चाहिए कि गृहस्थ जीवन में रहना है या साधु बनना है।’मुनिश्री के निर्देशानुसार मोहन गधैयाजी के नोहरे में एकान्त स्थान में जाकर बैठ गया। सर्वप्रथम पूज्य कालूगणी की माला फेरी, फिर चिन्तन करने लगा –‘मेरे सामने दो मार्ग हैं – एक साधुत्व का और दूसरा गृहस्थ का। साधु मार्ग में सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, केशलुंचन, पदविहार आदि स्थिति-जनित कष्ट हो सकते हैं। दूसरी ओर गृहस्थ जीवन में भी अनेक प्रकार की चिन्ताएं आदमी को सताती रहती हैं, जैसे- व्यापार में घाटा लग जाना, सन्तान का अनुकूल न होना, पति-पत्नी में से किसी एक का छोटी अवस्था में चले जाना, अन्य अनेक पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभाना आदि, जब दोनों ओर कष्ट हैं तो मुझे कौन सा मार्ग स्वीकार करना चाहिए’?तभी दिमाग में एक बात बिजली-सी कौंध गई कि कष्ट तो दोनों तरफ हैं, जहां साधु जीवन के कष्ट मुझे मोक्ष की ओर ले जाने वाले होंगे, वहीं गृहस्थ-जीवन के कष्ट मुझे अधोगति की ओर ले जा सकते हैं, यदि मैं जागरूकतापूर्वक संयम का पालन करâंगा तो मुझे पन्द्रह भवों में मुक्ति मिल जाएगी।’ बस, भीतर में जल उठे इस चिन्तन के दीप ने मोहन को साधु बनने के लिए कृतसंकल्प बना दिया, उसने वहीं बैठे-बैठे जीवन-पर्यन्त शादी करने तक का त्याग कर लिया।आज्ञा प्राप्ति के प्रयत्न : मनुष्य के जीवन में ज्वारभाटा जैसा उतार-चढ़ाव आता रहता है जो व्यक्ति ज्वर को पकड़ लेता है, वह सौभाग्य की ड्योढी पर पहुंच जाता है और जो चूक जाता है, वह भाटे के दलदल में फंस जाता है। मोहन ने अपने भीतर उठते ज्वार को पकड़ा और सौभाग्य की ड्योढी पर पहुंच गया। मोहन ने जीवन में भावुकता में बहकर कोई निर्णय नहीं लिया। बहुत चिन्तन-मनन के बाद उसने अपने जीवन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण निर्णय लिया कि मुझे साधु बनना है।तेरापंथ की दीक्षा मात्र स्वयं की इच्छा से ही नहीं हो सकती, परिवार की स्वीकृति भी अनिवार्य होती है। मोहन ने स्वीकृति-प्राप्ति के लिए प्रयास प्रारंभ किया। पिताश्री झूमरमलजी दूगड़ का तो स्वर्गवास हो चुका था। मोहन ने मां से कहा- ‘माँ! मुझे दीक्षा लेनी है इसलिए आपकी आज्ञा चाहिए।’माँ ने कहा- ‘मोहन! मैं इस बारे में कुछ नहीं कहूंगी, सुजानमल जो कहेगा, वही होगा।’उस समय श्री सुजानमलजी दूगड़ परिवार के मुखिया एवं संरक्षक थे, वे एक समझदार, निर्णयक्षम और प्रामाणिकतानिष्ठ व्यक्ति थे। परिवार में उनका अच्छा अनुशासन था, उस समय सुजानमलजी जोरहाट गए हुए थे, मोहन ने उनके नाम एक लम्बा-चौड़ा पत्र लिखा, जिसमें दीक्षा के लिए अनुमति मांगी गई। सुजानमलजी ने प्रत्युत्तर में लिखा – ‘दिक्षा के बारे में मैं अभी कुछ नहीं कह सकता, सरदारशहर आने पर ही बात हो सकेगी।’ मार्गशीर्ष महीने में वे सरदारशहर आए। घर में दीक्षा के संदर्भ में बात हुई, तब सुजानमलजी ने साफ इनकार कर दिया, जब मोहन को स्वीकृति नहीं मिली तो उसने अनुमति नहीं मिलने तक तीव्र द्रव्य से अधिक खाने का त्याग कर दिया, यह क्रम कई दिनों तक चला किन्तु आज्ञा नहीं मिली, तब एक दिन मोहन ने साहस बटोरकर कहा – ‘भाईजी! यदि आप मुझे दीक्षा के लिए स्वीकृति नहीं देंगे तो मैं आपके घर में नहीं रहूंगा।’सुजानमलजी – ‘घर से बाहर जाने पर भी तुम्हें दीक्षा तो मिलेगी नहीं।’मोहन – ‘कोई बात नहीं।’सुजानमलजी – ‘फिर तू खाना कहां खाएगा?’मोहन – ‘मैं घरों से मांग-मांगकर भोजन कर लूंगा किन्तु आपके घर में नहीं रहूंगा।’यह कहकर मोहन घर से चला गया, उसके जाने के बाद माँ ने कहा- ‘सुजान! कहीं भावावेश में आकर मोहन कोई गलत काम कर लेगा तो हमेशा के लिए हमारी आंखों से ओझल हो जाएगा, इससे तो अच्छा है कि तुम उसे दीक्षा की आज्ञा दे दो ताकि वह हमारी आंखों के सामने तो रहेगा।’विनीत पुत्र ने मां की आज्ञा को शिरोधार्य किया, जब सायंकाल सूर्यास्त से कुछ समय पहले मोहन अपनी पुस्तकें, आसन आदि लेने के लिए घर आया तब मां ने कहा – ‘मोहन! ऐसा करने से दीक्षा की आज्ञा नहीं मिलेगी। पहले खाना खा लो फिर भाईजी से अच्छी तरह बात कर लेना।’ मोहन ने भी माँ की आज्ञा को शिरोधार्य किया। खाना खाने के बाद भाईजी से बातचीत की। भाईजी ने कहा -‘आषाढ़ महीने के बाद जब तुम्हारी इच्छा हो, मैं दीक्षा दिलवाने के लिए तैयार हूं।’ मोहन को आज्ञा मिल गई। मां की आज्ञा तो भाईजी की अनुमति में ही निहित थी। उस दिन मोहन की प्रसन्नता का कोई पार नहीं था। वह तत्काल मुनिश्री के पास गया और सारी बात निवेदित की, उन दिनों मोहन ने पूज्य गुरूदेव तुलसी को एक पत्र लिखा, वह अविकल रूप में इस प्रकार है-परमपूज्य परमपिता मेरे ह्य्दयदेव युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी के चरणों में कोटि-कोटि वन्दना।गुरूदेव!पहली म्हारा भाईजी दीक्षा लेणै वास्तै मनै स्वीकृति कोनी दी, अब आपकी कृपा तथा सन्तां की प्रेरणा स्यूं मां और भाईजी कुछ महीना ठहरकर दीक्षा लेणै की स्वीकृति दे दी।गुरूदेव! मैं आपकी कृपा स्यूं तथा मुनिश्री सोहनलालजी की कृपा तथा मेहनत स्यूं इण चौमासै में कई थोकड़ा सीख्या हूं, जिकामें-पाना कर चरचा, तेरहद्वार, लघुदण्डक, गतागत, बावनबोल, बासठियो, अल्पाबोहत, विचारबोध, जैन तत्त्व प्रदेश (प्रथम भाग), कर्म प्रकृति पहली सीखी हूँ।गुरूदेव! आपवैâ श्री चरणां में म्हारी आ ही प्रार्थना है कि बीच का चार-पांच महीना ८की म्हारै अन्तराय है, आ पूरी हुंता ही गुरूदेव मनै जल्दी स्यूं जल्दी दीक्षा दिरासी।आपका सुविनीतशिष्य मोहनप्रसंगोपात्त एक दिन : मुनिश्री सुमेरमलजी ने दीक्षा का मुहूर्त्त देखा और वैशाख महीना श्रेष्ठ बताया, किन्तु भाईजी की स्वीकृति तो आषाढ़ महीने के बाद के लिए प्राप्त थी। मुनिश्री ने उनसे कहा- आपको दीक्षा तो देनी ही है फिर आषाढ़ के बाद दें या वैशाख में दें, क्या फर्क पड़ेगा? मात्र दो-तीन महीनों के लिए अच्छे मुहूर्त्त को क्यों टाला जाए? तब सुजानमलजी ने कहा – ‘गुरूदेव और आप जब उचित समझें, इसको दीक्षा दे सकते हैं, मेरी ओर से स्वीकृति है।’मोहन के साथ हीरालाल बैद, बजरंग बरडिया और तेजकरण दूगड़ भी वैरागी थे। मोहनलाल और हीरालाल को तो परिवार की ओर से अनुमति मिल गई किन्तु बजरंग और तेजकरण को पारिवारिक स्वीकृति नहीं मिली, वे साधु तो नहीं बने किन्तु आज वे अच्छे श्रावक अवश्य हैं।इस दौरान मोहन का परीक्षण भी किया गया परन्तु वह हर परीक्षा में स्वर्ण की भांति खरा उतरा। उस समय गुरूदेव तुलसी का प्रवास अणुव्रत-भवन, दिल्ली में था। मर्यादा-महोत्सव का अवसर था, मोहन अपने परिवार के साथ गुरूदर्शन के लिए दिल्ली पहुंचा।वि.सं. २०३० माघ शुक्ला अष्टमी को प्रवचन के समय उसने एक वक्तव्य दिया, वह इस प्रकार है-अपनी बात : ‘परमाराध्य प्रात: स्मरणीय ह्य्दयसम्राट युगप्रधान आचार्यश्री के श्रीचरणों में कोटी-कोटी वन्दना!उपस्थित साधु-साध्वीवृंद! बुजुर्गों! माताओं!आप लोग सोच रहे होंगे यह बच्चा क्यों खड़ा हुआ है? क्या कहने जा रहा है और क्या चाहता है? मेरी चाह भौतिक नहीं, आध्यात्मिक है। मेरा कथन उपदेश नहीं, निवेदन है। प्रार्थना है वह भी किसी भौतिक वस्तु के लिए नहीं, चारित्र के लिए है। साधु बनने की आकांक्षा मन में लेकर ही मैं आज यहां खड़ा हुआ हूं। आप लोग सोच रहे होंगे कि यह बच्चा है, यह साधुत्व को क्या समझेगा? जब मैं ऐसी बात किसी से सुनता हूं तो मुझे उसकी बुद्धि पर तरस आता है, ह्य्दय करूणा से भर जाता है। सोचता हूं इन लोगों ने धर्म को समझा या नहीं, आत्मा को जाना या नहीं। अगर जाना है तो केवल मेरे शरीर से ही मेरा अंकन क्यों करते हैं? साधुत्व आत्मा की वस्तु है या शरीर की? याद रखें, धर्म आत्मा की वस्तु है, क्या मेरी आत्मा आपसे छोटी है? क्या कोई आत्मवादी ऐसा कह सकता है? शरीर से ही जो व्यक्ति छोटे-बड़े का अंकन करते हैं वे केवल हाड़-मांस और चमड़ी देखने वाले हैं।एक कहानी मुझे याद आती है, जो मैंने सन्तों से ही सुनी है।अष्टावक्रजी को आत्मचर्या के लिए राज्यसभा से निमंत्रण मिला। निश्चित समय पर अष्टावक्रजी राज्यसभा में पहुंचे, सभाभवन पण्डितों से भरा हुआ था, ज्योंही अष्टावक्रजी ने सभाभव्ान में प्रवेश किया, पण्डित लोग उनके शरीर को देखकर खिलखिलाकर हंस पड़े। आठ जगह से उनका शरीर टेढ़ा-मेढ़ा था। सारा भवन हंसी से गूंज उठा। अष्टावक्रजी ने राजा से कहा- ‘राजन्! यहां पण्डित कौन है? ये सब तो चमार ही चमार हैं, किससे चर्चा करूं?’विस्मितमना राजा ने कहा -‘अष्टावक्र! ऐसे वैâसे बोल रहे हो? देखो, सब सामने पण्डित ही पण्डित बैठे हैं।’ अष्टावक्र- ‘पण्डित कहां है राजन्! पण्डित लोग आत्म चर्चा में लीन रहते हैं और चमार लोग चमड़ी तथा हड्डियों की परिक्षा में लीन रहते हैं, ये सब मेरे शरीर को देखकर हंस रहे हैं इसलिए पंडित कहां हैं? हंसने वाले पण्डितों पर चपत-सी लग गई।अब आपसे ही पूछूं -‘जो मेरे को छोटा बतलाते हैं, उन्हें क्या कहूं? आप सोचते होंगे, यह साधुत्व के नियम वैâसे निभाएगा? अतिमुक्तक मुनि ने वैâसे निभाया था? गजसुकुमाल मुनि ने वैâसे कष्ट सहे? परीषह आत्मबल से ही सहा जाता है।’अस्तु, पूज्य गुरूदेव! मेरी ओर ध्यान दें, इस बच्चे का भविष्य आपकी दृष्टि पर निर्भर है, कृपा करके प्रतिक्रमण सीखने का आदेश तो अभी फरमाएं।प्रवचन के दौरान पूज्य गुरूदेव ने मोहन से ऐसे प्रश्न पूछे-‘बोलो वैरागीजी! आश्रव किसे कहते हैं?’ प्रवचन-संपन्नता के बाद गुरूदेव अणुव्रत-भवन में ऊपर पधार रहे थे, प्रथम मंजिल की सीढ़ियों के बीच पूज्यप्रवर कुछ क्षण रूके और वहीं मोहन को प्रतिक्रमण सीखने का आदेश फरमा दिया। मोहन का रोम-रोम खिल उठा, वह अपने परिवार के साथ पुन: सरदारशहर आ गया।दीक्षा दिल्ली में या सरदारशहर में : प्रतिक्रमण आदेश के बाद पूज्यप्रवर ने चिन्तन किया कि दीक्षा कहां हो, दिल्ली में या सरदारशहर में? उन दिनों ट्रेनों की हड़ताल चल रही थी और मोहन की अवस्था भी छोटी थी। मात्र बारह वर्ष के बालक की दीक्षा दिल्ली शहर में होना आलोचना का विषय बन सकता था। मोहन के परिवार की भी यही इच्छा थी कि दीक्षा सरदारशहर में ही हो, इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए आचार्यवर ने फरमाया – ‘मोहनलाल और हीरालाल की दीक्षा वि.सं. २०३१ वैशाख शुक्ला चतुर्दशी को सरदारशहर में ही शिष्य मुनि सुमेर (लाडनूं) के सानिध्य में हो सकेगी।दीक्षा-तिथि की घोषणा के बाद घर में मोहन का विशेष ध्यान रखा जाता, उसकी इच्छापूर्ति का प्रयास किया जाता। मोहन की मौसी श्रीमती झूमादेवी नखत कोलकाता में रहती थी, वह मोहन के लिए घड़ी लेकर आई। मोहन को घड़ी का बहुत शौक था, वह अपने हाथ पर घड़ी बांधकर सबको बार-बार दिखाता, उस समय तक बच्चों के हाथ पर घड़ी बंधी हुई बहुत कम देखने को मिलती थी। दीक्षा के बाद भी कई दिनों तक घड़ी देखने के लिए मोहन अपने हाथ को देखता, फिर याद आता कि अब मैं साधु बन गया हूँ।सौभाग्य की सौगात : वि.सं. २०३१ वैशाख शुक्ला चतुवर्दशी (५ मई १९७४) का सुप्रभात मोहन के लिए सौभाग्य की सौगात लेकर आया, वह प्रात: लगभग चार बजे ही मुनिश्री के पास पहुंच गया। मुनिश्री ने फरमाया- ‘मोहन! आज इतनी जल्दी आ गया?’ मोहन ने कहा – ‘मुनिप्रवर! आज तो मेरे लिए सोने का सूरज उगा है, मैं बहुत सौभाग्यशाली हूं कि आज मुझे आपके करकमलों से दीक्षित होने का सुअवसर मिलेगा।’गधैयाजी का नोहरा! हजारों लोगों की उपस्थिति। लम्बे व भव्य जुलूस के साथ दोनों वैरागी श्री समवसरण में पहुंचे, अनेक लोगों ने उनके भावी जीवन के प्रति मंगल भावनाएं व्यक्त कीं। मोहन के ज्येष्ठ भ्राता अमरचन्दजी दूगड़ ने आज्ञा पत्र का वाचन किया। मोहन ने भी छोटा-सा वक्तव्य दिया। कार्यक्रम के दौरान गुरूदेव तुलसी द्वारा प्रदत्त संदेश का वाचन किया गया, उसका कुछ अंश इस प्रकार है-‘जैन मुनि की चर्या कठिन है, यह बात सही है। तेरापंथी जैन मुनियों की चर्या और अधिक कठिन है, इस चर्या में पांच महाव्रतों की स्वीकृति के साथ जीवनभर गुरू के चरणों में समर्पित रहना, प्रत्येक काम उनके निर्देश से करना, संघीय व्यवस्थाओं का ह्य्दय से पालन करना आदि ऐसे विधान हैं जो व्यक्ति को चारों ओर से थाम लेते हैं, फिर भी उसमें रम जाने के बाद वे कठिनाइयां सहज बन जाती हैं, आनन्दप्रद लगने लगती हैं।भविष्यवाणी रेखाशास्त्री की:दीक्षा से कुछ दिन पूर्व सरदारशहर के कार्यकर्ता रेखाशास्त्री अध्यापक छगनजी मिश्रा को मुनिश्री सुमेरमलजी के पास लेकर आए, उन्होंने मुनिश्री के हाथ और पैर की रेखाएं देखीं और कहा- आप दो बालकों को छह महीने के भीतर-भीतर दीक्षा देंगे, उसी समय उन्होंने मोहन के भी हाथ व पैर की रेखाएं देखीं और कहा- यह बालक आपकी (मुनिश्री की) विद्यमानता में ही धर्मसंघ में सर्वोपरि स्थान प्राप्त करेगा, दोनों ही भविष्यवाणी शत प्रतिशत सच हो गई।विलक्षण मेधा:जिस दिन दीक्षा स्वीकार की उसी दिन उन्होंने ‘दसवेआलियं सूत्र’ कंठस्थ करना प्रारंभ कर दिया, ‘सात सौ अनुष्टुप श्लोक प्रमाण दसवेआलियं’ सूत्र को मात्र चालीस दिनों में अर्थसहित कंठस्थ कर लिया।मुनि मुदितकुमारजी का प्रथम चतुर्मास सरदारशहर में हुआ, उस चातुर्मास में उन्होंने कुछ दिनों तक उपदेश प्राक वक्तव्य दिया, उनका प्रथम उपदेश दसवें आलियं सूत्र के प्रथम अध्ययन ‘दुमपुप्फिया’ पर आधारित था।दीक्षा के कुछ दिनों बाद ही सरदारशहर के प्रबुद्ध प्रशिक्षक श्रावक श्री भंवरलालजी बैद से मुनि हेमंतकुमारजी और मुनि मुदितकुमारजी ने अंग्रेजी भाषा का अध्ययन करना प्रारंभ कर दिया। मात्र ६ महीनों में ही मुनिद्वय की प्रबुद्धता से बहुत प्रभावित हुए, उन्होंने अनेक बार मुनिश्री सुमेरमलजी से कहा- इतने ग्रहणशील विद्यार्थी मुझे पहली बार मिले हैं, श्री भंवरलालजी तेरापंथ धर्मसंघ के श्रद्धानिष्ठ और समर्पित श्रावक थे, वे अंग्रेजी और संस्कृत भाषा के अधिकृत विद्वान, कुशल अध्यापक, आयुर्वेद के ज्ञाता एवं चिकित्सक भी थे।ज्ञान और साधना:दीक्षा के बाद तीसरा चातुर्मास गुरूदेव तुलसी के साथ सरदारशहर में किया, उस समय वे संघ परामर्शक मुनिश्री मधुकरजी के साथ ग्रुप में रहे फिर चौथा एवं पांचवां चातुर्मास मुनिश्री रूपचंदजी सरदारशहर के साथ जयपुर और दिल्ली में किया, इन २ चातुर्मासों में मुनिश्री रूपचंदजी की प्रेरणा व मुनिश्री मानककुमारजी के श्रम से मुनि मुदितकुमारजी ने संस्कृत भाषा का अच्छा अध्ययन किया, इससे पूर्व मुनिश्री सुमेरमलजी उन्हें संस्कृत साहित्य पढ़ाते। पण्डित रामकुमारजी संस्कृत व्याकरण कालुकौमुदी की साधनिका कराते, कुछ ही वर्षों में उन्होंने संस्कृत भाषा का गंभीर अध्ययन कर लिया, वे संस्कृत में धाराप्रवाह बोलने लगे और लिखने भी लगे। अध्ययनकाल के दौरान मुनि मुदितकुमारजी ने संस्कृत भाषा में कुछ कहानियां लिखीं, जिन्हें आज हम ‘शेमुषी’ नामक ग्रंथ में पढ़ सकते हैं।एक महत्वपूर्ण साहसिक निर्णय मुनि मुदितकुमारजी पूज्यप्रवर के मार्गदर्शन में निरंतर गति-प्रगति करते रहे, उनकी प्रज्ञा की पारदर्शिता निखरती गई, वे हर क्षेत्र में आगे बढ़ते गए, साधना के पथ में आने वाली कठिनाइयों को साहस के साथ झेलते गए और सफलता के परचम फहराते गए। सचमुच,मुश्किल-भरे दिनों में जिसका साहस बरकरार रहता है, वही व्यक्ति कुछ कर गुजरने की काबिलियत रखता है। सन् १९७९ का प्रसंग है, मुनि मुदितकुमारजी, मुनिश्री रूपचंदजी के साथ अशोक विहार दिल्ली में प्रवास कर रहे थे, उस समय युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ का भी अणुव्रत भवन, दिल्ली में प्रवास हो रहा था। एक दिन अपराह्न में मुनिश्री रूपचंदजी ने मुनि मुदितकुमारजी से कहा -मैं इस संघ से अलग होने जा रहा हूँ, तुम अपना चिंतन कर लो कि तुम्हें कहां रहना है? हमारे साथ चलना है या यहीं (संघ में) रहना है।बालमुनि मुदितकुमारजी ने तत्काल कहा- ‘मैं तो संघ में ही रहूँगा’ मुनिश्री रूपचंदजी ने बड़ी शालीनता के साथ कहा- ‘तुम चिंता मत करना’ हम तुम्हें युवाचार्यश्री के पास पहुंचा देंगे, दूसरे दिन मुनिश्री रूपचंदजी आदि संत अशोक विहार से विहार कर सी.सी. कॉलोनी आए, उधर युवाचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने मुनिश्री सुमेरमलजी ‘सुदर्शन’ सुजानगढ़ और मुनिश्री महेन्द्रकुमारजी (मुंबई) को मुनि मुदितकुमारजी के पास भेजा, अगले दिन मुनिश्री रूपचंदजी आदि संत सदर बाजार में सुराणा धर्मशाला में प्रवास कर रहे थे, उस दिन दैनिक पत्र में खबर आई कि मुनि रूपचंदजी ने तेरापंथ संघ से त्यागपत्र दे दिया। मुनि रूपचंदजी और मुनि मानककुमारजी संघ से अलग हो गए। मुनि अशोककुमारजी (बैंगलोर) कुछ दिन पहले ही अलग हो चुके थे, तब मुनिश्री सुमेरमलजी ‘सुदर्शन’ मुनि मुदितकुमारजी आए और पूछा- ‘मूनि रूपचंदजी आदि दोनों संत संघ से अलग हो गए हैं अब तुम्हारी क्या इच्छा है? बालमुनि ने कहा- ‘‘मैं तो संघ में ही रहूंगा’’।कृतज्ञता ज्ञापन और खमतखामणा के बाद मुनि मुदितकुमारजी ने मुनिश्री सुमेरमलजी के साथ वहां से प्रस्थान कर दिया। मध्याह्न में वे अणुव्रत भवन पहुंच गए, जहां युवाचार्यवर विराजमान थे। मुनिश्री महेन्द्रकुमारजी ने निवेदन किया- ‘युवाचार्यश्री!’ मुदित मुनि ने अच्छा परिचय दिया है। युवाचार्यप्रवर ने फरमाया- ‘यह तो मुझे विश्वास ही था’ उन दिनों गुरूदेव तुलसी पंजाब में प्रवास कर रहे थे।वहां से भी एक संदेश आया, उसमें लिखा था- ‘मुनि मुदितकुमार ने जो शासनभक्ति का परिचय दिया है, उससे मैं गदगद हूँ।’ उसके अध्ययन और साधना की समुचित व्यवस्था की जाए, सचमुच जिस समूह में चार सदस्य हों और चारों में परस्पर अच्छा सामंजस्य और सौहार्द हो, उस समूह के मुखिया सहित तीन सदस्यों का निर्णय एक हो और सबसे छोटे ‘चौथे’ सदस्य का निर्णय भिन्न हो तो बहुत कठिनाई हो सकती है किन्तु मुनि मुदितकुमारजी ने साहस, धैर्य और विजन के साथ अपने भविष्य का निर्णय लिया।सच है, प्रवाह के विपरीत बहना संघर्ष और खतरों से खाली नहीं होता किंतु यह भी उतना ही सत्य है कि कोई साहसिक कदम ही प्रतिस्त्रोतगामी बन सकता है। मुनि मुदितकुमारजी की संघनिष्ठा ने आचार्यश्री तुलसी और युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ के मन में एक नया विश्वास जगा दिया। बालमुनि के इस निर्णय ने पूज्यवरों के दिल में एक अमिट छाप छोड़ दी, उस समय आपकी उम्र मात्र सत्रह वर्ष थी किंतु पूज्यप्रवरों की पारखी आंखें आप में तेरापंथ का शुभ भविष्य देखने लगी।३० अगस्त २००१ को स्वयं आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने कहा –‘सन १९७९ में मैं दिल्ली में था, उस समय हमारे संघ के कुछ साधु पृथक हो गए, ये (महाश्रमण) पृथक होने वाले साधुओं के साथ थे पर इन्होंने अपना स्पष्ट निर्णय दिया कि मुझे तो संघ में ही रहना है, उस घटना ने मुझे पहली बार आकृष्ट किया, मैंने बाद में गुरूदेव से निवेदन किया कि इतनी छोटी अवस्था में भी इनमें जो संघनिष्ठा, आचारनिष्ठा है, वह उल्लेखनीय है। हमें इनकी ओर ध्यान देना चाहिए, उसके बाद तो मेरे और गुरूदेव के बीच इनको लेकर बातचीत होती रहती, धीरे-धीरे हर संघीय कार्य से भी जोड़ लिया गया।सेवा का सुअवसर वि. सं. २०४१ ज्येष्ठ कृष्णा अष्टमी (१३ मई १९८४) को लाडनूं में गुरूदेव तुलसी ने मुनि मुदितकुमारजी से पूछा- तुम क्या काम कर सकते हो?’ मुनि मुदितकुमारजी- जो गुरूदेव फरमाएंगे।गुरूदेव तुलसी- आज तक हारी पंचमी समिति की पात्री मुनि मधुकरजी रखते थे, अब से तुम रखा करो।इस निर्देश के साथ ही मुनि मुदितकुमारजी गुरूदेव तुलसी की व्यक्तिगत सेवा में निुयुक्त हो गए, तेरापंथ धर्मसंघ में इस नियुक्ति का विशेष महत्व है, इससे अनायास ही निकटता से गुरूसेवा का अलभ्य अवसर प्राप्त हो जाता है।लगभग बारह वर्षों तक मुनि मुदितकुमारजी को पूज्यवर की पात्र-वहन सेवा का सौभाग्य प्राप्त हुआ, इस दायित्व का उन्होंने बड़े अहोभाव व जागरूकता के साथ निर्वाह किया, उस दिन से वे स्थायी रूप से गुरूकुलवासी बन गए।अंतरंग सहयोगी:वि.सं. २०४२ माघ शुक्ला सप्तमी (१६ फरवरी १९८६) मर्यादा-महोत्सव का अवसर, उदयपुर का विशाल प्रवचन पण्डाल, गुरूदेव तुलसी ने मुनि मुदितकुमारजी को युवाचार्य महाप्रज्ञ के अंतरंग सहयोगी के रूप में नियुक्त करते हुए कहा- ‘संघ’ में बहुआयामी प्रवृत्तियों को देखकर लगता है कि हमारे युवाचार्य महाप्रज्ञ को भी किसी सहयोगी की अपेक्षा है इसलिए आज मैं मुनि मुदित को अंतरंग सहयोगी के रूप में नियुक्त करता हूँ इस नियुक्ति के साथ ही वे संघ के व्यवस्था पक्ष से जुड़ गए, दायित्व बढ़ गया और कार्यक्षेत्र भी विस्तृत हो गया, इससे पूर्व मात्र आत्मकेंद्रित थे, अपने आपमें मस्त थे, व्यस्त थे, अंतरंग सहयोगी बनने के बाद आपकी सोच का दायरा बहुत विशाल हो गया, सबके विकास के बारे में सोचने लगे, व्यक्तित्व उभरकर सामने आने लगा।साझपति:वि. सं. २०४३, वैशाख शुक्ला चतुर्थी (२३ मई १९८६) की रात्रि ब्यावर का तेरापंथ भवन, गुरूदेव तुलसी ने साधु सभा के मध्य मुनि मुदितकुमारजी को साझपति (ग्रुप लीडर) बनाया। मुनि ऋषभकुमारजी को सहयोगी के रूप में तथा शैक्षमुनि धर्मेशकुमारजी को आपके संरक्षण में रखा गया।अनौत्सुक्य का दिग्दर्शन:सन् १९८७ का प्रसंग, पूज्य गुरूदेव तुलसी का प्रवास अणुव्रत भवन, दिल्ली में हो रहा था। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी पूज्यप्रवर से मिलने आए, प्राय: सभी संत उन्हें देखने और सुनने के लिए एकत्रित हो गए किंतु मुनि मुदितकुमारजी अपने कक्ष में अनौत्सुक्य भाव से कार्य करते रहे।महाश्रमणवि.सं. २०४६ भाद्रपद शुक्ला नवमी (६ सितम्बर १९८९)।योगक्षेम वर्ष का आयोजन। लाडनूं, जैनविश्वभारती में सुधर्मा सभा का प्रांगण। गुरूदेव तुलसी का ५४वॉ पदारोहण दिवस। उल्लासमय वातावरण में चतुर्विध धर्मसंघ अपने आराध्य को वर्धापित कर रहा था, अचानक आचार्यवर ने अपने पट्टोत्सव को नया मोड़ देते हुए कहा-तेरापंथ धर्मसंघ में अनेक विलक्षण कार्य हुए हैं, उनके विलक्षणताओं में मैं एक और नया कार्य करना चाहता हूँ। आज मैं मुनि मुदित को ‘महाश्रमण’ के पद पर नियुक्त करता हूँ, यह पद धर्मसंघ में कार्यकारी, नए दायित्वों से परिपूर्ण और चिरंजीवी रहेगा, इस घोषणा के पश्चात आचार्यवर ने मुनि मुदितकुमारजी को नियुक्ति पत्र प्रदान किया।भाषा इस प्रकार रही:अध्यात्मनिष्ठा, साधना, शिक्षा, सेवा, विनम्रता, संघनिष्ठा, गंभीरता आदि विशेषताओं को ध्यान में रखकर मैं मुनि मुदितकुमार को ‘महाश्रमण’ के पद पर नियुक्त करता हूँ। धर्मसंघ में युवाचार्य के बाद इसका स्थान रहेगा। यह युवाचार्य के कार्य में सतत सहयोगी रहेगा। युवाचार्य की तरह साध्वियों, समणियों को पढ़ाना इसके कार्यक्षेत्र में रहेगा। आहार- पानी समुच्चय में होगा। सब प्रकार के विभागीय कार्यों तथा संघीय बोझ की पाती से मुक्त रहेगा।युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ ने नव मनोनीत महाश्रमण को शुभाशीष देते हुए कहा- महाश्रमण आचार्यवर का इतना विश्वास प्राप्त कर सका, मेरे मन को भी जीत सका और हमारी सन्निधि प्राप्त कर सका, उसके लिए मैं शुभाशंसा करता हूँ कि वह इस कार्य के लिए अपनी अर्हता और ओजस्विता को और अधिक प्रकट करे तथा धर्मसंघ की अधिकाधिक सेवा करे।महाश्रमण बनने के बाद युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ के हर कार्य में सहयोगी बन गए। चाहे चिन्तन गोष्ठियां हों या अन्य कोई कार्य, सबमें आपकी सहभागिता रहने लगी। प्राय: हर कार्यों में आपकी उपस्थिति अनिवार्य सी प्रतीत होने लगी।क्या हम ही करते रहेंगेसामान्यत: साध्वियों-समणियों का अध्यापनकार्य आचार्य/युवाचार्य ही करते हैं किंतु महाश्रमण की नियुक्ति के बाद यह कार्य भी आपके ही जिम्मे आ गया। एक दिन गुरूदेव तुलसी ने महाश्रमण मुनि मुदितकुमारजी को समणियों एवं मुमुक्षु बहनों को उच्चारण शुद्धि की दृष्टि से विशेष प्रशिक्षण देने का निर्देश दिया। निवेदन किया। – गुरूदेव! यह कार्य आपश्री की सन्निधि में ही चले तो ठीक रहेगा, गुरूदेव ने कहा- क्या हमेशा हम ही करते रहेंगे। आगे तो तुम्हें ही करना है इसलिए तुम ही उन्हें अभ्यास कराओ।एक प्रयोग, एक परीक्षण:महाश्रमण मुनि मुदितकुमारजी प्रारंभ से ही आत्मकेन्द्रित थे किंतु जब आप महाश्रमण बन गए और शास्ता की निगाहें शुभ भविष्य देखने लगीं, उस स्थिति में यह आवश्यक हो गया कि आपका सम्पर्क क्षेत्र व्यापक बने। जनता महाश्रमणजी की क्षमता से परिचित हो और महाश्रमणजी को भी कुछ सीखने, समझने और जानने का अवसर प्राप्त हो, इन कई बिन्दुओं को ध्यान में रखते हुए गुरूदेव तुलसी ने आपको स्वतंत्र यात्रा कराने पर विचार किया।यात्रा मुनि जीवन का एक अभिन्न अंग होता है, एक जैन मुनि चातुर्मास के अतिरिक्त आठ महीनों तक प्राय: भ्रमणशील रहता है, यात्राएं करता है, इससे धर्म प्रभावना तथा संघ प्रभावना होती है और व्यक्तिगत अनुभव और जनसंपर्क भी बढ़ता है। महाश्रमण बनने के बाद गुरूदेव तुलसी ने आपको अपनी जन्मभूमि सरदारशहर की यात्रा करने का निर्देश दिया।महाश्रमण पर्याय की, वह उनकी प्रथम स्वतंत्र यात्रा थी। लगभग अड़तालीस दिनों की प्रभावशाली यात्रा संपन्न कर उन्होंने छोटी खाटू में गुरूदेव के दर्शन किए। युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ ने उनकी अगवानी की और स्वयं आचार्यवर ने पट्ट से नीचे उतरकर उनको अपने हृदय से लगा लिया। अपने योग्य शिष्य की सार्थक और सफल यात्रा से पूज्यप्रवर बहुत प्रसन्न थे।कार्यक्रम के दौरान युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ ने कहा ‘आचार्यश्री’ महाज्योति हैं, उनकी एक रश्मि, एक किरण कुछ समय के लिए गई और आज पुन: मिल गई। आचार्यवर बहुत दूरदर्शी हैं, उनके हर कार्य के पीछे एक विशेष चिन्तन होता है, इस यात्रा के पीछे भी उनका एक उद्देश्य था।गुरूदेव तुलसी ने कहा-महाश्रमण मुनि मुदितकुमार थली संभाग में अपनी सात सप्ताह की यात्रा सम्पन्न कर खाटु पहुंच गया, उसे विशेष रूप से सरदारशहर के लिए भेजा गया था, आज वापिस आ गया। महाश्रमण का महत्व बढ़ा है, बढ़ाया गया है, किसी को अखरा नहीं, सबने हमारी परख को सराहा है, यात्रा एक दर्पण है, इसमें व्यक्ति के व्यक्तित्व का चित्र सामने आ जाता है। सरदारशहर के लोग तो इस यात्रा से महाश्रमण को स्वयं अपने आपको समझने-समझाने का मौका मिला और मुझे भी इसे निरखने-परखने का अवसर मिला।पुन: महाश्रमण पद परवि.स. २०५१ माघ शुक्ला षष्ठी, ५ फरवरी १९९५ का दिन, दिल्ली में समायोजित आचार्य महाप्रज्ञ का पदाभिषेक समारोह, आचार्यश्री तुलसी ने नौ वर्ष पहले मुनि मुदितकुमारजी को युवाचार्य महाप्रज्ञ का अंतरंग सहयोगी बनाया और लगभग साढ़े पांच वर्ष पहले महाश्रमण पद पर प्रतिष्ठित किया, चूंकि अब युवाचार्य महाप्रज्ञ आचार्य बन गए, इसलिए गणाधिपति गुरूदेव तुलसी ने मुनि मुदितकुमारजी को आचार्य महाप्रज्ञ...

तप और दान के प्रवाह का पर्व- अक्षय तृतीया 0

तप और दान के प्रवाह का पर्व- अक्षय तृतीया

ॐराघशुक्लतृतीयाया, दानमासीत् तदक्षयम्पर्वाक्षय तृतीयेति, ततोऽघापि प्रवर्ततेश्रेयांसोपज्ञमवनौ, दान-धर्म प्रवृत्तवान्स्वाम्युपेतमिवाऽ शेषव्यवहार नयक्रम: ‘अक्षय तृतीया’ का दिन महामंगलकारी होता है, इस दिन की महिमा मात्र जैनों में ही नहीं, अजैनों में भी है, वर्ष में कुछ दिन ऐसे हैं जो बिना पूछे मुहूर्त’ कहलाते हैं, वैशाख सुदी तीज की भी यही महिमा है, इस अवसर्पिणी काल में सर्वप्रथम दान धर्म का प्रारंभ इसी दिन से शुरु हुआ था। अक्षय तृतीया – यह ऐसा त्यौहार है, जिसका महात्म्य बहुत बड़ा और व्यापक है। हिंदू, वैदिक और जैन परंपराओं में ‘अक्षय तृतीया’ का महत्व बहुत ज्यादा माना गया है, यह जिज्ञासा उठनी स्वाभाविक है कि इस पर्व का नाम ‘अक्षय तृतीया’ क्यों पड़ा? अ-क्षय, मतलब, जिसका क्षय नहीं, अर्थात हर हाल में यथावत। वैशाख मास की इस तृतीया का कभीक्षय’ नहीं होता, इसीलिए इसे ‘अक्षय तृतीया’ कहा गया है। भारतीय ज्योतिष शास्त्रानुसार तिथियाँ चंद्रमा और नक्षत्रों की गतिनुसार बनती है, जैसे चंद्रमा की कला घटती-बढ़ती है वैसे तिथियाँ भी घटती-बढ़ती है, एकम से लेकर अमावस्या, पुनम आदि सभी तिथियों में घटबढ़ी चलती रहती है, किंतु वैशाख सुदी ३ याने आखा तीज की तिथि हजारों वर्षों में क्षय तिथि नहीं बनी, यह कभी नहीं घट-बढ़ी, इसलिये इसे अक्षय तिथि कहा गया है, इसे आखा तीज भी कहा जाता है। वैदिक परम्परा में कहा जाता है कि ऋषि जमदग्नि के पुत्र, परम बलशाली परशुरामजी का जन्म आखा तीज के दिन हुआ था। कुछ लोग मानते हैं कि सतयुग का प्रारम्भ भी इसी दिन हुआ था, इसलिये यह युगादि तिथि भी है। एक बार राजा युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से ‘आखा तीज’ पर्व की विशेषता पूछी तो उन्होंने बतलाया – वैशाख शुक्ल तृतीय के पूर्वाह्न में जो यज्ञ, दान, तप आदि पुण्य कार्य किये जाते हैं उनका फल अक्षय होता है, यह विश्वास है कि इस दिन का मुहुर्त सबसे श्रेष्ठ है, इसलिये विवाह,गृहप्रवेश, व्यापार आदि का शुभारंभ अक्षय तृतीया के दिन बहुत होता है। गाँवों में तो इस दिन सामुहिक विवाह होते हैं, कई जगह तो आज भी छोटे-छोटे बच्चों का विवाह कर दिया जाता है, इस दिन सोना खरीदना भी शुभ माना जाता है ताकि घर में लक्ष्मी माँ की कृपा बनी रहे, इस दिन वृंदावन में साल में एक बार बिहारीजी के चरणों के दर्शन होते हैं, इस दिन मंदिरों में बिहारीजी का चंदन श्रृंगार होता है। ‘अक्षय तृतीया’ को बद्रीनाथ धाम के द्वार भक्तों के लिये खुलते है, गंगा-स्नान का भी इस दिन बहुत महत्व है। जैन परम्परा में ‘अक्षय तृतीया’ के साथ अत्यंत महत्वपूर्ण घटना जुड़ी है, इसलिये जैनों में इस दिन का बहुत अधिक महत्व है। प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ का एक वर्ष के कठिन तप के बाद, इसी दिन श्रेयांसकुमार ने (जोकि प्रभु के पपौत्र थे) इक्षु (गन्ने) रस द्वारा पारणा करवाया था, इस तिथि को अक्षय पुण्य प्रदान करने वाली तिथि कहा जाता है। ‘अक्षय तृतीया’ को ‘दान और तप’ दोनों का अद्भुत संबंध जुड़ा होने के कारण ही यह ‘अक्षय’ बन गया। तीर्थंकर ऋषभदेव ने चैत्र कृष्णा अष्टमी के दिन बेला (दो उपवास) की तपस्या के साथ दीक्षा ग्रहण की, उनके साथ अन्य ४००० व्यक्तियों ने भीदीक्षा अंगीकार की, इस तपस्या के साथ दो मुख्य बातें थी- अखण्ड मौन तथा पूर्ण निर्जल तप। अखण्ड मौन व्रत धारण कर भगवान ने चऊविहार बेला किया, उसके पश्चात विशेष अभिग्रह ग्रहण कर भिक्षा के लिए नगर में पधारे, परंतु कहीं भी शुध्द आहार नहीं मिलने के कारण ऋषभदेव नगर में भ्रमण करके वापस लौट गये और पुन: आगे का तप ग्रहण किया, इस तरह तप करते हुए १३ महीने और १० दिन व्यतीत हो गये, अंत में वैशाख शुक्ल तृतीया के दिन प्रभु हस्तिनापुर पधारे, उस समय बाहुबलीके पौत्र एवं राजा सोमप्रभ के पुत्र श्रेयांसकुमार युवराज थे, उन्होंने उसी रात एक विचित्र स्वप्न देखा – `सोने के समान दीप्ति वाला सुमेरु पर्वत श्यामवर्ण का कांतिहीन सा हो रहा है, मैने अमृतकलश से उसे सींचकर पुन: दीप्तिमान बना दिया है’ उसी रात्रि में सुबुद्धि नाम के श्रेष्ठि ने सपना देखा सुरज से निकली हजारों किरणों को श्रेयांसकुमार ने पुन: सुर्य में स्थापित कर दिया, जिससे वह सुरज अत्याधिक चमकने लगा। उस रात सोमयश राजा ने भी स्वप्न देखाअनेक शत्रुओं के द्वारा घिरे हुए राजा ने श्रेयांस कुमार की सहायता से शत्रु राजा पर विजय प्राप्त कर ली’ स्वप्न के वास्तविक फल को तो कोई जान न सके परंतु सभी ने यही कयास लगाया कि इसके अनुसार आज श्रेयांसकुमार को विशेष लाभ प्राप्त होगा? राजकुमार श्रेयांस इस विचित्र सपने के अर्थ पर विचार करते हुए गवाक्ष में बैठे हुए थे, उसी समय में राजमार्ग पर प्रभु ऋषभदेव का आगमन हुआ, हजारों लोग उनके दर्शन हेतु विविध प्रकार की भेंट सामग्री लेकर आ रहे थे (लेकिन प्रभु के लिये उन भेटों का कोई महत्व नहीं था, वे तो त्यागी थे, शुध्द आहार की खोज में थे) जनता का कोलाहल, बढ़ती भीड़ और उन सबके आगे चलते प्रभु को देखकर श्रेयांसकुमार विचार में पड़ते हैं और सोचते आज क्या बात है, यह महामानव कौन आ रहा है, इस प्रकार का तपस्वी साधक मैंने पहले भी कहीं देखा है, उनकी स्मृतियाँ अतीत में उतरती हैं, चिन्तन की एकाग्रता बढ़ती है और उन्हें जाति-स्मरण ज्ञान हो जाता है’ वह जान लेते हैं कि यह मेरे परदादा दीर्घ तपस्वी प्रभु आदेश्वर हैं और शुध्द भिक्षा के लिये इधर पधार रहे हैं, श्रेयांसकुमार महल से नीचे उतरते हैं और प्रभु को वंदन कर प्रार्थना करते हैपधारो प्रभु! पधारो’ उसी समय राजमहल में इक्षुरस से भरे १०८ घड़े आये थे, शुध्द और निर्दोष वस्तु और वैसी शुध्द भावना कुमार की, श्रेयांसकुमार इक्षुरस द्वारा प्रभु को पारणा करवाते हैं। उस समय देवों ने आकाश में देव दुंदभि बजाई, रत्नों की पंचवर्ण के पुष्पों की, गंधोदक की और दिव्य वस्त्रों की, सुगंधित जल की वृष्टी की। अहोदानं! अहोदानं की घोषणा हुयी। पांच दिव्यों की वर्षा हुई। जैन साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका भी इस तरह एक साल का व्रत रखते हैं (१ दिन उपवास दूसरे दिन बियासणा) और आखा तीज के दिन गन्ने के रस द्वारा पारणा करते हैं, इस दिन रस पीना और मंदिर में गुड़ चढ़ाना शुभ माना जाता है। तप और दान की दिव्य महिमा से आज का दिन (याने आखा तीज) पवित्र हुआ। भगवान ऋषभदेव का प्रथम पारणाहोने से इस अवसर्पिणी काल में श्रमणों को भिक्षा देने की विधि का प्रथम ज्ञान देने वाले श्रेयांसकुमार हुए, सचमुच ऋषभदेव के समान उत्तम पात्र, इक्षु रस के समान उत्तम द्रव्य और श्रेयांसकुमार के भाव के समान उत्तम भाव का त्रिवेणी संगम होना अत्यंत ही दुर्लभ है। तप और दान की आराधना करने वाला अक्षय पद प्राप्त कर सकेगा, यही संदेश इस पर्व में छिपा है। जैनधर्म में मोक्ष प्राप्ति के चार मार्ग बताये गये हैं। दान, शील, तप और भाव।‘अक्षय तृतीया’ को दान और तप इन दोनों का अद्भुत संबंध जुड़ा होने केकारण यह अक्षय बन गया। विशेष: प्रभु ऋषभदेव के पहले भरत क्षेत्र में युगलिक काल था, इस वजह से लोगों में धर्म की प्रवृत्ति का अभाव था। युगलिक काल में सभी मनुष्य युगल (पुत्र-पुत्री) के रुप में पैदा होते थे, प्रभु के सौ पुत्र और दो पुत्रियां थी, जेष्ठ पुत्र को ७२ कलाएं सिखलायी थी, भरत ने भी अपने सभी भाईयों को ये कलाएं सिखलायी, दूसरे पुत्र बाहुबली को प्रभु ने हस्ति, अश्व, स्त्री और पुरुष के अनेक प्रकार के भेदवाले लक्षणों का ज्ञान दिया। पुत्री ब्राह्मी को दाहिने हाथ से अट्ठारह लिपियां बतलायी और पुत्री सुंदरी को बायेंहाथ से गणित की शिक्षा दी, उनकी सारी मनोकामनाएँ कल्पवृक्ष के द्वारा पूर्ण हो जाती थी, सभी युगलिक भद्रिक परिणामी होने से देवगति प्राप्त करते थे, उस समय विवाह व्यवस्था नहीं थी। उस काल में सर्वप्रथम विवाह प्रभु ऋषभदेव का हुआ था। लग्न के विधि-विधान हेतु स्वयं इंद्र महाराजा उपस्थित थे। प्रभु ने न्याय नीति और व्यवहार धर्म की शिक्षा दी। अपना कल्प (आचार)समझकर प्रभु ने ही पुरुषों को ७२ कलाएं, स्त्रियों को ६४ कलाएं और सभी प्रकार के १०० शिल्प सिखाए थे, परंतु दान आदि धर्मों का बोध नहीं दिया था क्योंकि तारक तीर्थंकर को जब तक केवलज्ञान नहीं प्राप्त हो जाते, धर्म का बोध नहीं देते, असत्य भाषण की संभावना बनी रहती है, केवलज्ञान के पश्चात्प्र भु ने भरतक्षेत्र के जीवों को धर्म की शिक्षा दी। १८ कोडाकोडी सागरोपम से मोक्षमार्ग का जो द्वार बंद था, प्रभु ने उसे खोला, अत: उनका असीम उपकार हम सब पर है। अक्षय तृतीया जो इस वर्ष २२ अप्रैल २०२३ को है, उसका महत्व क्यों है?जानिए कुछ महत्वपुर्ण जानकारी.. आज ही के दिन मां गंगा का अवतरण धरती पर हुआ था। महर्षी परशुराम का जन्म आज ही के दिन हुआ था। मां अन्नपूर्णा का जन्म भी आज ही के दिन हुआ था। द्रोपदी को चीरहरण से कृष्ण ने आज ही के दिन बचाया था। कृष्ण और सुदामा का मिलन आज ही के दिन हुआ था। कुबेर को आज ही के दिन खजाना मिला था। सतयुग और त्रेता युग का प्रारम्भ आज ही के दिन हुआ था। ब्रह्मा जी के पुत्र अक्षय कुमार का अवतरण भी आज ही हुआ था। प्रसिद्ध तीर्थ स्थल श्री बद्री नारायण जी का कपाट आज ही खोला जाता है। बृंदावन के बांके बिहारी मंदिर में साल में केवल आज ही के दिन श्री विग्रहचरण के दर्शन होते हैं, अन्यथा साल भर वो वस्त्र से ढके रहते हैं। इसी दिन महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ था।‘अक्षय तृतीया’ अपने आप में स्वयं सिद्ध मुहूर्त है कोई भी शुभ कार्य का प्रारम्भकिया जा सकता है।