दीपावली अर्थ है दीपों का मिलाप

- मुनिश्री अपूर्व सागर जी महाराज
(आ. श्री वर्धमान सागर जी के शिष्य)

ज्योति के आवाहन और पूजन का पर्व-दीपावली पर्व हमारी संस्कृति चेतना के प्रतिक हैं, ये आते हैं और हमें एक नया संदेश देकर चले जाते हैं, पूरे साल के चक्र में हमारे बीच कई पर्व आते हैं जैसे धार्मिक पर्व, सामाजिक पर्व, ऐतिहासिक पर्व, राष्ट्रीय पर्व महत्वपूर्ण घटनाओं से जुड़े होते हैं। दीपावली पर्व धार्मिक व ऐतिहासिक तथ्यों से जुड़ा रहने के कारण आज राष्ट्रव्यापी बना हुआ है, दीपावली का अर्थ है दीपों का मिलाप, इस वर्ष दिनांक ०७-११-२०१८ के दिन दीपों को जलाकर हम अपनी खुशिया व्यक्त करेगें।असल में उजाला (प्रकाश) जागृति का प्रतीक है, ऐसी जागृति जिसमें जीवन देखा जा सकता है, किसी मार्ग पर आगे बढा जा सकता है। अंधेरे से मनुष्य सदा-सदा से झूमता आया है, अंधकार से भीती और प्रकाश से प्रति यह प्राणिमात्र की प्रतिती रही है, आदिकाल से ही मनुष्य की पुकार रही है कि मुझे अन्धकार से निकालो और प्रकाश की ओर ले चलो, हर एक की उसकी अपनी अभिलाषा रहती है, आवाज होती है।

दिनांक ०७-११-२०१८ को दीपावली के पावन पर्व पर मानव की हंसी चिरकालिक अभिलाषा को पूर्ण करने के लिए दीये जलाकर ज्योति आवाहन का पूजन करेगा, चारों दिशाओं में ज्योर्तिमयी ब्रह्माण्ड की स्त्रोत रहेगी, सूरज, चांद, तारे धरती पर इसीलिये सम्मान पाते हैं कि इस धरती को प्रकाश देते हैं, झिलमिलाती दीप मालायें अमावस के सघन अन्धकार का तिरोहत तो करती ही है, मानव के मन को मोह कर प्रकाश प्रदान करती है। यदि पूछा जाये तो यही कहा जाता है कि अंधकार पर विजय पाने की प्रेरणा देता है पर्व ‘दीपावली’ आध्यात्मिक सन्देश-दीपावली या कहो दिवाली का संदेश अधिक महत्वपूर्ण है, इस शुभ अवसर प्राचार्य श्री कहते हैं कि अंतरंग स्वाधीन जो अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त तीर्थ व अनन्त सुख स्वरूप अविनाशी लक्ष्मी और वहिरंग में इंद्रादिक द्वारा वंदनीय, जो समोशरणादिक लक्ष्मी सहित वृद्धि को प्राप्त हो रहे हैं, जिन्होंने अपने राग द्वेष एवं वरणीय अष्ट कर्म को नष्ट किया है, जिनका केवल ज्ञान आलोक सहित सम्पूर्ण तीनों लोकों के विषय में दर्पण के
समान प्रकाशित कर रहा है, अर्थात् जो सर्वत्र प्रकाशित हो रहा है, अनन्त चतुष्टय रूप लक्ष्मी से वृद्धि को प्राप्त होने वाले ऐसे भगवान महावीर स्वामी सहित चोबीस तीर्थंकरों को हमारा नमस्कार हो, द्रव्य-दृष्टि से तो मेरी आत्मा धनी है, गुणों की खान है, अनन्त सुख और अनन्त तीर्थवान है, परन्तु पर्याय दृष्टि से वे भगवान हैं और मैं मानव दर-दर भटकने वाला हूँ, इसका कारण अपने स्वभाव को भुलकर संयोग और वियोग में राग द्वेष के अनन्त संसार में अनन्तान्त दुख भोग रहा हूँ,

भूल को मिटाना है। अपनी श्रद्धा (मिथ्याथित) को समाप्त कर सम्यग्दर्शन धारण करना है, वास्तव में मैंने कभी भी अपने आत्म स्वरूप की महिमा का विचार नहीं किया। धन सम्पत्ति परिवार, नौकर-चाकर तथा राजाद्रि कोई
भी पदार्थ आत्मा के हित में सहायक नहीं है किन्तु एकमात्र सदा ज्ञान ही आत्मा का स्वरूप है, यही से धर्म की शुरूआत होती है, एकबार सम्यग्दर्शन रूपी आत्मा में पड़ जाने पर फिर वह छुटता नहीं अक्षेप हो जाता है। आत्मा और वस्तुओं का भेद विज्ञान ही सम्यग्दर्शन और सम्पदा ज्ञान का कारण है, इसलिये प्रत्येक आत्मार्थी को करोड़ों उपाय कर भेद विज्ञान से मोक्ष प्राप्त करे।

– महावीर प्रसाद अजमेरा
जोधपुर, राजस्थान

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