पर्यावरण और जैन सिद्धांत


पर्यावरण और जैन सिद्धांत पर्यावरण और जैन सिद्धांत : पर्यावरण हमारे जीवन का महत्व पूर्ण तत्व है, ईश्वर ने इस सृष्टि की रचना की और मुक्त हाथों से हमें प्रकृतिक
संपदाआें का खजाना प्रदान किया, लेकिन मनुष्य ने अपनी लालसा और लालच में आकर इन अमूल्य संपदाओं के
साथ खिलवाड़ किया, यही वजह हैं कि हमें प्रकृतिक आपदाओं से निरंतर लड़ना पड़ रहा है। अति वर्षा, सुखा, भुकंप, भू
संखलन, बर्फ का पिघलना, अतिगर्मी-सर्दी सुनामी आदि का सामना कर ना पड़ रहा है और हजारों मनुष्यों को एक
साथ जान-माल से हाथ धोना पड़ रहा है। अगर हम आने वाली पीढ़ियों को एक सुरक्षित संसार देना चाहते हैं तो जरुरी
है पर्यावरण की रक्षा, संरक्षण, संवर्धन जैन पद्धति से अगर जीवन को जिया जाये तो यह कोई मुश्किल कार्य नहीं।भगवान महावीर इस युग के सबसे बड़े और पहले वैज्ञानिक हैं, उनका हर उपदेश विज्ञान की भाषा है, हर सूत्र न मात्र
आत्म शुद्धि का सोपान है बल्कि शारीरिक स्वस्थता, पारिवारिक आनंद, निरोगी काया, शुद्ध विचार, प्रकृति से प्रेम,
सामाजिक जीवन या पन, त्याग, परोपकार निश्चित जीवन इत्यादि अनेकों लाभ हम उनके सिद्धांतों से प्राप्त कर
सकते हैं।अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह तथा बह्मचर्य जैन धर्म के इन पांचमूल सुत्रों में प्रकृतिक संसाधनों की सुरक्षा के
संदेश निहित है। अहिंसा- प्रणा मात्र के प्रित प्रेम का प्रतीक है और पेड़ों में भी प्रण है, इसलिए इन्हें काटिये मत, इनकी
सुरक्षा करें। पेड़ों में देवताओं का वास होता है, यह हमें शुद्ध हवा, फल-फूल-छाया तो देते ही हैं साथ ही इनकी लकिड़यां
भी मनुष्य का जीवन-यापन करती हैं।जैन धर्म में आकाश, वायु, पृथ्वी और जलसहित वनस्पति को सजीवमान ते हुए इन्हें हमारे वास्तविक जीवन संरक्षक
के रुप में माना गया है।
जिन शास्त्रों में जलको दूषित नहीं करने तथा उसका उपयोग जरुरत के हिसाब से कम से कम करने की व्याख्या है।
(फव्वारे की जगह बाल्टी मग का प्रयोग करें, नल को खुला न छोड़ें, पानी में भी जीव हैं उनकी रक्षा करें।
अनावश्यक लाईट का उपयोग न करें, अग्नि के जीवों की सुरक्षा करें।जैन धर्म में चार्तुमास की परंपरा भी पर्यावरण संरक्षण का ही स्वरुप है, चार्तुमास के दौरान हमारे साधु-संत विहार नहीं
करते ताकि हरितिमा, पोधों एवं सूक्ष्म जीवों का संरक्षण हो सके। हजारों वर्षों से हमारे तीर्थंकरों ने हमें जीवन जीने की
ऐसी पद्धति बतलाई है, उससे हम अधिक से अधिक प्रकृति के करी बरहकर, स्वस्थ व प्रसन्न जीवन जी सकें। हमारे
सभी तीर्थ करों को ‘केवल ज्ञान’ की प्रप्ति किसी न किसी वृक्ष के नीचे रह कर प्राप्त की है। पीपल वट, अशोक वृक्ष
हमारे धार्मिक जीवन के महत्वपूर्ण अंग है। हिंदू संस्कृति में भी ऋषी-मुनि जंगलों में रहकर प्रकृति की सुरक्षा के साथ
ज्ञान की प्रप्ति करते थे।याद आती है एक कहानी, एक बार एक राजा भेष बदल कर प्रजा के दुःख-सुख जानने के लिये अपने राज्य में भ्रमण
करता है, एक दिन उसने देखा एक८० साल की बुिढ़या माई ‘अखरोट का’ पौधा रोप रही थी, राजने विचार किया यह
पौधा जब तक बड़ा होगा, इस पर फल लगेंगे तब तक तो यह माई जीवित नहीं रहेगी, यह निरर्थक ही पेड़ लगा रही है,
व्यर्थ परिश्रम कर रही है यह सोचकर राजा को दुःख हुआ, वह इस बुिढ़या के पास जाकर यह बात कहते हैं, तब वह
बुिढ़या बहुत ही सुंदर जवाब देती हे, ‘‘पथिक-अब तक मैंने दुसरों के लगाये गये पेड़ों से खुब फल खाये है, अब मेरी बारी
हैं, जीवन खत्म हो जाये उससे पहले मैं दो-चार पेड़ लगाना चाहती हूं ताकि मेरे लगाये पेडों से दूसरे लोग भी लाभ उठा
सकें, पेट भर सकें” यह उत्तर सुनकर राजा गदगद हो गया और बोला ‘जिस देश में आप जैसे परोपकार का भाव
रखनेवाले नागरिक है वह देश हमेशा हरा-भरा-खुशहाल रहेगा। अगर हम एक हरी-भरी वसुंधरा के संग सुखी जीवन
जीना चाहते हैं तो हमें जैन धर्म के सिद्धांतों का पालन करना होगा और प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में पांच पेड़ों
को लगाने का संकल्प लेना होगा।

पर्यावरण और जैन सिद्धांत

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