जैन श्रावकाचार की सामाजिक प्रासंगिकता

भगवान महावीर के आचार दर्शन का आधार समता है, आयारों में कहा गया-‘समियाए धम्मे’, अर्थात् समता से भिन्न धर्म नहीं हो सकता, जो समतावान् होता है वह पापकारी प्रवृत्ति नहीं कर सकता, वास्तव में रागद्वेष रहित कर्म ही आचार है, जिस व्यक्ति के व्यवहार में रागद्वेष की जितनी प्रबलता होगी उसका आचार एवं व्यवहार उतना ही अधिक दूषित होगा, इसलिए आचार की उच्चता के लिए समत्व में प्रतिष्ठित होना आवश्यक है।
समता दो प्रकार की है-स्वनिश्रित और परनिश्रित, राग और द्वेष के उपशमन के द्वारा अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में संतुलित अनुभूति करना स्वानिश्रित समता है, सब प्राणी सुख के इच्छुक और दु:ख के विरोधी हैं, इसलिए कोई भी वध योग्य नहीं है, यह आत्मतुला पर निश्रित समता है, स्वनिश्रित समता की सिद्धि के लिए भगवान ने कषाय के उपशमन का उपदेश दिया पर-निश्रित समता की सिद्धि के लिए प्राणातिपात आदि पापों से विरत होने का उपदेश दिया। स्वाश्रित समता आत्मशुद्धिपरक है एवं पराश्रित समता जीवनशुद्धि एवं सामाजिक व्यवहार पर आश्रित है। जैन आचार का यह वैशिष्ट्य है कि यह निश्चय और व्यवहार में संतुलन बनाए हुए है, फलस्वरूप आत्माराधना समाज के विकास में सहयोगी बन जाती है।

जैन आचार का आधार रत्नत्रय : जैन आचार की पूर्व भूमिका है-ज्ञान। ज्ञानशून्य आचार को वहां कोई महत्त्व प्राप्त नहीं हैं। अहिंसा की अनुपालना ज्ञानपूर्वक ही संभव है। दशवैकालिक सूत्र में ठीक ही कहा गया कि जो जीव को नहीं जानता, अजीव को नहीं जानता, वह संयम को कैसे जानेगा? अर्थात् अज्ञानी के लिए संयम का आचरण असंभव है, पहले यह जान लेना आवश्यक है कि जीव क्या है, अजीव क्या है? यह जानने के बाद ही अहिंसा की अनुपालना सरलता से हो सकती है। आचार्य उमास्वाति ने ठीक ही कहा कि ‘सम्यगदर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग:’ अर्थात् सम्यक दृष्टिकोण, सम्यक ज्ञान एवं सम्यक चारित्र तीनों का समन्वित रूप ही मोक्ष मार्ग को प्रशस्त करता है। जैन आचार की यह सबसे बड़ी विशेषता है कि इसके संपूर्ण सिद्धान्त अनेकांत पर आश्रित है, केवल ज्ञान अथवा केवल दर्शन अथवा केवल चारित्र-एकांकी मार्ग से मोक्ष की प्राप्ति असंभव है। ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष: अर्थात् ज्ञान एवं क्रिया का समन्वयक ही परम लक्ष्य को प्राप्त करा सकता है। भक्तिमार्ग, ज्ञानमार्ग एवं आचारमार्ग की एकांकी प्ररूपणा से हटकर जैनदर्शन त्रिवेणी संगम को आचार की पराकाष्ठा स्वीकार करता है।
ज्ञान का फल है-अहिंसक आचरण, वही ज्ञान सम्यक होता है, जिसकी पूर्णता अहिंसा में हो, जिस ज्ञान से हिंसा की उत्प्रेरणा मिलती हो, हिंसा की साधन सामग्री विकसित होती हो, वह ज्ञान नहीं, ज्ञानाभास है। संसार परिभ्रमण का हेतु है। वास्तविक ज्ञानी तो वही है जो समता एवं अहिंसा की अनुपालना करता है। सूत्रकृतांग में कहा है-ज्ञानी होने का यही सार है कि वह किसी की हिंसा नहीं करता। समता अहिंसा है, इतना ही उसे जानना है, अत: स्पष्ट हो गया कि अहिंसा ही परम आचार है जिस पर जैन दर्शन के संपूर्ण सिद्धान्त टिके हुए हैं और यह अहिंसा समता के आधार पर विकसित होती है, जैसे मुझे दु:ख अप्रिय है वैसे ही सब जीवों को दु:ख अप्रिय है, इस समता का अनुभव जितना विकसित होता है उतनी ही अहिंसा विकसित होती है और समाज में यदि इस आत्मौपम्य की चेतना जागृत हो जाए तो वर्तमान में व्याप्त आतंकवाद, बलात्कार, भ्रष्टाचार, अमानवीय व्यवहार को स्वयं विराम मिल जाएगा।
भगवान महावीर ने आचार के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी चिन्तन प्रस्तुत किया, उन्होंने यह स्पष्ट कहा कि गृहस्थ समाज में रहता हुआ, संपूर्ण अहिंसा व्रत का पालन नहीं कर सकता, अत: उन्होंने दो प्रकार के आचार की परूपणा की ‘श्रमणाचार एवं श्रावकाचार’ श्रमण के लिए पांच महाव्रतों का देशकाल निरपेक्ष होकर त्रिकाल में पालन अनिवार्य है जबकि श्रावक के लिए १२ अणुव्रतों का देशकाल एवं क्षमता सापेक्ष पालन करने का प्रावधान है।

बारह अणुव्रतों की सामाजिक प्रासंगिकता : जैन आगमों में हर गृहस्थ के लिए पांच अणुव्रत एवं सात शिक्षाव्रत का प्रावधान कर भगवान महावीर ने स्वस्थ, शान्त, समृद्ध एवं अहिंसक समाज संरचना का सूत्र हाथों में थमा दिया। पांच अणुव्रत, जो जैन आचार्यों द्वारा प्रतिपादित है-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, स्वदार संतोष एवं इच्छा परिमाण-ये पांचों व्रत न केवल आत्मकल्याण के लिए उपयोगी हैं अपितु समाज, राष्ट्र और विश्व के कल्याण के लिए भी अत्यन्त उपयोगी है, अब क्रमश: प्रत्येक अणुव्रत की वर्तमान समस्याओं के संदर्भ में सामाजिक प्रासंगिकता पर प्रकाश डाला जाएगा।

१. अहिंसा अणुव्रत:- अहिंसक समाज की संरचना के प्रथम सोपान पर अहिंसा की न्यूनतम मर्यादा का पालन करने वाला व्यक्ति कम से कम चलने-फिरने वाले स्थूल जीवों की हिंसा नहीं करेगा, निरपराधी को समाप्त करने का प्रयास नहीं करेगा और बिना प्रयोजन किसी को संकल्प पूर्वक नहीं मारेगा। भगवान महावीर ने गृहस्थ के लिए आरंभजा हिंसा एवं विरोधजा हिंसा का परिहार नहीं किया, अपितु संकल्पजा हिंसा का निषेध किया है, उनका यह स्पष्ट चिन्तन था कि महारंभी जीवन शैली स्वस्थ समाज के लिए काम्य नहीं हो सकती। अनारंभी जीवन शैली सामाजिक प्राणी के लिए संभव नहीं हो सकती। बीच का रास्ता है-अल्पारंभ का। अल्पारंभ का अर्थ है- हिंसा का अल्पीकरण, इस छोटे से व्रत को व्यापक रूप में अपना लिया जाए तो वर्तमान विश्व की ज्वलन्त समस्या, आतंकवाद के समाधान की दिशा प्रशस्त हो सकती है, उसकी जड़ें उखड़ सकती हैं।
भगवान महावीर का युग कृषि प्रधान युग था, उस समय खेती मुख्यत: पशुओं पर आधारित थी, एक दृष्टि से खेती और पशु अभिन्न से हो गए थे। पशुओं के प्रति किसी प्रकार का क्रूर व्यवहार न हो, इस बिन्दु पर भगवान ने बल दिया। स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत के पांच अतिचार महावीर युग में पशुहिंसा के पांच रूप में अधिक प्रचलित थे, वे इस प्रकार है-

  • वध – निर्दयता से मार-पीट करना।
  • बंधन – गाढ़ बन्धन से बांधना।
  • अंग – भंग-चमड़ी उतारना और नाक-कान आदि अवयव काटना।
  • अतिभार – बहुत अधिक भार लादना।
  • वृत्ति-विच्छेद – अपने आश्रित प्राणी के खान-पान या आजीविका में कटौती करना।

आजकल कृषि की स्थिति बदल चुकी है फिर भी पशुओं के प्रति क्रूर व्यवहार छूट नहीं पाया है, पशु पर अतिभार लादने की बात आज भी चलती है। क्रूरता के अन्य कारणों में मनोरंजन, प्रसाधन सामग्री एवं चिकित्सा को लिया जा सकता है। सांडों की लड़ाई, मुर्गो की लड़ाई इत्यादि रईस लोगों की शौकीया वृत्ति की परिणितियां है। प्रसाधन सामग्री का निर्माण करने के लिए थोड़े से लोगों की विलासी मनोवृत्ति के लिए छोटे-बड़े निरीह प्राणियों को जिस क्रूरता से मारा जाता है वह निश्चित ही मानव सभ्यता के लिए एक महाकलंक है, चिकित्सा के क्षेत्र में ई-शोध भी एक ऐसा ही नशा है, उस निमित्त से आज तक एक-एक वैज्ञानिक हजारों-हजारों मेंढ़क, चूहों और बन्दरों को बलि का बकरा बना देता है जो सर्वथा अवांछनीय एवं त्याज्य है।
अहिंसा के लिए आवश्यक है- संवेदनशीलता, दूसरों को कष्ट देते समय यह अनुभूति हो जाए कि यह कष्ट मैं दूसरों को नहीं स्वयं को दे रहा हूं, जिस समाज में संवेदनशीलता नहीं है, वह समाज अपराधियों, हत्यारों या क्रूरता के खेल-खेलने वालों का समाज बन जाता है। अणुव्रती समाज में संवेदनशीलता का विकास होता है जिसके कारण क्रूरता जनित समस्याओं से निजात मिल सकता है। अहिंसा अणुव्रत पालन करने का सबसे पहला परिणाम होता है-पर्यावरण के प्रदूषण की समाप्ति। आज पर्यावरण का प्रदूषण बढ़ा है, उसमें अनावश्यक हिंसा का बहुत बड़ा हाथ है, कितना पानी का अपव्यय, कितने जंगलों की कटाई, कितने पशु-पक्षियों का निर्ममता से शिकार करने से अनेकों प्रजातियों का नष्ट होना, अनावश्यक भूमि का खनन एवं दोहन-यह सब अपने स्वार्थ के लिए इतनी मात्रा में हो रहा है कि वातावरण तेजी से प्रदूषित होता जा रहा है। पृथ्वी पर मानव अस्तित्व की सुरक्षा एवं शांति, अहिंसा अणुव्रत के सम्यक पालन से ही संभव है। अहिंसा अणुव्रती कभी भी आत्महत्या, भ्रूणहत्या, परहत्या नहीं करेगा, आत्मपीड़न, पर-पीड़न नहीं देगा। मन, वचन एवं काया से हिंसात्मक प्रवृत्तियों से बचेगा, जिससे समाज में शांति, समरसता, संवेदनशीलता एवं आपसी सौहार्द का विकास होगा।

२. सत्य अणुव्रत : एक श्रावक अहिंसा अणुव्रत का पालन करता है तो उसे सत्यनिष्ठ बनना होगा, मृषावाद का वर्जन करना होगा। मृषा (झूठ) संभाषण के मुख्यत: चार कारण माने गए हैं-क्रोध, लोभ, भय और हास्य, इन कारणों की तीव्रता को नियन्त्रित करने से सहज रूप से सत्य की साधना हो सकती है। सत्य अणुव्रत का पालन करने वाला श्रावक पुष्ट आधार के बिना किसी पर दोष का आरोपण नहीं करता, किसी के लिए अहितकारक असत्य नहीं बोलता, किसी के गोपनीय रहस्य का उद्घाटन नहीं करता, किसी को गलत पथदर्शन नहीं देता और झूठी साक्षी नहीं देता व झूठा हस्ताक्षर भी नहीं लिखता, इनमें से एक भी आचरण करने वाला न केवल व्रत भंग का अपितु सरकार की कानून के तहत् भी अपराधी होता है एवं विविध प्रकार के दण्ड का भागी बनता है, पर सत्य अणुव्रत का पालक न केवल अपराध मुक्त समाज के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है, अपितु समाज में विश्वास का पात्र बनता है और विश्वास सत्य के बिना नहीं होता, समाज के सारे व्यवहार का आधार सत्य है, उसके बिना एक दिन भी लेन-देन का बाजार नहीं चल सकता। आर्थिक व्यापार एवं आर्थिक बाजार का विकास सत्य पर ही टिका हुआ है।

३. अचौर्य अणुव्रत : श्रावकाचार में अचौर्य अणुव्रत की महत्ती उपयोगिता है, इस व्रत के अनुसार चोरवृत्ति से किसी दूसरे की वस्तु उठाने से अचौर्य अणुव्रत भंग होता है, किन्तु गहराई से विचार करने पर ज्ञात होता है कि अनैतिकता या अप्रामाणिकता की वृत्ति ही चोरी है, जब तक मनुष्य में नैतिकता की चेतना जाग्रत नहीं होती, वह आर्थिक अपराधों से नहीं बच सकता, नैतिकता का विकास तभी संभव है जब कोई भी मनुष्य दूसरे के प्रति क्रूरतापूर्ण व्यवहार न करे। क्रूरतापूर्ण व्यवहार दो तरह से हो सकता है-शरीर के संदर्भ में और आर्थिक संदर्भ में, शारीरिक स्तर पर की जाने वाली क्रूरता का समावेश हिंसा में होता है। आर्थिक मामले में बरती जाने वाली क्रूरता जैसे बच्चों की खाद्य-पेय सामग्री में मिलावट, दवाओं में मिलावट, सामान्य खाद्य-पेय पदार्थों में मिलावट करना, भ्रष्टाचार करना, झूठा माप-तोल कर ग्राहकों को धोखा देना, टेक्स की चोरी करना, राज्य निषिद्ध वस्तुओं का आयात-निर्यात करना इत्यादि चोरी से बचने की मनोवृति का सम्बन्ध अचौर्य अणुव्रत के साथ ही है, इस प्रकार अचौर्य अणुव्रती नैतिक मूल्यों के विकास में एवं भ्रष्टाचार-क्रूरता मुक्त समाज निर्माण में आदर्श नागरिक की भूमिका अदा कर सकता है।

४. स्वदार संतोष व्रत : गृहस्थ के साधनाक्रम में ‘‘स्वदार सन्तोष’’ (अपनी पत्नी से संतोष करना) का प्रयोग बहुत महत्त्वपूर्ण है, इस प्रयोग से उन्मुक्त वासना सिमटकर एक बिन्दु पर केन्द्रित हो जाती है, विवाह संस्था के दृढ़ीकरण में ‘स्वदार संतोष’ व्रत की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है, जिस समाज या पाश्चात्य संस्कृति में इस प्रकार के व्रत का मूल्य नहीं है, वहां विग्रह के बाद भी उच्छृंखल यौनाचार चलता है। विवाह पूर्व और विवाहेत्तर यौन सम्बन्धों के कारण, वेश्या गमन एवं परस्त्री गमन के कारण पति-पत्नी में आपसी कलह की स्थिति पैदा होती है और परिवार टूट जाते हैं, इस दृष्टि से स्वदार संतोषव्रत को पारिवारिक जीवन का आधार माना जा सकता है। पाश्चात्य अपसंस्कृति के प्रभाव में आकर पूर्वी राष्ट्र भी अपने उन्मुक्त भोग से उत्पन्न होने वाली समस्याएं जैसे पारिवारिक विघटन, तलाक, यौन-शोषण, बलात्कार, क्रूरतापूर्ण कर्म, यौन व्यापार आदि में लिप्त पाए जा रहे हैं। एड्स जैसी जानलेवा बीमारी का मुख्य कारण इसी को माना जाता है, अत: स्वदार संतोष व्रत न केवल यौन उच्छृंखलता पर नियंत्रण कायम कर सकता है अपितु समाज में शांतिपूर्ण सहवास के वातावरण का निर्माण कर सकता है।

५. अपरिग्रह अणुव्रत : आर्थिक आपाधापी के इस युग में आत्मविस्मृति अपने अति के बिन्दु तक पहुंच गई है, आज सारा समाज परिग्रह की आसक्ति के दुष्परिणाम भुगत रहा है। चारों ओर स्वार्थ की दौड़-भाग मची हुई है, सभी स्वकेन्द्रित चिन्तन कर रहे हैं-मैं सुखी रहूं, मेरा परिवार सुखी रहे-इस आकांक्षा को साकार रूप देने के लिए धनार्जन की अंधी दौड़ में भागता जा रहा है। धनार्जन जो जीवन जीने के लिए उपयोगी साधन था, आज उसने साध्य का स्थान बना लिया है, सारी समस्याओं की जड़ है-धन को केन्द्र में रखकर कार्य करना, फलत: समाज में संग्रह वृत्ति बढ़ रही है। संग्रह वृत्ति के कारण आसक्ति अथवा तृष्णा बढ़ रही हैं, जिसके फलस्वरूप समाज में अपहरण, शोषण, अनियन्त्रित भोग एवं आर्थिक वैषम्य बढ़ रहा है। भगवान ने इन सबकी समाप्ति के लिए मानव जाति को इच्छापरिमाण एवं अपरिग्रह का सन्देश दिया है।
सामाजिक जीवन में जो भी विषमता और संघर्ष वर्तमान में हैं, उन सबके पीछे कहीं न कहीं अनियन्त्रित आवेश, अहंकार, छल-छद्म (कपट-वृत्ति) तथा संग्रह-वृत्ति है, इन्हीं अनियन्त्रित कषायों के कारण सामाजिक जीवन में विषमता और अशान्ति उत्पन्न होती है, आवेश या अनियन्त्रित क्रोध के कारण पारस्परिक संघर्ष, आक्रमण, युद्ध एवं हत्याएं होती हैं, आवेशपूर्ण व्यवहार दूसरों के मन में अविश्वास उत्पन्न करता है और फलत: सामान्य जीवन में जो सौहार्द होना चाहिए, वह भंग हो जाता है। वर्ग या अहंकार की मनोवृत्ति के कारण ऊंच-नीच का भेद-भाव, पारस्परिक-घृणा और विद्वेष पनपते हैं। सामाजिक जीवन में जो दरारें उत्पन्न होती हैं, उनका आधार अहंकार भी होता है। माया या कपट की मनोवृत्ति भी जीवन को छल-छद्म से युक्त बनाती है, इससे जीवन में दोहरापन आता है तथा अन्त: बाह्य की एकरूपता समाप्त हो जाती है, फलत: मानसिक एवं सामाजिक शांति भंग होती है। संग्रह की मनोवृत्ति के कारण शोषण और व्यावसायिक जीवन में अप्रमाणिकता फलित होती है।
महावीर भगवान ने बताया कि ‘‘इच्छा हु आगास समा अणंतिया“ अर्थात् इच्छा आकाश के समान अनन्त है। मनुष्य अपनी संग्रह वृत्ति को इच्छा परिमाणव्रत द्वारा या परिग्रह-परिमाण व्रत के द्वारा नियन्त्रित करे। महावीर ने कभी नहीं कहा कि एक गृहस्थ के लिए अपरिग्रही होना आवश्यक है, उन्होंने परिग्रह की कोई निश्चित सीमा-रेखा नियत नहीं की अपितु उसे व्यक्ति के स्वविवेक पर छोड़ दिया, इसका जीवन्त उदाहरण है-उपासकदशा में वर्णित आनन्द आदि दसों श्रावकों का जीवन, जिन्होंने समृद्ध होने पर भी स्व विवेक से किस प्रकार जमीन-जायदाद, बहुमूल्य वस्तुएं, धन-धान्य, पशु एवं अन्य छोटी से छोटी वस्तुओं की सीमा रेखा निर्धारित की एवं स्वेच्छा से संयम किया, अत: आचार्य तुलसी के अनुसार गृहस्थ के संदर्भ में अपरिग्रह के तीन सूत्र बनते हैं-
१. अर्जन में नैतिकता-अशुद्ध साधन का उपयोग नहीं करना
२. अर्जन की सीमा-अमुक स्थिति तक पहुंचने के बाद व्यवसाय से मुक्त होना
३. अर्जित सम्पत्ति के व्यक्तिगत भोग का संयम करना
इस प्रकार हर गृहस्थ परिग्रह परिमाण व्रत द्वारा न केवल अर्थ के अर्जन एवं भोग का संयम करता है अपितु अर्थ की आसक्ति एवं अहं से भी बचाता है, जिसके परिणाम स्वरूप परिवार-समाज में दहेज को लेकर होने वाली हत्याएं एवं विविध प्रकार के तनाव को विराम मिल सकता है। शोषण, अपराध चेतना, अपहरण, क्रूरतापूर्ण व्यवहार, अमानवीय व्यवहार, आर्थिक वैषम्य से उत्पन्न होने वाली प्रतिक्रियात्मक हिंसा, प्रदर्शन की वृत्ति इत्यादि आज सामान्य जनता में प्रतिशोध की भावना उत्पन्न करती है, इन सारी समस्याओं का समाधान इच्छापरिमाण व्रत से स्वत: हो जायेगा एवं शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व सम्पन्न समाज का सपना साकार हो सकेगा, इस प्रकार हम कह सकते हैं कि श्रावक-जीवन में इच्छा परिमाण एवं कषाय-चतुष्टय पर जो नियन्त्रण लगाने की बात कही गई है, वह सौहार्द एवं सामंजस्यपूर्ण जीवन एवं मानसिक तथा सामाजिक शान्ति के लिये आवश्यक है, उसकी प्रासंगिकता कभी भी नकारी नहीं जा सकती।
तीन गुणव्रत : पांच अणुव्रत के बाद श्रावक के लिए तीन गुणुव्रत बतलाए गए हैं।
१. दिग् व्रत- गमनागमन के लिए क्षेत्र का सीमाकरण
२. भोगोपभोग – खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने आदि के काम आने वाली वस्तुओं का संयम
३. अनर्थदण्डव्रत- बिना प्रयोजन हिंसा से बचना एवं अनावश्यक हिंसा का परित्याग करना
आचार्य तुलसी के शब्दों में जैसे तम्बू तानने के लिए जमीन में कुछ खूंटिया गाड़नी पड़ती हैं, खूंटियों के आलम्बन बिना तम्बू टिक नहीं सकता, उसी प्रकार इच्छापरिमाण एक तम्बू है, उसे टिकाने के लिए तीन खूंटियों की अनिवार्यता है, इस प्रकार इन तीन व्रतों या नियमों को स्वीकार किए बिना इच्छाओं को सीमित करने का संकल्प फलित नहीं हो सकता।

६. दिग्व्रत- साम्राज्यवादी मनोवृत्ति के दो रूप हैं-क्षेत्र-विस्तार और व्यापार विस्तार। प्राचीन काल में क्षेत्रीय उपनिवेशवाद का प्रचलन था, आज उसका स्थान व्यावसायिक उपनिवेशवाद ने ले लिया है। वर्तमान परिस्थितियों में सामान्यत: कोई भी राष्ट्र दूसरे राष्ट्र पर सीधा अधिकार करना नहीं चाहता, किन्तु व्यापार पर अपना कब्जा करने के अवसर खोजता रहता है। बहुउद्देशीय कम्पनियों की घुसपैठ भी आर्थिक साम्राज्य स्थापित करने के लक्ष्य से हो रही है, ऐसा माना जाता है, किसी भी राष्ट्र में व्यावसायिक प्रभुत्व के विस्तार को रोकने में दिगव्रत एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। दिग् परिमाण व्रत स्वीकार करने वाला अपने अर्थोपार्जन एवं विषयभोग का क्षेत्र छहों/चारों दिशाओं में निर्धारित करता है, जिसके फलस्वरूप अर्थलोलुपता एवं विषय तृष्णा की पूर्ति हेतु देश-विदेश में भटकन की मनोवृत्ति पर स्वत: नियंत्रण स्थापित हो जाता है। यद्यपि वर्तमान तीव्र संचार तकनीकी के युग में कहा जा सकता है कि इस प्रकार के व्रत की आज क्या प्रासंगिकता हो सकती है, इस व्रत के द्वारा अनियंत्रित आकांक्षाओं पर अंकुश लगता है, स्वदेश प्रेम एवं स्वावलम्बन का विकास होता है, अनावश्यक हिंसा एवं परिग्रह पर स्वत: नियंत्रण हो जाता है। निर्धारित क्षेत्र से बाहर यातायात की सीमा करने से उन क्षेत्रों में होने वाले समस्त आरम्भ-समारंभ के पाप से न केवल व्यक्ति बचता है अपितु सन्तोष वृत्ति का विकास करता है, जो सुखी जीवन का आधार सूत्र है।

७. भोगोपभोग परिमाण व्रत : श्रावक के व्यक्तिगत जीवन में स्वेच्छा से भोगोपभोग वृत्ति पर अंकुश लगाना ही इस व्रत का मूल उद्देश्य है। आज के भोगवादी संस्कृति के युग में इस व्रत की उपयोगिता को कोई विचारशील व्यक्ति अस्वीकार नहीं करेगा। आज भोगोपभोग सामग्री की जितनी विधाएं विकसित हुई हैं, उस भूल-भूलैया में व्यक्ति बाजार में जाने के बाद जेब खाली किए बिना नहीं लौट पाता है। छोटी से छोटी साबुन से लेकर बड़ी से बड़ी वस्तुओं की इतनी विविधताएं है कि व्यक्ति का दिमाग चकरा जाता है क्या खरीदें और क्या न खरीदें? आनन्द श्रावक ने किस प्रकार विलेपन, हस्त प्रोच्छन, मुखवास जैसी छोटी-छोटी वस्तुओं का संयम कर स्वादवृत्ति, आसक्ति एवं उच्छृंखल भोग पर अंकुश लगाया, इस व्रत से स्वादवृत्ति के कारण बढ़ने वाली बीमारियों पर रोकथाम संभव है एवं अनावश्यक धारण करने के वस्त्र, दैनन्दिन प्रयोग में आने वाली नई साधन-सामग्री बर्तन, चद्दर, फ्रीज इत्यादि सारी सुविधाजनक सामग्री के संग्रह एवं आसक्ति पर नियंत्रण होगा एवं अभावग्रस्त को पर्याप्त सामग्री उपलब्ध हो सकती है।
जैन आचार्यों ने बड़े ही मनोवैज्ञानिक तरीके से यह भी स्पष्ट करने का प्रयास किया कि गृहस्थ को समाज में जीने के लिए आजीविका का उपार्जन अनिवार्य है, पर जिस व्यवसाय में महाहिंसा होती है जिन्हें १५ कर्मादान नाम से जाना जाता है, वैसे व्यवसाय से आजीविका अर्जित करना निषिद्ध माना गया है। महावीर द्वारा १५ महाहिंसात्मक व्यवसायों का निषेध वास्तव में आज के संदर्भ में देखा जाये तो बड़ा प्रासंगिक प्रतीत होता है, यहां मात्र उसकी वर्तमान युग में किस प्रकार पर्यावरण प्रदूषण से उत्पन्न होने वाली समस्याओं से निजात पाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका है उसका विश्लेषण किया जा रहा है। वनकर्म अर्थात् जंगल कटवाने का व्यवसाय, अंगार कर्म में अग्नि प्रज्ज्वलित करके किये जाने वाले सारे व्यवसायों को निषेध किया गया है। आज बड़े-बड़े कारखानों में महाहिंसा के साथ-साथ निकलने वाले धूएं से जिस प्रकार शहरों में वायु प्रदूषण बढ़ रहा है एवं ओजोन की छत में भी छेद बढ़ता जा रहा है, साथ ही फर्नीचर साज-सज्जा के लिए जंगलों की कटाई जिस कदर से हो रही है यह अनुमान लगाया जा रहा है कि भविष्य में वर्षा का स्रोत सूख जाने से तीसरा विश्व युद्ध पानी के लिए ही होगा। साथ ही दन्त, रस, विष, केश एवं यन्त्रपीड़न आदि व्यवसायों में धनार्जन के लिए जिस क्रूरतापूर्ण बर्बर तरीके से पशुओं का कत्ल एवं पशुओं पर परीक्षण किया जा रहा है, वह निश्चित ही मानव जाति के लिए महाकलंक है। अनेक प्रजातियां प्राणियों की आज विलुप्त हो चुकी है एवं अनेक विलुप्ति के कगार पर है। भगवान महावीर ने ठीक ही कहा कि जो षड्जीवनिकाय के अस्तित्व को अस्वीकार करता है, वह अपने अस्तित्व को ही अस्वीकार करता है। परस्पर सभी जीव अपने अस्तित्व के लिए एक दूसरे पर निर्भर है। इस अन्तर्निभरता के सूत्र को विस्मृत करने के कारण ही आज स्वयं मानव अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है, इसीलिए आजकल Human Survival की बात पर गंभीरता से विचार-विमर्श एवं मानव अस्तित्व की सुरक्षा हेतु पर्यावरण प्रदूषण पर सरकार द्वारा रोकथाम के विविध आयाम अपनाए जा रहे हैं, पर जब तक मानव का स्वनियंत्रण काम नहीं करेगा, मात्र बाह्य नियंत्रण से वांच्छित परिणाम की आशा करना अशक्य है, इस प्रकार आज भोगोपभोगव्रत की प्रासंगिकता हस्ताम्लकवत् स्वत: सिद्ध है।

८. अनर्थदण्डव्रत : मानव अपने जीवन में ऐसे अनेक कर्म करता है जिसके फलस्वरूप उसका अपना कोई हित साधन नहीं होता, इस निष्प्रयोजन, अनावश्यक कर्म का यहां निषेध किया गया है, आजीविका चलाने के लिए जो पापकारी प्रवृत्ति द्वारा हिंसा करनी पड़ती है वह यहां अर्थदण्ड है और निष्प्रयोजन ही केवल प्रमाद, कुतूहल, अविवेक, अज्ञानता के वशीभूत होकर चलते हुए अनावश्यक पत्तियों को तोड़ना, अपने मनोरंजन के लिए मुर्गे, अश्व, बैल आदि में लड़वाना अनावश्यक हिंसा है।
आचार्य हेमचन्द्र ने प्रमाद जनित अनर्थ हिंसा का उल्लेख करते हुए कहा है कि अश्लील गीत, नृत्य-नाटक आदि (सिनेमा) देखना आसक्तिपूर्वक विषय कषाय वर्धक साहित्य पढ़ना, जूआ खेलना मद्यपान करना, निष्प्रयोजन झूले में झूलना (इससे वायुकाय हिंसा), प्राणियों को परस्पर लड़ाना, बिना कारण सोये पड़े रहना एवं निरर्थक वार्तालाप करना-ये सभी प्रामादाचरण है। अनर्थ हिंसा एवं निष्प्रयोजन प्राणघात से बचने के लिए महावीर ने इस व्रत के माध्यम से अप्रमत्तता का सूत्र दिया।
आचार्य समन्तभद्र ने तो इतनी सूक्ष्मता से इस व्रत को रत्नकरण्ड श्रावकाचार में वर्णन किया है कि निरर्थक जमीन खोदना, अग्नि प्रज्ज्वलित करना, पंखा करना, वनस्पति का छेदन-भेदन करना (फल एवं हरियाली पत्तीदार वनस्पति आदि जीवों की विवाह आदि में विविध आकृति बनाना), पानी का दुरूपयोग (स्नान, हाथ धोने में एवं बर्तन एवं वस्त्र प्रक्षालन में) घी, तेल, दूध आदि के बर्तन खुले रख देना (जिसमें जीवों के गिर जाने से अनावश्यक प्राणिघात के भागीदार बनते हों), लकड़ी, पानी आदि को बिना देख-भाल के काम में लेना-ये सभी प्रमाद से उत्पन्न हिंसा है, जो आज की आधुनिक जीवन शैली के अंग बन चुके हैं, इस व्रत के माध्यम से महावीर ने संपूर्ण जीवनशैली को संयमित करने का प्रयास किया है, इससे न केवल स्वयं का निष्प्रयोजन पाप से बचाव होगा अपितु जागृत मानवीय व्यवहार का विकास होगा एवं संयम चेतना के विकास से अभावग्रस्त को उचित साधन सामग्री उपलब्ध हो सकती है, इसी व्रत के अन्तर्गत गृहस्थ से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अशुभ चिन्तन, पापकर्मोपदेश, हिंसक उपकरणों के दान एवं उपरोक्त प्रमादाचरण से बचे।
श्रावक के उपर्युक्त पांच अणुव्रतों एवं तीन गुणव्रतों का बहुत कुछ सम्बन्ध हमारे सामाजिक जीवन से हैं। मानव समाज में आज भी ये सभी चारित्रिक विकृतियां विद्यमान हैं और एक सभ्य समाज के निर्माण के लिए इनका परिमार्जन आवश्यक एवं अति प्रासंगिक हैं। गृहस्थ के शेष चार शिक्षाव्रतों में सामायिक, दैशावकाशिक, पौषधोपवास का सम्बन्ध विशिष्ट रूप से वैयक्तिक जीवन से हैं। यद्यपि अतिथि संविभाग व्रत की व्याख्या पुन: सामाजिक संदर्भ में की जा सकती है।

९. सामायिक व्रत : सामायिक समभाव की साधना है। गृहस्थ भी समता की आराधना से वंचित न रहे, इसलिए नौंवे व्रत का विधान है। एक मुर्हूत्त तक आत्मचिन्तन, स्वाध्याय-ध्यान-जप आदि के द्वारा समता की आराधना करने से प्रवृत्ति एवं निवृत्ति में सन्तुलन स्थापित होता है, मानसिक तनाव को विराम मिलता है, चित्तवृत्ति का शोधन होने से वास्तविक शान्ति का अनुभव होता है। आज हमारी सामायिक की साधना में समभावरूपी अन्तरात्मा मृतप्राय होती जा रही है और वह एक रूढ़-क्रिया मात्र बन कर रह गई है। सामायिक कत्र्ता के जीवन व्यवहार में आवेश नियंत्रण का अभाव एवं आसक्ति, अधीरता के कारण सामायिक की छवि भावी पीढ़ी पर प्रभावी नहीं हो रही हैै। यह भगवान महावीर द्वारा गृहस्थ के लिए निर्धारित धर्माराधना की ऐसी प्रायोगिक पद्धति है जो अन्य धर्म दर्शन में दुर्लभ है, इस व्रत को प्रभावी बनाने के लिए कोई उपयुक्त पद्धति विकसित की जाए, यह युगीन अपेक्षा है। इसी अपेक्षा को मद्देनजर रखकर आचार्य तुलसी ने अभिनव सामायिक की पद्धति प्रदान की। अगर वह जीवन का अंग बन जाए तो सन्तुलित व्यक्तित्व का निर्माण हो सकता है, इस व्रत के माध्यम से मानसिक सन्तुलन की साधना, मन-वचन और काया के सामंजस्य की साधना एवं विधायक भावों के विकास की साधना से न केवल पारिवारिक शांति कायम हो सकती है अपितु सामाजिक जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में सामंजस्य स्थापित करने की योग्यता अर्जित हो सकती है अन्यथा छोटी-छोटी परिस्थितियों में अपने मानसिक एवं भावनात्मक सन्तुलन को खोकर मानव अपशब्द प्रयोग एवं मारपीट आदि घरेलु हिंसा में तत्पर हो जाता है और आत्महत्या जैसा दुष्कर्म भी कर बैठता है एवं अकल्पनीय अकरणीय कार्य कर लेता है एवं फिर पश्चाताप करता है। सारे अपराध आवेश के अनियंत्रण और इसी समभाव की साधना के अभाव में होती है। अत: सर्वांगीण शान्तिपूर्ण स्वस्थ परिवार एवं समाज संरचना में सामायिक व्रत की उपयोगिता को नकारा नहीं जा सकता।

१०. देशावकाशिक व्रत : देश का अर्थ है-छोटा या अंश, इस व्रत में अल्पकालिक तथा छोटे-छोटे नियम के लिए अवकाश रहता है, जो लोग एक साथ दीर्घकालिक त्याग नहीं कर सकते, उनके लिए यह अभ्यास का सुन्दर एवं सरल उपक्रम है। आज के युग में किसी में यदि बुरी लत पड़ गई तो उसे इस प्रकार के व्रत के माध्यम से क्रमश: उसकी बुरी आदत से निजात दिलाया जा सकता है। धीरे-धीरे थोड़े-थोड़े समय के लिए किए गए त्याग भविष्य में व्यक्ति के चरित्र विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं, इस व्रत से न केवल भोग्य पदार्थों की असारता समझकर अपना स्वास्थ्य सुधरेगा अपितु मानसिक शक्ति भी दृढ़ होगी एवं आत्म संयम से आत्म बल बढ़ेगा।

११. पौषधोपवास व्रत : जो गृहस्थ अध्यात्म साधना में आगे बढ़ना चाहते हैं वे इस व्रत के अन्तर्गत उपवासपूर्वक विषय-वासनाओं से उपरत होकर श्रावक जीवन में ही श्रमण वत् जीवन का आस्वादन हेतु एक दिन-रात अथवा रात्रिकालिन पौषध स्वीकार कर आत्मा की उपासना करते हैं। भगवान महावीर ने अष्टमी-चतुर्दशी तिथियों पर इस व्रत की आराधना पर जोर दिया था, पर आज के संदर्भ में हर क्षेत्र में सप्ताह में एक दिन सभी को अवकाश प्राप्त होता है उस दिन का सदुपयोग पौषध व्रत के माध्यम से आत्मसाधना में व्यक्ति स्वदोष दर्शन की साधना से अपने चरित्र को शनै:-शनै: परिष्कृत कर अणुव्रती इहलोक एवं परलोक दोनों को सफल बनाने का प्रयास करता है।

१२. अतिथि संविभागव्रत : यह व्रत गृहस्थ के लिए सामाजिक दायित्व का सूचक है, संयमी व्यक्ति अकिंचन होते हैं उनके पास धनवैभव नहीं होता, वे पचन-पाचन की क्रिया से मुक्त होते हैं एवं भ्रामरी भिक्षाचरी से अपना जीवन चलाते हैं, उनके संयम में, भोजन, पानी, वस्त्र आदि अपनी वस्तुओं का संविभाग कर साधु को सहयोग देना इस व्रत का उद्देश्य है, इसीलिए महाभारतकार ने भी गृहस्थ आश्रम को शेष तीन आश्रमों से श्रेष्ठ बतलाया है क्योंकि तीनों ही आश्रम इसी पर टिके हुए हैं। संयमी को निर्दोष आहार देने से अपूर्व कर्मों की निर्जरा होती है एवं शुभ पुण्य के अर्जन के साथ-साथ शुभायुष्य का बंध होता है।
गृहस्थ पर अपने परिजनों के उदरपोषण के दायित्व के साथ-साथ साधक एवं समाज के असहाय एवं अभावग्रस्त व्यक्तियों के भरण-पौषण का दायित्व भी है। हमारा जीवन पारस्परिक सहयोग एवं सहभागिता के आधार पर ही चलता है। दूसरों के सुख-दु:ख में सहभागी बनना एवं अभावग्रस्त पीड़ितों एवं दीन-दुखियों का तन-मन-धन से सहयोग करना भी गृहस्थ का अनिवार्य धर्म है, इस व्रत द्वारा गृहस्थ में समाज सेवा, दान चेतना एवं अर्जन के साथ विसर्जन की चेतना का जागरण होता है एवं साथ ही अनासक्ति का विकास होने से आत्मोत्थान होता है एवं समाज में सदाशयता, सामाजिक सम्बन्धों में मधुरता एवं साधार्मिक वात्सल्य का विकास होता है।

उपसंहार : आज पूरे विश्व में ‘‘Life Style’’ के बारे में चिंता या चिन्तन किया जा रहा है। संसार में जो बदलाव आएगा, उससे जैन लोग भी अप्रभावित नहीं रह पाएंगे। मनुष्य आज अनेक समस्याओं से घिरा हुआ है, कुछ समस्याएं शाश्वत होती है, उनका अस्तित्व तीनों कालों में रहता है। कुछ समस्याएं सामयिक होती है, वे समय-समय पर बदलती रहती हैं। उपरोक्त विश्लेषण से यह बात समझ में आ जाती है कि बारह अणुव्रतों के सम्यक पालन से शाश्वत एवं सामयिक दोनों समस्याओं का समाधान संभव है। व्रतों का पालन कर व्यक्ति स्वयं सुखी और स्वस्थ जीवन जीयेगा एवं परिवार-समाज में शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की स्थापना कर स्वस्थ एवं शांतपूर्ण समाज संरचना में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है। अस्तु जैन धर्म के श्रावकाचार की उपर्युक्त समीक्षा करने के पश्चात् यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन श्रावकों के लिए महावीर द्वारा प्रतिपादित आचार के नियम एवं सर्वांगीण जीवन शैली के १२ सूत्र, हर देश, हर व्यक्ति, हर समाज में एवं हर युग ये प्रासंगिक सिद्ध होते हैं।

-समणी डॉ. शशिप्रज्ञा

सहायक आचार्य

जैन विश्व भारती विश्वविद्यालय, लाडनूं

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