Category: महावीर जन्म कल्याणक पर्व ‘जैन एकता’

पूर्वजन्म प्रभू ऋषभदेव का

वैसे तो संसार का प्रत्येक प्राणी अनादि काल से जन्म मरण भोगता आ रहा है लेकिन सार्थक वही जन्म होता है जिसमें जीव ने संसार परित्त (सीमीत) किया, उसी क्रम में प्रभु ऋषभ का जीव भी कई भव पूर्व जम्बूद्वीप के पश्चिम विदेह की क्षिति प्रतिष्ठित नगरी के प्रसन्नचन्द्र राजा के राज्य में धन्ना सार्थवाह था, एक बार व्यापार के लिए बसंतपुर जाने का निश्चय करके, धन्ना ने राजाज्ञा पूर्वक नगर में घोषणा कराई कि यदि उनके साथ कोई चलना चाहे तो यथायोग्य पूर्ण सहयोग दिया जायेगा, इस घोषणा की जानकारी तंत्र विराजित आचार्य धर्मघोष को भी मिली। बसंतपुर की ओर विहार करने का निर्णय करके सार्थवाद से आज्ञा लेकर साथ में विहार कर दिया। रास्ते में वर्षाकाल से मार्ग अवरूद्ध हो जाने से सुरक्षित स्थान देखकर सार्थ को वहीं रूकने का आदेश दे दिया। धन्ना सार्थवाह के मुनीम मणिभ्रद ने आचार्य धर्मघोष व उनके शिष्यों को भी अपने झोपड़े में ठहरने की व्यवस्था करदी, लेकिन वर्षा का क्रम इतना लंबा हो गया, जिससे साथ की, सारी खाद्य सामग्री समाप्त हो गई। लोग कंद मूल खाकर समय निकालने लगे। धन्ना सार्थवाह को जब इस स्थिति का पता चला तो वह विचार में पड़ गया कि ऐसी स्थिति में मुनिराजों को आहार वैâसे प्राप्त हो रहा होगा। चिंतातुर स्थिति में वह सीधा चलकर मुनियों के पास आया और पश्चाताप करता हुआ आहार ग्रहण करने की प्रार्थना करने लगा। सार्थवाह को पश्चाताप करते देख आचार्यश्री के निर्देशानुसार एक शिष्य भिक्षाटन करते हुए उसके आवास पहँुच गया। अपने आवास में मुनिराज को आते देख हर्ष विभोर होते हुए साधुओं के योग्य आहार देखने लगा, लेकिन अन्य सामग्री को अप्रासुक देख चिंतित होते हुए उसकी दृष्टि पास में पड़े (प्रासुक) घी के घड़े पर पड़ी और बड़े प्रमुदित भाव से मुनिराज को ग्रहण करने का आग्रह करने लगा। मुनिराज ने झोली में से पात्र निकाला। सार्थवाह उत्कृष्ट भाव से पात्र में घी बहराने लगा, उसी समय एक देव ने उसकी उत्कृष्ट भावों की परीक्षा हेतु मुनिराज की दृष्टि बांध ली। मुनिराज का पात्र घी से भर, घी बाहर बहने लगा, फिर भी मना नहीं कर सके। सार्थवाह उत्कृष्ट भाव से बहराता ही रहा जिसके फलस्वरूप उन्हीं उत्कृष्ट परिणामों से उसने सम्यक्त्व की प्राप्ति की, वहां की आयु पूर्ण कर तीसरे भव में सौधर्म कल्प में देव बना। आयु पूर्णकर चौथे भव में महाविदेह की गन्धिलावती विजय के गान्धार देश की गंध समृद्धि नगरी के शतबल नामक विद्याधर राजा की चन्द्रकांता रानी की कुक्षि से पुत्र रूप में पैदा हुआ जिसका नाम `महाबल’ रखा गया। यौवनास्था में उसका विवाह सम्पन्न कर राजा शतबल ने महाबल का राज्याभिषेक कर दीक्षा ग्रहण कर ली। महाबल राजा अपने एक बाल साथी व चार प्रधानों के साथ नर्तकी द्वारा किये जा रहे नृत्य में आसक्त हो रहे थे, इधर स्वयंबुद्ध नामक मंत्री, जिसे यह ज्ञात हो चुका था कि जंघाचरण मुनि द्वारा महाबल की सिर्फ एक माह की उम्र शेष है, ने राजा के समक्ष यह बात निवेदित कर दी, इससे प्रतिबोधित होकर राजा महाबल उत्कृष्ट भाव से संयम ग्रहण करके २२ दिन के अनशन पूर्वक देह त्याग कर ५ वें भव में दुसरे देवलोक में श्रीप्रभ विमान के स्वामी ललितांग देव बने। इनकी प्रधान देवी स्वयंप्रभा थी। ज्ञानी महापुरूषों से मुनि महाबल के देवयोनि में जन्मादि विषयक रहस्य जानकर स्वयं बुद्ध मंत्री ने भी सिद्धाचार्य के पास दीक्षा ग्रहण कर ली। उत्कृष्ट आराधना के साथ आयु पूर्णकर मुनि स्वयंबुद्ध ईशानकल्प में देव बना, इधर ललितांग देव व स्वयं प्रभादेवी की आयु पुर्ण करके महाविदेह क्षेत्र की पुष्कलावती विजय में लोहार्दगल नगर के राजा स्वर्ण जंग की महारानी लक्ष्मी की कुक्षि से वङ्काजंग नाम के पुत्र व श्रीमती नामक पुत्री के रूप में उत्पन्न हुए। यौवनावस्था में श्रीमती ने एक देव विमान को देखा, उसे देखकर जातिस्मरण ज्ञान के माध्यम से वह अपने पूर्वभव के पति का स्मरण करने लगी। पूर्वभव के पति की गहरी स्मृतियों के फलस्वरूप उसने यह प्रतिज्ञा धारण कर ली कि जब तक वे उसे नहीं मिलेंगे तब तक वह किसी से नहीं बोलेगी, यह बात उसकी पंडिता नामक दासी ने जान ली। श्रीमती की सहायता करने हेतु दासी ने इशान कल्प के ललितांग देव के विमान का कुछ त्रुटिपूर्ण चित्र बनाकर राजपथ पर टांग दिया, जिसे देखते ही वङ्काजंग को भीजातिस्मरण ज्ञान हो गया और उसने उस चित्र में रही त्रुटि को दूर कर दिया। यह बात उनके पिता सवर्ण जंग को मालूम हुई तब उन्होंने दोनों की शादी कर दी। कुछ समय पश्चात् श्रीमती ने एक पुत्र को जन्म दिया। धीरे-धीरे पुत्र युवावस्था को प्राप्त होने लगा, उसको युवा होते देख रात्रि को दोनों ने उसको राज्य सौंप कर दीक्षा ग्रहण करने का विचार किया, उधर उसी रात्रि को पुत्र ने राज्य लोभ में विषाक्त धुँआ उनकेमहल में छोड़ दिया। फलत: दोनों ने शुभ परिणामों से अपनी आयु पूर्ण कर ७ वें भव में ३ पल्योपम की स्थिति वाले कुरूक्षेत्र के युगलिक रूप से जन्म लिया। वहां की आयु पूर्ण कर दोनों ने ८ वें भव में सौधर्म देवलोक में देव बने, वहां की आयु पूर्णकर ९ वें भव में वज्रजंग का जीव जंबूद्वीप के महाविदेह में क्षिति प्रतिष्ठित नगर के सुविधि वैद्य के यहां जीवानंद नामक पुत्र रूप में जन्म लिया और श्रीमती का जीव इसी नगर में श्रेष्ठि ईश्वरदत्त के पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ, जिसका नाम राव रखा गया। इसी काल में राजा ईशानचंद की रानी कनकवती के भी एक पुत्र हुआ, जिसका नाम महीधर रखा गया। राजा के मंत्री सुवासीर की पत्नी लक्ष्मी के सुबुद्धि नाम का पुत्र हुआ। सागरदत्त सार्थवाह की पत्नी अभागी के पुर्णचंद्र व धनश्रेष्ठि की पत्नी शीलवती के गुणकर पुत्र हुआ, पूर्वभव की प्रीति से सब में परस्पर मित्रता हो गई, यौवनवय में जीवानंद प्रसिद्ध वैद्य बन गया। एक दिन सभी मित्रों ने जंगल में घूमते हुए एक मुनि को ध्यानस्थ देखा। मुनि का शरीर भयंकर व्याधि से ग्रस्त था, इसे देखकर परस्पर उपचार का चिंतन करने लगे। वैद्य जीवानंद बोला-“भैया इनके उपचार हेतु अन्य औषध तो मेरे पास है पर रत्न कंबल और गोशीर्ष चंदन की आवश्यकता है। पांचोें मित्रों ने बाजार में खोज की तो एक श्रेष्ठी के यहां दोनों वस्तुएँ मिल गई। मुनिराज के उपचार की बात सुनकर सेठ ने दोनों चीजें बिना मूल्य लिये ही दे दी और खुद भी सेवा में जुट गया। उपचार करने पर मुनि पूर्णत: नीरोग हो गये। तत्पश्चात् मुनि के उपदेश से प्रभावित होकर सभी मित्रों ने उनसे संयम ग्रहण कर लिया औरवे सब अनुशासन पूर्वक आयु पूर्ण कर दसवें भव में अच्युत कल्प के इन्द्र के सामानिक देव हुए। वहां से जीवानंद का जीव ११वें भव में जंबू द्वीप के महाविदेह क्षेत्र में पुण्डरीकिणी नगरी के वङ्कासेन राजा की धारिणी रानी के गर्भ से १४ स्वप्न के साथ पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ, इसका नाम वङ्कानाभ रखा गया, शेष पांचों ने उनके लघुभ्राता रूप में जन्म लिया। वङ्कानाभ के युवा होने पर वङ्कासेन राजा ने उसका राज्याभिषेक कर स्वयं ने दीक्षा ग्रहण की और केवलज्ञान प्राप्ता fकया। वङ्कानाभ सम ्राट बना। छा ेट े भाई बाहु, सुबाहु, पीठ और महापीठ नामक मांडलिक राजा बनें। सुयश चक्रवर्ती का सारथी बना। पिता वङ्कासेन के उपदेश से प्रतिबोधित हो छहों ने संयम ग्रहण किया। वङ्कानाथ ने बीस बोलों की आराधना से तीर्थंकर गोत्र का उपार्जन किया और अपने साथियों के साथ आयु पूर्णकर सर्वार्थ सिद्ध नामक विमान में देव बनें। विगत चौबीसी के अंतिम तीर्थंकर संप्रति के निर्वाण होने के बाद १८ कोड़ाकोड़ी सागरोपम के बीतने पर भरत क्षेत्र में तीसरे आरे के ८४ लाख पूर्व ३ वर्ष साढ़े आठ महीने शेष रहने पर, सर्वार्थ सिद्ध विमान का आयु पूर्ण कर आषाढ़ कृष्ण चतुर्दशी को उत्तराषाढ़ा नक्षत्र से चंद्र का योग होते ही प्रभु ऋषभदेव का जीव वहां से चलकर नाभि कुलकर की पत्नी मरूदेवी के गर्भ मेंआया। माता मरूदेवी ने हाथी वृषभादि १४ दिव्य स्वप्न देखे। गर्भ में आने के ठीक नौ महीने साढ़े सात रात्रि व्यतीत होने पर चैत्र कृष्णा अष्टमी की रात्रि को उत्तराषाढ़ा नक्षत्र से चंद्रमा का योग होने पर प्रभू ने युगलरूप से जन्म लिया। ५६ दिक्कुमारियोें व शक्रेन्द्र आदि ६४ इन्द्रों ने जन्मोत्सव मनाया, यथासमय इनका नाम ऋषभ रखा गया। इन्द्र द्वारा प्रदत्त ‘इक्षु’ चूसने से इक्ष्वाकु कुल प्रचलित हुआ। अन्य युगलिकों द्वारा ‘काश’ का रस ग्रहण करने से काश्यप गोत्र चल पड़ा।

अहिंसा ही मानव धर्म है : तीर्थंकर महावीर

‘‘मधुरिमा कंठ में न होती तो शब्द विषपान बन गया होता।आस्था दिल में न होती तो हृदय पाषाण बन गया होता।प्रभू वीर से लेकर अब तक अगर ऐसा जिन धर्म न मिलतातो यह संसार वीरान बन गया होता’’ अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है। तीर्थंकर महावीर अहिंसा और अपरिग्रह की साक्षात मूर्ति थे। तीर्थंकर महावीर स्वामी ने हमें अहिंसा का पालन करते हुए, सत्य के पक्ष में रहते हुए, किसी के हक को मारे बिना, किसी को सताए बिना, अपनी मर्यादा में रहते हुए पवित्र मन से, लोभलालच किए बिना, नियम में बंधकर सुख-दुख में संयमभाव में रहते हुए, आकुल-व्याकुल हुए बिना, धर्म संगत कार्य करते हुए ‘मोक्ष पद’ पाने की ओर कदम बढाते हुए दुर्लभ जीवन को सार्थक बनाने का संदेश दिया, वे सभी के साथ समान भाव रखते थे और किसी को भी कोई दुःख नहीं देना चाहते थे, पंचशील सिध्दान्त के प्रवर्तक एवं जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी मूर्तिमान प्रतिक थे, जिस युग में हिंसा, पशुबलि, जात-पात के भेदभाव का बोलबाला था, उसी युग में महावीर ने जन्म लिया, उन्होंने दुनिया सत्य एव अहिंसा जैसे खास उपदेशों के माध्यम से सही राह दिखाने की कोशिश की, उन्होंने जो बोला सहज रूप से बोला, सरल एवं सुबोध शैली में बोला, सापेक्ष दृष्टि से स्पष्टिकरण करते हुए बोला, आपकी वाणी ने लोक हृदय को अपूर्व दिव्यता प्रदान की, आपका समवशरण जहाँ भी गया वह कल्याणधाम हो गया। तीर्थंकर महावीर ने प्राणीमात्र की हितैषिता एवं उनके कल्याण की दृष्टि से धर्म की व्याख्या की, आपने कहा ‘‘धम्मो मंगल मुक्किटठं, अहिंसा संजमा तवो’’ (धर्म उत्कृष्ट मंगल है, वह अहिंसा संयम तथा तप रूप है) एक धर्म ही रक्षा करने वाला है, धर्म के सिवाय संसार में कोई भी मनुष्यका रक्षक नहीं है। धर्म भावना से चेतना शुध्दिकरण होता है। धर्म से वृत्तियों का उन्नयन होता है। धर्म व्यक्ति के आचरण को पवित्र एवं शुध्द बनाता है। धर्म से सृष्टि के प्रति करूणा एवं अपनत्व की भावना उत्पन्न होती है, इसलिए तीर्थंकर महावीर ने कहा, “एगा धम्म पडिमा, जं से आयो पवज्जवजाए’’ अर्थात धर्म ऐसा पवित्र अनुष्ठान है जिससे आत्मा का शुध्दिकरण होता है। तीर्थंकर महावीर ने मानव भव दुर्लभता का वर्णन करते हुए गणधर गौतम से कहा था कि हे गौतम! सब प्राणियों के लिए चिरकाल में मनुष्य जन्म दुर्लभ है क्योंकि कर्मो का आवरण उतीव गहन है, अंततः इस भाव को पाकर एक क्षण के लिए भी प्रमाद तथा आलस नहीं करना चाहिए, अनेक गतियों और योनियों में भटकते जब जीव शुध्दि को प्राप्त करता है तब कहीं जाकर मनुष्य योनि प्राप्त होती है। तीर्थंकर महावीर का कहना था कि किसी आत्मा की सबसे बड़ी गलती अपने असली रूप को नहीं पहचानना है तथा यह केवल आत्मज्ञान प्राप्त कर ही ठीक की जा सकती है। मनुष्य को अपने जीवन में जो धारण करना चाहिए वही धर्म है, धारण करने योग्य क्या है? क्या हिंसा, क्रूरता, कठोरता, अपवित्रता, अहंकार, क्रोध, असत्य, असंयम, व्यभिचार, परिग्रह आदि विकार धारण करने योग्य है? यदि संसार का प्रत्येक व्यक्ति हिंसक हो जाए तो समाज का अस्तित्व ही समाप्त हा े जाएगा तथा सर्व त्र भय, अशा ां fत एव ं पाशविकता का साम्राज्य स्थापित हो जाएगा। संपूर्ण विश्व में एकमात्र ‘जैन धर्म’ ही इस बात में आस्था रखता है कि प्रत्येक आत्मा में परमात्मा बनने की शक्ति विद्यमान है अर्थात्म हावीर की तरह ही प्रत्येक व्यक्ति ‘जैन धर्म’ ज्ञान प्राप्त कर, उसमें सच्ची आस्था रख, उसके अनुसार आचरण कर बड़े पुण्योदय से उसे प्राप्त कर दुर्लभ मानव योनी का एकमात्र सच्चा व अंतिम सुख, संपूर्ण जीवन जन्म-मरण के बंधन से मुक्त होने वाले कर्म करते हुए मोक्ष महाफल पाने हेतु कदम बढ़ाना तथा उसे प्राप्त कर वी महावीर बन, दुर्लभ जीवन को सार्थक कर सकता है। महावीर ने कोई ग्रंथ नहीं लिखा उन्होंने जो उपदेश दिए, गणधरों ने उनका संकलन किया, वे संकलन ही शास्त्र बन गए, इनमें काल, लोक, जीव आदि के भेद–प्रभेदों का इतना विशुध्द एवं सूक्ष्म विवेचन है कि यह एक विश्व कोष का विषय नहीं अपितु ज्ञान विज्ञान की शाखाओं के अलग-अलग विश्व कोषों का समाहार है। आज के भौतिक युग में अशांत जन मानस को तीर्थंकर महावीर की पवित्र वाणी ही परम सुख और शांति प्रदान कर सकती है यदि आज संसार के लोग तीर्थंकर महावीर के अहिंसा परमो धर्म, अपरिग्रह और अनेकांतवाद को अपना लें तो प्रत्येक प्रकार की समस्याएं मिट सकती है, शांति स्थापित को सकती है और मानव सुखी रह सकता है।

इंडिया भारत कहलाएगा – मुनिश्री निरंजनसागर

सुप्रसिद्ध जैन सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर में संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रभावक शिष्य मुनिश्री निरंजनसागरजी महाराज ने महात्मा गांधीजी की पुण्यतिथि पर प्रवचन देते हुए कहा कि भारत आज तक अपने अस्तित्व को नहींपाया है, किसी भी देश की पहचान का प्रमुख अंग उसका नाम हैं, उसकी स्वयं की भाषा है, उसकी स्वयं की आहार शैली, उसकी अपनी वेशभूषा है, उसकी अपनी शिक्षा पद्धति है, उसकी अपनी औषध विद्या है, परंतु आज हम सभी आवश्यकताओं पर विदेशों पर निर्भर होते जा रहे हैं। आज का नवयुवक विदेशी जीवन शैली को अपनाने की होड़ में दौड़ रहा है। यह अंतहीन दौड़ हमें हमारे संस्कारों से हमारे देश से, हमारे धर्म से कोसों दूर करती जा रही है। आज का नवयुवक जो देश का भविष्य कहलाता है, स्वयं अपने भविष्य के बारे में चिंतन से रहित होकर मात्र वर्तमान की चकाचौंध भरी ऐसी जीवनशैली जी रहा है, जिसका कोई ओर-छोर नहीं है। उद्देश्य से भटका हुआ नवयुवक वर्ग ही ‘भारत’ की सबसे बड़ी समस्या है, मात्र गांधी जी के विचारों को अपनाकर ही हम इस विकट समस्या से मुक्ति पा सकते हैं। गांधीजी जैसा व्यक्तित्व कभी मरण को प्राप्त नहीं हो सकता है। गांधीजी आज भी ‘भारत’ की आत्मा में बसे हुए हैं। वर्तमान में राष्ट्रहित चिंतक आचार्य गुरुवर विद्यासागर जी महामुनिराज ने इंडिया नहीं ‘भारत’ बोलो, स्वदेशी रोजगार, भारतीय भाषा, भारतीय वस्त्र शैली, भारतीय औषध विज्ञान, भारतीय शिक्षा पद्धति, भारतीय कृषि का पुनरुत्थान आदि विषयों को अपने उपदेश का विषय बनाया और उनके प्रभावक राष्ट्र चिंतन से प्रभावित होकर एक बड़ा नवयुवक वर्ग उनके उपदेश को पूर्ण करने हेतु तत्पर हुआ, जिसका परिणाम यह है पूर्णायु औषधालय, प्रतिभास्थली विद्यापीठ, भाग्योदय चिकित्सालय, दयोदय गौशाला, श्रमदान हथकरखा केंद्र, शांतिधारा दुग्ध योजना आदि प्रकल्प आज भारतीयता को जीवंत कर हमें पूर्ण स्वदेशीयता के साथ सत्य और अहिंसा की पुनर्स्थापना करने में लगे हुए हैं। आज ऐसा लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब गांधी जी का भारत अपनी खोई हुई पहचान पुनः पा जाएगा और केवल ‘भारत’ ही कहा जाएगा।

तीर्थंकर महावीर का दिव्य संदेश

स्वयं जीयो और दूसरे को भी जीने दा तीर्थंकर महावीर स्वामी का जन्म कल्याणक ‘महावीर जयन्ती’ के नाम से भी प्रसिद्ध है।महावीर स्वामी का जन्म चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में हुआ था। ईस्वी कालगणना के अनुसार सोमवार, दिनांक २७ मार्च, ५९८ ईसा पूर्व के माँगलिक प्रभात में वैशाली के गणनायक राजा सिद्धार्थ के घर महावीर का जन्म हुआ था। महावीर स्वामी का तीर्थंकर के रुप में जन्म उनके पिछले अनेक जन्मों की सतत् साधना का परिणाम था, कहा जाता है कि एक समय महावीर का जीव पुरुरवा भील था, संयोगवश उसने सागरसेन नाम के मुनिराज के दर्शन किए, मुनिराज रास्ता भूल जाने के कारण उधर आ निकले थे। मुनिराज के धर्मोपदेश से उसने धर्म धारण किया। महावीर के जीवन की वास्तविक साधना का मार्ग यहीं से प्रारम्भ होता है, बीच में उन्हें कौन-कौन से मार्गों से जाना पड़ा, जीवन में क्या-क्या बाधाएँ आईं और किस प्रकार भटकना पड़ा? यह एक लम्बी और दिलचस्प कहानी है जो सन्मार्ग का अवलम्बन कर, जीवन के विकास की प्रेरणा देती है। महावीर स्वामी का जीवन हमें एक शान्त पथिक का जीवन लगता है जो कि संसार में भटकते-भटकते थक गया है। भोगों को अनन्त बार भोग लिये, फिर भी तृप्ति नहीं हुई, अत: भोगों से मन हट गया, अब किसी जीज की चाह नहीं रही, परकीय संयोगों से बहुत कुछ छुटकारा मिल गया, अब जो कुछ भी रह गया उससे भी छुटकारा पाकर, महावीर मुक्ति की राह देखने लगे। एक बार बालकों के साथ बहुत बड़े वटवृक्ष के ऊपर चढ़कर खेलते हुए वर्धमान के धैर्य की परीक्षा करने के लिए संगम नामक देव, भयंकर सर्प का रुप देख सभी बालक भाग गए, किन्तु वर्धमान इससे जरा भी विचलित नहीं हुए, वे निडर होकर वृक्ष से नीचे उतरे। संगमदेव उनके धैर्य और साहस को देखकर दंग रह गया, उसने अपना असली रुप धारण किया और महावीर स्वामी नाम की स्तुति कर चला गया। महान् पुरुषों का दर्शन ही संशयचित लोगों की शंकाओं का निवारण कर देता है। संजय और विजय नामक दो चारण ऋद्धिधारी देव थे, जिन्हें तत्त्व के विषय में कुछ शंका थी। कुमार वर्द्धमान को देखते ही उनकी शंका दूर हो गई, उन देव ने प्रसन्नचित हो कुमार का सन्मति नाम रखा। एक दिन ३० वर्ष का वह त्रिशलानन्दन कर्मों का बन्धन काटने के लिए तपस्या और आत्मचिन्तन में लीन रहने का विचार करने लगा, कुमार की विरक्ति का समाचार सुनकर माता-पिता को बहुत चिन्ता हुई। कलिंग के राजा जितशत्रु ने अपनी सुपुत्री यशोदा के साथ कुमार वर्द्धमान के विवाह का प्रस्ताव भेजा, उनके इस प्रस्ताव को सुनकर माता-पिता ने जो स्वप्न संजोए थे, आज वे स्वप्न उन्हें बिखरते हुए नजर आ रहे थे। वर्धमान को बहुत समझाया गया, अन्त में माता-पिता को मोक्षमार्ग की स्वीकृती देनी पड़ी। मुक्ति के राही को भोग जरा भी विचलित नहीं कर सके। मंगशिर कृष्ण दशमी सोमवार, २९ दिसम्बर ५६९ ईसा पूर्व को मुनिदीक्षा लेकर वर्द्धमान स्वामी ने शालवृक्ष के नीचे, तपस्या आरम्भ कर दी, उनकी तप साधना बड़ी कठिन थी।महावीर की साधना मौन साधना थी, जब तक उन्हें पूर्ण ज्ञान की उपलब्धि नहीं हो गई तब तक उन्होेंने किसी को उपदेश नहीं दिया। वैशाख शुक्ल दशमी, २६ अप्रैल, ५५७ ईसा पूर्व का वह दिन चिरस्मरणीय रहेगा जब त्रृम्बक नामक ग्राम में अपराह्न समय गौतम, उनके प्रमुख शिष्य (गणधर) हुए, उनकी धर्मसभा समवसरण कहलाई, इसमें मनुष्य, पशु-पक्षी आदि सभी प्राणी उपस्थित होकर धर्मोपदेश का लाभ लेते थे। लगभग ३० वर्ष तक उन्होंने सारे भारत में भ्रमण कर लोकभाषा प्राकृत में सदुपदेश दिया और कल्याण का मार्ग बतलाया, संसार-समुद्र से पार होने के लिए उन्होंने तीर्थ की रचना की, अत: वे तीर्थंकर कहलाए। आचार्य समन्तभद्र ने भगवान् के तीर्थ को सर्वोदय तीर्थ कहा है, व्यक्ति के हित के साथ-साथ महावीर के उपदेश में समष्टि के हित की बात भी निहित थी। उनका उपदेश मानवमात्र के लिए ही सीमित नहीं था, बल्कि प्राणिमात्र के हित की भावना उसमें निहित थी। महावीर! श्रमण परम्परा के उन व्यक्तियों में से एक थे जिन्होंने यह उद्घोष किया था कि हर प्राणी एक समान है। मनुष्य और क्षुद्र कीट-पतंग में आत्मा के अस्तित्व की अपेक्षा में कोई अन्तर नहीं, उस समय जबकि मनुष्य के बीच में भी दीवारें खड़ी हो रही थीं, किसी वर्ण के व्यक्ति को ऊँचा और किसी को नीचा बतलाकर, एक वर्ग विशेष का स्वत्वाधिकार कायम किया जा रहा था, उस समय मानवमात्र का प्राणिमात्र के प्रति समत्वभाव का उद्घोष करना, बहुत बड़े साहस की बात थी, तत्कालीन अन्य परम्परा के लोगों द्वारा इसका घोर विरोध हुआ, अन्त में सत्य की ही विजय हुई। करोड़ों-करोड़ों पशुओं और दीन-दु:खियों ने चैन की सांस ली। समाज में अहिंसा का महत्व पुर्नस्थापित हुआ। महावीर स्वामी ने नारा बुलन्द किया था कि प्रत्येक आत्मा परमात्मा बन सकती है, कर्मों के कारण आत्मा का असली स्वरुप अभिव्यक्त नहीं हो पाता। कर्मों को नाशकर शुद्ध, बुद्ध और सुखरुप स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार तीस वर्षों तक तत्त्व का भली-भाँति प्रचार करते हुए तीर्थंकर महावीरएक समय मल्लों की राजधानी पावा पहुँचे, वहाँ के उपवन में कार्तिक कृष्ण अमावस्या मंगलवार, १५ अक्टूबर, ५२७ ई.पू. को ७२ वर्ष की आयु में उन्होंने निर्वाण प्राप्त कर लिया।