राष्ट्रीय एकता के विकास में जैन धर्म का योगदान (Contribution of Jainism in the development of national unity)

राष्ट्रीय एकता के विकास में जैन धर्म का योगदान (Contribution of Jainism in the development of national unity)
राष्ट्रीय एकता के विकास में जैन धर्म का योगदान (Contribution of Jainism in the development of national unity)
जैन धर्म के कुछ मौलिक सिद्धान्त हैं, जिनके कारण इस धर्म का एक स्वतन्त्र अस्तित्व है, इनमें अनेकान्त, स्याद्वाद, अहिंसा तथा अपरिग्रह प्रमुख हैं, ये समस्त सिद्धान्त किसी न किसी रूप में राष्ट्रीय एकता के आधार स्तम्भ हैं।
सर्वप्रथम अनेकान्त के सिद्धान्त पर दृष्टिपात करें तो वर्तमान में दोषारोपण का जो दौर प्रचलित है उसका समाधान अनेकान्त से ही सम्भव है। अनेकान्त का अर्थ है ‘‘एक ही वस्तु में कई दृष्टियों का अस्तित्व होना’’ यदि इसके गम्भीर भाव को समझें तो इसमें विरोधी धर्मों का भी समभाव एक ही समय में एक ही वस्तु में स्वीकारा गया है। यद्यपि प्रथम दृष्ट्या ये विरोधाभास प्रतीत होता है किन्तु यह सत्य नहीं है। उदाहरण स्वरूप तेलंगाना को पृथक् राज्य बनाने की माँग आन्ध्रप्रदेश में हो रही थी, इस मुद्दे के अन्तर्गत पक्ष-विपक्ष का उद्देश्य है वह भिन्न-भिन्न है। एक पक्ष स्वतंत्र राज्य की स्थापना करके पृथक् प्रशासन प्रणाली विकसित करना चाहता था, जबकि केन्द्र सरकार इस माँग को अनुपयोगी समझते हुए अस्वीकार करती रही थी, तटस्थ दृष्टि से विचार करें तो ये दो भिन्न दृष्टियाँ हैं जो अपनी-अपनी अपेक्षा से सही हैं।
तेलंगाना पृथक् राज्य की माँग के विषय में आन्ध्रप्रदेश में निवास करने वाला एक वर्ग इसे पृथक् बनाना चाहता है जबकि एक अन्य वर्ग इसके विरोध में था, अत: एक ही वस्तु में दो विरोधी धर्मों का होना असम्भव नहीं, अपितु सम्भव है और यही अनेकान्त है, इस विषय पर हो रही हिंसा, इस समस्या का उपाय नहीं है।
अनेकान्त का सिद्धान्त जहाँ अपनी स्थापना करता है वहीं यह प्रत्येक समस्या का स्वयं में समाधान है क्योंकि जो इसके सिद्धान्त को स्वीकारता है वह वस्तु के अनेकान्तमयी स्वभाव को मानता है। प्रसिद्ध भी है ‘स्वभावो तर्क गोचर:’ अर्थात् स्वभाव तर्क के दायरे से परे है और इस सिद्धान्त को मानने वाला समता परिणाम युक्त हो जाता है। उपयुक्त गद्य में कहा गया है अनेकान्त एक सिद्धान्त होने के साथ-साथ समस्या का समाधान है अत: जो इसके हार्द से अवगत हो जाता है, उसकी दृष्टि स्व तथा पर दोनों के लिए सम अर्थात् समान हो जाती है। तेलंगाना पृथक् राज्य का विषय भी इसी अनेकान्त के सिद्धान्त को समझने का दुष्परिणाम है, यद्यपि पृथक् राज्य बनाने की माँगों के जो कारण हो सकते हैं वे निम्नलिखित हैं। –

१. जिस क्षेत्र के निवासी इसकी माँग कर रहे हैं सम्भवतया उन्हें विकास के वे लाभ प्राप्त नहीं हो रहे जो की सुलभ
हैं। 
२. तैलंगाना क्षेत्र से सम्बन्धित श्थ्A स्वतन्त्र राज्य के निर्माण के माध्यम से उच्च पदों पर पहुँचना चाहते हैं
अथवा उन्हें ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जिस प्रकार वे समाज की सेवा करना चाहते हैं, वह आन्ध्रप्रदेश से पृथक् होने
पर ही सम्भव है।
३. एक अन्य सम्भावना यह हो सकती है कि चुनावों को ध्यान में रखते हुए जनता को भावनात्मक रीति से लक्ष्य
विमुख करने की कतिपय श्थ्A की नीति हाया समाज को सही दिशा प्रदान करने की रणनीति हो,

उपर्युक्त कारणों के अतिरिक्त भी कई अन्य कारण हो सकते हैं, इन समस्त विषयों में कहीं भी समदृष्टि का आभास नहीं हो रहा है बल्कि आपसी वैमनस्य की भावना इसे सामग्री प्रदान करती है। पृथक् राज्य बनाने के उपरान्त भी समस्याओं का अन्त कदापि सम्भव नहीं है क्योंकि इसके बनने पर क्षेत्र का विभाग होगा जिसके अन्तर्गत कुछ नगर पुराने राज्य में रहना चाहेंगे तथा कुछ नवीन राज्य से जुड़ना महत्वपूर्ण समझेंगे, ऐसा नहीं होने पर तद् नगरों से सौतेला व्यवहार होगा और ऐसी परिस्थिति बनने पर पुन: दबे रूप में आक्रोश की ज्वाला प्रज्वलित रहेगी, जिससे अनवस्था दोष की स्थिति बनती है और ऐसे में कितनी बार राज्य का विभाजन होगा यह चिन्ता का विषय है, इतना तो निश्चित है कि इस प्रकार का निर्णय लेने पर वैधानिक दृष्टि से आगे के लिए मार्ग भी खुलता है जो कि समस्या का समाधान नहीं है। पूर्व कथित समस्या का यही समाधान है कि जिन कारणों से पृथक् राज्यों की माँग हो रही है उन माँगों पर विचार करके उनकी यथा सम्भव शीघ्रातिशीघ्र पूर्ति की जाये।
जैनधर्म के उपयुक्त प्रमुख सिद्धान्तों में द्वितीय सिद्धान्त स्याद्वाद है। स्याद्वाद का अर्थ किसी अपेक्षा से कथन करना है, यहाँ अपेक्षा का अर्थ तात्पर्य, आशय, दृष्टिकोण कथन करने की पद्धति विशेष इत्यादि ग्रहण करना चाहिए। प्राय: दो वक्ताओं के मध्य में इस सिद्धान्त की समझ न होने के कारण विसंवाद हो जाता है, ऐसी परिस्थिति न केवल दो व्यक्तियों के मध्य होती है अपितु समाज के दो वर्गों में, दो राज्यों में तथा दो देशों या इससे अधिक के मध्य में सम्भव है और ऐसा होने के कारण ही भ्रम तथा अविश्वास की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, इस भ्रम या अविश्वास का प्रमुख कारण स्ग्ेम्दस्स्ल्हग्म्aूग्दह अहं, विकृत राजनीति, व्यक्तिगत स्वार्थ इत्यादी होते हैं। असंवाद की स्थिति प्राय: दो पड़ोसी देशों में बन जाती है क्योंकि जहाँ अन्य के प्रति अविश्वास या शंका बन जाती है वहीं असंवाद का बीज अंकुरित हो जाता है। भारत की ही स्थिति देखें तो कावेरी नदी के जल के बँटवारे को लेकर दो राज्यों में संघर्ष की स्थिति बनी हुई है और विसंवाद के कारण यह मामला उच्चतम न्यायालय में पहुँच गया है, इस अन्तर्द्वन्द्व के कारण ही जो विषय परस्पर सुलझाया जा सकता था वह न्यायालय के िवचाराधीन होने से रंज का कारण बन गया, यद्यपि इस संबंध में माननीय उच्चतम न्यायालय का निर्णय अन्तिम होता है तथा दोनों पक्षों को इसे स्वीकारना होगा, तथापि इसे स्वीकार करके भी परस्पर में एकत्व की भावना विकसित नहीं हो सकती है, जहाँ देश की सर्वोच्च वैधानिक संस्था दो पक्षों को एक बिन्दु पर सम्मिलित कर सकती है किन्तु उनमें आत्मीयता की भावना नहीं उत्पन्न करा सकती, वहीं स्याद्वाद का सिद्धान्त को जानने एवं मानने वाले के बाह्य मेल के साथ-साथ अंतरंग सौहार्द को भी जीवीत रखता है।
स्वतंत्रता आन्दोलन में देश की स्वतंत्रता के लिए दो दल उभरकर सामने आये, जिनमें से एक गरम दल एवं दूसरा नरम दल था। यद्यपि दोनों दलों का उद्देश्य देश को स्वतंत्र कराना था तथापि एक-दूसरे की नीति को उचित न मानने के कारण दोनों दल पृथक् थे। गरम दल क्रांति के माध्यम से देश को स्वतंत्र कराना चाहता था जबकि नरम दल शान्ति, सौहार्द की रणनीति से अपना अधिकार प्राप्त करना चाहता था। स्याद्वाद की दृष्टि से चिन्तन करें तो दोनों ही पक्ष किसी एक की अपेक्षा से उचित विचार रख रहे हैं। जैन धर्म का तीसरा प्रभावशाली सिद्धान्त अहिंसा है। मन से, वचन से या शारीरिक क्रिया से किसी के भी द्वारा स्वयं एवं अन्य का अहित न करना अहिंसा है। शांति, सौहार्द, मध्यस्थता इत्यादी इसके सहकारी कारण हैं। अहिंसा की भावना के कारण ही भारत की अखण्डता आज भी अस्तित्व में है जबकि भारत की तुलना में शक्तिशाली या समकक्ष देशों का वातावरण इतना सौहार्दपूर्ण नहीं है। उदाहरण स्वरूप अमेरिका के सम्बन्ध अन्य शक्तिशाली देशों से कटु हैं। भारत का पड़ोसी देश पाकिस्तान भी प्रतिदिन प्रतिशोध, आतंक की ज्वाला में जल रहा है, यही समस्या बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल आदि देशों में भी है जो कि अहिंसा के सिद्धान्त को समझ न पाने का दुष्परिणाम है, यद्यपि कोई भी ऐसा देश नहीं है जो इन समस्याओं से त्रस्त न हो, भारत भी इनमें से एक है तथापि अन्य की अपेक्षा से भारत की स्थिति ज्यादा सुदृढ़ है। पड़ोसी देशों द्वारा विविध रीतियों से त्रस्त किये जाने पर भी भारत अहिंसा के मार्ग पर अग्रसर है, इसी अहिंसा के सिद्धान्त के बल पर राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने भारत को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराया था, इस सिद्धान्त में गाँधीजी का विश्वास तथा गाँधीजी में देश का विश्वास था अत: प्रकारान्तर से राष्ट्रीय स्वतंत्रता या विकास में अहिंसा का महत्वपूर्ण स्थान रहा है, इतना निश्चित है कि कई लोग इस सिद्धान्त से अपरिचित रहे होंगे किन्तु परोक्ष रूप में अहिंसा के अनुयायी रहे थे, अन्यथा गाँधीजी का स्वप्न साकार नहीं हो सकता था, इसी प्रसंग में विश्व बंधुत्व की सोच ने भी राष्ट्रीय एकता के विकास में कार्य किया, क्योंकि जैन धर्म में एकेन्द्रिय से लेकर मनुष्य तक के अस्तित्व में कोई अन्तर नहीं माना गया है, इसी कारण जैन धर्म में मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणी को भी समान माना है, यही विश्व बंधुत्व की भावना अपरिग्रह के सूत्र को भी स्वयं में समेटे हुए है, इसका सटीक उदाहरण भामाशाह का दृष्टान्त है, जिसमें भामाशाह महाराणा प्रताप के लिए स्वेच्छा से अपना सर्वस्व तिरोहार कर देते हैं।
उपर्युक्त उदाहरणों से यह सिद्ध होता है कि राष्ट्रीय एकता के विकास में जैन धर्म का महत्वपूर्ण योगदान है इसलिए चाहता है कि दिला दो ‘हिंदी’ को राष्ट्रभाषा का खिताब हमारे देश भारत की एक राष्ट्रभाषा ‘हिंदी’ को संवैधानिक द़र्जा प्राप्त हो।

जैन परम्परा में परमेष्ठी का प्रतीक ( Symbol of Parmeshthi in Jain Tradition)

You may also like...

?>