भगवान् महावीर एवम् दीपावली

Mahavir God

मानव ने अपने अन्तर जागरण की प्रभात बेला में जब आँखें खोलीं तो अपने चतुर्दिक् व्याप्त संसति की संरचना को देखकर विस्मय-विमुग्ध हो गया। अपनी कर्मस्थली, अपना लोक ही उसकी समझ से परे हो, यह उसके लिए
कम परिताप की बात न थी, उसने सोचा, आखिर यह सब क्या है? हमारे सामने सारी वसुन्धरा सजी-संवरी खड़ी है और हम हैं कि जो अंधेरे में भटक रहे हैं, कुछ भी समझने-बूझने के लिए, प्रकाश की कहीं से एक भी क्षीणरेखा ऩजर नहीं आ रही है, तब सभी ने – ‘‘तमसो मा ज्योतिर्गमय, असतो मा सद्गमय’’ की गुहार शुरु कर दी। कहना गलत न होगा, मानव सृष्टि के संस्कार का कार्य यहीं से आरम्भ हुआ। मानव-संस्कृति यहीं से उद्भुत हुई, तब से जब भी कभी अन्धकार की काली घटाओं ने मानवलोक को घेरा, कहीं न कहीं से कोई न कोई किरण रेखा कौंध उठी और दिव्यज्योति के प्रस्पुâटन की वह कौंध तद्युगीन अन्धकार को छिन्न-भिन्न करती चली गई।

मानव सभ्यता के आदिकाल में आदिनाथ ऋषभदेव हुए, तदन्तर मर्यादा पुरुषोत्तम राम और पाश्र्व भी इसी परम्परा की महत्त्वपूर्ण कड़ी है। महापुरुषों की इसी तेजस् परम्परा में श्रमण संस्कृति के महान् उद्गाता भगवान् महावीर आए, उन्होंने विश्व को ऐसी दिव्य ज्योति प्रदान की, जिससे मानव समाज चमत्कृत हो उठा। जब भगवान् महावीर धराधाम पर अवतरित हुए, उस समय भारतवर्ष अन्धकार के गहन गर्त में डूबा हुआ था। भारत के धर्म और भारत की संस्कृति पर अज्ञानरुपी अंधकार का ऐसा सघन आवरण छाया था कि कुछ लोग भ्रमवश, उस अन्धकार को ही प्रकाश मान बैठे थे। कुछ लोग ऐसे भी थे, जो प्रकाश की खोज में इधर-उधर भटक रहे थे, किन्तु सही मार्ग प्राप्त करने में विफल हो रहे थे, जातीयता एवम् साम्प्रदायिकता आदि के क्षुद्र विभेद, मानव मन को कलुषित कर रहे थे।

धर्म के नाम पर होने वाले याज्ञिक पशुबलि आदि के बाह्य क्रिया-काण्डों ने एक तरह से मानव को सत्य से पथभ्रष्ट कर दिया था। सत्य और न्याय का कहीं भी नामोनिशान नहीं था। बलवान निर्बलों को प्रताड़ित कर रहे थे, उनके श्रम पर स्वयं आनंद ले रहे थे। नारियों की हीन दशा भी मानव समाज के लिए कम ग्लानि की बात न थी। धर्म एवम् धर्मशास्त्रों के नाम पर नाना प्रकार के कुत्सित कर्म, बिना किसी रोक-टोक के हो रहे थे। सांस्कृतिक विनाश की उक्त काली रात्रि के गहन अंधकार के बीच, ज्योति पुरुष भगवान् महावीर ने नवचेतना का उन्मेष किया। धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक आदि प्राय: सभी क्षेत्रों में एक स्वस्थ क्रान्ति का उद्घोष कर, समाज को एक नई ज्योति प्रदान की, एक नई दिशा दी, जीवन जीने के लिए आत्माओं को, अपनी आत्मा के समान देखने का मंगलमय उपदेश प्रदान कर,मानव को ‘देवाणुप्पिय’ संबोधन से सम्बोधित किया। भगवान् महावीर का दृष्टिकोण समन्वयवादी था, उन्होंने भेद में अभेद की, विग्रह में परस्पर प्रेम की स्थापना करने के लिए ‘स्याद्वाद्’ का आविर्भाव किया। स्याद्वाद् का यही आशय है कि प्रत्येक धर्म, दर्शन एवम् परम्परा में कुछ न कुछ सच्चाई का अंश निहित है, अस्तु, हमें विरोध में न पड़कर, प्रत्येक पक्ष की सच्चाई के अंश का समादर करना चाहिए तथा परस्पर प्रेम एवम् सद्भाव का वातावरण निर्मित करना चाहिए।

उन्होंने कहा- ‘‘संसार में कल्याण करने वाला उत्कृष्ट मंगल एकमात्र धर्म ही है और कुछ नहीं, अहिंसा, संयम एवम् तप का समग्र रुप है’’ भगवान् महावीर का कहना था कि – ‘‘कोई भी सत्य क्षेत्र, काल, व्यक्ति या नाम आदि के बन्धन में कभी बंधा नहीं रह सकता, सच्चा धर्म अहिंसा है, जिसमें जीवदया, विशुद्ध प्रेम और बन्धु भाव का समावेश होता है। सच्चा धर्म संयम है, जिसमें मन और इन्द्रियों को वश में रखकर स्वात्मरमणता का आध्यात्मिक आनन्द लिया जाता है। सच्चा धर्म तप है, जिसमें जनसेवा, तितिक्षा, विनय, परहित भावना, ध्यान, आत्म चिन्तन एवम् स्वाध्याय आदि का समावेश होता है और जब ये तीनों पूर्णरुपेण एक साथ मिल जाते हैं, तो साधक की साधना परिपूर्ण हो जाती है।फलत: उसे दिव्य ज्योति प्राप्त हो जाती है, इस प्रकार भगवान् महावीर ने जन-जागरण की दिशा में विश्व-कल्याणकारी धर्मदेशना की पावन ज्योति विकीर्ण करते हुए वैâवल्य प्राप्ति के बाद तीस वर्ष तक भारत की पवित्र धरा पर विचरण करते रहे। भगवान महावीर की विचारक्रान्ति उभयमुखी थी, एक ओर इस क्रान्ति ने समाज को सड़ी-गली रुढ़ियों से मुक्त किया तो दूसरी ओर जन-जीवन में व्याप्त भोगशक्ति को दूर कर शुद्ध वीतरागता और निष्काम-साधना का पथ प्रशस्त किया।

उक्त उभयमुखी क्रान्ति का इतना व्यापक प्रभाव हुआ कि न सिर्पâ मेघकुमार, नन्दीषेण जैसे अमित वैभव की गोद मेंं पले राजकुमारों ने ही भिक्षु का बाना अपनाया, बल्कि राजमहलों में मुक्त विलासिता का जीवन बिताने वाली मृगावती, नन्दा, कृष्णा जैसी महारानियों तक ने भिक्षुणी व्रत को अंगीकार कर, अपने को गौरवान्वित किया, एक ओर अर्जुन माली जैसे अनेक साधारण नागरिक भगवान् के संघ में थे, तो दूसरी ओर प्रसन्नचंद्र जैसे सम्राट भी थे। बस, खासियत यह है कि संघ में दोनों का दर्जा बराबर था। इन्द्रभूति गौतम जैसे उच्चकुलीन ब्राह्मण भगवान के आत्मीय शिष्य थे तो हरिकेशी जैसे चाण्डाल भी प्रभु के प्रिय अंतर्वासी थे। धर्म संघ में दोनों ही एक समान बन्धुभाव से रहते थे। भगवान का कहना था कि तुम्हारा पहले का वर्ण भेद के आधार पर खड़ा अस्तित्व मर चुका है, अब तुम दोनों ने धर्मबन्धु के रुप में श्रमण संघ में नया जन्म लिया है, इस संदर्भ में भगवान महावीर की वाणी है कि विश्व के सभी प्राणी आत्मभूत हैं, कोई पराया नहीं है।

सव्व भूयप्पभूएसु।’
मनुष्य का जीवन जन्म से नहीं, कर्म से सम्बन्धित है।

-जिनागम

You may also like...