जैन एकता के प्रवर्तक आचार्य देवेश श्री ऋषभचन्द्र सूरीश्वरजी
भारत अपनी अध्यात्म प्रधान संस्कृति से विश्रुत था, किन्तु आज इसने ‘जगद्गुरु’ होने की पहचान खोयी तो खोयी हुई पहचान को पुन: प्राप्त करने एवं अध्यात्म के तेजस्वी स्वरूप को पाने के लिये अनेक संत मनीषी अपनी साधना, अपने त्याग, अपने कार्यक्रमों से प्रयासरत रहे हैं, ताकि जनता के मन में ‘अध्यात्म’ एवं धर्म के प्रति आकर्षण रह सके। अध्यात्म ही एक ऐसा तत्व है, जिसको उज्जीवित और पुनर्प्रतिष्ठित कर ‘भारत’ अपने खोए गौरव को पुन: प्रस्थापित रख सकता है, इस महनीय कार्य में एक थे ज्योतिष सम्राट के नाम से चर्चित मुनिप्रवर श्री ऋषभचन्द्र विजयजी, आप महान् तपोधनी, शांतमूर्ति, परोपकारी संत थे, जिन्होंने संसार की असारत का बोध बताया, संयम जीवन का सार समझाया एवं मानवता के उपवन को महकाया और ‘जैन एकता’ के अभियान को बुलंद किया। मुनि श्री ऋषभचन्द्रजी का जन्म ज्येष्ठ सुदी ७, संवत २०१४ दिनांक ४ जून १९५७ को सियाना (राजस्थान) में हुआ, आपके पिता का नाम शा.श्री मगराजजी तथा माता का नाम श्रीमती रत्नावती था, बचपन का नाम मोहनकुमार था। आपकी माताश्री एवं भ्राता भी दीक्षित होकर संयममय जीवन जी रहे हैं एवं माता संयम जीवन में तपस्वीरत्ना श्री पीयूषलताश्री एवं भ्राता आचार्यदेवेश श्री रवीन्द्रसूरीश्वरजी, आपकी दीक्षा द्वितीय ज्येष्ठ सुदी १०, दिनांक २३ जून १९८०, श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ (म.प्र.)में जैन धर्म परंपरा के प्रेरक आचार्य ऋषभचंद सुरीश्वरजी ही इनके भीतर था, शून्य जुड़ते गए और संख्या की समृद्धअक्षय बनती गई। ऋषभचंद्र विजयजी का अतीत सृजनशील सफर का साक्षी है, इसके हर पड़ाव पर शिशु-सी सहजता, युवा-सी तेजस्विता, प्रौढ़-सी विवेकशीलता और वृद्ध-सी अनुभवप्रवणता के पदचिन्ह हैं जो हमारे लिए सही दिशा में मील के पत्थर बनते हैं। आपकी तेजस्विता और तपस्विता की ऊंची मीनार, जिसकी बुनियाद में जीए गए अनुभूत सत्यों का इतिहास संकलित है, जो साक्षी है सतत अध्यवसाय और पुरुषार्थ की कर्मचेतना का, परिणाम है तर्क और बुद्धि की समन्वयात्मक ज्ञान चेतना का और उदाहरण है निष्ठा तथा निष्काम भाव चेतना का। आपकी करुणा में सह-अस्तित्व का भाव था, निष्पक्षता में सबके प्रति गहरा विश्वास है। न्याय प्रवणता में सूक्ष्म अन्वेषणा के साथ व्यक्ति की गलतियों के परिष्कार की मुख्य भूमिका, सापेक्ष चिंतन में अहं, आग्रह, विरोध और विवाद का अभाव, विकास की यात्रा में सबके अभ्युदय की अभीप्सा, उनकी मूल प्रवृत्ति में रचनात्मकता और जुझारूपन, आप अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जूझते रहे अपनों से भी, परायों से भी और कई बार खुद से भी, इस जुनून में आपने मान-अपमान की भी परवाह नहीं की, सिद्धांतों को साकार रूप देने की रचनात्मक प्रवृत्ति के कारण मुनियों के लिए ज्यादा करणीय माने जाने कार्यों की अपेक्षा जीवदया, मानव सेवा व तीर्थ विकास में रूचि आचार्यदेवेश श्री विद्याचंद्र सूरीश्वरजी ‘पथिक’ के करकमलों से हुई। आपने अपने गुरु से जैन दर्शन के साथ-साथ विशेषत: अध्ययन व्याकरण, न्याय, आगम, वास्तु, ज्योतिष, मंत्र विज्ञान, आयुर्वेद, शिल्प आदि का गहन अध्ययन किया, आपने ४० से अधिक पुस्तकें लिखी, जिसमें अभिधान राजेन्द्र कोष (हिन्दी संस्करण) प्रथम भाग, अध्यात्म का समाधान (तत्वज्ञान), धर्मपुत्र (दादा गुरुदेव का जीवन वृत्त), पुण्यपुरुष, सफलता के सूत्र (प्रवचन), सुनयना, बोलती शिलाएं, कहानी किस्मत की, देवताओं के देश में, चुभन (उपन्यास), सोचकर जिओ, अध्यात्म नीति वचन (निबंध) आदि मुख्य हैं। मुनिश्री ऋषभचंद्रविजयजी का जन्म और जीवन दोनों विशिष्ट अर्हताओं से जुड़ा दर्शन रहा जिसे जब भी पढ़ेंगे, सुनेंगे, कहेंगे, लिखेंगे और समझेंगे तब यह प्रशस्ति नहीं, प्रेरणा और पूजा का मुकाम बना रहेगा, क्योंकि ऋषभचंद्र विजय जी किसी व्यक्ति का नाम नहीं, पद नहीं, उपाधि नहीं, अलंकरण भी नहीं, यह तो विनय और विवेक की समन्विति का आदर्श है, श्रद्धा और समर्पण की संस्कृति है, प्रज्ञा और पुरुषार्थ की प्रयोगशाला है, आशीष और अनुग्रह की फलश्रुति है, व्यक्तिगत निर्माण की रचनात्मक शैली है और अनुभूत सत्य की स्वस्थ प्रस्तुति है, यह वह सफर था, जिधर से भी गुजरता है उजाले बांटता हुआ आगे बढ़ता ही जाता है, कहा जा सकता है कि निर्माण की प्रक्रिया में इकाई का अस्तित्व जन्म से ज्यादा परिलक्षित होती है। जीवदया व मानवसेवा के कई प्रकल्प आपने चला रखे थे। मन्दिरों के निर्माण एवं जीर्णोद्धार के द्वारा न केवल जैन संस्कृति, बल्कि भारतीय संस्कृति सुदृढ़ करते रहे। गौरक्षा एवं गौसेवा के प्रेरक रहे। गौशालाओं के साथ-साथ गौ-कल्याण के अनेक उपक्रम संचालित करते रहे। संवेदना एवं संतुलित समाज रचना के संकल्प के चलते आपके ‘मोहनखेड़ा तीर्थ’ पर गरीब एवं आदिवासी बच्चों के लिए विद्यालय भी संचालित रखा, जहां आज सैकड़ों विद्यार्थी ज्ञानार्जन कर रहे हैं। नेत्र, विकलांगता, नशामुक्ति, कटे हुए (कुरूप) होंठ, कुष्ठ, मंदबुद्धि निवारण आदि के विशिष्ट सेवा प्रकल्प आपके नेतृत्व में संचालित होते रहे, अपने गुरु के हॉस्पिटल, गौशाला एवं गुरुकुल आदि के सपनों को आकार देने में जुटे रहते, आपने पांच करोड़ की लागत से श्री महावीर पवित्र सरोवर को निर्मित कर जन आवश्यकता की पूर्ति की, अलौकिक, अनुपम एवं विलक्षण जैन संस्कृति पार्क को निर्मित कर आपने अपनी मौलिक सोच का परिचय दिया, जगह-जगह मन्दिरों का निर्माण, तीर्थ यात्राएं निकालना, कार सेवा एवं तीर्थशुद्धि एवं स्वच्छता अभियान तीर्थों की स्थापना आदि अनेक अद्भुत एवं संस्कृति प्रभावना के कार्य आपने करवाए, आपमें निर्माण की वृत्ति व शक्ति भी थी। राजगढ़ का मानव सेवा हॉस्पिटल, मोहनखेड़ा का नेत्र चिकित्सालय, सहकारी सोसायटियां, अनेक मंदिर व गौशालाएं इसी वृत्ति व शक्ति का परिचायक है, आप कार्य के प्रति अपनी लगन को दूसरे में भी उतार देते और दूसरे ही पल उनकी शक्ति बन जाते थे। मुनि श्री ऋषभचन्द्र विजयजी के बारे में लिखना मेरे लिये सौभाग्य का सूचक है, आपके उदार और व्यापक दृष्टिकोण का ही प्रभाव है कि आज किसी भी जाति, वर्ग, धर्म, समुदाय या संप्रदाय से जुड़ा व्यक्ति, वह चाहे प्रबुद्ध हो या अप्रबुद्ध आपके करीब आता, पूरे चाव से पढ़ता, सुनता और आपके कार्यक्रमों का सहभागी बन जाता। आपका व्यक्तित्व और कर्तृत्व इक्कीसवीं सदी के क्षितिज पर पूरी तरह छाया रहा। आपके प्रकल्पों, विचारों व प्रवचनों में कोरी आदर्शवादिता या सिद्धांतवादिता के दर्शन ही नहीं, प्रयोग सिद्ध वैज्ञानिक स्वरूप उपलब्ध होता था। अपने ज्ञान गर्भित प्रवचनों व साहित्य के माध्यम से आध्यात्मिक एवं नैतिक क्रांति का शंखनाद आपने किया, आप धर्म को रूढ़िया परंपरा के रूप में स्वीकार नहीं करते, धार्मिक आराधना-उपासना से व्यक्ति की जीवनशैली और वृत्तियों में बदलाव लाते थे, समग्र जीवनदर्शन का निचोड़ भी यही है, ऐसे महान् संत का एक आचार्य के रूप में पदाभिषेक होना एक शुभ भविष्य की आहट बनी। विश्व-क्षितिज पर अशांति की काली छाया, रक्तपात, मारकाट की त्रासदी, मानवीय चेतना का दम घुट रहा है, कारण चाहे राजनीतिक हो या सामाजिक, आर्थिक हो या धार्मिक, कश्मीर का आतंकवाद हो या सांप्रदायिक ज्वालामुखी, तलाक का मसला हो या राष्ट्रगीत गाये जाने पर आपत्ति, भारत को दो नामों से बोला जाना ‘इंडिया व भारत’, भारत की कोई भी राष्ट्रभाषा को घोषित ना होना, ऐसी ही अन्य दर्दनाक घटनाएं, हिंसा एवं संकीर्णता की पराकाष्ठा, आर्थिक असंतुलन, जातीय संघर्ष, मानसिक तनाव, छुआछूत आदि राष्ट्र की मुख्य समस्याएं मुंह बाए खड़ी थी, जन-मानस चाहता था, अंधेरों से रोशनी में प्रस्थान। अशांति में शांति की प्रतिष्ठा किंतु दिशा दर्शन कौन दे? यह अभाव-सा प्रतीत हो रहा था, ऐसी स्थिति में मुनि श्री ऋषभ का अहिंसक जीवन और विविध मानवतावादी उपक्रम ही वस्तुत: मानव-मानव के दिलो-दिमाग पर पड़े संत्रास के घावों पर मरहम का-सा चमत्कार करने की संभावनाओं को उजागर करते, आप आचार्य बनकर मानव को उन्नत जीवन की ओर अग्रसर करने का भगीरथ प्रयत्न किया। मुनि श्री ऋषभचन्द्र विजयजी का व्यक्तित्व बुद्धिबल, आत्मबल, भक्तिबल, कीर्तिबल और वाग्बल का विलक्षण समवाय है। दृढ़-इच्छाशक्ति, आग्नेय संकल्प, पुरुषार्थ और पराक्रम के द्वारा आपने उपलब्धियों के अनेक शिखर स्थापित किए, जो आप जैसे गरिमामय व्यक्तित्व ही कर सकते हैं। दादा गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के नेतृत्व में त्रिस्तुतिक श्रीसंघ एवं श्री मोहन खेड़ा महातीर्थ ने विकास की अलंघ्य ऊंचाइयों का स्पर्श किया, उसकी नाभि केंद्र में मुनि श्री ऋषभचन्द्र विजयजी ही रहे, आपने भारत की अध्यात्म विद्या और संस्कार-संपदा को पुनरुज्जीवित कर उसे जन-मानस में प्रतिष्ठित करने का भगीरथ प्रयत्न किया, ऐसे युग प्रणेता, युग निर्माता अध्यात्मनायक के आचार्य पर संपूर्ण जैन समाज गौरवान्वित होता रहा और होता रहेगा।