क्षमा व स्नेह

क्षमा मोक्ष का द्वार है

क्षमा व स्नेह

क्षमा व स्नेह

क्षमा व स्नेह स्वाभाविक गुण है जबकि ईर्ष्या अथवा कटुता, विभाव दशा की देन है इसी कारण द्वेष अथवा वैर से उत्पन्न क्रोध को ज्यादा समय तक कोई टीकाकर नहीं रख सकता, कुछ ही समय बाद वह
स्वत: समाप्त हो जाता है। क्रोध जब आता है तब ज्वाला का काम
करता है, न मालूम क्या-क्या जलाकर राख कर दे। स्नेह जीवन
में अमृत तुल्य है, जबकि क्रोध हलाहल विष, स्नेह
जीवन को मधुर सुगन्धमय व बिना किसी बोझ व
तनाव के स्वाभाविक रुप से विकसित करता है,
जबकि द्वेष से जीवन मलिन ग्लानियुक्त व
कटुता से कलुषित होता रहता है साथ ही
अनावश्यक बोझ से दबा हुआ महसूस
होता है अत: द्वेष त्याज्य है।द्वेष व
क्रोध, स्वयं को जलाता है जबकि
सामने वाले को मात्र उकसाता है
जिसमें स्वयं का अहित अधिक है।
सांवत्सरिक महापर्व के दिन हमें
मन, वचन, काया के योग से
स्वार्थ या प्रमादवश किसी का
दिल दुखाने में आया हो अथवा
दु:ख पहुँचाया हो तो समझपूर्वक
क्षमायाचना करनी चाहिए ताकि द्वेष का
धुँआ,आत्मा पर कालिमा लगाने से
पहले ही समाप्त हो जाये।
द्वेष आत्मा के लिये दूषण है,क्षमा
आत्मा का भूषण है
द्वेष वात्सल्य से मिटेगा जैसे गंदा कपड़ा, गंदे पानी से साफ नहीं होता
बल्कि स्वच्छ पानी की आवश्यकता होती है वैसे ही द्वेष-प्रतिद्वेष से नहीं
बल्कि मैत्री की मधुरता से समाप्त होगा। जैसा कि हम देखते हैं चन्दन
स्वयं को काटने वाली कुल्हाड़ी को भी सुगन्धित करता है, गुलाब का
फूल- कांटों के बीच रहकर भी सुगन्ध देता है। जीभ कभी दाँत से कट
जाये तो भी दांत का साथ नहीं छोड़ती, यहाँ तक कि तरुवर पत्थर मारने
वाले को भी मीठे फल देता है वैसे ही सर्वविदित है कि चंडकौशिक
नाग ने भगवान महावीर को डंक मारा फिर भी करुणा व वात्सल्य के
फलस्वरुप खून के बदले,दूध की धारा बहने लगी।
आज क्यों नहीं मानव अपने मन-मुटाव को भुलाकर, क्षमा व वात्सल्य
के अवतार भगवान महावीर की वाणी ‘‘मिति में सव्व भुएसु वैर मज्झं
न केणइ’ अर्थात् जगत में सभी से मैत्री बनाये रखना व किसी से वैर
की परम्परा नहीं बढ़ाना है, प्रेम से प्रेम बढ़ता है अत: ऐसी कल्याणकारी
भावना को अपने जीवन में सदा के लिये पुन: प्रतिष्ठित करें, यही
महापुरुषों का कथन है, अत: जहाँ भी वैर-विरोध का वातावरण बना
हो,वहाँ मन-वचन व काया से क्षमा याचना करनी चाहिये। क्षमा वीरों
का आभूषण है, क्षमा-स्नेह की सरिता व प्रेम की पवित्र गंगा है, प्रेम
के बिना जीवन रेगिस्तान है जहां न पानी है न हरियाली। ‘जिन शासन’
में क्षमा धारण करना, राग द्वेष के कर्मरुपी बीज को समाप्त करना है।
‘जिन शासन’ वस्तुत: जीव शासन है जहां सभी जीव निश्चित रुप से
सिद्ध परमात्मा के साधर्मी रहे हुए हैं, अत: कहा जाता है छोटे
से छोटा जीव भी सिद्धपद का उम्मीद्वार है फिर उन्हें
दु:ख पहुँचाने का हमें क्या अधिकार ? यदि जाने-
अनजाने में जहाँ कहीं किसी के साथ वैर अथवा
कटुता रही हो अथवा दु:ख पहुँचाया हो तो
अंत:करण से क्षमा मांगना, पर्युषण महापर्व
की आराधना का सार है। क्षमा, मोक्ष मार्ग
की प्रथम सीढ़ी है। गम खाना व गुस्से
को पी जाना, क्षमा धर्म है। भूल होना
मानवीय प्रकृति है, भूल को सुधारना
मानवीय संस्कृति है, भूल को नहीं
मानना विकृति है।
‘‘क्षमा वीरस्य भूषणम्’’
अपनी भूलों पर पश्चाताप करना
आत्मा को पवित्र बनाना है.
जो भूल न करे वह भगवान
जो भूल करके माफी मांगे, वह इन्सान
जो भूल को भूल न माने, वह बेईमान
जो भूल करके ऊपर से अहंकार करे, वह शैतान
पांच पापों से सजाया है, जिसने जीवन
वह मानव से शैतान बन बैठा है.
हर कली में फूल का अरमान छिपा बैठा है
हर मानव में भगवान छिपा बैठा है ।

– केवलचंद जैन

बैंगलोर