Category: दिसंबर-२०२०

भगवान महावीर कैवल्यज्ञान दिगम्बर जैन मलयागिरि तीर्थ क्षेत्र (Lord Mahaveer Kaivalyagyan Digambar Jain Malayagiri Pilgrimage Area in hindi)

भगवान महावीर कैवल्यज्ञान दिगम्बर जैन मलयागिरि तीर्थ क्षेत्र (Lord Mahaveer Kaivalyagyan Digambar Jain Malayagiri Pilgrimage Area in hindi) जमुई (बिहार): जैन इतिहासकारों एवं विद्वानों द्वारा यह प्रमाणित किया गया है जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर के पंच कल्याणकों एवं जीवन के सन्दर्भ में जैन शास्त्रों में वर्णित तथ्यों के आधार पर माना जा रहा है कि भगवान महावीर का कैवल्यज्ञान कल्याणक ऋजुकुला (क्यूल) नदी के तट पर शालवृक्ष के नीचे जृम्भक ग्राम बिहार प्रांत में हुआ था, जिसे वर्तमान में जमुई नाम से जाना जाता है। बारह वर्ष पाँच महीने १५ दिन की घोर तपस्या के बाद वैशाख शुक्ल दशमी को कैवल्यज्ञान की प्राप्ति हुई थी, उनके समवशरण में श्री इन्द्रभूति आदि ११ गणधर, १४ हजार मुनि, गणिनी आर्यिका चंदना सहित छत्तीस हजार आर्यिकाएँ, १ लाख श्रावक व ३ लाख श्राविकाएँ थी, इनके प्रथम शिष्य गौतम गणधर स्वामी हुए। अतः उपरोक्त तथ्यों, आधुनिक विद्वानों एवं परम पूज्य आर्यिका ज्ञानमति माता जी के प्रेरणा से बिहार राज्य श्री दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र कमिटी, देवाश्रम, आरा ने बिहार राज्य के जमुई जिला अंतर्गत मलयपुर पतनेश्वर पहाड़ी के निकट ऋजुकुला नदी के तट पर एक एकड़ सवा नौ डिसमील जमीन की खरीदगी कर क्षेत्र का निर्माण कराया गया, जिसमें पाँच कमरे, एक हॉल का निर्माण हुआ है। परम पूज्य ज्ञानमती माता जी के आशीर्वाद से तथा दिल्ली निवासी श्री अनील कुमार जी जैन कमल मन्दिर के सहयोग से क्षेत्र में स्थित पहाड़ी पर भगवान महावीर की कमल सहित १५ फुट ऊँची प्रतिमा स्थापित कर पूज्य रविन्द्रकीर्ति स्वामी जी के सानिध्य में पंचकल्याणक सम्पन्न हुआ। भगवान महावीर की इस पावन भूमि को ‘केवल्य धाम’ नाम से जाना जाता है। पावन ज्ञान भूमि पर क्षेत्र के सर्वांगीण विकास में आप सबों का सहयोग अनिवार्य है। भगवान महावीर केवल्य ज्ञान भूमि के निर्माण कार्यों में तन- मन- धन से सहयोग करें ताकि क्षेत्र का विकास यथावत किया जा सके। यात्रियों के मूलभूत सुविधायें तथा पानी की बोरिंग, प्रसाधन कक्ष कमरे, पहाड़ी पर सीढी का निर्माण तथा मन्दिर प्रांगण में मार्बल पत्थर का कार्य वर्ष २०१८ को पूर्ण हुआ। चम्पापुरी, पावापुरी जी के मुख्य मार्ग पर स्थित होने के कारण इस क्षेत्र पर यात्रियों का आवागमन होता रहता है। प्रबंधक-राकेश जैन-९५२५४७८८६५ उपप्रबंधक-अभिषेक जैन-९५४६५४३८४१

‘जीतो’ कोयम्बतूर की नई समिति का गठन (Formation of new committee of ‘Jeeto’ Coimbatore in hindi)

‘जीतो’ कोयम्बतूर की नई समिति का गठन कोयम्बतुर: भारत में समाज कल्याण की अग्रणीय संस्था जैन इन्टरनेशनल ट्रेड ऑर्गनिजेशन ‘जीतो’ कोयम्बतुर की नई समिति घोषित की गई। निवनिर्वाचित चेयरमेन रमेश बाफना ने पदाधिकारियों की घोषणा करते हुए आगामी वर्ष में होने वाले कार्यक्रमों की रूप रेखा प्रस्तुत की। श्री बाफना ने जीतो कोयम्बतूर को नई उँचाइयों पर ले जाने हेतु सभी से सहयोग का आव्हान किया। नई समिति के पदाधिकारी बने चेयरमेन-श्री रमेश बाफना, कोचेयरमैन-श्री राकेश मेहता, महामंत्री श्री सम्पत पारेख, मंत्री-श्री भेरू जैन, श्री अलकेश सेठ, कोषाध्यक्ष-श्री जम्बु कुमार, सहकोषाध्यक्ष-श्री प्रदीप कवाड़। ‘जीतो’ कोयम्बतूर महामंत्री श्री सम्पत पारेख ने ‘जिनागम’ को बताया कि श्री सुनील नाहटा तमिलनाडू जोन से केन्द्रीय सभा में प्रतिनिधित्व करेंगे। श्री इन्दरचन्द कोठारी तमिलनाडू एवं आन्ध्र प्रदेश जोन में कोयम्बतूर ‘जीतो’ का प्रतिनिधित्व करेंगे, इसके अलावा १७ विभिन्न क्षेत्रों में कार्य हेतु संयोजक एव सहसंयोजक मनोनित किए गए। ‘जीतो’ कोयम्बतूर आने वाले दिनों में विभिन्न कार्यक्रमों को मूर्त रूप देने जा रहा है। उक्त जानकारी जीतो कोयम्बतुर मीडिया प्रभारी श्री ललित जालोरी एवं राजेश बोहरा ने ‘जिनागम’ को दी है।

श्री विद्यासागर पाठशाला द्वारा संचालित महामंत्र णमोकार

श्री विद्यासागर पाठशाला द्वारा संचालित महामंत्र णमोकार तीर्थंकर केवली के भेद तथा तीर्थंकर प्रकृति की बंध व्यवस्था किस प्रकार की है, इसका वर्णन किया जा रहा है। अरिहंतों अर्थात् केवली के कितने भेद होते हैं? अरिहंतों अर्थात् केवली के दश भेद होते हैं। (१) तीर्थंकर केवली के तीन भेद होते हैं। (१) पांच कल्याणक वाले तीर्थंकर केवली । जिन जीवों के पूर्वभव में ही तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो गया है, उन जीवों के नियम से गर्भ कल्याणक, जन्म कल्याणक, तप कल्याणक, ज्ञान कल्याणक और निर्वाण (मोक्ष) कल्याणक यह पांचों कल्याणक होते हैं। गर्भ कल्याणक, जन्म कल्याणक, तप कल्याणक, केवलज्ञान कल्याणक और मोक्ष कल्याणक इन पांच कल्याणक वाले तीर्थंकर वे ही जीव बनते हैं, जिन्होंने तीर्थंकर बनने के पूर्व तीसरे भव में ही तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया हो अर्थात् जिस मनुष्य भव में तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया है, वहां पर यदि अवद्धायुष्यक (जिन्होंने पूर्व भव की किसी भी आयु को नहीं बांधा है) है, तो ऐसा जीव नियम से देव आयु का ही बंध करता है अथवा देवायुवद्धायुष्क (जिन्होंने देव आयु का बंध कर लिया है, ऐसे जीव देव पर्याय में जाते हैं। अथवा जो नरकायुबद्धायुष्क (जिन्होंने नरक आयु का बंध कर लिया है , ऐसे जीव नरक पर्याय में जाते हैं, उनकी अपेक्षा देव पर्याय या नरक पर्याय यह दूसरा भव हुआ। देव पर्याय या नरक पर्याय से आकर पुनः मनुष्य पर्याय को प्राप्त करते हैं और मुनि दीक्षा को धारण कर चार घातिया कर्मों का क्षय कर केवल ज्ञान को प्राप्त कर तीर्थंकर प्रकृति के उदय से १३ वें गुणस्थान में नियम से ८ वर्ष अंतर मुहूर्त काल तक समवशरण में भव्य जीवों को उपदेश देकर फिर मोक्ष को प्राप्त होते हैं, उनकी अपेक्षा यह मनुष्य भव तीसरा भव हुआ। (१) तीर्थंकर प्रकृति के बंध की अपेक्षा वर्तमान मनुष्य भव पहला भव हुआ। (२) तीर्थंकर प्रकृति के सत्त्व की अपेक्षा देव पर्याय या नरक पर्याय यह दूसरा भव हुआ । (३) तथा तीर्थंकर प्रकृति के सत्त्व और उदय की अपेक्षा वर्तमान में प्राप्त मनुष्य पर्याय यह तीसरा भव हुआ। (२) तीन कल्याणक वाले तीर्थंकर केवली, जिन जीवों के वर्तमान मनुष्य पर्याय के भव में ही गृहस्थ अवस्था में दीक्षा लेने के पहले ही तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो जाता है, उन जीवों के तप कल्याणक, ज्ञान कल्याणक और निर्वाण कल्याणक में तीन कल्याणक होते हैं। जिन जीवों ने चरम अर्थात् अंतिम शरीर को धारण किया है, ऐसे जीवों ने असंयत अर्थात् चतुर्थ गुणस्थान और देव संयत अर्थात् पंचम गुणस्थान में तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया है, तब उनके तप, ज्ञान और मोक्ष यह तीन कल्याणक होते हैं। ३) दो कल्याणक वाले तीर्थंकर केवली, जिन जीवों के वर्तमान मनुष्य पर्याय के भव में ही मुनि दीक्षा लेकर फिर तीर्थंकर प्रकृति का बंध हुआ है, उन जीवों के ज्ञान कल्याणक और निर्वाण कल्याणक यह दो कल्याणक होते हैं। जिन जीवों ने चरम अर्थात् अंतिम शरीर को धारण किया है। साथ ही मुनि दीक्षा को प्राप्त कर भावलिंग के साथ मुनि व्रतों का पालन कर रहे हैं, ऐसे जीव प्रमत्त अर्थात् छठवें गुणस्थान और अप्रमत्त अर्थात् सातवें गुणस्थान में तीर्थंकर प्रकृति का बंध करते हैं, तब उनके ज्ञान कल्याणक और मोक्ष कल्याणक यह दो कल्याणक होते हैं। -बाल ब्रह्मचारी अशोक भैया भ्रमणध्वनि: ९४२४५९५४४५,९१०९३६७३१८

महिला शिक्षा की जननी महिलारत्न पं. चंदाबाई जी (Mahilaratna Pt. Chandabai, the mother of women’s education in hindi )

महिला शिक्षा की जननी महिलारत्न पं. चंदाबाई जी (Mahilaratna Pt. Chandabai, the mother of women’s education in hindi ) महिला शिक्षा की जननी महिलारत्न पं. चंदाबाई जी (Mahilaratna Pt. Chandabai, the mother of women’s education in hindi ): माँ-श्री महिलारत्न पं.चंदाबाई जी का जन्म वि. सं.१९४६ की आषाढ-शुक्ल तृतीया की शुभ बेला में वृंदावन में हुआ था। बारह वर्ष की आयु में आपका शुभ विवाह संस्कार आरा नगर के प्रसिद्ध जमींदार जैन धर्मानुयायी पं. प्रभुदास जी के पौत्र श्री चंद्रकुमार जी के पुत्र श्री धर्मकुमार के साथ सम्पन्न हुआ था। बाबू धर्मकुमार जी की मृत्यु विवाह के कुछ समय बाद ही हो गई। मात्र तेरह वर्ष की अवस्था में ही वैधव्य की वैधवीकला ही आपकी चिरसंगिनी बनी। आपके जेठ देव प्रतिमा स्वनामधन्य बाबू देवकुमार जी ने अपनी अनुज वधू को विदुषी, समाज-सेविका और साहित्यकार बनाने में कोई कमी नहीं रखी। आपने घोर परिश्रम कर संस्कृत, व्याकरण, न्याय, साहित्य, जैनागम एवं प्राकृत भाषा में अगाध पांडित्य प्राप्त किया और राजकीय संस्कृत विद्यालय काशी की पंडित परीक्षा उत्तीर्ण की, जो वर्तमान में शास्त्री परीक्षा के समकक्ष है। महिला शिक्षा की जननी महिलारत्न पं. चंदाबाई जी ने सन्‌ा् १९०९ में भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महिला परिषद की स्थापना कर नारी जागरण का मंत्र फूँका। इस संस्था के प्लेटफार्म से आपने नारी जागरण के अनेक कार्य किये। मातुश्री केवल वचनों द्वारा ही नारी जागरण नहीं करती, बल्कि अपना क्रियात्मक योगदान भी देती थी। आपके प्रयास से बिहार के बाहर भी नारी शिक्षा एवं नारी जागरण का काम किया गया। नारी के सर्वांगीण विकास के लिए सन् १९०९ में आपने श्री देवकुमार जी द्वारा आरा नगर में एक कन्या पाठशाला की स्थापना कराई और स्वयं उसकी संचालिका बन नारी शिक्षा का बीज बोया। मातुश्री इस शाला में शाम के समय मोहल्ले की नारियों को एकत्र कर स्वयं शिक्षा देती एवं उन्हें कर्तव्य का ज्ञान कराती थी। इस छोटी सी पाठशाला से आपको संतोष नहीं हुआ। आपने सन्‌ा् १९२१ में नारी शिक्षा के प्रसार के निमित्त श्री जैन बाला विश्राम नाम की शिक्षा संस्था स्थापित की। इस संस्था में लौकिक एवं नैतिक शिक्षा का पूरा प्रबंध किया गया। विद्यालय के साथ छात्रावास की भी व्यवस्था की गई थी। इस संस्था का वातावरण बहुत ही विशुद्ध और पवित्र है। यहाँ पहुँचते ही धवलसेना हंसवाहिनी और वीणावादिनी सरस्वती आगंतुकों का स्वागत करती है। छात्रावास और विद्यालय भवनों की विशेषता ईंट चूने से बनी इमारत में नहीं बल्कि साध्वी माँ-श्री के व्यक्तित्व के आलोक से आलोकित होने वाली अगणित बालाओं के उत्थान में है। माँ-श्री ने इस संस्था में अपना तन-मन-धन सब कुछ दिया। आपकी तपस्या छात्राओं को स्वत: आदर्श बनने की प्रेरणा देती थी। माँ-श्री की सेवा, त्याग और लगन का मूल्य नहीं आंका जा सकता। इस संस्था में भारत के कोने-कोने से आकर बालायें शिक्षा प्राप्त करती थी। इसी जैन बाला विश्राम में पढ़कर बहुत बालिकाएं अनेक उच्च स्थानों पर गई। इसी विद्यालय से पढ़ कर अनेक विदुषी छात्राएँ जैन धर्म में स्त्रियों के सर्वोच्च पद आर्यिका बनी। आ. विजयमती माता जी इसकी उधारण हैं। भारत गणराज्य के प्रथम राष्ट्रपति देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, श्री जयप्रकाश नारायण, श्री संत विनोबा भावे एवं श्री काका कालेलकर आदि मनीषियों ने भी इस संस्था की महत्ता को स्वीकार किया है। भारत के तत्कालीन उप राष्ट्रपति सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन ने उन्हे दिल्ली बुलाकर विशेष सम्मान के साथ अभिनंदन ग्रंथ भी दिया। साहित्यिक पुरुषत्ववाद की अंतिम विजयश्री पर माँ- श्री ने महिला साहित्य को अपने व्यक्तित्व का आत्मा निर्माण कर संजोया धा। आपकी करीब १५ रचनायें प्रकाशित भी हुई हैं। सन् १९१२ से ‘जैन महिलादर्श’ नामक हिन्दी मासिक पत्र की संपादन भी करती रही। माँ-श्री श्रमण संस्कृति के प्रसार में अहर्निश संलग्न रहती थी, इसके लिए बिहार के राजगृह, पावापुरी, आरा आदि स्थानों में विपुल धनराशि व्यय कर सुंदर जैन मंदिरों का निर्माण कराया। वृन्दावन में भी एक जिनालय आपके द्वारा निर्मित है। राजगृह के विपुलांचल पर्वत पर तीर्थंंकर भगवान महावीर का प्रथम समवशरण आया, तथा बीसवें तीर्थंकर मुनिसुब्रतनाथ की यह जन्मभूमि भी है। माँ-श्री ने विपुलांचल पर्वत पर महावीर स्वामी का एवं रत्नगिरि पर्वत भगवान का मनोहारी मंदिर बनवाया, भक्तगण जिसका दर्शन कर भक्ति सरोवर में डुबकियां लगाते हैं। आरा में भगवान बाहुबली स्वामी एवं मानस्तम्भ माँ-श्री को सांस्कृतिक सुरुचि का परिचायक है। जैन बाला विश्राम में विद्यालय पक्ष के ऊपर निर्मित जिनालय और उसकी परिक्रमा अदभुत रमणीय है। मंदिरों के अतिरिक्त माँ-श्री ने अनेक जैन मूर्ति का निर्माण एवं उनकी पंचकल्याणक प्रतिष्ठायें भी करवाई हैं। हस्तशिल्प में प्रवीण, पूजा प्रतिष्ठा के अवसरों पर बनाये जाने वाले मॉडलों, नक्शों को बड़े ही कलापूर्ण ढंग से बनाती थी। भगवान के पूजा स्त्रोतों को मधुर अमृतवाणी में सुनकर श्रोता स्तब्ध रह जाते थे। इस प्रकार माँ-श्री ने अपनी विभिन्‍न प्रकार के सेवाओं द्वारा बिहार के नवनिर्माण और नवोत्थान में सहयोग दिया। आप वर्ष में दो बार विभिन्‍न स्थानों में जाकर अपने उपदेश द्वारा भी महिला जागरण का कार्य करती थी, ऐसा महान व्यक्तित्व बिरले ही पृथ्वी पर जन्म लेते है। -(स्व.) डॉ. नेमीचंद शास्त्री, ज्योतिषाचार्य, आरा

देवभूमि बिहार का देव परिवार ( Dev Family of Devbhoomi Bihar in hindi )

देवभूमि बिहार का देव परिवार ( Dev Family of Devbhoomi Bihar in hindi ) देवभूमि बिहार का देव परिवार बिहार के जैन तीर्थक्षेत्रों, जैन संस्थानों एवं जैन गतिविधियों की चर्चा हो एवं आरा के प्रसिद्ध जैन धर्मावलंबी देव परिवार के योगदान का स्मरण न हो, ऐसा संभव ही नहीं। जैन जागृति के अग्रदूतों में इस परिवार की सात पीढ़ियों के यशस्वी/गुणीजनों का समावेश अपने आप में एक उपलब्धि है, जिसे इतिहास से विस्मृत नहीं किया जा सकता। आरा (बिहार) के सुप्रसिद्ध देव परिवार के पूर्व पुरुष अग्रवाल कुलोत्पन गोयल गोत्रीय काष्ठासंघ के पं. प्रवर प्रभुदास जी आज से करीब २०० वर्ष पूर्व अपने परिवार के साथ बनारस में धर्मध्यान किया करते थे। वे संस्कृत व प्राकृत के प्रकांड विद्वान थे, तथा मंत्र शास्त्र के भी अच्छे ज्ञाता थे। जैन दर्शन पर भी इनका प्रभुत्व इनके समकालीन पं. दौलतराम जी एवं पं. भागचन्द जी के टक्कर का था। कविवर वृंदावन जी इनके मित्र थे और उनसे पारिवारिक संबंध था। किंवदंती यह है कि तत्कालीन भट्टारक श्री जिनेन्द्र भूषण जी ने इन्हें प्रेरणा दी कि आप पाँच जिनालय बनाने का नियम लें। पं. प्रभुदास जी की आर्थिक स्थिति मध्यम थी। उन्होंने दुखी होकर आर्थिक विवशता प्रगट की, पर भट्टारक जी के बार-बार आग्रह करने पर नियम ले लिया। काललब्धि से देखते-देखते उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार होता गया और उन्होंने भगवान चंद्रप्रभु, भगवान सुपार्श्वनाथ और भगवान पदमप्रभु की गर्भ जन्‍म कल्याणक भूमि क्रमश: चंद्रपुरी जी, भदैनी जी, कौशांबी जी तथा आरा आदि स्थानों पर मंदिर, धर्मशाला का निर्माण कराकर अपना नियम पूरा किया। कालान्तर में उनके धन में वृद्धि होती गई और बिहार में उन्होंने बहुत बड़ी जमींदारी खरीदी तथा आरा आ गये। यहाँ वे १८५७ के सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी बाबू कुँवर सिंह के निकट संपर्क में आये और उन्हें आर्थिक सहयोग प्रदान किया। बाबू कुँवर सिंह द्वारा आरा में पं. प्रभुदास जी को प्रेम पूर्वक भेंट दी गई भूमि पर ‘आरा’ का प्रसिद्ध अतिशयकारी चंद्रप्रभु का मंदिर स्थापित हुआ। धार्मिक, सामाजिक कार्यों में बाबू प्रभुदास जी की अभिरुचि और लगन को लक्ष्य कर उन्हें आरा जैन समाज और सम्मेदशिखर दिगम्बर जैन बीस पंथी कोठी का प्रथम अध्यक्ष चुना गया, जिसका उन्होंने सफलतापूर्वक आजीवन निर्वाह किया। उननीसवीं सदी के उत्तरार्ध तक निग्रंथ मुनियों का सर्वथा अभाव, जिनवाणी के प्रति अज्ञानता एवं दुर्दशा से जैन समाज के प्रबुद्ध लोगों का चिंतित होना स्वाभाविक था। फलस्वरूप उन्नीसवीं सदी के अंत एवं बीसवीं सदी के प्रारम्भ में कई महत्वपूर्ण संस्थाओं की नींव पड़ी। उत्तर भारत में वीर शासन को पुर्नस्थापित करने में आरा के देव परिवार ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। राजर्षि देव कुमार ने मात्र बीस वर्ष की अल्पायु में आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत लेते हुए बैलगाड़ी से दक्षिण भारत तक के सुदूर प्रदेशों की यात्रा की। जगह-जगह जैन शास्त्रों को लिपिबद्ध किया/संभाला और जहाँ कोई व्यवस्था न बन सकी, उन शास्त्रों को आदर पूर्वक ‘आरा’ लाकर सुप्रसिद्ध श्री जैन सिद्धांत भवन की स्थापना की। भवन की व्यवस्था के लिए उन्होंने अपनी जमींदारी का सबसे कीमती गाँव संस्था के नाम कर दिया। राजर्षि देव कुमार जी ने पू. शुल्लक गणेश प्रसाद जी वर्णी के मात्र एक पोस्ट कार्ड के निवेदन पर जिनवाणी के प्रचार-प्रसार के लिए बनारस के गंगातट पर स्थित अपना विशाल भवन, घाट, जमीन सब श्री स्याद्वाद महाविद्यालय प्रारम्भ करने के लिए अर्पित कर दिया ताकि जैन विद्वान तैयार हो सके और जिनवाणी का प्रचार-प्रसार हो। वे आजीवन इस संस्था के मंत्री भी रहे और हर प्रकार से उसकी आर्थिक अड़चनों को दूर किया। महान चिंतक मैक्सम्युलर द्वारा लिखित जैन धर्म संबंधी लेखों एवं पुस्तकों से उन्हें जैन ग्रन्थों को अंग्रेजी में अनुवाद करा कर विश्वव्यापी बनाने की प्रेरणा मिली, उनके द्वारा आरा में स्थापित सेन्ट्रल जैन पब्लिशिंग हाउस द्वारा तत्त्वार्थ सूत्र, कर्मकांड, गणित शास्त्र आदि अनेक महत्वपूर्ण जैन ग्रंथों का अंग्रेजी में अनुवाद कराकर प्रकाशित किया गया जो आज भी जैन समाज की अनमोल धरोहर है। दि. जैन महासभा के संस्थापक सदस्यों में बाबु देव कुमार जी ने कई वर्षो तक जैन गजट का संपादन भी किया। शिक्षा के क्षेत्र में सुदूर मंगलोर में उन्होंने छात्रों की सुविधा के लिए, जैन होस्टल की स्थापना की तथा १९०५ में जैन महिलाओं में जागृति लाने के उद्देश्य से बिहार प्रांत का प्रथम महिला विद्यालय श्री जैन कन्या पाठशाला की नींव रखी। देवभूमि बिहार का देव परिवार ( Dev Family of Devbhoomi Bihar in hindi ) बिहार के तीर्थक्षेत्रों के विकास करने एवं समाज का वर्चस्व स्थापित करने के लिए उन्होंने अनेकों कदम उठाये, मुख्यतः भगवान वासुपूज्य की ज्ञान, तप व निर्वाण स्थली मंदारगिरि पर स्थित मंदिर आदि की सम्पत्ति तत्कालीन राजा से खरीद कर समाज को अर्पित किया। जैन विधवाओं की दुर्दशा देखकर उनके उत्थान के लिए बे हमेशा चिंतित रहा करते थे। जब उनके छोटे भाई धर्मकुमार की पत्नी चंदाबाई मात्र १३ वर्ष की आयु में विधवा हो गई तो उन्होंने एक क्रांतिकारी कदम उठाते हुए उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए उन्हें काशी भेजा। वहाँ से जब चंदाबाई ने संस्कृत प्राकृत और जैनागम में पारंगत होकर पंडित की उपाधि प्राप्त की, तो उन्होंने नारी जागरण और उत्थान के लिए महिला आश्रम ख्ाोलने के लिए उन्हें प्रेरित किया। दुर्भाग्यवश इसे कार्यान्वित करने के पूर्व १९०८ में देहान्त हो गया। राजर्षि देव कुमार के मृत्यु के पश्चात उनके सुयोग्य पुत्र निर्मल कुमार जी ने अपने पिता की इच्छा पूरी की और आरा स्थित अपने विशाल बाग एवं भवन का दान पत्र लिखकर श्री जैन बाला विश्रामशाला की स्थापना की। ब्र. चंदाबाई जी भी इसके लिए तैयार बैठी थी, उन्होंने अपना समूचा ज्ञान, समूचा जीवन इस महान धार्मिक अनुष्ठान के लिए समर्पित कर दिया। देश के कोने-कोने से आकर हजारों की संख्या में विधवाओं और महिलाओं ने यहाँ उनसे शिक्षा ग्रहण की, संस्था की कीर्ति दूर-दूर तक फैली। परम पूज्य आर्थिका विजयमती माताजी, पू. विमलप्रभा माताजी आदि कई महान विभूतियाँ यहाँ अध्ययन कर चुकी हैं और उन्होंने हमेशा अपने जीवन के सार्थक परिवर्तन के लिए ब्र. चंदाबाई जी एवं श्री जैन बाला विश्राम का उपकार माना है। ब्रह्मचारिणी चंदाबाई जी ने नारी जागरण के लिए अनेक शिक्षाप्रद पुस्तकें लिखी। श्री जैन महिला परिषद की संस्थापक अध्यक्षा के रूप में जीवन भर उसकी गतिविधियों का संचालन किया। उनके द्वारा संपादित एवं प्रकाशित ‘जैन महिलादर्श’ अपने आप में महिला जागृति के क्षेत्र में अलग पहचान रखता है। शिक्षा जगत विशेषकर विधवाओं और अशक्त महिलाओं के क्षेत्र में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका को सराहते हुए भारत के तत्कालीन उपराष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन द्वारा ब्र. चंदाबाई जी को दिल्‍ली में आयोजित विशाल समारोह में अभिनंदन ग्रन्थ भेंट कर सम्मानित किया गया। अपने पिता राजर्षि देव कुमार जी के कदमों का अनुसरण करते हुए निर्मल कुमार जी ने श्रवणबेलगोला, राजगृही, पावापुरी, सम्मेदशिखर, आरा, गिरनार, पालीताना आदि अनेक स्थानों में मंदिर, धर्मशाला का निर्माण कराया एवं लाखों की संपत्ति दान में दी। श्री निर्मल कुमार जी के सुपुत्र श्री सुबोध कुमार जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उनमें लेखक, चित्रकार, कवि, संगीतकार, राजनीतिज्ञ, समाजसेवी आदि सभी गुणों का समावेश था। वे बहुत ही व्यवहारिक, अत्यन्त धार्मिक और सहृदय व्यक्ति थे और अपने पूर्वजों की परंपरा का निर्वाह करते हुए अपना समूचा जीवन धर्म और समाज की सेवा में लगा दिया। श्री सुबोध कुमार जी द्वारा आरा (बिहार) में श्री आदिनाथ नेत्र विहीन विद्यालय, आरा मूकबधिर विद्यालय, श्री जैन बाला विश्राम उच्च विद्यालय, श्री जैन कन्या पाठशाला उच्च विद्यालय, संगीत विद्यालय, श्री जैन महिला विद्यापीठ, श्री निर्मल कुमार चक्रेश्वर कुमार जैन कला दीर्घा, भगवान महावीर विकलांग सेवा समिति आदि अनेक धर्मानुकुल कल्याणकारी संस्थाओं की स्थापना की गई। राजगिरि के विपुलाचल पर्वत पर प्रथम देशना स्मारक के निर्माण की नींव ब्र. चंदाबाई जी द्वारा रखी गई थी। श्री सुबोध कुमार जी द्वारा १९८२ में वहाँ पर प्रथम देशना स्मारक बहुत ही भव्य रूप से करोड़ों की लागत से बनवाया गया, इसके पंच कल्याणक में साहू अशोक कुमार जी सपत्नीक सौधर्म इंद्र-इंद्राणी के रूप में सम्मिलित हुए थे। श्री सुबोध कुमार जी द्वारा बनाये गये सैकड़ों धार्मिक चित्र आरा, राजगिरि, कुंडलपुर आदि की दीर्घाओं में सुशोभित हैं। उन्होंने जैन धार्मिक विषयों पर अनेकों पुस्तकें लिखी व प्रकाशित कराई तथा संस्कृत की कई पूजाओं का हिन्दी में रूपांतर लयबद्ध करके किया। आप वात्सल्य रत्नाकर परम पूज्य विमल सागर महाराज जी के परम भक्त थे तथा उनके प्रेरणा से राजगिरि में महावीरकीर्ति सरस्वती भवन तथा बीसपंथी कोठी के अध्यक्ष के रूप में श्री सम्मेदशिखर जी में तीस चौबीस मंदिर तथा विमल ग्रंथागार, समवशरण मंदिर आदि अनेक धार्मिक कार्य सम्पन्न कराये। श्री सुबोध कुमार जी ने अपनी मृत्यु के पूर्व अनेक संस्थाओं, तीर्थक्षेत्रों आदि की देखभाल की जिम्मेदारी अपने सुपुत्र श्री अजय कुमार जी को सुपुर्द कर दी थी। पारिवारिक परंपरा का पालन करते हुए पिता की आज्ञानुसार मात्र ३० वर्ष की अल्पायु से सभी संस्थाओं का कार्य आप बहुत ही योग्यता पूर्वक एवं कुशलतापूर्वक सँभाल रहे हैं। श्री अजय कुमार जी स्वयं बहुत ही विचारशील, धार्मिक प्रवृत्ति के, सहदय, सुलझे हुए एवं व्यवहारिक व्यक्ति हैं। श्री सम्मेद शिखर बीसपंथी कोठी के अध्यक्ष तथा बिहार प्रांतीय तीर्थक्षेत्र कमेटी के मानद्‌ मंत्री के रूप में बिहार- झारखण्ड में स्थित सभी तीर्थक्षेत्रों की जिम्मेदारी आपने सफलता पूर्वक निभाई है। आपके द्वारा सभी क्षेत्रों पर अनेकों विकास के कार्य किए गए, इन्हीं गुणों के कारण बिहार सरकार द्वारा आपको बिहार धार्मिक न्यास बोर्ड का अध्यक्ष भी मनोनीत किया। अनेकों शिक्षण संस्थाओं एवं धार्मिक ट्रस्टों से जुड़े होने के बावजूद भी धार्मिक कार्यों के लिये श्री अजय कुमार जी के पास समय की कमी नहीं है। वे स्वयं वर्तमान धार्मिक एवं सामाजिक परिस्थितियों के प्रति जागरूक हैं, तथा मिल- जुलकर समस्याओं का तत्काल हल निकालने में विश्वास रखते। अपने देव परिवार और पूर्वजों द्वारा किये गये धार्मिक कार्यों पर उन्‍हें गौरव है। देवभूमि बिहार का देव परिवार ( Dev Family of Devbhoomi Bihar in hindi ) श्री अजय कुमार जी का कहना है कि पूर्व संचित कर्मों के उदय के कारण, उन्हें जो मानव जीवन तथा गौरवशाली देव परिवार में जन्म लेने का सुअवसर मिला है, उसे जिनवाणी की सेवा तथा वीरशासन को सुदृढ़ करने में ही लगाकर बे अपने जीवन की सार्थकता तथा असीम सुख शांति का अनुभव करते हैं। अजय कुमार जैन के दोनों सुपुत्र ज्येष्ठ प्रशांत जैन आरा के दर्जनो विभिन्न संस्थाओं को संभालते हुए उत्तर प्रांतीय दि. जैन तीर्थ क्षेत्र कमीटी के महामंत्री भी है जिसके अंतर्गत चन्द्रावली, कौशाम्बी तथा भदैनी की व्यवस्था की जाती है। द्वितीय पुत्र पराग जैन बिहार के १३ तीर्थ क्षेत्रों की व्यवस्था बखुबी संभाल रहे हैं और क्षेत्रो के विकास में सेवा भाव से जुड़े हुए है। वे बिहार स्टेट दि. जैन तीर्थ क्षेत्र कमिटी के मानदमंत्री है। २४ तीर्थंकर भगवानो के १२० कल्याणक क्षेत्रों में विलुप्त ८ कल्याणक क्षेत्र मिथिलापुरी की स्थापना के लिए नेपाल के पास सितामढी बॉर्डर पर जमीन खरीद कर तीर्थ स्थापित करा रहे है। इस तरह आरा बिहार का यह देव परिवार पूरे जैन समाज के लिए प्रेरणास्त्रोत है। – डॉ. बीरेन्द्र कुमार सिंह, एम.ए., पी.एच.डी. श्री महावीर कीर्ति दिग.जैन सरस्वती भवन, राजगृही