दीपावली की दिव्यता

आत्म-ध्यान से सिद्धि

मानवता को अहिंसा-सत्य, समानता, समत्व-भाव, स्वावलम्बन, सहिष्णुता, विरोध, सच्चारित्र और अभय का पावन सन्देश देने वाले विश्व पूज्य भगवान महावीर का परिनिर्वाण ई.पूर्व ५२७, कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि के अन्तिम पहर में स्वाति नक्षत्र में पावापुर में हुआ था। महावीर सिद्धलोकवासी हो गए। इन्द्र और देवताओं ने निर्वाण कल्याणक पूजा की, नौलिच्छिवि, नौ मल्ल राजा और श्रेणिक राजा ने प्रजाजनों के साथ मिलकर प्रभु का निर्वाण कल्याणक मनाया व दीप जला कर ज्ञान-प्रकाश उत्सव मनाया, पावा नगरी दीप-आलोक से जगमगा गयी।

निर्वाण के दो दिन पूर्व त्रयोदशी को पावा नगरी के मनोहर वन में सरोवर के मध्य मणिमय शिलापुर प्रभु विराजमान हुए। मन-वचन-काय योग का निरोध कर, क्रिया रहित हो, परम शुक्ल ध्यान में लीन हो गये जिससे शेषाचार अघतिया कर्मों का नाश हुआ, प्रतिदिन ६-६ घड़ी तीन बार खिरने वाली दिव्य ध्वनि बन्द हो गयी और वचन योग का भी पूर्णत: निरोध हो गया। प्रभु ने सुक्ष्म क्रिया प्रतिपाती ध्यान द्वारा ७२ कर्म प्रकृतियों का आयोग, गुण स्थान के उपान्त्य में क्षय किया, तत्पश्चात शुक्ल ध्यान के चतुर्थपाद व्युपरत क्रिया निवृति का आलम्बन लेकर शेष १३ कर्म प्रकृतियों का अन्त समय में क्षयण कर, सिद्ध परमेष्ठी हो गये। अग्नि कुमार देवों के इन्द्र ने अपने मुकुट से अग्नि प्रज्ज्वलित कर, जिनेन्द्र प्रभु की देह का सन्स्कार किया, प्रभु का जब निर्वाण हुआ, उनके प्रमुख गणधर इन्द्रभूति गुणावा में विराजे थे।

त्रयोदशी से चतुदर्शी की रात्रि का समय प्रजावासियों का अत्यन्त कौतुहल का समय था, वे भगवान की दिव्य ध्वनि से, प्रभु की सन्निकटता से वंचित हो गये थे और उसी क्रम में प्रभु का वियोग हो गया। हर्ष और वियोग का दु:ख दोनों एक साथ विद्यमान था, अन्तत: वियोग के भावों का शमन कर, सर्वजनों ने प्रभु का निर्वाण महोत्सव उल्लास पूर्वक मनाया तब से जैन परम्परा में भगवान महावीर के निर्वाण की स्मृति में दीपावली महोत्सव, वर्ष-प्रतिवर्ष मनाया जाने लगा। कार्तिक कृष्ण अमावस्या की सन्ध्या को इन्द्रभूति गौतम केवल ज्ञान प्राप्त कर, चतुर्विध संघ के नायक बने थे, अत: उनकी पावन स्मृति में ज्ञान के प्रतीक दीप-मालिकाओं से उत्सव मनाया, यह परम्परा अभी भी निरन्तरित जारी है।

भगवान महावीर के निर्वाणोत्सव की स्मृति में निर्वाण कल्याणक पूजा सम्पन्न की गयी थी, कालान्तर में निर्वाण लाडू चढ़ाने की प्रथा चल पड़ी, जिनेन्द्र देव की पूजा अष्टद्रव्य से की जाती है, अष्टद्रव्य में नैवेद्य भी है। निर्वाणलाडू नैवेद्य का प्रतीक है जो क्षुधा (भूख) रोग के निवारण हेतु समर्पित किया जाता है। मोक्षफल की प्राप्ति हेतु नारियल, बादाम आदि फल समर्पित किया जाता है। दीपावली के दिन भगवान महावीर को मोक्ष हुआ था जो सभी जीवों को अभिष्ट है अत: विशिष्ट पूजन में फल का समर्पण युक्ति-युक्त प्रतीत होता है। मोक्ष होने पर क्षुधादि १८ दोषों से स्वत: मुक्ति मिल जाती है इस दृष्टि से निर्वाण लाडू के स्थान पर निर्वाण-फल समर्पित करने हेतु विचार किया जा सकता है। आज भारी-भार के निर्वाण लाडू चढ़ाकर वैभव/मान प्रदर्शन होने लगा है जो वीतरागी परम्परा के अनुकूल नहीं है। सुधार की दिशा और दशा वीतरागता एवम् जैनत्व के प्रकाश में हो तो उससे कषाय-पोषण या प्रदर्शन के स्थान पर आत्म-कल्याणक हो सकेगा और भगवान महावीर का शासन निर्वाण विशुद्ध रूप में प्रवाहमान होता रहेगा। मिष्ठान वितरण और नैवेद्य में अन्तर है, भावात्मक दृष्टि से यह भी स्मरण रखना चाहिए। दीपावली के दिन पटाखे फोड़ना त्रस जीवों की हिंसा का निमित्त बनता है,अत: इससे भी दूर रहना चाहिए। 

धन्य या ध्यान तेरस – जैसा ऊपर कहा है, निर्वाण के दो दिन पूर्व भगवान महावीर ने ध्यान योग लगाया, इस ध्यान योग के निमित्त अघातिया कर्म की ८५ (७२+१३) प्रकृतियाँ क्षय को प्राप्त हुई और भगवान महावीर को मोक्ष प्राप्त हुआ, इस दृष्टि से ध्यान के महत्व को दर्शाने और जीवन में ध्यान की परम्परा विकसित करने, ध्यान तेरस महोत्सव मनाना प्रारम्भ हुआ, ध्यान को ही धन्य रूप माना गया। काल दोष से ध्यान की अवधारणा लुप्त हो गयी और ध्यान तेरस को धन तेरस के रूप में मनाने लगे, व्यवसाय की दृष्टि से ऐसा प्रयोग आकर्षक भी लगा। धनतेरस को कुछ न कुछ बर्तन, सोना-चाँदी क्रय करना चाहिए ऐसी भावना जनमानस में उत्पन्न हुई। संसार, शरीर और विषय भोगों से मुक्ति पाने हेतु आत्म-ध्यान ही एक मात्र ऐसा राजमार्ग है जो कर्म बन्धनों से मुक्ति दिलाता है। काल दोष से अब ‘आत्मा’ और ‘ध्यान’ शब्द अरूचि-बोधक हो गये हैं

इससे ऐसा लगने लगता है जैसे दर्शन-मोह का गहन अन्धकार दृष्टि को आकृत किये हो। धन तेरस का दिन सचेतक है, क्या हम उसके सही स्वरूप को समझकर सच्चे अर्थों में मोक्षमार्गी बनेंगे? विचारणीय जीवन में ध्यान (आत्म-ध्यान) के अभाव में कषायों का वेग पुष्ट हो रहा है। आकुलता और अशान्ति बढ़ रही है। ध्यान यदि धन में रूपान्तरित हो जाये तो इष्ट के स्थान पर अनिष्ट तो होना ही है, जहाँ तक लौकिक प्रयोजनों की सिद्धि का प्रश्न है, वह तो अरहन्तादिक के प्रति स्तवनादि रूप विशुद्ध परिणामों से सहज ही सिद्ध हो जाते हैं, उसके लिए लक्ष्मी आदि की पूजा करना इष्ट नहीं है। विशुद्ध, तीव्र विशुद्ध परिणामों से सातादिक आदि पुण्य प्रकृतियों का बन्ध होता है पूर्वकृत असातादिक पाप प्रकृतियों का अनुभव मन्द होता है या पाप प्रकृतियाँ पुण्यरूप परिणामित हो जाती हैं, जिनके उदय से इन्द्रिय सुख की सामग्री स्वमेव मिलती है, सप्रयोजन अरहन्तादिक की भक्ति भी पाप बन्ध का कारण होती है, समग्र रूप में धन के स्थान पर ध्यान को जीवन का अंग बनाना हित कारक है। ‘दीपावली पर्व’ विद्यमान

जीवन को उत्कर्ष पर ले जा कर, अन्तत: निश्रेयश पद अर्थात् मोक्षदायक बनें इस दृष्टि से इस पर्व को सही स्वरूप में मनाना अपेक्षित है। आचार्य, साधु भगवन्त और विद्वान जन, समाज के भ्रम को दूर कर, उनका सद्मार्ग दर्शन करें, यही सविनय निवेदन है जिससे ‘दीपावली’ दिव्यता को प्राप्त होगी। आलेख समापन के पूर्व भगवान महावीर एवम् गौतम गणधर का संक्षिप्त परिचय देना अपेक्षित है:महावीर का जन्म क्षत्रिय कुल के विदेह-देश स्थित कुण्डग्राम (वासोकुण्ड) के राजा सिद्धार्थ के यहाँ, ईसा पूर्व २७ मार्च ५९९ को हुआ था। कुण्डग्राम वैशाली गणराज्य का अंग था, तीस वर्ष की आयु में महावीर ने जिनेश्वरी दीक्षा धारण कर बारह वर्ष तक निरन्तर आत्मा की मौन साधना कर, केवल्य ज्ञान प्राप्त किया, तत्पश्चात् जो आत्म-वैभव, अनन्त-ज्ञान पाया
था, उसके प्रकाश में समवसरण सभा के माध्यम से जगत के जीवों को तीस वर्ष तक त्रिरत्न रूप आत्मकल्याण का मार्ग बताया। संयम, त्याग और तप के माध्यम से जीवन को आध्यामिक ऊँचाईयों तक ले जाने का मार्ग अहिंसा, सत्य आदि पाँच महाव्रत, तीन गुप्ति, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियजय, बारह तप, दशधर्म और पाँच चारित्र का आवलम्बन लेकर त्रिकाल शुद्ध आत्मा को पर्याय में शुद्ध की प्रक्रिया तक ले जाता है, यह मार्ग वीतरागता की प्राप्ति का मार्ग कहा जाता है। महावीर का परिनिर्वाण पावा में दीपावली के दिन हुआ। वासोकुण्ड वासी सर्वसमाज के महानुभाव महावीर जयन्ती, दीपावली का पर्व, महावीर की शिक्षाओं को अपने जीवन का अंग बना लिया जो कि महावीर का अद्भुत प्रभाव है।

भगवान महावीर का शासन प्रभावशील है। भगवान महावीर के प्रथम गणधर ब्राह्मण मूल के इन्द्रभूत गौतम थे, वे वेदपाठी थे, उनका जन्म मगध देश के गोबरग्राम (नालन्दा के निकट) में हुआ था। पचास वर्ष तक वैदिक धर्म का पठन-पाठन कराते रहे। भगवान महावीर के समवशरण के मानस्तम्भ को देखकर उनका मान गला और आत्मज्ञान हुआ, उन्होंने जिनेश्वरी दीक्षा ग्रहण की और पर्यायज्ञानी हो गये, वे भगवान के प्रथम गणधर हुए उनकी उपस्थिति में आषाढ़ पूर्णिमा को दिव्यध्वनि खिरी, अत: वह दिन गुरूपूर्णिमा के नाम से प्रसिद्ध हुआ। महावीर के निर्वाण के दिन गणधर गौतम को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। बारह वर्ष तक उन्होंने चतुर्विध संघ का सन्चालन किया और ई.पूर्व ७१५ में गुणावा जी से मोक्ष पधारे, आपकी स्मृति में नालन्दा में पुत्रोत्पत्ति पर सौहर गीत गाये जाते हैं। दीपावली का पर्व ‘जिनागम’ के प्रबुद्ध पाठकों का मंगलमय हो।

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