वर्षायोग एक संस्कृति

-प.पू. गणाचार्य १०८ श्री विरागसागर जी महाराज

वर्षायोग की प्राचीनता : वर्षायोग का सर्वाधिक प्राचीन उल्लेख दिगम्बर जैन ग्रन्थों में मिलता है, मूलाचार ग्रन्थ में मुनियों के दस स्थिति कल्पों में पद्य नामक कल्प वर्षायोग का विधान है, वहाँ पर कहा गया है कि मुनिजनों को वर्षायोग नियमत: करना चाहिए, इसी प्रकार अन्य ग्रन्थों में भी वर्षायोग का विधान है। बौद्ध के चातुर्मास का तथा हिन्दु ग्रन्थ बाल्मीकि रामायण आदि में श्री रामचन्द्र जी के चातुर्मास का उल्लेख है, चातुर्मास की परम्परा आज भी निर्वाधित रुप से चली आ रही है, दिगम्बर जैन संत आज भी नियम से चातुर्मास करते हैं।

वर्षायोग का अर्थ :- वर्षायोग दो शब्दों से मिलकर बना है, वर्षा + योग = वर्षायोग, वर्षा यानि वर्षात्, योग यानि धारण करने वाली, योग शब्द अनेक अर्थों में प्रचलित है- यथा

  • योगशास्त्र में योग का अर्थ मिलना अर्थात् आत्मा से जुड़ने को योग कहा जाता है।
  • गणित शास्त्र में योग (जैसे- २+२ का योग ४) शब्द का अर्थ वृद्धि लिया गया है
  • जैन ग्रन्थों में योग शब्द का अर्थ आत्म प्रदेशों के परिस्पंदन में कारण भूत मन, वचन, काय को कहा है अथवा इन तीनों को स्थिर रखने को योग कहा है, यहाँ यही अर्थ अनुग्रहीत है।
  • जैन ग्रन्थों में आध्यात्मिक साधना, आराधना, बाह्याभ्यंतर तप, निश्चय व्यवहार परक पंचाचार, ध्यान को भी योग कहा गया है। प्राचीन काल में मुनिगण वर्षाकाल में किसी वृक्ष के नीचे ४ माह तक स्थिर और अखण्ड साधना करते थे किन्तु वर्तमान काल में हीन संहनन (कम शक्ति) होने के कारण किसी तीर्थक्षेत्र, ग्राम, नगर, मन्दिर या धर्मशाला आदि में रहकर यथा शक्ति साधना करते हैं, इसीलिए वर्षायोग या वर्षावास यह सार्थक संज्ञा है।

चातुर्मास :- श्रावण, भाद्रपद, आश्विन और कार्तिक इन चार माह में वर्षायोग होने से इसे चातुर्मास भी कहते हैं, इससे अर्थ स्पष्ट होता जाता है कि वर्षायोग का संबंध मात्र वर्षा ऋतु के दो माह से नहीं अपितु वर्षाकाल के चार माह से है, अत: ‘चातुर्मास’ भी सार्थक संज्ञा है।

वर्षायोग क्यों :- वर्षाकाल में निरंतर पानी बरसता है जिससे नदी नालों में बाढ आ जाती है, मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं। अनंत जीवों वाली साधारण वनस्पति अर्थात् हरी घास उत्पन्न हो जाती है। असंख्य सूक्ष्म जीव कीट पतंगे आदि जीव-जन्तु उत्पन्न हो जाते हैं। बिलों में पानी भर जाने से बहुत से जीव जन्तु बिलों से बाहर आ जाते हैं, जिससे उन सबकी रक्षा बहुत कठिन हो जाती है, अत: अहिंसा व्रत के धारी साधुजन अपने प्राणी संयम की रक्षा हेतु चातुर्मास करते हैं अर्थात् चार माह एक ही स्थान पर ठहरते हैं।

वर्षायोग कब :- चातुर्मास की स्थापना आषाढ माह के शुक्ल चतुर्दशी की पूर्व रात्रि में की जाती है, किन्हीं ग्रन्थों में आषाढ माह की प्रतिपदा को वर्षायोग धारण करते हैं ऐसा भी उल्लेख है, यथा- जैनाचार्य श्री जिनसेन ने कहा है कि आदिनाथ ने कृषि शिक्षा आषाढ माह की प्रतिपदा को ही दी थी, इसी कारण वर्षायोग इसी माह में स्थापित किया जाता है।
व्याकरणाचार्य पाणिनी ने भी वर्ष की समाप्ति आषाढ माह में मानी है तथा कार्तिक कृष्णा अमावस्या की अंतिम रात्रि में साधुजन चातुर्मास समाप्त करते हैं क्योंकि इस दिन ही वीर निर्वाण संवत् आदि की परि समाप्ति होती है। राजाओं के युग में आर्थिक वर्ष की भी पूर्णता दीपावली अर्थात् कार्तिक कृष्णा अमावस्या के दिन ही मानी जाती है इसी दिन वार्षिक आय-व्यय की पूर्णता पुरानी बही-खातों में की जाती है।

वर्षायोग कैसे :- वर्षायोग के स्थापना व निष्ठापन के एक दिन पूर्व मध्यान्ह सामायिक में मंगल गोचर मध्यान्ह वंदना क्रिया, सिद्ध, चैत्य, पंचगुरु, शांति व समाधि भक्ति पूर्वक की जाती है तथा बाद में मंगल गोचर भक्त प्रत्याख्यान विधि (उपवास ग्रहण क्रिया) सिद्ध, योगी, आचार्य, शांति व समाधि भक्ति पूर्वक की जाती है, दूसरे दिन साधुगण वार्षिक प्रतिक्रमण करते हैं पश््चात् चातुर्मास स्थापना पूर्व रात्रि में एवं निष्ठापन अपर रात्रि में वृहद सिद्ध, चैत्य तथा स्वयं भू स्तोत्र में से क्रमश: दो-दो तीर्थंकर की स्तुति व लघु चैत्य भक्ति क्रमश: सभी दिशाओं में मुख करके की जाती है किन्हीं-किन्हीं संघों में पूर्व या उत्तर दिशा में मुख कर ही की जाती है, मात्र आवर्तन शिरोनति चारों दिशा में की जाती है।
अंत में पंच महागुरु भक्ति शांति व समाधि भक्ति पढते हुए स्थापन, निष्ठापन करें। वर्षायोग समाप्ति के बाद वीर निर्वाण क्रिया करें। सुयोग्य श्रावक जन इस कार्य की निर्विघ्न समाप्ति के उद्देश्य से अभिषेक विधान करते हैं, ध्वजारोहण, कलश स्थापना, मंगलदीप प्रज्ज्वलन करते हैं तथा स्थापना व निष्ठापन के अवसर पर चारों दिशाओं में मंगल हेतु पीली सरसों या पुष्पादि का क्षेपण करते हैं।
एक और प्रश्न खड़ा हो सकता है कि चातुर्मास-कलश की स्थापना क्यों की जाती है? तो कलश के प्रकरण में पंचास्तिकाय तात्पर्य वृत्ति १/५/१५ में कहते हैं – पुण्णा मणोरहेहि य केवलणाणेण चावि संपुण्णा।
अरहंता इदि लोए सुमंगलं पुण्णवुंâभो दु।।
अरहंत भगवान सम्पूर्ण मनोरथों से तथा केवलज्ञान से पूर्ण हैं, इसीलिए लोक में पूर्ण कलश को मंगल माना जाता है।

वर्षायोग से लाभ :- चातुर्मास काल में साधुगणों को गमनागमन की सीमा निर्धारित कर चार माह एक ही स्थान पर रहने से ध्यान, अध्ययन, चिंतन का अधिक अवसर प्राप्त होता है, उनकी त्याग तपस्या भी सर्वाधिक होती है। आहारादि में भी वे हरी पत्ती, साग, घुने अनाज, फली, पुराने मेवा आदि का त्याग करते हैं और भी अपनी शक्ति अनुसार नियम आदि लेकर तप, त्याग तथा अध्ययन की विशेष साधना करते हैं तथा श्रावकों को भी साधुजनों की सेवा-सुश्रुषा एवं घर-घर में चौकों के माध्यम से श्रावक भी शुद्ध प्रासुक आहार लेते हैं। साधुजनों के माध्यम से श्रावक संस्कार शिविर, पूजन शिविर, शिक्षण शिविर, व्यसन मुक्ति- शाकाहार अभियान, स्वाध्याय क्लास, सामाजिक संगठन, धर्म प्रभावना का पर्याप्त अवसर प्राप्त होता है।
वर्षाकाल में प्राय: व्यवसाय, शादी विवाह आदि नहीं होने से श्रावक जनों को भी पर्याप्त मात्रा में धर्मलाभ प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हो जाता है। साधुओं के उपदेश से श्रावक क्षेत्रादिकों में दान, आहार दान इत्यादि शुभ क्रियाओं में प्रवृत्त होकर धर्म का अर्जन करते हैं। श्रावकों का साधुओं के निकट आने से उनमें भी तप, त्याग, साधना चर्या के संस्कार आते हैं। 

-संजय जैन

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