आचार्यश्री महाश्रमणजी का संक्षिप्त जीवन परिचय

जन्म : वि.सं.२०१९, वैशाख शुक्ला नवमी
(१३ मई १९६२) सरदारशहर
जन्म नाम : मोहनलाल दुगड़
पिता : स्व श्री झूमरमलजी दुगड़
माता : स्व.श्रीमती नेमादेवी दुगड़
दीक्षा : वि.सं.२०३१ वैशाख शुक्ला चतुर्दशी
(५ मई १९७४) सरदारशहर
(आचार्य तुलसी की अनुज्ञा से
मुनि सुमेरमलजी
‘लाडनूं’ द्वारा)
अन्तरंग सहयोगी : वि.सं.२०४२, माघ शुक्ला सप्तमी
(१६ फरवरी १९८६) उदयपुर
साझपति : वि.सं.२०४३, वैशाख शुक्ला चतुर्थी
(१३ मई १९८६) ब्यावर
महाश्रमण पद : वि.सं.२०४६, भाद्रव शुक्ला नवमी
(९ सितम्बर १९८९) लाडनूं
युवाचार्य पर : वि.सं.२०५४, भाद्रव शुक्ला द्वादशी
(१४ सितम्बर १९९७) गंगाशहर
आचार्य पदाभिषेक : वि.सं.२०६७, द्वितीय वैशाख शुक्ला दशमी
(२३ मई २०१०) सरदारशहर
महातपस्वी : वि.सं.२०६४, भाद्रपद शुक्ला पंचमी
(१७ सितम्बर २००७) उदयपुर
शान्तिदूत : वि.सं.२०६८, ज्येष्ठ कृष्ण द्वादशी
(२९ मई २०११) उदयपुर
श्रमण संस्कृति उद्गाता : वि.सं.२०६९, आश्विन कृष्णा चतुदर्शी
(१४ अक्टूबर २०१२) जसोल
अिंहसा यात्रा शुभारम्भ : २०७१, मार्गशीर्ष बदी तृतीया
(९ नवम्बर २०१४) दिल्ली से
प्रथम विदेश यात्रा : वि.सं.२०७२, चैत्र शुक्ला एकादशी
(३१ मार्च २०१५) वीरगंज (नेपाल)
प्रकाशित पुस्तकें : आओ हम जीना सीखें, दु:ख मुक्ति का मार्ग,
क्या कहता है जैन वाड्.मय,
संवाद भगवान से (भाग-१, २), शिक्षा सुधा,
शेमुषी, मेरे गीत,धम्मो मंगलमुक्किंट्ठं,
महात्मा महाप्रज्ञ, सुखी बनो, संपन्न बनो,
विजयी बनो, रोज की एक सलाह,
शिलान्यास धर्म का, अदृश्य हो गया महासूर्य….

जिसमें आसमान को छूने का जज्बा होता है, जमीन भी उसकी हो जाती है, वस्तुत: जो व्यक्ति कुछ होने की तमन्ना रखता है, कुछ कर गुजरने का हौसला रखता है, वह एक दिन अवश्य ही अपने भाग्य, बुद्धि और परिश्रम के बलबुते पर जनमानस के मानचित्र पर सफल व्यक्तित्व के रूप में उभर जाता है। विलक्षण कर्त्तृत्व और विशिष्ट व्यक्तित्व के धनी आचार्य महाश्रमण का जन्म वि.सं. २०१९ वैशाख शुक्ला ९ (१३ मई १९६२) रविवार को ‘सरदाशहर’ में हुआ।
‘सरदारशहर’ राजस्थान का एक प्रमुख क्षेत्र है। गांधी विद्या मंदिर की स्थापना के बाद यह नगर राजस्थान के शैक्षणिक मानचित्र पर उभरकर आ गया, यहां अनेक आकर्षक दर्शनीय स्थल हैं। सरदारशहर तेरापंथ धर्मसंघ के अनेक ऐतिहासिक प्रसंगों का केन्द्र-बिन्दु रहा है, यहां की आबादी एक लाख से भी ज्यादा है।
पारिवारिक पृष्ठभूमि : ‘सरदारशहर’ में दूगड़ जाति के परिवार सबसे अधिक हैं, अनेक गांवों से आकर यहां बसने वाले दूगड़ परिवारों में एक परिवार है श्रीमान झूूमरमलजी दूगड़ का, उनके पूर्वज ‘मेहरी’ गांव से आकर बसे थे इसलिए वे मेहरी वाले ‘दूगड़’ कहलाने लगे। श्री झूमरमलजी दूगड़ के दस सन्तानें हुई-सात पुत्र और तीन पुत्रियां। उस समय ‘माता’ (चेचक) एक असाध्य बीमारी थी, उस लाइलाज बीमारी से ग्रस्त एक पुत्र और एक पुत्री का अल्पवय में ही स्वर्गवास हो गया। श्री झूमरमलजी जोरहाट (असम) में रहते थे, उनका हार्डवेयर का व्यवसाय था, वे सहज, सरल, शांत स्वभावी और ईमानदार व्यक्ति थे। पन्द्रह-बीस मिनट तक नवकार महामंत्र का जाप करना उनका नित्यक्रम था।
मानव जीवन की मूल्यवत्ता को समझने वाली और उसे निपुणता से जीने वाली श्रीमती नेमादेवी दूगड़ विवेक-सम्पन्न, व्यवहार-कुशल और समझदार महिला थी, वे अपने दायित्व के प्रति पूर्ण जागरूक थी। संघ और संघपति के प्रति उनमें गहरी श्रद्धा थी। उनका भाषा-विवेक गजब का था। जीवन के सन्ध्याकाल में उनको पक्षाघात हो गया, उस समय अनेक लोग उनसे मिलने आते। एक दिन एक भाई ने पूछा-‘माजी! आपको तो बहुत गर्व होता होगा कि मेरा बेटा युवाचार्य है।’ उन्होंने तत्काल कहा- ‘मैं इस बात का गर्व नहीं करती कि बेटा युवाचार्य है पर मुझे इस बात का गौरव अवश्य है कि बेटा संघ की सेवा कर रहा है।’
बातें बचपन की : मोहन बचपन से ही प्रतिभा सम्पन्न था, उसमें गहरी सूझबूझ ग्रहणशीलता और प्रशासनिक योग्यता प्रारंभ से ही थी, उसने जैसे ही अपनी उम्र के पांच वर्ष संपन्न किए, राजेन्द्र विद्यालय में प्रवेश किया। लगभग साढ़े पांच वर्ष तक इसी स्कूल में अध्ययन किया, उस समय स्कूल के प्रधानाध्यापक श्री रेवतमलजी भाटी थे। मोहन ने स्कूल जाने से पहले ही वर्णमाला और कुछ पहाड़े सीख लिए थे। तीसरी, चौथी और पाचवीं कक्षा में वह कक्षा-प्रतिनिधि (मोनिटर) के रूप में निर्वाचित हुआ, तीनों कक्षाओं में गणित और सामान्य विज्ञान में विशेष योग्यता प्राप्त की और कक्षा तीसरी और पाचवांr में प्रथम स्थान भी प्राप्त किया। तीसरी कक्षा में खेलकूद/सांस्कृतिक प्रतियोगिता के अंतर्गत उपस्थिति में भी प्रथम स्थान प्राप्त किया। अनेक धार्मिक व अन्य प्रतियोगिताओं में भी वह प्राय: प्रथम रहता। मोहन अपनी कक्षा के दो-तीन मेधावी छात्रों में से एक था, वह अध्ययन में होशियार था तो लड़ाई-झगड़े में भी कम नहीं था। मोहन बचपन से बहुत ही चंचल था। घर में अनेक बच्चे थे। भाई-भतीजों के साथ लड़ाई-झगड़ा चलता रहता। छुट्टियों के दिनों में तो उसका अधिकांश समय खेलकूद में ही व्यतीत होता। कभी-कभी जब माँ परेशान होकर बच्चों को पकड़ने के लिए उठती तक मोहन का छोटा भाई तो घर से बाहर दौड़ जाता और मोहन पकड़ा जाता। मां जैसे ही चपत लगाने लगती, मोहन कहता- ‘माँ! आपके ही हाथों में लगेगी।’ यह सुनते ही माँ का हाथ वहीं रूक जाता और वह मार खाने से बच जाता।
मोहन की खेलने में भी अच्छी रूचि थी। कबड्डी, कांच के गोले, सतोलिया, छुपाछुपी आदि उसके प्रिय खेल थे। खेलकुद प्रतियोगिताओं में वह प्राय: भाग लेता था।
प्रहर रात्रि के बाद : एक बार प्रवास में मुनिश्री सुमेरमलजी के साथ मुनिश्री सोहनलालजी (चाड़वास), मुनिश्री पूनमचंदजी (श्रीडूंगरगढ़), मुनिश्री रोशनलालजी (सरदारशहर) थे। मोहन मुनिश्री सोहनलालजी के निर्देशन में अध्ययनरत रहा। विद्यार्थियों को सिखाने-पढ़ाने में मुनिश्री सोहनलालजी की कला बेजोड़ थी, वे केवल सिखाते ही नहीं थे, वैराग्य के संस्कार भी देते थे, आप धर्मसंघ के एक श्रेष्ठ कलाकार, स्वाध्यायशील और आचारनिष्ठ सन्त थे, आपने मोहन को तत्त्वज्ञान के अनेक थोकड़े कंठस्थ करा दिए, जैसे-पचीस बोल, तेरहद्वार, बासठिया, बावन-बोल, गतागत, पाना की चर्चा, लघुदण्डक तथा थोकड़ों में अन्तिम थोकड़ा माना जाने वाला ‘गमा’ भी कंठस्थ करा दिया, आचार्य भिक्षु के ‘दान-दया’ के सिद्धांत से भी मोहन को अवगत कराया। मोहन घंटों-घंटों तक मुनिश्री सोहनलालजी के पास अध्ययन करता, कंठस्थ ज्ञान का पुनरावर्तन करता और तात्त्विक चर्चा करता। मोहन का उनके प्रति लगाव जैसा हो गया, जब कभी वे अस्वस्थ हो जाते तो मोहन का किसी भी कार्य में मन नहीं लगता और तो क्या, भोजन करने में भी मन नहीं लगता, जब वह खाना खाने घर आता तब मां से कहता- ‘मां! आज जल्दी खाना डाल दो, मुझे अभी वापस जाना है, आज हमारे ‘बापजी’ ठीक नहीं है।’
मुनिश्री रोशनलालजी वैरागियों के परिवार वालों से संपर्क करने तथा वैरागियों की देखभाल रखने में बड़े दक्ष थे, मोहन उनके संपर्क करने तथा वैरागियों की देखभाल रखने में बड़े दक्ष हो गए। मोहन उनके संपर्क में भी बहुत रहा, वे गोचरी के लिए पधारते तब मोहन प्राय: उनके साथ रहता, रास्ते में सेवा करता।
मुनिजन मोहन को यदा-कदा दीक्षा लेने के लिए प्रेरित करते रहते। मुनिश्री सुमेरमलजी ने भी मोहन को कई बार दीक्षा लेने के लिए कहा पर मोहन हमेशा एक अच्छा श्रावक की बात कहता रहा।
जल उठा दीप : वि.सं. २०३० भाद्रव शुक्ला षष्ठी। अष्टमाचार्य पूज्य कालूगणी का महाप्रयाण दिवस। मुनिश्री सुमेरमलजी ने कहा – ‘मोहन! आज तुम्हें एक निर्णय कर लेना चाहिए कि गृहस्थ जीवन में रहना है या साधु बनना है।’
मुनिश्री के निर्देशानुसार मोहन गधैयाजी के नोहरे में एकान्त स्थान में जाकर बैठ गया। सर्वप्रथम पूज्य कालूगणी की माला फेरी, फिर चिन्तन करने लगा –
‘मेरे सामने दो मार्ग हैं – एक साधुत्व का और दूसरा गृहस्थ का। साधु मार्ग में सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, केशलुंचन, पदविहार आदि स्थिति-जनित कष्ट हो सकते हैं। दूसरी ओर गृहस्थ जीवन में भी अनेक प्रकार की चिन्ताएं आदमी को सताती रहती हैं, जैसे- व्यापार में घाटा लग जाना, सन्तान का अनुकूल न होना, पति-पत्नी में से किसी एक का छोटी अवस्था में चले जाना, अन्य अनेक पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभाना आदि, जब दोनों ओर कष्ट हैं तो मुझे कौन सा मार्ग स्वीकार करना चाहिए’?
तभी दिमाग में एक बात बिजली-सी कौंध गई कि कष्ट तो दोनों तरफ हैं, जहां साधु जीवन के कष्ट मुझे मोक्ष की ओर ले जाने वाले होंगे, वहीं गृहस्थ-जीवन के कष्ट मुझे अधोगति की ओर ले जा सकते हैं, यदि मैं जागरूकतापूर्वक संयम का पालन करâंगा तो मुझे पन्द्रह भवों में मुक्ति मिल जाएगी।’ बस, भीतर में जल उठे इस चिन्तन के दीप ने मोहन को साधु बनने के लिए कृतसंकल्प बना दिया, उसने वहीं बैठे-बैठे जीवन-पर्यन्त शादी करने तक का त्याग कर लिया।
आज्ञा प्राप्ति के प्रयत्न : मनुष्य के जीवन में ज्वारभाटा जैसा उतार-चढ़ाव आता रहता है जो व्यक्ति ज्वर को पकड़ लेता है, वह सौभाग्य की ड्योढी पर पहुंच जाता है और जो चूक जाता है, वह भाटे के दलदल में फंस जाता है। मोहन ने अपने भीतर उठते ज्वार को पकड़ा और सौभाग्य की ड्योढी पर पहुंच गया। मोहन ने जीवन में भावुकता में बहकर कोई निर्णय नहीं लिया। बहुत चिन्तन-मनन के बाद उसने अपने जीवन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण निर्णय लिया कि मुझे साधु बनना है।
तेरापंथ की दीक्षा मात्र स्वयं की इच्छा से ही नहीं हो सकती, परिवार की स्वीकृति भी अनिवार्य होती है। मोहन ने स्वीकृति-प्राप्ति के लिए प्रयास प्रारंभ किया। पिताश्री झूमरमलजी दूगड़ का तो स्वर्गवास हो चुका था। मोहन ने मां से कहा- ‘माँ! मुझे दीक्षा लेनी है इसलिए आपकी आज्ञा चाहिए।’
माँ ने कहा- ‘मोहन! मैं इस बारे में कुछ नहीं कहूंगी, सुजानमल जो कहेगा, वही होगा।’
उस समय श्री सुजानमलजी दूगड़ परिवार के मुखिया एवं संरक्षक थे, वे एक समझदार, निर्णयक्षम और प्रामाणिकतानिष्ठ व्यक्ति थे। परिवार में उनका अच्छा अनुशासन था, उस समय सुजानमलजी जोरहाट गए हुए थे, मोहन ने उनके नाम एक लम्बा-चौड़ा पत्र लिखा, जिसमें दीक्षा के लिए अनुमति मांगी गई। सुजानमलजी ने प्रत्युत्तर में लिखा – ‘दिक्षा के बारे में मैं अभी कुछ नहीं कह सकता, सरदारशहर आने पर ही बात हो सकेगी।’ मार्गशीर्ष महीने में वे सरदारशहर आए। घर में दीक्षा के संदर्भ में बात हुई, तब सुजानमलजी ने साफ इनकार कर दिया, जब मोहन को स्वीकृति नहीं मिली तो उसने अनुमति नहीं मिलने तक तीव्र द्रव्य से अधिक खाने का त्याग कर दिया, यह क्रम कई दिनों तक चला किन्तु आज्ञा नहीं मिली, तब एक दिन मोहन ने साहस बटोरकर कहा – ‘भाईजी! यदि आप मुझे दीक्षा के लिए स्वीकृति नहीं देंगे तो मैं आपके घर में नहीं रहूंगा।’
सुजानमलजी – ‘घर से बाहर जाने पर भी तुम्हें दीक्षा तो मिलेगी नहीं।’
मोहन – ‘कोई बात नहीं।’
सुजानमलजी – ‘फिर तू खाना कहां खाएगा?’
मोहन – ‘मैं घरों से मांग-मांगकर भोजन कर लूंगा किन्तु आपके घर में नहीं रहूंगा।’
यह कहकर मोहन घर से चला गया, उसके जाने के बाद माँ ने कहा- ‘सुजान! कहीं भावावेश में आकर मोहन कोई गलत काम कर लेगा तो हमेशा के लिए हमारी आंखों से ओझल हो जाएगा, इससे तो अच्छा है कि तुम उसे दीक्षा की आज्ञा दे दो ताकि वह हमारी आंखों के सामने तो रहेगा।’
विनीत पुत्र ने मां की आज्ञा को शिरोधार्य किया, जब सायंकाल सूर्यास्त से कुछ समय पहले मोहन अपनी पुस्तकें, आसन आदि लेने के लिए घर आया तब मां ने कहा – ‘मोहन! ऐसा करने से दीक्षा की आज्ञा नहीं मिलेगी। पहले खाना खा लो फिर भाईजी से अच्छी तरह बात कर लेना।’ मोहन ने भी माँ की आज्ञा को शिरोधार्य किया। खाना खाने के बाद भाईजी से बातचीत की। भाईजी ने कहा -‘आषाढ़ महीने के बाद जब तुम्हारी इच्छा हो, मैं दीक्षा दिलवाने के लिए तैयार हूं।’ मोहन को आज्ञा मिल गई। मां की आज्ञा तो भाईजी की अनुमति में ही निहित थी। उस दिन मोहन की प्रसन्नता का कोई पार नहीं था। वह तत्काल मुनिश्री के पास गया और सारी बात निवेदित की, उन दिनों मोहन ने पूज्य गुरूदेव तुलसी को एक पत्र लिखा, वह अविकल रूप में इस प्रकार है-
परमपूज्य परमपिता मेरे ह्य्दयदेव युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी के चरणों में कोटि-कोटि वन्दना।
गुरूदेव!
पहली म्हारा भाईजी दीक्षा लेणै वास्तै मनै स्वीकृति कोनी दी, अब आपकी कृपा तथा सन्तां की प्रेरणा स्यूं मां और भाईजी कुछ महीना ठहरकर दीक्षा लेणै की स्वीकृति दे दी।
गुरूदेव! मैं आपकी कृपा स्यूं तथा मुनिश्री सोहनलालजी की कृपा तथा मेहनत स्यूं इण चौमासै में कई थोकड़ा सीख्या हूं, जिकामें-पाना कर चरचा, तेरहद्वार, लघुदण्डक, गतागत, बावनबोल, बासठियो, अल्पाबोहत, विचारबोध, जैन तत्त्व प्रदेश (प्रथम भाग), कर्म प्रकृति पहली सीखी हूँ।
गुरूदेव! आपवैâ श्री चरणां में म्हारी आ ही प्रार्थना है कि बीच का चार-पांच महीना ८की म्हारै अन्तराय है, आ पूरी हुंता ही गुरूदेव मनै जल्दी स्यूं जल्दी दीक्षा दिरासी।
आपका सुविनीत
शिष्य मोहन
प्रसंगोपात्त एक दिन : मुनिश्री सुमेरमलजी ने दीक्षा का मुहूर्त्त देखा और वैशाख महीना श्रेष्ठ बताया, किन्तु भाईजी की स्वीकृति तो आषाढ़ महीने के बाद के लिए प्राप्त थी। मुनिश्री ने उनसे कहा- आपको दीक्षा तो देनी ही है फिर आषाढ़ के बाद दें या वैशाख में दें, क्या फर्क पड़ेगा? मात्र दो-तीन महीनों के लिए अच्छे मुहूर्त्त को क्यों टाला जाए? तब सुजानमलजी ने कहा – ‘गुरूदेव और आप जब उचित समझें, इसको दीक्षा दे सकते हैं, मेरी ओर से स्वीकृति है।’
मोहन के साथ हीरालाल बैद, बजरंग बरडिया और तेजकरण दूगड़ भी वैरागी थे। मोहनलाल और हीरालाल को तो परिवार की ओर से अनुमति मिल गई किन्तु बजरंग और तेजकरण को पारिवारिक स्वीकृति नहीं मिली, वे साधु तो नहीं बने किन्तु आज वे अच्छे श्रावक अवश्य हैं।
इस दौरान मोहन का परीक्षण भी किया गया परन्तु वह हर परीक्षा में स्वर्ण की भांति खरा उतरा। उस समय गुरूदेव तुलसी का प्रवास अणुव्रत-भवन, दिल्ली में था। मर्यादा-महोत्सव का अवसर था, मोहन अपने परिवार के साथ गुरूदर्शन के लिए दिल्ली पहुंचा।
वि.सं. २०३० माघ शुक्ला अष्टमी को प्रवचन के समय उसने एक वक्तव्य दिया, वह इस प्रकार है-
अपनी बात : ‘परमाराध्य प्रात: स्मरणीय ह्य्दयसम्राट युगप्रधान आचार्यश्री के श्रीचरणों में कोटी-कोटी वन्दना!
उपस्थित साधु-साध्वीवृंद! बुजुर्गों! माताओं!
आप लोग सोच रहे होंगे यह बच्चा क्यों खड़ा हुआ है? क्या कहने जा रहा है और क्या चाहता है? मेरी चाह भौतिक नहीं, आध्यात्मिक है। मेरा कथन उपदेश नहीं, निवेदन है। प्रार्थना है वह भी किसी भौतिक वस्तु के लिए नहीं, चारित्र के लिए है। साधु बनने की आकांक्षा मन में लेकर ही मैं आज यहां खड़ा हुआ हूं। आप लोग सोच रहे होंगे कि यह बच्चा है, यह साधुत्व को क्या समझेगा? जब मैं ऐसी बात किसी से सुनता हूं तो मुझे उसकी बुद्धि पर तरस आता है, ह्य्दय करूणा से भर जाता है। सोचता हूं इन लोगों ने धर्म को समझा या नहीं, आत्मा को जाना या नहीं। अगर जाना है तो केवल मेरे शरीर से ही मेरा अंकन क्यों करते हैं? साधुत्व आत्मा की वस्तु है या शरीर की? याद रखें, धर्म आत्मा की वस्तु है, क्या मेरी आत्मा आपसे छोटी है? क्या कोई आत्मवादी ऐसा कह सकता है? शरीर से ही जो व्यक्ति छोटे-बड़े का अंकन करते हैं वे केवल हाड़-मांस और चमड़ी देखने वाले हैं।
एक कहानी मुझे याद आती है, जो मैंने सन्तों से ही सुनी है।
अष्टावक्रजी को आत्मचर्या के लिए राज्यसभा से निमंत्रण मिला। निश्चित समय पर अष्टावक्रजी राज्यसभा में पहुंचे, सभाभवन पण्डितों से भरा हुआ था, ज्योंही अष्टावक्रजी ने सभाभव्ान में प्रवेश किया, पण्डित लोग उनके शरीर को देखकर खिलखिलाकर हंस पड़े। आठ जगह से उनका शरीर टेढ़ा-मेढ़ा था। सारा भवन हंसी से गूंज उठा। अष्टावक्रजी ने राजा से कहा- ‘राजन्! यहां पण्डित कौन है? ये सब तो चमार ही चमार हैं, किससे चर्चा करूं?’
विस्मितमना राजा ने कहा -‘अष्टावक्र! ऐसे वैâसे बोल रहे हो? देखो, सब सामने पण्डित ही पण्डित बैठे हैं।’ अष्टावक्र- ‘पण्डित कहां है राजन्! पण्डित लोग आत्म चर्चा में लीन रहते हैं और चमार लोग चमड़ी तथा हड्डियों की परिक्षा में लीन रहते हैं, ये सब मेरे शरीर को देखकर हंस रहे हैं इसलिए पंडित कहां हैं? हंसने वाले पण्डितों पर चपत-सी लग गई।
अब आपसे ही पूछूं -‘जो मेरे को छोटा बतलाते हैं, उन्हें क्या कहूं? आप सोचते होंगे, यह साधुत्व के नियम वैâसे निभाएगा? अतिमुक्तक मुनि ने वैâसे निभाया था? गजसुकुमाल मुनि ने वैâसे कष्ट सहे? परीषह आत्मबल से ही सहा जाता है।’
अस्तु, पूज्य गुरूदेव! मेरी ओर ध्यान दें, इस बच्चे का भविष्य आपकी दृष्टि पर निर्भर है, कृपा करके प्रतिक्रमण सीखने का आदेश तो अभी फरमाएं।
प्रवचन के दौरान पूज्य गुरूदेव ने मोहन से ऐसे प्रश्न पूछे-
‘बोलो वैरागीजी! आश्रव किसे कहते हैं?’ प्रवचन-संपन्नता के बाद गुरूदेव अणुव्रत-भवन में ऊपर पधार रहे थे, प्रथम मंजिल की सीढ़ियों के बीच पूज्यप्रवर कुछ क्षण रूके और वहीं मोहन को प्रतिक्रमण सीखने का आदेश फरमा दिया। मोहन का रोम-रोम खिल उठा, वह अपने परिवार के साथ पुन: सरदारशहर आ गया।
दीक्षा दिल्ली में या सरदारशहर में : प्रतिक्रमण आदेश के बाद पूज्यप्रवर ने चिन्तन किया कि दीक्षा कहां हो, दिल्ली में या सरदारशहर में? उन दिनों ट्रेनों की हड़ताल चल रही थी और मोहन की अवस्था भी छोटी थी। मात्र बारह वर्ष के बालक की दीक्षा दिल्ली शहर में होना आलोचना का विषय बन सकता था। मोहन के परिवार की भी यही इच्छा थी कि दीक्षा सरदारशहर में ही हो, इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए आचार्यवर ने फरमाया – ‘मोहनलाल और हीरालाल की दीक्षा वि.सं. २०३१ वैशाख शुक्ला चतुर्दशी को सरदारशहर में ही शिष्य मुनि सुमेर (लाडनूं) के सानिध्य में हो सकेगी।
दीक्षा-तिथि की घोषणा के बाद घर में मोहन का विशेष ध्यान रखा जाता, उसकी इच्छापूर्ति का प्रयास किया जाता। मोहन की मौसी श्रीमती झूमादेवी नखत कोलकाता में रहती थी, वह मोहन के लिए घड़ी लेकर आई। मोहन को घड़ी का बहुत शौक था, वह अपने हाथ पर घड़ी बांधकर सबको बार-बार दिखाता, उस समय तक बच्चों के हाथ पर घड़ी बंधी हुई बहुत कम देखने को मिलती थी। दीक्षा के बाद भी कई दिनों तक घड़ी देखने के लिए मोहन अपने हाथ को देखता, फिर याद आता कि अब मैं साधु बन गया हूँ।
सौभाग्य की सौगात : वि.सं. २०३१ वैशाख शुक्ला चतुवर्दशी (५ मई १९७४) का सुप्रभात मोहन के लिए सौभाग्य की सौगात लेकर आया, वह प्रात: लगभग चार बजे ही मुनिश्री के पास पहुंच गया। मुनिश्री ने फरमाया- ‘मोहन! आज इतनी जल्दी आ गया?’ मोहन ने कहा – ‘मुनिप्रवर! आज तो मेरे लिए सोने का सूरज उगा है, मैं बहुत सौभाग्यशाली हूं कि आज मुझे आपके करकमलों से दीक्षित होने का सुअवसर मिलेगा।’
गधैयाजी का नोहरा! हजारों लोगों की उपस्थिति। लम्बे व भव्य जुलूस के साथ दोनों वैरागी श्री समवसरण में पहुंचे, अनेक लोगों ने उनके भावी जीवन के प्रति मंगल भावनाएं व्यक्त कीं। मोहन के ज्येष्ठ भ्राता अमरचन्दजी दूगड़ ने आज्ञा पत्र का वाचन किया। मोहन ने भी छोटा-सा वक्तव्य दिया। कार्यक्रम के दौरान गुरूदेव तुलसी द्वारा प्रदत्त संदेश का वाचन किया गया, उसका कुछ अंश इस प्रकार है-
‘जैन मुनि की चर्या कठिन है, यह बात सही है। तेरापंथी जैन मुनियों की चर्या और अधिक कठिन है, इस चर्या में पांच महाव्रतों की स्वीकृति के साथ जीवनभर गुरू के चरणों में समर्पित रहना, प्रत्येक काम उनके निर्देश से करना, संघीय व्यवस्थाओं का ह्य्दय से पालन करना आदि ऐसे विधान हैं जो व्यक्ति को चारों ओर से थाम लेते हैं, फिर भी उसमें रम जाने के बाद वे कठिनाइयां सहज बन जाती हैं, आनन्दप्रद लगने लगती हैं।
भविष्यवाणी रेखाशास्त्री की:
दीक्षा से कुछ दिन पूर्व सरदारशहर के कार्यकर्ता रेखाशास्त्री अध्यापक छगनजी मिश्रा को मुनिश्री सुमेरमलजी के पास लेकर आए, उन्होंने मुनिश्री के हाथ और पैर की रेखाएं देखीं और कहा- आप दो बालकों को छह महीने के भीतर-भीतर दीक्षा देंगे, उसी समय उन्होंने मोहन के भी हाथ व पैर की रेखाएं देखीं और कहा- यह बालक आपकी (मुनिश्री की) विद्यमानता में ही धर्मसंघ में सर्वोपरि स्थान प्राप्त करेगा, दोनों ही भविष्यवाणी शत प्रतिशत सच हो गई।
विलक्षण मेधा:
जिस दिन दीक्षा स्वीकार की उसी दिन उन्होंने ‘दसवेआलियं सूत्र’ कंठस्थ करना प्रारंभ कर दिया, ‘सात सौ अनुष्टुप श्लोक प्रमाण दसवेआलियं’ सूत्र को मात्र चालीस दिनों में अर्थसहित कंठस्थ कर लिया।
मुनि मुदितकुमारजी का प्रथम चतुर्मास सरदारशहर में हुआ, उस चातुर्मास में उन्होंने कुछ दिनों तक उपदेश प्राक वक्तव्य दिया, उनका प्रथम उपदेश दसवें आलियं सूत्र के प्रथम अध्ययन ‘दुमपुप्फिया’ पर आधारित था।
दीक्षा के कुछ दिनों बाद ही सरदारशहर के प्रबुद्ध प्रशिक्षक श्रावक श्री भंवरलालजी बैद से मुनि हेमंतकुमारजी और मुनि मुदितकुमारजी ने अंग्रेजी भाषा का अध्ययन करना प्रारंभ कर दिया। मात्र ६ महीनों में ही मुनिद्वय की प्रबुद्धता से बहुत प्रभावित हुए, उन्होंने अनेक बार मुनिश्री सुमेरमलजी से कहा- इतने ग्रहणशील विद्यार्थी मुझे पहली बार मिले हैं, श्री भंवरलालजी तेरापंथ धर्मसंघ के श्रद्धानिष्ठ और समर्पित श्रावक थे, वे अंग्रेजी और संस्कृत भाषा के अधिकृत विद्वान, कुशल अध्यापक, आयुर्वेद के ज्ञाता एवं चिकित्सक भी थे।
ज्ञान और साधना:
दीक्षा के बाद तीसरा चातुर्मास गुरूदेव तुलसी के साथ सरदारशहर में किया, उस समय वे संघ परामर्शक मुनिश्री मधुकरजी के साथ ग्रुप में रहे फिर चौथा एवं पांचवां चातुर्मास मुनिश्री रूपचंदजी सरदारशहर के साथ जयपुर और दिल्ली में किया, इन २ चातुर्मासों में मुनिश्री रूपचंदजी की प्रेरणा व मुनिश्री मानककुमारजी के श्रम से मुनि मुदितकुमारजी ने संस्कृत भाषा का अच्छा अध्ययन किया, इससे पूर्व मुनिश्री सुमेरमलजी उन्हें संस्कृत साहित्य पढ़ाते। पण्डित रामकुमारजी संस्कृत व्याकरण कालुकौमुदी की साधनिका कराते, कुछ ही वर्षों में उन्होंने संस्कृत भाषा का गंभीर अध्ययन कर लिया, वे संस्कृत में धाराप्रवाह बोलने लगे और लिखने भी लगे। अध्ययनकाल के दौरान मुनि मुदितकुमारजी ने संस्कृत भाषा में कुछ कहानियां लिखीं, जिन्हें आज हम ‘शेमुषी’ नामक ग्रंथ में पढ़ सकते हैं।
एक महत्वपूर्ण साहसिक निर्णय मुनि मुदितकुमारजी पूज्यप्रवर के मार्गदर्शन में निरंतर गति-प्रगति करते रहे, उनकी प्रज्ञा की पारदर्शिता निखरती गई, वे हर क्षेत्र में आगे बढ़ते गए, साधना के पथ में आने वाली कठिनाइयों को साहस के साथ झेलते गए और सफलता के परचम फहराते गए। सचमुच,
मुश्किल-भरे दिनों में जिसका साहस बरकरार रहता है, वही व्यक्ति कुछ कर गुजरने की काबिलियत रखता है। सन् १९७९ का प्रसंग है, मुनि मुदितकुमारजी, मुनिश्री रूपचंदजी के साथ अशोक विहार दिल्ली में प्रवास कर रहे थे, उस समय युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ का भी अणुव्रत भवन, दिल्ली में प्रवास हो रहा था। एक दिन अपराह्न में मुनिश्री रूपचंदजी ने मुनि मुदितकुमारजी से कहा -मैं इस संघ से अलग होने जा रहा हूँ, तुम अपना चिंतन कर लो कि तुम्हें कहां रहना है? हमारे साथ चलना है या यहीं (संघ में) रहना है।
बालमुनि मुदितकुमारजी ने तत्काल कहा- ‘मैं तो संघ में ही रहूँगा’ मुनिश्री रूपचंदजी ने बड़ी शालीनता के साथ कहा- ‘तुम चिंता मत करना’ हम तुम्हें युवाचार्यश्री के पास पहुंचा देंगे, दूसरे दिन मुनिश्री रूपचंदजी आदि संत अशोक विहार से विहार कर सी.सी. कॉलोनी आए, उधर युवाचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने मुनिश्री सुमेरमलजी ‘सुदर्शन’ सुजानगढ़ और मुनिश्री महेन्द्रकुमारजी (मुंबई) को मुनि मुदितकुमारजी के पास भेजा, अगले दिन मुनिश्री रूपचंदजी आदि संत सदर बाजार में सुराणा धर्मशाला में प्रवास कर रहे थे, उस दिन दैनिक पत्र में खबर आई कि मुनि रूपचंदजी ने तेरापंथ संघ से त्यागपत्र दे दिया। मुनि रूपचंदजी और मुनि मानककुमारजी संघ से अलग हो गए। मुनि अशोककुमारजी (बैंगलोर) कुछ दिन पहले ही अलग हो चुके थे, तब मुनिश्री सुमेरमलजी ‘सुदर्शन’ मुनि मुदितकुमारजी आए और पूछा- ‘मूनि रूपचंदजी आदि दोनों संत संघ से अलग हो गए हैं अब तुम्हारी क्या इच्छा है? बालमुनि ने कहा- ‘‘मैं तो संघ में ही रहूंगा’’।
कृतज्ञता ज्ञापन और खमतखामणा के बाद मुनि मुदितकुमारजी ने मुनिश्री सुमेरमलजी के साथ वहां से प्रस्थान कर दिया। मध्याह्न में वे अणुव्रत भवन पहुंच गए, जहां युवाचार्यवर विराजमान थे। मुनिश्री महेन्द्रकुमारजी ने निवेदन किया- ‘युवाचार्यश्री!’ मुदित मुनि ने अच्छा परिचय दिया है। युवाचार्यप्रवर ने फरमाया- ‘यह तो मुझे विश्वास ही था’ उन दिनों गुरूदेव तुलसी पंजाब में प्रवास कर रहे थे।
वहां से भी एक संदेश आया, उसमें लिखा था- ‘मुनि मुदितकुमार ने जो शासनभक्ति का परिचय दिया है, उससे मैं गदगद हूँ।’ उसके अध्ययन और साधना की समुचित व्यवस्था की जाए, सचमुच जिस समूह में चार सदस्य हों और चारों में परस्पर अच्छा सामंजस्य और सौहार्द हो, उस समूह के मुखिया सहित तीन सदस्यों का निर्णय एक हो और सबसे छोटे ‘चौथे’ सदस्य का निर्णय भिन्न हो तो बहुत कठिनाई हो सकती है किन्तु मुनि मुदितकुमारजी ने साहस, धैर्य और विजन के साथ अपने भविष्य का निर्णय लिया।
सच है, प्रवाह के विपरीत बहना संघर्ष और खतरों से खाली नहीं होता किंतु यह भी उतना ही सत्य है कि कोई साहसिक कदम ही प्रतिस्त्रोतगामी बन सकता है। मुनि मुदितकुमारजी की संघनिष्ठा ने आचार्यश्री तुलसी और युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ के मन में एक नया विश्वास जगा दिया। बालमुनि के इस निर्णय ने पूज्यवरों के दिल में एक अमिट छाप छोड़ दी, उस समय आपकी उम्र मात्र सत्रह वर्ष थी किंतु पूज्यप्रवरों की पारखी आंखें आप में तेरापंथ का शुभ भविष्य देखने लगी।
३० अगस्त २००१ को स्वयं आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने कहा –
‘सन १९७९ में मैं दिल्ली में था, उस समय हमारे संघ के कुछ साधु पृथक हो गए, ये (महाश्रमण) पृथक होने वाले साधुओं के साथ थे पर इन्होंने अपना स्पष्ट निर्णय दिया कि मुझे तो संघ में ही रहना है, उस घटना ने मुझे पहली बार आकृष्ट किया, मैंने बाद में गुरूदेव से निवेदन किया कि इतनी छोटी अवस्था में भी इनमें जो संघनिष्ठा, आचारनिष्ठा है, वह उल्लेखनीय है। हमें इनकी ओर ध्यान देना चाहिए, उसके बाद तो मेरे और गुरूदेव के बीच इनको लेकर बातचीत होती रहती, धीरे-धीरे हर संघीय कार्य से भी जोड़ लिया गया।
सेवा का सुअवसर वि. सं. २०४१ ज्येष्ठ कृष्णा अष्टमी (१३ मई १९८४) को लाडनूं में गुरूदेव तुलसी ने मुनि मुदितकुमारजी से पूछा- तुम क्या काम कर सकते हो?’ मुनि मुदितकुमारजी- जो गुरूदेव फरमाएंगे।
गुरूदेव तुलसी- आज तक हारी पंचमी समिति की पात्री मुनि मधुकरजी रखते थे, अब से तुम रखा करो।
इस निर्देश के साथ ही मुनि मुदितकुमारजी गुरूदेव तुलसी की व्यक्तिगत सेवा में निुयुक्त हो गए, तेरापंथ धर्मसंघ में इस नियुक्ति का विशेष महत्व है, इससे अनायास ही निकटता से गुरूसेवा का अलभ्य अवसर प्राप्त हो जाता है।
लगभग बारह वर्षों तक मुनि मुदितकुमारजी को पूज्यवर की पात्र-वहन सेवा का सौभाग्य प्राप्त हुआ, इस दायित्व का उन्होंने बड़े अहोभाव व जागरूकता के साथ निर्वाह किया, उस दिन से वे स्थायी रूप से गुरूकुलवासी बन गए।
अंतरंग सहयोगी:
वि.सं. २०४२ माघ शुक्ला सप्तमी (१६ फरवरी १९८६) मर्यादा-महोत्सव का अवसर, उदयपुर का विशाल प्रवचन पण्डाल, गुरूदेव तुलसी ने मुनि मुदितकुमारजी को युवाचार्य महाप्रज्ञ के अंतरंग सहयोगी के रूप में नियुक्त करते हुए कहा- ‘संघ’ में बहुआयामी प्रवृत्तियों को देखकर लगता है कि हमारे युवाचार्य महाप्रज्ञ को भी किसी सहयोगी की अपेक्षा है इसलिए आज मैं मुनि मुदित को अंतरंग सहयोगी के रूप में नियुक्त करता हूँ इस नियुक्ति के साथ ही वे संघ के व्यवस्था पक्ष से जुड़ गए, दायित्व बढ़ गया और कार्यक्षेत्र भी विस्तृत हो गया, इससे पूर्व मात्र आत्मकेंद्रित थे, अपने आपमें मस्त थे, व्यस्त थे, अंतरंग सहयोगी बनने के बाद आपकी सोच का दायरा बहुत विशाल हो गया, सबके विकास के बारे में सोचने लगे, व्यक्तित्व उभरकर सामने आने लगा।
साझपति:
वि. सं. २०४३, वैशाख शुक्ला चतुर्थी (२३ मई १९८६) की रात्रि ब्यावर का तेरापंथ भवन, गुरूदेव तुलसी ने साधु सभा के मध्य मुनि मुदितकुमारजी को साझपति (ग्रुप लीडर) बनाया। मुनि ऋषभकुमारजी को सहयोगी के रूप में तथा शैक्षमुनि धर्मेशकुमारजी को आपके संरक्षण में रखा गया।
अनौत्सुक्य का दिग्दर्शन:
सन् १९८७ का प्रसंग, पूज्य गुरूदेव तुलसी का प्रवास अणुव्रत भवन, दिल्ली में हो रहा था। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी पूज्यप्रवर से मिलने आए, प्राय: सभी संत उन्हें देखने और सुनने के लिए एकत्रित हो गए किंतु मुनि मुदितकुमारजी अपने कक्ष में अनौत्सुक्य भाव से कार्य करते रहे।
महाश्रमण
वि.सं. २०४६ भाद्रपद शुक्ला नवमी (६ सितम्बर १९८९)।
योगक्षेम वर्ष का आयोजन। लाडनूं, जैनविश्वभारती में सुधर्मा सभा का प्रांगण। गुरूदेव तुलसी का ५४वॉ पदारोहण दिवस। उल्लासमय वातावरण में चतुर्विध धर्मसंघ अपने आराध्य को वर्धापित कर रहा था, अचानक आचार्यवर ने अपने पट्टोत्सव को नया मोड़ देते हुए कहा-
तेरापंथ धर्मसंघ में अनेक विलक्षण कार्य हुए हैं, उनके विलक्षणताओं में मैं एक और नया कार्य करना चाहता हूँ। आज मैं मुनि मुदित को ‘महाश्रमण’ के पद पर नियुक्त करता हूँ, यह पद धर्मसंघ में कार्यकारी, नए दायित्वों से परिपूर्ण और चिरंजीवी रहेगा, इस घोषणा के पश्चात आचार्यवर ने मुनि मुदितकुमारजी को नियुक्ति पत्र प्रदान किया।
भाषा इस प्रकार रही:
अध्यात्मनिष्ठा, साधना, शिक्षा, सेवा, विनम्रता, संघनिष्ठा, गंभीरता आदि विशेषताओं को ध्यान में रखकर मैं मुनि मुदितकुमार को ‘महाश्रमण’ के पद पर नियुक्त करता हूँ। धर्मसंघ में युवाचार्य के बाद इसका स्थान रहेगा। यह युवाचार्य के कार्य में सतत सहयोगी रहेगा। युवाचार्य की तरह साध्वियों, समणियों को पढ़ाना इसके कार्यक्षेत्र में रहेगा। आहार- पानी समुच्चय में होगा। सब प्रकार के विभागीय कार्यों तथा संघीय बोझ की पाती से मुक्त रहेगा।
युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ ने नव मनोनीत महाश्रमण को शुभाशीष देते हुए कहा- महाश्रमण आचार्यवर का इतना विश्वास प्राप्त कर सका, मेरे मन को भी जीत सका और हमारी सन्निधि प्राप्त कर सका, उसके लिए मैं शुभाशंसा करता हूँ कि वह इस कार्य के लिए अपनी अर्हता और ओजस्विता को और अधिक प्रकट करे तथा धर्मसंघ की अधिकाधिक सेवा करे।
महाश्रमण बनने के बाद युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ के हर कार्य में सहयोगी बन गए। चाहे चिन्तन गोष्ठियां हों या अन्य कोई कार्य, सबमें आपकी सहभागिता रहने लगी। प्राय: हर कार्यों में आपकी उपस्थिति अनिवार्य सी प्रतीत होने लगी।
क्या हम ही करते रहेंगे
सामान्यत: साध्वियों-समणियों का अध्यापनकार्य आचार्य/युवाचार्य ही करते हैं किंतु महाश्रमण की नियुक्ति के बाद यह कार्य भी आपके ही जिम्मे आ गया। एक दिन गुरूदेव तुलसी ने महाश्रमण मुनि मुदितकुमारजी को समणियों एवं मुमुक्षु बहनों को उच्चारण शुद्धि की दृष्टि से विशेष प्रशिक्षण देने का निर्देश दिया। निवेदन किया। – गुरूदेव! यह कार्य आपश्री की सन्निधि में ही चले तो ठीक रहेगा, गुरूदेव ने कहा- क्या हमेशा हम ही करते रहेंगे। आगे तो तुम्हें ही करना है इसलिए तुम ही उन्हें अभ्यास कराओ।
एक प्रयोग, एक परीक्षण:
महाश्रमण मुनि मुदितकुमारजी प्रारंभ से ही आत्मकेन्द्रित थे किंतु जब आप महाश्रमण बन गए और शास्ता की निगाहें शुभ भविष्य देखने लगीं, उस स्थिति में यह आवश्यक हो गया कि आपका सम्पर्क क्षेत्र व्यापक बने। जनता महाश्रमणजी की क्षमता से परिचित हो और महाश्रमणजी को भी कुछ सीखने, समझने और जानने का अवसर प्राप्त हो, इन कई बिन्दुओं को ध्यान में रखते हुए गुरूदेव तुलसी ने आपको स्वतंत्र यात्रा कराने पर विचार किया।
यात्रा मुनि जीवन का एक अभिन्न अंग होता है, एक जैन मुनि चातुर्मास के अतिरिक्त आठ महीनों तक प्राय: भ्रमणशील रहता है, यात्राएं करता है, इससे धर्म प्रभावना तथा संघ प्रभावना होती है और व्यक्तिगत अनुभव और जनसंपर्क भी बढ़ता है। महाश्रमण बनने के बाद गुरूदेव तुलसी ने आपको अपनी जन्मभूमि सरदारशहर की यात्रा करने का निर्देश दिया।
महाश्रमण पर्याय की, वह उनकी प्रथम स्वतंत्र यात्रा थी। लगभग अड़तालीस दिनों की प्रभावशाली यात्रा संपन्न कर उन्होंने छोटी खाटू में गुरूदेव के दर्शन किए। युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ ने उनकी अगवानी की और स्वयं आचार्यवर ने पट्ट से नीचे उतरकर उनको अपने हृदय से लगा लिया। अपने योग्य शिष्य की सार्थक और सफल यात्रा से पूज्यप्रवर बहुत प्रसन्न थे।
कार्यक्रम के दौरान युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ ने कहा ‘आचार्यश्री’ महाज्योति हैं, उनकी एक रश्मि, एक किरण कुछ समय के लिए गई और आज पुन: मिल गई। आचार्यवर बहुत दूरदर्शी हैं, उनके हर कार्य के पीछे एक विशेष चिन्तन होता है, इस यात्रा के पीछे भी उनका एक उद्देश्य था।
गुरूदेव तुलसी ने कहा-
महाश्रमण मुनि मुदितकुमार थली संभाग में अपनी सात सप्ताह की यात्रा सम्पन्न कर खाटु पहुंच गया, उसे विशेष रूप से सरदारशहर के लिए भेजा गया था, आज वापिस आ गया। महाश्रमण का महत्व बढ़ा है, बढ़ाया गया है, किसी को अखरा नहीं, सबने हमारी परख को सराहा है, यात्रा एक दर्पण है, इसमें व्यक्ति के व्यक्तित्व का चित्र सामने आ जाता है। सरदारशहर के लोग तो इस यात्रा से महाश्रमण को स्वयं अपने आपको समझने-समझाने का मौका मिला और मुझे भी इसे निरखने-परखने का अवसर मिला।
पुन: महाश्रमण पद पर
वि.स. २०५१ माघ शुक्ला षष्ठी, ५ फरवरी १९९५ का दिन, दिल्ली में समायोजित आचार्य महाप्रज्ञ का पदाभिषेक समारोह, आचार्यश्री तुलसी ने नौ वर्ष पहले मुनि मुदितकुमारजी को युवाचार्य महाप्रज्ञ का अंतरंग सहयोगी बनाया और लगभग साढ़े पांच वर्ष पहले महाश्रमण पद पर प्रतिष्ठित किया, चूंकि अब युवाचार्य महाप्रज्ञ आचार्य बन गए, इसलिए गणाधिपति गुरूदेव तुलसी ने मुनि मुदितकुमारजी को आचार्य महाप्रज्ञ के अंतरंग सहयोगी के रूप में पुन: महाश्रमण पद पर प्रतिष्ठित किया, वह नियुक्ति पत्र इस प्रकार है-
अर्हम्
महाश्रमण मुनि मुदितकुमारजी आचार्य महाप्रज्ञ के गण संचालन के कार्य में सतत सहयोगी रहे तथा स्वयं गण-संचालन की योग्यता विकसित करे, इसके लिए अवशेष जो करणीय है, वह उचित समय पर आचार्य महाप्रज्ञ करेंगे।
संवत २०५१, माघ शुक्ला ६
– गणाधिपति तुलसी
मनोनयन युवाचार्य का
तेरापंथ धर्मसंघ एक आचार्य केंद्रित धर्मसंघ है, यहां किसी का चुनाव नहीं होता, आचार्य स्वयं अपने उत्तराधिकारी का मनोनयन करते हैं, इसमें किसी साधु-साध्वी या श्रावक समाज से सलाह-मशविरा नहीं किया जाता। आचार्य चाहे तो किसी से परामर्श ले सकते हैं अन्यथा अपने चिंतन के आधार पर ही इस कार्य को संपादित करते हैं, यह कार्य प्रकट नियुक्ति के द्वारा भी हो सकता है और प्रच्छन्न लिखित पत्र के आधार पर भी किया जा सकता है। तेरापंथ संघ में दोनों विधियों का प्रयोग होता रहा है, आचार्य जिसका नाम लिख देते हैं अथवा घोषित कर देते हैं, वह व्यक्ति संघ के लिए सिरमौर बन जाता है। आचार्य श्री के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण कार्य होता है- योग्य उत्तराधिकारी का मनोनयन करना, जब तक भावी व्यवस्था नहीं होती है तब तक आचार्य के सिर पर संघ का ऋण रहता है। तेरापंथ के दशम अधिशास्ता आचार्य महाप्रज्ञ बहुत जल्दी ही इस ऋण से मुक्त हो गए।
वि.स. २०५४ में पूज्यप्रवर का प्रवास गंगाशहर में हो रहा था, सब कुछ सामान्य चल रहा था किन्तु अचानक कुछ अकल्पित घटित हो गया। आषाढ़ कृष्णा तृतीया के दिन देखते अकस्मात गुरूदेव तुलसी की आंखें खुल गई, स्पन्दन बंद हो गया और शरीर निश्चेष्ट हो गया। गुरूदेव के महाप्रयाण के बाईस दिनों के बाद आषाढ़ शुक्ला दशमी, १५ जुलाई १९९७ को आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने यह घोषणा की-
आगामी भाद्रव शुक्ला द्वादशी सावंत २०५४ दिनांक १४ सितम्बर १९९७ रविवार को मैं अपने उत्तराधिकारी/ युवाचार्य के नाम की घोषणा करूंगा, इस घोषणा के बाद सबके मन में एक ही जिज्ञासा उठ रही थी कि कौन होगा तेरापंथ का भावी भाग्यविधाता? ज्यों-ज्यों समय नजदीक आया, गंगाशहर में जन-सैलाब उमड़ने लगा।
वि.स. २०५४ भाद्रव शुक्ला द्वादशी १४, सितम्बर १९९७ का दिन। चौपड़ा हाई स्कूल में निर्मित विशाल प्रवचन पण्डाल। लाखों लोगों की उपस्थिति। जैसे ही घड़ी ने ११ बजकर २१ मिनट की सूचना दी, आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने कहा-
आओ, मुनि मुदितकुमार! यह सुनते ही जयनिनादों से आकाश गूंज उठा, एक साथ उठे लाखों हाथों ने इस नाम का समर्थन किया, ऐसे अभूतपूर्व दृश्य को देखकर सब धन्यता का अनुभव कर रहे थे। आचार्य महाप्रज्ञ ने कहा- ‘जिस समय्ा दिल्ली में गुरूदेव ने मेरा पदाभिषेक किया, उस समय महाश्रमण मुदितकुमार को प्रदत्त पत्र में लिखा था- इसके लिए अवशेष जो करणीय है वह उचित समय पर आचार्य महाप्रज्ञ करेंगे, मुझे हर्ष है कि गुरूदेव का जो इंगित था, आज मैंने उसे क्रियान्वित कर दिया।
वि.स.२०५३ कार्तिक कृष्णा अमावस्या। दीपावली के दिन आचार्यप्रवर ने गुरूदेव तुलसी की प्रत्यक्ष साक्षी में एक नियुक्ति पत्र लिखा था, उसका परिषद् के बीच वाचन किया गया और नव मनोनीत युवाचार्य के हाथों में थमा दिया गया। १० सितम्बर १९९७ को युवाचार्य नियुक्ति के संदर्भ में एक और नियुक्ति पत्र लिखा गया जो कि इस प्रकार है-
तेरापंथ भवन, गंगाशहर, वि.सं २०५४,
भा. शु. ८, बुधवार,१०-९-९७
अर्हम
ॐ नमो भगवते ऋषभाय
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय
ॐ नमो भगवते महावीराय
श्री भिक्षु, भारीमल, ऋषिराय, जयाचार्य, मघवा, माणक, डालचंद, कालू, तुलसी गुरूभ्यो नम:
मैं तरापंथ के दशम आचार्य के दायित्व का निर्वाह कर रहा हूँ, अब मैं अनुभव कर रहा हूँ कि मुझे आचार्य के सर्वोत्तम और सबसे अधिक महत्वपूर्ण कर्त्तव्य का अनुपालन करना चाहिए। तेरापंथ धर्म संघ, भिक्षुशासन की गुरू-परम्परा को अक्षुण्ण रखने के लिए अपने उत्तराधिकारी की नियुक्ति करनी चाहिए, मैं मेरे परम आराध्य गुरूदेव तुलसी के साक्ष्य से मुनि मुदितकुमार को अपने उत्तराधिकारी के रूप में युवाचार्य पद पर नियुक्त करता हूँ। मुझे विश्वास है कि यह अध्यात्मनिष्ठा, अनुशासन, विनम्रता और आचारनिष्ठा के साथ भिक्षु शासन की गरिमा को बढ़ाता रहेगा।

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