Category: अगस्त-२०२१

जैन धर्म की मान्यताएँ, विशेषताएँ और चातुर्मास

जैन धर्म की मान्यताएँ, विशेषताएँ और चातुर्मास

जैन धर्म की मान्यताएँ, विशेषताएँ और चातुर्मास जैन धर्म किसी एक धार्मिक पुस्तक या शास्त्र पर निर्भर नहीं है, इस धर्म में ‘विवेक’ ही धर्म है जैन धर्म में ज्ञान प्राप्ति सर्वोपरि है और दर्शन मीमांसा धर्माचरण से पहले आवश्यक है देश, काल और भाव के अनुसार ज्ञान दर्शन से विवेचन कर, उचित-अनुचित, अच्छे-बुरे का निर्णय करना और धर्म का रास्ता तय करना आत्मा और जीव तथा शरीर अलग-अलग हैं, आत्मा बुरे कर्मों का क्षय कर शुद्ध-बुद्ध परमात्मा स्वरुप बन सकता है, यही जैन धर्म दर्शन का सार है, आधार है जैन दर्शन में प्रत्येक जीवन आत्मा को अपने-अपने कर्मफल अच्छे-बुरे स्वतंत्र रुप में भोगने पड़ते हैं, यहाँ परमात्मा को, कर्मों को क्षय कर आत्मा स्वरुप प्राप्त किया जा सकता है जिनवाणी में किसी व्यक्ति की स्तुति नहीं है, बल्कि समस्त आत्मागत गुणों का महत्व दिया गया है, जिनधर्म गुणों का उपासक है। हमारे बाहर कोई हमारा शत्रु नहीं है, शत्रु हमारे अंदर है, काम क्रोध, राग-द्वेष आदि विकार ही आत्मा के शत्रु हैं, हम राग और द्वेष को जीत कर अविचल निर्मल वीतरागी बन सकते हैं ज्ञान और दर्शन के सभी दरवाजे खुले हैं। अनेकान्तवाद के अनुसार कोई दूसरा धर्म पन्थ भी सही हो सकता है क्योंकि सत्य सीमित या एकान्तिक नहीं है अन्य धर्मों की तुलना में जैन धर्म में अपरिग्रह पर अधिक जोर दिया है, आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह और उनके प्रति मोह आसक्ति वर्जित है जैन धर्म में नगर और नारी को समान स्थान दिया गया है, श्रावक-श्राविका, श्रमण-श्रमणियों के रुप में बराबर स्थान तथा नारी को भी मुक्ति पाने का अधिकारी माना गया है जैन धर्म, जैन दर्शन के अनुसार जन्म, जाति, रंग, लिंग का कोई भेदभाव नहीं, मनुष्य जन्म से नहीं कर्म से पहचाना जाना चाहिए, जैन दर्शन, जैन धर्म, जैन आचार निवृत्ति परक है, इसमें त्याग और तपस्या, अनासक्ति और अपरिग्रह पर बड़ा जोर है, प्रवृत्ति सूचक कर्मों से उच्चौत्तर आत्माओं को दूर रहने की सलाह दी गई है जैन धर्म में रुढ़िवादिता नहीं है, चूंकि एक किसी गुरु, तीर्थंकर, आचार्य या संत को ही सर्वोपरि नहीं माना गया है, समयानुसार विवेकमुक्त बदलाव मुख्य सिद्धांतों की अवहेलना किये बिना मान्य किया गया हैकिसी तरह के प्रलोभन से जैनमत में धर्म परिवर्तन के कोई नियम नहीं है, स्वत: जिन धर्म संयत आचरण करने पर व्यक्ति जिनोपासक बन सकता है जल, अग्नि, वायु, वनस्पति, आकाश, पृथ्वी, ६ प्रकार के जीवों की रक्षा का संकल्प लेना तथा जीवन यापन के लिए आवश्यकता से कम, उपयुक्त साधनों का प्रयोग करना, यतनापूर्वक पाप रहित जीवन जीना ‘जैन धर्म’ का मुख्य सिद्धांत है जैन धर्म में कोई देव भाषा नहीं है, भगवान महावीर के अनुसार जन भाषा में धार्मिक क्रियाएँ और ज्ञान प्राप्ति की जानी चाहिए, सामान्य जन भाषा भगवान महावीर के समय में प्राकृत और पाली थी, लेकिन आज ये भाषायें भी जन भाषायें नहीं रही, अत: अपने क्षेत्र की भाषा में चिंतन, मनन और धर्म आराधना होनी चाहिए, यही भगवान महावीर के उद्घोष का सार है, हिन्दी एवं क्षेत्रीय भाषा या अन्य कोई भी भाषा प्रयोग में ली जा सकती है‘‘जियो और जीने दो’’ ‘‘परस्परोपग्रह जीवनाम्’’ दयाभाव युक्त और उसी के तहत जीवों के जीने में सहयोग करना अहिंसा का व्यवहारिक रुप है जैन धर्म के सिद्धांतों की वैज्ञानिक प्रामाणिकता एक के बाद एक स्वयंसिद्ध है, जैसे वनस्पति में जीव है, जीव और जीवाणु है, पानी, भोजन, हवा में जीव है, यह सब बातें वैज्ञानिक सिद्ध कर चुके हैं, इससे सिद्ध होता है कि जैनाचार्य और जैन दर्शन द्वारा प्रदत्त ज्ञान अंधविश््वासों से मुक्त व सच्चा है। जैन श्रमण, साधु, साध्वी भ्रमण करते रहते हैं, एक स्थान पर नहीं रहते, मठ नहीं बनाते, आश्रम नहीं बनाते, पैसा कौड़ी अपने नाम से संग्रह नहीं करते।जैन धर्म में गृहस्थों के लिए, श्रावक-श्राविका के लिए, सन्त-साध्वी के लिए अलग-अलग आचार मर्यादायें तय की गई हैं अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह यह पाँच महाव्रत हैं, शाकाहारी भोजन हो, नशा-मुक्त जीवन हो, शिकार और जुए से दूर रहें, झूठ और चोरी का व्यवहार न करें, व्यभिचार मुक्त जीवन जीएं मुक्ति का मार्ग अहिंसा, तप दान और शील के द्वारा बताया गया है, किसी से वैर न हो, सभी प्राणियों से प्रेम हो, इन मर्यादाओं के पालन के लिए विवेक प्राप्ति हेतु ज्ञान दर्शन स्वाध्याय के द्वारा प्राप्त करना हमारा आवश्यक कर्तव्य है जैन दर्शन सत्यनिवेषी है, सत्य ही धर्म है, परिस्थितिवश विवेक से सत्य को ढूंढना और उचित-अनुचित, धर्म- अधर्म, पाप-पुण्य का निर्णय करना, ये मुख्य शिक्षाएँ हैं।-डॉ रिखब चन्द जैन(चेयरमैन टी.टी. ग्रुप) जैन धर्म की मान्यताएँ, विशेषताएँ और चातुर्मास

सभी पर्वों का राजा है पर्युषण पर्व

सभी पर्वों का राजा है पर्युषण पर्व

सभी पर्वों का राजा है पर्युषण पर्व दुनिया के सबसे प्राचीन धर्म जैन धर्म को श्रमणों का धर्म कहा जाता है। जैन धर्म का संस्थापक ऋषभ देव को माना जाता है, जो जैन धर्म के पहले तीर्थंकर थे और भारत के चक्रवर्ती सम्राट भरत के पिता थे। वेदों में प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ का उल्लेख मिलता है। जैन धर्म में कुल २४ तीर्थंकर हुए हैं। तीर्थंकर अर्‍हंतों में से ही होते हैं। जैन संस्कृति में जितने भी पर्व व त्योहार मनाए जाते हैं, लगभग सभी में तप एवं साधना का विशेष महत्व है। जैनों का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पर्व है पर्युषण पर्व। पर्युषण पर्व का शाब्दिक अर्थ है आत्मा में अवस्थित होना। पर्युषण का एक अर्थ है कर्मों का नाश करना। कर्मरूपी शत्रुओं का नाश होगा तभी आत्मा अपने स्वरूप में अवस्थित होगी अतः यह पर्युषण पर्व आत्मा का आत्मा में निवास करने की प्रेरणा देता है। यह सभी पर्वों का राजा है, इसे आत्मशोधन का पर्व भी कहा गया है, जिसमें तप कर कर्मों की निर्जरा कर अपनी काया को निर्मल बनाया जा सकता है। पर्युषण पर्व को आध्यात्मिक दिवाली की भी संज्ञा दी गई है, जिस तरह दिवाली पर व्यापारी अपने संपूर्ण वर्ष का आय व्यय का पूरा हिसाब करते हैं, गृहस्थ अपने घरों की साफ-सफाई करते हैं, ठीक उसी तरह पर्युषण पर्व के आने पर जैन धर्म को मानने वाले लोग अपने वर्ष भर के पुण्य पाप का पूरा हिसाब करते हैं, वे अपनी आत्मा पर लगे कर्म रूपी मैल की साफ-सफाई करते हैं। पर्युषण महापर्व मात्र जैनों का पर्व नहीं है, यह एक सार्वभौम पर्व है, पूरे विश्व के लिए यह एक उत्तम और उत्कृष्ट पर्व है, क्योंकि इसमें आत्मा की उपासना की जाती है। संपूर्ण संसार में यही एक ऐसा उत्सव या पर्व है जिसमें आत्मरत होकर व्यक्ति आत्मार्थी बनता है व अलौकिक, आध्यात्मिक आनंद के शिखर पर आरोहण करता हुआ मोक्षगामी होने का सद्प्रयास करता है। पर्युषण आत्म जागरण का संदेश देता है और हमारी सोई हुई आत्मा को जगाता है। यह आत्मा द्वारा आत्मा को पहचानने की शक्ति देता है। पर्युषण पर्व जैन धर्मावलंबियों का आध्यात्मिक त्योहार है। पर्व शुरू होने के साथ ही ऐसा लगता है मानो किसी ने दस धर्मों की माला बना दी हो, यह पर्व मैत्री और शांति का पर्व है। जैन धर्मावलंबी भाद्रपद मास में पर्युषण पर्व मनाते हैं। श्वेताम्बर संप्रदाय के पर्युषण ८ दिन चलते हैं, उसके बाद दिगम्बर संप्रदाय वाले १० दिन तक पर्युषण मनाते हैं, उन्हें वे दसलक्षण के नाम से भी संबोधित करते हैं, यह पर्व अपने आप में ही क्षमा का पर्व है, इसलिए जिस किसी से भी आपका बैरभाव है, उससे शुद्ध हृदय से क्षमा मांग कर मैत्रीपूर्ण व्यवहार करें।भारतीय संस्कृति का मूल आधार तप, त्याग और संयम हैं, संसार के सारे तीर्थ जिस प्रकार समुद्र में समाहित हो जाते हैं, उसी प्रकार दुनिया भर के संयम, सदाचार एवं शील ब्रह्मचर्य में समाहित हो जाते हैं। मानव की सोई हुई अन्तः चेतना को जागृत करने, आध्यात्मिक ज्ञान के प्रचार, सामाजिक सद्भावना एवं सर्व धर्म समभाव के कथन को बल प्रदान करने के लिए पर्यूषण पर्व मनाया जाता है, साथ ही यह पर्व सिखाता है कि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदि की प्राप्ति में ज्ञान व भक्ति के साथ सद्भावना का होना भी अनिवार्य है, जैन धर्म में दस दिवसीय पर्युषण पर्व एक ऐसा पर्व है जो उत्तम क्षमा से प्रारंभ होता है और क्षमा वाणी पर ही उसका समापन होता है। क्षमा वाणी शब्द का सीधा अर्थ है कि व्यक्ति और उसकी वाणी में क्रोध, बैर, अभिमान, कपट व लोभ न हो।दशलक्षण पर्व, जैन धर्म का प्रसिद्ध एवं महत्वपूर्ण पर्व है। दशलक्षण पर्व संयम और आत्मशुद्धि का संदेश देता है। दशलक्षण पर्व साल में तीन बार मनाया जाता है लेकिन मुख्य रूप से यह पर्व भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी से लेकर चतुर्दशी तक मनाया जाता है। दशलक्षण पर्व में जैन धर्म के जातक अपने मुख्य दस लक्षणों को जागृत करने की कोशिश करते हैं। जैन धर्मानुसार दस लक्षणों का पालन करने से मनुष्य को इस संसार से मुक्ति मिल सकती है। संयम और आत्मशुद्धि के इस पवित्र त्यौहार पर श्रद्धालु श्रद्धापूर्वक व्रत-उपवास रखते हैं। मंदिरों को भव्यतापूर्वक सजाते हैं तथा भगवान महावीर का अभिषेक कर विशाल शोभा यात्राएं निकाली जाती हैं, इस दौरान जैन व्रती कठिन नियमों का पालन भी करते हैं जैसे बाहर का खाना पूर्णतः वर्जित होता है, दिन में केवल एक समय ही भोजन करना आदि। पर्युषण पर्व की समाप्ति पर जैन धर्मावलंबी अपने यहां पर क्षमा की विजय पताका फहराते हैं और फिर उसी मार्ग पर चलकर अपने अगले भव को सुधारने का प्रयत्न करते हैं। आइए! हम सभी अपने राग-द्वेष और कषायों को त्याग कर भगवान महावीर के दिखाए मार्ग पर चलकर विश्व में अहिंसा और शांति का ध्वज फैलाएं। क्षमा करें और कराएं साथ ही भारत को ‘भारत’ ही बोलें। सभी पर्वों का राजा है पर्युषण पर्व

क्षमावणी पर्व -गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी

क्षमावणी पर्व -गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी

क्षमावणी पर्व -गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी दशलक्षण पर्व का प्रारम्भ भी क्षमाधर्म से होता है और समापन भी क्षमाधर्म पर्व से किया जाता है। दस दिन धर्मों की पूजा करके, जाप्य करके जो परिणाम निर्मल किये जाते है और दश धर्मों का उपदेश श्रवण कर जो आत्म शोधन होता है उसी के फलस्वरूप सभी श्रावक-श्राविकायें किसी भी निमित्त परस्पर में होने वाली मनो-मलिनता को दूर कर आपस में क्षमा मांगते हैं, क्योंकि यह क्रोध कषाय प्रत्यक्ष में ही अग्नि के समान भयंकर है।क्रोध आते ही मनुष्य का चेहरा लाल हो जाता है, होंठ काँपने लगते हैं, मुखमुद्रा विकृत और भयंकर हो जाती है, किन्तु प्रसन्नता में मुख मुद्रा सौम्य, सुन्दर दिखती है, चेहरे पर शांति दिखती है, वास्तव में शांत भाव का आश्रय लेने वाले महामुनियों को देखकर जन्मजात बैरी ऐसे क्रूर पशुगण भी क्रूरता छोड़ देते हैं। यथा- सारंगी सिंहशावं स्पृशति सुतधिया नंदिया व्याघ्र पोतं। मार्जारी हंसबालं प्रणयपरवशा केकिकांता भुजंगीम।। वैराण्याजन्मजातान्यपि गलितमदा जंतवोऽन्ये त्यजंति। श्रित्वा साम्यैकरूढं प्रशमितकलुषं योगिनं क्षीणमोहम।। हरिणी सिंह के बच्चे को पुत्र की बुद्धि से स्पर्श करती है, गाय व्याघ्र के बच्चे को दूध पिलाती है, बिल्ली हंसों के बच्चों को प्रीति से पालन करती है एवं मयूरी सर्पों को प्यार करने लगती है, इस प्रकार से जन्मजात भी बैर को क्रूर जंतुगण छोड़ देते हैं, कब? जबकि वे पापों को शान्त करने वाले मोहरहित और समताभाव में परिणत ऐसे योगियों का आश्रय पा लेते हैं अर्थात् ऐसे महामुनियों के प्रभाव से हिंसक पशु अपनी द्वेष भावना छोड़कर आपस में प्रीति करने लगते हैं, ऐसी शांत भावना का अभ्यास इस क्षमा के अवलंबन से ही होता है।क्रोध कषाय को दूर कर इस क्षमाभाव को हृदय में धारण करने के लिये भगवान् पार्श्वनाथ का चरित्र, श्री संजयंत मुनि का चरित्र और तुंकारी की कथायें पढ़नी चाहिये तथा क्षमाशील साधु पुरुषों का आदर्श जीवन देखना चाहिये। आचार्य शांतिसागर जी आदि साधुओं ने इस युग में भी उपसर्ग करने वालों पर क्षमाभाव धारण कर प्राचीन आदर्श प्रस्तुत किया, बहुत से श्रावक भी क्षमा करके-कराके अपने में अपूर्व आनंद का अनुभव करते हैं, अत: हृदय से क्षमा करना तथा दूसरों से क्षमा का निवेदन करना ही ‘क्षमावणी पर्व’ है।क्षमावणी पर्व -गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी

नागदा श्रीसंघ के आंगणिया में पधारे गुरूवर

नागदा श्रीसंघ के आंगणिया में पधारे गुरूवर

चातुर्मासिक भव्य मंगल प्रवेश नागदा श्रीसंघ के आंगणिया में पधारे गुरूवर (Guruvar arrived in the courtyard of Nagda Srisangh)राजगढ़: श्री श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन श्रीसंघ नागदा जं. के तत्वावधान में वर्ष २०२१ में होने वाले चातुर्मास केअंतर्गत प.पू. श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरिश्वरजी म.सा. के शिष्यरत्न एवं प.पू. श्रीमद्विजय ऋषभचन्द्र सूरिश्वरजीम.सा. के आज्ञानुवर्ति मुनिराज श्री चन्द्रयशविजयजी म.सा. एवं मुनिश्री जिनभद्रविजयजी म.सा. का मंगल प्रवेशचंबल सागर मार्ग स्थित पुरानी नगर पालिका से रविवार को प्रातः ९ बजे प्रारम्भ हुआ, जिसकी अगवानी श्वेताम्बरमूर्तिपूजक जैन श्रीसंघ एवं आत्मोद्धारक चातुर्मास समिति २०२१ के सदस्यों द्वारा की गई।सर्वप्रथम बैण्ड की धुन पर हाथ में मंगल कलश लिये महिलाओं ने मुनिश्री की भव्य सामैयापूर्वक अगवानी की,जिसका लाभ सरदारमलजी विमलचंदजी नागदा परिवार ने लिया। जुलूस भव्य वरघोड़े के रूप में महात्मा गांधी मार्गस्थित चन्द्रप्रभु राजेन्द्रसूरि जैन मन्दिर होते हुए जवाहर मार्ग, शांतिनाथ जिनालय, रामसहाय मार्ग, सुभाष मार्गहोते हुए स्थानीय कृषि उपज मण्डी समिति प्रांगण में भव्य धर्मसभा के रूप में परिवर्तित हुआ, जहां पर मुनिश्री कोचावल से बदाने का लाभ ऋषभजी सुभाषजी नागदा परिवार एवं प्रथम गवली करने का लाभ कमलेशजी दर्शनजीनागदा परिवार ने लिया। मंगल प्रवेश की पूर्व संध्या पर आयोजित महिला सांझी गीत एवं मेहन्दी का कार्यक्रमपार्श्वप्रधान पाठशाला भवन में रखा गया, जिसका लाभ प्रमोदकुमार सुनीलकुमार कोठारी परिवार द्वारा लिया गया।धर्मसभा का हुआ आयोजन:स्थानीय कृषि उपज मण्डी समिति प्रांगण में प्रातः ११ बजे प्रारम्भ हुई धर्मसभा में सर्वप्रथम मोहनखेड़ा तीर्थ से पधारेसंगीतकार देवेश जैन ने संगीतमय गुरूवन्दन श्रीसंघ की गरिमामय उपस्थिति में किया गया, उसके पश्चात्मोहनखेड़ा तीर्थ पेढ़ी ट्रस्ट के मेनेजिंग ट्रस्टी सुजानमल सेठ, श्री राजहर्ष हेमेन्द्र ट्रस्ट नाकोडा के महामंत्री रमेश हरण,श्रीसंघ अध्यक्ष हेमन्त कांकरिया, श्रीसंघ संरक्षक भंवरलाल बोहरा, श्रीसंघ सचिव मनीष सालेचा व्होरा, चातुर्माससमिति अध्यक्ष रितेश नागदा, चातुर्मास समिति सचिव राजेश गेलड़ा, चातुर्मास संयोजक सुनील कोठारी एवं बाहर केश्रीसंघों से पधारे अध्यक्षगण ने भगवान एवं गुरूदेव के चित्र पर माल्यार्पण कर दीप प्रज्वलन का कार्यक्रम सम्पन्नकिया। स्वागत उद्बोधन देते हुए श्रीसंध के पूर्व अध्यक्ष सुनील वागरेचा ने लगातार २१ वर्षो से होते आ रहे चातुर्मासके आयोजनों के इतिहास पर प्रकाश डाला। स्वागत गीत श्रीमती रेखादेवी शाह(मुम्बई) ने प्रस्तुत किया। मुनिश्री कीअगवानी करते हुए स्थानीय नगर पुलिस अधीक्षक मनोज रत्नाकर एवं अनुविभागीय अधिकारी आशुतोष गोस्वामीने सभी समाजजनों को चातुर्मास में कोरोना गाइडलाईन का पालन करने का संदेश दिया। कार्यक्रम में क्षेत्रीय सांसदअनिल फिरोजिया, विधायक दिलिपसिंह गुर्जर, पूर्व विधायक दिलिप सिंह शेखावत, लालसिंह राणावत, सुल्तानसिंहशेखावत, गोपाल यादव, विजय पोरवाल, प्रकाश जैन आदि नेतागण मौजूद थे। संपूर्ण कार्यक्रम का संचालनआत्मोद्धारक चातुर्मास समिति उपाध्यक्ष सोनव वागरेचा ने किया। आभार हर्षित नागदा व चातुर्मास समितिकोषाध्यक्ष निलेश चौधरी ने माना।धर्मसभा के पश्चात् मुर्तिपूजक श्रीसंघ के स्वामीवात्सल्य का आयोजन भी किया गया एवं मंगल प्रवेश के पूर्वआयोजित नवकारसी का लाभ निलेश चौधरी मित्र मण्डल द्वारा लिया गया।आत्मा को परमात्मा से जोड़ने का मार्ग है सिद्धितप:सिद्धितप से तन की शुद्धि, मन की विशुद्धि एवं आत्मा की समृद्धि बढ़ती है तथा यही सिद्धि तप का मार्ग हमेंआत्मा को परमात्मा से जुड़ने के लिये अग्रसर करता है। उक्त संदेश देते हुए मुनिराज चन्द्रयशविजयजी म.सा. नेधर्मसभा को संबोधित करते हुए चातुर्मास में होने वाले विभिन्न तप, आराधनाओं, धार्मिक अनुष्ठानों, महापुजनआदि के महत्व को समझाते हुए समाजजनों से अधिक से अधिक धर्मआराधनाओं मे जुड़ने की प्रेरणा दी।कई महानगरों के गुरूभक्त थे मौजूद :मीडिया प्रभारी ब्रजेश बोहरा, यश गेलड़ा एवं सौरभ नागदा ने संयुक्त रूप से बताया कि प्रवेश की पूर्व संध्या से हीनगर में गुरूभक्तों का आगमन शुरू हो चुका था। मुम्बई, भिवण्डी, चैन्नई, विजयवाड़ा, भिनमाल, राजगढ़, रतलाम,जावरा, इन्दौर, बिरमावल, खाचरौद, बदनावर आदि कई शहरों से गुरूभक्त सैकड़ों की तादाद में मुनिश्री की अगवानीकरने हेतु पहुंचे। कार्यक्रम में मुनिश्री को काम्बली ओढ़ाने का लाभ मन्नालालजी सुभाषजी नागदा परिवार,चातुर्मासिक कलश स्थापना का लाभ रेखादेवी कांतिलालजी शाह (मुम्बई), चातुर्मासिक अखण्ड दीपक का लाभप्रकाशदेवी नाथुलालजी संघवी परिवार (रतलाम) एवं आचार्यश्री के पट पर गुरूपुजा करने का लाभ सुरेशजी कबदीपरिवार (विजयवाड़ा) द्वारा लिया गया।- संतोष लोढ़ा जैननागदा श्रीसंघ के आंगणिया में पधारे गुरूवर (Guruvar arrived in the courtyard of Nagda Srisangh)