भगवान महावीर और उनके सिद्धान्त

अहिंसा का अर्थ है हिंसा का परित्याग करना, किसी को दु:ख देने की भावना से दु:ख देना हिंसा है, द्रव्य और भाव इन भेदों से हिंसा दो प्रकार की होती है, किसी का गला घोंट देना या तलवार आदि शस्त्रों द्वारा किसी का प्राणान्त कर देना द्रव्य हिंसा है। द्रव्य-हिंसा का अधिक सम्बन्ध द्रव्य के साथ होने से, द्रव्य-हिंसा कहा जाता है, जिस हिंसा का सम्बन्ध भावना के साथ हो वह भाव-हिंसा कहलाती है। ह्रदय में दूसरों को मारने का विचार करना, झूठ, चोरी, व्यभिचार, क्रोध, मान, कपट और लोभ आदि दुर्गुणों का पैदा होना भाव हिंसा है। हिंसा चाहे द्रव्य की हो, चाहे भाव की हो, दोनों बुरी ही हैं और जीवन को पतोन्मुख बनाती हैं।भगवान महावीर ने संसार के प्राणियों को फरमाया कि अगर तुम शान्ति से जीना चाहते हो तो किसी के जीवन की हिंसा मत करो, किसी के जीवन से खिलवाड़ करना छोड़ दो, यदि हो सके तो किसी के दु:खी जीवन को शान्ति पहुँचाओ, यदि किसी को शान्ति पहुँचाने का सौभाग्य न प्राप्त कर सको तो कम से कम किसी को पीड़ा तो मत पहुँचाओ। हिंसा के वातावरण में जीवन का वृक्ष कभी फल-पूâल नहीं सकता, हिंसा एक ऐसी आग है जो जीवन की लहलहाती पुâलवाड़ी को पूंâक कर राख बना देती है।

साधु और गृहस्थ दोनों अहिंसा की परिपालना कर सकते हैं, भगवान महावीर ने साधुओं से कहा कि मन-वचन-काया से अहिंसा का पालन करो। विचार से, भाषा से तथा कर्म से किसी को कष्ट मत पहुँचाओ, सब की शान्ति का और प्रेम का संदेश देते हुए अपने जीवन-लक्ष्य पर बढ़ते चलो। गृहस्था को भगवान ने फरमाया कि ‘स्वयं जीओ और दूसरों को जीने दो’। बेकसूर और निर्दोष जीवों को भूल करके भी मत सताओ, तुम गृहस्थ हो तुम्हारे ऊपर देश जाति की कुछ जिम्मेदारियां भी हैं, अत: देश जाति को हानि पहुँचाने वाले लोगों से सदा सावधान रहो, यदि कोई तुम्हारी बहन, बेटी की इज़्जत लूटने का दु:साहस करता है, देश एवं जाति को हानि पहुँचाता है, उसका यदि तुम मुकाबला करते हो, उसे दण्ड देते हो, उसे सही मार्ग पर लाने का प्रयास करते हो तो ऐसा करते हुए तुम्हारा अहिंसा का व्रत खण्डित नहीं होता, देश जाति के घातक और आततायी लोगों से भयभीत होकर भागना अहिंसा नहीं है, यह तो निरी कायरता है।

भगवान महावीर के द्वारा इस अहिंसा सिद्धान्त को यदि एक उर्दू कवि की भाषा में कहें तो इस प्रकार कह सकते हैं- मत जुल्म करो मत जुल्म सहो, इसका ही नाम अहिंसा है बु़जदिल जो हैं, बेजान वो हैं, उन्हीं से बदनाम अहिंसा है

अपरिग्रह – भगवान महावीर ने दूसरी बात अपरिग्रह की फरमाई। अपरिग्रह का अर्थ है – परिग्रह-आसक्ति का त्याग कर देना, मनुष्य कितना भी अधिक पूंजीपति क्यों न हो, परन्तु यदि वह अनासक्त भाव से रहता है, दीन-दुखियों की सहायता करता है, बे-सहारों का सहारा बनता है, गिरे हुए लोगों को धनादि की सहायता देकर अपने बराबर बनाने का प्रयत्न करता है। बेरोजगारों को रोजगार पर लगाता है, जनता की मकान और रोटी की समस्या को समाहित करने के लिये अपना सर्वस्व न्यौछावर करने में भी संकोच नहीं करता तो वह अपरिग्रह भावना का परिपालक ही समझा जाता है। आज हमारे देश में ‘गरीबी हटाओ’ की भी टेढ़ी समस्या चल रही है परन्तु यदि देश के पूंजीपति भगवान महावीर के अपरिग्रहवाद को अपना लें और उसे अपने जीवन में उतार लें तो गरीबी हटाओ की समस्या एक पल में समाहित हो सकती है। अमीर और गरीब के मध्य में ईष्र्या, द्वेष, ऩफरत की जो खाई बढ़ती जा रही है वह सदा के लिए समाप्त हो सकती है। अपरिग्रहवाद एक ऐसी शक्ति है जो देश का आर्थिक संकट दूर कर जन-जीवन को स्वर्ग तुल्य बना सकता है।अनेकान्तवाद का अर्थ है- विचारों की सहिष्णुता। दूसरों के विचारों में जो सत्यांश है उसकी उपेक्षा न कर उसे सहर्ष अंगीकार करना, ‘सच्चा सो मेरा’ के परम पावन सिद्धान्त को अपनाते हुए ‘मैं सो सच्चा’ के संकीर्ण मन्तव्य को छोड़ देना, अनेकान्तवाद का वास्तविक स्वरूप होता है, आज हम जिस किसी समाज या परिवार को देखते हैं तो वहाँ आपसी मनमुटाव और लड़ाई-झगड़े ही देखते हैं, न पिता-पुत्र में बनती है, न गुरु-शिष्य में प्यार है और न ही बहू-सास, देवरानी-जेठानी और बहन-भाई में एक दूसरे के प्रति अनुराग दिखाई देता है, जब कारण पूछा जाता है तो घड़ा-घड़ाया एक ही उत्तर मिलता है कि प्रकृति नहीं मिलती, वस्तु-स्थिति भी यही है कि आज मनुष्य अपनी बात को ही महत्व देता है, दूसरी की बात सत्य और युक्ति-युक्त हो तथापि उसे मानने को कोइ तैयार नहीं,

इसीलिए यत्र-तत्र-सर्वत्र मनोमालिन्य, क्लेश, लड़ाई-झगड़ा, आपसी वैर-विरोध ही सर उठाता दिखाई दे रहा है। ‘‘तेरी लस्सी मीठी भी खट्टी भी’’ मान कर चलने वाले लोगों ने देश और जाति का स्वास्थ्य बिगाड़ दिया है, ऐसे लोगों से अनेकान्तवाद कहता है कि उदार बनों, वैयक्तिक संकीर्णता को छोड़ो, जहाँ कहीं भी सत्यता है, उसे स्वीकार करो, जब तक संकीर्णता का परित्याग नहीं किया जाएगा, तब तक वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय भविष्य को समुज्ज्वल नहीं बनाया जा सकता। अनेकान्तवाद कहता है दुराग्रह वृत्ति का त्याग करो। हठवाद-एकान्तवाद एक प्रकार का विष है, यह विष शान्ति से मनुष्य को जीवित नहीं रहने देता, अत: ‘‘ऐसा ही है’’ यह न कह कर ‘‘ऐसा भी है’’ ऐसा कहने और मानने की आदत पैदा करो। उदाहरणार्थ, तीन लाईनें, यदि यह छोटी ही है,

‘बड़ी ही है’ ऐसा कहोगे तो बात नहीं बन सकती, यदि उसे ‘यह छोटी भी है’ या ‘यह बड़ी भी है’ ऐसा कहने लगेंगे तो कोई झंझट नहीं होगा। तीन इंच की लाईन के ऊपर यदि पांच इंच की लाईन खींच दी जाए तो वह तीन इंच की लाईन छोटी दिखाई देती है और उसके नीचे यदि दो इंच की लाईन खींच दी जाए तो वह बड़ी हो जाती है, अत: प्रत्येक वस्तु में उपस्थित सभी विशेषताओं को ध्यान में रखकर अपनी भाषा का प्रयोग करेंगे तो आपत्ति करने का किसी को कोई अवसर नहीं मिल सकता, वस्तु की सभी विशेषताओं को समझना और उसकी एक भी विशेषता की उपेक्षा न करना ही अनेकान्तवाद का व्यवहारिक रुप होता है। भगवान महावीर के अहिंसा आदि तीन स्वर्णिम सिद्धान्तों को लेकर बहुत कुछ लिखा जा सकता है किन्तु यदि संक्षेप में कहें तो इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि प्राणी मात्र में अपनी ही आत्मा के दर्शन करते हुए दूसरों को पीड़ा पहुँचाने से सदा संकोच करना चाहिए। लोभ और लालच की दल-दल से दूर रहकर देश और जाति की उन्नति एवं प्रगति के लिए हमें हर समय तैयार रहना चाहिए तथा किसी भी म़जहब या सम्प्रदाय या परम्परा से द्वेष न रखकर उसमें उपस्थित सत्यांश को ग्रहण करने का कार्य पूर्णतया करना चाहिए, यही जैन धर्म की सबसे बड़ी प्रेरणा है, आज के समय व युग का यही सबसे बड़ा सन्देश है, जिसे जीवन में अपनाकर हम सब भगवान महावीर के चरणों में सच्ची श्रद्धांजलि प्रस्तुत कर सकते हैं।

-जिनागम

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