जैन परम्परा में परमेष्ठी का प्रतीक


जैन परम्परा में परमेष्ठी का प्रतीक 

अरहंता असरीरा आईरिया तह उवज्झाया मुणिणो। 
पढमक्खरणिप्पणो ओंकारो पंचपरमेष्ठी।।

जैनागम में अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं मुनि रूप पांच परमेष्ठी ही आराध्य माने गए हैं, इनके आद्य
अक्षरों को परस्पर मिलाने पर ‘ओम’/‘ओं’ बन जाता है, यथा, इनमें पहले परमेष्ठी ‘अरिहंत’ या ‘अरहंत’
‘अशरीरी’ कहलाते हैं, अत: ‘अशरीरी’ के प्रथम अक्षर ‘अ’ को ‘अरिहन्त’ के ‘अ’ से मिलाने पर अ±अ·‘आ’ ही बनता
है, उसमें चतुर्थ परमेष्ठी ‘उपाध्याय’ का पहले अक्षर ‘उ’ को मिलाने पर आ±उ मिलकर ‘ओ’ हो जाता है, अंतिम
पाँचवें परमेष्ठी ‘साधु’ को जैनागम में ‘मुनि’ भी कहा जाता है, अत: मुनि के प्रारम्भिक अक्षर ‘म’ को ‘ओ’ से
मिलाने पर ओ±म्· ‘ओम्’ या ‘ओं’ बन जाता है, इसे ही प्राचीन लिपि में न के रूप में बनाया जाता रहा है। ‘जैन’
शब्द में ‘ज’, ‘न’ है इसमें ‘ज’ के ऊपर ‘ऐ’ सम्बन्धी दो मात्राएँ बनी होती है, इनके माध्यम से जैन परम्परागत
‘ओ’ का चिन्ह बनाया जा सकता है, इस ‘ओम्’ के प्रतीक चिन्ह को बनाने की सरल विधि चार चरणों में निम्न
प्रकार हो सकती है।

१. ‘जैन’ शब्द के पहले अक्षर ‘ज’ को अँग्रेजी में जे-लिखा जाता है, अत: सबसे पहले ‘जे’-को बनाए- 
२. तदुपरान्त ‘जैन’ शब्द में द्वितीय अक्षर ‘न’ है, अत: उसे ‘जे’-के भीतर/साथ में हिन्दी का ‘न’ बनाएँ-न
३.चूंकि ‘जैन’ शब्द ‘ज’ के ऊपर ‘ऐ’ सम्बन्धी दो मात्राएं होती हैं, अत: प्रथम मात्रा के प्रतीक स्वरूप उसके ऊपर
पहले चन्द्रबिन्दु बनाएं-
४. तदुपरान्त द्वितीय मात्रा के प्रतीक स्वरूप उसके ऊपर चन्द्र बिन्दु के दाएँ बाजू में ‘रेफ’ जैसी आकृति बनाएँ- नँ
इस प्रकार जैन परम्परा सम्मत परमेष्ठी प्रतीक ‘ओम्’/‘ओं’ की आकृति निर्मित हो जाती है।

जैन परम्परा में परमेष्ठी का प्रतीक 

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