तेरापंथ स्थापना दिवस पर कहा रहे

तेरापंथ की फुलवारी सदा हरी-भरी - शासनश्री मुनि विजय कुमार

यह जगत् द्वन्द्वात्मक है, अनेक प्रकार के विरोधी द्वन्द्व हमें यहां देखने को मिलते हैं, दिन-रात, सर्दी-गर्मी, मृदु-कठोर आदि द्वन्द्वों की तरह ही कभी पतझड़ तो कभी वसंत के दर्शन यहां होते रहते हैं, यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जिसे कोई रोक नहीं सकता, व्यक्ति और समूह दोनों में यह विविधता दिखाई देती है, अनुकूल परिस्थिति घटित होने पर व्यक्ति को लगता है ‘अच्छे दिन आ गये’ और प्रतिकूलता घटित होने पर लगता है ‘अच्छे दिन चले गये’। समय के बदलाव के साथ व्यक्ति की सोच में भी बदलाव परिलक्षित होता रहता है। तेरापंथ एक धर्मसमुदाय है, इसकी प्राण -प्रतिष्ठा महान् तपस्वी आचार्य भिक्षु के हाथों हुई। संघ चिरजीवी व स्वस्थ बना रहे इसके लिए उन्होंने इस धर्मसंघ की नींव में मर्यादा और अनुसाशन के दो ऐसे पीलर लगाये कि ये आने वाले हर खतरे से संघ को सुरक्षित रख लेते हैं, एक आचार्य के नेतृत्व में सारी सत्ता सौंपकर उन्होंने धर्मसंघ पर महान् उपकार किया। आचार्य की जागरूकता ही समूचे संघ को निश्चिन्तता व स्वस्थता प्रदान करती है, संघ के सदस्यों में निश्चिन्तता व आश्वासन ही संघ की जीवन्तता का सबल प्रमाण है। संघ षाट्त्रिशिका में आचार्य श्री तुलसी ने लिखा हैविश्वस्ता यत्र स्वस्था:स्यु: रुग्णा वृद् धास्तपस्विन:।सुश्रूषया समाश्चस्ता: स संघ:संघ उच्यते।।

जिस संघ में रुग्ण, वृद्ध और तपस्वी संत-सती अपनी सेवा के लिए निश्चिन्त रहते हैं, उन्हें अपने सुखद भविष्य का भरोसा होता है, वे समाधिस्थ होते हैं, वास्तव में वही संघ विशिष्ट है। तेरापंथ में दीक्षित होने वाले व्यक्ति को निश्चिन्तता का वरदान सहज प्राप्त हो जाता है, यहां सबकी चिंता का भार गुरु अपने पर ले लेते हैं, शिष्य के सुख-दु:ख मानकर चलते हैं। रामायण का एक प्रसंग है, कहते हैं कि राम-लक्ष्मणसीता वनवास संपन्न कर अयोध्या आये तब कौशल्याजी ने लक्ष्मण से पूछा- ‘तेरे पर शक्ति का प्रहार कहां हुआ था’ लक्ष्मण बोले- ‘वेदना राघवेन्द्रस्य केवलं व्रणिनो वयम’ मेरे तो केवल घाव हुआ था, वेदना तो बड़े भाई राम को हुई थी, यही स्थिति ‘तेरापंथ’ में देखने को मिलती है। शारीरिक रुग्णता संत-सतियों को होती है किंतु उसकी वेदना का अनुभव संघ के नायक आचार्य को होता है, वे किसी की कठिनाई सुनते ही उसके निवारण के लिए प्रयत्नशील हो जाते हैं, मैं आज से लगभग ५० वर्ष पहले की अपनी ही बात यहां प्रस्तुत कर रहा हूँ, मेरी दीक्षा का दूसरा वर्ष चल रहा था, उस समय गुरूदेव तुलसी की दक्षिण यात्रा चल रही थी, तेज गर्मी का मौसम था, मुनि हीरालाल जी स्वामी रात के समय संतों को सोने की जगह बता रहे थे, मुझे जहां सोने का स्थान बताया, वहां बेहद गर्मी थी, मैंने मुनिश्री से दूसरे स्थान के लिए निवेदन किया किंतु उन्होंने अपनी मजबूरी बता दी। गुरुदेव तुलसी के कानों में मेरा व मुनिश्री का संवाद पड़ा।

पूज्यवर ने मुनि हीरालाल जी को आवाज लगाई और कहा कि हीरालाल! मेरे पास यह थोड़ी जगह खाली है उस विजय कुमार को मेरे पास सुला दें, मैंने संकोच अनुभव किया पर गुरुदेव की वत्सलता ने मुझे वहां सोने के लिए मजबूर कर दिया, यह है गुरु की अतिशायी कृपा, जो शिष्यों की पीड़ा को धो डालती है। वर्तमान में हम आचार्य श्री महाश्रमणजी को देख रहे हैं, वे प्रलंब और सुदूर यात्रा पर विहरमाण हैं। वृह्द संघ परिवार उनसे दूर है किंतु दूरी का अनुभव किसी को नहीं होने देते, दूर होते हुए भी वे एक-एक साधु-साध्वी की अपेक्षाओं का, उसकी चित्तसमाधि रखते हैं, किसी को भी अकेलेपन का अनुभव करने की जरूरत नहीं है, गुरु का सिंचन और संपोषण शिष्यों को दूर होते हुए भी निकटता का अहसास कराता है। शिष्यों की समाधि के लिए गुरु और शिष्य का यह अद्भूत तादात्म्य केवल ‘तेरापंथ’ में ही देखने को मिलता है। उदयपुर में साध्वी प्रमुखाश्री जी के घुटनों का ऑपरेशन हो रहा था, आचार्य महाश्रमणजी जो उस समय युवाचार्य थे, वहां हॉस्पिटल में पधार, साध्वी प्रमुखाश्री जी से कहा अगर आपको खून की जरूरत हो तो हम दे सकते  हैं। यद्यपि जरूरत नहीं पड़ी किंतु ऐसी भावना रखना अपने आप में महत्त्व की बात है।

आचार्यवर के श्रीचरणों में अनेक छोटे-बड़े संत रहते हैं, सबको मार्गदर्शन देना, उन्हें संबल प्रदान करना, हताशा व निराशा से उन्हें बचाना गुरुवर के प्रशासन-कौशल की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। केवल साधु-साध्वियों को ही नहीं, श्रावकश्राविकाओं को भी आचार्यवर संपोषण देते रहते हैं, उनकी भावनाओं को तोड़ते नहीं, जोड़ते हैं। विज्ञप्ति में कई बार पढ़ते हैं तब जानकारी होती है कि कभी-कभी तो विहार से भी ज्यादा श्रम और भ्रमण घरों में वृद्ध-बीमार व्यक्तियों को दर्शन देने में हो जाता है। गुरु द्वारा प्रदत्त संबल और उनकी निश्छल मुस्कान श्रावक-श्राविकाओं के लिए शक्तिवर्धक और आनंदवर्धक रसायन का काम करती, आधि-व्याधि को दूर कर देता है, किसी भी उद्यान को सरसब्ज और सुरम्य बनाये रखने के लिए केवल सिंचन ही नहीं, अनावश्यक पत्तों व डालियों की कांट-छांट करनी भी आवश्यक होती है, संघ के अनुशास्ता भी दोषों के निवारण के लिए अहर्निश सजग रहते हैं। आदिगुरु आचार्य भिक्षु से लेकर आचार्य महाश्रमण तक के इतिहास में इस तरह के अनेक प्रसंग हमें पढ़ने व सुनने को मिलते हैं जिनसे ज्ञात होता है कि तेरापंथ में कभी कोई विघटन नहीं हुआ, दोषों को पनपने को मौका नहीं आया। सारणा-वारणा अर्थात् गुणों को प्रोत्साहन और त्रुटियों पर अंगुलि निर्देश आदि विशेषताएं आचार्यों में होनी जरूरी है, नेतृत्व की यह निपुणता ‘तेरापंथ’ में हम सदा से देखते रहे हैं, इसी वजह से तेरापंथ
की फुलवारी सदा हरी-भरी और सुरम्य रहती है, ऐसी बसंत की छटा तेरापंथ उद्यान में सदा-सदा बनी रहे, ‘जिनागम’ परिवार भी ऐसी मंगल कामना करता हैं।

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