भावों से ही बनती है दशा और दिशा

भाव-भावना

भाव-भावना ही व्यक्ति के जीवन के अन्तर्मुखी दर्पण है, भावों से ही भावना बनती है, भावों से ही विचारों का जन्म होता है, भाव जगत ही व्यक्ति के जीवन की दशा और दिशा निर्धारित करते हैं। भाव ही जीवन को भव्य बनाता है और भाव ही जीवन को उधोगति का मेहमान बनाता है। भाव ही कर्म बन्धन और कर्म मुक्ति का मापदण्ड है। भावों से ही व्यक्ति प्रतिदिन न जाने कितनी बार गिरता, उठता है, मन मालिन्य करता है और न जाने कितनी बार मन में उठने वाले विचारों का शोधन करता है, संवर्धन करता है और दिव्यता की ओर प्रयाण करता है। प्रतिक्षण जीवन में भावों का उतार-चढ़ाव निरन्तर जारी रहता है, न जाने कब व्यक्ति भावों से राक्षस बन जाना है, कब विषय वासना के चक्रव्यूह में फंस जाता है, कब क्रोध, मान, लोभ छल-कपट से घिर जाता है, वहीं दूसरी ओर भावों से ही करूणा, दया, आस्तिकता, अपनत्व, सद्भाव की रश्मियों से प्रकाशित होने लगता है। भावों से व्यक्ति दृढ़ प्रतिज्ञ, संकल्पी इच्छाशक्ति का धनी बनकर अपनी मंजिल को पाने के लिए सतत् परिश्रम करता है। भाव जगत की श्रेष्ठता व साधना की परिपक्वता का ही दूसरा नाम मुक्ति है, मैं स्वयं अपने भावों को निहारता हूं तो महसूस करता हूं कि भावों की चंचलता जब कभी निकृष्टता की ओर प्रयाण करने हेतु तत्पर होती है तो भावों की पवित्रता, भावों की शुचिता उसे रोकती है और आत्मा के किसी कोने से आवाज आती है, रूक जा, ठहर जा, भाव जगत के बिगड़ने के पहले संभल जा। भाव जगत को कई बार जब क्रोध घेर लेता है, क्रोध की तरंगे भाव जगत में प्रविष्ट हो जाती हैं तो सुज्ञ, परिपक्व, एवम् चिन्तनशील व्यक्ति भी अपनी सूझ-बूझ खो देता है। विभाव दशा उसे घेर लेती है, अत: भाव जगत में आने वाली विकृतियों को रोकना ही तो इन्द्रिय विजेता बनने की दिशा में अग्रसर होना है। मेरे स्मृति पटल पर महापुरूषों से सुना हुआ एक दृष्टांत उभरकर आ गया। समुद्र में रहनेवाला विशाल व डरावना मगरमच्छ जब अपने विशालकाय मुंह को खोलकर रहता है तो समुद्र में उमड़ने वाली लहरों के साथ सैकड़ों मछलियां उसके मुंह में प्रवेश कर जाती है और पुन: सुरक्षित बाहर आ जाती है। मगरमच्छ अपनी प्रशान्त अवस्था में जल में विचरण करता रहता है, यह क्रम चलता रहता है। जूं के समान एक अत्यंत छोटा प्राणी जिसे तन्दुल मत्स्य कहते हैं वह विशालकाय मगरमच्छ के भौंहों की बालों के बीच बैठा रहता है। मगरमच्छ के खुले मुंह में मछलियों के प्रवेश करने और निकलने से अनजान बने रहने को देखकर तन्दुल मत्स्य सोचता है कि यह मगरमच्छ कितना बेवकूफ है। सैकड़ों मछलियां इसके मुंह में पानी के बहाव के साथ प्रवेश करती हैं और पुन: बहाव के साथ निकल जाती हैं, यह मगरमच्छ अपनी मस्ती में रहता है|

 इतनी सारी मछलियां जो उसे सहज ही खाने को मिलती है, उन्हें वह खाता नहीं, मछलियां उसके मुंह से बाहर आ जाती हैं। काश मैं इसकी जगह होती! तो मैं सारी मछलियों को निगल जाती, खा जाती। तन्दुल मत्स्य अपनी अत्यंत छोटी शारीरिक बनावट के अनुसार एक छोटी मछली को भी नहीं खा सकती, लेकिन तन्दुल मत्स्य केवल सभी मछलियों को खा जाने के लिए भाव बनाती है। विशालकाय मगरमच्छ को बेवकूफ मानती है। महापुरूषों ने बतलाया कि केवल भावों में ही तन्दुल मत्स्य सैकड़ों मछलियों को खाने का भाव बनाती है जिसके कारण उसका भाव जगत हिंसा, कुरता से भर जाता है और वह अपना भव केवल भावों से बिगाड़ लेती है तथा नरकों का मेहमान बन जाती है। मैं सोचने लगा कि भाव जगत की शुचिता, पवित्रता ही हमारे जीवन को शुभ बनाती है, प्राय: व्यक्ति प्रत्येक मांगलिक कार्य के लिए पंडितों से शुभ मुहूर्त पूछता है और तदनुसार कार्य करता है। मैंने अनुभव किया है कि ज्योतिष शास्त्रों द्वारा दिया गया शुभ मुहूर्त में भी यदि कार्य के सम्पादन के समय हमारे भावों में समता, सहजता, प्रमाणिकता, कर्तव्यबोध नहीं रहा तो सारा मुहूर्त निष्फल हो जावेगा, भावों की विभाव दशा शुभ मुहूर्त को भी विकलांग बना देगी। कुछ वर्षों पूर्व समाचार पत्रों में पढ़ा था कि नगर के कुछ मुहल्लों में आवारा कुत्तों की संख्या बढ़ गई है। नगरपालिका इन आवारा कुत्तों को जहर नहीं दे रही है। संवाददाता इसका समाचार बनाते थे। कुत्तों को जहर देकर मारने का भाव आया, समाचार बनाया, इन समाचारों को पढ़कर हमारा भाव जगत इन आवारा कुत्तों की जिन्दगी समाप्त करने के भावों से ही कुरता के भावों से भर गया, न हमने उन कुत्तों को देखा, न ही हमने जहर दिया, केवल कुरता के भाव आने से न जाने हमने भव बिगाड़ लिये। कर्म बन्धनों का शिकंजा हम पर कस गया। श्रीमति मेनका गांधी का पशुओं, वन्य प्राणियों, पक्षियों के जीवन के प्रति जो करूणा भाव है, पशु-पक्षियों की पीड़ा को भी समझने की संवेदना है उसके कारण अब कुत्तों की नस्लबंदी की जाती है, जहर देकर मारने का महापाप नही किया जाता। भाव जगत जब कुरता, वासना, लोभ से भर जाता है तो व्यक्ति अपने ही परिजनों को मौत के घाट उतार देता है। कंस ने कृष्ण को मारने हेतु न जाने अपने भाव जगत को इतना कुर बना दिया कि अपनी ही बहन देवकी को बन्दी बनाकर कारागार में बन्द कर उसकी सन्तान को मारने का महापाप करने लगा |समाचारों को पढ़कर, घटनाक्रमों को सुनकर, सारी परिस्थितियों को समझे बिना, सुनी-सुनाई बातों पर, जिससे हमारा कोई सम्बन्ध नहीं, व्यक्ति चर्चा-परिचर्चा में प्रतिक्रिया करते हुए कहता है कि इसे फांसी पर लटका दिया जाना चाहिये, उसे जिन्दा जला देना चाहिये, मेरा बस चले तो उसे ऐसा मजा चखाउंâ कि उसे नानी याद आ जाए, इन सारी प्रतिक्रियाओं से हमारा भाव जगत बिगड़ता है, दूषित होता है तथा हमारे स्वभाव को भी उग्र बनाता है। मैं सोचने लगा कि मैंने भी कई बार आवेश में, क्रोध में, संवाद में अप्रियकर वाणी का प्रयोग किया, उत्तेजना से वातावरण को दूषित किया, काश् मैं भी भाव जगत को सुधार लेता तो मैं भी समता पथ का पथिक बन जाता। हम वीर प्रभु से प्रार्थना करें कि हे प्रभु! हमारे भावों को पवित्र बनाए रखना ताकि हमारा भव न बिगड़े। कभी-कभी हमारी ज्यादा भावुकता भी हमें भटका देती है। हे प्रभु! हमारा भाव जगत जब भी विभाव जगत में जाने लगे हमें सचेत कर देना, सावधान कर देना, रोक देना। हे प्रभु! हमारा भव बिगड़ने से पहले हमें बचा लेना, हमें बचा लेना।

-गौतम पारख जैन
राजनांदगांव, छत्तीसगढ

जैन साधु के लिए भिक्षा विधि

जैन साधु (श्वेताम्बर स्थानकवासी) पैदल एक गांव से दूसरे गांव जाते हैं वे अपने हाथ से खाना नहीं बनाते, वे जिस गांव में जाते हैं वहां जो शाकाहारी घर होते हैं उनके यहां से जैन साधु अपने नियम के अनुसार भोजन-पानी लेते हैं, जिनकी भिक्षा विधि इस प्रकार है:
जैन साधु की शुद्ध भिक्षा विधि:
१. जैन साधु सादा पानी नहीं पीते, वे जिस तरह का पानी लेते हैं उसकी विधि इस प्रकार है:

१) जिस पानी से चावल, दाल इत्यादि धोयें (धोवन पानी) वह पानी फेंके नहीं एवं सुखे बर्तन में जमीन पर सुखी जगह पर रख सकते हैं।
२) चावल का मांड (पसीया) सुखे बर्तन में सुखी जगह जमीन पर रखा जा सकता है।
३) सुबह के बासी बर्तन, ग्लास-लोटा वगैरह यदि राख से धोते हों, उसका पहला पानी अलग सुखी जगह रख सकते हैं।
४) बर्तन धोने के लिए सर्पâ की जगह राख ले सकते हैं, राख के उपयोग से पानी की बचत होती है।
५) प्रतिदिन नियमित समय पर जितना भोजन बनता है उस बने हुए भोजन को नमक, पानी, विद्युत उपकरण, अग्नि, कच्ची सब्जी, फल से दूर रखना और सुखी जगह पर रखना।
२. क्या दे सकते हैं:
१) रोटी, सब्जी, दाल, चावल, अचार, गुड़ इत्यादि चावल का धोया हुआ पानी, दाल का धोया हुआ पानी, चावल का मांड।
३. क्या नहीं करना:
१) साधुओं के लिए जल्दी एवं ज्यादा नहीं बनाना।
२) साधुओं के लिए नई चीज नहीं बनाना।
३) साधुओं के लिए बर्तन धोने में रोजाना की अपेक्षा ज्यादा पानी नहीं लेना।
४) जिस समय बर्तन नहीं धोने हो उस समय साधु के लिए राख आदि से बर्तन नहीं धोना, साधुओं के लिए पानी गरम नहीं करना।
४. साधुओं को भिक्षा देते समय ध्यान में रखें:
१) साधुओं को भोजन देने के लिए हाथ नहीं धोना।
२) सेल की घड़ी पहनी हो या मोबाइल पास में हो तो साधु को भोजन, धोवन पानी एवं गरम पानी नहीं देना।
३) साधुओं को भिक्षा देते समय बिजली, पंखा आदि का स्विच बन्द या चालु नहीं करना।
४) गीले हाथों से धोवन पानी या भोजन नहीं देना।
५) साधुओं को भिक्षा देते समय वनस्पति एवं सादे पानी से अपने आपको दूर रखें।
६) जलता हुआ गैस व चुल्हे पर रखी वस्तु नहीं देना एवं चालु गैस चुल्हे को छुना नहीं।
७) घुटने की ऊचाई से नीचे से साधुओं को भोजन देना एवं साधुओं को देते समय कोई भी चीज एक दाना या एक बुन्द भी घुटने के ऊपर से न गिरे इसका ध्यान रखें।
८) जैन साधु जहॉ खाने आदि का सामन पड़ा हो उसे देखे बिना भिक्षा नहीं ले सकते, अत: उन्हे सम्मान पूर्वक रसोई में ले जाना तथा जल्दबाजी या हड़बड़ी किये बिना उन्हें इतना ही देना जिससे पीछे वापस बनाना न पड़े।
साधुओं को उनके नियमानुसार शुद्ध आहार एवं पानी की भिक्षा देकर महान-महान पुण्यवानी का उपार्जन किया जा सकता है।

– महेश नाहटा, जैन
नगरी

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