तप और दान के प्रवाह का पर्व- अक्षय तृतीया


राघशुक्लतृतीयाया, दानमासीत् तदक्षयम्
पर्वाक्षय तृतीयेति, ततोऽघापि प्रवर्तते
श्रेयांसोपज्ञमवनौ, दान-धर्म प्रवृत्तवान्
स्वाम्युपेतमिवाऽ शेषव्यवहार नयक्रम:


‘अक्षय तृतीया’ का दिन महामंगलकारी होता है, इस दिन की महिमा मात्र जैनों में ही नहीं, अजैनों में भी है, वर्ष में कुछ दिन ऐसे हैं जो बिना पूछे मुहूर्त' कहलाते हैं, वैशाख सुदी तीज की भी यही महिमा है, इस अवसर्पिणी काल में सर्वप्रथम दान धर्म का प्रारंभ इसी दिन से शुरु हुआ था। अक्षय तृतीया - यह ऐसा त्यौहार है, जिसका महात्म्य बहुत बड़ा और व्यापक है। हिंदू, वैदिक और जैन परंपराओं में ‘अक्षय तृतीया’ का महत्व बहुत ज्यादा माना गया है, यह जिज्ञासा उठनी स्वाभाविक है कि इस पर्व का नाम ‘अक्षय तृतीया’ क्यों पड़ा? अ-क्षय, मतलब, जिसका क्षय नहीं, अर्थात हर हाल में यथावत। वैशाख मास की इस तृतीया का कभीक्षय’ नहीं होता, इसीलिए इसे ‘अक्षय तृतीया’ कहा गया है। भारतीय ज्योतिष शास्त्रानुसार तिथियाँ चंद्रमा और नक्षत्रों की गतिनुसार बनती है, जैसे चंद्रमा की कला घटती-बढ़ती है वैसे तिथियाँ भी घटती-बढ़ती है, एकम से लेकर अमावस्या, पुनम आदि सभी तिथियों में घटबढ़ी चलती रहती है, किंतु वैशाख सुदी ३ याने आखा तीज की तिथि हजारों वर्षों में क्षय तिथि नहीं बनी, यह कभी नहीं घट-बढ़ी, इसलिये इसे अक्षय तिथि कहा गया है, इसे आखा तीज भी कहा जाता है।

वैदिक परम्परा में कहा जाता है कि ऋषि जमदग्नि के पुत्र, परम बलशाली परशुरामजी का जन्म आखा तीज के दिन हुआ था। कुछ लोग मानते हैं कि सतयुग का प्रारम्भ भी इसी दिन हुआ था, इसलिये यह युगादि तिथि भी है। एक बार राजा युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से ‘आखा तीज’ पर्व की विशेषता पूछी तो उन्होंने बतलाया – वैशाख शुक्ल तृतीय के पूर्वाह्न में जो यज्ञ, दान, तप आदि पुण्य कार्य किये जाते हैं उनका फल अक्षय होता है, यह विश्वास है कि इस दिन का मुहुर्त सबसे श्रेष्ठ है, इसलिये विवाह,
गृहप्रवेश, व्यापार आदि का शुभारंभ अक्षय तृतीया के दिन बहुत होता है। गाँवों में तो इस दिन सामुहिक विवाह होते हैं, कई जगह तो आज भी छोटे-छोटे बच्चों का विवाह कर दिया जाता है, इस दिन सोना खरीदना भी शुभ माना जाता है ताकि घर में लक्ष्मी माँ की कृपा बनी रहे, इस दिन वृंदावन में साल में एक बार बिहारीजी के चरणों के दर्शन होते हैं,

इस दिन मंदिरों में बिहारीजी का चंदन श्रृंगार होता है। ‘अक्षय तृतीया’ को बद्रीनाथ धाम के द्वार भक्तों के लिये खुलते है, गंगा-स्नान का भी इस दिन बहुत महत्व है। जैन परम्परा में ‘अक्षय तृतीया’ के साथ अत्यंत महत्वपूर्ण घटना जुड़ी है, इसलिये जैनों में इस दिन का बहुत अधिक महत्व है। प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ का एक वर्ष के कठिन तप के बाद, इसी दिन श्रेयांसकुमार ने (जो
कि प्रभु के पपौत्र थे) इक्षु (गन्ने) रस द्वारा पारणा करवाया था, इस तिथि को अक्षय पुण्य प्रदान करने वाली तिथि कहा जाता है। ‘अक्षय तृतीया’ को ‘दान और तप’ दोनों का अद्भुत संबंध जुड़ा होने के कारण ही यह ‘अक्षय’ बन गया। तीर्थंकर ऋषभदेव ने चैत्र कृष्णा अष्टमी के दिन बेला (दो उपवास) की तपस्या के साथ दीक्षा ग्रहण की, उनके साथ अन्य ४००० व्यक्तियों ने भी
दीक्षा अंगीकार की, इस तपस्या के साथ दो मुख्य बातें थी- अखण्ड मौन तथा पूर्ण निर्जल तप। अखण्ड मौन व्रत धारण कर भगवान ने चऊविहार बेला किया, उसके पश्चात विशेष अभिग्रह ग्रहण कर भिक्षा के लिए नगर में पधारे, परंतु कहीं भी शुध्द आहार नहीं मिलने के कारण ऋषभदेव नगर में भ्रमण करके वापस लौट गये और पुन: आगे का तप ग्रहण किया, इस तरह तप करते हुए १३ महीने और १० दिन व्यतीत हो गये, अंत में वैशाख शुक्ल तृतीया के दिन प्रभु हस्तिनापुर पधारे, उस समय बाहुबली
के पौत्र एवं राजा सोमप्रभ के पुत्र श्रेयांसकुमार युवराज थे, उन्होंने उसी रात एक विचित्र स्वप्न देखा – `सोने के समान दीप्ति वाला सुमेरु पर्वत श्यामवर्ण का कांतिहीन सा हो रहा है, मैने अमृतकलश से उसे सींचकर पुन: दीप्तिमान बना दिया है’ उसी रात्रि में सुबुद्धि नाम के श्रेष्ठि ने सपना देखा सुरज से निकली हजारों किरणों को श्रेयांसकुमार ने पुन: सुर्य में स्थापित कर दिया, जिससे वह सुरज अत्याधिक चमकने लगा।

उस रात सोमयश राजा ने भी स्वप्न देखाअनेक शत्रुओं के द्वारा घिरे हुए राजा ने श्रेयांस कुमार की सहायता से शत्रु राजा पर विजय प्राप्त कर ली’ स्वप्न के वास्तविक फल को तो कोई जान न सके परंतु सभी ने यही कयास लगाया कि इसके अनुसार आज श्रेयांसकुमार को विशेष लाभ प्राप्त होगा?

राजकुमार श्रेयांस इस विचित्र सपने के अर्थ पर विचार करते हुए गवाक्ष में बैठे हुए थे, उसी समय में राजमार्ग पर प्रभु ऋषभदेव का आगमन हुआ, हजारों लोग उनके दर्शन हेतु विविध प्रकार की भेंट सामग्री लेकर आ रहे थे (लेकिन प्रभु के लिये उन भेटों का कोई महत्व नहीं था, वे तो त्यागी थे, शुध्द आहार की खोज में थे) जनता का कोलाहल, बढ़ती भीड़ और उन सबके आगे चलते प्रभु को देखकर श्रेयांसकुमार विचार में पड़ते हैं और सोचते आज क्या बात है, यह महामानव कौन आ रहा है, इस प्रकार का तपस्वी साधक मैंने पहले भी कहीं देखा है, उनकी स्मृतियाँ अतीत में उतरती हैं, चिन्तन की एकाग्रता बढ़ती है और उन्हें जाति-स्मरण ज्ञान हो जाता है' वह जान लेते हैं कि यह मेरे परदादा दीर्घ तपस्वी प्रभु आदेश्वर हैं और शुध्द भिक्षा के लिये इधर पधार रहे हैं, श्रेयांसकुमार महल से नीचे उतरते हैं और प्रभु को वंदन कर प्रार्थना करते हैपधारो प्रभु! पधारो’ उसी समय राजमहल में इक्षुरस से भरे १०८ घड़े आये थे, शुध्द और निर्दोष वस्तु और वैसी शुध्द भावना कुमार की, श्रेयांसकुमार इक्षुरस द्वारा प्रभु को पारणा करवाते हैं। उस समय देवों ने आकाश में देव दुंदभि बजाई, रत्नों की पंचवर्ण के पुष्पों की, गंधोदक की और दिव्य वस्त्रों की, सुगंधित जल की वृष्टी की। अहोदानं! अहोदानं की घोषणा हुयी। पांच दिव्यों की वर्षा हुई। जैन साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका भी इस तरह एक साल का व्रत रखते हैं (१ दिन उपवास दूसरे दिन बियासणा) और आखा तीज के दिन गन्ने के रस द्वारा पारणा करते हैं, इस दिन रस पीना और मंदिर में गुड़ चढ़ाना शुभ माना जाता है। तप और दान की दिव्य महिमा से आज का दिन (याने आखा तीज) पवित्र हुआ। भगवान ऋषभदेव का प्रथम पारणा
होने से इस अवसर्पिणी काल में श्रमणों को भिक्षा देने की विधि का प्रथम ज्ञान देने वाले श्रेयांसकुमार हुए, सचमुच ऋषभदेव के समान उत्तम पात्र, इक्षु रस के समान उत्तम द्रव्य और श्रेयांसकुमार के भाव के समान उत्तम भाव का त्रिवेणी संगम होना अत्यंत ही दुर्लभ है।

तप और दान की आराधना करने वाला अक्षय पद प्राप्त कर सकेगा, यही संदेश इस पर्व में छिपा है।


जैनधर्म में मोक्ष प्राप्ति के चार मार्ग बताये गये हैं। दान, शील, तप और भाव।
‘अक्षय तृतीया’ को दान और तप इन दोनों का अद्भुत संबंध जुड़ा होने के
कारण यह अक्षय बन गया।

विशेष:


प्रभु ऋषभदेव के पहले भरत क्षेत्र में युगलिक काल था, इस वजह से लोगों में धर्म की प्रवृत्ति का अभाव था। युगलिक काल में सभी मनुष्य युगल (पुत्र-पुत्री) के रुप में पैदा होते थे, प्रभु के सौ पुत्र और दो पुत्रियां थी, जेष्ठ पुत्र को ७२ कलाएं सिखलायी थी, भरत ने भी अपने सभी भाईयों को ये कलाएं सिखलायी, दूसरे पुत्र बाहुबली को प्रभु ने हस्ति, अश्व, स्त्री और पुरुष के अनेक प्रकार के भेदवाले लक्षणों का ज्ञान दिया। पुत्री ब्राह्मी को दाहिने हाथ से अट्ठारह लिपियां बतलायी और पुत्री सुंदरी को बायें
हाथ से गणित की शिक्षा दी, उनकी सारी मनोकामनाएँ कल्पवृक्ष के द्वारा पूर्ण हो जाती थी, सभी युगलिक भद्रिक परिणामी होने से देवगति प्राप्त करते थे, उस समय विवाह व्यवस्था नहीं थी। उस काल में सर्वप्रथम विवाह प्रभु ऋषभदेव का हुआ था। लग्न के विधि-विधान हेतु स्वयं इंद्र महाराजा उपस्थित थे। प्रभु ने न्याय नीति और व्यवहार धर्म की शिक्षा दी। अपना कल्प (आचार)
समझकर प्रभु ने ही पुरुषों को ७२ कलाएं, स्त्रियों को ६४ कलाएं और सभी प्रकार के १०० शिल्प सिखाए थे, परंतु दान आदि धर्मों का बोध नहीं दिया था क्योंकि तारक तीर्थंकर को जब तक केवलज्ञान नहीं प्राप्त हो जाते, धर्म का बोध नहीं देते, असत्य भाषण की संभावना बनी रहती है, केवलज्ञान के पश्चात्प्र भु ने भरतक्षेत्र के जीवों को धर्म की शिक्षा दी। १८ कोडाकोडी सागरोपम से मोक्षमार्ग का जो द्वार बंद था, प्रभु ने उसे खोला, अत: उनका असीम उपकार हम सब पर है। अक्षय तृतीया जो इस वर्ष २२ अप्रैल २०२३ को है, उसका महत्व क्यों है?
जानिए कुछ महत्वपुर्ण जानकारी..
 आज ही के दिन मां गंगा का अवतरण धरती पर हुआ था।
 महर्षी परशुराम का जन्म आज ही के दिन हुआ था।
 मां अन्नपूर्णा का जन्म भी आज ही के दिन हुआ था।
 द्रोपदी को चीरहरण से कृष्ण ने आज ही के दिन बचाया था।
 कृष्ण और सुदामा का मिलन आज ही के दिन हुआ था।
 कुबेर को आज ही के दिन खजाना मिला था।
 सतयुग और त्रेता युग का प्रारम्भ आज ही के दिन हुआ था।
 ब्रह्मा जी के पुत्र अक्षय कुमार का अवतरण भी आज ही हुआ था।
 प्रसिद्ध तीर्थ स्थल श्री बद्री नारायण जी का कपाट आज ही खोला जाता है।
 बृंदावन के बांके बिहारी मंदिर में साल में केवल आज ही के दिन श्री विग्रह
चरण के दर्शन होते हैं, अन्यथा साल भर वो वस्त्र से ढके रहते हैं।
 इसी दिन महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ था।
‘अक्षय तृतीया’ अपने आप में स्वयं सिद्ध मुहूर्त है कोई भी शुभ कार्य का प्रारम्भ
किया जा सकता है।

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