आचार्य भिक्षु
तेरापंथ के संस्थापकआचार्य भिक्षुजन्म पर्व १९ जुलाई (तिथिनुसार) तेरापंथ के प्रवर्तक आचार्य भिक्षु श्रमण परंपरा के महान संवाहक थे, उनका जन्म वि. स. १७८३ आषाढ़ शुक्ला त्रयोदशी को कंटालिया (मारवाड़) में हुआ, पिता का नाम शाह बल्लुजी तथा माता का नाम दीपा बाई था, जाति ओसवाल तथा वंश सकलेचा था। आचार्य भिक्षु का जन्म-नाम भीखण था, प्रारंभ से ही वे असाधारण प्रतिभा के धनी थे, तत्कालीन परंपरा के अनुसार छोटी उम्र में ही उनका विवाह हो गया, वैवाहिक जीवन से बंध जाने पर भी उनका जीवन वैराग्य भावना से ओतप्रोत था। धार्मिकता उनकी रगरग में रमी थी, पत्नी भी उन्हें धार्मिक विचारों वाली मिली, पति-पत्नी दोनों ही दिक्षा लेने के उद्यत हुए, किंतु नियति को शायद यह मान्य नहीं था, कुछ वर्षों के बाद पत्नी का देहावसान हो गया। भीखणजी अकेले ही दिक्षा लेने को उद्यत हुए, पर माता ने दीक्षा की अनुमति नहीं दी। तत्कालीन स्थानकवासी संप्रदाय के आचार्य श्री रघुनाथ जी के समझाने पर माता ने कहा ‘महाराज’ मैं इसे दीक्षा की अनुमति कैसे दे सकती हूं क्योंकि जब यह गर्भ में था तब मैंने सिंह का स्वप्न देखा था, उस स्वप्न के अनुसार यह बड़ा होकर किसी देश का राजा बनेगा और सिंह जैसी प्रकृति होगी। आचार्य रघुनाथ जी ने कहा बाई यह तो बहुत अच्छी बात है। राजा तो एक देश में पुजा जाता है, तेरा बेटा तो साधु बन कर सारे जगत का पुज्य बनेगा और सिंह की तरह गुंजेगा, इस प्रकार आचार्य रघुनाथ जी के समझाने पर माता ने सहर्ष दिक्षा की अनुमति दे दी। वि.स. १८०८ मार्गशीर्ष कृष्णा बारस को भीखणजी ने आचार्य रघुनाथजी के पास दीक्षा ग्रहण की। संत भीखण जी की दृष्टि पैनी और मेधा सूक्ष्मग्राही थी, तत्व की गहराई में बैठना स्वाभाविक बात थी, थोड़े ही वर्षों में वे जैन शास्त्रों के पारगामी पंडित बन गए। वि.स.१८१५ के आस-पास संत भीखणजी के मस्तिष्क में साधु वर्ग के आचार-विचार संबन्धी शिथिलता के प्रति एक क्रांति की भावना पैदा हुई, उन्होंने अपने क्रांति पूर्ण विचारों को आचार्य रघुनाथजी के सामने रखा, दो वर्ष तक विचार विमर्श होता रहा, जब कोई संतोषजनक निर्णय नहीं हुआ तब विचार भेद के कारण वि.स. १८१७ चैत्र शुक्ला नवमी को कुछ साधुओं सहित बगड़ी (मारवाड़) में उनसे पृथक हो गये, उनकी धर्म क्रांति का विरोध हुआ, चूंकि उस समय पुज्य रघुनाथ जी का प्रभाव प्रबल था, इसलिए लोगों ने भीखणजी का असहयोग किया, ठहरने के लिए स्थान नहीं दिया, वहां से विहार किया। गांव के बाहर आये कि तेज आंधी आ गई, व्याघ्र स्थिति वाली कहावत घटित हो गई। पीछे गांव में जगह नहीं, आगे आंधी ने रास्ता रोक लिया, इसलिए उन्होंने पहला पड़ाव गांव के बाहर शमशान में जैतसिंहजी की छतरियों में किया, आज भी वे छतरीयां विद्यमान है। संघ बहिष्कार के साथ ही आचार्य भीक्षु पर जैसे विरोधों के पहाड़ टूट पड़े, पर वे लोह पुरूष थे। विरोधों के सामने झुकना उन्होंने सिखा नहीं था, वे सत्य के महान उपासक थे। सत्य के लिए प्राण न्यौछावर करने के लिए वे तत्पर रहते थे, उन्हीं के मुख से निकले हुए शब्द ‘आत्मा राकारज सारस्यां मर पुरा देस्यां’, सत्य के प्रति आगद्य संपूर्ण के सुचक हैं। वे महान आत्मबलि थे जीवन में सुध-साधुता को प्रतिष्ठित करना चाहते थे। वि. स. १८१७ आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा को केलवा (मेवाड़) में बारह साथियों सहित उन्होंने शास्त्र सम्मत दीक्षा ग्रहण की, यही तेरापंथ स्थापना का प्रथम दिन था, इसी दिन आचार्य भीक्षु के नेतृत्व में एक सुसंगठित साधु संघ का सूत्रपात हुआ जो संघ ‘तेरापंथ’ के नाम से प्रख्यात है। वि.स.१८१७ से लेकर वि.स. १८३१ तक पन्द्रह वर्ष का जीवन आचार्य भीक्षु का संघर्षमय रहा, यहां तक कहा जाता है कि उन्हें पांच वर्ष पेट भर आहार ही नहीं मिलता, कभी मिला तो कभी नहीं मिलता, इस महान संघर्ष की स्थति में आचार्य भीक्षु ने कठोर साधना, तपस्या, शास्त्रों का गंभीर अध्यन एवं संघ की भावी रूप रेखा पर चिंतन किया। वि.स. १८३२ में आचार्य भिक्षु ने अपने प्रमुख शिष्य भारमल जी को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया, उसी समय संघीय मर्यादाओं का भी निर्माण किया गया, उन्होंने पहला मर्यादा पत्र इसी वर्ष मार्ग शीर्ष कृष्णा सप्तमी को लिखा, उसके बाद समय-समय पर नई मर्यादाओं के निर्माण से संघ को सुदृढ करते रहे, उन्होंने अन्तिम मर्यादा पत्र लिखा स. १८५९ की शुक्ला सप्तमी को, एक आचार्य में संघ की शक्ति को केन्द्रित कर उन्होंने सुदृढ संगठन की नीव डाली, इससे अपने-अपने शिष्य बनाने की परंपरा का विच्छेद हो गया। भावी आचार्य के चुनाव का दायित्व भी उन्होंने वर्तमान आचार्य को सौपा। आज तेरापंथ धर्म संघ अनुशासित मर्यादित और व्यवस्थित धर्म संघ है, इसका श्रेय आचार्य भिक्षु कृत इन्हीं मर्यादाओं को जाता है। आचार्य भिक्षु ने अपने मौलिक चिंतन के आधार पर नये मूल्यों की स्थापना की। हिंसा व दान-दया संबंधी उनकी व्याख्या सर्वथा वैज्ञानिक कही जा सकती है। आचार्य भिक्षु की अहिंसा सार्वभौमिक क्षमता पर आधारित थी, बड़ों के लिए छोटों की हिंसा और पंचेन्द्रिय जीवों की सुरक्षा के लिए एकेन्द्रिय प्राणीयों का हनन आचार्य भिक्षु की दृष्टि में आगम सम्मत नहीं था। अध्यात्म व व्यवहार की भूमिका भी उनकी भिन्न थी, उन्होंने कभी किसी भी प्रसंग पर एक तुला से तोलने का प्रयत्न नहीं किया, उनके अभिमत से व्यवहार व अध्यात्म को सर्वत्र एक कर देना, घी और तम्बाकू के सम्मिश्रण जैसा अनुपादाय था। दान-दया के विषय में लौकिक एवं लौकतर भेद रेखा प्रस्तुत कर आचार्य भिक्षु ने जैन समाज में प्रचलित मान्यता के समक्ष नया चिंतन प्रस्तुत किया, उस समय समाजिक सम्मान का मापदण्ड दान-दया पर अवलंबित था। सर्वगोपलब्धि और पुण्योपलब्धि की मान्यताएं भी दान-दया के साथ जुड़ी हुई थी। आचार्य ने लौकिक दान-दया की व्यवस्था को कर्तव्य व सहयोग बता कर मौलिक सत्य का उद्घाटन किया। साध्य साधना के विषय में भी उनका दृष्टिकोण स्पष्ट था, उनके अभिनत से सुध साधना के द्वारा ही सुध साध्य की प्राप्ती सम्भव है, उन्होंने कहा रक्त से सना वस्त्र कभी रक्त से शुद्ध नहीं होता, वैसे ही हिंसा प्रधान प्रवृत्ति कभी अध्यात्म के पावन लक्ष्य तक नहीं पहुंच सकती। आचार्य भिक्षु एक कुशल विधिवक्ता होने के साथ-साथ एक सहज कवि और महान साहित्यकार भी थे। आचार्य भिक्षु की साहित्य रचना का प्रमुख विषय सुध आचार का प्रतिपादन, तत्व दर्शन का विश्लेषण एवं धर्म संघ की मौलिक मर्यादाओं का निरूपण था, उनकी रचनाओं में प्राचीन वैराग्य में आख्यान भी निसद्ध था। आचार्य भिक्षु ने कभी कवि बनने का प्रयत्न नहीं किया और न कभी उन्होंने भाषा शास्त्र, छंद शास्त्र, अलंकार शास्त्र एवं रस शास्त्र का प्रशिक्षण प्राप्त किया पर उनके द्वारा रचे गये पदयों में रस, अनुप्रयास और अलंकारों के प्रयोग पाठक को मुग्ध कर देते हैं। आचार्य भिक्षु के साहित्य को पढ़ कर आधुनिक विद्वान उन्हें हिगल ओर काण्ट की तुला से बोलते हैं। आचार्य भिक्षु जब तक जिए, ज्योर्तिमय बनकर जिए, उनके जीवन का हर पृष्ठ पुरुषार्थ की गौरवमयी गाथाओं से भरा पड़ा है। आचार्य भिक्षु के शासन काल में ४९ साधु और ५६ साध्वियां दीक्षित हुई। वि.स. १८६० भाद्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन सिरियारी (मारवाड़) में उन्होंने समाधि मरण प्राप्त किया, उस समय उनकी आयु ७७ वर्ष की थी।