श्री मोहनखेड़ा तीर्थ का संक्षिप्त परिचय
श्री मोहनखेड़ा तीर्थ का संक्षिप्त परिचय (Brief Introduction of Shri Mohankheda Tirtha)वर्तमान अवसर्पणी के प्रथम तीर्थंकर भगवान् श्री ऋषभदेवजी को समर्पित श्री मोहनखेड़ा तीर्थ की
गणना आज देश के प्रमुख जैन तीर्थों में की जाती है। मध्यप्रदेश के धार जिले की सरदारपुर तहसील,
नगर राजगढ़ से मात्र तीन किलोमीटर दूर स्थित यह तीर्थ देव, गुरु व धर्म की त्रिवेणी है।श्री मोहनखेड़ा तीर्थ की स्थापना: तीर्थ की स्थापना प्रातः स्मरणीय विश्वपूज्य दादा गुरुदेव
श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरिश्वरजी म.सा. की दिव्यदृष्टि का परिणाम है, आषाढ़ वदी १०, वि.सं. १९२५ में
क्रियोद्धार करने व यति परम्परा को संवेगी धारा में रुपान्तरित कर श्रीमद् देश के विभिन्न भागों में
विचरण व चातुर्मास कर जैन धर्म की प्रभावना कर रहे थे, स्वभाविक था कि मालव भूमि भी उनकी
चरणरज से पवित्र हो, पूज्यवर संवत् १९२८ व १९३४ में राजगढ़ नगर में चातुर्मास कर चुके थे तथा इस
क्षेत्र के श्रावकों में उनके प्रति असीम श्रद्धा व समर्पण था, सं. १९३८ में निकट ही अलिराजपुर में आपने
चातुर्मास किया व तत्पश्चात राजगढ़ में पदार्पण हुआ, राजगढ़ के निकट ही बंजारों की छोटी अस्थायी
बस्ती थी- खेड़ा, श्रीमद् का विहार इस क्षेत्र से हो रहा था, सहसा यहां उनको कुछ अनुभूति हुई और
आपने अपने दिव्य ध्यान से देखा कि यहां भविष्य में एक विशाल तीर्थ की संरचना होने
वाली है। राजगढ़ आकर गुरुदेव ने सुश्रावक श्री लुणाजी पोरवाल से कहा कि आप सुबह
उठकर खेड़ा जायें व घाटी पर जहां कुमकुम का स्वस्तिक देखें, वहां निशान बना दो, उस
स्थान पर तुमको एक मंदिर का निर्माण करना है। परम गुरुभक्त श्री लूणाजी ने गुरुदेव का
आदेश शिरोधार्य किया, गुरुदेव के कथनानुसार जहाँ स्वस्तिक दिखा, श्री लूणाजी ने पंच
परमेष्ठि-परमात्मा का नाम स्मरण कर उसी समय मुहुर्त कर डाला व भविष्य के एक महान
तीर्थ के निर्माण की भूमिका बन गई।मंदिर निर्माण का कार्य प्रारम्भ हुआ व शीघ्र ही पूर्ण भी हो गया। संवत् १९३९ में पू. गुरुदेव
का चातुर्मास निकट ही कुक्षी में तथा संवत् १९४० में राजगढ़ नगर में हुआ था। गुरुदेव ने
विक्रम संवत १९४० की मृगशीर्ष शुक्ल सप्तमी के शुभ दिन मूलनायक ऋषभदेव भगवान
आदि ४१ जिनबिम्बों की अंजनशलाका की। मंदिर में मूलनायकजी एवं अन्य बिम्बों की
प्रतिष्ठा की गई। प्रतिष्ठा के समय पू. गुरुदेव ने घोषणा की थी कि यह तीर्थ भविष्य में
विशाल रुप धारण करेगा, इसे मोहनखेड़ा के नाम से ही पुकारा जाये। पूज्य गुरुदेव ने इस
तीर्थ की स्थापना श्री सिद्धाचल की वंदनार्थ की थी।प्रथम जीर्णोद्धार: संवत १९९१ में मंदिर निर्माण के लगभग २८ वर्ष पश्चात श्री
यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के उपदेश से प्रथम जीर्णोद्धार हुआ। यह जीर्णोद्धार आपके शिष्य
मुनिप्रवर श्री अमृतविजयजी की देखरेख व मार्गदर्शन में हुआ था। पूज्य मुनिप्रवर प्रतिदिन
राजगढ़ से यहां आया-जाया करते थे, इस जीर्णोद्धार में जिनालय के कोट की मरम्मत की
गई थी, व परिसर में फरसी लगवाई थी, इस कार्य हेतु मारवाड के आहोर सियाण नगर के
त्रिस्तुतिक जैन श्वेताम्बर श्री संघों ने वित्तीय सहयोग प्रदान किया था।द्वितीय जीर्णोद्धार: श्री मोहनखेड़ा तीर्थ का द्वितीय जीर्णोद्धार इस तीर्थ के इतिहास की
सबसे अह्म घटना है, परिणाम की दृष्टि से यह जीर्णोद्धार से अधिक तीर्थ का कायाकल्प
था, इसके विस्तार व विकास का महत्वपूर्ण पायदान था, इस जीर्णोद्धार, कायाकल्प व
विस्तार के शिल्पी थे- प.पू. आचार्य भगवन्त श्री विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी, तीर्थ विकास की एक
गहरी अभिप्सा आपके अंतरमन में थी, जिसे आपने अपने पुरुषार्थ व कार्यकुशलता से साकार
किया।कुशल नेतृत्व, योजनाबद्ध कार्य, कठिन परिश्रम व दादा गुरुवर एवं आचार्य महाराज के
आशीर्वाद के फलस्वरुप ९७६ दिन में नींव से लेकर शिखर तक मंदिर तैयार हो गया, यह
नया मंदिर तीन शिखर से युक्त है। श्रीसंघ के निवेदन पर पट्टधर आचार्य श्री
विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी ने अपने हस्तकमलों से वि.सं. २०३४ की माघ सुदी १२ रविवार को ३७७
जिनबिम्बों की अंजनशलाका की, अगले दिवस माघ सुदी १३ सोमवार को तीर्थाधिराज
मूलनायक श्री ऋषभदेव प्रभु, श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ व श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ आदि ५१
जिनबिम्बों की प्राणप्रतिष्ठा की व शिखरों पर दण्ड, ध्वज व कलश समारोपित किये।
जीर्णोद्धार में परमपूज्य आचार्य भगवन्त श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी के समाधि का भी
जीर्णोद्धार किया गया व ध्वज, दण्ड व कलश चढ़ाये गये, श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी की
समाधि पर भी दण्ड, ध्वज व कलश चढ़ाये गये।मंदिर का वर्तमान स्वरुप : वर्तमान मंदिर काफी विशाल व त्रिशिखरीय है, मंदिर के
मूलनायक भगवान आदिनाथ हैं जिसकी प्रतिष्ठा श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी द्वारा की गई
थी, अन्य दो मुख्य बिम्ब श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ एवं श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ के हैं, जिनकी
प्रतिष्ठा व अंजनशलाका वि. सं. २०३४ में मंदिर पुर्नस्थापना के समय श्रीमद्
विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी के करकमलों से हुई थी। गर्भगृह में श्री अनन्तनाथजी, सुमतिनाथजी व
अष्ट धातु की प्रतिमायें हैं, गर्भगृह में प्रवेश हेतु संगमरमर के तीन कलात्मक द्वार हैं व
उँची वेदिका पर प्रभु की प्रतिमायें विराजित हैं।