गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरिश्वरजी
जन्मस्थान एवं माता-पिता-परिवार ‘श्रीराजेन्द्रसुरिरास’ एवं श्री राजेन्द्रगुणमंजरी के अनुसार, वर्तमान राजस्थान प्रदेश के भरतपुर शहर में दहीवाली गली में पारिख परिवार के ओसवंशी श्रेष्ठि ऋषभदास रहते थे, आपकी धर्मपत्नी का नाम केशरबाई था, जिसे अपनी कुक्षि में श्री राजेन्द्र सुरि जैसे व्यक्तित्व को धारण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। श्रेष्ठि रुषभदास जी की तीन संतानें थीं, दो पुत्र : बड़े पुत्र का नाम माणिकचन्द एवं छोटे पुत्र का नाम रतनचन्द था एवं एक कन्या थी, जिसका नाम प्रेमा था, छोटा पुत्र रतनचन्द आगे चलकर आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरि नाम से प्रख्यात हुए।
गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरिश्वरजी
वंश : पारेख परिवार की उत्पत्ति
आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्रसुरि के अनुसार, वि.सं. ११९० में आचार्यदेव श्री जिनदत्तसुरि महाराज के उपदेश से राठौड़ वंशीय राजा खरहत्थ ने जैन धर्म स्वीकार किया, उनके तृतीय पुत्र भेंसाशाह के पांच पुत्र थे, उनमें तीसरे पुत्र पासुजी आहेड्नगर (वर्तमान आयड-उदयपुर) के राजा चंद्रसेन के राजमान्य जौहरी थे, उन्होंने विदेशी व्यापारी के हीरे की परीक्षा करके बताया कि यह हीरा जिसके पास रहेगा, उसकी ध्Eाी मर जायेगी, ऐसी सत्य परीक्षा करने से राजा पासु जी के साथ ‘पारखी’ शब्द का अपभ्रंश ‘पारिख’ शब्द बना। पारिख पासुजी के वंशज वहाँ से मारवाड़, गुजरात, मालवा, उत्तरप्रदेश आदि जगह व्यापार हेतु गये, उन्हीं में से दो भाइयों के परिवार में से एक परिवार भरतपुर आकर बस गया था, जन्म को लेकर ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है कि आचार्य श्री के जन्म के पहले एक रात्रि में उनकी माता केशरबाई ने स्वप्न में देखा कि एक तरुण व्यक्ति ने प्रोज्ज्वल कांति से चमकता हुआ रत्न केशरबाई को दिया – ‘गर्भाधानेड्थ साडद्क्षीत स्वप्ने रत्नं महोत्तम्म’निकट के स्वप्नशाध्Eाी ने स्वप्न का फल भविष्य में पुत्ररत्न की प्राप्ति होना बताया।
गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरिश्वरजी जन्म समय – आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्र सुरी के अनुसार, वि.सं.
१८८३ पौष सुदि सप्तमी, गुरुवार, तदनुसार ३ दिसम्बर सन् १८२७ को माता केशरबाई ने देदीप्यमान पुत्ररत्न को जन्म दिया। पूर्वोक्त स्वप्न के अनुसार माता-पिता एवं परिवार ने मिलकर नवजात पुत्र का नाम ‘रत्नराज’ रखा।
व्यावहारिक शिक्षा – आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्र सुरी एवं मुनि गुलाबविजय के अनुसार योग्य उम्र में पाठशाला में प्रविष्ट हुए, मेधावी रत्नराज ने केवल १० वर्ष की अल्पायु में ही समस्त व्यावहारिक शिक्षा अर्जित की, साथ ही धार्मिक अध्ययन में विशेष रुचि होने से धार्मिक अध्ययन में प्रगति की। अल्प समय में ही प्रकरण और तात्विक ग्रंथों का अध्ययन कर लिया। तीव्र क्षयोपशम के कारण प्रखरबुद्धि बालक रत्नराज १३ वर्ष की छोटी सी उम्र में अतिशीघ्र विद्या एवं कला में प्रवीण हो गए, श्री राजेन्द्रसूरि रास के अनुसार उसी समय विक्रम संवत् १८९३ में भरतपुर में अकाल पड़ने से कार्यवश माता-पिता के साथ आये रत्नराज का उदयपुर में आचार्य श्री प्रमोदसुरि जी के प्रथम दर्शन एवं परिचय हुआ, उसी समय उन्होंने रत्नराज की योग्यता देखकर ऋषभदास जी ने रत्नराज की याचना की लेकिन ऋषभदास ने कहा कि अभी तो बालक है, आगे किसी अवसर पर, जब यह बड़ा होगा और उसकी भावना होगी, तब देखा जायेगा।’ यात्रा एवं विवाह विचार – जीवन के व्यापार-व्यवहार के शुभारंभ
हेतु मांगलिक स्वरुप तीर्थयात्रा कराने का परिवार में विचार हुआ। माता-पिता की आज्ञा लेकर बड़े भाई माणेकचंद के साथ धुलेवानाथ – केशरियाजी तीर्थ की पैदल यात्रा करने हेतु प्रयाण किया, पहले भरतपुर से उदयपुर आये, वहाँ से अन्यत्र यात्रियों के साथ केशरियाजी की यात्रा प्रारंभ की, तब रास्ते में पहाड़ियों के बीच आदिवासी भीलों ने हमला कर दिया, उस समय रत्नराज ने यात्रियों की रक्षा की। साथ ही नवकार मंत्र के जाप के बल पर जयपुर के पास अंब ग्राम निवासी शेठ शोभागमलजी की पुत्री रमा को व्यंतर के उपद्रव से मुक्ति भी दिलायी, सभी के साथ केशरियाजी की यात्रा कर वहाँ से उदयपुर, करेडा पार्श्वनाथ एवं गोडवाड के पंचतीर्थों की यात्रा कर वापस भरतपुर आये। ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है कि शेठ सोभागमलजा ने रत्नराज के द्वारा पुत्री रमा को व्यंतर दोष से मुक्त किये जाने के कारण रमा की सगाई रत्नराज के साथ करने हेतु बात की थी, लेकिन वैराग्यवृत्ति रत्नराज ने इसके लिए इंकार कर दिया।