आचार्य श्री महाप्रज्ञ का जीवन दर्शन: जन्म दिवस विशेष
जन्म दिवस के पावन अवसर पर आचार्य श्री महाप्रज्ञ का जीवन दर्शन प्रस्तुत जन्म : राजस्थान प्रान्त के झुँझुनुँ जिला, टमकोर (विष्णुगढ़) नामक गाँव, विक्रम संवत् १९७७, आषाढ़ कृष्णा
त्रयोदशी (१४ जून १९२०) का दिन, गोधूली वेला, १७.०९ बजे, स्थानिक समय सायं लगभग १६.४० बजे, सोमवार,
वृश्चिक राशि, कृत्तिका नक्षत्र में श्रीमती बालूजी ने खुले आकाश में एक पुत्ररत्न को जन्म दिया।चोर आ गया : जब बालक का जन्म हुआ, उसकी बुआ जड़ावबाई ने छत पर चढ़कर जोर से शोर मचाया- ‘चोर आ
गया’, उनकी आवाज सुनकर चोरड़िया परिवार के पुरूष लाठी लेकर आ गए, जब घर में आए तो उनको सही स्थिति
की जानकारी दी गई कि जिस माता के बच्चे जीवित नहीं रहते, उसके लिए ऐसा किया जाता है।नामकरण : नामकरण संस्कार के अन्तर्गत बालक का नाम ‘इन्द्रचन्द’ रखा गया, किन्तु वह व्यवहार में नहीं आया,
फिर उसे परिवर्तित कर ‘नथमल’ नाम रखा गया, कारण यह था कि जन्मजात शिशु के दो अग्रज अल्प अवस्था में ही
काल-कवलित हो गए थे, इसलिए वर्तमान शिशु को दीर्घजीवी बनाने के लिए उसका नाक बींध कर उसको ‘नथ’
पहनाई गई, नथ पहनाने के कारण बालक का नाम नथमल रखा गया।
वंश परम्परा: श्री बीजराज चोरड़िया जैन के चार पुत्र थे-
१. गोपीचन्द २. तोलाराम ३.बालचन्द, ४. पन्नालाल,
इन चारों ही भाइयों की वंश परम्परा में जन्मीं सन्तानें तेरापंथ धर्मसंघ में दीक्षित हुईं, श्री गोपीचन्द चोरड़िया की
दौहित्रियाँ साध्वी मंजुला जैन (गणमुक्त), साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा। तोलारामजी चोरड़िया के सुपुत्र आचार्यश्री
महाप्रज्ञ जी एवम सुपुत्री साध्वी मालूजी। बालचन्दजी चोरड़िया जैन की पुत्री साध्वी मोहनाजी (गणमुक्त) पन्नालाल
चोरड़िया जैन की पुत्री साध्वी कमलजी।श्री तोलाराम चोरड़िया के कुल पाँच सन्तानें हुईं- तीन पुत्र और दो पुत्रियाँ। तीन पुत्रों में से दो पुत्र तो लघुवय मेंं ही
पंचतत्व को प्राप्त हो गए, जिनमें से एक का नाम गोरधन बताया जाता है, एक का नाम अज्ञात है, शायद उसका
नामकरण हुआ ही न हो, तीसरा पुत्र ‘नथमल’ नाम से पहचाना गया, बड़ी पुत्री मालीबाई की शादी चूरू निवासी
सोहागमल बैद जैन के पुत्र चम्पालाल बैद जैन के साथ और दूसरी पुत्री प्याराँ (पारी) बाई की शादी बीदासर निवासी
केशरीमल बोथरा जैन के पुत्र मेघराज बोथरा जैन के साथ हुई।कालान्तर में पहली पुत्री मालूजी के जीवन में एक नया मोड़ आया, वे अठारह वर्ष की हुईं तभी उनके पति का स्वर्गवास
हो गया, तत्पश्चात मालूजी की दीक्षा लेने की भावना प्रबल होने लगी, किन्तु श्वसुर-पक्ष वालों ने किसी आशंका के
कारण उनको दीक्षा की अनुमति नहीं दी, बाद में वह आशंका निर्मूल हो गई, तब ससुराल की ओर से उन्हें दीक्षा के
लिए लिखित आज्ञा मिल गई, फिर दीक्षा-प्राप्ति में कोई अवरोध नहीं रहा, श्री महाप्रज्ञ ने भी गुरूदेव तुलसी से उनकी
दीक्षा की प्रार्थना की।पूज्य गुरुदेव तुलसी का विक्रम संवत् १९९८ का चातुर्मासिक प्रवास राजलदेसर में हो रहा था। कार्तिक कृष्णा सप्तमी
के दिन गुरुदेव तुलसी ने मालूजी को दीक्षा की स्वीकृति प्रदान की। दीक्षा में दो दिन शेष थे। कार्तिक कृष्णा नवमी के
दिन गुरूदेव ने सत्ताईस मुमुक्षुओं को दीक्षा प्रदान की, उनमें चार भाई और तेईस (मुमुक्षु) बहिनें थीं, इन बहिनों में
मालूजी सबसे ज्येष्ठ थीं। साध्वी मालूजी ने चौपन वर्ष चार मास और १५ दिन तक संयम आराधना की, विक्रम संवत
२०५२, फाल्गुन शुक्ला नवमी के दिन उन्होंने अनशन के साथ जीवन यात्रा को सम्पन्न किया।
मातृत्व का वैशिष्ट्य : जब बालक लगभग ढाई मास का हुआ तभी उसके सिर से पिता का साया उठ गया, उस समय
परिवार में मात्र चार सदस्य थे- माँ बालूजी, बड़ी पुत्री मालीबाई, छोटी पुत्री पारीबाई और पुत्र नथमल। तोलाराम के
स्वर्गवास के कुछ समय बाद श्रीमती बालूजी अपनी माँ के पास चली गईं, बालक नथमल जब लगभग ढाई वर्ष का
हुआ तब बालूजी अपनी सन्तानों के साथ वापस ‘टमकोर’ आ गईं, उस समय सब चीजें सस्ती थीं, पास में कुछ
संसाधन था और दुकान भी चलती थी। भरण-पोषण में कोई आर्थिक संकट नहीं आया, किन्तु परिवार में पिता का न
होना अपने-आप में एक बड़ा संकट था। माँ बालूजी ने इस संकट का अनुभव, अपनी सन्तानों को नहीं होने दिया, जो
कि उनके मातृत्व का वैशिष्ट्य था।
माता बालूजी धार्मिक विचारों वाली महिला थीं, प्रतिदिन पश्चिम रात्रि में जल्दी उठकर सामायिक करतीं तथा तेरापंथ
के चतुर्थ आचार्य जीतमलजी द्वारा रचित चौबीसी, आराधना और तेरापंथ के संस्थापक आचार्य भिक्षु के स्तुति-
भजनों का संगान करती थी, बालक नथमल सोए-सोए भजनों को सुना करता था।‘सन्त भीखणजी रो समरण कीजै’ गीत के बार-बार श्रवण से बालक के मन में आचार्य भिक्षु के प्रति श्रद्धा का भाव
उत्पन्न हो गया।
माँ बालूजी! बालक नथमल को संस्कारी बनाने में बहुत सजग थीं, जब तक बालक साधुओं/साध्वियों के दर्शन नहीं
कर लेता, उसे शान्ति नहीं आती, माता सत्यवादिता पर बल दिया करती और जप करना सिखाती थीं।
आकाश-दर्शन : बालक नथमल में आकाश को पढ़ने का शुरू से ही आकर्षण था, अपने घर में सोया-सोया वह सामने
वाली दीवार पर देखता रहता। श्री गोपीचन्द की हवेली में ऊपर ‘मालिये’ में चला जाता और उसमें खिड़की से घण्टों
तक आकाश काे देखता रहता, बालक को नई-नई चीजें दिखाई देती।
गाय का दूध : घर के प्रवेश के रास्ते पर गाय बँधती थी, पारीबाई गाय को दुहती थी। बालक नथमल प्याला लेकर
पारीबाई के पास बैठ जाता, वह गाय को दुहती जाती और बालक नथमल दूध पीता जाता।अध्ययन : टमकोर एक छोटा गाँव है, उस समय तो वह सुविधाओं से वंचित था। राजकीय विद्यालय भी वहाँ नहीं था,
सम्भवत: यही कारण रहा होगा कि बालक नथमल को राजकीय विद्यालय के अध्ययन से वंचित रहना पड़ा।
आर्यसमाजी गुरु विष्णुदत्त शर्मा की पाठशाला में वर्णमाला और पहाड़े पढ़े, कुछ अध्ययन अपने ननिहाल सरदारशहर
में किया, बालक अपने ननिहाल में कभी दो महीने तो कभी छह महीने तक भी रहा करता था।भाग्य खुल गया : अक्सर छोटे बच्चे चंचल होते हैं, बालक नथमल भी उसका अपवाद नहीं था, एक दिन उसने
बालसुलभ चपलता के अनुरुप अपनी आँखों पर पट्टी बाँधी और चलने लगा, थोड़ा सा चला और दीवार से टकरा गया।
ललाट पर चोट लग गई। खून बहने लगा। बच्चे के लिए माँ का सबसे बड़ा आलम्बन होता है, वह रोता-रोता माँ के पास
गया, उसी दिन उसकी बहिन पारीबाई की शादी थी, इसलिए पारिवारिकजन उसमें लगे हुए थे, किसी ने बालक की
ओर ध्यान नहीं दिया, पर माँ! ध्यान वैâसे नहीं देती? कुछ उलाहना दिया, कुछ पुचकारा, पट्टी बाँध दी, ठीक हो गया।
‘आज तुम्हारा भाग्य खुल गया’ यह कहकर उसका दर्द दूर कर दिया।आजीवन अंकित : बालक नथमल अपने साथियों के साथ कर्ई प्रकार के खेल खेला करता था, दियासलाई से टेलीफोन
बनाना, तिनके का धनुष बनाना, पेड़ से रस्सी बाँधकर झूला झूलना, एक बार खेलते समय कोई नाम गोदने वाला
व्यक्ति आया, बालक ने अपने हाथ पर नाम गुदवाया ‘नथमल’, जो आजीवन अंकित रहा।देव-मान्यता : संसार में विभिन्न देव और देवियाँ प्रतिष्ठित हैं, वे भिन्न-भिन्न लोगों की आस्था के केन्द्र भी बने हुए
हैं, श्री महाप्रज्ञ के संसारपक्षीय परिवार में बाबा रामदेव की मान्यता थी, इसलिए वे उनके मुख्य केन्द्र ‘रूणेचा’ भी
गए।क्रोध से क्षमा की ओर : सन्त वह होता है, जो शान्त होता है। काम, क्रोध, अहम्, लोभ आदि निषेधात्मक भावों का
दीमक सन्तता की पोथी को चट कर जाता है, ये भाव एक बालक में भी हो सकते हैं। बालक नथमल को बचपन में
गुस्सा आता था, उस अवस्था में वह कभी खाना नहीं खाता, पढाई बन्द कर देता, बोलना भी बन्द कर देता, वह खम्भा
पकड़कर, दरवाजा पकड़कर खड़ा हो जाता, किसी की बात नहीं सुनता, पारिवारिक लोग मनाकर थक जाते, किन्तु वह
तभी मानता, जब कड़कड़ाती भूख लग जाती तब की बात और…
आज की स्थिति में जमीन-आसमान का सा अन्तर दिखाई दे रहा है, ज्यों-ज्यों विवेक जागृत हुआ, ज्ञान का विकास
हुआ, त्यों-त्यों गुस्सा नियन्त्रित होता चला गया।
एक बार श्री महाप्रज्ञ के कहा-मुझे दीक्षा के बाद गुस्सा कितनी बार आया, यह अंगुलियों पर गिना जा सकता है, ७५
वर्षों में सम्भवत: ७५ बार भी नहीं आया।तेलिया की भविष्यवाणी : प्रसंग उस समय का है, जब बालक नथमल लगभग आठ वर्ष का था। वह अपने घर के
अहाते में साथियों के साथ खेल रहा था, उसी समय एक ‘तेलिया’ आया, उसने बालक को देखा और घर के भीतर चला
गया, माँ बालूजी कुछ बहनों के साथ बातचीत कर रही थी, तेलिये ने राजस्थानी भाषा में कहा- ‘माँ जी! तेल घाल
द्यो।’ बालूजी ने एक बहन को तेल लाने का निर्देश दिया, वह रसोईघर में गई, इस बीच तेलिया बोला-
माँ! तू बड़ी भागवान है। बाखळ (घर के अहाते) में जो थाँरो बालक खेल रह्यो है, बो बड़ो पुनवान है’
बालूजी ने कहा- यदि मैं भागवान हुती तो म्हारो ‘घरवालो’ क्यूँ जातो? तेलिये ने कहा- थाँरो लड़को, जिको बाखळ में
खेलै है, बो एक दिन राजा बणसी’
बालूजी का चेहरा खिल उठा। आस-पास बैठी महिलाओं को उसकी बातों में रस आने लगा, उन्होंने उससे पूछा-
‘अच्छा! और काँई बतावै है? तेलिये ने एक बहन की ओर इशारा करते हुए कहा- ‘आ बहन गर्भवती है, आज स्यूँ आठवें
दिन इरै एक लड़को हुसी, वह बहन हरखचन्द चोरड़िया जैन की धर्मपत्नी थी।
तेलिये ने बालूजी से कहा- ‘बा तो पराये घर जासी, आपरै सासरै जासी, म्हांरी सेवा कियाँ करसी?’ चौथी बार तेलिये ने
एक दु:खद बात कह डाली- सातवें दिन थाँरे एक पड़ोसी रे लड़वैâ री मौत होसी’ बहिनों को यह बात बहुत अप्रिय लगी,
उन्हें लगा कि यह आदमी ठीक नहीं है, यहाँ से जितनी जल्दी चला जाए, अच्छा है, तेलिये ने स्थिति को समझा, अपने
पात्र में तेल का दान लेकर वहाँ से प्रस्थित हो गया।
सातवाँ दिन आया, पड़ोस में रहने वाले अग्रवाल परिवार का आठ वर्षीय लड़का काल-कवलित हो गया, इस दु:खद
घटना के घटते ही उस तेलिये को ढूँढा गया, लेकिन उसका कहीं अता-पता नहीं मिला, उसके दूसरे दिन हरखचन्द की
धर्मपत्नी ने एक पुत्र को जन्म दिया, तेलिये द्वारा की गई दो भविष्यवाणियाँ सच हो गईं। बालूजी की बड़ी पुत्री
मालीबाई का विवाह हो चुका था, बालूजी अपने पुत्र नथमल के साथ संन्यास के पथ पर अग्रसर हो गईं। अकस्मात्
एक दुर्घटना घटी, बालूजी के दामाद (मालूजी के पति) का देहान्त हो गया। मालीबाई का मन संसार से उद्विग्न हो
उठा, संयम के पथ पर चलने का निश्चय प्रबल बन गया। वे तेरापंथ धर्मसंघ में प्रवर्जित होकर साध्वी मालूजी बन
गईं। माँ-बेटी के अलग हुए रास्ते पुन: एक बन गए। पूज्य गुरुदेव ने साध्वी बालूजी की सेवा में साध्वी मालूजी को
नियोजित किया। साध्वी मालूजी ने अन्तिम समय तक अपनी संसारपक्षीया माँ साध्वी बालूजी की सेवा की। तेलिये
की तीसरी भविष्यवाणी भी सत्य साबित हो गई, अब चौथी भविष्यवाणी कसौटी पर चढ़ गई।कोलकाता में पहली बार : बालक नथमल लगभग नौ वर्ष का था। मेमन सिंह (वर्तमान में बाँग्लादेश) में उसकी चचेरी
बहिन (माँ की पालित पुत्री) नानूबाई का विवाह था, उसमें सम्मिलित होने के लिए वह अपने स्वजन के साथ जा रहा
था, बीच में कोलकाता में अपनी बुआ के घर ठहरा। शादी के लिए कुछ चीजें खरीदनी थीं। बालक नथमल के चाचा
पन्नालाल और दुकान के मुनीम सुरजोजी ब्राह्मण सामान खरीदने के लिए बाजार जा रहे थे, नथमल भी उनके साथ
हो गया, वह पहली बार ही कोलकाता आया था, उसे यहाँ का वातावरण बड़ा विचित्र-सा लग रहा था। पन्नालालजी और
मुनीम ने दुकान से सामान खरीदा और आगे बढ़ गए। नथमल अकेला पीछे रह गया। मार्ग से अपरिचित बालक इधर-
उधर झाँकने लगा, उस विकट बेला में उसने अपने हाथ की घड़ी खोली, गले में से स्वर्णसूत्र निकाला और दोनों को जेब
में रख लिया, वह पीछे मुड़ा और अज्ञात मार्ग की ओर चल दिया, सौभाग्यवश वह यथास्थान पहुँच गया, उसने आप
बीती सारी घटना माँ को सुनाई तो वे अवाक-सी रह गईं, तत्काल उनके मुख से निकला- ‘यह सब (पुत्र का यथास्थान
पहुँच जाना) भीखणजी स्वामी के प्रताप से हुआ है, नहीं तो, इतने बड़े शहर में न जाने क्या घटित होता?’’ ज्ञातव्य है
कि पन्नालालजी का नथमल के प्रति बहुत स्नेहभाव था, वे उसका बहुत ध्यान रखते थे।वैराग्य-भाव : श्री गोपीचन्द चोरड़िया की पुत्री छोटीबाई (साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी की संसारपक्षीया माँ) की शादी
का प्रसंग था। टमकोर से लाडनूँ आते समय छोटीबाई का भाई नथमल साथ आया। वे लाडनूँ पहुँचे। यह परम्परा रही है
कि बहिन को ससुराल पहुँचाने के लिए भाई साथ जाता है। पारिवारिक लोग सेवा केन्द्र में साध्वियों के दर्शनार्थ गए,
अन्य जन ऊपर चले गए, नथमल नीचे ही खड़ा रह गया, उस समय बालक नथमल आत्मविभोर हो गया और उसके
मानस में वैराग्य भाव का संचार हुआ।
श्री महाप्रज्ञ ने कहा
श्री तोलारामजी एक अच्छे व्यक्ति थे, सुन्दर आकृति वाले, लड़ाई-झगड़े से बचकर रहने वाले और उदार व्यवहार वाले
थे। वे क्षत्रिय जैसे लगते थे। लगता है, उनको कुछ पूर्वाभास हो गया था, उन्होंने एक दिन मेरी संसारपक्षीया माँ
श्रीमती बालूजी से कहा- ‘तुम एक पुत्र को जन्म दोगी, पर मैं नहीं रहूँगा।’ बालूजी तत्काल बोल उठी- ‘ऐसा बेटा मुझे
नहीं चाहिए, जिसके आने पर आप न रहें।’ श्री तोलाराम का यह पूर्वाभास कुछ समय बाद ही सत्य साबित हो गया।
श्री बीजराज चोरड़िया कहा करते थे कि हमारे परिवार में दो ऐसे व्यक्तित्व होंगे, जो विशिष्ट कार्य करेंगे, मैं और
साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा, हम दोनों ही उस परिवार के सदस्य हैं।
जन्म के बाद दो-तीन वर्ष तक मुझे अन्न दिया ही नहीं गया था, दूध और फल पर ही रखा गया था, ऐसा बालूजी
(संसारपक्षीया माँ) कहा करती थीं। साध्वी मालूजी (संसारपक्षीया बहिन) भी कहा करती थीं कि इससे हड्डियाँ मजबूत
बनती हैं।
मेरा सह क्रीड़ा बालक मूलचन्द चोरड़िया गणित में अच्छा था, यदि उसे निमित्त मिलता तो वह दुनियाँ का विशिष्ट
गणितज्ञ बन जाता।
श्री महालचन्द चोरड़िया जैन (सुपुत्र श्री गोपीचन्द चोरड़िया जैन) प्राणगंज से आए, वे मेरे लिए घड़ी व टॉर्च लाए थे, मैं
टॉर्च जलाकर दिखाता व घड़ी बाँधकर समय बताता।
विक्रम संवत् २०६३, भिवानी चातुर्मास। (श्रावण कृष्ण अमावस्या) श्री महाप्रज्ञ ने मातुश्री बालूजी की वार्षिकी के दिन
व्यक्तिगत बातचीत के दौरान कहा कि मातुश्री बालूजी मुझे शिक्षा देती थीं कि कभी बाइयों के चक्कर में मत पड़ना।