जैन धर्म का इतिहास

जैन धर्म भारत की श्रमण परम्परा से निकला प्राचीन धर्म और दर्शन है। जैन अर्थात् कर्मों का नाश करनेवाले ‘जिन भगवान’ के अनुयायी। सिन्धु घाटी से मिले जैन अवशेष जैन धर्म को सबसे प्राचीन धर्म का दर्जा देते है।
संभेद्रिखर, राजगिर, पावापुरी, गिरनार, शत्रुंजय, श्रवणबेलगोला आदि जैनों के प्रसिद्ध तीर्थ हैं। पर्यूषण या दशलाक्षणी, दिवाली और रक्षाबंधन इनके मुख्य त्योहार हैं। अहमदाबाद, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और बंगाल आदि के अनेक जैन आजकल भारत के अग्रगण्य उद्योगपति और व्यापारियों में गिने जाते हैं।
जैन धर्म का उद्भव की स्थिति अस्पष्ट है। जैन ग्रंथो के अनुसार धर्म वस्तु का स्वाभाव समझाता है, इसलिए जब से सृष्टि है तब से धर्म है, और जब तक सृष्टि है, तब तक धर्म रहेगा, अर्थात् जैन धर्म सदा से अस्तित्व में था और सदा रहेगा। इतिहासकारो द्वारा जैन धर्म का मूल भी सिंधु घाटी सभ्यता से जोड़ा जाता है जो हिन्द आर्य प्रवास से पूर्व की देशी आध्यात्मिकता को दर्शाता है। सिन्धु घाटी से मिले जैन शिलालेख भी जैन धर्म के सबसे प्राचीन धर्म होने की पुष्टि करते है। अन्य शोधार्थियों के अनुसार श्रमण परम्परा ऐतिहासिक वैदिक धर्म के हिन्द-आर्य प्रथाओं के साथ समकालीन और पृथक हुआ।
जैन ग्रंथो के अनुसार वर्तमान में प्रचलित जैन धर्म भगवान आदिनाथ के समय से प्रचलन में आया। यहीं से जो तीर्थंकर परम्परा प्रारम्भ हुयी वह भगवान महावीर या वर्धमान तक चलती रही जिन्होंने ईसा से ५२७ वर्ष पूर्व निर्वाण प्राप्त किया था। भगवान महावीर के समय से पीछे कुछ लोग विशेषकर यूरोपियन विद्वान् जैन धर्म का प्रचलित होना मानते हैं। उनके अनुसार यह धर्म बौद्ध धर्म के पीछे उसी के कुछ तत्वों को लेकर और उनमें कुछ ब्राह्मण धर्म की शैली मिलाकर खडा़ किया गया। जिस प्रकार बौद्धों में २४ बुद्ध है उसी प्रकार जैनों में भी २४ तीर्थकार है।
जैन धर्म के सिद्धान्त
जैन धर्म में अहिंसा को परमधर्म माना गया है। सब जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता, अतएव इस धर्म में प्राणिवध के त्याग का सर्वप्रथम उपदेश है। केवल प्राणों का ही वध नहीं, बल्कि दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाले असत्य भाषण को भी हिंसा का एक अंग बताया है। महावीर ने अपने भिक्षुओं को उपदेश देते हुए कहा है कि उन्हें बोलते-चालते, उठते-बैठते, सोते और खाते-पीते सदा यत्नशील रहना चाहिए। अयत्नाचार पूर्वक कामभोगों में आसक्ति ही हिंसा है, इसलिये विकारों पर विजय पाना, इंद्रियों का दमन करना और अपनी समस्त वृत्तियों को संकुचित करने को जैनधर्म में सच्ची अहिंसा बताया है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति में भी जीवन है, अतएव पृथ्वी आदि एकेंद्रिय जीवों की हिंसा का भी इस धर्म में निषेध है।
जैनधर्म का दूसरा महत्वपूर्ण सिद्धांत है कर्म। महावीर ने बार बार कहा है कि जो जैसा अच्छा, बुरा कर्म करता है उसका फल अवश्य ही भोगना पड़ता है तथा मनुष्य चाहे जो प्राप्त कर सकता है, चाहे जो बन सकता है, इसलिये अपने भाग्य का विधाता वह स्वयं है। जैनधर्म में ईश्वर को जगत् का कर्ता नहीं माना गया, तप आदि सत्कर्मों द्वारा आत्मविकास की सर्वोच्च अवस्था को ही ईश्वर बताया है। यहाँ नित्य, एक अथवा मुक्त ईश्वर को अथवा अवतारवाद को स्वीकार नहीं किया गया। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, अंतराय, आयु, नाम और गोत्र इन आठ कर्मों का नाश होने से जीव जब कर्म के बंधन से मुक्त हो जाता है तो वह ईश्वर बन जाता है तथा राग-द्वेष से मुक्त हो जाने के कारण वह सृष्टि के प्रपंच में नहीं पड़ता।
जैनधर्म में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल नाम के छ: द्रव्य माने गए हैं। ये द्रव्य लोकाकाश में पाए जाते हैं, अलोकाकाश में केवल आकाश ही है। जीव, अजीव, आस्रव, बंध संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्व है। इन तत्वों के श्रद्धान से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। सम्यग्दर्शन के बाद सम्यग्ज्ञान और फिर व्रत, तप, संयम आदि के पालन करने से सम्यक्चारित्र उत्पन्न होता है। इन तीन रत्नों को मोक्ष का मार्ग बताया है। रत्नत्रय की पूर्णता प्राप्त कर लेने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है। मोक्ष होने पर जीव समस्त कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाता है, और ऊर्ध्वगति होने के कारण वह लोक के अग्रभाग में सिद्धशिला पर अवस्थित हो जाता है। उसे अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख और अनंत वीर्य की प्राप्ति होती है और वह अंतकाल तक वहाँ निवास करता है, वहाँ से लौटकर नहीं आता।
अनेकान्तवाद जैनधर्म का तीसरा मुख्य सिद्धांत है। इसे अहिंसा का ही व्यापक रूप समझना चाहिए। राग द्वेषजन्य संस्कारों के वशीभूत ने होकर दूसरे के दृष्टिबिंदु को ठीक-ठीक समझने का नाम अनेकांतवाद है। इससे मनुष्य सत्य के निकट पहुँच सकता है। इस सिद्धांत के अनुसार किसी भी मत या सिद्धांत को पूर्ण रूप से सत्य नहीं कहा जा सकता। प्रत्येक मत अपनी अपनी परिस्थितयों और समस्याओं को लेकर उद्भूत हुआ है, अतएव प्रत्येक मत में अपनी अपनी विशेषताएँ हैं। अनेकांतवादी इन सबका समन्वय करके आगे बढ़ता है। आगे चलकर जब इस सिद्धांत को तार्किक रूप दिया गया तो यह स्याद्वाद नाम से कहा जाने लगा तथा, स्यात् अस्ति’, ‘स्यात् नास्ति’, स्यात् अस्ति नास्ति’, ‘स्यात् अवक्तव्य,’ ‘स्यात् अस्ति अवक्तव्य’, ‘स्यात् नास्ति अवक्तव्य’ और ‘स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य’, इन सात भागों के कारण सप्तभंगी नाम से प्रसिद्ध हुआ।
जैन धर्म एवं जैन धर्म के चौबीस तीर्थंकार
जैन धर्म
जो ‘जिन’ के अनुयायी हों उन्हें ‘जैन’ कहते हैं । ‘जिन’ शब्द बना है ‘जि’ धातु से। ‘जि’ माने-जीतना। ‘जिन’ माने जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया, वे हैं ‘जिन’। जैन धर्म अर्थात ‘जिन’ भगवान् का धर्म।
व्यक्ति जाति या धर्म से नहीं अपितु, आचरण एवं व्यवहार से जैन कहलाता है। जैन स्वयं को अनर्थ हिंसा से बचाता है। जैन सदा सत्य का समर्थन करता है। जैन न्याय के मूल्य को समझता है। जैन संस्कृति और संस्कारों को जीता है। जैन भाग्य को पुरुषार्थ में बदल देता है। जैन अनाग्रही और अल्प परिग्रही होता है। जैन पर्यावरण सुरक्षा में जागरुक रहता है। जैन त्याग-प्रत्याख्यान में विश्वास रखता है। जैन खुद को ही सुख-दःख का कर्ता मानता है।
जैन धर्म के चौबीस तीर्थंकार

तीर्थंकार
जन्म नगरी
माता का नाम
पिता का नाम
वैराग्य वृक्ष
चिह्न
ऋषभदेवजी
अजितनाथजी
सम्भवनाथजी
अभिनन्दनजी
सुमतिनाथजी
पद्मप्रभुजी
सुपार्श्वनाथजी
चन्द्रप्रभुजी
पुष्पदन्तजी
शीतलनाथजी
श्रेयान्सनाथजी
वासुपुज्यजी
विमलनाथजी
अनन्तनाथजी
धर्मनाथजी
शांतिनाथजी
कुन्थुनाथजी
अरहनाथजी
मल्लिनाथजी
मुनिसुव्रतनाथजी
नमिनाथजी
नेमिनाथजी
पार्श्र्वनाथजी
महावीरजी
अयोध्या
अयोध्या
श्रावस्ती
अयोध्या
अयोध्या
कौशाम्बीपुरी
काशीनगरी
चंद्रपुरी
काकन्दी
भद्रिकापुरी
सिंहपुरी
चम्पापुरी
काम्पिल्य
विनीता
रत्नपुरी
हस्तिनापुर
हस्तिनापुर
हस्तिनापुर
मिथिला
कुशाक्रनगर
मिथिला
शोरिपुर
वाराणसी
कुंडलपुर
मरूदेवी
विजया
सेना
सिद्धार्था
सुमंगला
सुसीमा
पृथ्वी
लक्ष्मण
रामा
सुनन्दा
विष्णु
जपा
शमी
सूर्वशया
सुव्रता
ऐराणी
श्रीदेवी
रोहिणी
रक्षिता
पद्मावती
वप्रा
शिवा
वामादेवी
त्रिशाला प्रियकारिणी
नाभिराजा
जितशत्रु
जितारी
संवर
मेधप्रय
धरण
सुप्रतिष्ठ
महासेन
सुग्रीव
दृढ़रथ
विष्णुराज
वासुपुज्य
कृतवर्मा
सिंहसेन
भानुराजा
विश्वसेन
सूर्य
सुदर्शन
कुम्प
सुमित्र
विजय
समुद्रविजय
अश्वसेन
सिद्धार्थ
वट वृक्ष
सर्पपर्ण वृक्ष
शाल वृक्ष
देवदार वृक्ष
प्रियंगु वृक्ष
प्रियंगु वृक्ष
शिरीष वृक्ष
नाग वृक्ष
साल वृक्ष
प्लक्ष वृक्ष
तेंदुका वृक्ष
पाटला वृक्ष
जम्बू वृक्ष
पीपल वृक्ष
दधिपर्ण वृक्ष
नन्द वृक्ष
तिलक वृक्ष
आम्र वृक्ष
कुम्पअशोकवृक्ष
चम्पक वृक्ष
वकुल वृक्ष
मेषश्रृंग वृक्ष
घव वृक्ष
साल वृक्ष
बैल
हाथी
घोड़ा
बन्दर
चकवा
कमल
साथिया
चन्द्रमा
मगर
कल्पवृक्ष
गेंडा
भैंसा
शूकर
सेही
वज्रदण्ड
हिरण
बकरा
मछली
कलश
कछुवा
नीलकमल
शंख
सर्प
सिंह
श्वेताम्बर और दिगम्बर का परिचय
भगवान महावीर ने जैन धर्म की धारा को व्यवस्थित करने का कार्य किया, लेकिन उनके बाद जैन धर्म मूलत: दो संप्रदायों में विभक्त हो गया: श्वेतांबर और दिगम्बर।
दिगम्बर

दिगम्बर जैन धर्म के दो प्रमुख मतों में से एक, जिनके धार्मिक मुनि कोई वस्त्र नहीं पहनते और संपत्ति को त्याग देते है। ‘श्वेताम्बर’ नामक दूसरे मत के मुनि सफ़ेद कपड़े पहनते हैं। मध्यकालीन भारत में दिगम्बरों का पर्याप्त प्रभाव था। दिगम्बर, श्वेताम्बर के धार्मिक ग्रंथ साहित्य को मान्यता नहीं देते, लेकिन यह मानते हैं कि प्रारंभिक साहित्य धीरे-धीरे भुला दिया गया और दूसरी शताब्दी तक वह पूरी तरह खो गया था।
‘दिगम्बर’ एक संस्कृत शब्द है, जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘नग्न’। कहा जाता है कि मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के काल में गंभीर अकाल के समय जैन मुनियों के गंगा नदी या उज्जैन से दक्षिण की ओर चले जाने के कारण ही जैन धर्म दो शाखाओं ‘दिगम्बर’ तथा ‘श्वेताम्बर’ में बंट गया था। प्रवासी मुनियों के प्रमुख भद्रबाहु ने इस पर बल दिया कि पुरुषों को कोई वस्त्र नहीं पहनना चाहिए और इस प्रकार उन्होंने अंतिम तीर्थंकर या मोक्ष प्राप्त करने वाले शिक्षक महावीर द्वारा प्रस्तुत उदाहरण का अनुसरण किया।
उत्तर भारत में ही रह गए मुनियों के प्रमुख स्थूलभद्र ने सफ़ेद रंग के वस्त्र पहनने की अनुमति दी। आम युग की शुरूआत के समय दिगम्बर और श्वेताम्बर इस बात पर अंतत: अलग हो गए कि क्या संपत्ति (यहां तक कि वस्त्र भी) रखने वाले किसी मुनि के लिए मोक्ष प्राप्त करना संभव है? हालांकि दोनों गुटों द्वारा की गई जैन धर्म के दार्शनिक सिद्धांतों की विवेचना में कोई उल्लेखनीय अंतर नहीं है और धार्मिक अनुष्ठनों, ग्रंथों और साहित्य में समय के साथ मतभेद उत्पन्न होते रहे हैं, लेकिन धार्मिक स्थानों के स्वामित्व को लेकर बहुत-से विवाद उठे, जो आज भी विद्यमान हैं।
श्वेताम्बर

श्वेताम्बर जैन धर्म की दो प्रमुख शाखाओं में से एक है। दूसरी शाखा को ‘दिगम्बर’ कहा जाता है। दिगम्बर जैन आचरण पालन में कठोर होते हैं, जबकि श्वेताम्बर जैन उदार होते हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि ‘आगम’ ग्रंथों की रचना सम्भवतः श्वेताम्बर सम्प्रदाय के आचार्यो द्वारा महावीर स्वामी की मृत्यु के बाद की गयी थी। श्वेताम्बर शाखा में देवताओं तथा साधुओं के श्वेत वस्त्र पहनने की प्रथा है।
श्वेताम्बर एवं साध्वियाँ और संन्यासी श्वेत वस्त्र पहनते हैं, तीर्थकरों की प्रतिमाएँ प्रतिमा पर धातु की आंख, कुंडल सहित बनायी जाती हैं और उनका शृंगार किया जाता है।
श्वेताम्बर भी दो भाग मे विभक्त है –
( १ ) देरावासी – यॆ तीर्थकरों की प्रतिमाएँ की पूजा करतॆ हैं।
( २ ) स्थानकवासी – ये मूर्ति पूजा नहीँ करते बल्कि साधु संतों को ही पूजते हैं।
स्थानकवासियों की समस्त क्रियाएँ स्थानक (उपाश्रय) में होती हैं इसलिये ये स्थानकवासी कहे जाते हैं। इन्हें ढूँढ़िया, बिस्तोला अथवा साधुमार्गी भी कहते हैं। ये भी श्वेतांबर ही हैं, लेकिन मूर्तिपूजा को नहीं मानते और केवल ३२ आगमों को प्रमाण मानते हैं। इसके संस्थापक लोंकाशाह थे जो अहमदाबाद में शास्त्रों की नकल किया करते थे। जैन आगमों के अध्ययन से इन्हें पता लगा कि इनमें मूर्तिपूजा का उल्लेख नहीं है, तथा सभी आगम प्रमाण नहीं माने जा सकते। आगे चलकर सन् १४६७ में लोंकाशाह साधु बन गए। इन्होंने लोंका अथवा लुंपाक संघ चलाया; भाणजी नामक श्रावक उनका प्रथम गणधर हुआ।
वीर के पुत्र लवजी ने लोंकामत में सुधार करने का प्रयत्न किया। उन्होंने सन् १६५३ में ढूँढ़िया नामक संप्रदाय चलाया जो बाद में लोंकामत का ही समर्थक हुआ। इस संप्रदाय के गुजरात में अनेक शिष्य बने।
स्थानकवासी के भी दो भाग हैं :-
( १ ) बाईसपंथी
( २ ) तेरापंथी