महावीर स्वामी का संक्षिप्त जीवन परिचय
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पूरे भारत वर्ष में महावीर जन्म कल्याणक पर्व जैन समाज द्वारा उत्सव के रूप में मनाया जाता है। जैन समाज द्वारा मनाए जाने वाले इस त्यौहार को महावीर जयंती के साथ-साथ महावीर जन्म कल्याणक नाम से भी जानते हैं, महावीर जन्म कल्याणक हर वर्ष चैत्र माह के १३ वें दिन मनाई जाती है, जो हमारे वर्किंग केलेन्डर के हिसाब से मार्च या अप्रैल में आता है, इस दिन हर तरह के जैन दिगम्बर-श्वेताम्बर आदि एकसाथ मिलकर इस उत्सव को मनाते हैं, भगवान महावीर के जन्म उत्सव के रूप में मनाए जाने वाले इस त्यौहार में पूरे भारत में सरकारी छुट्टी घोषित की गयी है।
जैन धर्म के प्रवर्तक भगवान महावीर का जीवन उनके जन्म के ढाई हजार साल से उनके लाखों अनुयायियों के साथ ही पूरी दुनिया को अहिंसा का पाठ पढ़ा रहा है, पंचशील सिद्धान्त के प्रर्वतक और जैन धर्म के चौबिसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी अहिंसा के प्रमुख ध्वजवाहकों में हैं, जैन ग्रंथों के अनुसार २३वें तीर्थंकर पाश्र्वनाथ जी के मोक्ष प्राप्ति के बाद २९८ वर्ष बाद महावीर स्वामी का जन्म ऐसे युग में हुआ, जहां पशुबलि, हिंसा और जाति-पाति के भेदभाव का अंधविश्वास जारी था।
महावीर स्वामी के जीवन को लेकर श्वेताम्बर और दिगम्बर जैनियों में कई तरह के अलग-अलग तथ्य हैं:
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भगवान महावीर के जन्म और जीवन की जानकारी
भगवान महावीर का जन्म लगभग ६०० वर्ष पूर्व चैत्र शुक्ल त्रयोदशी के दिन क्षत्रियकुण्ड नगर में हुआ, भगवान महावीर की माता का नाम महारानी त्रिशला और पिता का नाम महाराज सिद्धार्थ थे, भगवान महावीर कई नामों से जाने गए उनके कुछ प्रमुख नाम वर्धमान, महावीर, सन्मति, श्रमण आदि हैं, महावीर स्वामी के भाई नंदिवर्धन और बहन सुदर्शना थी, बचपन से ही महावीर तेजस्वी और साहसी थे, किंवदंतियोंनुसार शिक्षा पूरी होने के बाद इनके माता-पिता ने इनका विवाह राजकुमारी यशोदा के साथ कर दिया गया था।
भगवान महावीर का जन्म एक साधारण बालक के रूप में हुआ था, इन्होंने अपनी कठिन तपस्या से अपने जीवन को अनूठा बनाया, महावीर स्वामी के जीवन के हर चरण में एक कथा व्याप्त है, हम यहां उनके जीवन से जुड़े कुछ चरणों तथा उसमें निहित कथाओं को उल्लेखित कर रहे हैं:
महावीर स्वामी जन्म और नामकरण संस्कार :
महावीर स्वामी के जन्म के समय क्षत्रियकुण्ड गांव में दस दिनों तक उत्सव मनाया गया, सारे मित्रों-भाई बंधुओं को आमंत्रित किया गया तथा उनका खूब सत्कार किया गया, राजा सिद्धार्थ का कहना था कि जब से महावीर का जन्म उनके परिवार में हुआ है, तब से उनके धन-धान्य कोष भंडार बल आदि सभी राजकीय साधनों में बहुत ही वृध्दी हुई है, उन्होंने सबकी सहमति से अपने पुत्र का नाम वर्द्धमान रखा।
महावीर स्वामी का विवाह:
कहा जाता है कि महावीर स्वामी अन्तर्मुखी स्वभाव के थे, शुरुवात से ही उन्हें संसार के भोगों में कोई रुचि नहीं थी, परंतु माता-पिता की इच्छा के कारण उन्होंने वसंतपुर के महासामन्त समरवीर की पुत्री यशोदा के साथ विवाह किया, कहीं-कहीं लिखा हुआ यह भी मिलता है कि उनकी एक पुत्री हुई, जिसका नाम प्रियदर्शना रखा गया था।
महावीर स्वामी का वैराग्य:
महावीर स्वामी के माता-पिता की मृत्यु के पश्चात उनके मन में वैराग्य लेने की इच्छा जागृत हुई, परंतु जब उन्होंने इसके लिए अपने बड़े भाई से आज्ञा मांगी तो भाई ने कुछ समय रुकने का आग्रह किया, तब महावीर ने अपने भाई की आज्ञा का मान रखते हुये २ वर्ष पश्चात ३० वर्ष की आयु में वैराग्य लिया, इतनी कम आयु में घर का त्याग कर ‘केशलोच’ के पश्चात जंगल में रहने लगे, १२ वर्ष के कठोर तप के बाद जम्बक में ऋजुपालिका नदी के तट पर एक साल्व वृक्ष के नीचे सच्चा ज्ञान प्राप्त हुआ, इसके बाद उन्हें ‘केवलि’ नाम से जाना गया तथा उनके उपदेश चारों और फैलने लगे, बड़े-बड़े राजा महावीर स्वामी के अनुयायी बनें, उनमें से बिम्बिसार भी एक थे। ३० वर्ष तक महावीर स्वामी ने त्याग, प्रेम और अहिंसा का संदेश फैलाया और बाद में वे जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर बनें और विश्व के श्रेष्ठ तीर्थंकरों में शुमार हुए।
उपसर्ग, अभिग्रह, केवलज्ञान:
तीस वर्ष की आयु में महावीर स्वामी ने पूर्ण संयम के साथ श्रमण बन गये, तथा दीक्षा लेते ही उन्हें मन पर्याय का ज्ञान हो गया, दीक्षा लेने के बाद महावीर स्वामी ने बहुत कठिन तपस्या की और विभिन्न कठिन उपसर्गों को समता भाव से ग्रहण किया।
साधना के बारहवें वर्ष में महावीर स्वामी जी मेढ़िया ग्राम से कोशम्बी आए तब उन्होंने पौष कृष्णा प्रतिपदा के दिन एक बहुत ही कठिन अभिग्रह धारण किया, इसके पश्चात साढ़े बारह वर्ष की कठिन तपस्या और साधना के बाद ऋजुबालिका नदी के किनारे महावीर स्वामी जी शाल वृक्ष के नीचे वैशाख शुक्ल दशमी के दिन केवल ज्ञान- केवल दर्शन की उपलब्धि हुई।
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महावीर और जैन धर्म
महावीर को वीर, अतिवीर और स न्मती के नाम से भी जाना जाता है, वे महावीर स्वामी ही थे, जिनके कारण २३वें तीर्थंकर पाश्र्वनाथ द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों ने एक विशाल धर्म ‘जैन धर्म’ का रूप धारण किया। भगवान महावीर के जन्म स्थान को लेकर विद्वानों में कई मत प्रचलित हैं, लेकिन उनके भारत में अवतरण को लेकर एकमत है, वे भगवान महावीर के कार्यकाल को ईराक के जराथ्रुस्ट, फिलिस्तीन के जिरेमिया, चीन के कन्फ्यूसियस तथा लाओत्से और युनान के पाइथोगोरस, प्लेटो और सुकरात के समकालीन मानते हैं, भारत वर्ष को भगवान महावीर ने गहरे तक प्रभावित किया, उनकी शिक्षाओं से तत्कालीन राजवंश खासे प्रभावित हुए और ढेरों राजाओं ने जैन धर्म को अपना राजधर्म बनाया, बिम्बसार और चंद्रगुप्त मौर्य का नाम इन राजवंशों में प्रमुखता से लिया जा सकता है, जो जैन धर्म के अनुयायी बने। भगवान महावीर ने अहिंसा को जैन धर्म का आधार बनाया, उन्होंने तत्कालीन हिन्दु समाज में व्याप्त जाति व्यवस्था का विरोध किया और सबको समान मानने पर जोर दिया, उन्होंने ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धान्त पर जोर दिया, सबको एक समान नजर में देखने वाले तीर्थंकर महावीर अहिंसा और अपरिग्रह के साक्षात मूर्ति थे, वे किसी को भी कोई दु:ख नहीं देना चाहते थे।
महावीर स्वामी के उपदेश :
भगवान महावीर ने अहिंसा, तप, संयम, पांच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ती, अनेकान्त, अपरिग्रह एवं आत्मवाद का संदेश दिया। महावीर स्वामी ने यज्ञ के नाम पर होने वाले पशु-पक्षी तथा नर की बली का पूर्ण रूप से विरोध किया तथा सभी जाती और धर्म के लोगों को धर्म पालन का अधिकार बतलाया, महावीर स्वामी ने उस समय जातीपाति और लिंग भेद को मिटाने के लिए उपदेश दिये।
निर्वाण :
कार्तिक मास की अमावस्या को रात्री के समय महावीर स्वामी निर्वाण को प्राप्त हुये, निर्वाण के समय भगवान महावीर स्वामी की आयु ७२ वर्ष की थी।
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विशेष तथ्य: भगवान महावीर
- भगवान महावीर के जिओ और जीने दो के सिद्धान्त को जन-जन तक पहुंचाने के लिए जैन धर्म के अनुयायी भगवान महावीर के निर्वाण दिवस को हर वर्ष कार्तिक पूर्णिमा को त्यौहार की तरह मनाते हैं, इस अवसर पर वह दीपक प्रज्वलित करते हैं।
- जैन धर्म के अनुयायियों के लिए उन्होंने पांच व्रत दिए, जिसमें अहिंसा, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह बताया गया।
- अपनी सभी इंन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लेने की वजह से वे जितेन्द्रिय या ‘जिन’ कहलाए।
- जिन से ही जैन धर्म को अपना नाम मिला।
- जैन धर्म के गुरूओं के अनुसार भगवान महावीर के कुल ११ गणधर थे, जिनमें गौतम स्वामी पहले गणधर थे।
- भगवान महावीर ने ५२७ ईसा पूर्व कार्तिक कृष्णा द्वितीया तिथि को अपनी देह का त्याग किया, देह त्याग के समय उनकी आयू ७२ वर्ष थी।
- बिहार के पावापूरी जहां उन्होंने अपनी देह को छोड़ा, जैन अनुयायियों के लिए यह पवित्र स्थल की तरह पूजित किया जाता है।
- भगवान महावीर की मृत्यु के दो सौ साल बाद, जैन धर्म श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायों में बंट गया।
- दिगम्बर सम्प्रदाय के जैन संत वस्त्रों का त्याग कर देते हैं, इसलिए दिगम्बर कहलाते हैं जबकि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के संत श्वेत वस्त्र धारण करते हैं।
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भगवान महावीर स्वामी की शिक्षाएं: भगवान महावीर द्वारा दिए गए पंच शील सिद्धान्त ही जैन धर्म का आधार बने है, इस सिद्धान्त को अपना कर ही एक अनुयायी सच्चा जैन अनुयायी बन सकता है, सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को पंचशील कहा जाता है।
सत्य – भगवान महावीर ने सत्य को महान बताया है, उनके अनुसार, सत्य इस दुनिया में सबसे शक्तिशाली है और एक अच्छे इंसान को किसी भी हालत में सच का साथ नहीं छोड़ना चाहिए, एक बेहतर इंसान बनने के लिए जरूरी है कि हर परिस्थिति में सच बोला जाए।
अहिंसा – दूसरों के प्रति हिंसा की भावना नहीं रखनी चाहिए, जितना प्रेम हम खुद से करते हैं उतना ही प्रेम दूसरों से भी करें, अहिंसा का पालन करें।
अस्तेय – दूसरों की वस्तुओं को चुराना और दूसरों की चीजों की इच्छा करना महापाप है, जो मिला है उसमें ही संतुष्ट रहें।
ब्रह्मचर्य – तीर्थंकर महावीर के अनुसार जीवन में ब्रहमचर्य का पालन करना सबसे कठिन है, जो भी मनुष्य इसको अपने जीवन में स्थान देता है, वो मोक्ष प्राप्त करता है।
अपरिग्रह – ये दुनिया नश्वर है. चीजों के प्रति मोह ही आपके दु:खों को कारण है. सच्चे इंसान किसी भी सांसारिक चीज का मोह नहीं करते।
१. कर्म किसी को भी नहीं छोड़ते, ऐसा समझकर कर्म बांधने से भय रखो।
२. तीर्थंकर स्वयं घर का त्याग कर साधू धर्म स्वीकारते हैं तो फिर बिना धर्म किए हमारा कल्याण कैसे हो?
३. भगवान ने जब इतनी उग्र तपस्या की तो हमें भी शक्ति अनुसार तपस्या करनी चाहिए।
४. भगवान ने सामने जाकर उपसर्ग सहे तो कम से कम हमें अपने सामने आए उपसर्गों को समता से सहन करना चाहिए।
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वर्ष २०१९ में महावीर जन्म कल्याणक पर्व कब है?
वर्ष २०१९ में महावीर जन्म कल्याणक १७ अप्रैल, बुधवार के दिन मनाई जाएगी, जहां भी जैनों के मंदिर है, वहां इस दिन विशेष आयोजन किए जाते हैं परंतु महावीर जन्म कल्याणक अधिकतर त्योहारों से अलग, बहुत ही शांत माहौल में विशेष पूजा अर्चना द्वारा मनाया जाता है, इस दिन भगवान महावीर का विशेष अभिषेक किया जाता है तथा जैन बंधुओं द्वारा अपने मंदिरों में जाकर विशेष ध्यान और प्रार्थना की जाती है, इस दिन हर जैन मंदिर मे अपनी शक्ति अनुसार गरीबो मे दान दक्षिणा का विशेष महत्व है. भारत मे गुजरात, राजेस्थान, बिहार और कोलकाता मे उपस्थित प्रसिध्द मंदिरों में यह उत्सव विशेष रूप से मनाया जाता है।
महावीर स्वामी के जैन धर्म का इतिहास
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महावीर स्वामी, जिन्हें वर्धमान भी कहते हैं, २४वें और अंतिम तीर्थंकर थे। जैन धर्म में तीर्थंकर एक सर्वज्ञानी गुरु होता है जो धर्म का पाठ पढाता है तथा पुनर्जन्म और स्थानांतर गमन के बीच पुल का निर्माण करता है। ब्रह्मांडीय समय चक्र के हर अर्ध भाग तक में आज तक २४ तीर्थंकर हुए। महावीर स्वामी अवसरपाणी के अंतिम तीर्थंकर थे। महावीर का जन्म शाही परिवार में हुआ और बाद में घर छोड़ कर आध्यात्म की खोज में चले गये और साधू बन गये, कई वर्षों की कठोर तपस्या के बाद भगवान महावीर सर्वज्ञानी बने और ७२ वर्ष की उम्र में मोक्ष को प्राप्त हो गये। जैन धर्म के सिद्धांतों को पुरे विश्व में फैलाया।
महावीर स्वामी का जन्म राजसी क्षत्रिय परिवार में हुआ था, उनके पिता का नाम सिद्धार्थ और माता का नाम त्रिशला था। उनका जन्म वीर निर्वाण संवत पंचांग के अनुसार चढ़ते चन्द्रमा के १३वें दिन हुआ था और ग्रेगोरियन पंचाग के अनुसार यह दिवस मार्च या अप्रैल में पड़ता है जिसे ‘महावीर जयंती’ के रूप में भी मनाया जाता है। उनका गोत्र कश्यप था। वैशाली के पुराने शहर कुंडलपूर को उनका जन्म स्थान बताया गया है।
राजा के पुत्र होते हुए महावीर ने सारे सुख और वैभव का आनंद लिया। माता-पिता भगवान पाश्र्वनाथ के स-ख्त अनुयायी थे। जैन परम्परा में उनके वैवाहिक जीवन के बारे में सर्वसम्मत नहीं है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार महावीर के पिता की इच्छा थी कि उनकी शादी यशोदा से हो, लेकिन उन्होंने मना कर दिया, श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार उन्होंने यशोदा से विवाह किया था और उनके एक पुत्री भी थी, जिसका नाम प्रियदर्शना था।
तीर्थंकर महावीर का सन्यास और सर्वज्ञता का ज्ञान: ३० वर्ष की उम्र में उन्होंने सारे धन वैभव त्यागकर घर छोड़कर चले गये और आध्यात्मिक जागृति की खोज में तपस्वी जीवन बिताने लगे, वे कुंडलपुर के निकट संदावन नामक एक बाग़ में गये, वहॉ पर उन्होंने बिना कपड़ों के अशोक के पेड़ के नीचे कठोर तपस्या की। आचारंग सूत्र में उनके कठिनाइयों और अपमान को दर्शाया गया है। बंगाल के पूर्वी भाग में वे बड़ी पीड़ाओं से गुजरे। बच्चों ने उन पर पत्थर फेंके और लोगों ने उनको अपमानित किया। कल्पसूत्र के अनुसार अस्तिग्राम, चम्पापुरी, प्रस्तिचम्पा, वैशाली, वाणीजग्रम, नालंदा, मिथिला, भद्रिका, अलाभिका, पनिताभूमि, श्रस्वती और पावनपुरी में उन्होंने अपने तपस्वी जीवन के ४२ मानसून गुजारे।
१२ वर्षों की कठिन तपस्या के बाद ४२ वर्ष की उम्र में उनको केवली जन्म की अवस्था प्राप्त हुयी, जिसका अर्थ है अलगाव-एकीकरण का ज्ञान, इससे उन्हें सर्वज्ञता के तात्पर्य का ज्ञान हुआ और बौधिक ज्ञान से छुटकारा मिला, ये ज्ञान रजुपल्लिका नदी के किनारे एक शाल के पेड़ के नीचे हुआ। सूत्रक्रितंग में महावीर की सारी खूबियों और ज्ञान को बताया गया है। ३० साल की सर्वज्ञता के बाद महावीर भारत और अन्य देशों में घुमे और दर्शन शादाा का ज्ञान दिया, परम्परा के अनुसार महावीर के १४,००० योगी, ३६,००० मठवासिनी, १५९,००० श्रावक ३१८,००० श्राविका अनुयायी बने, कुछ शाही परिवार भी उनके अनुयाई बने थे।
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महावीर स्वामी को मोक्ष : जैन ग्रंथों के अनुसार महावीर ने मोक्ष प्राप्त किया, क्योंकि उनकी आत्मा सिद्ध हो गयी थी, उसी दिन उनके मुख्य अनुयायी गांधार ने केवली जन्म लिया, मह्मपुराण के अनुसार तीर्थंकरों के निर्वाण के बाद देवताओं ने उनका अंतिम संस्कार किया, एक ग्रन्थ के अनुसार तीर्थंकर महावीर के केवल नाख़ून और बाल बच गये थे और बाकी शरीर हवा में घुल गया था। महावीर को चित्रों में शेर के चिन्ह के साथ ध्यान मुद्रा में दर्शाया गया है, जिस जगह से तीर्थंकर महावीर ने मोक्ष प्राप्त किया था वहॉ पर जलमन्दिर नाम से जैन मन्दिर बना है।
महावीर स्वामी के पिछले अवतार:
भगवान महावीर जैन धर्म के २४वें और अंतिम तीर्थंकर हैं, उन्होंने बहुमुखी व्यक्तित्व का विकास किया था, उनकी आत्मा के सारे गुण और शक्तियां जागृत और सक्रीय थे, उनके पास अनंत शक्ति के अलावा अनंत करुणांभी थी। आत्मा की इन असीम शक्तियों से वो एक पूर्ण विकसित और मिश्रित इन्सान बने, लेकिन भगवान महावीर स्वामी के भव्यता और महानता के बीज सुदूर अतीत में बो दिए गये थे, उनके पिछले कई जन्मों में वो कठोर तपस्या,परोपकारिता में लिप्त और गहरे ध्यान का अभ्यास कर रहे थे, इस दृष्टि से जैन धर्म को समझने के लिए उनके पिछले अवतारों के बारे में जानना भी आवश्यक है, इस कड़ी में उनकी पहली घटना को ‘धर्म का पहला स्पर्श’ कहा जाता है, सूत्रोनूसार ये भगवान महावीर की आत्मा के २७वें अवतार से पहले की बात है।
सही ज्ञान की पहली झलक : नयासर में २७वें जन्म से पहले भगवान महावीर स्वामी ने पश्चिम महाविदेह क्षेत्र में प्रतिष्ठान शहर में राजा शत्रुमर्धन के यहां नयासर नामक वनपाल थे, वो जंगल से लकड़ियां काटकर निर्माण प्रयोजनों के लिए लेकर जाते थे, एक दिन दोपहर में सभी मजदूर मध्याहन-भोजन करने के पश्चात विश्राम कर रहे थे। नयासर भी एक वृक्ष के नीचे बैठ कर भोजन ग्रहण करने के लिए बैठे थे, जैसे ही वो भोजन ग्रहण करने वाले थे तभी उनको निकट की पहाड़ियों से कुछ सन्यासी भटकते दिखे। नयासर ने सोचा कि ये सन्यासी बिना भोजन और पानी के इस कड़ी धुप में भटक रहे हैं, इसलिए अगर वो इस तरफ आयेंगे तो मैं उनको अपने भोजन का हिस्सा दूँगा, इस तरह मेहमानों की सेवा से लाभान्वित होकर मेरा आज का दिन सफल हो जाएगा। अबोध नयासर ने साधुओं को उनकी ओर आते देखा और उनके आने पर गहरी भक्ति से उन्हें भोजन कराया, जब वे नगर की ओर रवाना होने लगे, नयासर भी कुछ दूर तक उनके साथ चलने लगे, जब नयासर नतमस्तक होकर उनसे विदा लेने के लिए झुके तो उन साधुओं ने उनको सच्चे मार्ग , करुणा, दया, सादगी, विनम्रता और धैर्य के सरल उपदेश दिए। नयासर प्रबुद्ध हो गये और धर्म का बीज उनके मन में अंकुरित हो गया, उनके आध्यात्मिक विकास का ये पहला बिंदु था जब उन्होंने भ्रम के अंधेरे से आध्यात्मिक प्रकाश की पहली झलक को देखा। भगवान महावीर स्वामी की आत्मा के पहले अवतार की गिनती यहां से शुरू होती है।
महावीर स्वामी का तीसरा अवतार : मरिची नयासर की आत्मा ने सौधर्म कल्प के रूप में एक भगवान की तरह पुनर्जन्म लिया, इसके बाद उन्होंने तीसरा जन्म अयोध्या के चक्रवर्ती भरत के पुत्र मरीचि के रूप में लिया।
भगवान ऋषभदेव का पहला प्रवचन सुनकर वो श्रमण बन गये लेकिन वो कठोर तपस्वी नियम नहीं अपना सकते थे इसलिए उन्होंने श्रमण के वस्त्र त्याग दिए और श्रमण सिद्दांतों के कठोर नियमों में ऐच्छिक बदलाव कर त्रिदंडी परिवर्जक भिक्षुओं का एक वर्ग बनाया, इस तरह उन्होंने एक छाता और खड़ाऊँ पहनकर रहना शुरू कर दिया, वो प्रतिदिन नहा धोकर चन्दन का लेप लगाते थे, हालांकि अभी भी वो भगवान ऋषभदेव का मार्ग सही मानते थे, भगवान ऋषभदेव के समवसरन में बैठ जाते और अपनी वेशभूषा के बारे में पूछने पर अपनी कमजोरी स्वीकार कर लेते और आस-पास के लोगों को श्रमण धर्म अपनाने के लिए प्रेरित करते।
एक दिन चक्रवर्ती भरत ने भगवान ऋषभदेव से पुछा ‘प्रभु क्या आपकी तरह दिव्य आत्मा मौजूद है जो आपकी तरह तीर्थंकर बन सकती है’ भगवान ऋषभदेव ने जवाब दिया ‘भरत ! इस धार्मिक मण्डली से बाहर परिवर्जक के वेश में तुम्हारा पुत्र बनेगा’ कई वर्षों तक कठोर तपस्याओं के बाद वो इस चक्र का अंतिम तीर्थंकर बनेगा, उसके मरीचि से महावीर बनने के दौरान वो एक जन्म में त्रिपरिष्ठ वासुदेव और दुसरे में प्रियमित्र चक्रवर्ती भी बनेगा। भगवान ऋषभदेव की ये बातें सुनकर अपने पुत्र मरीचि की आत्मा के उज्ज्वल भविष्य को जानकर स्तब्ध रह गए और खुशी मनाने लगे, इस सुचना को लेकर वो मरीचि के पास गये और कहा ‘मरीचि, तुम बहुत भाग्यशाली हो, मैं तुम्हें भविष्य के तीर्थंकर के रूप में अभिवादन करता हॅू।
मरीचि भगवान ऋषभदेव की इस भविष्वाणी को सुनकर बहुत खुश हुए और उनकी खुशी की सीमा नहीं रही, लेकिन उसी समय वो अपने वंश के वैभव के बारे में भी सोचने लगे और अपने वंश के लिये गौरवान्वित होते हुए कहा कि ‘मेरा वंश कितना महान है, मेरे पितामह पहले तीर्थंकर हैं, मेरे पिताजी चक्रवर्ती हैं और मैं वासुदेव बनुंगा, इस चक्र के अंत में अंतिम तीर्थंकर बनूंगा, धीरे-धीरे वो आध्यात्मिक उत्कृष्टता की उâचाइयों की ओर सरकने लगे और जातीय वर्चस्व की अहंकार में गोते खाने लगे।
जैन धर्म के अनुसार मरीचि परिवर्जक विद्यालयों के संस्थापक थे, मरीचि का कहना था कि श्रमण! मन, वाणी और शरीर की विकृतियों से मुक्त होते हैं लेकिन परिवर्जक के पास ये सब चीजें थी। परिवर्जकों ने त्रिशूल को अपना चिन्ह बनाकर अपने साथ रखने लगे, उनके जीवन के अंतिम दिनों में उन्होंने राजकुमार कपिल को अपना अनुयायी बनाया और कपिल ने उनके मार्ग पर चलते हुए परिवर्जक विद्यालय बनाये।
महावीर स्वामी का १६वां अवतार विश्वभूती: मरीचि की आत्मा मनुष्य जन्म से भगवान की तरफ चलायमान हुयी और फिर वैकल्पिक रूप से १२ अवतार बाद आयी, जब उन्होंने मनुष्य रूप में जन्म लिया तो कई बार परिवर्जक बने और कई तपस्यायें की, उनके १६वें अवतार में वो राजगृह के राजा विश्वनंदी के भतीजे राजकुमार विश्वभुती के रूप में जन्म लिया और तपस्वी बनकर अपनी अन्तिम सांस तक कठोर तपस्या करते रहे। १७वें अवतार में उन्होंने देवताओं का रूप महाशक्र के रूप में जन्म लिया था, १८वें अवतार में वो त्रिप्रिष्ट वासुदेव बने।
महावीर स्वामी का १८वां अवतार : पाटनपुर के राजा प्रजापति की पत्नी मृगवती ने एक अत्यंत शक्तिशाली पुत्र दिया, जिसका नाम त्रिपरिष्ठ था। प्रजापति एक अधीनस्थ राज्य प्रतिवासुदेव के साधारण राजा थे। त्रिपरिष्ठ बहुत बहादुर और शूरवीर युवक था, जब उसकी वीरता के किस्से अश्वग्रीव तक पहुंचे, वो भुत भयभीत हो गया, उसने अपने ज्योतिष से पूछा कि किस तरह उसका विनाश करे, ज्योतिष ने कहा ‘जो आदमी तुम्हारे शक्ति-
शाली राज्य चन्दनमेघ को कुचल सकता है और तुंग पर्वत पर क्रूर शेर को मार सकता है, वो तुम्हारे दिए मौत का दूत बनेगा।
एक दिन अश्वग्रीव ने एक दूत को पाटनपुर भेजा और जब दूत ने बदसलूकी की तो त्रिपरिष्ठ ने उसे बाहर निकाल दिया, तब प्रजापति को एक सुचना मिली कि एक क्रूर शेर शालीप्रदेश पर कहर ढा रहा है, तुरंत उस स्थान पर जाकर उस शेर से किसानों को बचाओ, जब प्रजापति जाने के लिए तैयार हुए तब त्रिपरिष्ठ ने विनती की ‘पिताजी मेरे होते हुए आपको परेशान होने की आवश्यकता नहीं है, आपका पुत्र उस नरभक्षी को आसानी से मार देगा ।
त्रिपरिष्ठ और उसका ज्येष्ठ भाई बलदेव अचल कुमार जंगल में गये और स्थानीय लोगों से शेर के बारे में पूछा, उनके निर्देशानुसार वो उस शेर की तरफ बढे, लोगों की आवाज सुनकर शेर अपनी गुफा से बाहर आ गया और राजकुमार की तरफ बढ़ना शुरु किया, शेर को अपनी ओर आता देख त्रिपरिष्ठ ने सोचा ‘शेर अकेला चल कर आ रहा है तो मुझे अंगरक्षक और रथ की क्या आवश्यकता है, उसके पास हथियार नही है तो मै क्यों हथियार लेकर जाऊँ मैं उससे खाली हाथ और अकेला मुकाबला करूंगा’ त्रिपरिष्ठ अपने रथ से उतर गया और अपने सभी अस्त्र फ़ेंक दिए, वो खाली हाथ और अकेला उस नरभक्षी से लड़ा और अंत में उसने शेर का जबड़ा फाड़ दिया। रथ का सारथी कराहते शेर के पास गया, उससे सहानभूति के कुछ शब्द कहे और उसके घावों पर औषधीयां जड़ी-बूटियाँ लगा दी। नरभक्षी के मौत के क्षण शांतिपूर्ण थे, उस मरते हुए शेर के दिमाग में उस सारथी के लिए स्नेह का भाव आया, उस सारथी ने भगवान महावीर स्वामी के मुख्य अनुयायी इंद्रभूति गौतम के रूप में पुनर्जन्म लिया था और उस शेर ने एक किसान के रूप में जन्म लिया, जब उस किसान ने गौतम को देखा तो गौतम के लिए बन्धुत्व और सम्मान की भावना का संचार हुआ और वो किसान गौतम का अनुयायी बन गया, लेकिन जब उसने महावीर स्वामी को देखा तो उसके मन में डर और प्रतिशोध की भावना आयी, भगवान महावीर स्वामी ने तब उसकी सुषुप्त भावनाओं के कारण को बताने के लिए उसके पहले के जीवन की कहानी सुनाई।
राजकुमार त्रिपरिष्ठ ने अश्वग्रीव पर आक्रमण कर दिया और तीन महाद्वीपों पर अपना साम्राज्य बना लिया, इसके बाद वो अपने चक्र के प्रथम वासुदेव बने, एक दिन वासुदेब अपनी सभा में संगीत सभा का आनन्द ले रहे थे, जब नींद के कारण उनकी पलकें भारी होने लगी तो उन्होंने अपना बिस्तर तैयार करने का आदेश दिया और कहा ‘जब मैं सो जाऊँ तो ये कार्यक्रम समाप्त कर देना, कुछ क्षणों बाद त्रिपरिष्ठ ने अपनी आँखें बंद कर ली और उन्हें नींद आ गयी, अब वहां उपस्थित सभी दरबारी वापस संगीत में तल्लीन हो गये।
वो कार्यक्रम पुरी रात चला, अचानक वासुदेव जाग गये और उन्होंने संगीत की आवाज सूनी तो वो गुस्से से लाल हो गये और वहां उपस्थित सभी लोगों पर चिल्लाये ‘संगीत अभी तक रुका क्यों नहीं, बिस्तर लगाने वाले ने हाथ जोड़ कर कहा ‘सभी संगीत के मधुर स्वरों में खो गये थे, मैं भी संगीत में खो गया था उसके आदेश की अवमानना करने से क्रोधित होकर उन्होंने अपना सारा क्रोध उस लापरवाह बिस्तर लगाने वाले पर निकाला और कहा ‘पिघले हुए सीसे की छड़ों को इस संगीत के शौकीन के कानों में डाल दो, उसे ये एहसास होना चाहिये कि मालिक की अवमानना करने का क्या अंजाम होता है, वासुदेव के आदेश की पालना हुयी और असहनीय पीड़ा से उस बिस्तर लगाने वाले की मौके पर ही मौत हो गयी।
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त्रिपरिष्ठ के रूप में उनके क्रूर स्वभाव के कारण उनकी आत्मा ने कलंकित कर्मों का बंधन संचित किया, उनके इसी क्रूर स्वभाव के कारण महावीर के रूप में उनको कष्टदायी परिणाम भुगतने पड़े, महावीर अवतार में इसी बिस्तर परिचर ने किसान का रूप लिया और श्रमण के रूप में तपस्या करते समय इनके कानों में कीलें ठोकी थी। सत्ता के नशे, भव्यता के लिए जुनून और क्रूर बर्ताव के कारण त्रिपरिष्ठ वासुदेव ने अपना जीवन जीने के बाद अगले जन्म में सातवें नर्क में जन्म लिया, उनके २१वें अवतार में वो शेर बने, २२वें अवतार में फिर चौथे नर्क में गये और उसके बाद २३वें अवतार में उन्होंने प्रियमित्र चक्रवर्ती के रूप में जन्म लिया।
महावीर स्वामी का २३वां अवतार: प्रियमित्र चक्रवर्ती कई शुभ स्वप्न देखने के बाद मुकनगरी के राजा धनंजय की पत्नी ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम प्रियमित्र था, उनके धार्मिक कर्मों और बहादुरी की वजह से उन्होंने सातों महाद्वीप पर कब्ज़ा कर लिया और चक्रवर्ती बन गये। चक्रवर्ती बनने के बाद वो बहुत सुख और वैभव से रहे, अंत समय में अलगाव हो गया और पोत्तिलाचार्य से दीक्षा लेकर श्रमण बन गये। कई वर्ष तक कठोर तपस्या से अपने पिछले जन्मों का ज्ञान हुआ, अपना जीवन पूरा कर वो महाशुक्र कल्प के रूप में पुनर्जन्म लिया और इसके बाद अगले अवतार में वो चात्त्रंगेरी के राजा जीतशत्रु के पुत्र के रूप में जन्म लिया।
महावीर स्वामी का २४वां अवतार : नन्दन मुनि जीत शत्रु के पुत्र का नाम राजकुमार नंदन था जो सांसारिक भोग और वासना में लिप्त संसार में एक कमल के फूल की तरह था, उसके आध्यात्मिक खोज की भावना को सुन्दरता का आकर्षण मोड़ नहीं पायी। अंत में वो पोट्टीलाचार्य के अनुयायी बने। तपस्वी बनकर उसने तपस्या की अग्नि से अपनी आत्मा को शुद्ध किया, उसने तपस्या के २० कदमों का कठोर पालन किया, जिसके फलस्वरूप उन्होंने तीर्थंकर नाम और गोत्र कर्म अर्जित किया ताकि अगले जन्म में वो तीर्थंकर बने, इसके बाद उन्होंने प्रनत पुस्पोत्तर विमान के रूप में जन्म लिया, तत्पश्चात महावीर रूप में जन्म लिया।
तीर्थंकर महावीर के युग में भी गणतंत्र था
स्वयं महावीर गणतंत्र की राजधानी वैशाली के राजकुमार थे और दीक्षा के पश्चात् अरहन्त अवस्था को प्राप्त होते ही उन्होंने चतुर्विध संघ की स्थापना की, उनका अध्यात्म अनुशासन भी गणतंत्र पर आधारित था। महावीर ने कहा- जनतंत्र के तीन सूत्र हैं - स्वतंत्रता, समता और सह अस्तित्व।
जनतंत्र और महावीर
राजनीति विशारदों का मत हैं कि सबसे श्रेष्ठ शासन पद्धति वह है, जो जनता द्वारा स्वयं निर्मित हो, नियंत्रित हो, जनता के लिए हो तथा जनता का हो, जिसे जनतंत्र कहते हैं। भारत गणराज्य जनतंत्रात्मक है, विश्व के अधिकांश देशों की शासन पद्धति जनतंत्र पर आधारित है। बीसवीं शताब्दी की यह सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जाती है, इस उपस्थिति में महावीर दर्शन का योगदान अभूतपूर्व, असाधारण एवं श्रेष्ठतम है। तीर्थंकर महावीर के युग में भी गणतंत्र था, स्वयं महावीर गणतंत्र की राजधानी वैशाली के राजकुमार थे और दीक्षा के पश्चात् अरहन्त अवस्था को प्राप्त होते ही उन्होंने चतुर्विध संघ की स्थापना की, उनका अध्यात्म अनुशासन भी गणतंत्र पर आधारित था। महावीर ने कहा- जनतंत्र के तीन सूत्र हैं – स्वतंत्रता, समता और सह अस्तित्व।
जनतंत्र का प्रथम सूत्र है स्वतंत्रता-महावीर धर्म का शाश्वत और धु्रव तत्व इसी को मानते थे कि किसी प्राणी का हनन, शोषण, पीड़न और दासत्व न हो, न कोई हीन है और न ही कोई उच्च है, अत: महावीर की मान्यता थी कि हर आत्मा मूलत: परमात्मा का स्वरूप है वह स्वयं अपना भाग्य विधाता है, वही अपना मित्र है और वही अपना शत्रु है। स्वतंत्रता का अर्थ स्वच्छन्दता एवं तन्त्र हीनता नहीं है, स्वतंत्र का अर्थ है तंत्र दूसरे द्वारा आरोपित नहीं, बल्कि अपने द्वारा निर्मित एवं स्वीकृत हो, स्वतंत्र अर्थात् अपना तंत्र, अत: स्वतंत्र का अर्थ हैं आत्म संयम। संयम का अभाव स्वतंत्रता नहीं, तंत्र हीनता है, स्वच्छन्दता है, जिसका प्रजातंत्र में कोई स्थान नहीं है।
स्वच्छन्दता दूसरों के हितों का अतिक्रमण कर सकती है, उससे शोषण तथा विषमताओं की वृद्धि होती है, जो प्रजातंत्र का विलोम है। संयम ही स्वतंत्रता है – यह महावीर का सूत्र वर्तमान भारतीय प्रजातंत्र के लिए एक महत्वपूर्ण दिशा दर्शक तत्व है।
संयम, नैतिक स्वतंत्रता है – जिसके अभाव में राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्वतंत्रता का कोई मूल्य नहीं होता।
प्रजातंत्र का दूसरा सूत्र समता है-महावीर ने समता को ही धर्म कहा है, यह समता सुख-दु:ख के प्रति समभाव है तथा प्राणी-मात्र के प्रति समत्व दृष्टि है, समता मानवीय अधिकारों का संरक्षक है और सामाजिक एवं आर्थिक विषमताओं को भी स्वयं समाप्त कर देता है।
प्रजातंत्र का तीसरा सूत्र है सहअस्तित्व – इसका अर्थ है, हर व्यक्ति दूसरे के जीवन तथा अधिकार का आदर करे, उसका अतिक्रमण न करे। महावीर सह-अस्तित्व के सूत्र को विचारों को, चिन्तन की अतल गहराई तक ले गये। वैचारिक क्षेत्र में किसी पर जबरदस्ती अपना विचार थोपना गलत है। महावीर ने कहा – मैं उपदेश दे रहा हूँ, आदेश नहीं, तुम इसे अपनी प्रज्ञा की कसौटी पर कस कर देखो, खरा उतरता हो तो मानों, अत: दूसरे को गलत और अपने को ही एक मात्र सही नहीं मानना चाहिए, अपने विचार से हम सही हो सकते हैं, तो दूसरा भी अपनी दृष्टि से सही हो सकता है।
अत: विचारों को लेकर किसी के प्रति असहिष्णु नहीं होना चाहिए, किसी के आत्मनिर्णय के अधिकार का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए।
महावीर का अनेकान्त दर्शन ही प्रजातंत्र का प्राण सूत्र है। संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना का मूल हेतु आत्म निर्णय की भावना थी, जो महावीर की दृष्टि से ही समाप्त किया जा सकता है। आज देश में भाषा, प्रान्त, सम्प्रदाय, मत, पंथ आदि को लेकर जो विघटन की प्रवृत्तियां चल रही हैं, वे अनेकान्त की प्रतिष्ठा से स्वत: निर्मूल हो सकती है, इस प्रकार हम जनतंत्र के मूल आदर्शों की सरल एवं व्यापक आधार भूमि महावीर के चिन्तन में पाते हैं, जनतंत्र का मूल आदर्श है अहिंसा, जो श्रमण-संस्कृति का, जैन-धर्म का केन्द्र बिन्दु रहा है।
अहिंसा की ही निष्पत्ति अनेकान्त, समता और स्वतंत्रता है, इस अहिंसा को लोक जीवन में व्यापक प्रतिष्ठा होने से ही भारतीय जनतंत्र सर्वतोभावेन निष्कलुष और सफल हो सकेगा।