जैन धर्म के इतिहास में अक्षय तृतीया का है विशेष महत्व
भारतीय संस्कृति में बैसाख शुक्ल तृतीया का बहुत बड़ा महत्व है, इसे ‘अक्षय तृतीया’ भी कहा जाता है। जैन दर्शन में इसे श्रमण संस्कृति के साथ युग का प्रारंभ माना जाता है। जैन दर्शन के अनुसार भरत क्षेत्र में युग का परिवर्तन भोगभूमि व कर्मभूमि के रूप में हुआ। भोगभूमि में कृषि व कर्मों की कोई आवश्यकता नहीं, उसमें कल्पवृक्ष होते हैं, जिनसे प्राणी को मनवांछित पदार्थों की प्राप्ति हो जाती है। कर्मभूमि युग में कल्पवृक्ष भी धीरे-धीरे समाप्त हो जाते हैं और जीव को कृषि आदि पर निर्भर रह कर कार्य करने पड़ते हैं। भगवान आदिनाथ इस युग के प्रारंभ में प्रथम जैन तीर्थंकर हुए।
प्रथम आहार गन्ने का रस का दिया
प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ ने लोगों को कृषि और षट्कर्म के बारे में बताया तथा ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य की सामाजिक व्यवस्थाएं दीं, इसलिए उन्हें आदि पुरुष व युग प्रवर्तक भी कहा जाता है। राजा आदिनाथ को राज्य भोगते हुए जब जीवन से वैराग्य हो गया तो उन्होंने जैन धर्म की दीक्षा ली तथा ६ महीने का उपवास लेकर तपस्या की। ६ माह बाद जब उनकी तपस्या पूरी हुई तो वे आहार के लिए निकले। जैन दर्शन में श्रावकों द्वारा मुनियों को आहार का दान किया जाता है, लेकिन उस समय किसी को भी आहार की चर्या का ज्ञान नहीं था, जिसके कारण उन्हें और ६ महीने तक निराहार रहना पड़ा। बैसाख शुल्क तीज (अक्षय तृतीया) के दिन मुनि आदिनाथ जब विहार (भ्रमण) करते हुए हस्तिनापुर पहुंचे, वहां के राजा श्रेयांस व राजा सोम को रात्रि को एक स्वप्न दिखा, जिसमें उन्हें अपने पिछले भव के मुनि
तीर्थंकर आदिनाथ को प्रथम आहार दिया राजा श्रेयांस ने
‘अक्षय तृतीया’ जैन धर्मावलम्बियों का महान धार्मिक पर्व है, इस दिन जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव ने एक वर्ष की पूर्ण तपस्या करने के पश्चात इक्षु (शोरडी-गन्ने) रस से पारायण किया। जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ ने सत्य व अहिंसा का प्रचार करने एवं अपने कर्म बंधनों को तोड़ने के लिए संसार के भौतिक एवं पारिवारिक सुखों का त्याग कर जैन वैराग्य अंगीकार कर लिया। सत्य और अहिंसा के प्रचार करते आदिनाथ प्रभु हस्तिनापुर गजपुर पधारे जहाँ इनके पौत्र सोमयश का शासन था, प्रभु का आगमन सुनकर सम्पूर्ण नगर दर्शनार्थ उमड़ पड़ा। सोमप्रभु के पुत्र राजकुमार श्रेयांस ने आदिनाथ को पहचान लिया और तत्काल शुद्ध आहार के रूप में प्रभु को गन्ने का रस दिया, जिससे आदिनाथ ने व्रत का पारणा किया। जैन धर्मावलंबियों का मानना है कि गन्ने के रस को इक्षुरस भी कहते हैं इस कारण यह दिन इक्षु तृतीया या अक्षय तृतीया के नाम से विख्यात हो गया।
तीर्थंकर श्री आदिनाथ ने लगभग ४०० दिवस की तपस्या के पश्चात पारणा किया था, यह लंबी तपस्या एक वर्ष से अधिक समय की थी, अत: जैन धर्म में इसे वर्षीतप से संबोधित किया जाता है।
आज भी जैन धर्मावलंबी वर्षीतप की आराधना कर अपने को धन्य समझते हैं, यह तपस्या प्रति वर्ष कार्तिक के कृष्ण पक्ष की अष्टमी से आरम्भ होती है और दूसरे वर्ष वैशाख के शुक्लपक्ष की ‘अक्षय तृतीया’ के दिन पारायण कर पूर्ण की जाती है, तपस्या आरंभ करने से पूर्व इस बात का पूर्ण ध्यान रखा जाता है कि प्रति मास की चौदस को उपवास करना आवश्यक होता है, इस प्रकार का वर्षीतप करीबन १३ मास और दस दिन का हो जाता है, उपवास में केवल गर्म पानी का सेवन किया जाता है।
अक्षय तृतीया – दान तीर्थ का प्रारम्भ
प्रतिवर्ष वैषाख शुक्ल तृतीया को अक्षय तृतीया पर्व अत्यन्त हर्षोल्लास पूर्वक मनाया जाता है, इसके मूल में कारण है, यह पर्व तीर्थंकर ऋषभदेव से सम्बन्धित है जो कि इसके करोड़ों वर्ष प्राचीनता का प्रमाण है। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव दीक्षोपरान्त मुनिमुद्रा धारण कर छः माह मौन साधना करने के बाद प्रथम आहारचर्या हेतु निकले, ध्यातव्य यह है कि तीर्थंकर क्षुधा वेदना
को शान्त करने के लिये आहार को नहीं निकलते, अपितु लोक में आहार दान अथवा दानतीर्थ परम्परा का उपदेश देने के निमित्त से आहारचर्या हेतु निकलते है। तदनुसार ऋषभदेव के समय चूंकि आहारदान परम्परा प्रचलित नहीं थी, अतः पड़गाहन की उचित विधि के अभाव होने से वे सात माह तक निराहार रहे, एक बार वे आहारचर्या हेतु हस्तिनापुर पधारे, उन्हें देखते ही
राजा श्रेयांस को पूर्वभवकास्मरण हो गया, जहां उन्होंने मुनिराज को नवधाभक्ति पूर्वक आहारदान दिया। तत्पश्चात् उन्होंने ऋषभदेव से श्रद्धा विनय आदि गुणों से परिपूर्ण होकर कहा हे भगवन, तिष्ठ! तिष्ठ! यह कहकर पड़गाहन कर, उच्चासन पर विराजमान कर, उनके चरण कमल धोकर, पूजन करके, मन वचन काय से नमस्कार किया। तत्पश्चात् इक्षुरस से भरा हुआ कलश उठाकर कहा कि हे प्रभो! यह इक्षुरस सोलह उद्गम दोष, सोलह उत्पादन दोष, दष एषणा दोश तथा धूम, अंगार, प्रणाम और संयोजन, चार दाता सम्बन्धित दोषों से रहित एवं प्रासुक है, अतः आप इसे ग्रहण कीजिए। तदनन्तर ऋषभदेव ने चारित्र की वृद्धि तथा दानतीर्थ के प्रवर्तन हेतु पारणा की।
आहारदान के प्रभाव से राजा श्रेयांस के महल में देवों ने निम्नलिखित
पंचाष्चर्य प्रकट किये :–
१. रत्नवृष्टि
२. पुष्पवृष्टि
३. दुन्दुभि बाजों का बजना
४. शीतल सुगन्धित मन्द मन्द पवन चलना
५. अहोदानम्-अहोदानम् प्रशंसावाक्य की ध्वनित होना
प्रथम तीर्थंकर की प्रथम आहारचर्या तथा प्रथम दानतीर्थ प्रवर्तन की सूचना मिलते ही देवों ने तथा भरत चक्रवर्ती सहित समस्त राजाओं ने भी राजा श्रेयांस का अतिशय सम्मान किया। भरत क्षेत्र में इसी दिन से आहारदान देने की प्रथा का शुभारम्भ हुआ। पूर्व भव का स्मरण कर राजा श्रेयांस ने जो दानरूपी धर्म की विधि संसार को बताई उसे दान का प्रत्यक्ष फल देखने वाले भरतादि राजाओं ने बहुत श्रद्धा के साथ श्रवण किया तथा लोक में राजा श्रेयांस ‘दानतीर्थ प्रवर्तक‘ की उपाधि से विख्यात हुए।
दान सम्बन्धित पुण्य का संग्रह करने के लिये नवधाभक्ति जानने योग्य है, जिस दिन ऋषभ देव का प्रथमाहार हुआ था उस दिन वैशाख शुक्ला तृतीया थी। आदिनाथ जी की ऋद्धि तथा तप के प्रभाव से राजा श्रेयांस की रसोई में भोजन अक्षीण (कभी खत्म ना होने वाला ‘अक्षय’) हो गया था, अतः आज भी यह तिथि ‘अक्षय तृतीया’ के नाम से लोक में प्रसिद्ध है। ऐसा आगमोल्लेख है कि तीर्थंकर मुनि को प्रथम आहार देने वाला उसी पर्याय से या अधिकतम तीसरी पर्याय से अवश्यमेव मुक्ति प्राप्ति करता है। कुछ नीतिकारों का ऐसा भी कथन है कि तीर्थंकर मुनि को आहारदान देकर राजा श्रेयांस ने अक्षयपुण्य प्राप्त किया था, अतः यह तिथि ‘अक्षय तृतीया’ कहलाती है, वस्तुतः दान देने से जो पुण्य संचय होता है, वह दाता के लिये स्वर्गादिक फल देकर अन्त में मोक्ष फल की प्राप्ति कराता है। ‘अक्षय तृतीया’ को लोग इतना शुभ मानते है कि इस दिन बिना मुहूर्त, लग्नादिक विवाह, नवीन गृह प्रवेश, नूतन व्यापार मुहूर्त के रूप में मानते है। विश्वास यह है कि इस दिन प्रारम्भ किया गया नया कार्य नियमित सफल होता है, अतः ‘अक्षय तृतीया’ पर्व अत्यन्त गौरवशाली है तथा राजा श्रेयांस द्वारा दान का प्रवर्तन कर हमें भी उपकार का स्मरण कराता है।