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जैन एकता के प्रवर्तक आचार्य देवेश श्री ऋषभचन्द्र सूरीश्वरजी 0

जैन एकता के प्रवर्तक आचार्य देवेश श्री ऋषभचन्द्र सूरीश्वरजी

भारत अपनी अध्यात्म प्रधान संस्कृति से विश्रुत था, किन्तु आज इसने ‘जगद्गुरु’ होने की पहचान खोयी तो खोयी हुई पहचान को पुन: प्राप्त करने एवं अध्यात्म के तेजस्वी स्वरूप को पाने के लिये अनेक संत मनीषी अपनी साधना, अपने त्याग, अपने कार्यक्रमों से प्रयासरत रहे हैं, ताकि जनता के मन में ‘अध्यात्म’ एवं धर्म के प्रति आकर्षण रह सके। अध्यात्म ही एक ऐसा तत्व है, जिसको उज्जीवित और पुनर्प्रतिष्ठित कर ‘भारत’ अपने खोए गौरव को पुन: प्रस्थापित रख सकता है, इस महनीय कार्य में एक थे ज्योतिष सम्राट के नाम से चर्चित मुनिप्रवर श्री ऋषभचन्द्र विजयजी, आप महान् तपोधनी, शांतमूर्ति, परोपकारी संत थे, जिन्होंने संसार की असारत का बोध बताया, संयम जीवन का सार समझाया एवं मानवता के उपवन को महकाया और ‘जैन एकता’ के अभियान को बुलंद किया। मुनि श्री ऋषभचन्द्रजी का जन्म ज्येष्ठ सुदी ७, संवत २०१४ दिनांक ४ जून १९५७ को सियाना (राजस्थान) में हुआ, आपके पिता का नाम शा.श्री मगराजजी तथा माता का नाम श्रीमती रत्नावती था, बचपन का नाम मोहनकुमार था। आपकी माताश्री एवं भ्राता भी दीक्षित होकर संयममय जीवन जी रहे हैं एवं माता संयम जीवन में तपस्वीरत्ना श्री पीयूषलताश्री एवं भ्राता आचार्यदेवेश श्री रवीन्द्रसूरीश्वरजी, आपकी दीक्षा द्वितीय ज्येष्ठ सुदी १०, दिनांक २३ जून १९८०, श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ (म.प्र.)में जैन धर्म परंपरा के प्रेरक आचार्य ऋषभचंद सुरीश्वरजी ही इनके भीतर था, शून्य जुड़ते गए और संख्या की समृद्धअक्षय बनती गई। ऋषभचंद्र विजयजी का अतीत सृजनशील सफर का साक्षी है, इसके हर पड़ाव पर शिशु-सी सहजता, युवा-सी तेजस्विता, प्रौढ़-सी विवेकशीलता और वृद्ध-सी अनुभवप्रवणता के पदचिन्ह हैं जो हमारे लिए सही दिशा में मील के पत्थर बनते हैं। आपकी तेजस्विता और तपस्विता की ऊंची मीनार, जिसकी बुनियाद में जीए गए अनुभूत सत्यों का इतिहास संकलित है, जो साक्षी है सतत अध्यवसाय और पुरुषार्थ की कर्मचेतना का, परिणाम है तर्क और बुद्धि की समन्वयात्मक ज्ञान चेतना का और उदाहरण है निष्ठा तथा निष्काम भाव चेतना का। आपकी करुणा में सह-अस्तित्व का भाव था, निष्पक्षता में सबके प्रति गहरा विश्वास है। न्याय प्रवणता में सूक्ष्म अन्वेषणा के साथ व्यक्ति की गलतियों के परिष्कार की मुख्य भूमिका, सापेक्ष चिंतन में अहं, आग्रह, विरोध और विवाद का अभाव, विकास की यात्रा में सबके अभ्युदय की अभीप्सा, उनकी मूल प्रवृत्ति में रचनात्मकता और जुझारूपन, आप अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जूझते रहे अपनों से भी, परायों से भी और कई बार खुद से भी, इस जुनून में आपने मान-अपमान की भी परवाह नहीं की, सिद्धांतों को साकार रूप देने की रचनात्मक प्रवृत्ति के कारण मुनियों के लिए ज्यादा करणीय माने जाने कार्यों की अपेक्षा जीवदया, मानव सेवा व तीर्थ विकास में रूचि आचार्यदेवेश श्री विद्याचंद्र सूरीश्वरजी ‘पथिक’ के करकमलों से हुई। आपने अपने गुरु से जैन दर्शन के साथ-साथ विशेषत: अध्ययन व्याकरण, न्याय, आगम, वास्तु, ज्योतिष, मंत्र विज्ञान, आयुर्वेद, शिल्प आदि का गहन अध्ययन किया, आपने ४० से अधिक पुस्तकें लिखी, जिसमें अभिधान राजेन्द्र कोष (हिन्दी संस्करण) प्रथम भाग, अध्यात्म का समाधान (तत्वज्ञान), धर्मपुत्र (दादा गुरुदेव का जीवन वृत्त), पुण्यपुरुष, सफलता के सूत्र (प्रवचन), सुनयना, बोलती शिलाएं, कहानी किस्मत की, देवताओं के देश में, चुभन (उपन्यास), सोचकर जिओ, अध्यात्म नीति वचन (निबंध) आदि मुख्य हैं। मुनिश्री ऋषभचंद्रविजयजी का जन्म और जीवन दोनों विशिष्ट अर्हताओं से जुड़ा दर्शन रहा जिसे जब भी पढ़ेंगे, सुनेंगे, कहेंगे, लिखेंगे और समझेंगे तब यह प्रशस्ति नहीं, प्रेरणा और पूजा का मुकाम बना रहेगा, क्योंकि ऋषभचंद्र विजय जी किसी व्यक्ति का नाम नहीं, पद नहीं, उपाधि नहीं, अलंकरण भी नहीं, यह तो विनय और विवेक की समन्विति का आदर्श है, श्रद्धा और समर्पण की संस्कृति है, प्रज्ञा और पुरुषार्थ की प्रयोगशाला है, आशीष और अनुग्रह की फलश्रुति है, व्यक्तिगत निर्माण की रचनात्मक शैली है और अनुभूत सत्य की स्वस्थ प्रस्तुति है, यह वह सफर था, जिधर से भी गुजरता है उजाले बांटता हुआ आगे बढ़ता ही जाता है, कहा जा सकता है कि निर्माण की प्रक्रिया में इकाई का अस्तित्व जन्म से ज्यादा परिलक्षित होती है। जीवदया व मानवसेवा के कई प्रकल्प आपने चला रखे थे। मन्दिरों के निर्माण एवं जीर्णोद्धार के द्वारा न केवल जैन संस्कृति, बल्कि भारतीय संस्कृति सुदृढ़ करते रहे। गौरक्षा एवं गौसेवा के प्रेरक रहे। गौशालाओं के साथ-साथ गौ-कल्याण के अनेक उपक्रम संचालित करते रहे। संवेदना एवं संतुलित समाज रचना के संकल्प के चलते आपके ‘मोहनखेड़ा तीर्थ’ पर गरीब एवं आदिवासी बच्चों के लिए विद्यालय भी संचालित रखा, जहां आज सैकड़ों विद्यार्थी ज्ञानार्जन कर रहे हैं। नेत्र, विकलांगता, नशामुक्ति, कटे हुए (कुरूप) होंठ, कुष्ठ, मंदबुद्धि निवारण आदि के विशिष्ट सेवा प्रकल्प आपके नेतृत्व में संचालित होते रहे, अपने गुरु के हॉस्पिटल, गौशाला एवं गुरुकुल आदि के सपनों को आकार देने में जुटे रहते, आपने पांच करोड़ की लागत से श्री महावीर पवित्र सरोवर को निर्मित कर जन आवश्यकता की पूर्ति की, अलौकिक, अनुपम एवं विलक्षण जैन संस्कृति पार्क को निर्मित कर आपने अपनी मौलिक सोच का परिचय दिया, जगह-जगह मन्दिरों का निर्माण, तीर्थ यात्राएं निकालना, कार सेवा एवं तीर्थशुद्धि एवं स्वच्छता अभियान तीर्थों की स्थापना आदि अनेक अद्भुत एवं संस्कृति प्रभावना के कार्य आपने करवाए, आपमें निर्माण की वृत्ति व शक्ति भी थी। राजगढ़ का मानव सेवा हॉस्पिटल, मोहनखेड़ा का नेत्र चिकित्सालय, सहकारी सोसायटियां, अनेक मंदिर व गौशालाएं इसी वृत्ति व शक्ति का परिचायक है, आप कार्य के प्रति अपनी लगन को दूसरे में भी उतार देते और दूसरे ही पल उनकी शक्ति बन जाते थे। मुनि श्री ऋषभचन्द्र विजयजी के बारे में लिखना मेरे लिये सौभाग्य का सूचक है, आपके उदार और व्यापक दृष्टिकोण का ही प्रभाव है कि आज किसी भी जाति, वर्ग, धर्म, समुदाय या संप्रदाय से जुड़ा व्यक्ति, वह चाहे प्रबुद्ध हो या अप्रबुद्ध आपके करीब आता, पूरे चाव से पढ़ता, सुनता और आपके कार्यक्रमों का सहभागी बन जाता। आपका व्यक्तित्व और कर्तृत्व इक्कीसवीं सदी के क्षितिज पर पूरी तरह छाया रहा। आपके प्रकल्पों, विचारों व प्रवचनों में कोरी आदर्शवादिता या सिद्धांतवादिता के दर्शन ही नहीं, प्रयोग सिद्ध वैज्ञानिक स्वरूप उपलब्ध होता था। अपने ज्ञान गर्भित प्रवचनों व साहित्य के माध्यम से आध्यात्मिक एवं नैतिक क्रांति का शंखनाद आपने किया, आप धर्म को रूढ़िया परंपरा के रूप में स्वीकार नहीं करते, धार्मिक आराधना-उपासना से व्यक्ति की जीवनशैली और वृत्तियों में बदलाव लाते थे, समग्र जीवनदर्शन का निचोड़ भी यही है, ऐसे महान् संत का एक आचार्य के रूप में पदाभिषेक होना एक शुभ भविष्य की आहट बनी। विश्व-क्षितिज पर अशांति की काली छाया, रक्तपात, मारकाट की त्रासदी, मानवीय चेतना का दम घुट रहा है, कारण चाहे राजनीतिक हो या सामाजिक, आर्थिक हो या धार्मिक, कश्मीर का आतंकवाद हो या सांप्रदायिक ज्वालामुखी, तलाक का मसला हो या राष्ट्रगीत गाये जाने पर आपत्ति, भारत को दो नामों से बोला जाना ‘इंडिया व भारत’, भारत की कोई भी राष्ट्रभाषा को घोषित ना होना, ऐसी ही अन्य दर्दनाक घटनाएं, हिंसा एवं संकीर्णता की पराकाष्ठा, आर्थिक असंतुलन, जातीय संघर्ष, मानसिक तनाव, छुआछूत आदि राष्ट्र की मुख्य समस्याएं मुंह बाए खड़ी थी, जन-मानस चाहता था, अंधेरों से रोशनी में प्रस्थान। अशांति में शांति की प्रतिष्ठा किंतु दिशा दर्शन कौन दे? यह अभाव-सा प्रतीत हो रहा था, ऐसी स्थिति में मुनि श्री ऋषभ का अहिंसक जीवन और विविध मानवतावादी उपक्रम ही वस्तुत: मानव-मानव के दिलो-दिमाग पर पड़े संत्रास के घावों पर मरहम का-सा चमत्कार करने की संभावनाओं को उजागर करते, आप आचार्य बनकर मानव को उन्नत जीवन की ओर अग्रसर करने का भगीरथ प्रयत्न किया। मुनि श्री ऋषभचन्द्र विजयजी का व्यक्तित्व बुद्धिबल, आत्मबल, भक्तिबल, कीर्तिबल और वाग्बल का विलक्षण समवाय है। दृढ़-इच्छाशक्ति, आग्नेय संकल्प, पुरुषार्थ और पराक्रम के द्वारा आपने उपलब्धियों के अनेक शिखर स्थापित किए, जो आप जैसे गरिमामय व्यक्तित्व ही कर सकते हैं। दादा गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के नेतृत्व में त्रिस्तुतिक श्रीसंघ एवं श्री मोहन खेड़ा महातीर्थ ने विकास की अलंघ्य ऊंचाइयों का स्पर्श किया, उसकी नाभि केंद्र में मुनि श्री ऋषभचन्द्र विजयजी ही रहे, आपने भारत की अध्यात्म विद्या और संस्कार-संपदा को पुनरुज्जीवित कर उसे जन-मानस में प्रतिष्ठित करने का भगीरथ प्रयत्न किया, ऐसे युग प्रणेता, युग निर्माता अध्यात्मनायक के आचार्य पर संपूर्ण जैन समाज गौरवान्वित होता रहा और होता रहेगा।

समय का सदुपयोग चेतना की निर्मलता के विकास में हो 0

समय का सदुपयोग चेतना की निर्मलता के विकास में हो

समय का सदुपयोग चेतना की निर्मलता के विकास में हो – आचार्य महाश्रमण काल प्रतिलेखना का मतलब है समय की प्रतिलेखना करना, उसको पहचान लेना, समझ लेना। आज तो घड़ियां उपलब्ध हैं और लोगों के हाथों में घड़ी बंधी रहती है। यह समय को बताने वाला यंत्र नवजवानों के लिए हाथ का आभूषण-सा बना हुआ है, घड़ी की यह विशेषता है कि यह समय को सूचित करती है, कुछ समय पूर्व तक तो हमारी श्राविकाएं रेत की घड़ी रखा करती थीं, मुहूर्त का समय जानने में उसका उपयोग होता था, आज तो समय को जानना बहुत आसान हो गया है, रात्रि के अंधेरे में भी समय को जाना जा सकता है, कई घड़ियां रात्रि में देखने वाली होती हैं, कईयों में लाईट होती है अथवा टॉर्च आदि के प्रकाश से देखी जा सकती हैं, साधु संस्था में भी समय को जानना आवश्यक होता है, किस समय प्रतिलेखना करना, किस समय स्वाध्याय करना, किस समय प्रतिक्रमण करना आदि साधुचर्या के अनेक अंग हैं, जिनका निर्वाह करना अनिवार्य होता है और वे समयबद्ध होने चाहिए। समय प्रबंधन का ध्यान रखने वाला व्यक्ति पांच-पांच मिनट का भी उपयोग कर लेता है, आदमी दिनचर्या कोठीक बनाने के लिए यह निश्चित करे कि मेरा उठने और सोने का समय कौन-सा होना चाहिए, किस समय, कौन-सा काम करना चाहिए, कब अध्ययन करना, कब जनसम्पर्क करना, कब व्यवसाय आदि का काम करना? इस प्रकार समय की ठीक निर्धारणा हो, कदाचित् उसमें परिवर्तन भी किया जा सकता है, परन्तु सामान्यतया दिनचर्या व्यवस्थित हो तो समय का सदुपयोग और व्यवस्थित उपयोग किया जा सकता है। अंग्रेजी भाषा का एक सुन्दर सूक्त है- जैसे एक सामान्य स्थिति वाला आदमी पांच रुपये भी सोच समझकर खर्च करता है, उसके लिए धन का कितना मूल्य होता है, इसी प्रकार समय का मूल्यांकन भी करना चाहिए और समय का व्यय भी सोच-सोचकर अच्छे कार्यों में करना चाहिए, जो लोग बुद्धिमान हैं, समझदार हैं, उनका समय काव्य की चर्चा, शास्त्र की चर्चा यानि ज्ञानचर्चा और अच्छे कार्यों में व्यतीत होता है। हर आदमी नादानगी न करे, बड़ी समझदारी के साथ समय का उपयोग करने का प्रयास करे। आदमी ब्रह्ममुहूर्त में उठने का प्रयास करे, ब्रह्ममुहूर्त का समय पवित्र समय माना जाता है, वैसे तो आदमी जिस समय अच्छा काम करे, वह समय उसके लिए पवित्र हो जाता है, फिर भी सूर्योदय से एक घंटा पहले आदमी निद्रा को त्याग दे, वह एक घंटा मुख्यतया सामायिक, स्वाध्याय, धर्म की साधना आदि में लगे तो आदमी के दिन का प्रारंभ मंगल के साथ होगा, उसे एक आध्यात्मिक खुराक प्राप्त हो जाएगी। प्रत्येक व्यक्ति को चौबीस घंटे का समय मिलता है, ऐसा कभी नहीं होता कि किसी मंत्री महोदय को तो पच्चीस घंटे का समय मिलेगा और संतरी को तेईस घंटे का समय मिलेगा, सबको बराबर समय मिलता है, यह प्रकृति की देन है, यहां प्रश्न होता है कि इस महत्वपूर्ण समय का आदमी उपयोग क्या और किस रूप में करता है? क्या हमारा समय केवल शरीर के लिए ही व्यतीत होता है या कुछ समय चेतना के लिए भी लगता है? खाना-पीना, सोना, कमाना आदि कार्य मुख्यतया शरीर को केन्द्र में रखकर किए जाते हैं। आदमी आत्मा को भी याद रखे, कुछ आत्मा के लिए भी करे, शरीर नश्वर है, आत्मा को अमर कहा गया है, आदमी इस नश्वर शरीर से अमर आत्मा के लिए क्या करता है? शरीर अध्रुव है, धन सम्पत्ति भी अध्रुव है, मृत्यु निकट हो रही है, इसलिए धर्म का संचय करना चाहिए, चौबीस घंटों में से अधिक समय न निकाल सकें तो प्रत्येक घंटे में से कम से कम एक या दो मिनट का समय निकालकर अलग से उसका संग्रह कर लिया जाए तो हर दिन २४ या ४८ मिनट का समय साधना में लगाया जा सकता है, उस समय में चाहे अच्छे ग्रंथ का स्वाध्याय किया जाए, ध्यान किया जाए, कोई न कोई आध्यात्मिक साधना यदि कुछ समय के लिए हो जाती है तो जीवनचर्या या दिनचर्या का सुन्दर क्रम बन सकता है। शरीर के लिए भोजन अनिवार्य होता है तो चेतना के लिए भी भोजन आवश्यक है, शरीर के लिए स्नान किया जाता है तो चेतना की शुद्धि के लिए भी स्नान जरूरी है, शरीर का भोजन रोटी आदि है तो चेतना का भोजन भजन,स्वाध्याय, सामायिक आदि है। शरीर का स्नान पानी से किया जाता है किन्तु चेतना का स्नान  प्रतिक्रमण, आत्मा निरीक्षण, आत्मालोचन, ध्यान आदि से हो सकता है। आदमी अपने जीवन में महत्वपूर्ण कार्य करे। गरिमापूर्ण कार्यों में अपना समय लगाए। बड़ी-बड़ी कंपनियों में काम करने वाले हों अथवा अन्य कोई कार्य करने वाले हों, यदि समय प्रबंधन ठीक नहीं है तो कार्य की सफलता में बाधा उत्पन्न हो जाती है, उस बाधा को निवारित करने के लिए समय प्रबंधन  को सीखना और उसे क्रियान्वित करना आवश्यक है, वह मनुष्य सामान्य है, जो समय का सामान् कार्यों में उपयोग करता है। अध्यात्म के संदर्भ में चेतना के लिए समय नियोजित करना समय का उत्तम उपयोग है। मात्र भोग में ही समय को लगा देना समय का पूर्णतया उत्तम उपयोग नहीं होता, इसलिए आदमी चेतना के प्रति जागरूकता रखे, चेतना की निर्मलता के विकास में समय का नियोजन हो तो समय का उत्तम उपयोग हो सकेगा। 

तीर्थंकर महावीर स्वामीसत्य, अहिंसा, अनेकान्त के महानायक थे 0

तीर्थंकर महावीर स्वामीसत्य, अहिंसा, अनेकान्त के महानायक थे

पूरे भारत वर्ष में ‘महावीर जन्म कल्याणक’ पर्व जैन समाज द्वारा उत्सव के रूप में मनाया जाता है। जैन समाज द्वारा मनाए जाने वाले इस त्यौहार को महावीर जयंती के साथ-साथ महावीर जन्म कल्याणक नाम से भी जानते हैं, ‘महावीर जन्म कल्याणक’ हर वर्ष चैत्र माह के १३ वें दिन मनाया जाता है, जो अंग्रेजी केलेन्डर के हिसाब से इस वर्ष १० अप्रैल को है, इस दिन हर पंथ के जैन दिगम्बर-श्वेताम्बर आदि एकसाथ मिलकर इस उत्सव को मनाते हैं। तीर्थंकर महावीर के जन्म उत्सव के रूप में मनाए जाने वाले इस त्यौहार में भारत के कई राज्यों में सरकारी छुट्टी घोषित की गयी है।जैन धर्म के वर्तमान प्रवर्तक तीर्थंकर महावीर का जीवन उनके जन्म के ढाई हजार साल से उनके लाखों अनुयायियों द्वारा पूरी दुनिया को अहिंसा का पाठ पढ़ा रहा है, पंचशील सिद्धान्त के प्रर्वतक और जैन धर्म के चौबिसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी अहिंसा के प्रमुख ध्‍वजवाहकों में से एक हैं। जैन ग्रंथों के अनुसार २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ जी के मोक्ष प्राप्ति के बाद २९८ वर्ष बाद तीर्थंकर महावीर स्वामी का जन्म‍ ऐसे युग में हुआ, जहां पशु‍बलि, हिंसा और जाति-पाति के भेदभाव का अंधविश्वास जारी था।महावीर स्वामी के जीवन को लेकर श्वेताम्बर और दिगम्बर पंथ में कई तरह के अलग-अलग तथ्य हैं:तीर्थंकर महावीर के जन्म और जीवन की जानकारीतीर्थंकर महावीर का जन्म लगभग २६०० वर्ष पूर्व चैत्र शुक्ल त्रयोदशी के दिन क्षत्रियकुण्ड नगर में हुआ, तीर्थंकर महावीर की माता का नाम महारानी त्रिशला और पिता का नाम महाराज सिद्धार्थ था, तीर्थंकर महावीर कई नामों से जाने गए उनके कुछ प्रमुख नाम वर्धमान, महावीर, सन्मति, श्रमण आदि हैं। तीर्थंकर महावीर स्वामी के भाई का नाम नंदिवर्धन और बहन का नाम सुदर्शना था, बचपन से ही महावीर तेजस्वी और साहसी थे। किंवदंतियोंनुसार शिक्षा पूरी होने के बाद माता-पिता ने इनका विवाह राजकुमारी यशोदा के साथ कर दिया गया था।तीर्थंकर महावीर का जन्म एक साधारण बालक के रूप में हुआ था, इन्होंने अपनी कठिन तपस्या से अपने जीवन को अनूठा बनाया, महावीर स्वामी के जीवन के हर चरण में एक कथा व्याप्त है, ‘जिनागम’ पत्रिका परिवार उनके जीवन से जुड़े कुछ चरणों तथा उसमें निहित कथाओं को उल्लेखित कर रहा है:महावीर स्वामी जन्म और नामकरण संस्कार: तीर्थंकर महावीर स्वामी के जन्म के समय क्षत्रियकुण्ड गांव में दस दिनों तक उत्सव मनाया गया, सारे मित्रों-भाई बंधुओं को आमंत्रित किया गया तथा उनका खूब सत्कार किया गया, राजा सिद्धार्थ का कहना था कि जब से महावीर का जन्म उनके परिवार में हुआ, तब से उनके धन-धान्य कोष भंडार बल आदि सभी राजकीय साधनों में बहुत ही वृद्धी हुई, उन्होंने सबकी सहमति से अपने पुत्र का नाम ‘वर्धमान’ रखा।महावीर स्वामी का विवाह: कहा जाता है कि महावीर स्वामी अन्तर्मुखी स्वभाव के थे, शुरुवात से ही उन्हें संसार के भोगों में कोई रुचि नहीं थी, परंतु माता-पिता की इच्छा के कारण उन्होंने वसंतपुर के महासामन्त समरवीर की पुत्री यशोदा के साथ विवाह किया, कहीं-कहीं लिखा हुआ यह भी मिलता है कि उनकी एक पुत्री हुई, जिसका नाम प्रियदर्शना रखा गया था।तीर्थंकर महावीर स्वामी का वैराग्य: तीर्थंकर महावीर स्वामी के माता-पिता की मृत्यु के पश्चात उनके मन में वैराग्य लेने की इच्छा जागृत हुई, परंतु जब उन्होंने इसके लिए अपने बड़े भाई से आज्ञा मांगी तो भाई ने कुछ समय रुकने का आग्रह किया, तब महावीर ने अपने भाई की आज्ञा का मान रखते हुये २ वर्ष पश्चात ३० वर्ष की आयु में वैराग्य लिया, इतनी कम आयु में घर का त्याग कर ‘केशलोच’ के पश्चात जंगल में रहने लगे। १२ वर्ष के कठोर तप के बाद जम्बक में ऋजुपालिका नदी के तट पर एक साल्व वृक्ष के नीचे केवल ज्ञान प्राप्त हुआ, इसके बाद उन्हें ‘केवलि’ नाम से जाना गया तथा उनके उपदेश चारों और फैलने लगे। बड़े-बड़े राजा महावीर स्वा‍मी के अनुयायी बनें, उनमें से बिम्बिसार भी एक थे। ३० वर्ष तक महावीर स्वामी ने त्याग, प्रेम और अहिंसा का संदेश फैलाया और बाद में वे जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर बनें और विश्व के श्रेष्ठ तीर्थंकरों में शुमार हुए।उपसर्ग, अभिग्रह, केवलज्ञान: तीस वर्ष की आयु में तीर्थंकर महावीर स्वामी ने पूर्ण संयम के साथ श्रमण बन गये तथा दीक्षा लेते ही उन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हो गया। दीक्षा लेने के बाद तीर्थंकर महावीर स्वामी ने बहुत कठिन तपस्या की और विभिन्न कठिन उपसर्गों को समता भाव से ग्रहण किया।साधना के बारहवें वर्ष में महावीर स्वामी जी मेढ़िया ग्राम से कोशाम्बी आए तब उन्होंने पौष कृष्णा प्रतिपदा के दिन एक बहुत ही कठिन अभिग्रह धारण किया, इसके पश्चात साढ़े बारह वर्ष की कठिन तपस्या और साधना के बाद ऋजुबालिका नदी के किनारे महावीर स्वामी शाल वृक्ष के नीचे वैशाख शुक्ल दशमी के दिन केवल ज्ञान-केवल दर्शन की उपलब्धि हुई।तीर्थंकर महावीर और जैन धर्म: महावीर को वीर, अतिवीर और स​न्मती के नाम से भी जाना जाता है, वे तीर्थंकर महावीर स्वामी ही थे, जिनके कारण २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों ने एक विशाल धर्म ‘जैन धर्म’ का रूप धारण किया। तीर्थंकर महावीर के जन्म स्थान को लेकर विद्वानों में कई मत प्रचलित हैं, लेकिन उनके ‘भारत’ में अवतरण को लेकर एकमत हैं, तीर्थंकर महावीर के कार्यकाल को ईराक के जराथ्रुस्ट, फिलिस्तीन के जिरेमिया, चीन के कन्फ्यूसियस तथा लाओत्से और युनान के पाइथोगोरस, प्लेटो और सुकरात के समकालीन मानते हैं। भारत वर्ष को तीर्थंकर महावीर ने गहरे तक प्रभावित किया, उनकी शिक्षाओं से तत्कालीन राजवंश खासे प्रभावित हुए और ढेरों राजाओं ने जैन धर्म को अपना राजधर्म बनाया। बिम्बसार और चंद्रगुप्त मौर्य का नाम इन राजवंशों में प्रमुखता से लिया जा सकता है, जो जैन धर्म के अनुयायी बने। तीर्थंकर महावीर ने ‘अहिंसा’ को जैन धर्म का आधार बनाया, उन्होंने तत्कालीन सनातन समाज में व्याप्त जाति व्यवस्था का विरोध किया और सबको समान मानने पर जोर दिया, उन्होंने ‘जियो और ​जीने दो’ के सिद्धान्त पर जोर दिया, सबको एक समान नजर में देखने वाले तीर्थंकर महावीर अहिंसा और अपरिग्रह के साक्षात मूर्ति थे, वे किसी को भी कोई दु:ख नहीं देना चाहते थे।महावीर स्वामी के उपदेश :तीर्थंकर महावीर ने अहिंसा, तप, संयम, पांच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ती, अनेकान्त, अपरिग्रह एवं आत्मवाद का संदेश दिया। महावीर स्वामी ने यज्ञ के नाम पर होने वाले पशु-पक्षी तथा नर की बली का पूर्ण रूप से विरोध किया तथा सभी जाती और धर्म के लोगों को धर्म पालन का अधिकार बतलाया, महावीर स्वामी ने उस समय जाती-पाति और लिंग भेद को मिटाने के लिए उपदेश दिये।निर्वाण: कार्तिक मास की अमावस्या को रात्री के समय तीर्थंकर महावीर स्वामी निर्वाण को प्राप्त हुये, निर्वाण के समय तीर्थंकर महावीर स्वामी की आयु ७२ वर्ष की थी।विशेष तथ्य:तीर्थंकर महावीर के जिओ और जीने दो के सिद्धान्त को जन-जन तक पहुंचाने के लिए जैन धर्म के अनुयायी तीर्थंकर महावीर के निर्वाण दिवस को हर वर्ष कार्तिक पूर्णिमा को त्यौहार की तरह मनाते हैं, इस अवसर पर वह दीपक प्रज्वलित करते हैं।जैन धर्म के अनुयायियों के लिए उन्होंने पांच व्रत दिए, जिसमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह बताया गया।अपनी ​सभी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लेने की वजह से वे जितेन्द्रिय या ‘जिन’ कहलाए।जिन से ही जैन धर्म को अपना नाम मिला।जैन धर्म के गुरूओं के अनुसार तीर्थंकर महावीर के कुल ११ गणधर थे, जिनमें गौतम स्वामी पहले गणधर थे।तीर्थंकर महावीर ने ५२७ ईसा पूर्व कार्तिक कृष्णा द्वितीया तिथि को अपनी देह का त्याग किया, देह त्याग के समय उनकी आयु ७२ वर्ष थी।बिहार के पावापूरी जहां उन्होंने अपनी देह को छोड़ा, जैन अनुयायियों के लिए यह पवित्र स्थल की तरह पूजित किया जाता है।तीर्थंकर महावीर के मोक्ष के दो सौ साल बाद, जैन धर्म श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायों में बंट गया।तीर्थंकर सम्प्रदाय के जैन संत वस्त्रों का त्याग कर देते हैं, इसलिए दिगम्बर कहलाते हैं जबकि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के संत श्वेत वस्त्र धारण करते हैं।तीर्थंकर महावीर की शिक्षाएं: तीर्थंकर महावीर द्वारा दिए गए पंच​शील सिद्धान्त ही जैन धर्म का आधार है, इस सिद्धान्त को अपनाकर ही एक अनुयायी सच्चा जैन अनुयायी हो सकता है। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को पंचशील कहा जाता है। ​सत्य– तीर्थंकर महावीर ने ‘सत्य’ को ही महान बताया है, उनके अनुसार, सत्य इस दुनिया में सबसे शक्तिशाली है और एक अच्छे इंसान को किसी भी हालत में ‘सच’ का साथ नहीं छोड़ना चाहिए, एक बेहतर इंसान बनने के लिए जरूरी है कि हर परिस्थिति में ‘सच’ बोला जाए।अहिंसा – दूसरों के प्रति हिंसा की भावना नहीं रखनी चाहिए, जितना प्रेम हम खुद से करते हैं उतना ही प्रेम दूसरों से भी करें, अहिंसा का पालन करें।अस्तेय – दूसरों की वस्तुओं को चुराना और दूसरों की चीजों की इच्छा करना महापाप है, जो मिला है उसमें ही संतुष्ट रहें।ब्रह्मचर्य – तीर्थंकर महावीर के अनुसार जीवन में ब्रहमचर्य का पालन करना सबसे कठिन है, जो भी मनुष्य इसको अपने जीवन में स्थान देता है, वो मोक्ष प्राप्त करता है।अपरिग्रह – ये दुनिया नश्वर है, चीजों के प्रति मोह ही आपके दु:खों को कारण है, सच्चे इंसान किसी भी सांसारिक चीज का मोह नहीं करते।१. कर्म किसी को भी नहीं छोड़ते, ऐसा समझकर बुरे कर्म से दूर रहो।२. तीर्थंकर स्वयं घर का त्याग कर साधू धर्म स्वीकारते हैं तो फिर बिना धर्म किए हमारा कल्याण वैसे हो?३. तीर्थंकर ने जब इतनी उग्र तपस्या की तो हमें भी शक्ति अनुसार तपस्या करनी चाहिए।४. तीर्थंकर ने सामने जाकर उपसर्ग सहे तो कम से कम हमें अपने सामने आए उपसर्गों को समता से सहन करना चाहिए।वर्ष २०२५ में तीर्थंकर महावीर जन्म कल्याणक पर्व कब है?वर्ष २०२५ में तीर्थंकर महावीर जन्म कल्याणक १० अप्रैल को मनाया जाएगा, जहां भी जैनों के मंदिर हैं, वहां इस दिन विशेष आयोजन किए जाएगें, परंतु ‘महावीर जन्म कल्याणक’ अधिकतर त्योहारों से अलग, बहुत ही शांत माहौल में विशेष पूजा अर्चना द्वारा मनाया जाता है, इस दिन तीर्थंकर महावीर का अभिषेक किया जाता है तथा जैन बंधुओं द्वारा अपने मंदिरों द्वारा जाकर विशेष ध्यान और प्रार्थना की जाती है, इस दिन हर जैन मंदिर में अपनी शक्ति अनुसार गरीबों में दान दक्षिणा का विशेष महत्व है।भारत में गुजरात, राजस्थान, बिहार, महाराष्ट्र और कोलकाता, आसाम व भारत के कई राज्यों में आदि में उपस्थित प्रसिध्द मंदिरों में ‘महावीर जन्म कल्याणक’ उत्सव विशेष रूप से मनाया जाता है।

आचार्य श्री विद्यासागर जी की प्रेरणा से आज भारत विकसीत हो रहा है 0

आचार्य श्री विद्यासागर जी की प्रेरणा से आज भारत विकसीत हो रहा है

जेल में कैद कैदियों की स्थिति देखकर आचार्य श्री का हृदय द्रवित हो उठा तब उन्होंने जेल प्रशासन को प्रेरणा प्रदान दी कि कैदियों को अर्थ पुरूषार्थ का अवसर देना चाहिये। आचार्य श्री जी की प्रेरणा से केन्द्रीय जेल सागर, तिहाड़ जेल दिल्ली, मिर्जापुर, बनारस, आगरा, मथुरा आदि जेलों में समाज के द्वारा ‘हथकरघा’ प्रशिक्षण प्रारंभ किया गया। भारत का पशुधन सुरक्षित रहे, गौहत्या बंद हो, इस हेतु आचार्य प्रवर की मांगलिक प्रेरणा से ‘दयोदय पशु संवर्धन’ के नाम से शताधिक गौशालायें पूरे ‘भारत’ देश में स्थापित हैं। भारत में भारतीय शिक्ष पद्धति लागू हो, अतः अंग्रेजी नहीं, भारतीय भाषा में व्यवहार हो, ये प्रेरणा देने के साथ-साथ आचार्य प्रवर ने ‘इंडिया नहीं भारत बोलो’ का नारा ‘भारत’ की जनता को प्रदान किया। संक्षेप में आचार्य श्री जी की प्ररेणा से अनेक विशिष्ट कार्य किये गये, जिसमें शिक्षा के क्षेत्र प्रतिभास्थली, चिकित्सा के क्षेत्र में भाग्योदय एवं पूर्णायु, अहिंसक रोजगार एवं स्वावलंबी जीवन जीने हेतु हथकरघा ‘हस्त शिल्प’ पिछड़े एवं गरीब वर्ग को आजीविका प्राप्त हो सके, मैत्री के नाम से लघु कुटीर उद्योग शुद्ध एवं पौष्टिक अनाज एवं फल सब्जी प्राप्त हो सके, इस हेतु जैविक खेती की प्रेरणा दी, संप्रदायवाद से दूर आचार्य श्री जी ने सदैव राष्ट्र धर्म को ही प्रमुखता प्रदान की। कलयुग के कमल राष्ट्रीय विचार सम्प्रेरक और सम्पोषक के रूप में प्रसिद्ध राष्ट्रीय संत आचार्य श्री विद्यासागर जी ने अपने उदस्त विचारों से अपनी निर्मल वाणी और अपने श्रेष्ठ कार्यों से भारतीय संस्कृति को ऊँचाई प्रदान की, किसी भी देश की रीढ़ वहाँ की शिक्षा एवं चिकित्सा पद्धति होती है। शिक्षा के क्षेत्र में आचार्य श्री जी की प्रेरणा से भारत के पाँच राज्यों, जिसमें जबलपुर (म.प्र.), इन्दौर (म.प्र.), रामटेक (महाराष्ट्र), ललितपुर (उ.प्र.) एवं डोंगरगढ़ (छ.ग.) ज्ञानोदय विद्यापीठ प्रतिभास्थली के नाम से कन्या छात्रावास के साथ विद्यालय, शिक्षा के साथ संस्कारों का शंखनाद, के उद्देश्य से विद्यालय स्थापित किये गये, इन विद्यालयों में अध्ययन कराने वाली सभी शिक्षिकायें आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत से अलंकृत हैं। प्रतिभा प्रतीक्षा इंदौर, प्रतिभा चयन इंदौर एवं जयपुर, आगरा, पूणे,हैदराबाद, भोपाल आदि में छात्रावास स्थापित किये गये, छात्र-छात्रायें प्रशासनिक परीक्षा की तैयारी कर सके, इस हेतु जबलपुर, भोपाल एवंदिल्ली में अनुशासन प्रशासनिक प्रशिक्षण केन्द्र की स्थापना आचार्य श्री जी की प्रेरणा का ही सुफल है। चिकित्सा के क्षेत्र में भाग्योदय तीर्थ धर्मार्थ चिकित्सालय की स्थापना आचार्य श्री की मांगलिक प्रेरणा से सागर (म.प्र.) में हुई, जिसका उद्देश्य गरीब एवं मध्यम वर्ग, जो चिकित्सा से वंचित रहजाता है, उन्हें समुचित चिकित्सा उपलब्ध होती रहे। जबलपुर (म.प्र.) में भारतीय शिक्षा पद्धति आयुर्वेद संरक्षण संवर्धन हेतु पूर्णायु आयुर्वेदिक चिकित्सालय एवं महाविद्यालय की स्थापना हुई। विदेशी कम्पनियों के भ्रमजाल से ‘भारत’ मुक्त रहे और सभी जीव सुख-शांति चैन अमन से जी सके, ‘जिओ और जीने दो’ के सिद्धान्त को चरितार्थ करने के लिए स्वदेशी और अहिंसक रोजगार को प्रोत्साहित करते हुए आचार्य भगवन ने लघु उद्योग के रूप में पूरी मैत्री, जबलपुर में हथकरघा प्रशिक्षण केन्द्र की स्थापना, पाँचों प्रतिभास्थली के साथ बीनाबारह, कुण्डलपुर, मण्डला, गुना, अशोकनगर, भोपाल, आरोन आदि स्थानों में की, ऐसे आचार्य श्री!जिन्हें वरिष्ठ पत्रकार व संपादक, आचार्य श्री को चलते-फिरते तीर्थंकर बोलने वाले, ‘भारत को ‘भारत’ ही बोलें, ‘एक राष्ट्र-एक नाम भारत’ ‘हिंदी’ राष्ट्रभाषा बनें का आर्तनाद करने वाले बिजय कुमार जैन आचार्य श्री विद्यासागर जी के चरणों में नमन होते