प्रेरणा केन्द्र महावीर
महावीर का नाम सामने आते ही आंखों के सामने छब्बीस सौ वर्ष पुराना एक दृश्य उभर आता है, जिसमें राजपाट, सुख, ऐश्वर्य और भोग-विलास आदि तमाम भौतिक सुखों का त्याग कर तीस वर्ष की आयु में वह राजकुमार मुनि बनते हैं, उच्च आदर्शों के विचारों को आचार में ढालकर उन्होंने नयी क्रांति करते हैं। मुनिजीवन के बाद उनके जीवन के सारे घटनाक्रम उनकी वीरता, दृढ़ता, क्षमा आदि गुणों को उजागर करते हुए हमारे प्रेरणा केन्द्र बनते हैं, उन्होंने संसार को जो उपदेश दिया उस मार्ग पर पहले स्वयं चलकर प्रयोग करते हैं।
कहे जाने वाले भौतिक सुखों में उनके पास सब कुछ था। समृद्धि, वैभव, नौकर आदि का त्याग कर जीवन के उच्चतम मूल्यों की प्राप्ति हेतु वे निकल पड़े, वैभव के नशे में चूर यदि हम इस घटना से प्रेरणा लें कि वास्तविक सुख भोग में नहीं, त्याग में है। चंडकौशिक सर्प के दंश का प्रसंग, संगम देव द्वारा उपसर्ग, ग्वालों द्वारा कानों में खील ठोकने की घटना, गौशालक द्वारा तेजोलेश्या का प्रहार, किन्तु समता सागर महावीर के करूणा भरे ह्य्दय में किसी के प्रति तनिक भी क्रोध या द्वेष नहीं। नफरत या बदले की भावना नहीं। समता का यह गुण यदि हम भी जीवन में उतार लेवें तो कई प्रकार के टकराव झगड़े, द्वेष आदि जीवन में स्वत: ही समाप्त हो जावेंगे।
‘मित्ति में सव्व भुएसु’ के मंत्र को अक्षरश: उन्होंने जीवन में उतारा था।
इन्सान जन्म से नहीं कर्म से महान् बनता है-यह बात कहकर भगवान महावीर ने कर्तव्य करने की प्रेरणा दी। आत्मा की सर्वोच्च सत्ता का दिग्दर्शन कराते हुए व्यक्ति स्वतंत्र एवं आत्मशक्ति के जागरण का संदेश दिया। उंच-नीच, जातीयवाद, यज्ञ, अलि आदि रूढ़िगत अंध श्रद्धाओं का त्याग कर समाज को नयी दिशा दी है। अपने संघ में चंदनबाला आदि अनेक साध्वियों को दिक्षा देकर उन्होंने साधना के मार्ग में नारी की समानता का मार्ग प्रशस्त किया। महावीर ने परिग्रह को पाप मानकर उससे दूर रहने का उपदेश दिया, उन्होंने कहा कि अपनी जरूरतों को सीमित रखें। संग्रह प्रवृत्ति के कारण दूसरों के हक को छिनकर हम उसे उनसे वंचित करते हैं। समाजवाद और समानता के उच्च आदर्शों का सूत्रपात महावीर के सिद्धान्तों में पूर्ण है। आज राजनैतिक संगठनों, साम्यवादी, समाजवादी, वाममार्गी, दक्षिणपंथी आदि विचारधाराओं का चिंतन अधूरा है, वे संपत्ति को बांटने की बात करते हैं जबकि महावीर ने तो उसे संग्रह करना ही पाप बताया, जहाँ स्वामित्व ही नहीं होगा, वहाँ देने या लेने का प्रश्न स्वत: ही समाप्त हो जायेगा। महावीर का दर्शन सत्य पर आधारित है। सत्य हमेशा तीनों कालों में एक ही रहता है, इसीलिये आज छब्बीस सौ वर्षों के बाद भी उनके सिद्धान्त जीवन प्रेरणा के केन्द्र बने हुए हैं। सर्वनाश के कगार पर खड़े आज विश्व शांति के लिये महावीर का उपदेश एक मात्र मार्ग है। वर्तमान में व्याप्त आतंकवाद, खून-खराबा, हिंसा, भ्रष्टाचार, विद्रोह, द्वेष, अलगाववाद आदि जटिल समस्याओं का समाधान यदि भगवान महावीर के जीवन एवं दर्शन से ढूढें तो निश्चित सबका समाधान मिल सकता है।
सबसे प्राचीन व महत्वपूर्ण
खरतरगच्छ सम्प्रदाय का बृहद इतिहास
‘खरतरगच्छ’ परम्परा जैन समाज की सर्वाधिक प्राचीन परम्परा है, इस परम्प्रा में साधना, साहित्य, तीर्थ-स्थापना, ज्ञान भंडारों की स्थापना, संघ विस्तार आदि आयामों में ऐसे मूल्यवान् व्यक्तियों का सर्जन किया है जो आज भी प्रकाशस्तंभ बन कर हमारा मार्गदर्शन करते हैं।
भगवान् महावीर की परम्परा के जिस अंग को हम ‘खरतरगच्छ’ के नाम से जानते हैं वास्तव में उसका प्रादुर्भाव १०६६ से १०७२ के बीच किसी समय सुविहित शाखा के रूप में हुआ था। पाटण नरेश दुर्लभराज की सभा में चैत्यवासी परम्परा के प्रमुख आचार्य सूराचार्य से वर्धमानसूरि के निर्देश पर जिनेश्वर सूरि ने शाध्Eाार्थ किया और इन्हें पराजित किया। चैत्यवास के शिथिलाचार पर आगम सम्मत विशुद्ध आचार के पालन करने वाले समुदाय की विजय के साथ सुविहित शाखा स्थापित हुई। दुर्लभराज द्वारा दिया गया विरूद्ध ‘खरतर’ जनश्रुति में तो आ गया था पर यह शाखा उस समय ‘सुविहित’ नाम से ही जानी जाती थी। कालान्तर में सुविहित-विधि पक्ष नाम से प्रसिद्ध इस शाखा ने लोकश्रुति के अनुसार ‘खरतरगच्छ’ विरूद अपना लिया। ‘खरतरगच्छ’ आज के विद्यमान व जीवन गच्छों में सबसे प्राचीन है, इसके मनीषी, आचार्यों और श्रमण-श्रमणियों ने हमारी धार्मिक व सांस्कृतिक परम्परा को अक्षुण्ण रखा है और समय-समय पर अपने महत्वपूर्ण योगदान से समृद्ध किया है। जिनशासन की प्रभावना के महती कार्य में भी पिछली सहध्Eााब्दि में ‘खरतरगच्छ’ का योगदान अतुलनीय है। देश के कोने-कोने में खरतरगच्छ द्वारा स्थापित १५०० से अधिक दादाबाड़ियाँ आज भी विद्यमान हैं, जीवन्त हैं और इस गच्छ द्वारा जैन धर्म के प्रचार-प्रसार की कहानी कह रही है।
साहित्य रचना के अतिरिक्त, आने वाली पीढियों का ध्यान रखते हुए ग्रंथ भंडारों की स्थापना और उसके लिए ग्रन्थों के प्रतिलिपिकरण की जो अनूठी परिपाटी इस गच्छ ने स्थापित और परिपुष्ट की उसका आज भी दूसरा उदाहरण नहीं मिलता। ‘खरतरगच्छ’ के विद्वानों ने जैन संस्कृति मात्र को नहीं मानव संस्कृति को भी अपनी साहित्य सेवा से समृद्ध किया है। ‘खरतरगच्छ’ का एक अन्य महत्वपूर्ण योगदान सामाजिक संरचना को सुदृढ़ करने के क्षेत्र में रहा है। ऐतिहासिक युग में सर्वप्रथम दादागुरू जिनदत्तसूरि ने गोत्रों की स्थापना कर श्वेताम्बर समाज को एक व्यवस्थित और संगठित रूप प्रदान किया, उनके परवर्ती आचार्यों ने भी यह परम्परा चालू रखी। समस्त श्वेताम्बर जैन समाज खरतरगच्छ के इस अद्भुत प्रयोग से प्रभावित है, इसका जीवन्त साक्ष्य यह है कि सम्पूर्ण श्वेताम्बर जैन समाज में आज जितने गोत्र प्रचलित हैं उनमें से ८० प्रतिशत से अधिक जिनदत्तसूरि व उनकी परम्परा द्वारा स्थापित किए गए हैं-चाहे वर्तमान में वे किसी भी आम्नाय से जुड़े हों। विभिन्न मत-मतान्तरों के भी श्वेताम्बर समाज को यह एक सूत्र आज भी बाँधे हुए है। मानव जीवन के अन्य सभी पहलुओं के समान ही इस गच्छ ने भी अनेक उतार-चढाव देखे हैं, इतिहास की इस यात्रा के अनेक साक्ष्य अनेक स्थानों पर बिखरे पड़े हैं। गच्छों के इतिहास लेखन की इस कड़ी में उन बिखरे साक्ष्यों को एक स्थान पर लाने का प्रयास किया जा रहा हैं किन्तु यह कार्य किसी एक व्यक्ति के लिए एक सीमित काल परिधि में कर पाना संभव नहीं है, इसी तथ्य से प्रेरित हो इस इतिहास को भविष्य के शोधार्थियों को ध्यान में रख कर संयोजित किया गया है।
मठलम
‘खरतरगच्छ’ परम्परा जैन समाज की सर्वाधिक प्राचीन परम्परा है, इस परम्परा में साधना, साहित्य, तीर्थ-स्थापना, ज्ञान भंडारों की स्थापना, संघ विस्तार आदि आयामों में ऐसे मूल्यवान् व्यक्तियों का सर्जन किया है जो आज भी प्रकाशस्तंभ बन कर हमारा मार्गदर्शन करते हैं। परमात्मा महावीर के निर्वाण के बाद उनकी मूलवाणी को स्पष्ट करने के लक्ष्य से उन पर टीकाएँ लिखने वाले नवांगी वृत्तिकार श्री अभयदेवसूरि इसी परम्परा की देन है। भगवान् महावीर के निर्वाण के बाद जैन संघ के विस्तार का रिकार्ड आज भी दादा गुरूदेव श्री जिनदत्तसूरि के नाम है, वे भी इसी परम्परा के अनमोल हीरे हैं। निर्दोष पानी न मिलने के कारण प्राणोत्सर्ग करना मंजूर है, पर सदोष पानी अस्वीकार है, ऐसा तेजस्वी संकल्प करने वाले जिनमाणिक्यसूरी भी इसी परम्परा की अनमोल थाती है जो मात्र आठ वर्ष की अल्पायु में आचार्य पद प्राप्त करने वाले मणिधारी जिनचन्द्रसूरि इसी अमृतमयी गंगा की धारा है, नि:संदेह हमारे पास इतिहास के ऐसे-ऐसे उजले पृष्ठ हैं, जिन पर कोई भी गर्व कर सकता है, हम गौरवान्वित हैं इस चमकती दमकती त्याग एवं साधना से महिमा मंडित परम्परा प्रवाह से।सैद्धान्तिक मतभेदों को लेकर अथवा संघीय व्यवस्था को समुचित रूप से चलाने के लिए जैन धर्म में कई भेदोपभेद हुए, अनेक शाखाएँ एवं गच्छ प्रकट हुए। सभी गणों, शाखाओं, कुलों का काफी महिमापूर्ण इतिहास रहा, धर्म-संघ पर इनका अनुपम प्रभुत्व एवं वर्चस्व भी रहा होगा, इसमें से कलिपथ गण, कुल, शाखा तो ऐतिहासिक दृष्टि से अपना गरिमापूर्ण स्थान रखते हैं। ‘खरतरगच्छ’ श्वेताम्बर परम्परा के कोटिक-गण की वग्र-शाखा से सम्बद्ध है।
खरतरगच्छ का प्रवर्तन
जिन क्षणों में धर्मसंघ पदच्युत होने लगा, उसी समय ‘खरतरगच्छ’ ने प्रकट होकर धर्मरथ की बागडोर थाम ली। धर्म के निर्देश तो सब के लिए एक-से एवं चिरस्थायी होते हैं, इसलिए धर्म कभी भी उस छूट के मार्ग की अनुमोदना नहीं करता, जो जीवन-मूल्यों को पतनोन्मुख बनाता हो, मनुष्य सुविधावादी है, वह अपनी सुविधाओं के अनुसार धर्म-निर्दिष्ट आचार-परम्परा में आमूल-चूल परिवर्तन तो नहीं कर पाता, किन्तु उसमें उच्चता या शिथिलता तो स्वीकार कर सकता है, इसे काल का दुष्प्रभाव समझें या भाग्य की विडम्बना कि तत्परवर्तीकाल में आचार-निष्ठता धूमिल होने लगी और शिथिलता की महामारी से अनेक श्रमण ग्रसित हो गये, यद्यपि श्रमणोचित धर्म का परिपालन न करने के कारण वे श्रमण कहलाने की अधिकारी ही नहीं थे, तथापि वे स्वयं को श्रमण कहते और उसी रूप में ही प्रतिष्ठा एवं सम्मान प्राप्त करते, यह वर्ग ही परवर्ती काल में चैत्यवासी-यतिवर्ग के रूप में प्रसिद्ध हुआ।
चैत्यवासी यतिजनों की बहुलता हो जाने के कारण जिनोपदिष्ट आगमिक आचार-दर्शन का सम्यक्तया पालन करने वाले श्रमण गिनती के ही रह गये। शाध्Eाोक्त यतिधर्म या श्रमणधर्म के आचार-व्यवहार में और चैत्यवासी यतिजनों के आचार-व्यवहार में परस्पर असंगति होने से धार्मिक क्रान्ति अनिवार्य थी, इस ओर सर्वप्रथम कदम उठाया आचार्य जिनेश्वरसूरि ने, इन्होंने चैत्यवासी यति-श्रमणों के विरूद्ध प्रबल आन्दोलन किया, उन्हीं के प्रयासों का यह सुमधुर फल था कि आगमिक आचार-दर्शन के मार्ग की पुर्नस्थापना हुई, इसके लिए ग्यारहवीं सदी में श्री वद्र्धमानसूरि के नेतृत्व एवं बुद्धिसागरसूरि के सहभागित्व में जिनेश्वरसूरि ने सुविहित मार्ग-प्रचारक एक नया गण स्थापित किया, जो ‘खरतरगच्छ’ के नाम से विख्यात हुआ, यह गण अविच्छिन्न एवं अक्षुण्ण रूप से गतिशिल रहा, इस गच्छ की स्थापना के संदर्भ में हम प्रस्तुत विशेषांक में कुछ ही जानकारी देंगे, जैन धर्म को इसने जो अनुदान किया, उसका अपने-आप में ऐतिहासिक मूल्य है। (आगामी अंक पढें)
खरतरगच्छ का वैशिष्ट्य
खरतरगच्छ वह परम्परा है जिसने चैत्यवास और मुनि-जीवन के शिथिलाचार के विरूद्ध क्रान्ति की, इस गच्छ में हुए आचार्यों के द्वारा चैत्यवास का उन्मूलन और सुविहित मार्ग का प्रचार करने के कारण ही आज तक श्रमण-धर्म प्रतिष्ठित रहा, खरतरगच्छ की यह तो प्राथमिक सेवा है, साहित्य-साधना और सामाजिक सेवा भी खरतरगच्छ की अन्य विशेषताओं में प्रमुख है, इस मत का समाज पर इतना वर्चस्व एवं प्रभुत्व छाया कि हजारों लोगों ने निग्र्रन्थ-दीक्षा ली और लाखों लोगों ने इसका अनुगमन किया, समाज में सर्वाधिक प्रसिद्ध ओसवाल-जाति का विस्तार इसी गच्छ की देन है। वस्तुत: इन सभी विशेषताओं के कारण ही खरतरगच्छ का नाम गौरवान्वित हुआ और इसकी परम्परा में हुए श्रमण एवं श्रमणाचार्य जन-जन की श्रद्धा के केन्द्र बने। ‘खरतरगच्छ’ स्वयं में अनेक विशेषताओं को समेटे है, यहाँ हम इस गच्छ की कुछ विशिष्ट उपलब्धियों पर चर्चा कर रहे हैं।
जैनसंघ का व्यापक विस्तार
जैनीकरण ‘खरतरगच्छ’ की अभूतपूर्व देन है। ‘खरतरगच्छ’ ने जैन-संख्या में जितना विस्तार किया, उतना आज तक किसी अन्य गच्छ या शाखा द्वारा कम ही देखा गया है। खरतरगच्छ में हुए आचार्यों में से एक-एक आचार्य के द्वारा हजारों-हजार ने जैन धर्म अपनाया। आचार्य जिनदत्तसूरि का जैन-संघ को अनुपम और अद्वितीय अनुदान है। प्राप्त उल्लेखों के अनुसार जिनदत्तसूरि के हस्ते एक लाख तीस हजार से अधिक नै जैन धर्म अपनाया, इसी प्रकार आचार्य जिनकुशलसूरि ने अपने जीवन में पचास हजार नये जैन बनाये। जैन धर्म के व्यापक विस्तार की दृष्टि से ‘खरतरगच्छ’ ने बहुत बड़ा कार्य किया, लाखों अजैनों को जैनधर्म ‘अहिंसा धर्म’ में प्रवृत्त किया।
गोत्रों की स्थापना
खरतरगच्छाचार्यों में आचार्य जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि, जिनचन्द्रसूरि आदि आचार्यों ने शताधिक नूतन गोत्र स्थापित किये। श्री अगरचंद भंवरलाल नाहटा बन्धुओं के अनुसार आचार्य श्री वर्धमानसूरि से लेकर अकबर-प्रतिबोधक श्री जिनचन्द्रसूरि तक के आचार्यों ने लाखों अजैनों को जैनधर्म का प्रतिबोध दिया। ओसवाल वंश के अनेक गोत्र, इन्हीं महान् आचार्यों ने लाखों अजैनों को जैनधर्म का प्रतिबोध दिया। ओसवाल वंश के अनेक गोत्र इन्हीं महान् आचार्यों के द्वारा स्थापित हैं। महत्तियाण जाति की प्रसिद्धि मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरि से विशेष रूप में हुई, इस जाति के भी ८४ गोत्र बतलाये जाते हैं। श्रीमाल जाति के १३५ गोत्रों में ७९ गोत्र ‘खरतरगच्छ’ के प्रतिबोधित बतलाये गये हैं। पोरवाड़ जाति के पंचायणेचा गोत्र वाले भी खरतरगच्छानुयायी थे। खरतरगच्छीय गोत्रों में ओसवाल-वंश के ८४, श्रीमाल के ७९, पोरवाड़ और महत्तियाण के १६६ गोत्रों का उल्लेख प्राप्त होता है, खरतरगच्छ द्वारा अब तक दो सौ से अधिक गोत्र स्थापित हुए हैं।