Category: मई-२०२१

प्राचीन जैन मंदिर थे शिक्षा के केंद्र (Ancient Jain temples were centers of education in Hindi)

प्राचीन जैन मंदिर थे शिक्षा के केंद्र (Ancient Jain temples were centers of education in Hindi) प्राचीन जैन मंदिर थे शिक्षा के केंद्र (Ancient Jain temples were centers of education in Hindi) विद्या नाम नरस्य कीर्तिरतुला भाग्यक्षये चाश्रयो धेनुः कामदुधा रतिर्श्र्च विरहे नेत्रं तृतीयं च सासत्कारायतनं कुलस्य महिमा रत्नैर्विना भूषणम्तस्मादन्यमुपेक्ष्य सर्वविषयं विद्याधिकारं कुरु अर्थात विद्या अनुपम कीर्ति है, भाग्य का नाश होने पर वह आश्रय देती है, कामधेनु है, विरह में रति समान है, तीसरा नेत्र है, सत्कार का मंदिर है, कुल महिमा है, बगैर रत्न का आभूषण है अतः सब विषयों को छोड़कर विद्या का अधिकारी बनिए, वास्तव में जहाँ विद्या का निवास होता है वहाँ कभी क्षय की स्थिति उत्पन्न नहीं होती।मुझे हाल ही में तमिल भाषा का एक विडियो वाट्सएप में मिला, एक बहन बता रही थी कि दक्षिण भारत में जैनत्व तीर्थंकर पार्श्वनाथ से पहले से विद्यमान है। जैनियों द्वारा तमिल साहित्य की खूब सेवा सुश्रसा की गई थी तमिल व्याकरण एवं तमिल में रचित बहुत से महाकाव्य जैन संतों की ही देन है। प्राचीन काल में तमिलनाडु एवं दक्षिण प्रान्त केरल-कर्नाटक-आंध्रप्रदेश-उड़ीसा में जैन सन्त अपने श्रावकों को औषधी दान – अभय दान – ज्ञान दान – अर्थ दान यानी चारों दानों की शिक्षा जैन मंदिरों में देते थे, इसी कारण यहाँ भव्य मंदिरों का निर्माण हुआ, तत्कालीन समय में जैन धर्म अपने उत्कर्ष स्वरूप में विद्यमान रहा, जिसका प्रमुख कारण जैन धर्म का समाज से जुड़ाव, अपने सिद्धांतों के अतिरिक्त शिक्षा के माध्यम से भी रहा है। जैन मंदिरों में जाति-पाति, ऊँच- नीच के भेदभाव के बिना सबको शिक्षा प्रदान की गई, उस समय जाति जन्म आधारित न होकर कर्म आधारित थी, जहाँ राजा व रंक दोनों का समान अधिकार दिए गए इसी कारण अधिकांश व्यक्ति जैन समाज के अनुयायी रहे।कालांतर में इन जैन मंदिरों से शिक्षा व्यवस्था को हटा दिया गया, ऐसे गंभीर विषय पर शायद तत्कालीन समाज ने विचार नहीं किया, इस कमी के कारणों पर अगर विचार किया जाता एवं जैन मंदिरों से शिक्षा व्यवस्था को नहीं हटाया जाता तो शायद आज यह स्थिति उत्पन्न नहीं होती, जहाँ करोड़ों की संख्या में जैन थे वहां अब लाखों में हैं। मंदिरों पर एवं मंदिरों में जमा पूंजी पर अन्य धर्मों का आधिपत्य नहीं हो पाता, परन्तु हमने विद्या रूपी अनुपम निधि को जैन मंदिरों से पृथक कर दिया, जहाँ विद्या का निवास होता है, वहां कभी क्षय की स्थिति उत्पन्न नहीं होती।- सुगाल चन्द जैन प्राचीन जैन मंदिर थे शिक्षा के केंद्र (Ancient Jain temples were centers of education in Hindi)

श्वेताम्बर तेरापंथ (Shvetambara Terapanth in Hindi)

श्वेताम्बर तेरापंथ (Shvetambara Terapanth in Hindi) श्वेताम्बर तेरापंथ (Shvetambara Terapanth in Hindi) : जैन धर्म में श्वेताम्बर संघ की एक शाखा का नाम श््वेताम्बर तेरापंथ है, इसका उद्भव विक्रम संवत् १८१७ (सन् १७६०) में हुआ, इसका प्रवर्तन मुनि भीखण (भिक्षु स्वामी) ने किया था जो कालान्तर में आचार्य भिक्षु कहलाये, वे मूलतः स्थानकवासी संघ के सदस्य और आचार्य रघुनाथ जी के शिष्य थे।आचार्य संत भीखण जी ने जब आत्मकल्याण की भावना से प्रेरित होकर शिथिलता का बहिष्कार किया था, तब उनके सामने नया संघ स्थापित करने की बात नहीं थी, परंतु जैनधर्म के मूल तत्वों का प्रचार एवं साधुसंघ में आई हुई शिथिलता को दूर करना था, उस ध्येय मे वे कष्टों की परवाह न करते हुए अपने मार्ग पर अडिग रहे। संस्था के नामकरण के बारे में भी उन्होंने कभी नहीं सोचा था, फिर भी संस्था का नाम ‘तेरापंथ’ हो ही गया, इसका कारण निम्नोक्त घटना है।जोधपुर में एक बार आचार्य भिक्षु के सिद्धांतों को माननेवाले १३ श्रावक एक दूकान में बैठकर सामायिक कर रहे थे, उधर से वहाँ के तत्कालीन दीवान फतेहसिंह जी सिंघी गुजरे तो देखा, श्रावक यहाँ सामायिक क्यों कर रहे हैं, उन्होंने इसका कारण पूछा। उत्तर में श्रावकों ने बताया श्रीमान् हमारे संत भीखण जी ने स्थानकों को छोड़ दिया है, वे कहते हैं, एक घर को छोड़कर गाँव-गाँव में स्थानक बनवाना साधुओं के लिये उचित नहीं है, हम भी उनके विचारों से सहमत हैं इसलिये यहाँ सामायिक कर रहे हैं। दीवान जी के आग्रह पर उन्होंने सारा विवरण सुनाया, उस समय वहाँ एक सेवक जाति का कवि खड़ा सारी घटना सुन रहा था, उसने तत्काल १३ की संख्या को ध्यान में लेकर एक दोहा कह डाला आप आपरौ गिलो करै, ते आप आपरो मंत।सुणज्यो रे शहर रा लाका, ऐ तेरापंथी तंत  बस यही घटना तेरापंथ के नाम का कारण बनी, जब स्वामी जी को इस बात का पता चला कि हमारा नाम ‘तेरापंथी’ पड़ गया है तो उन्होंने तत्काल आसन छोड़कर भगवान को नमस्कार करते हुए इस शब्द का अर्थ किया: हे भगवान यह ‘तेरापंथ’ है, हमने तेरा अर्थात् तुम्हारा पंथ स्वीकार किया है, अत: तेरापंथी हैं। संगठनआचार्य संत भीखण जी ने सर्वप्रथम साधु संस्था को संगठित करने के लिये एक मर्यादापत्र लिखा: (१) सभी साधु-साध्वियाँ एक ही आचार्य की आज्ञा में रहें।(२) वर्तमान आचार्य ही भावी आचार्य का निर्वाचन करें।(३) कोई भी साधु अनुशासन को भंग न करे। (४) अनुशासन भंग करने पर संघ से तत्काल बहिष्कृत कर दिया जाए।(५) कोई भी साधु अलग शिष्य न बनाए।(६) दीक्षा देने का अधिकार केवल आचार्य को ही है।(७) आचार्य जहाँ कहें, वहाँ मुनि विहार कर चातुर्मास करे, अपनी इच्छानुसार ना करे।(८) आचार्य श्री के प्रति निष्ठाभाव रखे,आदि। इन्हीं मर्यादाओं के आधार पर आज २६० वर्षों से तेरापंथ श्रमणसंघ अपने संगठन को कायम रखते हुए अपने ग्यारहवें आचार्य श्री महाश्रमणजी के नेतृत्व में लोक कल्याणकारी प्रवृत्तियों में महत्वपूर्ण भाग अदा कर रहा है। श्वेताम्बर तेरापंथ संघव्यवस्था (Shvetambara Terapanth federation in Hindi ) तेरापंथ संघ में इस समय करीबन ६५५ साधु साध्वियाँ हैं, इनके संचालन का भार वर्तमान आचार्य श्री महाश्रमण पर है, वे ही इनके विहार, चातुर्मास आदि के स्थानों का निर्धारण करते हैं। प्राय: साधु और साध्वियाँ क्रमश: ३-३ व ५-५ के वर्ग रूप में विभक्त किए होते हैं, प्रत्येक वर्ग में आचार्य द्वारा निर्धारित एक अग्रणी होता है, प्रत्येक वर्ग को ‘सिंघाड़ा' कहा जाता है।ये सिंघाड़े पदयात्रा करते हुए भारत के विभिन्न भागों, राजस्थान, पंजाब, गुजरात, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, मध्यभारत, बिहार, बंगाल आदि में अहिंसा आदि का प्रचार करते रहते हैं। वर्ष भर में एक बार माघ शुक्ला सप्तमी को सारा संघ जहाँ आचार्य होते हैं वहाँ एकत्रित होता है और आगामी वर्ष भर का कार्यक्रम आचार्य श्री वहीं पर निर्धारित कर देते हैं और चातुर्मास तक सभी ‘सिंघाड़े’ अपने अपने स्थान पर पहुँच जाते हैं। तेरापंथ के आचार्य तेरापंथ में हुए १० आचार्यों की गौरवशाली परम्परा १.आचार्य श्री भिक्षु२.आचार्य श्री भारीमाल३.आचार्य श्री रायचन्द४.आचार्य श्री जीतमल५.आचार्य श्री मघराज६.आचार्य श्री माणकलाल७.आचार्य श्री डालचन्द८.आचार्य श्री कालूराम९.आचार्य श्री तुलसी१०.आचार्य श्री महाप्रज्ञ११.आचार्य श्री महाश्रमण वर्तमानाचार्य श्वेताम्बर तेरापंथ (Shvetambara Terapanth in Hindi)

इंडिया नहीं भारत बोलें सभा सम्पन्न (Speak Bharat not India the meeting is over in Hindi)

इंडिया नहीं भारत बोलें सभा सम्पन्न (Speak Bharat not India the meeting is over in Hindi) इंडिया नहीं भारत बोलें सभा सम्पन्न (Speak Bharat not India the meeting is over in Hindi)सत्य, अहिंसा और विश्व शांति के अग्रदूत जन-जन के आराध्य वर्तमान शासन नायक श्री १००८ तीर्थंकर महावीर की २६२० वी जन्म कल्याणक दिनांक २५ अप्रैल २०२१ के पावन स्वर्णिम अवसर पर ‘मैं भारत हूँ’ संघ के तत्वाधान में एक भव्य वेबीनार का आयोजन कर किया गया। वेबीनार के प्रारंभ में मंगलाचरण पाठ राष्ट्रीय संवाददाता पारस जैन ‘पार्श्वमणि’ पत्रकार कोटा राजस्थान में अपनी सुमधुर आवाज में सभी को भावविभोर कर दिया। संघ के अध्यक्ष बिजय कुमार जैन मुंबई ने बताया कि इस अवसर पर जैन धर्म और देश के विकास के लिए काम करने वाले नवरत्नों को सम्मानित किया गया। जिसमें पारस जैन पार्श्वमणि पत्रकार कोटा, खिल्लीमल जैन अलवर, प्रदिप बडजात्या इंदौर, पूर्व न्यायाधीश पानाचंद जैन जयपुर, इंदु जैन दिल्ली, साहिल जैन धूलियान, पद्मश्री बिमलजैन पटना प्रमुख थे। इन्होंने अलग-अलग आयामों में जैन धर्म दर्शन में अपनी सेवाएं समाज को निस्वार्थ भाव से समर्पित की। मंच का सफल संचालन खुशबू जैन ने बहुत ही शानदार अंदाज में किया जो एवं तीर्थंकर महावीर स्वामी की एवं तीर्थंकर महावीर स्वामी की जीवनी का वर्णन किया। साथ ही कोमल जैन कनक कोचर, पुष्पा देवी, अर्चना जैन और रवि जैन, श्रेयांश बैद ने अपनी भावपूर्ण प्रस्तुति देकर सबका मन जीत लिया। विदित हो कि संगीतकार व गीतकार रवि जैन ‘मैं भारत हूँ’ संघ द्वारा इंडिया नहीं भारत बोले पर एक भारत गीत भी बनाया गए। इस अवसर पर सभी ने भगवान महावीर के दिखाए अहिंसा और सत्य के पथ पर चलने का संकल्प लिया साथ ही अपने देश को भारत के नाम से पुकारने के अभियान को युद्ध स्तर पर ले जाने की शपथ ली। इंडिया नहीं भारत बोलें सभा सम्पन्न (Speak Bharat not India the meeting is over in Hindi)

तेरापंथ की अनमोल बातें (Precious things of Terapanth in hindi)

तेरापंथ की अनमोल बातें (Precious things of Terapanth in hindi) तेरापंथ की अनमोल बातें (Precious things of Terapanth in hindi) : तेरापंथ की स्थापना हुई- आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा, संवत् १८१७, केलवा (राजस्थान)। तेरापंथ के प्रथम साधु- मुनि थिरपालजी, जिन्होंने संघ की नींव को स्थिर बनाया। तेरापंथ की प्रथम साध्वी- साध्वी कुशालांजी। तेरापंथ की स्थापना के बाद संघ में दीक्षित होने का सौभाग्य मिला साध्वीत्रय को- साध्वी कुशालां जी, मट्टू जी एवं अजबू जी। तेरापंथ का प्रथम मर्यादा पत्र (संविधान) लिखा गया- मृगसर कृष्णा ७, संवत् १८३२। आखिरी मर्यादा पत्र (संविधान) लिखा गया- आचार्य भिक्षु द्वारा माघ शुक्ला ७, संवत् १८५३। हाजरी वाचन का प्रारम्भ हुआ – श्रीमज्जयाचार्य द्वारा पौष कृष्णा संवत्‌ १९१० (रावलियां)। सेवा केन्द्र की स्थापना – श्रीमज्जयाचार्य द्वारा संवत्‌ा् १९१४ (लाडनूं)। साध्वी प्रमुखा पद का प्रारम्भ – श्रीrमज्जयाचार्य द्वारा संवत् १९१०। आचार्य भारीमलजी ने मुनि वर्धमानजी को अर्धरात्रि में दीक्षित किया। साध्वी नंदू जी (सं. १८७३), मुनिश्री जीवोजी (सं.१८८०), मुनिश्री हरखचंदजी (सं.१९०२) एवं। मुनिश्री अभयराजजी (सं.१९१७) की दीक्षा गहने-कपड़े सहित गृहस्थ वेश में हुई। आचार्य भिक्षु ने ३८ हजार पद परिणाम साहित्य लिखे। जयाचार्य ने साढ़े तीन लाख पद परिणाम साहित्य लिखे। तेरापंथ की अनमोल बातें (Precious things of Terapanth in hindi)

सीहोर में मिली पार्श्वनाथ जी की अति प्राचीन प्रतिमा (Very ancient statue of Parshvanath ji found in Sehore in Hindi)

सीहोर में मिली पार्श्वनाथ जी की अति प्राचीन प्रतिमा (Very ancient statue of Parshvanath ji found in Sehore in Hindi) सीहोर में मिली पार्श्वनाथ जी की अति प्राचीन प्रतिमा (Very ancient statue of Parshvanath ji found in Sehore in Hindi): सीहोर: मध्यप्रदेश का राजधानी भोपाल के नजदीक सीहोर जिले की सीवन नदी के किनारे चौधरी घाट पर २३वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ जी की सर्वांग सुंदर प्रतिमा प्राप्त हुई हैं।सीहोर शासकीय महाविद्यालय में प्रोफेसर श्री गणेशी लाल जैन व जैन समाज के अध्यक्ष श्री अजय जैन ने बताया कि प्रतिमा को चौधरी घाट से उठाकर श्री दिगम्बर जैन मंदिर सीहोर में लाकर साफ सफाई की गई।प्रतिमा ९वीं शताब्दी की प्रतीत होती हैं।प्रतिमा पद्मासन होकर पांच फन युक्त व यक्ष यक्षिणी सहित है। प्रतिमा प्राप्त होने से जैन समाज में उत्साह व्याप्त हो गया है, आसपास के समाजजन दर्शन के लिए आ रहे है। समाज ने कहा कि यदि चौधरी घाट पर खुदाई कराई जाए तो और प्रतिमाएं प्राप्त हो सकती हैं। सीहोर भोपाल इंदौर मार्ग पर स्तिथ है। राजेन्द्र जैन महावीर ने कहा कि जिस तरह प्रतिमा दिखाई दे रही हैं वैसी प्रतिमा नेमावर के सिद्धोदय तीर्थ व पुष्पगिरी तीर्थ सोनकच्छ में भी स्थापित है, दोनों तीर्थो पर विराजमान प्रतिमाएं भी खुदाई में ही मिली थी, यह इलाका जैन धर्म का प्राचीन केंद्र रहा है , पुरातत्व की दृष्टि से उक्त स्थानों की खुदाई करने पर जैन प्रतिमाएं प्राप्त हो सकती हैं। जैन समाज उक्त प्रतिमा का संरक्षण कर अपना प्राचीन इतिहास समृद्ध कर अपना कर्तव्य पूर्ण करेगा । – राजेन्द्र जैन महावीर २१७,सोलंकी कॉलोनी ,सनावद, जिला – खरगोन, मध्यप्रदेश, भारत -४५११११ भ्रमणध्वनि :९४०७४९२५७७ सीहोर में मिली पार्श्वनाथ जी की अति प्राचीन प्रतिमा (Very ancient statue of Parshvanath ji found in Sehore in Hindi)

जैन एकता है जरुरी (Jain Ekta )(Jain unity is essential in Hindi)

जैन एकता है जरुरी (Jain Ekta )(Jain unity is essential in Hindi) जैन एकता है जरुरी (Jain Ekta )(Jain unity is essential in Hindi) जैन एकता है जरुरी जैन एकता का प्रश्न खड़ा है सबके सम्मुखहल अभी तक क्यों कोई खोज नहीं पाया हैअनेकता में एकता की बात हम कैसे कहेंअलग-अलग पंथ का ध्वज हमने फहराया हैगुरुओं ने अपने-अपने कई पंथ बना लिएमहावीर के मूल पथ को सभी ने बिसराया है‘संवत्सरी’ को भी हम अलग-अलग मनाते सभीएकता का भाव कहां मन में समाया हैसंगठन में ही शक्ति है ये क्यों नहीं विश्वास हमेंभविष्य के अंधेरे का होता क्यों नहीं आभास हमेंटूट टूट कर बिखर जाएंगे वे दिन अब दूर नहींखतरे की घंटियों का क्यों नहीं अहसास हमेंएक ही है ध्वज हमारा, सबका मंत्र एक ‘णमोकार’ हैएक ही प्रतीक चिन्ह है, महावीर हम सब के आधार हैंअहिंसा, अपरिग्रह, अनेकांत सभी मूल सिद्धांत हमारे हैंरोटी-बेटी का व्यवहार आपस में हम सब करते सारे हैंवक्त आ गया है फिर एकता का बिगुल हमें बजाना हैमनमुटाव छोड़ हम सब को एक ध्वज के नीचे आना हैमहावीर को अलग-अलग रूपों में तो हमने माना खूबअब हमें एक होकर महावीर को दिल से अपनाना हैपरचम एकता का नहीं लहराया तो बुद्धिमान समाज बुद्धू कहलाएगासंगठित गर नहीं हुए तो वजूद ही हमारा संकट में पड़ जाएगादेर हुई तो भले हुई अब और नहीं देर करोएक हो मन तो हमारे रोम-रोम में शक्ति का संचार होगापुरी दुनिया में अलग ही जैन समाज का परचम लहरायेगा– युगराज जैऩ मुंबई  जैन एकता है जरुरी (Jai nEkta )(Jain unity is essential in Hindi)