Category: जनवरी-२०२२

‘जिनागम’ के प्रबुद्ध पाठकों से निवेदन गौवंश की रक्षा में अपना कर्त्तव्य निभायें (A request to the enlightened readers of ‘Jinagam’ Do your duty in protecting cows)

‘जिनागम’ के प्रबुद्ध पाठकों से निवेदन गौवंश की रक्षा में अपना कर्त्तव्य निभायें (A request to the enlightened readers of ‘Jinagam’ Do your duty in protecting cows)भारत के पांच राज्यों में घोषित चुनाव में हमें यह भी वायदा चाहिए क्योंकि गाय का दूध हम मानव के लिए जीवन ही तो है……. उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा राज्य में १० फरवरी से ७ मार्च २०२२ में होने वाले चुनाव के प्रत्याशी उक्त विधानसभा में जाकर गौवंश का वध करने वालों को आजीवन कारावास की घोषणा करवाएंगे हम उन्हें ही उक्त विधानसभा में भेजेंगे। -बिजय कुमार जैन-राष्ट्रीय अध्यक्ष– मैं भारत हूँ फाउंडेशन वर्तमान समय में गोरक्षा का प्रश्न भारत के लिए एक अहम मुद्दा है। गोरक्षा के लिए देश में अनेक लोगों ने अपने प्राणों की आहूति दी। ‘अखिल भारतवर्षीय गो-महासभा’ का गठन भी इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए हुआ तथा गोधन को विदेशों में मांसाहार के लिए की जानेवाली तस्करी पर रोक लगाने और सरकार पर इसके लिए दबाव डालने का प्रयास हुआ, परन्तु वर्त्तमान परिप्रेक्ष्य में यह केवल कोरी कल्पना रह गई है।मैं ताराचंद जैन, उपाध्यक्ष, झारखंड राज्य गौशाला प्रादेशिक संघ एवं उपाध्यक्ष, वैद्यनाथधाम गौशाला एवं संरक्षक एकल श्रीहरि गौ ग्राम योजना, दुम्मा, देवघर। इस आलेख के माध्यम से गौवंश के साथ वर्त्तमान समय में हो रहे क्रूर व्यवहार की ओर ध्यान आकृष्ट कराना चाहता हूँ। देवघर मेरा निवास स्थान है और वर्षों से इस दिशा में अथक प्रयास एवं निस्वार्थ सेवा भाव के कारण मुझे देवघरिया संत बतौर भी जानते हैं।आज इस आलेख में मैं अपना मार्मिक अभ्यावेदन करना चाहता हूँ कि ऐसे पावन पुण्य स्थल के रास्ते हजारों की संख्या में हिन्दू संस्कृति में माता स्वरूप गौ वंश पड़ोसी जिले दुमका होते हुए रामपुरहाट, नलहटी, अहमदपुर एवं लोहापुर तक तस्करों द्वारा गौवंश को हाँक कर पैदल मार्ग से अनेक तस्करों द्वारा ले जाये जाते हैं एवं अपने सहयोगियों के द्वारा बंगाल की सीमा तक ले जाकर वहाँ से गंगा नदी में पार कराकर बांगलादेश तक ले जाते हैं, जो इन गायों का जो हश्र होता है वह अवर्णनीय एवं अकथनीय है। गत समय पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में कतलगाह ले जाने से (९०००) नौ हजार बाछियों को मैंने अध्यक्ष राजकुमार अग्रवाल एवं अपने कर्मयोगी सदस्यों के मार्फत से छुड़ाया एवं उन्हें झारखण्ड के गौशालाओं में नि:शुल्क वितरित किया। गौवंश को नष्ट करने का यह गोरखधंधा वर्षों से लगातार चलता आ रहा है, जो रूकने के बजाय दिनोदिन तीव्रतर गति से फल-फूल रहा है।आज इस आलेख में मैं अपना मार्मिक अभ्यावेदन करना चाहता हूँ कि ऐसे पावन पुण्य स्थल के रास्ते हजारों की संख्या में हिन्दू संस्कृति में माता स्वरूप गौ वंश पड़ोसी जिले दुमका होते हुए रामपुरहाट, नलहटी, अहमदपुर एवं लोहापुर तक तस्करों द्वारा गौवंश को हाँक कर पैदल मार्ग से अनेक तस्करों द्वारा ले जाये जाते हैं एवं अपने सहयोगियों के द्वारा बंगाल की सीमा तक ले जाकर वहाँ से गंगा नदी में पार कराकर बांगलादेश तक ले जाते हैं, जो इन गायों का जो हश्र होता है वह अवर्णनीय एवं अकथनीय है। गत समय पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में कतलगाह ले जाने से (९०००) नौ हजार बाछियों को मैंने अध्यक्ष राजकुमार अग्रवाल एवं अपने कर्मयोगी सदस्यों के मार्फत से छुड़ाया एवं उन्हें झारखण्ड के गौशालाओं में नि:शुल्क वितरित किया। गौवंश को नष्ट करने का यह गोरखधंधा वर्षों से लगातार चलता आ रहा है, जो रूकने के बजाय दिनोदिन तीव्रतर गति से फल-फूल रहा है।गौवंश के निर्यात का यह सिलसिला पड़ोसी राज्यों बिहार, उत्तरप्रदेश एवं मध्यप्रदेश जैसे बड़े राज्यों के संपर्क से होता है, जहाँ गौवंश के स्थानांतरण पर आंशिक प्रतिबन्ध है। हमारे राज्य के गौ तस्कर व्यापारी इन राज्यों से संपर्क साधकर गायों को पड़ोसी राज्य बंगाल के रास्ते बांग्लादेश तक पहुँचाने में सफल हो रहे हैं और गौ हत्या चरम सीमा पर है। यों तो बिहार में गौ हत्या पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं है, परन्तु आंशिक प्रतिबंध तो क्रियान्वित है ही। हमारे राज्य की झारखंड सरकार ने २००५ में एक अध्यादेश लाकर गौ हत्या निषेध अधिनियम पारित किया था। सरकार के इस अधिनियम का कुछ वर्षों तक तो अक्षरश: पालन भी हुआ और गौवंश को तस्करों से जब्त कर स्थानीय गौशालाओं को सुपुर्द भी किया गया, हम लोगों ने २७ गौशालाओं से संपर्क साधकर एक प्रादेशिक संघ बनाकर गौ पालन में सहयोग किया, परन्तु बड़े ही अफसोस के साथ यह सूचित करना पड रहा है कि कालांतर में पुलिस महकमें द्वारा कोई हल्की धारा बैठाकर जब्त ट्रकों को छोड़ा जाने लगा, इससे तस्करों के मनोबल बढ़े।इस गोरखधंधा को अमलीजामा पहनाने के लिए संलिप्त तस्करों ने गौ हस्तांतरण का नया तरीका ढूंढ निकाला और गायों के झुंड बनाकर पैदल यात्रा कर स्वयं अपने सहयोगियों के साथ उन्हें गंतव्य स्थल तक स्थानांतरित करने लगे जो वर्त्तमान में चरमोत्कर्ष पर है। मार्ग में जो भी गश्तीदल होते हैं उनके साथ इनकी सांठ-गाँठ होती है और पैसों का लेन-देन चलता रहता है। वर्त्तमान समय में यह क्रम चौबीस घंटे क्रियान्वित है जिसका देवघर-दुमका पथ पर किसी भी समय अवलोकन किया जा सकता है। ऐसी निर्मम गौ हत्या से हमारा पशुधन विलुप्त होने के कगार पर पहुँच गया है। गाय जो हमारी राष्ट्रीय निधि है उसी पर कुठाराघात देखने को मिल रहा है। वर्त्तमान समय में झारखंड गोवंशीय पशु हत्या प्रतिषेध अधिनियम २००५ शिथिल पड़ता जा रहा है। भारत के संविधान के अनुच्छेद ४८ में राज्यों को गायों और बछड़ों और अन्य पशुधनों और मवेशियों की हत्या को प्रतिबंधित करने का आदेश दिया गया है। २६ अक्टूबर २००५ को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक निर्णय दिया। वर्त्तमान में २९ राज्यों के बीच से २० राज्यों में हत्या या बिक्री प्रतिबंधित है, किन्तु प्रतिबंधित करने वालों में केरल की तरह बंगाल भी शामिल नहीं है। केन्द्र सरकार के घोषणा पत्र में भी गौवंश संरक्षण के लिए कदम उठाने का वादा किया गया है।इस गोरखधंधा को अमलीजामा पहनाने के लिए संलिप्त तस्करों ने गौ हस्तांतरण का नया तरीका ढूंढ निकाला और गायों के झुंड बनाकर पैदल यात्रा कर स्वयं अपने सहयोगियों के साथ उन्हें गंतव्य स्थल तक स्थानांतरित करने लगे जो वर्त्तमान में चरमोत्कर्ष पर है। मार्ग में जो भी गश्तीदल होते हैं उनके साथ इनकी सांठ-गाँठ होती है और पैसों का लेन-देन चलता रहता है। वर्त्तमान समय में यह क्रम चौबीस घंटे क्रियान्वित है जिसका देवघर-दुमका पथ पर किसी भी समय अवलोकन किया जा सकता है। ऐसी निर्मम गौ हत्या से हमारा पशुधन विलुप्त होने के कगार पर पहुँच गया है। गाय जो हमारी राष्ट्रीय निधि है उसी पर कुठाराघात देखने को मिल रहा है। वर्त्तमान समय में झारखंड गोवंशीय पशु हत्या प्रतिषेध अधिनियम २००५ शिथिल पड़ता जा रहा है। भारत के संविधान के अनुच्छेद ४८ में राज्यों को गायों और बछड़ों और अन्य पशुधनों और मवेशियों की हत्या को प्रतिबंधित करने का आदेश दिया गया है। २६ अक्टूबर २००५ को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक निर्णय दिया। वर्त्तमान में २९ राज्यों के बीच से २० राज्यों में हत्या या बिक्री प्रतिबंधित है, किन्तु प्रतिबंधित करने वालों में केरल की तरह बंगाल भी शामिल नहीं है। केन्द्र सरकार के घोषणा पत्र में भी गौवंश संरक्षण के लिए कदम उठाने का वादा किया गया है।ऐसे समय में मेरी यह करबद्ध प्रार्थना होगी कि गौ मांस का निर्यात कर अर्जित धन के बजाय इसके उपयोगिता को चिन्हित कर आय के अन्य स्रोत बनाये जायें। गाय न केवल हमारे देश की राष्ट्रीय निधि है, इसे केवल हिन्दू धर्म से जोड़ा न जाये वरन्‌ा अन्य संप्रदाय के लोग इनके अवशिष्ट पदार्थों जैसे गोबर, गो-मूत्र आदि का व्यवसायिक उपयोग कर एक विशाल धनराशि अर्जित कर सकते हैं। गाय के गोबर से कई फायदे हैं। एक गाय का गोबर ७ एकड़ भूमि का खाद बना सकता है और मूत्र से भूमि की फसल का कीटों से बचाव हो सकता हे। गोबर के कई तरह के फायदे हैं। खादी इंडिया के द्वारा गाय के गोबर से वैदिक पेंट लांच किया जाएगा, ऐसी जानकारी केन्द्रीय मंत्री नितीन गडकरी ने दी की, इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था सुदृढ़ होगी। केवल खाद के रूप में नहीं, बल्कि पेपर, बैग, मैट से लेकर ईंट तक सारे उत्पाद गोबर से बनाए जा सकते हैं। एकल ग्राम योजना के तहत हमलोग इस दिशा में यह काम कर भी रहे हैं। गौ मूत्र एवं गोबर का पेटेंट तैयार कर विदेशों में निर्यात कर आय का स्त्रोत बढ़ा रहे हैं। पर्यावरण मंत्रालय ने ऊप ज्rानहूग्दह दf म्rलत्ग्त्ब्ूद Aहग्स्aत्े (Rल्ूिaूग्दह दf थ्ग्fा ेूदम्व् स्arवू के नियम २०१७ को शिथिल कर दिया है, इसके मुताबिक मवेशी बाजारों में जानवरों की खरीद बिक्री को रेगुलेट करने के साथ मवेशियों के खिलाफ क्रूरता रोकना है। पूरे देश में इसको लेकर बहस शुरू हो गई है। राजनीतिक गलियारों में इस कानून को लेकर विरोध हो रहा है, जिसमें सबसे आगे केरल है। अब सवाल यह है कि आखिर इस कानून को लेकर संशय की स्थिति क्‍यों है? इसका मूल कारण है कि किसी राज्य में अक्षरश: पालन, तो किसी राज्य में आंशिक तो किसी में कोई प्रतिबंध नहीं है, इसके लिए केन्द्रीय स्तर पर कानून बनाए जाने की आवश्यकता है। गोबर एवं गौ मूत्र की विदेशों में भी माँग है, इनके उत्पादों से कई बीमारियाँ दूर होती हैं, इनके औषधियों का निर्माण कर हम आय को बढ़ा सकते हैं।झारखंड के १०० गाँवों में गायें बाँटी जाने का प्रावधान बनाया गया है। एकल ग्राम योजना के तहत प्रत्येक गाँव को ५० गाएं उपलब्ध कराई जाएगी, जिन किसानों को गाएं उपलब्ध कराई जाएगी उन्हें छह महीने का प्रशिक्षण भी दिया जा रहा है। इसके तहत निबंधित किसानों को गोबर व गो-मूत्र से गैस व अन्य सामग्री तैयार कर लाभ कमाने का स्वरोजगार प्रशिक्षण भी दिया जा रहा है, इसके लिये एक वर्ष तक गायों की सेवा सुश्रुषा करने व उनसे होनेवाले व्यवसाय को लाभकारी बनाने के लिए एक वर्ष तक २५,०००/- रुपये बतौर मानदेय भुगतान किया जा रहा है। ऐसे किसानों के घर में बायो गैस प्लांट भी समिति के द्वारा ही निर्मित किया जाएगा। एकल अभियान श्री हरि गौ ग्राम योजना के तहत देशभर में २०,००० गौवंश-गौशाला से निकालकर ग्रामीण इलाकों में पहुँचा कर गौ संरक्षण का संकल्प लिया गया है। देवघर के बाबा नगरी होने की वजह से देश-विदेश से पर्यटकों का आगमन होता है, इसे जोड़कर भी इस योजना को मूर्तरूप देकर गौवंश का संरक्षण किया जा सकता है। केन्द्रीय ग्रामोत्थान योजना के तहत‌ ३० से ५० गायों को पहुँचाने की योजना है, जिससे प्रत्येक किसान को एक-एक गाय दी जाएगी और तीन वर्षों तक इसके चारे का प्रबंध एकल अभियान गौ भक्तों के जरिए किया जाएगा। ५०० से अधिक गाँवों के गौपालकों से भारतीय नस्ल की गायों का दूध बाजार मूल्य से उच्च मूल्य पर क्रय कर यज्ञ, पूजा, अनुष्ठान एवं आरोग्य हेतु पूरे देश के गौ-भक्‍तों को उचित मूल्य पर वितरित किया जा रहा है। पूज्य गौमाता के प्रतिदिन पालन-पोषण हेतु गोपालक योजना है, जिसमें प्रतिगाय प्रतिमाह १५००/- रुपये तथा प्रतिवर्ष घास-चारा का व्यय १८,०००/- रुपये निश्चित किया गया है। आज समय के साथ गोधन विलुप्त होने के कगार पर है। गोचर भूमि-विलुप्त हो रही है। जबकि २ या ३ गोवंश के सहारे ही कोई भी परिवार अपनी गाड़ी खींच सकता है। पशुधन के अभाव में नकली दूध से बनी मिठाईयों से जीवन चक्र चल रहा है, जैविक खाद के स्थान पर रासायनिक खाद के प्रयोग से खाद्यान्न दूषित हो रहा है। आज डॉलर की भूख हमें किसी भी नीचता की ओर ले जा रही है। बीफ निर्यातकों की श्रेणी में आगे बढ़ रहा देश महात्मा गाँधी के उस सपने को अधूरा साबित कर रहा है, जिसमें उन्होंने कहा था कि हमारे लक्ष्य तब तक पूरे नहीं हो सकते जब तक भारत में एक भी कत्लगाह कारगाह रहेगा। यह मानवीय हिंसा मानवीय असंतोष तब तक धरती पर रहेगा जब तक गौ-माता का अंर्तनाद जारी रहेगा। मनुष्य को गौ यज्ञ का फल तभी मिलेगा, जब कत्लखाने जा रही गाय को छुड़ाकर उसके पालन-पोषण की व्यवस्था हो। ईसामसीह ने भी कहा था एक गाय का मरना एक मनुष्य को मारने के समान है। मदन मोहन मालवीय जी की अंतिम इच्छा भी कि गोवंश हत्या निषेध नियम भारतीय संविधान में बने। गौ हत्या भारतीय संस्कृति, सभ्यता एवं आस्था की हत्या के स्वरूप है, ऐसी घिनौनी हरकत करनेवालों की न तो कोई जाति होती है और न धर्म। आज जो बड़े पैमाने पर गौ-मांस के लिए गायों की हत्या की जा रही है, इससे दुधारू गायों की भी संख्या प्रभावित हो रही है जो सवा अरब की आबादी वाले देश के लिए महज सिकुड़ कर १६ करोड़ तक हो गई है।गौ हत्या से जुड़े तमाम अनसुलझें सवाल-जवाबों की इस कशमकश से केवल यही प्रश्न उपजता है कि आखिर देश में गौ हत्या क्‍यों? संविधान निर्मिताओं ने राज्यों को दिए नीति-निर्देशक सिद्धांतों में गौवंश एव्ां अन्य दुधारू पशुओं के वध पर रोक लगाने का परामर्श भी दिया है। यह अच्छी बात है कि राज्यसभा में भी सत्ता पार्टी के सदस्यों द्वारा गौ हत्या पर रोक लगाने संबंधी केन्द्रीय कानून की वकालत करते हुए गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने की मांग चली आ रही है। ऐसा पहली बार नहीं है कि ‘गौ संरक्षण’ चर्चा के केन्द्र में है। गौ हत्या पर प्रतिबंध लगाने के लिए करपात्री जी महाराज ने भी स्व. श्रीमती इंदिरा गांधी जी से करबद्ध प्रार्थना की थी और उन्होंने प्रधानमंत्री पद पर काबिज हो जाने के बाद देश के सारे कतलखाने बंद करवाने का वादा भी किया था, परन्तु कालान्तर में वे ऐसा न कर पाई और जब संतों ने उस वादों को याद दिलाया तो वे अनशनकारी निहत्थे संतों के साथ बेहरमी से पेश आयी, जिसका खामियाजा उन्हें संतों के श्राप से भुगतना पड़ा। गौ हत्या पर रोक और गौ रक्षा के लिए कई आंदोलन होते आये हैं, जो इतिहास के पन्ने में आज भी द़र्ज हैं। गाय केवल एक हिन्दू जाति से संलग्न राष्ट्रीय निधि नहीं, जिसकी रक्षा की जानी है, बल्कि यह राष्ट्रीय धरोहर है और इसकी रक्षा करना हमारा धर्म है। सवा अरब देशवासियों का परम कर्त्तव्य एवं उत्तरदायित्व है कि इस पशुधन को बचाकर गौवंश का संरक्षण किया जाए। ऐसे में मेरी यह करबद्ध प्रार्थना है कि गौ-हत्या पर रोक लगे एवं पड़ोसी देशों में गौ माता के स्थानांतरण पर प्रतिबंध हो, केन्द्र स्तर पर जो भी कानून बनाने पड़े उन्हें अविलंब लागू करें, ताकि हमारी राष्ट्रीय धरोहर मिटने से बच सके। मैं इसी विनती के साथ अपनी आत्म अभिव्यक्ति को विराम देता हूँ। – ताराचन्द जैनदेवघर  ‘जिनागम’ के प्रबुद्ध पाठकों से निवेदन गौवंश की रक्षा में अपना कर्त्तव्य निभायें (A request to the enlightened readers of ‘Jinagam’ Do your duty in protecting cows)

श्री मोहनखेड़ा तीर्थ का संक्षिप्त परिचय (Brief Introduction of Shri Mohankheda Tirtha)

श्री मोहनखेड़ा तीर्थ का संक्षिप्त परिचय (Brief Introduction of Shri Mohankheda Tirtha)वर्तमान अवसर्पणी के प्रथम तीर्थंकर भगवान् श्री ऋषभदेवजी को समर्पित श्री मोहनखेड़ा तीर्थ की गणना आज देश के प्रमुख जैन तीर्थों में की जाती है। मध्यप्रदेश के धार जिले की सरदारपुर तहसील, नगर राजगढ़ से मात्र तीन किलोमीटर दूर स्थित यह तीर्थ देव, गुरु व धर्म की त्रिवेणी है।श्री मोहनखेड़ा तीर्थ की स्थापना: तीर्थ की स्थापना प्रातः स्मरणीय विश्वपूज्य दादा गुरुदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरिश्वरजी म.सा. की दिव्यदृष्टि का परिणाम है, आषाढ़ वदी १०, वि.सं. १९२५ में क्रियोद्धार करने व यति परम्परा को संवेगी धारा में रुपान्तरित कर श्रीमद् देश के विभिन्न भागों में विचरण व चातुर्मास कर जैन धर्म की प्रभावना कर रहे थे, स्वभाविक था कि मालव भूमि भी उनकी चरणरज से पवित्र हो, पूज्यवर संवत् १९२८ व १९३४ में राजगढ़ नगर में चातुर्मास कर चुके थे तथा इस क्षेत्र के श्रावकों में उनके प्रति असीम श्रद्धा व समर्पण था, सं. १९३८ में निकट ही अलिराजपुर में आपने चातुर्मास किया व तत्पश्चात राजगढ़ में पदार्पण हुआ, राजगढ़ के निकट ही बंजारों की छोटी अस्थायी बस्ती थी- खेड़ा, श्रीमद् का विहार इस क्षेत्र से हो रहा था, सहसा यहां उनको कुछ अनुभूति हुई और आपने अपने दिव्य ध्यान से देखा कि यहां भविष्य में एक विशाल तीर्थ की संरचना होने वाली है। राजगढ़ आकर गुरुदेव ने सुश्रावक श्री लुणाजी पोरवाल से कहा कि आप सुबह उठकर खेड़ा जायें व घाटी पर जहां कुमकुम का स्वस्तिक देखें, वहां निशान बना दो, उस स्थान पर तुमको एक मंदिर का निर्माण करना है। परम गुरुभक्त श्री लूणाजी ने गुरुदेव का आदेश शिरोधार्य किया, गुरुदेव के कथनानुसार जहाँ स्वस्तिक दिखा, श्री लूणाजी ने पंच परमेष्ठि-परमात्मा का नाम स्मरण कर उसी समय मुहुर्त कर डाला व भविष्य के एक महान तीर्थ के निर्माण की भूमिका बन गई।मंदिर निर्माण का कार्य प्रारम्भ हुआ व शीघ्र ही पूर्ण भी हो गया। संवत् १९३९ में पू. गुरुदेव का चातुर्मास निकट ही कुक्षी में तथा संवत् १९४० में राजगढ़ नगर में हुआ था। गुरुदेव ने विक्रम संवत १९४० की मृगशीर्ष शुक्ल सप्तमी के शुभ दिन मूलनायक ऋषभदेव भगवान आदि ४१ जिनबिम्बों की अंजनशलाका की। मंदिर में मूलनायकजी एवं अन्य बिम्बों की प्रतिष्ठा की गई। प्रतिष्ठा के समय पू. गुरुदेव ने घोषणा की थी कि यह तीर्थ भविष्य में विशाल रुप धारण करेगा, इसे मोहनखेड़ा के नाम से ही पुकारा जाये। पूज्य गुरुदेव ने इस तीर्थ की स्थापना श्री सिद्धाचल की वंदनार्थ की थी।प्रथम जीर्णोद्धार: संवत १९९१ में मंदिर निर्माण के लगभग २८ वर्ष पश्चात श्री यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के उपदेश से प्रथम जीर्णोद्धार हुआ। यह जीर्णोद्धार आपके शिष्य मुनिप्रवर श्री अमृतविजयजी की देखरेख व मार्गदर्शन में हुआ था। पूज्य मुनिप्रवर प्रतिदिन राजगढ़ से यहां आया-जाया करते थे, इस जीर्णोद्धार में जिनालय के कोट की मरम्मत की गई थी, व परिसर में फरसी लगवाई थी, इस कार्य हेतु मारवाड के आहोर सियाण नगर के त्रिस्तुतिक जैन श्वेताम्बर श्री संघों ने वित्तीय सहयोग प्रदान किया था।द्वितीय जीर्णोद्धार: श्री मोहनखेड़ा तीर्थ का द्वितीय जीर्णोद्धार इस तीर्थ के इतिहास की सबसे अह्म घटना है, परिणाम की दृष्टि से यह जीर्णोद्धार से अधिक तीर्थ का कायाकल्प था, इसके विस्तार व विकास का महत्वपूर्ण पायदान था, इस जीर्णोद्धार, कायाकल्प व विस्तार के शिल्पी थे- प.पू. आचार्य भगवन्त श्री विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी, तीर्थ विकास की एक गहरी अभिप्सा आपके अंतरमन में थी, जिसे आपने अपने पुरुषार्थ व कार्यकुशलता से साकार किया।कुशल नेतृत्व, योजनाबद्ध कार्य, कठिन परिश्रम व दादा गुरुवर एवं आचार्य महाराज के आशीर्वाद के फलस्वरुप ९७६ दिन में नींव से लेकर शिखर तक मंदिर तैयार हो गया, यह नया मंदिर तीन शिखर से युक्त है। श्रीसंघ के निवेदन पर पट्टधर आचार्य श्री विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी ने अपने हस्तकमलों से वि.सं. २०३४ की माघ सुदी १२ रविवार को ३७७ जिनबिम्बों की अंजनशलाका की, अगले दिवस माघ सुदी १३ सोमवार को तीर्थाधिराज मूलनायक श्री ऋषभदेव प्रभु, श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ व श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ आदि ५१ जिनबिम्बों की प्राणप्रतिष्ठा की व शिखरों पर दण्ड, ध्वज व कलश समारोपित किये। जीर्णोद्धार में परमपूज्य आचार्य भगवन्त श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी के समाधि का भी जीर्णोद्धार किया गया व ध्वज, दण्ड व कलश चढ़ाये गये, श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी की समाधि पर भी दण्ड, ध्वज व कलश चढ़ाये गये।मंदिर का वर्तमान स्वरुप : वर्तमान मंदिर काफी विशाल व त्रिशिखरीय है, मंदिर के मूलनायक भगवान आदिनाथ हैं जिसकी प्रतिष्ठा श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी द्वारा की गई थी, अन्य दो मुख्य बिम्ब श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ एवं श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ के हैं, जिनकी प्रतिष्ठा व अंजनशलाका वि. सं. २०३४ में मंदिर पुर्नस्थापना के समय श्रीमद् विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी के करकमलों से हुई थी। गर्भगृह में श्री अनन्तनाथजी, सुमतिनाथजी व अष्ट धातु की प्रतिमायें हैं, गर्भगृह में प्रवेश हेतु संगमरमर के तीन कलात्मक द्वार हैं व उँची वेदिका पर प्रभु की प्रतिमायें विराजित हैं। श्री मोहनखेड़ा तीर्थ का संक्षिप्त परिचय (Brief Introduction of Shri Mohankheda Tirtha)

गुरुदेव श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरिश्वरजी ( Gurudev Shrimad Vijayrajendrasurishwarji )

गुरुदेव श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरिश्वरजी ( Gurudev Shrimad Vijayrajendrasurishwarji )जन्म एवं माता-पिता:-‘श्रीराजेन्द्रसूरिरास’ एवं ‘श्री राजेन्द्रगुणमंजरी’ के अनुसार वर्तमान राजस्थान प्रदेश के भरतपुर शहर में दहीवाली गली में पारिख परिवार के ओसवंशी श्रेष्ठि रुषभदास रहते थे। आपकी धर्मपत्नी का नाम केशरबाई था जिसे अपनी कुक्षि में श्री राजेन्द्र सूरि जैसे व्यक्तित्व को धारण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। श्रेष्ठि रुषभदासजी की तीन संतानें थी, दो पुत्र: बड़े पुत्र का नाम माणिकचन्द एवं छोटे पुत्र का नाम रतनचन्द था एवं एक कन्या थी जिसका नाम प्रेमा था, यही ‘रतनचन्द’ आगे चलकर आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरि नाम से प्रख्यात हुए। पारेख परिवार की उत्पत्ति: आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरि के अनुसार वि.सं. ११९० में आचार्यदेव श्री जिनदत्तसूरि महाराज के उपदेश से राठौड़ वंशीय राजा खरहत्थ ने जैन धर्म स्वीकार किया, उनके तृतीय पुत्र भेंसाशाह के पांच पुत्र थे, उनमें तीसरे पुत्र पासुजी आहेड्नगर (वर्तमान आयड-उदयपुर) के राजा चंद्रसेन के राजमान्य जौहरी थे, उन्होंने विदेशी व्यापारी के हीरे की परीक्षा कर बताया कि यह हीरा जिसके पास रहेगा उसकी स्त्री मर जायेगी, ऐसी सत्य परीक्षा करने से राजा पासुजी के साथ ‘पारखी’शब्द का अपभ्रंश ‘पारिख’शब्द बना। पारिख पासुजि के वंशज वहाँ से मारवाड़, गुजरात, मालवा, उत्तरप्रदेश आदि जगह व्यापार हेतु गये, उन्हीं में से दो भाईयों के परिवार में से एक परिवार भरतपुर आकर बस गया था।जन्मविषयक निमित्तसूचक स्वप्नदर्शन: ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है कि आचार्य श्री के जन्म के पहले एक रात्रि उनकी माता केशरबाई ने स्वप्न में देखा की एक तरुण व्यक्ति ने प्रज्ज्वल कांति से चमकता हुआ रत्न केशरबाई को दिया – ‘गर्भाधानेड््थ साडद््क्षीत स्वप्ने रत्नं महोत्तम्म’ निकट के स्वप्नशास्त्री ने स्वप्न का फल भविष्य में पुत्ररत्न की प्राप्ति होना बताया। जन्म समय – आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरी के अनुसार वि.सं. १८८३ पौष सूदि सप्तमी गुरुवार, तदनुसार ३ दिसम्बर ईस्वी सन् १८२७ को माता केशरबाई ने देदीप्यमान पुत्ररत्न को जन्म दिया। पूर्वोक्त स्वप्न के अनुसार माता-पिता एवं परिवार ने मिलकर नवजात पुत्र का नाम ‘रतनचंद’ रखा। व्यवहारिक शिक्षा – आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरी एवं मुनि गुलाबविजय के अनुसार योग्य उम्र में पाठशाला में प्रविष्ट हुए मेधावी रतनचंद ने केवल १० वर्ष की अल्पायु में ही समस्त व्यवहारिक शिक्षा अर्जित की, साथ ही धार्मिक अध्ययन में विशेष रुचि होने से धार्मिक अध्ययन में प्रगति की, अल्प समय में ही प्रकरण और तात्विक ग्रंथों का अध्ययन कर लिया। तीव्र क्षयोपशम के कारण प्रखरबुद्धि बालक रत्नराज १३ वर्ष की छोटी सी उम्र में अतिशीघ्र विद्या एवं कला में प्रविण हो गए। श्री राजेन्द्रसूरि रास के अनुसार उसी समय विक्रम संवत् १८९३ में भरतपुर में अकाल पड़ने से, कार्यवश माता-पिता के साथ आये, रत्नराज का उदयपुर में आचार्य श्री प्रमोदसूरिजी के प्रथम दर्शन एवं परिचय हुआ, उसी समय उन्होंने रत्नराज की योग्यता देखकर ऋषभदासजी ने रत्नराज की याचना की, लेकिन ऋषभदास ने कहा कि ‘अभी तो बालक है, आगे किसी अवसर पर जब यह बड़ा होगा और उसकी भावना होगी तब देखा जायेगा।’यात्रा एवं विवाह विचार – जीवन के व्यापार-व्यवहार के शुभारंभ हेतु मांगलिक स्वरुप तीर्थयात्रा कराने का परिवार में विचार हुआ। माता-पिता की आज्ञा लेकर बड़े भाई माणेकचंद के साथ धुलेवानाथ – केशरियाजी तीर्थ की पैदल यात्रा करने हेतु प्रयाण किया, पहले भरतपुर से उदयपुर आये, वहाँ से अन्यत्र यात्रियों के साथ केशरियाजी की यात्रा प्रारंभ की, तब रास्ते में पहाड़ियों के बीच आदिवासी भीलों ने हमला कर दिया, उस समय रत्नराज ने यात्रियों की रक्षा की, साथ ही नवकार मंत्र के जाप के बल पर जयपुर के पास अंब ग्राम निवासी शेठ शोभागमलजी की पुत्री रमा को व्यंतर के उपद्रव से मुक्ति भी दिलायी, सभी के साथ केशरियाजी की यात्रा कर वहाँ से उदयपुर, करेडा पार्श्वनाथ एवं गोडवाड के पंचतीर्थों की यात्रा कर वापिस भरतपुर आये। ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है कि शेठ सोभागमलजी ने रत्नराज के द्वारा पुत्री रमा को व्यंतर दोष से मुक्त किये जाने के कारण रमा की सगाई रत्नराज के साथ करने हेतु बात की थी लेकिन वैराग्यवृत्ति रत्नराज ने इसके लिए इंकार कर दिया।व्यापार – रत्नराज के पिता श्रेष्ठि ऋषभदास का हीरे-पन्ने आदि जवेरात एवं सोने-चांदी का वंश परम्परागत व्यापार था, रत्नराज ने भी १४ साल की छोटी सी उम्र में चैत्र सुदि प्रतिपदा के दिन परम्परागत हीरा-पन्ना आदि का व्यापार शुरु किया और केवल दो महिने में ही व्यापार का पुरा अनुभव प्राप्त कर लिया, उसके बाद व्यापार हेतु बड़े भाई के साथ भरतपुर से पावापुरी, समेतशिखरजी आदि तीर्थों की यात्रा कर कलकत्ता पहुँचे, थोड़े समय तक वहाँ व्यापार कर वहाँ से जलमार्ग से व्यापार हेतु सीलोन (श्रीलंका) पहुँचे, वहाँ ढाई से तीन साल तक व्यापार कर न्याय-नीतिपूर्वक कल्पनातीत धन उपार्जन किया। व्यापार में अत्याधिक व्यस्तता एवं मुनाफा होने के बावजूद भी माता-पिता के वृद्धत्व एवं गिरते स्वास्थ्य का समाचार पाकर दोनों भाई व्यापार समेट कर वापिस कलकत्ता होकर भरतपुर आ गये।वैराग्यभाव – माता-पिता की वृद्धावस्था एवं दिन-प्रतिदिन गिरते स्वास्थ्य के कारण दोनों भाई माता- पिता की सेवा में लग गए, रत्नराज ने उनको अंतिम आराधना करवाई एवं एक दिन के अंतर में माता- पिता दोनों ने समाधिभाव से परलोक प्रयाण किया। माता-पिता के स्वर्गवास के पश््चात उदासीन रत्नराज आत्मचिंतन में लीन रहने लगे, नित्य अर्ध-रात्रि में, प्रात:काल में कायोत्सर्ग, ध्यान, स्वाध्याय, चिंतन-मनन आदि में समय व्यतीत करते रहे, सुषुप्त वैराग्यभावना के बीज अंकुरित होने लगे, उसी समय (वि.सं. १९०२) में पूज्य श्री प्रमोदसूरिजी का चातुर्मास भरतपुर में हुआ। आपका तप-त्याग से भरा वैराग्यमय जीवन एवं तत्वज्ञान से ओत-प्रोत वैराग्योत्पादक उपदेशामृत ने रत्नराज के जिज्ञासु मन का समाधान किया, जिससे रत्नराज के वैराग्यभाव में अभिवृद्धि हुई, फलस्वरुप उनकी दीक्षा-भावना जागृत हुई और वे भगवती दीक्षा (प्रवज्या) ग्रहण करने हेतु उत्कंठित हो गये।दीक्षा – दीक्षा को उत्कंठित रत्नराज में उत्पादन उछल रहा था, केवल निमित्त की उपस्थिति आवश्यक थी। निमित्त का योग वि.सं. १९०४ वैशाख सुदि ५ (पंचमी) को उपस्थित हो गया और इस प्रकार अपने बड़े भ्राता माणिकचंदजी की आज्ञा लेकर रत्नराज ने उदयपुर (राज.) में पिछोला झील के समीप उपवन में आम्रवृक्ष के नीचे श्रीपूज्य श्री प्रमोदसूरिजी से यति दीक्षा ग्रहण की, इस प्रकार आपके दीक्षा गुरु आचार्य श्री प्रमोद सूरिजी थे, अब नवदीक्षित मुनिराज मुनि श्री रत्नविजयजी के नाम से पहचाने जाने लगे। अध्ययन – ‘पढमं नाणं तओ दया’ अर्थात ज्ञान के बिना संयम जीवन की शुद्धि एवं वृद्धि नहीं होती, इस बात को निर्विवाद सत्य समझकर गुरुदत्त ग्रहण शिक्षा के साथ-साथ मुनिश्री रत्नविजयजी ने दत्तवित्त होकर अध्ययन प्रारंभ किया। व्याकरण, काव्य, अलंकार, न्याय, दर्शन, ज्योतिष, वैद्यक, कोश, आगम आदि विषयों का सर्वांगीण अध्ययन आरंभ किया। मुनि रत्नविजयजी ने गुरु आज्ञा से खरतगच्छीय यति श्री सागरचंदजी के पास व्याकरण, साहित्य, दर्शन आदि का अध्ययन किया (वि.सं. १९०६ से १९०९) तत्पश््चात निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका, वृत्ति आदि पंचागी सहित जैनागमों का विशद अध्ययन वि.सं. १९१०-११-१२-१३ में श्री पूज्य श्री देवेन्द्रसूरि के पास किया, आपकी अध्ययन जिज्ञासा और रुचि देखकर श्री देवेन्द्रसूरि ने विद्या की अनेक दुरुह और अलभ्य आमनायें प्रदान की, श्री राजेन्द्रसूरि द्वारा (पूर्वार्द्ध) के लेखक रायचन्दजी के अनुसार मुनि रत्नविजय ने ज्योतिष का अभ्यास जोधपुर (राजस्थान) में चंद्रवाणी ज्योतिषी के पास किया।बड़ी दीक्षा – वि.सं. १९०९ में अक्षय तृतीया (वैशाख सुदि तीज) के दिन श्रीमद् विजय प्रमोद सूरिजी ने उदयपुर (राजस्थान) में आपको बड़ी दीक्षा दी, साथ ही श्री पूज्य श्री प्रमोदसूरिजी एवं श्री देवेन्द्रसूरिजी ने आपको उस समय पंन्यास पद भी दिया। अध्यापन – आपकी योग्यता और स्वयं की अंतिम अवस्था ज्ञातकर श्रीपूज्य श्री देवेन्द्रसूरि ने अपने बाल शिष्य धरणेन्द्रसूरिजी (धीर विजय) को अध्ययन कराने हेतु मुनिश्री रत्नविजय जी को आदेश दिया। गुरु आज्ञा व श्रीपूज्यजी के आदेशानुसार आपने वि.सं. १९१४ से १९२१ तक धीरविजय जी आदि ५१ यतियों को विविध विषयों का अध्ययन करवाया और स्व-पर दर्शनों का निष्णांत बनाया। श्री पूज्यश्री धरणेन्द्रसूरि ने भी विद्यागुरु के रुप में सम्मान हेतु आपको ‘दफ्तरी’ पद दिया। दफ्तरी पद पर कार्य करते हुए आपने वि.सं. १९२० में रणकपुर तीर्थ में चैत्र सुदि १३ (महावीर जन्मकल्याणक) के दिन पाँच वर्ष में क्रियोद्धार करने का अभिग्रह किया। वि.सं. १९२२ का चातुर्मास प्रथम बार स्वतंत्र रुप से २१ यतियों के साथ जालोर में किया, इसके बाद वि.सं. १९२३ का चातुर्मास श्री धरणेन्द्रसूरिजी के आग्रह से ‘घाणेराव’में उन्हीं के साथ हुआ।आचार्य पद पर आरोहण: ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है कि वर्षाकाल में ही घाणेराव में ‘इत्र’ के विषय में मुनि रत्नविजय का श्री धरणेन्द्रसूरिजी से विवाद हो गया, श्री रत्नविजय जी साधुचर्या के अनुसार साधुओं को ‘इत्र’ आदि उपयोग करने का निषेध करते थे जबकि धरणेन्द्रसूरि एवं अन्य शिथिलाचारी यति इत्र आदि पदार्थ ग्रहण करते थे। कल्पनासूत्रार्थ प्रबोधिनी के अनुसार वि.सं. १९२३ के पर्युषण पर्व में तेलाधार के दिन शिथिलाचारी को दूर करने के लिये मुनि रत्नविजय ने तत्काल ही मुनि प्रमोदरुचि एवं धनविजय के साथ घाणेराव से विहार कर नाडोल होते हुए आहोर शहर आकर अपने गुरु श्री प्रमोदसूरिजी से संपर्क किया और बीती घटना की जानकारी दी, साथ ही अनेक अन्य विद्वान यतियों ने भी श्री पूज्य श्री प्रमोदसूरिजी शिथिलाचार का उपचार करने हेतु लिखा, तब मुनि रत्नविजय ने आहोर में अट्ठम तप कर मौन होकर ‘नमस्कार महामंत्र’ की एकान्त में आराधना की, आराधना के पश्चात श्री प्रमोदसूरिजी ने रत्नविजय से कहा- ‘रत्न! तुमने क्रियोद्धार करने का निश्चय किया, सो योग्य है, मुझे प्रसन्नता भी है, परंतु अभी कुछ समय ठहरो, पहले इन श्री पूज्यों और यतियों से त्रस्त जनता को मार्ग दिखाओ फिर क्रियोद्धार करो, तत्पश्चात गुरुदेव प्रमोदसूरिजी से विचार विमर्श कर मुनि रत्नविजय ने अपनी कार्य प्रणाली निश्चित की। वि.सं. १९२३ में इत्र विषयक विवाद के समय ही प्रमोदसूरि जी ने मुनि रत्नविजय को आचार्य पद एवं श्रीपूज्य पदवी देना निश्चित कर लिया था।‘श्री राजेन्द्रगुणमंजरी’ आदि में उल्लेख है कि िव.सं. १९२४, वैशाख सुदि पंचमी को श्री प्रमोदसूरिजी ने निज परम्परागत सूरिमंत्रादि प्रदान कर श्रीसंघ आहोर द्वारा किये गये महोत्सव में मुनि श्री रत्नविजय जी को आचार्य पद एवं श्री पूज्य पद प्रदान किया और मुनि रत्नविजय का नाम ‘श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि रखा गया। आहोर के ठाकुर यशवंतसिंह जी ने परम्परानुसार श्रीपूज्य – आचार्य श्रीमद्जय राजेन्द्रसूरि को रजतावृत्त चामर, छत्र, पालकी, स्वर्णमण्डित रजतदण्ड, सूर्यमुखी, चंद्रमुखी एवं दुशाला (कांबली) आदि भेंट दिये, इस प्रकार बालक रत्नराज क्रमश: मुनि रत्नविजय, पंन्यास रत्नविजय और अब श्रीपूज्य एवं आचार्य पद ग्रहण करने के बाद आचार्य ‘श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि नाम से पहचाना जाने लगा। आचार्य पद ग्रहण कर आप मारवाड़ से मेवाड़ की और विहार कर शंभूगढ़ पधारे, वहाँ के राणाजी के कामदार फतेहसागरजी ने पुन: पाटोत्सव किया और आचार्यश्री को शाल (कामली) छड़ी, चँवर आदि भेंट किये। आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि ने शम्भूगढ से विहार करते हुए वि.सं. १९२४ का चातुर्मास जावरा में किया। आचार्य पद पर आरोहण के पश््चात आपका यह प्रथम चातुर्मास था। जावरा चातुर्मास के बाद वि.सं. १९२४ के माघ सुदि ७ को आपने नौकलमी कलमनामा बनाकर श्री पूज्य धरणेन्द्रसूरि द्वारा भेजे गये मध्यस्थ मोतीविजय और सिद्धिकुशलविजय – इन दो यतियों के साथ भेजकर श्री धरणेन्द्रसूरि आदि समस्त यतिगण से अनुमत करवाया।क्रियोद्धार का बीजारोपण : श्री राजेन्द्रसूरिरास (पूर्वार्द्ध) के अनुसार दीक्षा लेकर वि.सं. १९०६ में उज्जैन पधारे तब गुरुमुख से उत्तराध्ययन सूत्र के अन्तर्गत भृगु पुरोहित के पुत्रों की कथा सुनकर मुनि रत्नविजयजी के भावों में वैराग्य वृद्धि हुई और आप क्रियोद्धार करने के विषय में चिंतन करने लगे। श्री राजेन्द्रसूरिरास के अनुसार पंन्यास श्रीरत्नविजयजी जब विहार करते हुए वि.सं. १९२० में राजगढ़ थे तब वहाँ यति मां विजय ने उनको अपने गुरु की खाली गादी पर श्री पूज्य बनकर बैठने को कहा, तब आपने कहा कि मुझे तो क्रियोद्धार करना है – ऐसा कहकर श्रीपूज्य की गादी पर बैठने से मना कर दिया।क्रियोद्धार का अभिग्रह : वि.सं. १९२० में ही पं. रत्नविजयजी अन्य यतियों के साथ विहार करते हुए चैतमास में रणकपुर पधारे तब भगवान महावीर के २३८९ कल्याणक के उपलक्ष में रत्नविजयजी ने अट्ठम (तीन उपवास) तप कर रणकपुर में परमात्मा आदिनाथ की साक्षी से पाँच वर्षों में क्रियोद्धार करने का अभिग्रह लिया था, वहीं पारणा के दिन प्रात:काल में मुनि रत्नविजयजी मन्दिर से दर्शन कर बाहर जिनालय के सोपान उतर रहे थे तब अबोध बालिका ने आकर कहा:- नमो आयरियाणं, महाराज साहब, तेला (अट्ठम तप) सफल हो गया, आप पारणा करो। (क्रियोद्धार) बासठ महीनों में करना – ऐसा कहकर व बालिका दौड़ कर मन्दिर में लुप्त हो गई, इस प्रकार उन्हें दिव्य शक्ति के द्वारा क्रियोद्धार करने का संकेत भी मिला। इसके बाद वि.सं. १९२२ में जालोर (राजस्थान) चातुर्मास में भी आपको क्रियोद्धार करने की तीव्र भावना हुई। यति महेंद्रविजयजी, धनविजयजी आदि ने भी क्रियोद्धार करने में अपनी सहमति बताई। वि.सं. १९२३ में भी जब आप घाणेराव से आहोर पधारे थे तब भी आपने आहोर में एक महिना तक अभिग्रह धारण कर शुद्ध अन्न-पानी ही उपयोग में लिये, इतना ही नहीं अपितु राजेन्द्रसूरिरास में तो स्पष्ट उल्लेख है कि श्रीपूज्य पद ग्रहण करने के पश्चात आपने गुरुश्री प्रमोद्सूरिजी से भी क्रियोद्धार हेतु विचार -विमर्श कर आज्ञा भी प्राप्त की थी, अत: उत्कृष्ट तप- त्यागमय शुद्ध साधु जीवन का आचरण एवं वीरवाणी के प्रचार के लिए एक मात्र ध्येय की पूर्ति हेतु पूर्वोत्कारनुसार धरणेन्द्रसूरि आदि के द्वारा नव कलमनामा अनुमत होने के बाद आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरिश्वर जी ने वि.सं. १९२५ में आषाढ वदि दशमी शनिवार/सोमवार, रेवती नक्षत्र, मीन राशि, शोभन (शुभ) योग, मिथुन लग्न में तदनुसार दिनांक १५-६-१८६८ में क्रियोद्धार कर शुद्ध जीवन अंगीकार किया, उसी समय छड़ी, चामर, पालखी आदि समस्त परिग्रह श्री ऋषभदेव भगवान के जिनालय में श्री संघ जावरा को अर्पित किया, जिसका ताड़पत्र पर उत्कीर्ण लेख श्री सुपार्श्वनाथ के गर्भगृह के द्वार पर लगा हुआ है।क्रियोद्धार के समय आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरिजी ने अट्ठाई (आठ उपवास) तप सहित जावरा शहर के बाहर (खाचरोद की ओर) नदी के तट पर वटवृक्ष के नीचे नाण (चतुर्मुख जिनेश्वर प्रतिमा) के समक्ष केशलोंच किया, पंच महाव्रत उच्चारण किये एवं शुद्ध साधु जीवन अंगीकार कर सुधर्मा स्वामी जी की ६८वीं पाट परम्परा पर आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरिश्वरजी नाम से प्रख्यात हुए, तत्कालीन शिष्यरत्न, राष्ट्रसंत आचार्य श्रीमद्विजय जयंतसेन सूरिश्वरजी के उपदेश से खीमेल (राजस्थान) निवासी किशोरमलजी वालचंदजी खीमावत परिवार के सहयोग से श्री संघ जावरा द्वार क्रियोद्धारस्थली श्री राजेन्द्रसूरि वाटिका – जावरा (म.प्र.) में एक सुरम्य गुरुमन्दिर का निर्माण किया गया। गुरुदेव श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरिश्वरजी ( Gurudev Shrimad Vijayrajendrasurishwarji )

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