महिला शिक्षा की जननी महिलारत्न पं. चंदाबाई जी (Mahilaratna Pt. Chandabai, the mother of women’s education in hindi )

महिला शिक्षा की जननी महिलारत्न पं. चंदाबाई जी (Mahilaratna Pt. Chandabai, the mother of women's education in hindi )

महिला शिक्षा की जननी महिलारत्न पं. चंदाबाई जी (Mahilaratna Pt. Chandabai, the mother of women’s education in hindi ): माँ-श्री महिलारत्न पं.चंदाबाई जी का जन्म वि. सं.१९४६ की आषाढ-शुक्ल तृतीया की शुभ बेला में वृंदावन में हुआ था।

बारह वर्ष की आयु में आपका शुभ विवाह संस्कार आरा नगर के प्रसिद्ध जमींदार जैन धर्मानुयायी पं. प्रभुदास जी के पौत्र श्री चंद्रकुमार

जी के पुत्र श्री धर्मकुमार के साथ सम्पन्न हुआ था। बाबू धर्मकुमार जी की मृत्यु विवाह के कुछ समय बाद ही हो गई। मात्र तेरह वर्ष की

अवस्था में ही वैधव्य की वैधवीकला ही आपकी चिरसंगिनी बनी। आपके जेठ देव प्रतिमा स्वनामधन्य बाबू देवकुमार जी ने अपनी अनुज

वधू को विदुषी, समाज-सेविका और साहित्यकार बनाने में कोई कमी नहीं रखी। आपने घोर परिश्रम कर संस्कृत, व्याकरण, न्याय,

साहित्य, जैनागम एवं प्राकृत भाषा में अगाध पांडित्य प्राप्त किया और राजकीय संस्कृत विद्यालय काशी की पंडित परीक्षा उत्तीर्ण की,

जो वर्तमान में शास्त्री परीक्षा के समकक्ष है। महिला शिक्षा की जननी महिलारत्न पं. चंदाबाई जी ने सन्‌ा् १९०९ में भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महिला परिषद की स्थापना

कर नारी जागरण का मंत्र फूँका। इस संस्था के प्लेटफार्म से आपने नारी जागरण के अनेक कार्य किये। मातुश्री केवल वचनों द्वारा ही

नारी जागरण नहीं करती, बल्कि अपना क्रियात्मक योगदान भी देती थी। आपके प्रयास से बिहार के बाहर भी नारी शिक्षा एवं नारी

जागरण का काम किया गया। नारी के सर्वांगीण विकास के लिए सन् १९०९ में आपने श्री देवकुमार जी द्वारा आरा नगर में एक कन्या

पाठशाला की स्थापना कराई और स्वयं उसकी संचालिका बन नारी शिक्षा का बीज बोया। मातुश्री इस शाला में शाम के समय मोहल्ले

की नारियों को एकत्र कर स्वयं शिक्षा देती एवं उन्हें कर्तव्य का ज्ञान कराती थी। इस छोटी सी पाठशाला से आपको संतोष नहीं हुआ।

आपने सन्‌ा् १९२१ में नारी शिक्षा के प्रसार के निमित्त श्री जैन बाला विश्राम नाम की शिक्षा संस्था स्थापित की। इस संस्था में लौकिक

एवं नैतिक शिक्षा का पूरा प्रबंध किया गया। विद्यालय के साथ छात्रावास की भी व्यवस्था की गई थी।

इस संस्था का वातावरण बहुत ही विशुद्ध और पवित्र है। यहाँ पहुँचते ही धवलसेना हंसवाहिनी और वीणावादिनी सरस्वती आगंतुकों का

स्वागत करती है। छात्रावास और विद्यालय भवनों की विशेषता ईंट चूने से बनी इमारत में नहीं बल्कि साध्वी माँ-श्री के व्यक्तित्व के

आलोक से आलोकित होने वाली अगणित बालाओं के उत्थान में है। माँ-श्री ने इस संस्था में अपना तन-मन-धन सब कुछ दिया। आपकी

तपस्या छात्राओं को स्वत: आदर्श बनने की प्रेरणा देती थी। माँ-श्री की सेवा, त्याग और लगन का मूल्य नहीं आंका जा सकता। इस संस्था

में भारत के कोने-कोने से आकर बालायें शिक्षा प्राप्त करती थी। इसी जैन बाला विश्राम में पढ़कर बहुत बालिकाएं अनेक उच्च स्थानों पर

गई। इसी विद्यालय से पढ़ कर अनेक विदुषी छात्राएँ जैन धर्म में स्त्रियों के सर्वोच्च पद आर्यिका बनी। आ. विजयमती माता जी इसकी

उधारण हैं। भारत गणराज्य के प्रथम राष्ट्रपति देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, श्री जयप्रकाश नारायण, श्री संत विनोबा भावे एवं श्री काका

कालेलकर आदि मनीषियों ने भी इस संस्था की महत्ता को स्वीकार किया है। भारत के तत्कालीन उप राष्ट्रपति सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन

ने उन्हे दिल्ली बुलाकर विशेष सम्मान के साथ अभिनंदन ग्रंथ भी दिया।

साहित्यिक पुरुषत्ववाद की अंतिम विजयश्री पर माँ- श्री ने महिला साहित्य को अपने व्यक्तित्व का आत्मा निर्माण कर संजोया धा।

आपकी करीब १५ रचनायें प्रकाशित भी हुई हैं। सन् १९१२ से ‘जैन महिलादर्श’ नामक हिन्दी मासिक पत्र की संपादन भी करती रही।

माँ-श्री श्रमण संस्कृति के प्रसार में अहर्निश संलग्न रहती थी, इसके लिए बिहार के राजगृह, पावापुरी, आरा आदि स्थानों में विपुल

धनराशि व्यय कर सुंदर जैन मंदिरों का निर्माण कराया। वृन्दावन में भी एक जिनालय आपके द्वारा निर्मित है। राजगृह के विपुलांचल

पर्वत पर तीर्थंंकर भगवान महावीर का प्रथम समवशरण आया, तथा बीसवें तीर्थंकर मुनिसुब्रतनाथ की यह जन्मभूमि भी है। माँ-श्री ने

विपुलांचल पर्वत पर महावीर स्वामी का एवं रत्नगिरि पर्वत भगवान का मनोहारी मंदिर बनवाया, भक्तगण जिसका दर्शन कर भक्ति

सरोवर में डुबकियां लगाते हैं।

आरा में भगवान बाहुबली स्वामी एवं मानस्तम्भ माँ-श्री को सांस्कृतिक सुरुचि का परिचायक है। जैन बाला विश्राम में विद्यालय पक्ष के

ऊपर निर्मित जिनालय और उसकी परिक्रमा अदभुत रमणीय है। मंदिरों के अतिरिक्त माँ-श्री ने अनेक जैन मूर्ति का निर्माण एवं उनकी

पंचकल्याणक प्रतिष्ठायें भी करवाई हैं। हस्तशिल्प में प्रवीण, पूजा प्रतिष्ठा के अवसरों पर बनाये जाने वाले मॉडलों, नक्शों को बड़े ही

कलापूर्ण ढंग से बनाती थी। भगवान के पूजा स्त्रोतों को मधुर अमृतवाणी में सुनकर श्रोता स्तब्ध रह जाते थे। इस प्रकार माँ-श्री ने अपनी

विभिन्‍न प्रकार के सेवाओं द्वारा बिहार के नवनिर्माण और नवोत्थान में सहयोग दिया। आप वर्ष में दो बार विभिन्‍न स्थानों में जाकर

अपने उपदेश द्वारा भी महिला जागरण का कार्य करती थी, ऐसा महान व्यक्तित्व बिरले ही पृथ्वी पर जन्म लेते है।

-(स्व.) डॉ. नेमीचंद शास्त्री, ज्योतिषाचार्य, आरा

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