मानव जाति के प्रज्ञापुरुष थे आचार्य महाप्रज्ञ

प्रज्ञापुरूष आचार्य महाप्रज्ञ जी युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी के सक्षम उतराधिकारी हैं। बुद्धि, प्रज्ञा, विनय और समर्पण का उनके जीवन में अद्भुत संयोग है। वे महान्‌ा दार्शनिक, कवि, वक्ता एवं साहित्यकार होने के साथ-साथ प्रेक्षाध्यान पद्धति के महान अनुसंधाता एवं प्रयोक्ता रहे।
आचार्य महाप्रज्ञ जी का जन्म वि.स. १९७७ आषाढ़ कृष्णा त्रयोदशी को टमकोर (राजस्थान) के चोरड़िया परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री तोलारामजी एवं माता का नाम बालूजी था। युवाचार्यश्री का जन्म नाम नथमल था। जब वे बहुत छोटे थे, तभी पिता का साया उनके सिर से उठ गया था। माता बालूजी धार्मिक प्रकृति की महिला थीं। उनकी धार्मिक वृतियों से बालक की धार्मिक चेतना उदृद्ध हुई। माता और पुत्र दोनों ही संयम-पथ पर बढ़ने के लिए उत्सुक थे।
वि.स. १९८७ माघ शुक्ला दसमी को सरदारशहर में बालक नथमल ने अपनी माता के साथ पूज्य कालूगणी से दीक्षा ग्रहण की। उस समय उनकी आयु मात्र दस वर्ष की थी। संयमी जीवन में उनकी पहचान मुनि नथमल के रूप में होने लगी। मुनि नथमल अपनी सौम्य आकृति एवं सरल स्वभाव के कारण सबके प्रिय बन गए। पूज्य कालूगणी का उन पर असीम वात्सल्य था। कालूगणी के निर्देश से उन्हें विद्या-गुरू के रूप में मुनि तुलसी (आचार्य तुलसी) की सन्निधी मिली। मुनि नथमल की आशुग्राही मेधा, विविध विषयों का ज्ञान करने में सक्षम हुई। दर्शन, न्याय, व्याकरण, कोष, मनोविज्ञान, ज्योतिष, आयुर्वेद आदि शायद ही कोई ऐसा विषय हो, जो उनकी प्रज्ञा की पकड़ से अछुता रहा हो। जैनागमों के गम्भीर अध्ययन के साथ-साथ उन्होंने भारतीय एवं भारतीयेत्तर सभी दर्शनों का तलस्पर्शी एवं तुलनात्मक अध्ययन किया। संस्कृत, प्राकृत एवं हिन्दी भाषा पर उनका पूर्ण अधिकार रहा। वे संस्कृत भाषा के सफल आशुकवि है। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों में वे दूसरे विवेकानन्द थे।
वि.स. २०२२ माद्य शुक्ला सप्तमी को हिसार (हरियाणा) में आचार्यश्री तुलसी ने उन्हें निकाय-सचिव के गरिमामय पद पर विभुषित किया। वि.स. २०३४ कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी, गंगाशहर में आचार्यश्री तुलसी ने उन्हें महाप्रज्ञ की उपाधि से अंलकृत किया। महाप्रज्ञ की उपाधि से अंलकृत करते समय आचार्यश्री तुलसी ने कहा-मुनि नथमल की अपूर्व सेवाओं के प्रति समूचा तेरापंथ संघ कृतज्ञता ज्ञापित करता है। यह महाप्रज्ञ अलंकार उस कृतज्ञता की स्मृति मात्र है।
वि.स. २०३५ राजलदेसर (राजस्थान) मर्यादा महोत्सव के अवसर पर आचार्यश्री तुलसी ने अपने उतराधिकारी के रूप में उनकी घोषणा की। वि.स. २०५० सुजानगढ़ मर्यादा महोत्सव के ऐतिहासिक समारोह के मध्य आचार्यश्री तुलसी ने अपनी सक्षम उपस्थिति में अपने आचार्यपद का विर्सजन कर युवाचार्य महाप्रज्ञ को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित कर दिया।
यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आचार्य महाप्रज्ञ जी को आचार्यश्री तुलसी जैसे समर्थ गुरु मिले तो आचार्यश्री तुलसी को आचार्य महाप्रज्ञ जैसे समर्पित शिष्य एवं योग्य उतराधिकारी मिले। विश्व क्षितिज पर आचार्यश्री तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ जैसी आध्यात्मिक विभूतियाँ गुरु शिष्य के रूप में शताब्दियों के बाद प्रकट होती हैं।
आचार्य महाप्रज्ञ आचार्यश्री तुलसी के हर आयाम में और हर कदम पर अनन्य सहयोगी रहे। गुरु के प्रत्येक निर्देश को क्रियान्वित करने एवं उनके द्वारा प्रारंभ किए हुए कार्य को उत्कर्ष के बिन्दु तक पहूंचाने में वे सदा प्रस्तुत रहते थे।
आचार्यश्री तुलसी की वाणी महाप्रज्ञ के कण-कण में क्षण-क्षण प्रतिध्वनित होती है। तेरांपथ की प्रगति-यात्रा के हर आरोह-अवरोह में आचार्य महाप्रज्ञ ने अपने गुरु श्री तुलसी के सधे हुए द्रुतगामी कदमों का सदा साथ निभाया, यह कहना असंगत नहीं होगा कि तेरापंथ और आचार्य तुलसी को विश्व प्रतिष्ठित करने में आचार्य महाप्रज्ञ की भूमिका अनान्य रही है।
आचार्य महाप्रज्ञ कुशल प्रवचनकार होने के साथ-साथ एक महान्‌ा लेखक, महान श्रुतधार और महान साहित्कार बने। उनकी सारस्वत वाणी से निकला हर शब्द साहित्य बन जाता था, उन्होंने विविध विषयों पर शताधिक ग्रन्थ लिखे हैं।
प्रत्येक ग्रन्थ में उनका मौलिक चिन्तन प्रस्फुटित होता था, उनके ग्रन्थ जहाँ साहित्य जगत की अमूल्य धरोहर हैं, वहाँ मानवता कि विशिष्ट सेवा भी। आचार्यश्री तुलसी के वाचना प्रमुखत्व में जैनागमों के वैज्ञानिक विश्लेषण के साथ आधुनिक सम्प्रदाय उनकी विलक्षण प्रतिभा का परिचायक है, अर्हत्‌ा वाणी के प्रति महान समर्पण का सूचक है।
शोध विद्वानों के लिए आचार्य महाप्रज्ञ एक विश्वकोष थे। शायद ही कोई ऐसा विषय हो जो आचार्य महाप्रज्ञ के ज्ञानकोष्ठ में अवतरित ना हुआ हो।
आचार्य महाप्रज्ञ ने प्रेक्षाध्यान एवं जीवन विज्ञान के रूप में एक विशिष्ठ वैज्ञानिक साधना-पद्धति का अधिकार प्राप्त किया। इस साधना-पद्धति के द्वारा प्रतिवर्ष सैकड़ों व्यक्ति मानसिक विकृति से दूर हटकर आध्यत्मिक ऊर्जा प्राप्त करते हैं। थोड़े शब्दों में कहा जाए तो आचार्य महाप्रज्ञ की सृजन चेतना से तेरापंथ धर्म-संघ लाभान्वित हुआ है और सम्पूर्ण मानव जाति लाभान्वित होती रहेगी।

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