आचार्य शिव मुनि
जैन एकता का हुआ शंखनाद
सूरत: श्रमण संघ के आचार्य शिव मुनि जी महाराज ससंघ का राष्ट्र-संत ललितप्रभ जी महाराज से लाड़वी गांव में मंगल मिलन हुआ, इस अवसर पर लाडवी गांव में दुध डेरी के सामने स्थित सुगनचंद बोल्या आवास पर सामूहिक प्रवचनों का आयोजन रखा गया, जिसमें हजारों श्रद्धालुओं ने लाभ लेकर मिलन को आनंदमय और सद्भावमय बनाया|इस अवसर पर सभा को संबोधित करते हुए राष्ट्र-संत ललितप्रभजी महाराज ने कहा कि ऋतुओं के मिलन पर प्रकृति मुस्कुराती है और संतों के मिलन से संस्कृति मुस्कुराती है, जब अलग-अलग परम्परा के संत आपस में एक मंच पर बैठकर प्रेम और सद्भाव की बातें करते हैं तो धार्मिक एकता को बल मिलता है और सामाजिक एकता घटित होती है, हमें तख्त पर भी एक, होना चाहिए और वक्त पर भी एक। हमने २५०० साल टूटकर खोया ही खोया है, मात्र २५ साल के लिए एक हो जाएं तो पूरी दुनिया में धर्म का डंका बजा सकते हैं। उन्होंने कहा कि गोरा रंग दो दिन अच्छा लगता है, ज्यादा धन दो महिने अच्छा लगता है, पर अच्छा व्यक्तित्व जीवनभर अच्छा लगता है, अगर हम सुंदर हैं तो इसमें खास बात नहीं है, क्योंकि यह माता-पिता की देन है, पर अगर हमारा जीवन सुंदर है तो समझना यह खुद की देन है, उन्होंने कहा कि जिस्म को ज्यादा मत संवारो उसे तो मिट्टी में मिल जाना है, संवारना है तो अपनी आत्मा को संवारो, क्योंकि उसे ईश्वर के घर जाना है, उन्होंने कहा कि इस दुनिया में कुछ लोग बिना मरे मर जाते हैं, पर कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व के चलते मरने के बाद भी अमर हो जाते है, हम या तो सौ किताबें लिखकर जाएँ ताकि हमारे जाने के बाद भी लोग हमें पढ़कर याद कर सके या फिर ऐसा जीवन जीकर जाएँ कि हम पर सौ किताबें लिखी जा सके।
प्रेम और उदारता भरा जीवन जिएँ-संतप्रवर ने कहा कि प्रेम और उदारता भरा जीवन जिएँ, हम औरों का खाकर नहीं, वरन् औरों को खिलाकर खुश होवें, उन्होंने बहुओं से कहा कि पीहर से कुछ सामान आए तो उसे अलमारी में रखने की बजाय घर के आंगन में रखें, अंदर रखने वाली अलमारी की मालकिन बनती है और आंगन में रखने वाली पूरे घर की मालकिन बनती है, उन्होंने सासुओं से कहा कि अगर कभी बहू के सिर से पल्लू खिसक जाए तो माथा भारी करने की बजाय, उसमें बेटी को देखने का आनंद ले लें। आचार्य शिव मुनिजी ने श्रद्धालुओं से कहा कि हमें राष्ट्र-संत से मिलकर बेहद खुशी हो रही है, धार्मिक और सामाजिक एकता के लिए इन्होंने जो काम किये हैं उसे आने वाला कल सदा याद रखेगा और गौरव करता रहेगा, अब समाज में ऐसे संतों की जरूरत है जो समाज को जोड़े, समाज को एक करे, टूटने से कीमत खतम हो जाती है, पर एकता रखने से औकात बढ़ जाती है। उन्होंने कहा कि राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध जैसे लोग धरती से कभी के चले गए, पर उनके महान जीवन और महान विचारों की खुशबू आज भी लोगों को सुवासित कर रही है, क्योंकि उन्होंने मानव-मानव को जोड़ा, उन्हें प्रेम और अहिंसा से जीना सिखाया, याद रखें, औरों के दिल में जगह वैभवपूर्ण जीवन जीने से नहीं, प्रेम और त्यागपूर्ण जीवन जीने से बना करती है|
रखें, चौराहे पर एक तरफ विश्व विजेता सिकन्दर की मूर्ति हो और दूसरी और निर्वस्त्र महावीर की मूर्ति हो, श्रद्धा से सिर तो महावीर के चरणों में ही झुकेगा, दुनिया में वैभव महान होता है, पर त्याग और सादगी से ज्यादा कभी महान नहीं होता, उन्होंने अमीर लोगों से कहा कि अगर आप अपनी संतानों की वैभवपूर्ण शादी करेंगे तो दुनिया चार दिन याद रखेगी, पर उसके उपलक्ष में बीस गरीब भाइयों को पाँवों पर खड़ा करने का सौभाग्य लेंगे तो दुनिया हमेशा याद रखेगी, अगर आप अपना धन केवल बेटे-बेटी को देकर जाएँगे तो केवल दो व्यक्ति ही खुश होंगे, पर अनाथालय, वृद्धाश्रम, स्कूल, हॉस्पिटल जैसा कोई सत्कर्म कर देंगे तो सारा शहर खुश हो जाएगा। अहंकार हटाइए, विनम्रता लाइए-आचार्यप्रवर ने कहा कि अहंकार शूल है और विनम्रता फूल है, हम केवल बड़े न बनें, वरन् बड़प्पन भी दिखाएँ, याद रखें, जो घड़ा झुकने को तैयार नहीं होता, वह कभी भर नहीं पाता, उन्होंने कहा कि हम कितने ही धनवान, रूपवान, ज्ञानवान, बलवान, सत्तावान क्यों न हों, जिंदगी का अंतिम परिणाम तो केवल दो मुठ्ठी राख ही है फिर हम किस बात का अहंकार करें, कार्यक्रम में शिरीसमुनि जी आदि ठाणा ८ और महासति कंचनकंवर श्रीजी महाराज आदि ठाणा ३ और महासति रूचिकाश्री जी महाराज आदि ठाणा ३ भी उपस्थित थे, इस अवसर पर गुरुजन और श्री संघ ने कार्यक्रम के लाभार्थी सुगनसिंह, राजेन्द्रकुमार, संजयकुमार, चेतनकुमार बोलिया परिवार का सम्मान किया गया
प्रसिद्ध वक्ता पण्डित श्री सौभाग्यमलजी महाराज
मालव केसरी प्र. वक्ता पं. श्री सौभाग्यमलजी म. इस काल के प्रसिद्ध जैन सन्तों में से एक हैं। आप पं. मंत्री मुनि श्री किशनलालजी म. के ज्येष्ठशिष्य हैं, नीमच के समीप स्थित सरवाणिया ग्राम में केवलचंदजी और गेंदमलजी फांफरिया दो भाई रहते थे, केवलचंदजी के पाँच पुत्र थे- रिखबचंदजी, चंपालालजी, पन्नालालजी, चौथमलजी और मोतीलालजी। क्रमश: तीन पुत्र नि:संतान थे। चौथमलजी के तीन पुत्र हुए, चौथमलजी की धर्मपत्नी केशरबाई (मोतीबाई) की कुक्षि से सं. १९५५ में पू. श्री सौभाग्यमलजी म. का जन्म हुआ था, आपके दो बड़े भाई-नानालालजी और गेंदमलजी क्रमश: मोरवणग्राम और रतनपुर की खेड़ी में गोद गये थे। बालक सौभाग्यमलजी की छोटी अवस्था में ही उनकी माता का देहान्त हो गया था। श्री चौथमलजी ने अपनी पूंजी सट्ठे में गँवा दी, अत: वे लघु बालक सौभाग्य को संग लेकर, आजीविका की खोज में मन्दसौर आये, परन्तु वहाँ उनकी इच्छा पूरी न हो सकी, इसलिए वे जावरा आये, यहाँ भी उन्हें निराश होना पड़ा, अब चौथमलजी रतलाम आये, वहाँ पूज्य श्री हुक्मीचन्दजी म. की सम्प्रदाय के प्रभावशाली आचार्य पूज्य श्री श्रीलालजी म. चातुर्मासार्थ विराजमान थे। अत: वहाँ दर्शनार्थिंयों के लिए भोजन शाला खोली गई थी, चौथमलजी को वहाँ नौकरी मिल गई। पिता-पुत्र आनन्द से रहने लगे, परन्तु अभी दुर्भाग्य ने उनका पीछा नहीं छोड़ा था। चौथमलजी रोग से पीड़ित हो गये, वहाँ के साधर्मी बन्धुओं ने उनका उपचार करवाया, वे स्वस्थ हुए, पुन: कार्य में लग गये, परन्तु कुछ समय बाद ही रोग ने पुन: आक्रमण किया, इस बार चौथमलजी स्वस्थ न हो सके और अपने लघु पुत्र को असहाय छोड़कर, इस जगत से सदा के लिए रवाना हो गये। अबोध सौभाग्य में अभी यह समझने की शक्ति नहीं थी, कि मैं निराधार हो गया हूँ। रतलाम के प्रसिद्ध श्रावक इन्दरमलजी कावड़िया ने अपने यहाँ बालक सौभाग्य को प्रेम से रखा। परन्तु एक दिन बालक को एक ब्राह्मण ने फुसलाकर अपने संग ले लिया, वह बालक को लेकर खाचरोद आया और बालक को वहीं छोड़कर अचानक न जाने कहाँ पलायन कर गया।
बालक को भूख लगी, वह इधर-उधर देखने लगा, ऐसी स्थिति में उसे खाचरोद के प्रतिष्ठित गृहस्थ मियाचन्दजी खींवसरा ने देखा, उन्होंने परिस्थिति को जाना, उन्होंने बालक से उसका परिचय पूछा, पर वह क्या परिचय देता, वह इतना ही बोला- ‘मने भूख लागी’ सेठजी ने बाजार से कुछ सामग्री खरीद कर उसकी भूख शांत की, उसका नाम जानकर उन्होेंने जान लिया कि यह किसी जैन का लड़का है, वे बालक को पुलिस थाने पर ले गये, वहाँ पंचनामा करवाया और बालक सौभाग्य को आपनी छत्रछाया में ले लिया। वे उन्हें अपने घर ले आये, उनके घर के बालकों के साथ सौभाग्यमलजी का पालन-पोषण होने लगा। सौभाग्यमलजी बचपन में बड़े नटखट थे और पढ़ने की रुचि भी नहीं थी, वे प्राय: अपने नटखटपन के चमत्कार दिखाया करते थे। कभी गुपचुप मलाई खा जाते तो कभी कुछ सामग्री बाजार से लाते तो उसमें से भी खा लेते, अत: उसके परिणाम स्वरूप दण्ड भी मिलता था, फिर भी घर में पुत्रवत् ही प्यार मिलता रहा। आप बारह वर्ष के लगभग की आयु के थे, तब आपको पूज्य श्री नन्दलालजी म. के दर्शन हुए। आप श्री किशनलालजी म. के द्वारा सं. १९६७, वैशाख कृष्णा ३ को श्री मियाचन्दजी खींवसरा की अनुज्ञा से दीक्षित हो गये। सेठजी के सुपुत्र चान्दमलजी आदि का आप पर अति प्रेम था। मियाचन्दजी ने इस शर्त से दीक्षा की अनुमति दी थी कि दीक्षा गुपचुप दी जाये, उन्हें दीक्षा की आज्ञा देने के लिये श्री मनकूँवरजी महासती और महताबकूँवरजी म. ने भी समझाया था, अत: शर्त के अनुसार स्थानक में नीचे उदयचंदजी मुनि की दीक्षा हुई और ऊपर की मंजिल में श्री किशनलालजी म. ने सौभाग्य को दीक्षा दी, दीक्षा के बाद ही आपको विद्याध्ययन की रुचि हुई, आपने जो भी शिक्षा पाई, वह दीक्षित अवस्था में ही पाई।