संसार का आठवाँ आश्चर्य जैन साधु

हमारे पूर्व जन्म की पुण्यायी के कारण हम इस जन्म में जैन कुल में पैदा हुए, जैन कहलाये तथा हमें जैन-सन्तों का सान्निध्य प्राप्त हुआ। हमारे साधु-साध्वियों को संसार का आठवां आश्चर्य कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। गर्मी हो या सर्दी, सड़क हो या कच्चा रास्ता, कंकर हो या कांटे, रात्रि भोजन व कच्चे पानी का त्याग, बरसात में छाता नहीं, ओढ़ने के लिए चादर या कम्बल नहीं, रात्रि में मच्छर काटते हैं, बिजली का उपयोग नहीं, दो-तीन जोड़ी पतले कपड़ों से सम्पूर्ण जीवन व्यतित करना तो आश्चर्य ही है। हम एक दिन भी इस तरह का जीवन जी नहीं सकते, इतनी कठिन जीवन शैली तो शायद ही किसी अन्य धर्माचार्यों में मिलेगी इसलिए जैन साधु-संतों का जीवन विश्व के लिए अविश्वसनीय लगता है।
इस भौतिक युग में हमारे साधु-संतों के प्रवचन व शिक्षा का ही परिणाम है कि आज हम सिर ऊँचा करके चल सकते हैं अन्यथा अभी तक गहरी खाई में गिर गये होते, हम इन्हें कोटिश: वन्दन करते हैं, इन्होंने ही संसार लांगकर हमें सही मार्ग दिखाने, हमारी जीवन नैय्या पार उतारने तथा हमें इन्सान बनाने का कार्य किया है। जैन धर्म में अनेक ऐसे-ऐसे संत मुनिराज हुए हैं जिनके त्याग, तपस्या व बलिदान की बातें सुनें तो हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। महावीर के अनुसार उपदेश वही देना चाहिए जिसका स्वयं के जीवन के साथ सीधा तालमेल हो और जिन्होंने भगवान के बहुमूल्य उपदेशों की कभी अवहेलना नहीं की। आचरण शुद्धि का ध्यान रखते हुए क्रियावान संत कहलायें। गाँव हो या शहर, धर्म स्थान पुराना हो या आधुनिक, बस अपना डेरा डाला और आडम्बर रहित चातुर्मास में मानवता का पाठ पढ़ाते हुए धर्म गंगा बहाते थे, एक यूरोपीयन लेखक ने लिखा है कि मैंने सब धर्मों के नियमों को देखा है पर जैन धर्म में महावीर स्वामी के बनाए संघ धर्म के मुकाबले का और कोई सिद्धान्त नहीं जचता। आज परिस्थितियां बदल गई हैं, एक अलग ही भूगोल देखने को मिलता है। समाज में धन की बढ़ोत्तरी के साथ ही आडम्बर का प्रवेश भयानक मोड़ ले रहा है। चातुर्मास में खर्चे लाखों-करोड़ों तक पहुँच गये हैं। जैन धर्म में अनेक सम्प्रदाय होने के कारण इस क्षेत्र में भी प्रतिस्पर्धा ने अपनी नींव जमा ली है। धन कमाने में प्रतिस्पर्धा तो समझ में आती है लेकिन व्यर्थ में धन गवाने की प्रतिस्पर्धा आश्चर्यजनक लगती है, ऐसा लगता है धर्म व समाज पर धनपतियों का एकाधिकार हो गया है तथा सारी सत्ता उनके कदमों में सिमट गई है, अपनी जबरन प्रतिभा को उभारने के लिए धर्म संस्थानों का गलत उपयोग हो रहा है। आपके पास पैसा है तो आप भगवान के चरण छू सकते हैं, धार्मिक कार्यक्रमों में आगे की कतार में बैठ सकते हैं या फिर बड़े साधु-संतों के नजदीक जा सकते हैंं, शायद मेरी यह बात गलत लगेगी, लेकिन मैंने जो प्रत्यक्ष देखा व सुना है उसी का वर्णन कर रहा हूँ।
भारत में होनेवाले चातुर्मास में सालाना खर्चों का अनुपात अगर २०० करोड़ भी आंके और उसमें से ५० प्रतिशत जनहित कार्यों में लगाया जाये तो प्रतिवर्ष एक भव्य अस्पताल या २०-२५ पाठशालाएँ या कोई रिसर्च सेंटर या फिर हजारों स्वधर्मी भाई-बहनों को मदद मिल सकती है।
मानवता के मसीहा महावीर के उपदेशों में कहीं भी आडम्बर की चर्चा नहीं मिलती है। वे एक योगी थे लेकिन हम भोगी बन गये हैं, हमारी सारी धार्मिक प्रवृत्तियाँ विद्रोह को निमंत्रण दे रही है। आज हमें जरुरत है अपनी करनी, कथनी में समानता लाने की, महावीर को श्रद्धा से मन में बसाकर, आडम्बरों की होली जलाकर, दीपावली के दीप मन में प्रज्ज्वलित करने की। अन्यथा भविष्य में ऐसे दुष्परिणाम सामने आयेगें जिससे समाज का ढांचा चरमरा जायेगा। हमारे वरिष्ठ संतों ने समाज के लिए महत्वपूर्ण योगदान देकर आदर्श परम्पराओं की सुदृढ़ नींव रखी, उनको बरकरार रखना हमारे वर्तमान संत मुनिराजों का कत्र्तव्य बन जाता है जिससे जैन धर्म और नयी ऊँचाईयां छू सके, मैं उनसे करबद्ध प्रार्थना करता हूँ कि धर्म के नाम पर तथा समाज में हो रहे आडम्बर को अति शीघ्र रोकने का प्रयास करें, आपके उपदेश संजीवनी का काम करते हैं, आज भी साधु-साध्वियों के प्रति समाज में श्रद्धा का भाव है, अपने स्वार्थ की होली जलाकर जैन समाज को एक नई दिशा व प्रेरणा प्रदान करने का कष्ट करें, जैन धर्म को एक राष्ट्र धर्म बनाने के सपने को साकार करें। सादर जय जिनेन्द्र!

चातुर्मास क्यों

चातुर्मास स्व पर कल्याण के लिए एक सुनहरा समय है। चातुर्मास साधुसाध्वी, श्रावक-श्राविका हेतु धर्म आराधना, साधना व धर्म प्रेरणा संदेश के लिए विशिष्ट महत्व रखता है। वर्ष भर में तीन चातुर्मासिक पर्व आते हैं। आषाढ पूर्णिमा या (चतुर्दशी) कार्तिक पूर्णिमा व फाल्गुन पूर्णिमा इन तीनों में आषाढ़ी पुर्णिमा वर्षाकालीन का विशेष महत्व है। ८ माह पदयात्रा विचरण करने वाले संत-साध्वी वर्षावास हेतु एक ही स्थान पर चार माह के लिए स्थिर हो जाते हैं, इस समय में साधु-साध्वी आत्मकल्याण, ज्ञान, दर्शन. चारित्र, तप की आराधना व जीवों की रक्षा तथा धर्म अनुष्ठानों की विशेष प्रेरणा देते हैं, वैसे तो मानव को हर पल, हर क्षण धर्म साधना करनी चाहिए लेकिन विभिन्न दायित्वों के कारण बारह माह धर्म आराधना न कर सके उनके लिए चातुर्मास वरदान स्वरुप है, जैसे आषाढ़ के बादलों को देखते ही मयूर गर्जन सुनने के लिए उत्कंठित हो जाता है, वैसे ही चातुर्मास के निकट आते ही श्रद्धालुजन, भक्तजन भगवान की वाणी को श्रवण व साधना हेतु उत्सुक हो जाते हैं।

व्यवहार में भी चातुर्मास का अपना विशेष महत्व है, इन दिनों हुई बरसात मानव को पूरे साल भर सरसता प्रदान करती है, जैसे कि एक राजा ने अपने सभासदों में प्रश्न किया कि बारह में से चार गए तो पीछे क्या बचेगा? कईयों ने उत्तर दिया-आठ, किन्तु राजा संतुष्ठ नहीं हुए, राजा ने महामंत्री से पूछा तो हाथ जोड़कर कहा कि- अन्नदाता बारह में से यदि चार चले गये तो पीछे कुछ भी नहीं बचेगा। राजा ने पूछा-यह कैसे? मंत्री ने समाधान दिया कि महाराज एक वर्ष में बारह महिनों में वर्षा ऋतु के चातुर्मास के चार महीने निकाल दिये जायें तो शेष शून्य ही रहेगा। यदि चातुर्मास के चार माह पानी नहीं बरसा तो शेष आठ माह में हाहाकार, त्राहि-त्राहि मच जाएगी क्योंकि एकेन्द्रिय से पांचेन्द्रिय तक के सभी जीवों के लिए जल आवश्यक है। मंत्री के उत्तर से राजा व सभी सभासद संतुष्ट हुए, जैसे जल के कारण ही चातुर्मास का महत्व बढ़ता है उसी प्रकार भगवान की वाणी रुपी वर्षा धर्म साधना, आराधना से ही चातुर्मास का महत्व बढ़ता है। क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष की ज्वाला से तपते हुए मन की धरती को शीतल और शांत बनाएंगे। हिंसा, स्वार्थ, वासना की गंदगी को दूर करने का प्रयास करेंगे। धर्म में अडिग रहते हुए सुख-दु:खों में समभाव रखेंगे। प्रभु वचनों को सद्गुरु मुख से श्रवण कर, अपने जीवन की दिशा बदलेगें।
आत्म शोधन कर अपने प्रकृति स्वभाव में परिवर्तन लायेंगे और दुर्गुणों का नाश कर सद्गुणों का बीजारोपण करेंगे। व्यसन मुक्त संस्कार युक्त जीवन के साथ हर वर्ग को जोड़ते हुए धर्म के सही मर्म को समझाते हुए स्वाध्याय, ध्यान, तपस्या की ज्योति जलायेगें, तभी चातुर्मास का यह सुनहरा समय सार्थक होगा, तभी परम पद प्राप्ति की मंजिल की ओर अग्रसर हम हो पायेंगे।

-महेश नाहटा जैन

नगरी (छ.ग.)

मो. ०९४०६२०१३१५१

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