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मानव जाति के प्रज्ञापुरुष थे आचार्य महाप्रज्ञ

प्रज्ञापुरूष आचार्य महाप्रज्ञ जी युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी के सक्षम उतराधिकारी हैं। बुद्धि, प्रज्ञा, विनय और समर्पण का उनके जीवन में अद्भुत संयोग है। वे महान्‌ा दार्शनिक, कवि, वक्ता एवं साहित्यकार होने के साथ-साथ प्रेक्षाध्यान पद्धति के महान अनुसंधाता एवं प्रयोक्ता रहे।आचार्य महाप्रज्ञ जी का जन्म वि.स. १९७७ आषाढ़ कृष्णा त्रयोदशी को टमकोर (राजस्थान) के चोरड़िया परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री तोलारामजी एवं माता का नाम बालूजी था। युवाचार्यश्री का जन्म नाम नथमल था। जब वे बहुत छोटे थे, तभी पिता का साया उनके सिर से उठ गया था। माता बालूजी धार्मिक प्रकृति की महिला थीं। उनकी धार्मिक वृतियों से बालक की धार्मिक चेतना उदृद्ध हुई। माता और पुत्र दोनों ही संयम-पथ पर बढ़ने के लिए उत्सुक थे।वि.स. १९८७ माघ शुक्ला दसमी को सरदारशहर में बालक नथमल ने अपनी माता के साथ पूज्य कालूगणी से दीक्षा ग्रहण की। उस समय उनकी आयु मात्र दस वर्ष की थी। संयमी जीवन में उनकी पहचान मुनि नथमल के रूप में होने लगी। मुनि नथमल अपनी सौम्य आकृति एवं सरल स्वभाव के कारण सबके प्रिय बन गए। पूज्य कालूगणी का उन पर असीम वात्सल्य था। कालूगणी के निर्देश से उन्हें विद्या-गुरू के रूप में मुनि तुलसी (आचार्य तुलसी) की सन्निधी मिली। मुनि नथमल की आशुग्राही मेधा, विविध विषयों का ज्ञान करने में सक्षम हुई। दर्शन, न्याय, व्याकरण, कोष, मनोविज्ञान, ज्योतिष, आयुर्वेद आदि शायद ही कोई ऐसा विषय हो, जो उनकी प्रज्ञा की पकड़ से अछुता रहा हो। जैनागमों के गम्भीर अध्ययन के साथ-साथ उन्होंने भारतीय एवं भारतीयेत्तर सभी दर्शनों का तलस्पर्शी एवं तुलनात्मक अध्ययन किया। संस्कृत, प्राकृत एवं हिन्दी भाषा पर उनका पूर्ण अधिकार रहा। वे संस्कृत भाषा के सफल आशुकवि है। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों में वे दूसरे विवेकानन्द थे।वि.स. २०२२ माद्य शुक्ला सप्तमी को हिसार (हरियाणा) में आचार्यश्री तुलसी ने उन्हें निकाय-सचिव के गरिमामय पद पर विभुषित किया। वि.स. २०३४ कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी, गंगाशहर में आचार्यश्री तुलसी ने उन्हें महाप्रज्ञ की उपाधि से अंलकृत किया। महाप्रज्ञ की उपाधि से अंलकृत करते समय आचार्यश्री तुलसी ने कहा-मुनि नथमल की अपूर्व सेवाओं के प्रति समूचा तेरापंथ संघ कृतज्ञता ज्ञापित करता है। यह महाप्रज्ञ अलंकार उस कृतज्ञता की स्मृति मात्र है।वि.स. २०३५ राजलदेसर (राजस्थान) मर्यादा महोत्सव के अवसर पर आचार्यश्री तुलसी ने अपने उतराधिकारी के रूप में उनकी घोषणा की। वि.स. २०५० सुजानगढ़ मर्यादा महोत्सव के ऐतिहासिक समारोह के मध्य आचार्यश्री तुलसी ने अपनी सक्षम उपस्थिति में अपने आचार्यपद का विर्सजन कर युवाचार्य महाप्रज्ञ को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित कर दिया।यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आचार्य महाप्रज्ञ जी को आचार्यश्री तुलसी जैसे समर्थ गुरु मिले तो आचार्यश्री तुलसी को आचार्य महाप्रज्ञ जैसे समर्पित शिष्य एवं योग्य उतराधिकारी मिले। विश्व क्षितिज पर आचार्यश्री तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ जैसी आध्यात्मिक विभूतियाँ गुरु शिष्य के रूप में शताब्दियों के बाद प्रकट होती हैं।आचार्य महाप्रज्ञ आचार्यश्री तुलसी के हर आयाम में और हर कदम पर अनन्य सहयोगी रहे। गुरु के प्रत्येक निर्देश को क्रियान्वित करने एवं उनके द्वारा प्रारंभ किए हुए कार्य को उत्कर्ष के बिन्दु तक पहूंचाने में वे सदा प्रस्तुत रहते थे।आचार्यश्री तुलसी की वाणी महाप्रज्ञ के कण-कण में क्षण-क्षण प्रतिध्वनित होती है। तेरांपथ की प्रगति-यात्रा के हर आरोह-अवरोह में आचार्य महाप्रज्ञ ने अपने गुरु श्री तुलसी के सधे हुए द्रुतगामी कदमों का सदा साथ निभाया, यह कहना असंगत नहीं होगा कि तेरापंथ और आचार्य तुलसी को विश्व प्रतिष्ठित करने में आचार्य महाप्रज्ञ की भूमिका अनान्य रही है।आचार्य महाप्रज्ञ कुशल प्रवचनकार होने के साथ-साथ एक महान्‌ा लेखक, महान श्रुतधार और महान साहित्कार बने। उनकी सारस्वत वाणी से निकला हर शब्द साहित्य बन जाता था, उन्होंने विविध विषयों पर शताधिक ग्रन्थ लिखे हैं।प्रत्येक ग्रन्थ में उनका मौलिक चिन्तन प्रस्फुटित होता था, उनके ग्रन्थ जहाँ साहित्य जगत की अमूल्य धरोहर हैं, वहाँ मानवता कि विशिष्ट सेवा भी। आचार्यश्री तुलसी के वाचना प्रमुखत्व में जैनागमों के वैज्ञानिक विश्लेषण के साथ आधुनिक सम्प्रदाय उनकी विलक्षण प्रतिभा का परिचायक है, अर्हत्‌ा वाणी के प्रति महान समर्पण का सूचक है।शोध विद्वानों के लिए आचार्य महाप्रज्ञ एक विश्वकोष थे। शायद ही कोई ऐसा विषय हो जो आचार्य महाप्रज्ञ के ज्ञानकोष्ठ में अवतरित ना हुआ हो।आचार्य महाप्रज्ञ ने प्रेक्षाध्यान एवं जीवन विज्ञान के रूप में एक विशिष्ठ वैज्ञानिक साधना-पद्धति का अधिकार प्राप्त किया। इस साधना-पद्धति के द्वारा प्रतिवर्ष सैकड़ों व्यक्ति मानसिक विकृति से दूर हटकर आध्यत्मिक ऊर्जा प्राप्त करते हैं। थोड़े शब्दों में कहा जाए तो आचार्य महाप्रज्ञ की सृजन चेतना से तेरापंथ धर्म-संघ लाभान्वित हुआ है और सम्पूर्ण मानव जाति लाभान्वित होती रहेगी।

श्वेताम्बर तेरापंथ

जैन धर्म में श्वेताम्बर संघ की एक शाखा का नाम श््वेताम्बर तेरापंथ है, इसका उद्भव विक्रम संवत् १८१७ (सन् १७६०) में हुआ, इसका प्रवर्तन मुनि भीखण (भिक्षु स्वामी) ने किया था जो कालान्तर में आचार्य भिक्षु कहलाये, वे मूलतः स्थानकवासी संघ के सदस्य और आचार्य रघुनाथ जी के शिष्य थे।आचार्य संत भीखण जी ने जब आत्मकल्याण की भावना से प्रेरित होकर शिथिलता का बहिष्कार किया था, तब उनके सामने नया संघ स्थापित करने की बात नहीं थी, परंतु जैनधर्म के मूल तत्वों का प्रचार एवं साधुसंघ में आई हुई शिथिलता को दूर करना था, उस ध्येय मे वे कष्टों की परवाह न करते हुए अपने मार्ग पर अडिग रहे। संस्था के नामकरण के बारे में भी उन्होंने कभी नहीं सोचा था, फिर भी संस्था का नाम ‘तेरापंथ’ हो ही गया, इसका कारण निम्नोक्त घटना है:जोधपुर में एक बार आचार्य भिक्षु के सिद्धांतों को माननेवाले १३ श्रावक एक दूकान में बैठकर सामायिक कर रहे थे, उधर से वहाँ के तत्कालीन दीवान फतेहसिंह जी सिंघी गुजरे तो देखा, श्रावक यहाँ सामायिक क्यों कर रहे हैं, उन्होंने इसका कारण पूछा। उत्तर में श्रावकों ने बताया श्रीमान् हमारे संत भीखण जी ने स्थानकों को छोड़ दिया है, वे कहते हैं, एक घर को छोड़कर गाँव-गाँव में स्थानक बनवाना साधुओं के लिये उचित नहीं है, हम भी उनके विचारों से सहमत हैं इसलिये यहाँ सामायिक कर रहे हैं। दीवान जी के आग्रह पर उन्होंने सारा विवरण सुनाया, उस समय वहाँ एक सेवक जाति का कवि खड़ा सारी घटना सुन रहा था, उसने तत्काल १३ की संख्या को ध्यान में लेकर एक दोहा कह डालाआप आपरौ गिलो करै, ते आप आपरो मंत।सुणज्यो रे शहर रा लाका, ऐ तेरापंथी तंतबस यही घटना तेरापंथ के नाम का कारण बनी, जब स्वामी जी को इस बात का पता चला कि हमारा नाम ‘तेरापंथी’ पड़ गया है तो उन्होंने तत्काल आसन छोड़कर तीर्थंकरों को प्रणाम कर इस शब्द का अर्थ किया:हे भगवान यह ‘तेरापंथ’ है, हमने तेरा अर्थात् तुम्हारा पंथ स्वीकार किया है, अत: हम तेरापंथी हैं।संगठनआचार्य संत भीखण जी ने सर्वप्रथम साधु संस्था को संगठित करने के लिये एक मर्यादा पत्र लिखा:(१) सभी साधु-साध्वियाँ एक ही आचार्य की आज्ञा में रहें।(२) वर्तमान आचार्य ही भावी आचार्य का निर्वाचन करें।(३) कोई भी साधु अनुशासन को भंग न करे।(४) अनुशासन भंग करने पर संघ से तत्काल बहिष्कृत कर दिया जाए।(५) कोई भी साधु अलग शिष्य न बनाए।(६) दीक्षा देने का अधिकार केवल आचार्य को ही है।(७) आचार्य जहाँ कहें, वहाँ मुनि विहार कर चातुर्मास करे, अपनी इच्छानुसार ना करे।(८) आचार्य श्री के प्रति निष्ठाभाव रखे, आदि।इन्हीं मर्यादाओं के आधार पर आज २६३ वर्षों से तेरापंथ श्रमणसंघ अपने संगठन को कायम रखते हुए अपने ग्यारहवें आचार्य श्री महाश्रमणजी के नेतृत्व में लोक कल्याणकारी प्रवृत्तियों में महत्वपूर्ण भाग अदा कर रहा है।संघव्यवस्थातेरापंथ संघ में इस समय करीबन ७०० साधु साध्वियाँ हैं, इनके संचालन का भार वर्तमान आचार्य श्री महाश्रमण पर है, वे ही इनके विहार, चातुर्मास आदि के स्थानों का निर्धारण करते हैं। प्राय: साधु और साध्वियाँ क्रमश: ३-३ व ५-५ के वर्ग रूप में विभक्त किए होते हैं, प्रत्येक वर्ग में आचार्य द्वारा निर्धारित एक अग्रणी होता है, प्रत्येक वर्ग को ‘सिंघाड़ा’ कहा जाता है।ये सिंघाड़े पदयात्रा करते हुए भारत के विभिन्न भागों, राजस्थान, पंजाब, गुजरात, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, मध्यभारत, बिहार, बंगाल आदि में अहिंसा आदि का प्रचार करते रहते हैं। वर्ष भर में एक बार माघ शुक्ला सप्तमी को सारा संघ जहाँ आचार्य होते हैं वहाँ एकत्रित होता है और आगामी वर्ष भर का कार्यक्रम आचार्य श्री वहीं पर निर्धारित कर देते हैं और चातुर्मास तक सभी ‘सिंघाड़े’ अपने-अपने स्थान पर पहुँच जाते हैं।

आचार्यश्री महाश्रमणजी का संक्षिप्त जीवन परिचय

जन्म : वि.सं.२०१९, वैशाख शुक्ला नवमी(१३ मई १९६२) सरदारशहरजन्म नाम : मोहनलाल दुगड़पिता : स्व श्री झूमरमलजी दुगड़माता : स्व.श्रीमती नेमादेवी दुगड़दीक्षा : वि.सं.२०३१ वैशाख शुक्ला चतुर्दशी(५ मई १९७४) सरदारशहर(आचार्य तुलसी की अनुज्ञा सेमुनि सुमेरमलजी‘लाडनूं’ द्वारा)अन्तरंग सहयोगी : वि.सं.२०४२, माघ शुक्ला सप्तमी(१६ फरवरी १९८६) उदयपुरसाझपति : वि.सं.२०४३, वैशाख शुक्ला चतुर्थी(१३ मई १९८६) ब्यावरमहाश्रमण पद : वि.सं.२०४६, भाद्रव शुक्ला नवमी(९ सितम्बर १९८९) लाडनूंयुवाचार्य पर : वि.सं.२०५४, भाद्रव शुक्ला द्वादशी(१४ सितम्बर १९९७) गंगाशहरआचार्य पदाभिषेक : वि.सं.२०६७, द्वितीय वैशाख शुक्ला दशमी(२३ मई २०१०) सरदारशहरमहातपस्वी : वि.सं.२०६४, भाद्रपद शुक्ला पंचमी(१७ सितम्बर २००७) उदयपुरशान्तिदूत : वि.सं.२०६८, ज्येष्ठ कृष्ण द्वादशी(२९ मई २०११) उदयपुरश्रमण संस्कृति उद्गाता : वि.सं.२०६९, आश्विन कृष्णा चतुदर्शी(१४ अक्टूबर २०१२) जसोलअिंहसा यात्रा शुभारम्भ : २०७१, मार्गशीर्ष बदी तृतीया(९ नवम्बर २०१४) दिल्ली सेप्रथम विदेश यात्रा : वि.सं.२०७२, चैत्र शुक्ला एकादशी(३१ मार्च २०१५) वीरगंज (नेपाल)प्रकाशित पुस्तकें : आओ हम जीना सीखें, दु:ख मुक्ति का मार्ग,क्या कहता है जैन वाड्.मय,संवाद भगवान से (भाग-१, २), शिक्षा सुधा,शेमुषी, मेरे गीत,धम्मो मंगलमुक्किंट्ठं,महात्मा महाप्रज्ञ, सुखी बनो, संपन्न बनो,विजयी बनो, रोज की एक सलाह,शिलान्यास धर्म का, अदृश्य हो गया महासूर्य…. जिसमें आसमान को छूने का जज्बा होता है, जमीन भी उसकी हो जाती है, वस्तुत: जो व्यक्ति कुछ होने की तमन्ना रखता है, कुछ कर गुजरने का हौसला रखता है, वह एक दिन अवश्य ही अपने भाग्य, बुद्धि और परिश्रम के बलबुते पर जनमानस के मानचित्र पर सफल व्यक्तित्व के रूप में उभर जाता है। विलक्षण कर्त्तृत्व और विशिष्ट व्यक्तित्व के धनी आचार्य महाश्रमण का जन्म वि.सं. २०१९ वैशाख शुक्ला ९ (१३ मई १९६२) रविवार को ‘सरदाशहर’ में हुआ।‘सरदारशहर’ राजस्थान का एक प्रमुख क्षेत्र है। गांधी विद्या मंदिर की स्थापना के बाद यह नगर राजस्थान के शैक्षणिक मानचित्र पर उभरकर आ गया, यहां अनेक आकर्षक दर्शनीय स्थल हैं। सरदारशहर तेरापंथ धर्मसंघ के अनेक ऐतिहासिक प्रसंगों का केन्द्र-बिन्दु रहा है, यहां की आबादी एक लाख से भी ज्यादा है।पारिवारिक पृष्ठभूमि : ‘सरदारशहर’ में दूगड़ जाति के परिवार सबसे अधिक हैं, अनेक गांवों से आकर यहां बसने वाले दूगड़ परिवारों में एक परिवार है श्रीमान झूूमरमलजी दूगड़ का, उनके पूर्वज ‘मेहरी’ गांव से आकर बसे थे इसलिए वे मेहरी वाले ‘दूगड़’ कहलाने लगे। श्री झूमरमलजी दूगड़ के दस सन्तानें हुई-सात पुत्र और तीन पुत्रियां। उस समय ‘माता’ (चेचक) एक असाध्य बीमारी थी, उस लाइलाज बीमारी से ग्रस्त एक पुत्र और एक पुत्री का अल्पवय में ही स्वर्गवास हो गया। श्री झूमरमलजी जोरहाट (असम) में रहते थे, उनका हार्डवेयर का व्यवसाय था, वे सहज, सरल, शांत स्वभावी और ईमानदार व्यक्ति थे। पन्द्रह-बीस मिनट तक नवकार महामंत्र का जाप करना उनका नित्यक्रम था।मानव जीवन की मूल्यवत्ता को समझने वाली और उसे निपुणता से जीने वाली श्रीमती नेमादेवी दूगड़ विवेक-सम्पन्न, व्यवहार-कुशल और समझदार महिला थी, वे अपने दायित्व के प्रति पूर्ण जागरूक थी। संघ और संघपति के प्रति उनमें गहरी श्रद्धा थी। उनका भाषा-विवेक गजब का था। जीवन के सन्ध्याकाल में उनको पक्षाघात हो गया, उस समय अनेक लोग उनसे मिलने आते। एक दिन एक भाई ने पूछा-‘माजी! आपको तो बहुत गर्व होता होगा कि मेरा बेटा युवाचार्य है।’ उन्होंने तत्काल कहा- ‘मैं इस बात का गर्व नहीं करती कि बेटा युवाचार्य है पर मुझे इस बात का गौरव अवश्य है कि बेटा संघ की सेवा कर रहा है।’बातें बचपन की : मोहन बचपन से ही प्रतिभा सम्पन्न था, उसमें गहरी सूझबूझ ग्रहणशीलता और प्रशासनिक योग्यता प्रारंभ से ही थी, उसने जैसे ही अपनी उम्र के पांच वर्ष संपन्न किए, राजेन्द्र विद्यालय में प्रवेश किया। लगभग साढ़े पांच वर्ष तक इसी स्कूल में अध्ययन किया, उस समय स्कूल के प्रधानाध्यापक श्री रेवतमलजी भाटी थे। मोहन ने स्कूल जाने से पहले ही वर्णमाला और कुछ पहाड़े सीख लिए थे। तीसरी, चौथी और पाचवीं कक्षा में वह कक्षा-प्रतिनिधि (मोनिटर) के रूप में निर्वाचित हुआ, तीनों कक्षाओं में गणित और सामान्य विज्ञान में विशेष योग्यता प्राप्त की और कक्षा तीसरी और पाचवांr में प्रथम स्थान भी प्राप्त किया। तीसरी कक्षा में खेलकूद/सांस्कृतिक प्रतियोगिता के अंतर्गत उपस्थिति में भी प्रथम स्थान प्राप्त किया। अनेक धार्मिक व अन्य प्रतियोगिताओं में भी वह प्राय: प्रथम रहता। मोहन अपनी कक्षा के दो-तीन मेधावी छात्रों में से एक था, वह अध्ययन में होशियार था तो लड़ाई-झगड़े में भी कम नहीं था। मोहन बचपन से बहुत ही चंचल था। घर में अनेक बच्चे थे। भाई-भतीजों के साथ लड़ाई-झगड़ा चलता रहता। छुट्टियों के दिनों में तो उसका अधिकांश समय खेलकूद में ही व्यतीत होता। कभी-कभी जब माँ परेशान होकर बच्चों को पकड़ने के लिए उठती तक मोहन का छोटा भाई तो घर से बाहर दौड़ जाता और मोहन पकड़ा जाता। मां जैसे ही चपत लगाने लगती, मोहन कहता- ‘माँ! आपके ही हाथों में लगेगी।’ यह सुनते ही माँ का हाथ वहीं रूक जाता और वह मार खाने से बच जाता।मोहन की खेलने में भी अच्छी रूचि थी। कबड्डी, कांच के गोले, सतोलिया, छुपाछुपी आदि उसके प्रिय खेल थे। खेलकुद प्रतियोगिताओं में वह प्राय: भाग लेता था।प्रहर रात्रि के बाद : एक बार प्रवास में मुनिश्री सुमेरमलजी के साथ मुनिश्री सोहनलालजी (चाड़वास), मुनिश्री पूनमचंदजी (श्रीडूंगरगढ़), मुनिश्री रोशनलालजी (सरदारशहर) थे। मोहन मुनिश्री सोहनलालजी के निर्देशन में अध्ययनरत रहा। विद्यार्थियों को सिखाने-पढ़ाने में मुनिश्री सोहनलालजी की कला बेजोड़ थी, वे केवल सिखाते ही नहीं थे, वैराग्य के संस्कार भी देते थे, आप धर्मसंघ के एक श्रेष्ठ कलाकार, स्वाध्यायशील और आचारनिष्ठ सन्त थे, आपने मोहन को तत्त्वज्ञान के अनेक थोकड़े कंठस्थ करा दिए, जैसे-पचीस बोल, तेरहद्वार, बासठिया, बावन-बोल, गतागत, पाना की चर्चा, लघुदण्डक तथा थोकड़ों में अन्तिम थोकड़ा माना जाने वाला ‘गमा’ भी कंठस्थ करा दिया, आचार्य भिक्षु के ‘दान-दया’ के सिद्धांत से भी मोहन को अवगत कराया। मोहन घंटों-घंटों तक मुनिश्री सोहनलालजी के पास अध्ययन करता, कंठस्थ ज्ञान का पुनरावर्तन करता और तात्त्विक चर्चा करता। मोहन का उनके प्रति लगाव जैसा हो गया, जब कभी वे अस्वस्थ हो जाते तो मोहन का किसी भी कार्य में मन नहीं लगता और तो क्या, भोजन करने में भी मन नहीं लगता, जब वह खाना खाने घर आता तब मां से कहता- ‘मां! आज जल्दी खाना डाल दो, मुझे अभी वापस जाना है, आज हमारे ‘बापजी’ ठीक नहीं है।’मुनिश्री रोशनलालजी वैरागियों के परिवार वालों से संपर्क करने तथा वैरागियों की देखभाल रखने में बड़े दक्ष थे, मोहन उनके संपर्क करने तथा वैरागियों की देखभाल रखने में बड़े दक्ष हो गए। मोहन उनके संपर्क में भी बहुत रहा, वे गोचरी के लिए पधारते तब मोहन प्राय: उनके साथ रहता, रास्ते में सेवा करता।मुनिजन मोहन को यदा-कदा दीक्षा लेने के लिए प्रेरित करते रहते। मुनिश्री सुमेरमलजी ने भी मोहन को कई बार दीक्षा लेने के लिए कहा पर मोहन हमेशा एक अच्छा श्रावक की बात कहता रहा।जल उठा दीप : वि.सं. २०३० भाद्रव शुक्ला षष्ठी। अष्टमाचार्य पूज्य कालूगणी का महाप्रयाण दिवस। मुनिश्री सुमेरमलजी ने कहा – ‘मोहन! आज तुम्हें एक निर्णय कर लेना चाहिए कि गृहस्थ जीवन में रहना है या साधु बनना है।’मुनिश्री के निर्देशानुसार मोहन गधैयाजी के नोहरे में एकान्त स्थान में जाकर बैठ गया। सर्वप्रथम पूज्य कालूगणी की माला फेरी, फिर चिन्तन करने लगा –‘मेरे सामने दो मार्ग हैं – एक साधुत्व का और दूसरा गृहस्थ का। साधु मार्ग में सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, केशलुंचन, पदविहार आदि स्थिति-जनित कष्ट हो सकते हैं। दूसरी ओर गृहस्थ जीवन में भी अनेक प्रकार की चिन्ताएं आदमी को सताती रहती हैं, जैसे- व्यापार में घाटा लग जाना, सन्तान का अनुकूल न होना, पति-पत्नी में से किसी एक का छोटी अवस्था में चले जाना, अन्य अनेक पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभाना आदि, जब दोनों ओर कष्ट हैं तो मुझे कौन सा मार्ग स्वीकार करना चाहिए’?तभी दिमाग में एक बात बिजली-सी कौंध गई कि कष्ट तो दोनों तरफ हैं, जहां साधु जीवन के कष्ट मुझे मोक्ष की ओर ले जाने वाले होंगे, वहीं गृहस्थ-जीवन के कष्ट मुझे अधोगति की ओर ले जा सकते हैं, यदि मैं जागरूकतापूर्वक संयम का पालन करâंगा तो मुझे पन्द्रह भवों में मुक्ति मिल जाएगी।’ बस, भीतर में जल उठे इस चिन्तन के दीप ने मोहन को साधु बनने के लिए कृतसंकल्प बना दिया, उसने वहीं बैठे-बैठे जीवन-पर्यन्त शादी करने तक का त्याग कर लिया।आज्ञा प्राप्ति के प्रयत्न : मनुष्य के जीवन में ज्वारभाटा जैसा उतार-चढ़ाव आता रहता है जो व्यक्ति ज्वर को पकड़ लेता है, वह सौभाग्य की ड्योढी पर पहुंच जाता है और जो चूक जाता है, वह भाटे के दलदल में फंस जाता है। मोहन ने अपने भीतर उठते ज्वार को पकड़ा और सौभाग्य की ड्योढी पर पहुंच गया। मोहन ने जीवन में भावुकता में बहकर कोई निर्णय नहीं लिया। बहुत चिन्तन-मनन के बाद उसने अपने जीवन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण निर्णय लिया कि मुझे साधु बनना है।तेरापंथ की दीक्षा मात्र स्वयं की इच्छा से ही नहीं हो सकती, परिवार की स्वीकृति भी अनिवार्य होती है। मोहन ने स्वीकृति-प्राप्ति के लिए प्रयास प्रारंभ किया। पिताश्री झूमरमलजी दूगड़ का तो स्वर्गवास हो चुका था। मोहन ने मां से कहा- ‘माँ! मुझे दीक्षा लेनी है इसलिए आपकी आज्ञा चाहिए।’माँ ने कहा- ‘मोहन! मैं इस बारे में कुछ नहीं कहूंगी, सुजानमल जो कहेगा, वही होगा।’उस समय श्री सुजानमलजी दूगड़ परिवार के मुखिया एवं संरक्षक थे, वे एक समझदार, निर्णयक्षम और प्रामाणिकतानिष्ठ व्यक्ति थे। परिवार में उनका अच्छा अनुशासन था, उस समय सुजानमलजी जोरहाट गए हुए थे, मोहन ने उनके नाम एक लम्बा-चौड़ा पत्र लिखा, जिसमें दीक्षा के लिए अनुमति मांगी गई। सुजानमलजी ने प्रत्युत्तर में लिखा – ‘दिक्षा के बारे में मैं अभी कुछ नहीं कह सकता, सरदारशहर आने पर ही बात हो सकेगी।’ मार्गशीर्ष महीने में वे सरदारशहर आए। घर में दीक्षा के संदर्भ में बात हुई, तब सुजानमलजी ने साफ इनकार कर दिया, जब मोहन को स्वीकृति नहीं मिली तो उसने अनुमति नहीं मिलने तक तीव्र द्रव्य से अधिक खाने का त्याग कर दिया, यह क्रम कई दिनों तक चला किन्तु आज्ञा नहीं मिली, तब एक दिन मोहन ने साहस बटोरकर कहा – ‘भाईजी! यदि आप मुझे दीक्षा के लिए स्वीकृति नहीं देंगे तो मैं आपके घर में नहीं रहूंगा।’सुजानमलजी – ‘घर से बाहर जाने पर भी तुम्हें दीक्षा तो मिलेगी नहीं।’मोहन – ‘कोई बात नहीं।’सुजानमलजी – ‘फिर तू खाना कहां खाएगा?’मोहन – ‘मैं घरों से मांग-मांगकर भोजन कर लूंगा किन्तु आपके घर में नहीं रहूंगा।’यह कहकर मोहन घर से चला गया, उसके जाने के बाद माँ ने कहा- ‘सुजान! कहीं भावावेश में आकर मोहन कोई गलत काम कर लेगा तो हमेशा के लिए हमारी आंखों से ओझल हो जाएगा, इससे तो अच्छा है कि तुम उसे दीक्षा की आज्ञा दे दो ताकि वह हमारी आंखों के सामने तो रहेगा।’विनीत पुत्र ने मां की आज्ञा को शिरोधार्य किया, जब सायंकाल सूर्यास्त से कुछ समय पहले मोहन अपनी पुस्तकें, आसन आदि लेने के लिए घर आया तब मां ने कहा – ‘मोहन! ऐसा करने से दीक्षा की आज्ञा नहीं मिलेगी। पहले खाना खा लो फिर भाईजी से अच्छी तरह बात कर लेना।’ मोहन ने भी माँ की आज्ञा को शिरोधार्य किया। खाना खाने के बाद भाईजी से बातचीत की। भाईजी ने कहा -‘आषाढ़ महीने के बाद जब तुम्हारी इच्छा हो, मैं दीक्षा दिलवाने के लिए तैयार हूं।’ मोहन को आज्ञा मिल गई। मां की आज्ञा तो भाईजी की अनुमति में ही निहित थी। उस दिन मोहन की प्रसन्नता का कोई पार नहीं था। वह तत्काल मुनिश्री के पास गया और सारी बात निवेदित की, उन दिनों मोहन ने पूज्य गुरूदेव तुलसी को एक पत्र लिखा, वह अविकल रूप में इस प्रकार है-परमपूज्य परमपिता मेरे ह्य्दयदेव युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी के चरणों में कोटि-कोटि वन्दना।गुरूदेव!पहली म्हारा भाईजी दीक्षा लेणै वास्तै मनै स्वीकृति कोनी दी, अब आपकी कृपा तथा सन्तां की प्रेरणा स्यूं मां और भाईजी कुछ महीना ठहरकर दीक्षा लेणै की स्वीकृति दे दी।गुरूदेव! मैं आपकी कृपा स्यूं तथा मुनिश्री सोहनलालजी की कृपा तथा मेहनत स्यूं इण चौमासै में कई थोकड़ा सीख्या हूं, जिकामें-पाना कर चरचा, तेरहद्वार, लघुदण्डक, गतागत, बावनबोल, बासठियो, अल्पाबोहत, विचारबोध, जैन तत्त्व प्रदेश (प्रथम भाग), कर्म प्रकृति पहली सीखी हूँ।गुरूदेव! आपवैâ श्री चरणां में म्हारी आ ही प्रार्थना है कि बीच का चार-पांच महीना ८की म्हारै अन्तराय है, आ पूरी हुंता ही गुरूदेव मनै जल्दी स्यूं जल्दी दीक्षा दिरासी।आपका सुविनीतशिष्य मोहनप्रसंगोपात्त एक दिन : मुनिश्री सुमेरमलजी ने दीक्षा का मुहूर्त्त देखा और वैशाख महीना श्रेष्ठ बताया, किन्तु भाईजी की स्वीकृति तो आषाढ़ महीने के बाद के लिए प्राप्त थी। मुनिश्री ने उनसे कहा- आपको दीक्षा तो देनी ही है फिर आषाढ़ के बाद दें या वैशाख में दें, क्या फर्क पड़ेगा? मात्र दो-तीन महीनों के लिए अच्छे मुहूर्त्त को क्यों टाला जाए? तब सुजानमलजी ने कहा – ‘गुरूदेव और आप जब उचित समझें, इसको दीक्षा दे सकते हैं, मेरी ओर से स्वीकृति है।’मोहन के साथ हीरालाल बैद, बजरंग बरडिया और तेजकरण दूगड़ भी वैरागी थे। मोहनलाल और हीरालाल को तो परिवार की ओर से अनुमति मिल गई किन्तु बजरंग और तेजकरण को पारिवारिक स्वीकृति नहीं मिली, वे साधु तो नहीं बने किन्तु आज वे अच्छे श्रावक अवश्य हैं।इस दौरान मोहन का परीक्षण भी किया गया परन्तु वह हर परीक्षा में स्वर्ण की भांति खरा उतरा। उस समय गुरूदेव तुलसी का प्रवास अणुव्रत-भवन, दिल्ली में था। मर्यादा-महोत्सव का अवसर था, मोहन अपने परिवार के साथ गुरूदर्शन के लिए दिल्ली पहुंचा।वि.सं. २०३० माघ शुक्ला अष्टमी को प्रवचन के समय उसने एक वक्तव्य दिया, वह इस प्रकार है-अपनी बात : ‘परमाराध्य प्रात: स्मरणीय ह्य्दयसम्राट युगप्रधान आचार्यश्री के श्रीचरणों में कोटी-कोटी वन्दना!उपस्थित साधु-साध्वीवृंद! बुजुर्गों! माताओं!आप लोग सोच रहे होंगे यह बच्चा क्यों खड़ा हुआ है? क्या कहने जा रहा है और क्या चाहता है? मेरी चाह भौतिक नहीं, आध्यात्मिक है। मेरा कथन उपदेश नहीं, निवेदन है। प्रार्थना है वह भी किसी भौतिक वस्तु के लिए नहीं, चारित्र के लिए है। साधु बनने की आकांक्षा मन में लेकर ही मैं आज यहां खड़ा हुआ हूं। आप लोग सोच रहे होंगे कि यह बच्चा है, यह साधुत्व को क्या समझेगा? जब मैं ऐसी बात किसी से सुनता हूं तो मुझे उसकी बुद्धि पर तरस आता है, ह्य्दय करूणा से भर जाता है। सोचता हूं इन लोगों ने धर्म को समझा या नहीं, आत्मा को जाना या नहीं। अगर जाना है तो केवल मेरे शरीर से ही मेरा अंकन क्यों करते हैं? साधुत्व आत्मा की वस्तु है या शरीर की? याद रखें, धर्म आत्मा की वस्तु है, क्या मेरी आत्मा आपसे छोटी है? क्या कोई आत्मवादी ऐसा कह सकता है? शरीर से ही जो व्यक्ति छोटे-बड़े का अंकन करते हैं वे केवल हाड़-मांस और चमड़ी देखने वाले हैं।एक कहानी मुझे याद आती है, जो मैंने सन्तों से ही सुनी है।अष्टावक्रजी को आत्मचर्या के लिए राज्यसभा से निमंत्रण मिला। निश्चित समय पर अष्टावक्रजी राज्यसभा में पहुंचे, सभाभवन पण्डितों से भरा हुआ था, ज्योंही अष्टावक्रजी ने सभाभव्ान में प्रवेश किया, पण्डित लोग उनके शरीर को देखकर खिलखिलाकर हंस पड़े। आठ जगह से उनका शरीर टेढ़ा-मेढ़ा था। सारा भवन हंसी से गूंज उठा। अष्टावक्रजी ने राजा से कहा- ‘राजन्! यहां पण्डित कौन है? ये सब तो चमार ही चमार हैं, किससे चर्चा करूं?’विस्मितमना राजा ने कहा -‘अष्टावक्र! ऐसे वैâसे बोल रहे हो? देखो, सब सामने पण्डित ही पण्डित बैठे हैं।’ अष्टावक्र- ‘पण्डित कहां है राजन्! पण्डित लोग आत्म चर्चा में लीन रहते हैं और चमार लोग चमड़ी तथा हड्डियों की परिक्षा में लीन रहते हैं, ये सब मेरे शरीर को देखकर हंस रहे हैं इसलिए पंडित कहां हैं? हंसने वाले पण्डितों पर चपत-सी लग गई।अब आपसे ही पूछूं -‘जो मेरे को छोटा बतलाते हैं, उन्हें क्या कहूं? आप सोचते होंगे, यह साधुत्व के नियम वैâसे निभाएगा? अतिमुक्तक मुनि ने वैâसे निभाया था? गजसुकुमाल मुनि ने वैâसे कष्ट सहे? परीषह आत्मबल से ही सहा जाता है।’अस्तु, पूज्य गुरूदेव! मेरी ओर ध्यान दें, इस बच्चे का भविष्य आपकी दृष्टि पर निर्भर है, कृपा करके प्रतिक्रमण सीखने का आदेश तो अभी फरमाएं।प्रवचन के दौरान पूज्य गुरूदेव ने मोहन से ऐसे प्रश्न पूछे-‘बोलो वैरागीजी! आश्रव किसे कहते हैं?’ प्रवचन-संपन्नता के बाद गुरूदेव अणुव्रत-भवन में ऊपर पधार रहे थे, प्रथम मंजिल की सीढ़ियों के बीच पूज्यप्रवर कुछ क्षण रूके और वहीं मोहन को प्रतिक्रमण सीखने का आदेश फरमा दिया। मोहन का रोम-रोम खिल उठा, वह अपने परिवार के साथ पुन: सरदारशहर आ गया।दीक्षा दिल्ली में या सरदारशहर में : प्रतिक्रमण आदेश के बाद पूज्यप्रवर ने चिन्तन किया कि दीक्षा कहां हो, दिल्ली में या सरदारशहर में? उन दिनों ट्रेनों की हड़ताल चल रही थी और मोहन की अवस्था भी छोटी थी। मात्र बारह वर्ष के बालक की दीक्षा दिल्ली शहर में होना आलोचना का विषय बन सकता था। मोहन के परिवार की भी यही इच्छा थी कि दीक्षा सरदारशहर में ही हो, इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए आचार्यवर ने फरमाया – ‘मोहनलाल और हीरालाल की दीक्षा वि.सं. २०३१ वैशाख शुक्ला चतुर्दशी को सरदारशहर में ही शिष्य मुनि सुमेर (लाडनूं) के सानिध्य में हो सकेगी।दीक्षा-तिथि की घोषणा के बाद घर में मोहन का विशेष ध्यान रखा जाता, उसकी इच्छापूर्ति का प्रयास किया जाता। मोहन की मौसी श्रीमती झूमादेवी नखत कोलकाता में रहती थी, वह मोहन के लिए घड़ी लेकर आई। मोहन को घड़ी का बहुत शौक था, वह अपने हाथ पर घड़ी बांधकर सबको बार-बार दिखाता, उस समय तक बच्चों के हाथ पर घड़ी बंधी हुई बहुत कम देखने को मिलती थी। दीक्षा के बाद भी कई दिनों तक घड़ी देखने के लिए मोहन अपने हाथ को देखता, फिर याद आता कि अब मैं साधु बन गया हूँ।सौभाग्य की सौगात : वि.सं. २०३१ वैशाख शुक्ला चतुवर्दशी (५ मई १९७४) का सुप्रभात मोहन के लिए सौभाग्य की सौगात लेकर आया, वह प्रात: लगभग चार बजे ही मुनिश्री के पास पहुंच गया। मुनिश्री ने फरमाया- ‘मोहन! आज इतनी जल्दी आ गया?’ मोहन ने कहा – ‘मुनिप्रवर! आज तो मेरे लिए सोने का सूरज उगा है, मैं बहुत सौभाग्यशाली हूं कि आज मुझे आपके करकमलों से दीक्षित होने का सुअवसर मिलेगा।’गधैयाजी का नोहरा! हजारों लोगों की उपस्थिति। लम्बे व भव्य जुलूस के साथ दोनों वैरागी श्री समवसरण में पहुंचे, अनेक लोगों ने उनके भावी जीवन के प्रति मंगल भावनाएं व्यक्त कीं। मोहन के ज्येष्ठ भ्राता अमरचन्दजी दूगड़ ने आज्ञा पत्र का वाचन किया। मोहन ने भी छोटा-सा वक्तव्य दिया। कार्यक्रम के दौरान गुरूदेव तुलसी द्वारा प्रदत्त संदेश का वाचन किया गया, उसका कुछ अंश इस प्रकार है-‘जैन मुनि की चर्या कठिन है, यह बात सही है। तेरापंथी जैन मुनियों की चर्या और अधिक कठिन है, इस चर्या में पांच महाव्रतों की स्वीकृति के साथ जीवनभर गुरू के चरणों में समर्पित रहना, प्रत्येक काम उनके निर्देश से करना, संघीय व्यवस्थाओं का ह्य्दय से पालन करना आदि ऐसे विधान हैं जो व्यक्ति को चारों ओर से थाम लेते हैं, फिर भी उसमें रम जाने के बाद वे कठिनाइयां सहज बन जाती हैं, आनन्दप्रद लगने लगती हैं।भविष्यवाणी रेखाशास्त्री की:दीक्षा से कुछ दिन पूर्व सरदारशहर के कार्यकर्ता रेखाशास्त्री अध्यापक छगनजी मिश्रा को मुनिश्री सुमेरमलजी के पास लेकर आए, उन्होंने मुनिश्री के हाथ और पैर की रेखाएं देखीं और कहा- आप दो बालकों को छह महीने के भीतर-भीतर दीक्षा देंगे, उसी समय उन्होंने मोहन के भी हाथ व पैर की रेखाएं देखीं और कहा- यह बालक आपकी (मुनिश्री की) विद्यमानता में ही धर्मसंघ में सर्वोपरि स्थान प्राप्त करेगा, दोनों ही भविष्यवाणी शत प्रतिशत सच हो गई।विलक्षण मेधा:जिस दिन दीक्षा स्वीकार की उसी दिन उन्होंने ‘दसवेआलियं सूत्र’ कंठस्थ करना प्रारंभ कर दिया, ‘सात सौ अनुष्टुप श्लोक प्रमाण दसवेआलियं’ सूत्र को मात्र चालीस दिनों में अर्थसहित कंठस्थ कर लिया।मुनि मुदितकुमारजी का प्रथम चतुर्मास सरदारशहर में हुआ, उस चातुर्मास में उन्होंने कुछ दिनों तक उपदेश प्राक वक्तव्य दिया, उनका प्रथम उपदेश दसवें आलियं सूत्र के प्रथम अध्ययन ‘दुमपुप्फिया’ पर आधारित था।दीक्षा के कुछ दिनों बाद ही सरदारशहर के प्रबुद्ध प्रशिक्षक श्रावक श्री भंवरलालजी बैद से मुनि हेमंतकुमारजी और मुनि मुदितकुमारजी ने अंग्रेजी भाषा का अध्ययन करना प्रारंभ कर दिया। मात्र ६ महीनों में ही मुनिद्वय की प्रबुद्धता से बहुत प्रभावित हुए, उन्होंने अनेक बार मुनिश्री सुमेरमलजी से कहा- इतने ग्रहणशील विद्यार्थी मुझे पहली बार मिले हैं, श्री भंवरलालजी तेरापंथ धर्मसंघ के श्रद्धानिष्ठ और समर्पित श्रावक थे, वे अंग्रेजी और संस्कृत भाषा के अधिकृत विद्वान, कुशल अध्यापक, आयुर्वेद के ज्ञाता एवं चिकित्सक भी थे।ज्ञान और साधना:दीक्षा के बाद तीसरा चातुर्मास गुरूदेव तुलसी के साथ सरदारशहर में किया, उस समय वे संघ परामर्शक मुनिश्री मधुकरजी के साथ ग्रुप में रहे फिर चौथा एवं पांचवां चातुर्मास मुनिश्री रूपचंदजी सरदारशहर के साथ जयपुर और दिल्ली में किया, इन २ चातुर्मासों में मुनिश्री रूपचंदजी की प्रेरणा व मुनिश्री मानककुमारजी के श्रम से मुनि मुदितकुमारजी ने संस्कृत भाषा का अच्छा अध्ययन किया, इससे पूर्व मुनिश्री सुमेरमलजी उन्हें संस्कृत साहित्य पढ़ाते। पण्डित रामकुमारजी संस्कृत व्याकरण कालुकौमुदी की साधनिका कराते, कुछ ही वर्षों में उन्होंने संस्कृत भाषा का गंभीर अध्ययन कर लिया, वे संस्कृत में धाराप्रवाह बोलने लगे और लिखने भी लगे। अध्ययनकाल के दौरान मुनि मुदितकुमारजी ने संस्कृत भाषा में कुछ कहानियां लिखीं, जिन्हें आज हम ‘शेमुषी’ नामक ग्रंथ में पढ़ सकते हैं।एक महत्वपूर्ण साहसिक निर्णय मुनि मुदितकुमारजी पूज्यप्रवर के मार्गदर्शन में निरंतर गति-प्रगति करते रहे, उनकी प्रज्ञा की पारदर्शिता निखरती गई, वे हर क्षेत्र में आगे बढ़ते गए, साधना के पथ में आने वाली कठिनाइयों को साहस के साथ झेलते गए और सफलता के परचम फहराते गए। सचमुच,मुश्किल-भरे दिनों में जिसका साहस बरकरार रहता है, वही व्यक्ति कुछ कर गुजरने की काबिलियत रखता है। सन् १९७९ का प्रसंग है, मुनि मुदितकुमारजी, मुनिश्री रूपचंदजी के साथ अशोक विहार दिल्ली में प्रवास कर रहे थे, उस समय युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ का भी अणुव्रत भवन, दिल्ली में प्रवास हो रहा था। एक दिन अपराह्न में मुनिश्री रूपचंदजी ने मुनि मुदितकुमारजी से कहा -मैं इस संघ से अलग होने जा रहा हूँ, तुम अपना चिंतन कर लो कि तुम्हें कहां रहना है? हमारे साथ चलना है या यहीं (संघ में) रहना है।बालमुनि मुदितकुमारजी ने तत्काल कहा- ‘मैं तो संघ में ही रहूँगा’ मुनिश्री रूपचंदजी ने बड़ी शालीनता के साथ कहा- ‘तुम चिंता मत करना’ हम तुम्हें युवाचार्यश्री के पास पहुंचा देंगे, दूसरे दिन मुनिश्री रूपचंदजी आदि संत अशोक विहार से विहार कर सी.सी. कॉलोनी आए, उधर युवाचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने मुनिश्री सुमेरमलजी ‘सुदर्शन’ सुजानगढ़ और मुनिश्री महेन्द्रकुमारजी (मुंबई) को मुनि मुदितकुमारजी के पास भेजा, अगले दिन मुनिश्री रूपचंदजी आदि संत सदर बाजार में सुराणा धर्मशाला में प्रवास कर रहे थे, उस दिन दैनिक पत्र में खबर आई कि मुनि रूपचंदजी ने तेरापंथ संघ से त्यागपत्र दे दिया। मुनि रूपचंदजी और मुनि मानककुमारजी संघ से अलग हो गए। मुनि अशोककुमारजी (बैंगलोर) कुछ दिन पहले ही अलग हो चुके थे, तब मुनिश्री सुमेरमलजी ‘सुदर्शन’ मुनि मुदितकुमारजी आए और पूछा- ‘मूनि रूपचंदजी आदि दोनों संत संघ से अलग हो गए हैं अब तुम्हारी क्या इच्छा है? बालमुनि ने कहा- ‘‘मैं तो संघ में ही रहूंगा’’।कृतज्ञता ज्ञापन और खमतखामणा के बाद मुनि मुदितकुमारजी ने मुनिश्री सुमेरमलजी के साथ वहां से प्रस्थान कर दिया। मध्याह्न में वे अणुव्रत भवन पहुंच गए, जहां युवाचार्यवर विराजमान थे। मुनिश्री महेन्द्रकुमारजी ने निवेदन किया- ‘युवाचार्यश्री!’ मुदित मुनि ने अच्छा परिचय दिया है। युवाचार्यप्रवर ने फरमाया- ‘यह तो मुझे विश्वास ही था’ उन दिनों गुरूदेव तुलसी पंजाब में प्रवास कर रहे थे।वहां से भी एक संदेश आया, उसमें लिखा था- ‘मुनि मुदितकुमार ने जो शासनभक्ति का परिचय दिया है, उससे मैं गदगद हूँ।’ उसके अध्ययन और साधना की समुचित व्यवस्था की जाए, सचमुच जिस समूह में चार सदस्य हों और चारों में परस्पर अच्छा सामंजस्य और सौहार्द हो, उस समूह के मुखिया सहित तीन सदस्यों का निर्णय एक हो और सबसे छोटे ‘चौथे’ सदस्य का निर्णय भिन्न हो तो बहुत कठिनाई हो सकती है किन्तु मुनि मुदितकुमारजी ने साहस, धैर्य और विजन के साथ अपने भविष्य का निर्णय लिया।सच है, प्रवाह के विपरीत बहना संघर्ष और खतरों से खाली नहीं होता किंतु यह भी उतना ही सत्य है कि कोई साहसिक कदम ही प्रतिस्त्रोतगामी बन सकता है। मुनि मुदितकुमारजी की संघनिष्ठा ने आचार्यश्री तुलसी और युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ के मन में एक नया विश्वास जगा दिया। बालमुनि के इस निर्णय ने पूज्यवरों के दिल में एक अमिट छाप छोड़ दी, उस समय आपकी उम्र मात्र सत्रह वर्ष थी किंतु पूज्यप्रवरों की पारखी आंखें आप में तेरापंथ का शुभ भविष्य देखने लगी।३० अगस्त २००१ को स्वयं आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने कहा –‘सन १९७९ में मैं दिल्ली में था, उस समय हमारे संघ के कुछ साधु पृथक हो गए, ये (महाश्रमण) पृथक होने वाले साधुओं के साथ थे पर इन्होंने अपना स्पष्ट निर्णय दिया कि मुझे तो संघ में ही रहना है, उस घटना ने मुझे पहली बार आकृष्ट किया, मैंने बाद में गुरूदेव से निवेदन किया कि इतनी छोटी अवस्था में भी इनमें जो संघनिष्ठा, आचारनिष्ठा है, वह उल्लेखनीय है। हमें इनकी ओर ध्यान देना चाहिए, उसके बाद तो मेरे और गुरूदेव के बीच इनको लेकर बातचीत होती रहती, धीरे-धीरे हर संघीय कार्य से भी जोड़ लिया गया।सेवा का सुअवसर वि. सं. २०४१ ज्येष्ठ कृष्णा अष्टमी (१३ मई १९८४) को लाडनूं में गुरूदेव तुलसी ने मुनि मुदितकुमारजी से पूछा- तुम क्या काम कर सकते हो?’ मुनि मुदितकुमारजी- जो गुरूदेव फरमाएंगे।गुरूदेव तुलसी- आज तक हारी पंचमी समिति की पात्री मुनि मधुकरजी रखते थे, अब से तुम रखा करो।इस निर्देश के साथ ही मुनि मुदितकुमारजी गुरूदेव तुलसी की व्यक्तिगत सेवा में निुयुक्त हो गए, तेरापंथ धर्मसंघ में इस नियुक्ति का विशेष महत्व है, इससे अनायास ही निकटता से गुरूसेवा का अलभ्य अवसर प्राप्त हो जाता है।लगभग बारह वर्षों तक मुनि मुदितकुमारजी को पूज्यवर की पात्र-वहन सेवा का सौभाग्य प्राप्त हुआ, इस दायित्व का उन्होंने बड़े अहोभाव व जागरूकता के साथ निर्वाह किया, उस दिन से वे स्थायी रूप से गुरूकुलवासी बन गए।अंतरंग सहयोगी:वि.सं. २०४२ माघ शुक्ला सप्तमी (१६ फरवरी १९८६) मर्यादा-महोत्सव का अवसर, उदयपुर का विशाल प्रवचन पण्डाल, गुरूदेव तुलसी ने मुनि मुदितकुमारजी को युवाचार्य महाप्रज्ञ के अंतरंग सहयोगी के रूप में नियुक्त करते हुए कहा- ‘संघ’ में बहुआयामी प्रवृत्तियों को देखकर लगता है कि हमारे युवाचार्य महाप्रज्ञ को भी किसी सहयोगी की अपेक्षा है इसलिए आज मैं मुनि मुदित को अंतरंग सहयोगी के रूप में नियुक्त करता हूँ इस नियुक्ति के साथ ही वे संघ के व्यवस्था पक्ष से जुड़ गए, दायित्व बढ़ गया और कार्यक्षेत्र भी विस्तृत हो गया, इससे पूर्व मात्र आत्मकेंद्रित थे, अपने आपमें मस्त थे, व्यस्त थे, अंतरंग सहयोगी बनने के बाद आपकी सोच का दायरा बहुत विशाल हो गया, सबके विकास के बारे में सोचने लगे, व्यक्तित्व उभरकर सामने आने लगा।साझपति:वि. सं. २०४३, वैशाख शुक्ला चतुर्थी (२३ मई १९८६) की रात्रि ब्यावर का तेरापंथ भवन, गुरूदेव तुलसी ने साधु सभा के मध्य मुनि मुदितकुमारजी को साझपति (ग्रुप लीडर) बनाया। मुनि ऋषभकुमारजी को सहयोगी के रूप में तथा शैक्षमुनि धर्मेशकुमारजी को आपके संरक्षण में रखा गया।अनौत्सुक्य का दिग्दर्शन:सन् १९८७ का प्रसंग, पूज्य गुरूदेव तुलसी का प्रवास अणुव्रत भवन, दिल्ली में हो रहा था। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी पूज्यप्रवर से मिलने आए, प्राय: सभी संत उन्हें देखने और सुनने के लिए एकत्रित हो गए किंतु मुनि मुदितकुमारजी अपने कक्ष में अनौत्सुक्य भाव से कार्य करते रहे।महाश्रमणवि.सं. २०४६ भाद्रपद शुक्ला नवमी (६ सितम्बर १९८९)।योगक्षेम वर्ष का आयोजन। लाडनूं, जैनविश्वभारती में सुधर्मा सभा का प्रांगण। गुरूदेव तुलसी का ५४वॉ पदारोहण दिवस। उल्लासमय वातावरण में चतुर्विध धर्मसंघ अपने आराध्य को वर्धापित कर रहा था, अचानक आचार्यवर ने अपने पट्टोत्सव को नया मोड़ देते हुए कहा-तेरापंथ धर्मसंघ में अनेक विलक्षण कार्य हुए हैं, उनके विलक्षणताओं में मैं एक और नया कार्य करना चाहता हूँ। आज मैं मुनि मुदित को ‘महाश्रमण’ के पद पर नियुक्त करता हूँ, यह पद धर्मसंघ में कार्यकारी, नए दायित्वों से परिपूर्ण और चिरंजीवी रहेगा, इस घोषणा के पश्चात आचार्यवर ने मुनि मुदितकुमारजी को नियुक्ति पत्र प्रदान किया।भाषा इस प्रकार रही:अध्यात्मनिष्ठा, साधना, शिक्षा, सेवा, विनम्रता, संघनिष्ठा, गंभीरता आदि विशेषताओं को ध्यान में रखकर मैं मुनि मुदितकुमार को ‘महाश्रमण’ के पद पर नियुक्त करता हूँ। धर्मसंघ में युवाचार्य के बाद इसका स्थान रहेगा। यह युवाचार्य के कार्य में सतत सहयोगी रहेगा। युवाचार्य की तरह साध्वियों, समणियों को पढ़ाना इसके कार्यक्षेत्र में रहेगा। आहार- पानी समुच्चय में होगा। सब प्रकार के विभागीय कार्यों तथा संघीय बोझ की पाती से मुक्त रहेगा।युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ ने नव मनोनीत महाश्रमण को शुभाशीष देते हुए कहा- महाश्रमण आचार्यवर का इतना विश्वास प्राप्त कर सका, मेरे मन को भी जीत सका और हमारी सन्निधि प्राप्त कर सका, उसके लिए मैं शुभाशंसा करता हूँ कि वह इस कार्य के लिए अपनी अर्हता और ओजस्विता को और अधिक प्रकट करे तथा धर्मसंघ की अधिकाधिक सेवा करे।महाश्रमण बनने के बाद युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ के हर कार्य में सहयोगी बन गए। चाहे चिन्तन गोष्ठियां हों या अन्य कोई कार्य, सबमें आपकी सहभागिता रहने लगी। प्राय: हर कार्यों में आपकी उपस्थिति अनिवार्य सी प्रतीत होने लगी।क्या हम ही करते रहेंगेसामान्यत: साध्वियों-समणियों का अध्यापनकार्य आचार्य/युवाचार्य ही करते हैं किंतु महाश्रमण की नियुक्ति के बाद यह कार्य भी आपके ही जिम्मे आ गया। एक दिन गुरूदेव तुलसी ने महाश्रमण मुनि मुदितकुमारजी को समणियों एवं मुमुक्षु बहनों को उच्चारण शुद्धि की दृष्टि से विशेष प्रशिक्षण देने का निर्देश दिया। निवेदन किया। – गुरूदेव! यह कार्य आपश्री की सन्निधि में ही चले तो ठीक रहेगा, गुरूदेव ने कहा- क्या हमेशा हम ही करते रहेंगे। आगे तो तुम्हें ही करना है इसलिए तुम ही उन्हें अभ्यास कराओ।एक प्रयोग, एक परीक्षण:महाश्रमण मुनि मुदितकुमारजी प्रारंभ से ही आत्मकेन्द्रित थे किंतु जब आप महाश्रमण बन गए और शास्ता की निगाहें शुभ भविष्य देखने लगीं, उस स्थिति में यह आवश्यक हो गया कि आपका सम्पर्क क्षेत्र व्यापक बने। जनता महाश्रमणजी की क्षमता से परिचित हो और महाश्रमणजी को भी कुछ सीखने, समझने और जानने का अवसर प्राप्त हो, इन कई बिन्दुओं को ध्यान में रखते हुए गुरूदेव तुलसी ने आपको स्वतंत्र यात्रा कराने पर विचार किया।यात्रा मुनि जीवन का एक अभिन्न अंग होता है, एक जैन मुनि चातुर्मास के अतिरिक्त आठ महीनों तक प्राय: भ्रमणशील रहता है, यात्राएं करता है, इससे धर्म प्रभावना तथा संघ प्रभावना होती है और व्यक्तिगत अनुभव और जनसंपर्क भी बढ़ता है। महाश्रमण बनने के बाद गुरूदेव तुलसी ने आपको अपनी जन्मभूमि सरदारशहर की यात्रा करने का निर्देश दिया।महाश्रमण पर्याय की, वह उनकी प्रथम स्वतंत्र यात्रा थी। लगभग अड़तालीस दिनों की प्रभावशाली यात्रा संपन्न कर उन्होंने छोटी खाटू में गुरूदेव के दर्शन किए। युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ ने उनकी अगवानी की और स्वयं आचार्यवर ने पट्ट से नीचे उतरकर उनको अपने हृदय से लगा लिया। अपने योग्य शिष्य की सार्थक और सफल यात्रा से पूज्यप्रवर बहुत प्रसन्न थे।कार्यक्रम के दौरान युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ ने कहा ‘आचार्यश्री’ महाज्योति हैं, उनकी एक रश्मि, एक किरण कुछ समय के लिए गई और आज पुन: मिल गई। आचार्यवर बहुत दूरदर्शी हैं, उनके हर कार्य के पीछे एक विशेष चिन्तन होता है, इस यात्रा के पीछे भी उनका एक उद्देश्य था।गुरूदेव तुलसी ने कहा-महाश्रमण मुनि मुदितकुमार थली संभाग में अपनी सात सप्ताह की यात्रा सम्पन्न कर खाटु पहुंच गया, उसे विशेष रूप से सरदारशहर के लिए भेजा गया था, आज वापिस आ गया। महाश्रमण का महत्व बढ़ा है, बढ़ाया गया है, किसी को अखरा नहीं, सबने हमारी परख को सराहा है, यात्रा एक दर्पण है, इसमें व्यक्ति के व्यक्तित्व का चित्र सामने आ जाता है। सरदारशहर के लोग तो इस यात्रा से महाश्रमण को स्वयं अपने आपको समझने-समझाने का मौका मिला और मुझे भी इसे निरखने-परखने का अवसर मिला।पुन: महाश्रमण पद परवि.स. २०५१ माघ शुक्ला षष्ठी, ५ फरवरी १९९५ का दिन, दिल्ली में समायोजित आचार्य महाप्रज्ञ का पदाभिषेक समारोह, आचार्यश्री तुलसी ने नौ वर्ष पहले मुनि मुदितकुमारजी को युवाचार्य महाप्रज्ञ का अंतरंग सहयोगी बनाया और लगभग साढ़े पांच वर्ष पहले महाश्रमण पद पर प्रतिष्ठित किया, चूंकि अब युवाचार्य महाप्रज्ञ आचार्य बन गए, इसलिए गणाधिपति गुरूदेव तुलसी ने मुनि मुदितकुमारजी को आचार्य महाप्रज्ञ...

तप और दान के प्रवाह का पर्व- अक्षय तृतीया

ॐराघशुक्लतृतीयाया, दानमासीत् तदक्षयम्पर्वाक्षय तृतीयेति, ततोऽघापि प्रवर्ततेश्रेयांसोपज्ञमवनौ, दान-धर्म प्रवृत्तवान्स्वाम्युपेतमिवाऽ शेषव्यवहार नयक्रम: ‘अक्षय तृतीया’ का दिन महामंगलकारी होता है, इस दिन की महिमा मात्र जैनों में ही नहीं, अजैनों में भी है, वर्ष में कुछ दिन ऐसे हैं जो बिना पूछे मुहूर्त’ कहलाते हैं, वैशाख सुदी तीज की भी यही महिमा है, इस अवसर्पिणी काल में सर्वप्रथम दान धर्म का प्रारंभ इसी दिन से शुरु हुआ था। अक्षय तृतीया – यह ऐसा त्यौहार है, जिसका महात्म्य बहुत बड़ा और व्यापक है। हिंदू, वैदिक और जैन परंपराओं में ‘अक्षय तृतीया’ का महत्व बहुत ज्यादा माना गया है, यह जिज्ञासा उठनी स्वाभाविक है कि इस पर्व का नाम ‘अक्षय तृतीया’ क्यों पड़ा? अ-क्षय, मतलब, जिसका क्षय नहीं, अर्थात हर हाल में यथावत। वैशाख मास की इस तृतीया का कभीक्षय’ नहीं होता, इसीलिए इसे ‘अक्षय तृतीया’ कहा गया है। भारतीय ज्योतिष शास्त्रानुसार तिथियाँ चंद्रमा और नक्षत्रों की गतिनुसार बनती है, जैसे चंद्रमा की कला घटती-बढ़ती है वैसे तिथियाँ भी घटती-बढ़ती है, एकम से लेकर अमावस्या, पुनम आदि सभी तिथियों में घटबढ़ी चलती रहती है, किंतु वैशाख सुदी ३ याने आखा तीज की तिथि हजारों वर्षों में क्षय तिथि नहीं बनी, यह कभी नहीं घट-बढ़ी, इसलिये इसे अक्षय तिथि कहा गया है, इसे आखा तीज भी कहा जाता है। वैदिक परम्परा में कहा जाता है कि ऋषि जमदग्नि के पुत्र, परम बलशाली परशुरामजी का जन्म आखा तीज के दिन हुआ था। कुछ लोग मानते हैं कि सतयुग का प्रारम्भ भी इसी दिन हुआ था, इसलिये यह युगादि तिथि भी है। एक बार राजा युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से ‘आखा तीज’ पर्व की विशेषता पूछी तो उन्होंने बतलाया – वैशाख शुक्ल तृतीय के पूर्वाह्न में जो यज्ञ, दान, तप आदि पुण्य कार्य किये जाते हैं उनका फल अक्षय होता है, यह विश्वास है कि इस दिन का मुहुर्त सबसे श्रेष्ठ है, इसलिये विवाह,गृहप्रवेश, व्यापार आदि का शुभारंभ अक्षय तृतीया के दिन बहुत होता है। गाँवों में तो इस दिन सामुहिक विवाह होते हैं, कई जगह तो आज भी छोटे-छोटे बच्चों का विवाह कर दिया जाता है, इस दिन सोना खरीदना भी शुभ माना जाता है ताकि घर में लक्ष्मी माँ की कृपा बनी रहे, इस दिन वृंदावन में साल में एक बार बिहारीजी के चरणों के दर्शन होते हैं, इस दिन मंदिरों में बिहारीजी का चंदन श्रृंगार होता है। ‘अक्षय तृतीया’ को बद्रीनाथ धाम के द्वार भक्तों के लिये खुलते है, गंगा-स्नान का भी इस दिन बहुत महत्व है। जैन परम्परा में ‘अक्षय तृतीया’ के साथ अत्यंत महत्वपूर्ण घटना जुड़ी है, इसलिये जैनों में इस दिन का बहुत अधिक महत्व है। प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ का एक वर्ष के कठिन तप के बाद, इसी दिन श्रेयांसकुमार ने (जोकि प्रभु के पपौत्र थे) इक्षु (गन्ने) रस द्वारा पारणा करवाया था, इस तिथि को अक्षय पुण्य प्रदान करने वाली तिथि कहा जाता है। ‘अक्षय तृतीया’ को ‘दान और तप’ दोनों का अद्भुत संबंध जुड़ा होने के कारण ही यह ‘अक्षय’ बन गया। तीर्थंकर ऋषभदेव ने चैत्र कृष्णा अष्टमी के दिन बेला (दो उपवास) की तपस्या के साथ दीक्षा ग्रहण की, उनके साथ अन्य ४००० व्यक्तियों ने भीदीक्षा अंगीकार की, इस तपस्या के साथ दो मुख्य बातें थी- अखण्ड मौन तथा पूर्ण निर्जल तप। अखण्ड मौन व्रत धारण कर भगवान ने चऊविहार बेला किया, उसके पश्चात विशेष अभिग्रह ग्रहण कर भिक्षा के लिए नगर में पधारे, परंतु कहीं भी शुध्द आहार नहीं मिलने के कारण ऋषभदेव नगर में भ्रमण करके वापस लौट गये और पुन: आगे का तप ग्रहण किया, इस तरह तप करते हुए १३ महीने और १० दिन व्यतीत हो गये, अंत में वैशाख शुक्ल तृतीया के दिन प्रभु हस्तिनापुर पधारे, उस समय बाहुबलीके पौत्र एवं राजा सोमप्रभ के पुत्र श्रेयांसकुमार युवराज थे, उन्होंने उसी रात एक विचित्र स्वप्न देखा – `सोने के समान दीप्ति वाला सुमेरु पर्वत श्यामवर्ण का कांतिहीन सा हो रहा है, मैने अमृतकलश से उसे सींचकर पुन: दीप्तिमान बना दिया है’ उसी रात्रि में सुबुद्धि नाम के श्रेष्ठि ने सपना देखा सुरज से निकली हजारों किरणों को श्रेयांसकुमार ने पुन: सुर्य में स्थापित कर दिया, जिससे वह सुरज अत्याधिक चमकने लगा। उस रात सोमयश राजा ने भी स्वप्न देखाअनेक शत्रुओं के द्वारा घिरे हुए राजा ने श्रेयांस कुमार की सहायता से शत्रु राजा पर विजय प्राप्त कर ली’ स्वप्न के वास्तविक फल को तो कोई जान न सके परंतु सभी ने यही कयास लगाया कि इसके अनुसार आज श्रेयांसकुमार को विशेष लाभ प्राप्त होगा? राजकुमार श्रेयांस इस विचित्र सपने के अर्थ पर विचार करते हुए गवाक्ष में बैठे हुए थे, उसी समय में राजमार्ग पर प्रभु ऋषभदेव का आगमन हुआ, हजारों लोग उनके दर्शन हेतु विविध प्रकार की भेंट सामग्री लेकर आ रहे थे (लेकिन प्रभु के लिये उन भेटों का कोई महत्व नहीं था, वे तो त्यागी थे, शुध्द आहार की खोज में थे) जनता का कोलाहल, बढ़ती भीड़ और उन सबके आगे चलते प्रभु को देखकर श्रेयांसकुमार विचार में पड़ते हैं और सोचते आज क्या बात है, यह महामानव कौन आ रहा है, इस प्रकार का तपस्वी साधक मैंने पहले भी कहीं देखा है, उनकी स्मृतियाँ अतीत में उतरती हैं, चिन्तन की एकाग्रता बढ़ती है और उन्हें जाति-स्मरण ज्ञान हो जाता है’ वह जान लेते हैं कि यह मेरे परदादा दीर्घ तपस्वी प्रभु आदेश्वर हैं और शुध्द भिक्षा के लिये इधर पधार रहे हैं, श्रेयांसकुमार महल से नीचे उतरते हैं और प्रभु को वंदन कर प्रार्थना करते हैपधारो प्रभु! पधारो’ उसी समय राजमहल में इक्षुरस से भरे १०८ घड़े आये थे, शुध्द और निर्दोष वस्तु और वैसी शुध्द भावना कुमार की, श्रेयांसकुमार इक्षुरस द्वारा प्रभु को पारणा करवाते हैं। उस समय देवों ने आकाश में देव दुंदभि बजाई, रत्नों की पंचवर्ण के पुष्पों की, गंधोदक की और दिव्य वस्त्रों की, सुगंधित जल की वृष्टी की। अहोदानं! अहोदानं की घोषणा हुयी। पांच दिव्यों की वर्षा हुई। जैन साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका भी इस तरह एक साल का व्रत रखते हैं (१ दिन उपवास दूसरे दिन बियासणा) और आखा तीज के दिन गन्ने के रस द्वारा पारणा करते हैं, इस दिन रस पीना और मंदिर में गुड़ चढ़ाना शुभ माना जाता है। तप और दान की दिव्य महिमा से आज का दिन (याने आखा तीज) पवित्र हुआ। भगवान ऋषभदेव का प्रथम पारणाहोने से इस अवसर्पिणी काल में श्रमणों को भिक्षा देने की विधि का प्रथम ज्ञान देने वाले श्रेयांसकुमार हुए, सचमुच ऋषभदेव के समान उत्तम पात्र, इक्षु रस के समान उत्तम द्रव्य और श्रेयांसकुमार के भाव के समान उत्तम भाव का त्रिवेणी संगम होना अत्यंत ही दुर्लभ है। तप और दान की आराधना करने वाला अक्षय पद प्राप्त कर सकेगा, यही संदेश इस पर्व में छिपा है। जैनधर्म में मोक्ष प्राप्ति के चार मार्ग बताये गये हैं। दान, शील, तप और भाव।‘अक्षय तृतीया’ को दान और तप इन दोनों का अद्भुत संबंध जुड़ा होने केकारण यह अक्षय बन गया। विशेष: प्रभु ऋषभदेव के पहले भरत क्षेत्र में युगलिक काल था, इस वजह से लोगों में धर्म की प्रवृत्ति का अभाव था। युगलिक काल में सभी मनुष्य युगल (पुत्र-पुत्री) के रुप में पैदा होते थे, प्रभु के सौ पुत्र और दो पुत्रियां थी, जेष्ठ पुत्र को ७२ कलाएं सिखलायी थी, भरत ने भी अपने सभी भाईयों को ये कलाएं सिखलायी, दूसरे पुत्र बाहुबली को प्रभु ने हस्ति, अश्व, स्त्री और पुरुष के अनेक प्रकार के भेदवाले लक्षणों का ज्ञान दिया। पुत्री ब्राह्मी को दाहिने हाथ से अट्ठारह लिपियां बतलायी और पुत्री सुंदरी को बायेंहाथ से गणित की शिक्षा दी, उनकी सारी मनोकामनाएँ कल्पवृक्ष के द्वारा पूर्ण हो जाती थी, सभी युगलिक भद्रिक परिणामी होने से देवगति प्राप्त करते थे, उस समय विवाह व्यवस्था नहीं थी। उस काल में सर्वप्रथम विवाह प्रभु ऋषभदेव का हुआ था। लग्न के विधि-विधान हेतु स्वयं इंद्र महाराजा उपस्थित थे। प्रभु ने न्याय नीति और व्यवहार धर्म की शिक्षा दी। अपना कल्प (आचार)समझकर प्रभु ने ही पुरुषों को ७२ कलाएं, स्त्रियों को ६४ कलाएं और सभी प्रकार के १०० शिल्प सिखाए थे, परंतु दान आदि धर्मों का बोध नहीं दिया था क्योंकि तारक तीर्थंकर को जब तक केवलज्ञान नहीं प्राप्त हो जाते, धर्म का बोध नहीं देते, असत्य भाषण की संभावना बनी रहती है, केवलज्ञान के पश्चात्प्र भु ने भरतक्षेत्र के जीवों को धर्म की शिक्षा दी। १८ कोडाकोडी सागरोपम से मोक्षमार्ग का जो द्वार बंद था, प्रभु ने उसे खोला, अत: उनका असीम उपकार हम सब पर है। अक्षय तृतीया जो इस वर्ष २२ अप्रैल २०२३ को है, उसका महत्व क्यों है?जानिए कुछ महत्वपुर्ण जानकारी.. आज ही के दिन मां गंगा का अवतरण धरती पर हुआ था। महर्षी परशुराम का जन्म आज ही के दिन हुआ था। मां अन्नपूर्णा का जन्म भी आज ही के दिन हुआ था। द्रोपदी को चीरहरण से कृष्ण ने आज ही के दिन बचाया था। कृष्ण और सुदामा का मिलन आज ही के दिन हुआ था। कुबेर को आज ही के दिन खजाना मिला था। सतयुग और त्रेता युग का प्रारम्भ आज ही के दिन हुआ था। ब्रह्मा जी के पुत्र अक्षय कुमार का अवतरण भी आज ही हुआ था। प्रसिद्ध तीर्थ स्थल श्री बद्री नारायण जी का कपाट आज ही खोला जाता है। बृंदावन के बांके बिहारी मंदिर में साल में केवल आज ही के दिन श्री विग्रहचरण के दर्शन होते हैं, अन्यथा साल भर वो वस्त्र से ढके रहते हैं। इसी दिन महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ था।‘अक्षय तृतीया’ अपने आप में स्वयं सिद्ध मुहूर्त है कोई भी शुभ कार्य का प्रारम्भकिया जा सकता है।

जैन धर्म के इतिहास में अक्षय तृतीया का है विशेष महत्व

भारतीय संस्कृति में बैसाख शुक्ल तृतीया का बहुत बड़ा महत्व है, इसे ‘अक्षय तृतीया’ भी कहा जाता है। जैन दर्शन में इसे श्रमण संस्कृति के साथ युग का प्रारंभ माना जाता है। जैन दर्शन के अनुसार भरत क्षेत्र में युग का परिवर्तन भोगभूमि व कर्मभूमि के रूप में हुआ। भोगभूमि में कृषि व कर्मों की कोई आवश्यकता नहीं, उसमें कल्पवृक्ष होते हैं, जिनसे प्राणी को मनवांछित पदार्थों की प्राप्ति हो जाती है। कर्मभूमि युग में कल्पवृक्ष भी धीरे-धीरे समाप्त हो जाते हैं और जीव को कृषि आदि पर निर्भर रह कर कार्य करने पड़ते हैं। भगवान आदिनाथ इस युग के प्रारंभ में प्रथम जैन तीर्थंकर हुए। प्रथम आहार गन्ने का रस का दिया प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ ने लोगों को कृषि और षट्कर्म के बारे में बताया तथा ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य की सामाजिक व्यवस्थाएं दीं, इसलिए उन्हें आदि पुरुष व युग प्रवर्तक भी कहा जाता है। राजा आदिनाथ को राज्य भोगते हुए जब जीवन से वैराग्य हो गया तो उन्होंने जैन धर्म की दीक्षा ली तथा ६ महीने का उपवास लेकर तपस्या की। ६ माह बाद जब उनकी तपस्या पूरी हुई तो वे आहार के लिए निकले। जैन दर्शन में श्रावकों द्वारा मुनियों को आहार का दान किया जाता है, लेकिन उस समय किसी को भी आहार की चर्या का ज्ञान नहीं था, जिसके कारण उन्हें और ६ महीने तक निराहार रहना पड़ा। बैसाख शुल्क तीज (अक्षय तृतीया) के दिन मुनि आदिनाथ जब विहार (भ्रमण) करते हुए हस्तिनापुर पहुंचे, वहां के राजा श्रेयांस व राजा सोम को रात्रि को एक स्वप्न दिखा, जिसमें उन्हें अपने पिछले भव के मुनि तीर्थंकर आदिनाथ को प्रथम आहार दिया राजा श्रेयांस ने ‘अक्षय तृतीया’ जैन धर्मावलम्बियों का महान धार्मिक पर्व है, इस दिन जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव ने एक वर्ष की पूर्ण तपस्या करने के पश्चात इक्षु (शोरडी-गन्ने) रस से पारायण किया। जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ ने सत्य व अहिंसा का प्रचार करने एवं अपने कर्म बंधनों को तोड़ने के लिए संसार के भौतिक एवं पारिवारिक सुखों का त्याग कर जैन वैराग्य अंगीकार कर लिया। सत्य और अहिंसा के प्रचार करते आदिनाथ प्रभु हस्तिनापुर गजपुर पधारे जहाँ इनके पौत्र सोमयश का शासन था, प्रभु का आगमन सुनकर सम्पूर्ण नगर दर्शनार्थ उमड़ पड़ा। सोमप्रभु के पुत्र राजकुमार श्रेयांस ने आदिनाथ को पहचान लिया और तत्काल शुद्ध आहार के रूप में प्रभु को गन्ने का रस दिया, जिससे आदिनाथ ने व्रत का पारणा किया। जैन धर्मावलंबियों का मानना है कि गन्ने के रस को इक्षुरस भी कहते हैं इस कारण यह दिन इक्षु तृतीया या अक्षय तृतीया के नाम से विख्यात हो गया।तीर्थंकर श्री आदिनाथ ने लगभग ४०० दिवस की तपस्या के पश्चात पारणा किया था, यह लंबी तपस्या एक वर्ष से अधिक समय की थी, अत: जैन धर्म में इसे वर्षीतप से संबोधित किया जाता है। आज भी जैन धर्मावलंबी वर्षीतप की आराधना कर अपने को धन्य समझते हैं, यह तपस्या प्रति वर्ष कार्तिक के कृष्ण पक्ष की अष्टमी से आरम्भ होती है और दूसरे वर्ष वैशाख के शुक्लपक्ष की ‘अक्षय तृतीया’ के दिन पारायण कर पूर्ण की जाती है, तपस्या आरंभ करने से पूर्व इस बात का पूर्ण ध्यान रखा जाता है कि प्रति मास की चौदस को उपवास करना आवश्यक होता है, इस प्रकार का वर्षीतप करीबन १३ मास और दस दिन का हो जाता है, उपवास में केवल गर्म पानी का सेवन किया जाता है। अक्षय तृतीया – दान तीर्थ का प्रारम्भ प्रतिवर्ष वैषाख शुक्ल तृतीया को अक्षय तृतीया पर्व अत्यन्त हर्षोल्लास पूर्वक मनाया जाता है, इसके मूल में कारण है, यह पर्व तीर्थंकर ऋषभदेव से सम्बन्धित है जो कि इसके करोड़ों वर्ष प्राचीनता का प्रमाण है। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव दीक्षोपरान्त मुनिमुद्रा धारण कर छः माह मौन साधना करने के बाद प्रथम आहारचर्या हेतु निकले, ध्यातव्य यह है कि तीर्थंकर क्षुधा वेदनाको शान्त करने के लिये आहार को नहीं निकलते, अपितु लोक में आहार दान अथवा दानतीर्थ परम्परा का उपदेश देने के निमित्त से आहारचर्या हेतु निकलते है। तदनुसार ऋषभदेव के समय चूंकि आहारदान परम्परा प्रचलित नहीं थी, अतः पड़गाहन की उचित विधि के अभाव होने से वे सात माह तक निराहार रहे, एक बार वे आहारचर्या हेतु हस्तिनापुर पधारे, उन्हें देखते ही राजा श्रेयांस को पूर्वभवकास्मरण हो गया, जहां उन्होंने मुनिराज को नवधाभक्ति पूर्वक आहारदान दिया। तत्पश्चात् उन्होंने ऋषभदेव से श्रद्धा विनय आदि गुणों से परिपूर्ण होकर कहा हे भगवन, तिष्ठ! तिष्ठ! यह कहकर पड़गाहन कर, उच्चासन पर विराजमान कर, उनके चरण कमल धोकर, पूजन करके, मन वचन काय से नमस्कार किया। तत्पश्चात् इक्षुरस से भरा हुआ कलश उठाकर कहा कि हे प्रभो! यह इक्षुरस सोलह उद्गम दोष, सोलह उत्पादन दोष, दष एषणा दोश तथा धूम, अंगार, प्रणाम और संयोजन, चार दाता सम्बन्धित दोषों से रहित एवं प्रासुक है, अतः आप इसे ग्रहण कीजिए। तदनन्तर ऋषभदेव ने चारित्र की वृद्धि तथा दानतीर्थ के प्रवर्तन हेतु पारणा की। आहारदान के प्रभाव से राजा श्रेयांस के महल में देवों ने निम्नलिखितपंचाष्चर्य प्रकट किये :– १. रत्नवृष्टि२. पुष्पवृष्टि३. दुन्दुभि बाजों का बजना४. शीतल सुगन्धित मन्द मन्द पवन चलना५. अहोदानम्-अहोदानम् प्रशंसावाक्य की ध्वनित होना प्रथम तीर्थंकर की प्रथम आहारचर्या तथा प्रथम दानतीर्थ प्रवर्तन की सूचना मिलते ही देवों ने तथा भरत चक्रवर्ती सहित समस्त राजाओं ने भी राजा श्रेयांस का अतिशय सम्मान किया। भरत क्षेत्र में इसी दिन से आहारदान देने की प्रथा का शुभारम्भ हुआ। पूर्व भव का स्मरण कर राजा श्रेयांस ने जो दानरूपी धर्म की विधि संसार को बताई उसे दान का प्रत्यक्ष फल देखने वाले भरतादि राजाओं ने बहुत श्रद्धा के साथ श्रवण किया तथा लोक में राजा श्रेयांस ‘दानतीर्थ प्रवर्तक‘ की उपाधि से विख्यात हुए। दान सम्बन्धित पुण्य का संग्रह करने के लिये नवधाभक्ति जानने योग्य है, जिस दिन ऋषभ देव का प्रथमाहार हुआ था उस दिन वैशाख शुक्ला तृतीया थी। आदिनाथ जी की ऋद्धि तथा तप के प्रभाव से राजा श्रेयांस की रसोई में भोजन अक्षीण (कभी खत्म ना होने वाला ‘अक्षय’) हो गया था, अतः आज भी यह तिथि ‘अक्षय तृतीया’ के नाम से लोक में प्रसिद्ध है। ऐसा आगमोल्लेख है कि तीर्थंकर मुनि को प्रथम आहार देने वाला उसी पर्याय से या अधिकतम तीसरी पर्याय से अवश्यमेव मुक्ति प्राप्ति करता है। कुछ नीतिकारों का ऐसा भी कथन है कि तीर्थंकर मुनि को आहारदान देकर राजा श्रेयांस ने अक्षयपुण्य प्राप्त किया था, अतः यह तिथि ‘अक्षय तृतीया’ कहलाती है, वस्तुतः दान देने से जो पुण्य संचय होता है, वह दाता के लिये स्वर्गादिक फल देकर अन्त में मोक्ष फल की प्राप्ति कराता है। ‘अक्षय तृतीया’ को लोग इतना शुभ मानते है कि इस दिन बिना मुहूर्त, लग्नादिक विवाह, नवीन गृह प्रवेश, नूतन व्यापार मुहूर्त के रूप में मानते है। विश्वास यह है कि इस दिन प्रारम्भ किया गया नया कार्य नियमित सफल होता है, अतः ‘अक्षय तृतीया’ पर्व अत्यन्त गौरवशाली है तथा राजा श्रेयांस द्वारा दान का प्रवर्तन कर हमें भी उपकार का स्मरण कराता है।

पूर्वजन्म प्रभू ऋषभदेव का

वैसे तो संसार का प्रत्येक प्राणी अनादि काल से जन्म मरण भोगता आ रहा है लेकिन सार्थक वही जन्म होता है जिसमें जीव ने संसार परित्त (सीमीत) किया, उसी क्रम में प्रभु ऋषभ का जीव भी कई भव पूर्व जम्बूद्वीप के पश्चिम विदेह की क्षिति प्रतिष्ठित नगरी के प्रसन्नचन्द्र राजा के राज्य में धन्ना सार्थवाह था, एक बार व्यापार के लिए बसंतपुर जाने का निश्चय करके, धन्ना ने राजाज्ञा पूर्वक नगर में घोषणा कराई कि यदि उनके साथ कोई चलना चाहे तो यथायोग्य पूर्ण सहयोग दिया जायेगा, इस घोषणा की जानकारी तंत्र विराजित आचार्य धर्मघोष को भी मिली। बसंतपुर की ओर विहार करने का निर्णय करके सार्थवाद से आज्ञा लेकर साथ में विहार कर दिया। रास्ते में वर्षाकाल से मार्ग अवरूद्ध हो जाने से सुरक्षित स्थान देखकर सार्थ को वहीं रूकने का आदेश दे दिया। धन्ना सार्थवाह के मुनीम मणिभ्रद ने आचार्य धर्मघोष व उनके शिष्यों को भी अपने झोपड़े में ठहरने की व्यवस्था करदी, लेकिन वर्षा का क्रम इतना लंबा हो गया, जिससे साथ की, सारी खाद्य सामग्री समाप्त हो गई। लोग कंद मूल खाकर समय निकालने लगे। धन्ना सार्थवाह को जब इस स्थिति का पता चला तो वह विचार में पड़ गया कि ऐसी स्थिति में मुनिराजों को आहार वैâसे प्राप्त हो रहा होगा। चिंतातुर स्थिति में वह सीधा चलकर मुनियों के पास आया और पश्चाताप करता हुआ आहार ग्रहण करने की प्रार्थना करने लगा। सार्थवाह को पश्चाताप करते देख आचार्यश्री के निर्देशानुसार एक शिष्य भिक्षाटन करते हुए उसके आवास पहँुच गया। अपने आवास में मुनिराज को आते देख हर्ष विभोर होते हुए साधुओं के योग्य आहार देखने लगा, लेकिन अन्य सामग्री को अप्रासुक देख चिंतित होते हुए उसकी दृष्टि पास में पड़े (प्रासुक) घी के घड़े पर पड़ी और बड़े प्रमुदित भाव से मुनिराज को ग्रहण करने का आग्रह करने लगा। मुनिराज ने झोली में से पात्र निकाला। सार्थवाह उत्कृष्ट भाव से पात्र में घी बहराने लगा, उसी समय एक देव ने उसकी उत्कृष्ट भावों की परीक्षा हेतु मुनिराज की दृष्टि बांध ली। मुनिराज का पात्र घी से भर, घी बाहर बहने लगा, फिर भी मना नहीं कर सके। सार्थवाह उत्कृष्ट भाव से बहराता ही रहा जिसके फलस्वरूप उन्हीं उत्कृष्ट परिणामों से उसने सम्यक्त्व की प्राप्ति की, वहां की आयु पूर्ण कर तीसरे भव में सौधर्म कल्प में देव बना। आयु पूर्णकर चौथे भव में महाविदेह की गन्धिलावती विजय के गान्धार देश की गंध समृद्धि नगरी के शतबल नामक विद्याधर राजा की चन्द्रकांता रानी की कुक्षि से पुत्र रूप में पैदा हुआ जिसका नाम `महाबल’ रखा गया। यौवनास्था में उसका विवाह सम्पन्न कर राजा शतबल ने महाबल का राज्याभिषेक कर दीक्षा ग्रहण कर ली। महाबल राजा अपने एक बाल साथी व चार प्रधानों के साथ नर्तकी द्वारा किये जा रहे नृत्य में आसक्त हो रहे थे, इधर स्वयंबुद्ध नामक मंत्री, जिसे यह ज्ञात हो चुका था कि जंघाचरण मुनि द्वारा महाबल की सिर्फ एक माह की उम्र शेष है, ने राजा के समक्ष यह बात निवेदित कर दी, इससे प्रतिबोधित होकर राजा महाबल उत्कृष्ट भाव से संयम ग्रहण करके २२ दिन के अनशन पूर्वक देह त्याग कर ५ वें भव में दुसरे देवलोक में श्रीप्रभ विमान के स्वामी ललितांग देव बने। इनकी प्रधान देवी स्वयंप्रभा थी। ज्ञानी महापुरूषों से मुनि महाबल के देवयोनि में जन्मादि विषयक रहस्य जानकर स्वयं बुद्ध मंत्री ने भी सिद्धाचार्य के पास दीक्षा ग्रहण कर ली। उत्कृष्ट आराधना के साथ आयु पूर्णकर मुनि स्वयंबुद्ध ईशानकल्प में देव बना, इधर ललितांग देव व स्वयं प्रभादेवी की आयु पुर्ण करके महाविदेह क्षेत्र की पुष्कलावती विजय में लोहार्दगल नगर के राजा स्वर्ण जंग की महारानी लक्ष्मी की कुक्षि से वङ्काजंग नाम के पुत्र व श्रीमती नामक पुत्री के रूप में उत्पन्न हुए। यौवनावस्था में श्रीमती ने एक देव विमान को देखा, उसे देखकर जातिस्मरण ज्ञान के माध्यम से वह अपने पूर्वभव के पति का स्मरण करने लगी। पूर्वभव के पति की गहरी स्मृतियों के फलस्वरूप उसने यह प्रतिज्ञा धारण कर ली कि जब तक वे उसे नहीं मिलेंगे तब तक वह किसी से नहीं बोलेगी, यह बात उसकी पंडिता नामक दासी ने जान ली। श्रीमती की सहायता करने हेतु दासी ने इशान कल्प के ललितांग देव के विमान का कुछ त्रुटिपूर्ण चित्र बनाकर राजपथ पर टांग दिया, जिसे देखते ही वङ्काजंग को भीजातिस्मरण ज्ञान हो गया और उसने उस चित्र में रही त्रुटि को दूर कर दिया। यह बात उनके पिता सवर्ण जंग को मालूम हुई तब उन्होंने दोनों की शादी कर दी। कुछ समय पश्चात् श्रीमती ने एक पुत्र को जन्म दिया। धीरे-धीरे पुत्र युवावस्था को प्राप्त होने लगा, उसको युवा होते देख रात्रि को दोनों ने उसको राज्य सौंप कर दीक्षा ग्रहण करने का विचार किया, उधर उसी रात्रि को पुत्र ने राज्य लोभ में विषाक्त धुँआ उनकेमहल में छोड़ दिया। फलत: दोनों ने शुभ परिणामों से अपनी आयु पूर्ण कर ७ वें भव में ३ पल्योपम की स्थिति वाले कुरूक्षेत्र के युगलिक रूप से जन्म लिया। वहां की आयु पूर्ण कर दोनों ने ८ वें भव में सौधर्म देवलोक में देव बने, वहां की आयु पूर्णकर ९ वें भव में वज्रजंग का जीव जंबूद्वीप के महाविदेह में क्षिति प्रतिष्ठित नगर के सुविधि वैद्य के यहां जीवानंद नामक पुत्र रूप में जन्म लिया और श्रीमती का जीव इसी नगर में श्रेष्ठि ईश्वरदत्त के पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ, जिसका नाम राव रखा गया। इसी काल में राजा ईशानचंद की रानी कनकवती के भी एक पुत्र हुआ, जिसका नाम महीधर रखा गया। राजा के मंत्री सुवासीर की पत्नी लक्ष्मी के सुबुद्धि नाम का पुत्र हुआ। सागरदत्त सार्थवाह की पत्नी अभागी के पुर्णचंद्र व धनश्रेष्ठि की पत्नी शीलवती के गुणकर पुत्र हुआ, पूर्वभव की प्रीति से सब में परस्पर मित्रता हो गई, यौवनवय में जीवानंद प्रसिद्ध वैद्य बन गया। एक दिन सभी मित्रों ने जंगल में घूमते हुए एक मुनि को ध्यानस्थ देखा। मुनि का शरीर भयंकर व्याधि से ग्रस्त था, इसे देखकर परस्पर उपचार का चिंतन करने लगे। वैद्य जीवानंद बोला-“भैया इनके उपचार हेतु अन्य औषध तो मेरे पास है पर रत्न कंबल और गोशीर्ष चंदन की आवश्यकता है। पांचोें मित्रों ने बाजार में खोज की तो एक श्रेष्ठी के यहां दोनों वस्तुएँ मिल गई। मुनिराज के उपचार की बात सुनकर सेठ ने दोनों चीजें बिना मूल्य लिये ही दे दी और खुद भी सेवा में जुट गया। उपचार करने पर मुनि पूर्णत: नीरोग हो गये। तत्पश्चात् मुनि के उपदेश से प्रभावित होकर सभी मित्रों ने उनसे संयम ग्रहण कर लिया औरवे सब अनुशासन पूर्वक आयु पूर्ण कर दसवें भव में अच्युत कल्प के इन्द्र के सामानिक देव हुए। वहां से जीवानंद का जीव ११वें भव में जंबू द्वीप के महाविदेह क्षेत्र में पुण्डरीकिणी नगरी के वङ्कासेन राजा की धारिणी रानी के गर्भ से १४ स्वप्न के साथ पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ, इसका नाम वङ्कानाभ रखा गया, शेष पांचों ने उनके लघुभ्राता रूप में जन्म लिया। वङ्कानाभ के युवा होने पर वङ्कासेन राजा ने उसका राज्याभिषेक कर स्वयं ने दीक्षा ग्रहण की और केवलज्ञान प्राप्ता fकया। वङ्कानाभ सम ्राट बना। छा ेट े भाई बाहु, सुबाहु, पीठ और महापीठ नामक मांडलिक राजा बनें। सुयश चक्रवर्ती का सारथी बना। पिता वङ्कासेन के उपदेश से प्रतिबोधित हो छहों ने संयम ग्रहण किया। वङ्कानाथ ने बीस बोलों की आराधना से तीर्थंकर गोत्र का उपार्जन किया और अपने साथियों के साथ आयु पूर्णकर सर्वार्थ सिद्ध नामक विमान में देव बनें। विगत चौबीसी के अंतिम तीर्थंकर संप्रति के निर्वाण होने के बाद १८ कोड़ाकोड़ी सागरोपम के बीतने पर भरत क्षेत्र में तीसरे आरे के ८४ लाख पूर्व ३ वर्ष साढ़े आठ महीने शेष रहने पर, सर्वार्थ सिद्ध विमान का आयु पूर्ण कर आषाढ़ कृष्ण चतुर्दशी को उत्तराषाढ़ा नक्षत्र से चंद्र का योग होते ही प्रभु ऋषभदेव का जीव वहां से चलकर नाभि कुलकर की पत्नी मरूदेवी के गर्भ मेंआया। माता मरूदेवी ने हाथी वृषभादि १४ दिव्य स्वप्न देखे। गर्भ में आने के ठीक नौ महीने साढ़े सात रात्रि व्यतीत होने पर चैत्र कृष्णा अष्टमी की रात्रि को उत्तराषाढ़ा नक्षत्र से चंद्रमा का योग होने पर प्रभू ने युगलरूप से जन्म लिया। ५६ दिक्कुमारियोें व शक्रेन्द्र आदि ६४ इन्द्रों ने जन्मोत्सव मनाया, यथासमय इनका नाम ऋषभ रखा गया। इन्द्र द्वारा प्रदत्त ‘इक्षु’ चूसने से इक्ष्वाकु कुल प्रचलित हुआ। अन्य युगलिकों द्वारा ‘काश’ का रस ग्रहण करने से काश्यप गोत्र चल पड़ा।

अहिंसा ही मानव धर्म है : तीर्थंकर महावीर

‘‘मधुरिमा कंठ में न होती तो शब्द विषपान बन गया होता।आस्था दिल में न होती तो हृदय पाषाण बन गया होता।प्रभू वीर से लेकर अब तक अगर ऐसा जिन धर्म न मिलतातो यह संसार वीरान बन गया होता’’ अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है। तीर्थंकर महावीर अहिंसा और अपरिग्रह की साक्षात मूर्ति थे। तीर्थंकर महावीर स्वामी ने हमें अहिंसा का पालन करते हुए, सत्य के पक्ष में रहते हुए, किसी के हक को मारे बिना, किसी को सताए बिना, अपनी मर्यादा में रहते हुए पवित्र मन से, लोभलालच किए बिना, नियम में बंधकर सुख-दुख में संयमभाव में रहते हुए, आकुल-व्याकुल हुए बिना, धर्म संगत कार्य करते हुए ‘मोक्ष पद’ पाने की ओर कदम बढाते हुए दुर्लभ जीवन को सार्थक बनाने का संदेश दिया, वे सभी के साथ समान भाव रखते थे और किसी को भी कोई दुःख नहीं देना चाहते थे, पंचशील सिध्दान्त के प्रवर्तक एवं जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी मूर्तिमान प्रतिक थे, जिस युग में हिंसा, पशुबलि, जात-पात के भेदभाव का बोलबाला था, उसी युग में महावीर ने जन्म लिया, उन्होंने दुनिया सत्य एव अहिंसा जैसे खास उपदेशों के माध्यम से सही राह दिखाने की कोशिश की, उन्होंने जो बोला सहज रूप से बोला, सरल एवं सुबोध शैली में बोला, सापेक्ष दृष्टि से स्पष्टिकरण करते हुए बोला, आपकी वाणी ने लोक हृदय को अपूर्व दिव्यता प्रदान की, आपका समवशरण जहाँ भी गया वह कल्याणधाम हो गया। तीर्थंकर महावीर ने प्राणीमात्र की हितैषिता एवं उनके कल्याण की दृष्टि से धर्म की व्याख्या की, आपने कहा ‘‘धम्मो मंगल मुक्किटठं, अहिंसा संजमा तवो’’ (धर्म उत्कृष्ट मंगल है, वह अहिंसा संयम तथा तप रूप है) एक धर्म ही रक्षा करने वाला है, धर्म के सिवाय संसार में कोई भी मनुष्यका रक्षक नहीं है। धर्म भावना से चेतना शुध्दिकरण होता है। धर्म से वृत्तियों का उन्नयन होता है। धर्म व्यक्ति के आचरण को पवित्र एवं शुध्द बनाता है। धर्म से सृष्टि के प्रति करूणा एवं अपनत्व की भावना उत्पन्न होती है, इसलिए तीर्थंकर महावीर ने कहा, “एगा धम्म पडिमा, जं से आयो पवज्जवजाए’’ अर्थात धर्म ऐसा पवित्र अनुष्ठान है जिससे आत्मा का शुध्दिकरण होता है। तीर्थंकर महावीर ने मानव भव दुर्लभता का वर्णन करते हुए गणधर गौतम से कहा था कि हे गौतम! सब प्राणियों के लिए चिरकाल में मनुष्य जन्म दुर्लभ है क्योंकि कर्मो का आवरण उतीव गहन है, अंततः इस भाव को पाकर एक क्षण के लिए भी प्रमाद तथा आलस नहीं करना चाहिए, अनेक गतियों और योनियों में भटकते जब जीव शुध्दि को प्राप्त करता है तब कहीं जाकर मनुष्य योनि प्राप्त होती है। तीर्थंकर महावीर का कहना था कि किसी आत्मा की सबसे बड़ी गलती अपने असली रूप को नहीं पहचानना है तथा यह केवल आत्मज्ञान प्राप्त कर ही ठीक की जा सकती है। मनुष्य को अपने जीवन में जो धारण करना चाहिए वही धर्म है, धारण करने योग्य क्या है? क्या हिंसा, क्रूरता, कठोरता, अपवित्रता, अहंकार, क्रोध, असत्य, असंयम, व्यभिचार, परिग्रह आदि विकार धारण करने योग्य है? यदि संसार का प्रत्येक व्यक्ति हिंसक हो जाए तो समाज का अस्तित्व ही समाप्त हा े जाएगा तथा सर्व त्र भय, अशा ां fत एव ं पाशविकता का साम्राज्य स्थापित हो जाएगा। संपूर्ण विश्व में एकमात्र ‘जैन धर्म’ ही इस बात में आस्था रखता है कि प्रत्येक आत्मा में परमात्मा बनने की शक्ति विद्यमान है अर्थात्म हावीर की तरह ही प्रत्येक व्यक्ति ‘जैन धर्म’ ज्ञान प्राप्त कर, उसमें सच्ची आस्था रख, उसके अनुसार आचरण कर बड़े पुण्योदय से उसे प्राप्त कर दुर्लभ मानव योनी का एकमात्र सच्चा व अंतिम सुख, संपूर्ण जीवन जन्म-मरण के बंधन से मुक्त होने वाले कर्म करते हुए मोक्ष महाफल पाने हेतु कदम बढ़ाना तथा उसे प्राप्त कर वी महावीर बन, दुर्लभ जीवन को सार्थक कर सकता है। महावीर ने कोई ग्रंथ नहीं लिखा उन्होंने जो उपदेश दिए, गणधरों ने उनका संकलन किया, वे संकलन ही शास्त्र बन गए, इनमें काल, लोक, जीव आदि के भेद–प्रभेदों का इतना विशुध्द एवं सूक्ष्म विवेचन है कि यह एक विश्व कोष का विषय नहीं अपितु ज्ञान विज्ञान की शाखाओं के अलग-अलग विश्व कोषों का समाहार है। आज के भौतिक युग में अशांत जन मानस को तीर्थंकर महावीर की पवित्र वाणी ही परम सुख और शांति प्रदान कर सकती है यदि आज संसार के लोग तीर्थंकर महावीर के अहिंसा परमो धर्म, अपरिग्रह और अनेकांतवाद को अपना लें तो प्रत्येक प्रकार की समस्याएं मिट सकती है, शांति स्थापित को सकती है और मानव सुखी रह सकता है।

इंडिया भारत कहलाएगा – मुनिश्री निरंजनसागर

सुप्रसिद्ध जैन सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर में संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रभावक शिष्य मुनिश्री निरंजनसागरजी महाराज ने महात्मा गांधीजी की पुण्यतिथि पर प्रवचन देते हुए कहा कि भारत आज तक अपने अस्तित्व को नहींपाया है, किसी भी देश की पहचान का प्रमुख अंग उसका नाम हैं, उसकी स्वयं की भाषा है, उसकी स्वयं की आहार शैली, उसकी अपनी वेशभूषा है, उसकी अपनी शिक्षा पद्धति है, उसकी अपनी औषध विद्या है, परंतु आज हम सभी आवश्यकताओं पर विदेशों पर निर्भर होते जा रहे हैं। आज का नवयुवक विदेशी जीवन शैली को अपनाने की होड़ में दौड़ रहा है। यह अंतहीन दौड़ हमें हमारे संस्कारों से हमारे देश से, हमारे धर्म से कोसों दूर करती जा रही है। आज का नवयुवक जो देश का भविष्य कहलाता है, स्वयं अपने भविष्य के बारे में चिंतन से रहित होकर मात्र वर्तमान की चकाचौंध भरी ऐसी जीवनशैली जी रहा है, जिसका कोई ओर-छोर नहीं है। उद्देश्य से भटका हुआ नवयुवक वर्ग ही ‘भारत’ की सबसे बड़ी समस्या है, मात्र गांधी जी के विचारों को अपनाकर ही हम इस विकट समस्या से मुक्ति पा सकते हैं। गांधीजी जैसा व्यक्तित्व कभी मरण को प्राप्त नहीं हो सकता है। गांधीजी आज भी ‘भारत’ की आत्मा में बसे हुए हैं। वर्तमान में राष्ट्रहित चिंतक आचार्य गुरुवर विद्यासागर जी महामुनिराज ने इंडिया नहीं ‘भारत’ बोलो, स्वदेशी रोजगार, भारतीय भाषा, भारतीय वस्त्र शैली, भारतीय औषध विज्ञान, भारतीय शिक्षा पद्धति, भारतीय कृषि का पुनरुत्थान आदि विषयों को अपने उपदेश का विषय बनाया और उनके प्रभावक राष्ट्र चिंतन से प्रभावित होकर एक बड़ा नवयुवक वर्ग उनके उपदेश को पूर्ण करने हेतु तत्पर हुआ, जिसका परिणाम यह है पूर्णायु औषधालय, प्रतिभास्थली विद्यापीठ, भाग्योदय चिकित्सालय, दयोदय गौशाला, श्रमदान हथकरखा केंद्र, शांतिधारा दुग्ध योजना आदि प्रकल्प आज भारतीयता को जीवंत कर हमें पूर्ण स्वदेशीयता के साथ सत्य और अहिंसा की पुनर्स्थापना करने में लगे हुए हैं। आज ऐसा लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब गांधी जी का भारत अपनी खोई हुई पहचान पुनः पा जाएगा और केवल ‘भारत’ ही कहा जाएगा।

तीर्थंकर महावीर का दिव्य संदेश

स्वयं जीयो और दूसरे को भी जीने दा तीर्थंकर महावीर स्वामी का जन्म कल्याणक ‘महावीर जयन्ती’ के नाम से भी प्रसिद्ध है।महावीर स्वामी का जन्म चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में हुआ था। ईस्वी कालगणना के अनुसार सोमवार, दिनांक २७ मार्च, ५९८ ईसा पूर्व के माँगलिक प्रभात में वैशाली के गणनायक राजा सिद्धार्थ के घर महावीर का जन्म हुआ था। महावीर स्वामी का तीर्थंकर के रुप में जन्म उनके पिछले अनेक जन्मों की सतत् साधना का परिणाम था, कहा जाता है कि एक समय महावीर का जीव पुरुरवा भील था, संयोगवश उसने सागरसेन नाम के मुनिराज के दर्शन किए, मुनिराज रास्ता भूल जाने के कारण उधर आ निकले थे। मुनिराज के धर्मोपदेश से उसने धर्म धारण किया। महावीर के जीवन की वास्तविक साधना का मार्ग यहीं से प्रारम्भ होता है, बीच में उन्हें कौन-कौन से मार्गों से जाना पड़ा, जीवन में क्या-क्या बाधाएँ आईं और किस प्रकार भटकना पड़ा? यह एक लम्बी और दिलचस्प कहानी है जो सन्मार्ग का अवलम्बन कर, जीवन के विकास की प्रेरणा देती है। महावीर स्वामी का जीवन हमें एक शान्त पथिक का जीवन लगता है जो कि संसार में भटकते-भटकते थक गया है। भोगों को अनन्त बार भोग लिये, फिर भी तृप्ति नहीं हुई, अत: भोगों से मन हट गया, अब किसी जीज की चाह नहीं रही, परकीय संयोगों से बहुत कुछ छुटकारा मिल गया, अब जो कुछ भी रह गया उससे भी छुटकारा पाकर, महावीर मुक्ति की राह देखने लगे। एक बार बालकों के साथ बहुत बड़े वटवृक्ष के ऊपर चढ़कर खेलते हुए वर्धमान के धैर्य की परीक्षा करने के लिए संगम नामक देव, भयंकर सर्प का रुप देख सभी बालक भाग गए, किन्तु वर्धमान इससे जरा भी विचलित नहीं हुए, वे निडर होकर वृक्ष से नीचे उतरे। संगमदेव उनके धैर्य और साहस को देखकर दंग रह गया, उसने अपना असली रुप धारण किया और महावीर स्वामी नाम की स्तुति कर चला गया। महान् पुरुषों का दर्शन ही संशयचित लोगों की शंकाओं का निवारण कर देता है। संजय और विजय नामक दो चारण ऋद्धिधारी देव थे, जिन्हें तत्त्व के विषय में कुछ शंका थी। कुमार वर्द्धमान को देखते ही उनकी शंका दूर हो गई, उन देव ने प्रसन्नचित हो कुमार का सन्मति नाम रखा। एक दिन ३० वर्ष का वह त्रिशलानन्दन कर्मों का बन्धन काटने के लिए तपस्या और आत्मचिन्तन में लीन रहने का विचार करने लगा, कुमार की विरक्ति का समाचार सुनकर माता-पिता को बहुत चिन्ता हुई। कलिंग के राजा जितशत्रु ने अपनी सुपुत्री यशोदा के साथ कुमार वर्द्धमान के विवाह का प्रस्ताव भेजा, उनके इस प्रस्ताव को सुनकर माता-पिता ने जो स्वप्न संजोए थे, आज वे स्वप्न उन्हें बिखरते हुए नजर आ रहे थे। वर्धमान को बहुत समझाया गया, अन्त में माता-पिता को मोक्षमार्ग की स्वीकृती देनी पड़ी। मुक्ति के राही को भोग जरा भी विचलित नहीं कर सके। मंगशिर कृष्ण दशमी सोमवार, २९ दिसम्बर ५६९ ईसा पूर्व को मुनिदीक्षा लेकर वर्द्धमान स्वामी ने शालवृक्ष के नीचे, तपस्या आरम्भ कर दी, उनकी तप साधना बड़ी कठिन थी।महावीर की साधना मौन साधना थी, जब तक उन्हें पूर्ण ज्ञान की उपलब्धि नहीं हो गई तब तक उन्होेंने किसी को उपदेश नहीं दिया। वैशाख शुक्ल दशमी, २६ अप्रैल, ५५७ ईसा पूर्व का वह दिन चिरस्मरणीय रहेगा जब त्रृम्बक नामक ग्राम में अपराह्न समय गौतम, उनके प्रमुख शिष्य (गणधर) हुए, उनकी धर्मसभा समवसरण कहलाई, इसमें मनुष्य, पशु-पक्षी आदि सभी प्राणी उपस्थित होकर धर्मोपदेश का लाभ लेते थे। लगभग ३० वर्ष तक उन्होंने सारे भारत में भ्रमण कर लोकभाषा प्राकृत में सदुपदेश दिया और कल्याण का मार्ग बतलाया, संसार-समुद्र से पार होने के लिए उन्होंने तीर्थ की रचना की, अत: वे तीर्थंकर कहलाए। आचार्य समन्तभद्र ने भगवान् के तीर्थ को सर्वोदय तीर्थ कहा है, व्यक्ति के हित के साथ-साथ महावीर के उपदेश में समष्टि के हित की बात भी निहित थी। उनका उपदेश मानवमात्र के लिए ही सीमित नहीं था, बल्कि प्राणिमात्र के हित की भावना उसमें निहित थी। महावीर! श्रमण परम्परा के उन व्यक्तियों में से एक थे जिन्होंने यह उद्घोष किया था कि हर प्राणी एक समान है। मनुष्य और क्षुद्र कीट-पतंग में आत्मा के अस्तित्व की अपेक्षा में कोई अन्तर नहीं, उस समय जबकि मनुष्य के बीच में भी दीवारें खड़ी हो रही थीं, किसी वर्ण के व्यक्ति को ऊँचा और किसी को नीचा बतलाकर, एक वर्ग विशेष का स्वत्वाधिकार कायम किया जा रहा था, उस समय मानवमात्र का प्राणिमात्र के प्रति समत्वभाव का उद्घोष करना, बहुत बड़े साहस की बात थी, तत्कालीन अन्य परम्परा के लोगों द्वारा इसका घोर विरोध हुआ, अन्त में सत्य की ही विजय हुई। करोड़ों-करोड़ों पशुओं और दीन-दु:खियों ने चैन की सांस ली। समाज में अहिंसा का महत्व पुर्नस्थापित हुआ। महावीर स्वामी ने नारा बुलन्द किया था कि प्रत्येक आत्मा परमात्मा बन सकती है, कर्मों के कारण आत्मा का असली स्वरुप अभिव्यक्त नहीं हो पाता। कर्मों को नाशकर शुद्ध, बुद्ध और सुखरुप स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार तीस वर्षों तक तत्त्व का भली-भाँति प्रचार करते हुए तीर्थंकर महावीरएक समय मल्लों की राजधानी पावा पहुँचे, वहाँ के उपवन में कार्तिक कृष्ण अमावस्या मंगलवार, १५ अक्टूबर, ५२७ ई.पू. को ७२ वर्ष की आयु में उन्होंने निर्वाण प्राप्त कर लिया।