आत्मबोध और आत्मशुद्धि का ज्ञान कराने वाले जैन संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी

३ अक्टूबर २०१८ को जिनागम, मेरा राजस्थान, मैं भारत हूँ, अंधरी टाईम्स के वरिष्ठ सम्पादक बिजय कुमार जैन के साथ दिगम्बराचार्य विद्यासागर जी का खजुराहो में दर्शन लाभ और आशीर्वाद प्राप्त करने का सुअवसर मिला। प्रसंग था -‘हिंदी’ को भारत की राष्ट्रभाषा का संवैधानिक दर्जा मिले’ तथा इस देश को ‘इण्डिया’ नहीं ‘भारत’ के नाम से सम्बोधित किया जाए, दिल्ली स्थित ‘इण्डिया गेट’ को ‘भारत द्वार’ बोला जाए। आचार्यश्री ने बड़े प्रफुल्लित मन से बात को सुना तथा भरपूर आशीर्वाद दिया तथा यह भी कहा- ‘आगे बढो’। आचार्यश्री के आशीर्वाद से हम में एक नई ऊर्जा का संचार हुआ तथा पूरे जोश के साथ इस राष्ट्रीय महायज्ञ के कार्य को आगे बढ़ाने में गति मिली।
आचार्य श्री विद्यासागर जी के लगभग २० मिनट के सानिध्य में जो वार्ता हुई, इसी मध्य मैं देख रहा था कि उनकी दिनचर्या, उनका सोच, कार्य शैली, स्वाध्याय, स्मरण शक्ति, उनका तप, अध्यात्म साधना आदि सभी अद्भुत थी, उनकी निश्छलता और सादगी सभी के लिए प्रेरणादायी थी। दिखावा लेशमात्र भी नहीं था, यदि उन्हें सभी जैन संतों के लिए एक आदर्श एवं प्रेरणास्त्रोत कहा जाए जो अतिश्योक्ति नहीं होगी।
आचार्यश्री सभी व्यक्तियों को प्रकृति के अनुरूप रहने तथा स्वावलम्बी बनने का आव्हान करते हैं। आचार्यश्री के दर्शन लाभ के बाद यहाँ कुछ ऐसे प्रश्नों का समाधान उल्लेखित कर रहा हूँ जो साधारणतया दिगम्बर जैन साधुओं का दर्शन करने के बाद एक व्यक्ति के मन में उपजते हैं-

१. जैन साधु निर्वस्त्र क्यों रहते हैं ?
जैन साधु आत्मशुद्धि पर अपना ध्यान केंद्रित रखते हैं, उनकी मान्यता है कि यदि आप कुछ संग्रह करने की मनोवृत्ति रखेंगे तो मूल उद्देश्य से भटक जायेंगे, वस्त्र भी लगाव का कारण बन सकते हैं तथा आत्मशुद्धि के मार्ग में बाधक बन सकते हैं। वे सर्दी, गर्मी, वर्षा आदि सभी प्रकार के मौसमों के मिजाज को बड़ी प्रसन्नता से सहन करते हुए अनवरत आत्मशुद्धि के मार्ग की ओर अग्रसर होते रहते हैं। जैन धर्मावलम्बियों की मान्यता है कि सभी प्रकार की आसक्तियों से मुक्त होने पर ही मोक्ष प्राप्ति का मार्ग सुलभ होता है। पूर्ण आसक्तियों का परित्याग करने में परिवार, धन और सभी प्रकार की सांसारिक वस्तुओं का त्याग करना सम्मिलित है।


२. जैन संतों द्वारा ‘पिच्छी’ और ‘कमण्डल’ को अपने हाथों में रखने के पीछे उद्देश्य क्या है ?
जैन धर्मावलम्बी ‘अहिंसा परमो धर्म’ अर्थात् अहिंसा ही सबसे बड़ा धर्म है की मान्यता को स्वीकार करते हैं। मोर की पंखुड़ियां विश्व में उपलब्ध वस्तुओं में सबसे नरम/कोमल होती है तथा उससे किसी भी प्राणी को कोई क्षति नहीं पहुंचती है।
एक विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि मोर को किसी प्रकार की क्षति पहुँचाए बिना उनके द्वारा प्राकृतिक रूप में छोड़ी गई इन पंखुड़ियों को लोग एकत्रित करते हैं तथा इस प्रकार एकत्रित की गई पंखुड़ियों से पिच्छी तैयार की जाती है। संत लोग फर्श पर बैठने से पहले अथवा किसी धर्मग्रंथ को छूने के पहले पिच्छी से उसे साफ करते हैं जिससे किसी भी प्रकार के सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव को भी कोई क्षति न पहुँचे और शांतिपूर्ण तरीके से उसे अन्यत्र स्थानांतरित किया जा सके।
‘कमण्डल’ हाथ धोने के लिए तथा अन्य स्वास्थ्य सम्बंधी कारणों से अपने हाथों में रखते हैं। दिगम्बर जैन संत केवल इन दो चीजों को अपने साथ रखते हैं, अन्य शब्दों में कहा जा सकता है कि ये दो चीजें जैन संतों की अपने कार्यों में शुद्धता के प्रतीक हैं।

३. दिगम्बर जैन संत किस प्रकार आहार करते हैं ?
ये संत दिन में केवल एक बार आहार लेते हैं तथा एक बार ही पानी पीते हैं, चूँकि जैन संत सभी सांसारिक वस्तुओं का परित्याग कर देते हैं, इसी कारण वे आहार के लिए बर्तनों का भी प्रयोग नहीं करते। वे खड़ी मुद्रा में आहार ग्रहण करने के लिए अपने हाथों का उपयोग करते हैं। श्रावकों/अनुयायियों/समर्पित भाव रखने वालों द्वारा संतों को जो आहार दिया जाता है, उसमें शुद्धता का पूरा ध्यान रखा जाता है। यह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि वे अपने ‘आहार’ के लिए आम लोगों पर निर्भर रहते हैं तथा आहार स्वाद के लिए नहीं अपितु जीवित रहने के लिए ही ग्रहण करते हैं, उनके जीवन का मूल उद्देश्य ‘मोक्ष’ प्राप्त करना होता है जिसकी ओर उनका विशेष ध्यान रहता है।
४. जैन संत यातायात के साधनों का प्रयोग क्यों नहीं करते ?
जैन संत अहिंसा को परम धर्म मानते हुए सभी सांसारिक वस्तुओं का परित्याग कर देते हैं तथा एक स्थान से दूसरे स्थान पर विहार करते समय गाड़ियों आदि का उपयोग यह सोचकर नहीं करते कि इन यातायात के साधनों के प्रयोग में हजारों जीव-जन्तुओं की क्षति होती है, जैन संत जब विहार करते हैं तब इतनी सावधानी रखते हैं कि उनके कदमों से छोटी-सी चींटी अथवा अन्य किसी प्रकार के कीड़े-मकोड़ों को क्षति न पहुंचे, उनका प्रत्येक कार्य इस प्रकार का होता है कि मन-वचन अथवा कर्म से प्राणी मात्र को किसी प्रकार का कष्ट न पहुंचे।

५. जैन दर्शन के मौलिक सिद्धांत क्या हैं ?
जैन दर्शन की मान्यता है कि यह ब्रह्माण्ड और इसमें पाये जाने वाले सभी तत्व शाश्वत हैं, समय की गति के साथ इनका न आदि और न ही अन्त है। कर्म, मृत्यु, पुर्नजन्म आदि सभी इस ब्रह्माण्ड में अपने सार्वभौमिक नियमों के अन्तर्गत परिचालित होते हैं। सभी तत्व अपने स्वरूप में लगातार परिवर्तित अथवा रूपान्तरित होते रहते हैं। ब्रह्माण्ड में किसी तत्व को उत्पन्न अथवा विनष्ट नहीं किया जा सकता है, इस ब्रह्माण्ड को संचालित करने के लिए ईश्वर अथवा अन्य कोई देवी-शक्ति नहीं है। जैन दर्शन ईश्वर को सृष्टि का रचयिता, पालनहार अथवा विनष्ट करने वाला नहीं मानता, जैन दर्शन की मान्यता है कि ईश्वर मानव का एक श्रेष्ठ रूप है और इस रूप में इस सृष्टि की अच्छी अथवा बुरी घटनाओं में उसका कोई हस्तक्षेप नहीं है।
एक व्यक्ति के जब सभी कर्मों का नाश हो जाता है तो उसकी आत्मा मुक्त हो जाती है, वह ‘मोक्ष’ की स्थिति में पहुंच जाता है, सभी व्यक्तियों में एक ही प्रकार की आत्मा होती है, अस्तु सभी में ईश्वर बनने की क्षमता है। जैन दर्शन में ईश्वर मानव का सर्वश्रेष्ठ रूपान्तरण है। यह ब्रह्माण्ड छ:तत्वों-जीव, पुद्गल, अक्ष, धर्म, अधर्म और काल से बना है।
ईश्वर आत्म स्वरूप है तथा सभी प्रकार के कर्मों के बंधन से मुक्त है। राग, द्वेष और आत्मज्ञान की कमी के कारण आत्मा कर्मों के बंधन में फँस जाती है, आत्मा अपने नैसर्गिक रूप से सर्वाधिक शक्तिशाली, चैतन्य और आध्यात्मिक है।
जैन धर्म में आत्मा की शुद्धि के लिए संतों द्वारा मन, वचन, कर्म से अहिंसा और अपरिग्रह का मार्ग अपनाया जाता है।
जैन धर्म के सिद्धांतों में ‘जीओ और जीने दो’, प्राणी मात्र को नष्ट न पहुंचाना, अपरिग्रह का पालन करना, क्रोध न करना, अभिमान का त्यागना, जाने-अनजाने में किसी के साथ दुव्र्यवहार न करना, चोरी नहीं करना, अकारण धन और समय की बर्बादी नहीं करना, जो कुछ भी करें-सावधानी से करना, सभी में एक जैसी आत्मा है, व्यक्ति आत्मा को अपने कर्मों के बंधन में फँसाता है। व्यक्ति से अपेक्षा है कि वह प्राकृतिक नियमों के अनुसार जीवन यापन करें, सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन और सम्यक चारित्र अपनाकर मोक्ष प्राप्त करें, संक्षेप में आत्मशुद्धि ही जैन दर्शन का मार्ग है, कर्मों के बंधन से मुक्ति मोक्ष का द्वार है।

प्रो. मिश्री लाल मांडोत

विश्व शांति के लिए शुरू हुआ नवकार महामंत्र अनुष्ठान

बैंगलुरू : आदिनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर ट्रस्ट के तत्वावधान में पंन्यासश्री कल्परक्षितविजयजी की निश्रा में नवकार महामंत्र का विशिष्ट आयोजन हुआ। पहले दिन उपकरण वंदनावली से कार्यक्रम की शुरूआत करते हुए पंन्यासश्री ने कहा कि नवकार महामंत्र को आत्मसात करना चाहिए। नवकार महामंत्र जीवन में उतारने से शांति संभव है। नवकार मंत्र की निष्काम साधना से लौकिक व परलौकिक सभी प्रकार के कार्य सिद्ध हो जाते हैं।
यदि जाप करने वाला सदाचारी, शुद्धात्मा, सत्यवक्ता, अहिंसक व ईमानदार हो तो ऐसे व्यक्ति को मंत्र की आराधना का फल तत्काल मिलता है। मंत्र का जाप मन, वचन और काया की शुद्धिपूर्वक विधि सहित करना चाहिए। संघ के सहसचिव गौतमचन्द सोलंकी ने बताया कि नवकार महामंत्र का अखंड जाप नौ दिनों तक चला। ट्रस्टी देवकुमार जैन ने ‘जिनागम’ को बताया कि इस अनुष्ठान में एकासना तप की व्यवस्था आदिनाथ जैन सर्वोत्तम सेवा मंडल द्वारा एवं नौ द्रव्यों द्वारा कराई गयी।

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