जीवन मोक्ष: सत्संग, समर्पण, और संत
सन्त और सत्संग के बिना यह दुर्लभतम मानव जीवन भी व्यर्थ है जो सन्तों की कीमत समझ लेते हैं, उनके भीतर से यह वचन निकलता है- ‘‘जो दिन साधु न मिले, वो दिन होय उपास’’ उन्हें सत्संग के बिना उपवास-सा महसूस होता है।
सत्संग आत्मा की खुराक है। आत्मा की व्यवस्था सिर्फसंतकृपा से ही हो सकती है, अपितु जिस शरीर में भव्यात्मा विराजमान है, उस शरीर की व्यवस्था तो माँ-बहन, बेटी, पत्नी या बेटा कोई भी कर सकता है, जब हम संतों के समीप जाते हैं, उनके सत्संग में मन लगाकर बैठते हैं तो वे हमें ‘‘ज्ञानामृत भोजन’’ अर्थात् ज्ञान का अमृत परोसते हैं, अगर हम उसे श्रद्धा से ग्रहण करते हैं और धीरे-धीरे आचरण में उतारते है तो हमें दुगुना लाभ मिलता है, हमारी ज्ञान की प्यास खुलती है और आचरण से मन शुद्ध एवं शरीर स्वस्थ बनता है।
ज्ञान पिपासा है जो हमें सन्त की तलाश करायेगी। प्यासा व्यक्ति पानी एवं ज्ञानी ज्ञान की तलाश करता है, यदि हमें ज्ञान होगा तो सन्त की तलाश करेंगे और सुराहीरुपी सन्त के समक्ष प्याला बनकर समर्पित हो जाएंगे, समर्पित होने से ही प्याला भरता है और प्याला भरे होने से ही प्यास बुझती है। आत्मा की भूख और प्यास मिटाने के लिए सन्त समागम और प्रभुभजन अति आवश्यक है। सत्संग और प्रभु भजन जीवन में बड़ी दुर्लभता से मिलते हैं। सत्संग मिलने का मतलब है – सन्तों का दीदार होना और सन्तों से प्यार होना। दीदार में सिर्फ दर्शन होता है और प्यार में सम्पूर्ण समर्पण। समर्पण के साथ किया गया सत्संग ही जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन लाता है। समर्पण से मिट्टी के द्रौणाचार्य से भी एकलव्य की शिक्षा और सिद्धि प्राप्त हुई थी।
- विष के प्याले में मीरा बाई को श्री कृष्ण के दर्शन हुए थे, जिसे जो भी मिलता है, समर्पण से मिलता है अहंकार से नहीं।
- अहंकार से मिलता है सिर्पâ अंधकार और समर्पण से मिलता है प्रकाश।
- यदि हम सन्त चरणों में समर्पित होते हैं तो अन्त:करण प्रकाशित हो जाता है जैसे कि माटी समर्पित होती है तो गागर बनती है, बूंद समर्पित होती है तो सागर बनती है।
- संसारी गुरुचरणों में समर्पित होता है तो सन्त बनता है, सन्त प्रभुचरणों में समर्पित होता है तो अरिहन्त बन जाता है।
- समर्पण का सूत्र है स्वयं को अर्पित कर देना, जो भी समर्पित हुआ, वह पा गया।
- यदि हम मार्ग भूले भी तो समर्पण का प्रकाश सही मार्ग पर ले जायेगा और सत्य से मिला देगा।
- यदि हमें सत्य को पाना है तो स्वयं को सन्त-चरणों में समर्पित करना होगा क्योंकि संत ही साधन है प्रभु-प्राप्ति का।
- ‘गुरु’ मानवता की मुंडेर पर चारित्र्य का चिराग है। साधना के शिखर पर सिद्धत्व की सृष्टि है। आत्मा की भूमि पर अमृत की वृष्टि है।
- गुरु ही हमारी पिपासा को देख-परखकर हमें मोक्ष मार्ग पर चलने को लाभान्वित कराता है, मार्गदर्शन करता है और मोक्ष का परम फल, परम प्रसाद दिला देता है। मगर पथ पर तो हमें स्वयं ही चलना होता है।
- मोक्षमार्ग पर चलने के लिए हमें श्रद्धा, ज्ञान एवं आचरण की तीव्र आवश्यकता है। सच्ची श्रद्धा, सच्चा ज्ञान तथा सच्चा आचरण ही हमें मोक्ष के मार्ग पर ले जायेगा, इसलिए कहा गया है