एकता में शक्ति

वाह जिनागम!

मुझे जिनागम पत्रिका मिली, बराबर तीन दिनों तक इस पत्रिका पर चिन्तन किया, बहुत ही शिक्षाप्रद है, थोड़ा सा समय हम-सभी आत्म चिन्तन में लगायें, जैन समाज जो बिखरा हुआ है, हम आपस में झगड़ते हैं, जिसका लाभ दूसरों को मिल जाता है।दिगम्बर-श्वेताम्बर हम सब ‘एक’ बन जायें, भारत में शासन करने लगें, एकता में ही शक्ति निहित है। उदाहरण के तौर पर एक छोटा सा लेख लिख रहा हूँ, ध्यान से पढिये और आत्म चिन्तन करिये।

एक व्यक्ति के पास रेशम का धागा था, रेशम के धागे आपस में लड़ने लगे, अलग-अलग रहने की सबने ठानी। धागे दर्जी के पास गये और कहा हमारे टुकड़े कर दो। दर्जी ने रेशम के धागे के टुकड़े कर दिये। धागे हवा से इधर-उधर हो गये, एक व्यक्ति आया उसने देखा, रेशम के धागे हैं जिसको एक कर बड़ा से गट्टा बना दिया, फिर जंगल में गया खजूर की पत्तियों को इकट्ठा किया, फिर उसकी सिलाई करके चटाई बनाई, उसने चटाई को बाजार में बेच दिया।

धागे अलग-अलग रहे तो कोई नहीं पूछा, जब एक हो गये तो उसका आदर हो गया, इसी तरह जैन समाज अलग-अलग रहेगें तो हमारे ऊपर हमले होते रहेगें, चारों सम्प्रदाय एक हो जायें तो हमारा कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता। धर्म एक है, मान्यता अलग रहे हमारे धर्म पर, हमारे मुनियों पर हमले हों तो उस समय ‘एकता’ का परिचय जरूर दें।

धागे अलग-अलग रहे तो कोई नहीं पूछा, जब एक हो गये तो उसका आदर हो गया, इसी तरह जैन समाज अलग-अलग रहेगें तो हमारे ऊपर हमले होते रहेगें, चारों सम्प्रदाय एक हो जायें तो हमारा कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता। धर्म एक है, मान्यता अलग रहे हमारे धर्म पर, हमारे मुनियों पर हमले हों तो उस समय ‘एकता’ का परिचय जरूर दें।‘हिन्दी’ हमारी राष्ट्रीय भाषा है फिर भी हम हिन्दी को राष्ट्रभाषा नहीं मानते, जब ‘हिन्दी’ को सभी भारतीय बोलने लग जायेगें, तो भारत का नाम दुनिया में रोशन हो जायेगा, ‘हिन्दी’ भाषा राष्ट्र की है जिसके हम अनुयायी हैं।

– महावीर प्रसाद अजमेरा
जोधपुर, राजस्थान, भारत

बढ़ता हुआ आयुष्य

भारत में पहले औसत आयु ४०-५० वर्ष की रही, जो बाकी दुनियां के काफी देशों से कम थी, इसका मुख्य कारण था, छोेटे बच्चों का जन्म के बाद ही जल्दी मृत्यु प्राप्त हो जाना, जिसका मुख्य कारण था, बच्चों के जन्मते ही कोई न कोई इत्तेफाक होना, उस समय अस्पतालों व नर्सिंग होम की प्रसव करवाने की साफ-सुथरी व अन्य व्यवस्थायें नहीं थी, अत: पहला प्रसव होते-होते ही २५-३० प्रतिशत महिलायें नवजात शिशु व कभी-कभी दोनों ही काल-कलवित हो जाते थे, उसके बाद जो बच भी जाती थी, उनसें काफी रोगग्रस्त हो जाती थी, ५-१० प्रतिशत कुछ वर्षों में यानि जल्दी ही कम आयु में मृत्यु वरण कर लेती थी, इसके अलावा माता बोदरी एवं चेचक आदि अनेकों बच्चों के रोग उनको छोटी उम्र में ही घेर लेते थे एवं समुचित इलाज के अभाव में या तो बच्चे काल-कलवित हो जाते थे या पोलियोग्रस्त एवं बदरूप भी हो जाते थे।

बड़े लोगों में हैजा, मलेरिया, लकवा, हार्ट फेल ऐसे अनेकों रोगों से, इलाज के अभाव में, कम उम्र में मर जाते थे, अत: हमारा औसत आयु अन्य देशों से काफी कम था। स्वतंत्रता के बाद इस ओर धीरे-धीरे ध्यान गया, चिकित्सा सुविधायें बढ़ने लगी, लोग बाग भी स्वास्थ्य नियमों व साफ-सफाई आदि के प्रति जागरूक बने, अब प्रसव में मरने वाली महिला व नवजात बच्चों के मरने के प्रतिशत प्राय:-प्राय: बहुत ही कम हो गये हैं। चिकित्सा सुविधायें व दवाइयों का प्रचलन इतना अधिक बढ़ गया है कि मृत्यु के नजदीक जाने वाली अवस्था प्राप्त व्यक्ति भी डॉक्टरों, मशीनों व वेण्टीलेटर द्वारा जिन्दा रखे जाने की कोशिश होती है, जब तक उसके परिजन रोजाना का हजारों रुपयों का खर्च बर्दाशत कर सकते हैं, ऐसा नर्सिंग होम में जमा होने वाला एडवांस एवं परिजनों के हावभाव से आंकलन किया जा सकता हैं।

अब तो औसत आयु का बढ़ना कुछ समस्या भी होने लगी है, विशेषकर सरकारी नौकरी से रिटायर होने के बाद जो पेंशन औसत ५-१० वर्ष देनी होती थी, अब २०-३० वर्ष तक चालू रहती है एवं सरकार के बजट पर यह पेंशन भारी बोझ की तरह रहती है, मेरा यह सोच, फिर इस तरह से लिखना कुछ घटिया सा ही लगा होगा? लेकिन अब सोचिये इसके बाद की बात, वर्तमान में औसत आयु ७० वर्ष हो चुकी है, कई देशों में इससे भी ज्यादा अधिक है। वर्तमान में इतने रिसर्च हो गये हैं कि आपके खराब हुए अंग-प्रत्यंग अन्य कृत्रिम अंगों से बदल दिये जाते हैं और वो अच्छी तरह काम करते हैं। हार्ट अटैक व कैंसर आदि पर भी काफी काबू पाया जा चुका है, भले ही उनकी दवाइयों से साइड फ्लू, हिप्पेटाईटिस आदि जिनमें कइयों का अभी नामकरण भी होना बाकी है।

अब तो लेबोरेटरी में कृत्रिम खून भी बना लिया गया है, उसके अलावा शरीर के अन्य अंग-प्रत्यंग, नसों व कोशिकाओं का भी आविष्कार हो चुका है, बुढ़ापे व आयु के कारण होने वाली कमजोरियों को मिटाने एवं वृद्धावस्था के कारण होने वाली मुश्किलों को भी हटाने/मिटाने में भी कामयाबी हासिल हो रही है। कहते हैं कुछ ही वर्षों में मनुष्य की उम्र १०० वर्ष की औसत स्वरूप हो जायेगी।सन् १९४०-५० तक पीढ़ी का बदलाव औसत २० वर्ष था, शादी जल्दी-जल्दी होने से २० वर्ष में पहली संतान, ४० वर्ष में पौता व ६०-६५ वर्ष में पड़पौता हो जाता था, अब शादी कुछ देर से होने से यह औसत २५ वर्ष आ गई है, यानि उसके पड़पौता यानि उसकी तीसरी पीढ़ी ७५ वर्ष की आयु तक हो जाती है, अब यदि आयु १०० वर्ष हो जाने लगेगी तो सोचिये जनसंख्या के बारे में, उससे भी ज्यादा सोचिये कि उन बूढ़ों का क्या किया जायेगा, काम के कुछ रह नहीं जाते हैं, घर में स्थान/ चारपाई/कमरा भी चाहिये। अब ४-५ पीढ़ियां एक साथ कैसे  रह पायेंगी या इन बूढ़ों को सड़ने के लिए कहां रखा जायेगा, क्या उपयोग है?

अत: इन सिरफिरे रिसर्च करने वालों को सोचना चाहिये कि वो ऐसी रिसर्च क्यों कर रहे हैं, क्या उपयोग है, क्या इससे पारिवारिक/ सामाजिक/ जनसंख्या की समस्या नहीं बढ़ेगी, स्वस्थ रहते हुए कोई ९०-१०० वर्ष तक तो जीये, वरना जबरदस्ती अंग बदल-बदलकर, किसी अवस्था को ७५-८० से ज्यादा जीवित रखना, समस्या को बढ़ाना ही है, उपादेय नहीं है।

– विजयराज सुराणा
नई दिल्ली

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