आत्मशुद्धि का पर्व – पर्वाधिराज पर्युषण पर्व

लहरों को मझधार नहीं, किनारा चाहिए

हमें चांद सुरज नहीं, सितारा चाहिए

मोह-माया में भटकी, इस आत्मा को

प्रभु महावीर के संदेशों का सहारा चाहिए

जैनों के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर का नाम लेते ही व्यक्ति नहीं, सत्य का आभास होने लगता है। सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकांतवाद, ब्रह्मचर्य, अभय, क्षमा के प्रतीक भगवान महावीर के उपदेशों, सिद्धांतों के प्रसार-प्रचार की आज अत्यंत आवश्यकता है।

आज समस्त विश्व हिंसा की कगार पर खड़ा है, ऐसे में जरूरत है ‘विश्व मैत्री दिवस’ ‘क्षमा-याचना’ दिवस मनाने की। जैनों का महत्वपूर्ण महापर्व पर्वाधिराज ‘पर्युषण’ एवम् क्षमापर्व ‘संवत्सरी दिवस’ फिर एक बार दुनिया को क्षमा का, प्रेम का अमर संदेश देने के लिये आया है।

पर्युषण शब्द संस्कृत का शब्द है। प्राकृत अर्धमागधी में इसे पज्जोसवणा, पज्जुसणा या पज्जोसमणा कहा जाता है। कहते हैं वर्ष में चार अष्टान्हिक पर्व आते हैं, कुछ प्राचीन ग्रंथों में छह अष्टान्हिक (आठ दिनों तक मनाया जाने वाला) पर्वों का भी उल्लेख है। माना जाता है कि इन दिनों में देवगण नंदीश्वर दीप में आते हैं और वहाँ अट्ठाई महोत्सव मनाते हैं। यह अट्ठाई महोत्सव आठ दिन (श्वेताम्बर) का होता है इसलिये श्वेताम्बर पर्युषण पर्व आठ दिन के मनाने की एक प्राचीन परंपरा चल रही है।

अष्टान्हिक पर्व यह है –

१.आषाढ सुद ७ से १४

२.अश्विन सुद ७ से १४

३.चैत्र सुदि ७ से १४

४.भाद्रपद मास में धूमधाम से मनाया जानेवाला पर्युषण पर्व (१२ से ४)

५.कार्तिक सुदि ७ से १४

६.फाल्गुन सुदि ७ से १४

पर्वाधिराज पर्युषण पर्व जो आत्मा के निकट जाकर परिमार्जन, परिष्करण, प्रतिक्रमण का अर्थबोध प्रदान करता है। आत्म-ज्ञान से शाश्वत संदेश देता है। आठ दिन तक मनाया जाने वाला यह पर्व शुद्ध आध्यात्मिक पर्व है, इसके भी दो पक्ष हैं। एक बाह्य और दूसरा आंतरिक। बाहृ की साधना में श्रावक-श्राविका उपवास, पोषध, प्रतिक्रमण करना व्याख्यान (प्रवचन) सुनना,हरी सब्जियाँ – रात्रि भोजन का त्याग करना, ब्रह्मचर्य का पालन, साधार्मिक भक्ति, अभयदान, क्षमापना और अट्ठम तप आदि कर्तव्यों का पालन करते हैं। (जैन साहित्य में आठ अंक विशिष्ट महत्व रखता है। सिद्ध भगवान के आठ गुण बताये गये हैं जो आठ कर्मों का क्षय करने से आत्म स्वभाव के रूप में प्रकट होते हैं। साधु की प्रवचन माता आठ है। अष्ट मंगल जो प्रत्येक शुभ कार्य के पहले मांडे जाते हैं। आत्मा के सूचक प्रदेश भी आठ है। अट्ठाई पर्व के भी आठ दिन हैं, ये सारी क्रियाएँ भी एक तरह से आंतरिक पक्ष को संबल प्रदान करती हैं। दूसरा पक्ष है आत्मशुद्धि, विश्व मैत्री और क्षमा-याचना का। कहते हैं अंतस के दो प्रबल शत्रु होते हैं राग और द्वेष। ये दो शत्रु ही हमारे नैतिक पतन का प्रमुख कारण बनते हैं। क्रोध, मोह-माया-लोभ, परिग्रह के शिकंजे में फंसकर मानव अनगिनत अपराधों में लिप्त हो जाता है, ये पर्व हमें संदेश देता है। कटुता-अनबन, राग-द्वेष के भावों से मुक्त होकर क्षमा-प्रेम-स्नेह, मानवता और आत्मशुद्धि के रंग में रंग जाओ। आत्मशुद्धि के लिये सबसे महत्वपूर्ण है क्षमायाचना, वह भी अंतस मन से होनी चाहिये, ताकि मन में कोई विकार बाकी न रहे। ओशो कहते हैं ‘‘महावीर सिर्फ जैन नहीं थे, वे जिन थे, स्वयं को जीतने वाले’’ आत्म रुपांतरण की जो राह महावीर ने दिखाई वह आज भी उतनी ही सार्थक है। संवत्सरी दिवस के चार महत्वपूर्ण अंग है, चार आवश्यक कर्तव्य है जो हर साधक को करने चाहिये। उपवास, प्रतिक्रमण, आलोचणा और क्षमापना। उपवास से तन-मन दोनों की शुद्धि होती है।

उपवास का मतलब होता है अपनी आत्मा में रमण करना। भगवान महावीर चार-चार महीने का उपवास करते हैं जो इस बात का सबूत है कि उनके पास कितनी आत्मिक शक्ति थी। (आज भी कई साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका मासक्षमण (३० उपवास) या उससे अधिक उपवास करते हैं) आप भीतर चले जाते हैं तो बाहर का स्मरण छूट जाता है। महावीर की ‘काया-क्लेश’ का मतलब यही है कि काया की ऐसी साधना की जाये उसे ऐसा नियंत्रित किया जाये कि काया बाधक न रहकर साधक हो जाए। आज इस अर्थ को लोगों तक पहुँचाने की अत्यंत आवश्यकता है ताकि वीर की वाणी – वीर की धारा समूचे जगत में अखंड बहती रहे और अंतस के अंधेरे में सबके अंतर दीप जलते रहें।

‘संवत्वरी दिवस’ का सबसे बड़ा कर्तव्य है क्षमापना। महावीर कहते हैं क्षमा मांगने से मनुष्य छोटा नहीं होता, बल्कि जो क्षमा मांगता और क्षमा देता है वह ‘वीर’ होता है ‘क्षमा वीरस्य भूषणम’ महावीर का जीवन चरित्र पढ़ें वह कभी किसी से नहीं डरे, जो भी व्यक्ति आध्यात्मिक विकास करेगा, अपनी चेतना का उद्वारोहण करेगा उसका भय समाप्त हो जायेगा, जिस वीर के हाथ में क्षमा का अमोघ शध्Eा है, उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। क्षमा से शत्रु भी मित्र बन जाते हैं। क्षमापना का संदेश आत्मशक्ति का संदेश है, जीवन शुद्धि का महोत्सव है, विश्व-मैत्री की भावना है, यही भाव जीवन को निर्मल बनाता है। (संवत्सरी प्रतिक्रमण द्वारा, वर्ष भर हुई भुलों की, पापों की हम समालोचना करते हैं) अट्ठारह दिनों का यह समय अध्यात्म चिंतन का समय है। आत्मा से सभी विकारों का विसर्जन करने का समय है, समस्या के समाधान का समय है।

आज इस पावन पर्व पर हम अभय बनने का संकल्प करें, मन को पवित्र और निर्भय बनाने का मार्ग प्रशस्त करें।

खामेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमतु में

भिति में सव्वे भुएसु वेर मज्जं न केणइ

-मंजू लोढ़ा जैन, मुम्बई

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