ऐतिहासिक क्षण… महानगरी मुंबई की धरा हुई धन्य
दीक्षा महोत्सव: ४४ दीक्षार्थियों का संयम मार्ग पर प्रयाण, ६५० साधु-साध्वियों की मौजूदगी में हजारों लोग हुए साक्षी
माया-मोह की नगरी में छूटा मोह का जाल
मुंबई: सांसारिक जीवन को छोड़ जैन समाज के ४४ दीक्षार्थियों ने संयम मार्ग पर प्रयाण किया, बोरीवली के चीकूवाड़ी ग्राउंड में बनाई गई दीक्षा नगरी ६५० से ज्यादा साधु-साध्वियों की मौजूदगी में हजारों लोग सामूहिक दीक्षा के साक्षी बने, दीक्षा नगरी में इतनी भीड़ जुटी की समारोह के लिए बनाया गया विशाल मंडप छोटा पड़ गया, समाज के लोग दीक्षा महोत्सव देख सकें, इसके लिए मंडप को खोलना पड़ा, इसके साथ ही फाल्गुन सुदी सप्तमी,१३ मार्च का दिन मोह-माया की नगरी के इतिहास में सुनहरे अक्षरों में अंकित हो गया, नौ मार्च से शुरू हुआ दीक्षा महोत्सव का समापन हुआ।
सामूहिक दीक्षा कार्यक्रम के तहत सबसे पहले योगतिलक सूरिश्वर के प्रथम शिष्य आर्यातिलक विजय म.सा.जिन शासन के युवराज समान उपाध्याय पद पर आरूढ़ किया गया, वे सूरिशांति समुदाय के प्रथम उपाध्याय बने चीकूवाड़ी ग्राउंड में बने प्रवज्या परिणय वाटिका में श्रावकों का आगमन शुरू हो गया था, सामूहिक दीक्षा के लिए बनाया गया विशाल मंडप पूरी तरह से ज्यादा लोगों की मौजूदगी में ४४ दीक्षा महोत्सव पूरी भव्यता के साथ संपन्न हुआ।
गाजे-बाजे के साथ मंडप प्रवेश
इससे पहले ४४ मुमुक्षुओं, सूरिराम और सूरिशांति समुदाय के १५ आचार्यों और ६५० श्रमण-श्रमणी का सुबह पांच बजे दीक्षा मंडप में गाजे-बाजे के साथ प्रवेश हुआ, सुबह ६.४० बजे दीक्षा विधि शुरू हुई, जबकि रजोहरण की विधि ८.०४ बजे हुई, दोपहर बाद ३.३० बजे दीक्षा विधि संपन्न हुई।
यह हस्तियां हुईं शामिल
शामूहिक दीक्षा में विधायक मंगल प्रभात लोढ़ा, योगेश सागर, प्रवीण शाह, भरत शाह, पृथ्वीराज कोठारी, किशोर खाबिया, दिनेश भाई, निमेश कंपाणी आदि लोग शामिल हुए।
होली चातुर्मास पर जैन धर्म के आचार्य एवं संतों का मिलन
अनादि जैन धर्म में एकता बनी रहे सुभाष ओसवाल जैन समाज रत्न व हिंदी प्रेमी
मंचस्थ मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के विश्व विख्यात राष्ट्रसंत जैनाचार्य श्रीमद पद्म सागर सूरिश्वर जी महाराज एवं पूज्य गुरूदेव श्री सुदर्शन लाल जी महाराज के सुशिश्य आगमज्ञाता योगिराज युवा प्रेरक श्री अरूण मुनि जी महाराज का न्यू फ्रैण्ड्स कॉलोनी साउथ दिल्ली श्री संघ में मंगल मिलन एवं संयुक्त धर्मसभा का दृश्य।
दिल्ली: सुप्रसिद्ध जैन संत पूज्य गुरूदेव श्री सुदर्शन लाल जी महाराज के सुशिष्य आगमज्ञाता योगिराज युवा प्रेरक श्री अरूण मुनि जी महाराज ने न्यू फ्रैण्ड्स कॉलोनी श्री संघ की पुरजोर विनती को मान देते हुए वर्ष २०१९ की होली चातुर्मास का सौभाग्य प्रदान किया, श्री संघ के असीम पुण्योदय से मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के विश्वविख्यात राष्ट्रसंत जैनाचार्य श्रीमद पद्म सागर सूरिश्वर जी महाराज का भी मंगल पदार्पण हुआ।
वैसे तो हमारे क्षेत्र में निरन्तर साधु-संतों का आवागमन बना रहता है, लेकिन दो महान मुनिराजों के मिलन सोने पर सुहागा वाली कहावत को सार्थक कर गया। आगमज्ञाता योगिराज युवा प्रेरक श्री अरूण मुनि जी महाराज ने स्थानक भवन की सीढ़ियों से उतरकर गुरूदेव की अगवानी की। दोनों पूजनीय मुनिराज अपनी-अपनी मर्यादा के अनुसार ऐसे मिले, जैसे इनका धर्म से इतर भी अन्य कोई पुरातन नाता हो। गुरूदेवों के मिलन तक सभी श्रद्धालु भक्त जनों की नजरें इस दुर्लभ दृश्य को अपलक निहारती रही।
बुधवार २० मार्च २०१९ को लगभग दो घण्टे तक चले प्रवचन कार्यक्रम में हॉल का कोना-कोना जनमेदिनी से भरा हुआ था, जो प्रायः देखने में बहुत कम आता है, गुरूदेव श्री जी ने अपने उद्बोधन से सुस्त नसों में रवानगी की ताजगी भरते हुए ‘ओपन हार्ट सर्जरी’ विषय की सविस्तार व्याख्या करते हुए बताया कि आधुनिकता की चकाचौंध में उन्मत्त प्राणियों के प्रत्येक तर्क का मुँह बन्द था। अहिंसा प्रधान आडम्बर रहित व संवर सहित धर्म को पाकर हमें इसकी सार्थकता का अहसास करना चाहिए। गुरूदेव की खुली ललकार ने श्रद्धालु भक्तजनों को अपने में मौजूद कमियों को देखने पर मजबूर कर दिया। बड़े ही पुण्य से मिले अपने को निहारने के इस पर्व की आराधना में गुरूदेव ने कोई कसर नहीं छोड़ी।
मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के विश्व विख्यात राष्ट्रसंत जैनाचार्य श्रीमद पद्म सागर सूरिश्वर जी महाराज से आशीर्वाद प्राप्त करते हुए न्यू फ्रैण्ड्स कॉलोनी साउथ दिल्ली श्री संघ के अध्यक्ष समाजरत्न श्री सुभाष ओसवाल जैन एवं उनकी सहधर्मिणी श्रीमती नीलम ओसवाल जैन।
राष्ट्रसंत जैनाचार्य श्रीमद पद्म सागर सूरिश्वर जी महाराज ने बहुत ही सारगर्भित उद्बोधन दिया, जिसमें बेचैनी, द्वेश एवं आक्रोष के साम्राज्य को गिराने के बड़े ही अनमोल सूत्र बताये, हमारा मन धर्म में नहीं लगता, हमारे सतत् धर्म करने बावजूद भी हमें अभी तक सफलता नहीं मिली, इत्यादि प्रश्नों के उत्तरों से परिपूर्ण उद्बोधन देकर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया, आचार्य श्री जी के मंगलपाठ से सभा का समापन हुआ।
दो सम्प्रदायों के मिलन में कट्टरता का कोई अंश नहीं मिला, आज हम कट्टरता का इस कदर समर्थन कर देते हैं कि हमारी सामाजिक एकता ही विखण्डित होने लग जाती है, लेकिन इस मिलन में हमें ऐसा कुछ नहीं मिला, दोनों मुनिराजों की परस्पर वार्ता भी हुई। कार्यक्रम के संयोजक महेश जैन ने राष्ट्रसंत जैनाचार्य श्रीमद पद्मसागर सूरिश्वर जी महाराज एवं आगमज्ञाता योगिराज युवाप्रेरक श्री अरूण मुनि जी महाराज के प्रति आभार व्यक्त करते हुए कहा कि सेवा के क्षेत्र में ख्याति प्राप्त जैन संस्था ‘जीतो’ की स्थापना आचार्य पद्मसागर जी महाराज की प्रेरणा से ही हुई है।
सभा का संचालन करते हुए साउथ दिल्ली श्री संघ के अध्यक्ष, जैन एकता और समन्वय के सहयोगी समाजरत्न सुभाष ओसवाल जैन ने कहा कि यह हमारे साउथ दिल्ली जैन समाज का परम सौभाग्य है कि ऐसी महान परम्पराओं के दो महान संतों ने स्नेहमय मंगल मिलन हेतु हमारे क्षेत्र को अवसर देकर कृतार्थ किया, हमने मिलन तो अनेक देखे पर इस मिलन की छटा ही निराली रही, साथ ही गुरूदेवों के मंगल मिलन ने हमें यह प्रेरणा दी है कि हमें अपनी कुण्ठाओं के दायरे से बाहर निकलना चाहिए, ताकि इस अनादि जैन धर्म की एकता बनी रहे।
कार्यक्रम को नव्य-भव्य व ऐतिहासिक रूप से सफल बनाने में नवनीत जैन, अशोक लोढ़ा, राजकुमार जैन (पटियाला वाले) एवं महेश संगीता जैन, नीलम ओसवाल आदि का भरपूर सहयोग प्राप्त हुआ।
श्रवणबेलगोला जैन तीर्थ
श्रवणबेलगोला मंदिर कर्नाटक राज्य के हसन में स्थित एक प्रसिद्ध जैन तीर्थ है, यह तीर्थ मैसूर से ८४ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है, यहॉं का मुख्य आकर्षण गोमतेश्वर बाहुबलि स्तम्भ है, यह तीर्थ श्रवणबेलगोला गांव के पास तलहटी से १७८.४२ मीटर उँचे पर्वत पर स्थित है, जिसे विन्ध्यगिरी पर्वत कहते हैं। मान्यता है कि यहॉं स्थित चेमते पर बनी प्रतिमा काफी वर्षों से पुरानी है। यह इंद्रचिरि पर्वत पर ५८-८ फीट ऊँची पत्थर से बनी मूर्ति है, यहॉं स्थापित गोमतेश्वर की प्रतिमा के लिए यह मान्यता है कि इस मूर्ति से शक्ति साधुत्व, बलय तथा उदारवादी भावनाओं का अद्भुत प्रदर्शन होता है।
यह तीर्थ चन्द्रबेत और इन्द्रबेत नामक पहाड़ियों के बीच स्थित है, प्राचीनकाल में यह स्थान जैन धर्म एवं संस्कृति का महान् केन्द्र था, जैन अनुश्रुति के अनुसार मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त ने अपने राज्य का परित्याग कर अंतिम दिन मैसूर के श्रवणबेलगोला में व्यतीत किए, यहां के गंग शासक रचमल्ल के शासनकाल में चामुण्डराय नामक मंत्री ने लगभग ९८३ ई. में बाहुबलि (गोमट) की विशालकाय जैन मूर्ति का निर्माण करवाया था, यह प्रतिमा विद्यगिरी नामक पहाड़ से भी दिखाई देती है।
श्रवणबेलगोला में गोमतेश्वर द्वार के बाईं ओर एक पाषाण पर शक सं. ११०२ का एक लेख कन्नड़ भाषा में है, इसके अनुसार ऋषभ के दो पुत्र भरत और बाहुबलि थे। ऋषभदेव जंगल चले जाने के बाद राज्याधिकारी के लिए बाहुबलि और भरत में युद्ध हुआ। बाहुबलि ने युद्ध में भरत को परास्त कर दिया, लेकिन इस घटना के बाद उनके नाम में भी विरक्ति भाव जागृत हुआ और उन्होंने भरत को राजपाट लेने को कहा, तब वे खुद घोर तपश्चरण में लीन हो गए, तपस्या के पश्चात उनको यहीं पर केवल ज्ञान प्राप्त हुआ था।
श्री गंगरस राजा के प्रधान श्री चामुण्डराय की माता विक्रम संवत् में श्री बाहुबलि भगवान् के दर्शन के लिए पोदनपुर जा रही थी, उन्होंने विन्ध्यगिरी पर्वत के सम्मुख स्थित चन्द्रगिरी पर्वत पर विश्राम किया, यहीं उन्हें स्वप्न में अदृश्य रूप से विन्ध्यगिरी पर्वत पर श्री बाहुबली भगवान् की मूर्ति स्थापित करने की प्रेरणा मिली, तुरंत ही प्रधान ने निर्णय लेकर उत्साह पूर्वक अपनी अमूल्य धन राशि का सदुपयोग कर इस तीर्थ की स्थापना की, जिसे हजार वर्ष से ज्यादा हुए हैं।
भरत ने बाहुबलि के सम्मान में पोदनपुर में ५२५ धनुष की बाहुबलि की मूर्ति प्रतिष्ठित की। यहां महामस्ताभिषेक पूजा १२ वर्षों में एक बार होती है, इस अवसर पर सारे भारत से लाखों यात्री यहां आते हैं। विमान द्वारा पुष्पदृष्टि की जाती है। मूर्ति को केसर, घी, दूध, दही, सोने के सिक्कों तथा अन्य वस्तुओं से नहलाया जाता है। कुछ वर्षो पूर्व तक मैसूर महाराजा के हाथों प्रथम पूजा होती थी। लगभग दो हजार वर्ष पूर्व उत्तर भारत में बारह वर्षीय अकाल पड़ा, तब आचार्य भद्रबाहु स्वामी अनेक मुनियों के साथ आकर विन्ध्यगिरी के सम्मुख पर्वत पर ठहरे थे, उनके साथ सम्राट चंद्रगुप्त भी थे। सम्राट तपस्या करते हुए यहीं पर स्वर्ग सिधारे, इसलिए इस पर्वत का नाम चन्द्रगिरी पड़ा।
विन्ध्यागिरी पर्वत पर सात मंदिर हैं। सामने चंद्रगिरी पर्वत पर चौदह मंदिर हैं, जिनमें श्री आदीश्वर भगवान् का मंदिर सबसे पुरातन है, यहां भद्रबाहु स्वामी की चरण पादुकाएं हैं। चंद्रगिरी पर्वत पर स्थित जमीन में आधी गढ़ी मूर्ति को श्री आदीश्वर भगवान के पुत्र भरत चक्रवर्ती का बताया जाता है। श्रवणबेलगोला गांव में सात मंदिरों में से एक मंदिर में ‘जैन मठ’ स्थापित है। श्रीचारूकीर्ति स्वामीजी भट्टाचार्य यहां विराजते हैं तथा नवरत्नों की सत्रह प्रतिमाओं का दिव्य दर्शन कराया जाता है।
श्री बाहुबलि भगवान् की इतनी प्राचीन मूर्ति होते हुए भी ऐसा लगता है जैसे अभी-अभी बनकर तैयार हुई हो, इस भव्य प्रतिमा का सौम्य, शांत, गंभीर रूप बरबस मन को भक्तिभाव की ओर खींच लेता है। कला की दृष्टि से भारतीय शिल्प कला का एक सर्वोत्कृष्ठ उदाहरण है। मंदिर के निकट का दृश्य अत्यन्त मनोहर है। विन्ध्यगिरी व चन्द्रगिरी पर्वतों के बीच विशाल जलकुंड की अपनी एक विशिष्ट शोभा है।
श्रवणबेलगोला के नजदीक के रेलवे स्टेशन में अरसीकरे ६४ कि.मी. हासन ५१ कि.मी. और मन्दगिरी १६ कि. मी. की दूरी पर है। निकट का गांव चन्नरायपट्टणम लगभग १३ कि.मी. दूर है, इन स्थानों से बस व टैक्सी की व्यवस्था है। बैंगलोर से बस द्वारा करीब १५० कि.मी. तथा मैसूर से ८० कि. मी. दूर है। तलहटी तक पक्की सड़क है, इसी पहाड़ के पत्थर को काटकर सुंदर सीढ़ियों बनवायी गयी हैं। तलहटी से ऊपर मंदिर तक लगभग ६५० सीढ़ियों हैं। तलहटी गांव के निकट ही है। ठहरने के लिए तलहटी में धर्मशाला, अतिथिगृह व हॉल हैं जहां पर पानी, बिजली, व भोजनशाला की सुविधाएं उपलब्ध हैं।
-कोमल कुमार जैन
चेयरमैन, ड्यूक फैशन्स (इंडिया) लि.
एफ.सी.पी.‘जीतो’
जैन कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष पारस मोदी द्वारा जैन महासतियों को दर्शन वंदन
जैन काँन्फ्रेंस के राष्ट्रीय अध्यक्ष पारस मोदी जैन गुरु गणेश नगर औरंगाबाद में आराध्य गुरुदेव प.पू. श्री गणेशलालजी मसा एवं प पू श्री मिश्रीलाल मसा के पावन समाधीस्थल पर पहुँच कर यहाँ विराजित महासती प.पू. श्री किरणसुधाजी मसा. आदी ठाणा के दर्शन वंदन कर धर्मचर्चा की एवं प.पू. प्रग्याजी मसा. की स्वास्थ्य की जानकारी लेकर सुखसाता पुछते हुए स्वास्थ्य हेतु मंगलकामना की..
बाद में उन्होंने श्री संघ कार्यालय में समाज के श्रावकों से चर्चा-विमर्श किया, श्री संघ की ओर से आपका सम्मान अध्यक्ष झुंबरलाल पगारीया, मंत्री ताराचंद बाफना किया, इस अवसर पर जैन काँन्फ्रेंस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष तनसुख झाबंड, वरिष्ठ कार्यकारिणी सदस्य मिठालाल कांकरीया, मदनलाल लोढा, चंद्रकांत चोरडीया, कन्हैयालाल रुणवाल, डाँ प्रकाश झाबंड आदी उपस्थित थे। जैन काँन्फ्रेंस में औरंगाबाद में अनेक पदाधिकारी सेवारत हैं! जैन काँन्फ्रेंस के विभिन्न कार्य तथा सामाजिक धार्मिक उपक्रम की जानकारी श्री पारस मोदी ने देकर मार्गदर्शन किया।
प्रकाश कोचेटा
अमृता फडणवीस ने ‘जितो उड़ान २०१९’
ट्रेड फेयर का उद्घाटन किया
मुंबई: जैन इंटरनेशनल ट्रेड ऑर्गेनाइजेशन (जितो) १२वां स्थापना दिवस मनाने के लिए जितो मुंबई जोन, उसके ११ जितो चेप्टर और उसके सदस्यों ने मिलकर ‘जितो उड़ान २०१९’ का आयोजन किया। ३ दिन का यह ट्रेड फेयर और बिजनेस कॉन्क्लेव १५ से १७ मार्च २०१९ के दौरान मुंबई-गोरेगांव के नेस्को संकुल के दो लाख वर्गफीट क्षेत्र में आयोजित किया गया था। शुक्रवार १५ मार्च को श्रीमती अमृता देवेन्द्र फडणवीस के करकमलों द्वारा इस फेयर का उद्घाटन हुआ।
जितो मुंबई जोन के चेयरमैन हितेश दोशी जैन ने समस्त जैन समाज की एकमात्र ने पत्रिका कहा कि देश-विदेश के उद्योगपतियों, बिजनेसमैनों, प्रोफेशनल्स, उत्पादकों, रीयल एस्टेट डेवलपरों, रिटेलरों, व्यापारियों, वितरकों और स्टार्ट-अप्स वेंचर के लिए उनके उत्पाद और सेवा प्रदर्शित करने हेतु यह श्रेष्ठतम मंच है, जहॉ जेम-ज्वेलरी, रीयल एस्टेट और कंस्ट्रक्शन के लिए, फैशन वेयर क्लोदिंग तथा स्टार्ट-अप्स के लिए खास पेविलियन लगाई गई थी। जितो इनोवेशन एंड इक़्यूबेशन फाउंडेशन और जितो (जेआईआईएफ-जितो) ने पात्र स्टार्ट अप्स के लिए १० लाख यूएस डालर के फंड का प्रावधान किया है। स्टार्ट-अप्स के लिए खास ५० स्टॉल आबंटित किए गए थे जहॉ जॉब फेयर भी आयोजित किया गया था।
युवाओं को नौकरी का उत्तम अवसर प्रदान करने के लिए जितो ने टाइम्स एसेन्ट के साथ सहयोग किया था।
यहां विभिन्न विषयों पर सेमिनार, परिसंवाद आदि का आयोजन किया गया था। जितो एपेक्स ने पुलवामा शहीदों के लिए ३.०६ करोड़ रू. का दान दिया गया। ‘जितो उड़ान २०१९’ में फॉरेन कॉन्स्युलेट पेविलियन, युथ एंट्रिप्युनरशिप समिट, जेबीएन ट्रेड मिटिंग्स, सीईओ कान्कलेव और प्रोफेशनल फोरम है, जहॉ जैन एनजीओ के लिए खास पेविलियन है, जहां एनजीओ अपनी प्रवृत्तियां दर्शाकर, मुलाकातियों के साथ बातचीत कर अपनी प्रवृत्तियों के लिए जरूरी समर्थन प्राप्त कर सकेंगे। जैन इंटरनेशनल ट्रेड आर्ग (जितो) जैन बिजनेसमैनों, उद्योगपतियों, नॉलेज वर्करों, प्रोफेशनलों का प्रतिनिधित्व करनेवाली अंतरराष्ट्रीय संस्था है।
‘जितो’ की स्थापना २००७ में हुई थी। भारत में ‘जितो’ के ६९ चेप्टर और ११ अंतरराष्ट्रीय चेप्टर हैं, उसकी सदस्य संख्या ९००० सदस्यों की है।
श्री मिथिला तीर्थ खोज व पुर्नस्थापना
जैन धर्म एवं परम्परा में धर्म को प्ररूपित करने वाले महामानव को तीर्थंकर कहा जाता है, जिन्होंने पूर्ण ज्ञान अर्थात् कैवल्य प्राप्त कर तीर्थ की स्थापना की है। जैन परम्परा में २४ तीर्थंकर हुए हैं, जिनमें सर्वप्रथम प्रभु श्री ऋषभदेव स्वामी थे, जिनके पुत्र व प्रथम चक्रवर्ती सम्राट भरत के नाम पर इस उपमहाद्वीप का नाम ‘भरत खण्ड’ पड़ा।
अंतिम २४वें तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी हुए हैं, तीर्थंकर के च्यवन, गर्भ प्रवेश, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान तथा मोक्षप्राप्ति की भूमि को कल्याणक भूमि एवं जिस तिथि को ये कल्याणक हुए, उसे कल्याणक तिथि कहा जाता है।
जैन धर्म के १९वें तीर्थंकर श्री मल्लिनाथ जी व २१वें तीर्थंकर श्री नमिनाथ जी के च्यवन, गर्भ अवतरण, जन्म, दीक्षा व केवलज्ञान भूमि श्री मिथिला तीर्थ है। दोनों तीर्थंकरों के ४-४ कल्याणक भूमि होने से मिथिला ८ कल्याणक भूमि तीर्थ कहलाता है, मिथिला तीर्थ वर्तमान का सीतामढ़ी शहर है। पूर्व में यह क्षेत्र विदेह नामक जनपद, तिरहुत देश व जगई के नाम से भी जाना जाता था, वर्तमान बिहार प्राचीन काल से मगध, अंग देश एवं त्रीभुक्ति क्षेत्र को मिलाकर एक प्रदेश था, वर्तमान तिरहुत वही त्रीभुक्ति है, इसका मुख्य भाग मिथिला है, प्राचीन वैशाली भी मिथिला का प्रभाव क्षेत्र था।
जैन धर्म की सोलह सतियों में से एक सती माता सीता जानकी का भी जन्म स्थान सीतामढ़ी है। जनकपुर के राजा जनक को भयंकर दुष्काल से निजात पाने के लिए एक महर्षि ने खेत में हल चलाने को कहा था। राजा ने इसी स्थान सीतामढ़ी पूर्व में सारा क्षेत्र मिथिलांचल के नाम से जाना जाता था, हल चलाया गया व वहीं खेत में घड़े में उन्हें सीता मिली, इस कारण यह वैष्णव तीर्थ भी है, जानकी के पिता जनक को विदेह व सीता को वैदेही भी कहा जाता है, अद्भुत संयोग है कि देह में रहकर विदेह की साधना जैन धर्म का दर्शन भी है।
१९वें तीर्थंकर श्री मल्लिनाथ जी:- फाल्गुन-शुक्ला चतुर्थी को अश्विनी नक्षत्र से चन्द्रमा का योग होने पर मिथिला नगर के महाराजा कुंभ की महारानी प्रभावती के गर्भ में परमात्मा मल्लिनाथ के जीव का अवतरण हुआ। मार्गशीर्ष-शुक्ल ११ को अश्विनी नक्षत्र में चन्द्रमा का योग होने पर और उच्च स्थान पर रहे हुए ग्रहों के समय, आधी रात में माता प्रभावती ने सभी शुभ लक्षणों से युक्त तीर्थंकर पद को प्राप्त होने वाली पुत्री को जन्म दिया।
दिगम्बर पुत्र के रूप में मानते हैं, कारण वे स्री को मोक्ष का अधिकारी नहीं मानते। पौष शुक्ल एकादशी को अश्विनी नक्षत्र में, दिन के पूर्व-भाग में तेले के तप सहित मल्लि ने स्वयं पंच-मुष्टि लोच किया और नमस्कार कर स्वयं सामायिक चारित्र, दीक्षा/संन्यास/प्रवज्या, ग्रहण किया, उसी दिन शाम को उन्हें मिथिला में ही अशोक वृक्ष के नीचे केवलज्ञान एवं केवलदर्शन पूर्ण ज्ञान/बोधि भी प्राप्त हुआ। श्री सम्मेतशिखर पर्वत पर चैत्र-शुक्ल ४, भरणी नक्षत्र में श्री मल्लिनाथ जी मोक्ष पधारे।
२१वें तीर्थंकर नमिनाथ जी-अश्विनी-पूर्णिमा की रात्रि में अश्विनी-नक्षत्र में मिथिला नगर के महाराजा विजयसेन की महारानी वप्रा की कुक्षि में परमात्मा नमिनाथ का जीव उत्पन्न हुआ।
श्रावण-कृष्णा अष्टमी की रात्रि को अश्विनी-नक्षत्र में माता वप्रा को पुत्र की प्राप्ति हुई।
आषाढ़-कृष्णा नवमी को अश्विनी-नक्षत्र में, दिन के अंतिम पहर में, बेले के तप सहित कई राजाओं के साथ नमि कुमार ने प्रवज्या स्वीकार की। मार्गशीष-शुक्ला एकादशी के दिन अश्विनी-नक्षत्र में घातीकर्मों को नष्ट कर मिथिला में ही बकुल वृक्ष के नीचे उन्हें केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त किया। श्री सम्मेतशिखर पर्वत पर वैशाख-कृष्णा दशमी को अश्विनी-नक्षत्र के योग में, प्रभु नमि समस्त कर्मों का अंत कर के मोक्ष सिधारे।
श्री मिथिला तीर्थ के कुछ अति महत्वपूर्ण प्रसंग:- २४वें तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी के जीवन काल के २५, २६, २७, ३६, ३९, व ४० वां चातुर्मास अर्थात् कुल ६ चातुर्मास मिथिला में हुए, यहाँ श्री महावीर प्रभु के अष्टम गणधर अकम्पित का जन्म हुआ था, यहाँ जुगबाहु-पयणरेहा के पुत्र नमी नामक महाराजा वलयचूड़ियों के शब्द से और सौधर्मेन्द्र परीक्षित वैराग्य निश्चय वाले हुए। पूर्व में यहाँ मल्लिनाथ चैत्य में वैरफट्या देवी, कुबेर यक्ष एवं नमिनाथ चैत्य में गंधारी देवी और भृकुटि यक्ष आराधक जनों के विघ्न हरण करते थे।
यहाँ ही लक्ष्मीगृह चैत्य में आर्य महागिरि के शिष्य कौणिन्य गोत्रीय अश्वमित्रा श्री वीर-निर्वाण के दो सौ बीस वर्ष बीतने पर अणुप्रवाद पूर्व में रही हुई नैपुणिका वस्तु को पढ़ते हुए प्रवचन-स्थविरों द्वारा अनेकान्तिक युक्तियों से समझाकर मना करने पर भी वह उत्सूत्र प्ररूपणा कर चतुर्थ निह्नव हुआ, यहाँ जनकसुता महासती सीता की जन्मभूमि का स्थान विशाल वट विटपी प्रसिद्ध है, यहाँ श्री राम-सीता का विवाह-स्थान साकल्लकुण्ड नाम से लोकरूढ़ है और पाताललिंग संभवतः नेपाल स्थित जलेश्वर शिवलिंग आदि अनेक लौकिक तीर्थ भी विद्यमान हैं।
करीब १२५ वर्ष पूर्व काल के प्रभाव से मिथिला जैन तीर्थ का विच्छेद हो गया और यह तीर्थ गुमनामी के घेरे में आ गया। पुनः खोज व पुनस्र्थापना में निम्नलिखित प्रामाणिक सन्दर्भ सहायक बने। प्रमाणिक सन्दर्भों को शब्दशः लिखा गया है ताकि प्रामाणिकता बनी रहे।
श्री मिथिला तीर्थ खोज हेतु आधारित सन्दर्भ श्री जिनप्रभसूरि रचित-‘विविध् तीर्थ-कल्प’ विक्रम सम्वत् १३६४-१३८९ का यात्रा वर्णन अनुवादक/लेखक-अगरचन्द भंवरलाल नाहटा, प्रकाशक-श्री जैन श्वेताम्बर नाकोड़ा पाश्र्वनाथ तीर्थ, मेवानगर वाया बालोतरा, संस्करण १९७८, ‘श्री तीर्थ माला अमोलकरत्न’-श्री शीतलप्रसाद छाजेड़ जौहरी काशी बनारस द्वारा प्रकाशित, सन् १८९३, पृष्ठ २, ५, व ३० पद्ध ‘खण्डहरों का वैभव’ द्वितीय संस्करण १९५८, लेखकमुनि कान्तिसागर, प्रकाशन-भारतीय ज्ञानपीठ दुर्गाकुण्ड रोड, काशी पृष्ठ १४८ पर श्री मिथिला तीर्थ के बारे में उल्लेख है। ‘कुशल निर्देश’ मासिक पत्रिका सितम्बर, १९७७ में प्रकाशित में आलेख-‘मिथिला तीर्थ कैसे विच्छेद हुआ?’ लेखक- भंवरलाल नाहटा, पृष्ठ १९ व २० में श्री मिथिला तीर्थ का उल्लेख है।
‘चम्पापुरी तीर्थ’, लेखक भंवरलाल नाहटा, प्रकाशन: वीर निर्वाण सम्वत: २५०१ पृष्ठ १३, १५ में श्री मिथिला तीर्थ का विस्तृत उल्लेख है।
‘प्राचीन तीर्थ माला-संग्रह’ अमृतलाल छगनलाल अनोपचंद नरसिंहदास से श्री यशोविजय जी जैन ग्रंथमाला, भावनगर द्वारा गुजराती में प्रकाशित वि.सं. १९७८, सन् १९२१में पृष्ठ संख्या २६ व २७. ‘जैन तीर्थों नो इतिहास’ गुजराती में प्रकाशित पृष्ठ ५४०, ५४१ व ५४२. ‘श्री चारित्र स्मारक ग्रंथ माला १७’ जैन तीर्थों के नक्शों के साथ।
प्रकाशक: मफतलाल माणेकलाल, बोड़ी बाजार, वीरमगांव, गुजरात काठियावाड़।
मौलिकता को बनाये रखने के लिये संदर्भित ग्रंथों के आलेखों को शब्दशः प्रस्तुत किया गया है, उपरोक्त स्पष्ट प्रमाणों के आधार पर करीब १०० वर्षों पश्चात् श्री मिथिला तीर्थ की खोज शुरू हुई। खोज में निम्नलिखित उपरोक्त प्रामाणिक संदर्भ सहयोगी बने। १९९३ से अपने बाबासा ‘साहित्य वाचस्पति’ भंवरलालजी नाहटा की प्रेरणा से व पिताजी श्रेष्ठिवर्य श्री हरखचन्दजी नाहटा द्वारा इस तीर्थ पुनस्र्थापना हेतु देखे गए स्वप्न को पूरा करने के लिये ललित कुमार नाहटा द्वारा खोज आरम्भ हुयी, पूर्व में खोज का केन्द्र जनकपुर, नेपाल रहा, जिसमें श्री हुलासचन्दजी गोलछा के नेतृत्व में काठमाण्डू जैन संघ का योगदान रहा।
‘जैन कल्याणक तीर्थ न्यास’ का पंजीयन २४ मई, २००६ को ही करा लिया गया था। सन् २००६ के अन्त में कुछ पुख्ता व स्पष्ट प्रमाण मिले कि विच्छेदित श्री मिथिला तीर्थ सीतामढ़ी, बिहार-भारत में था, तब सीतामढ़ी में भूमि प्राप्ति हेतु प्रयास अशोक कुमार जैन के द्वारा शुरू हुआ व श्री शिवकुमारजी अग्रवाल के सहयोग से भूमि का चयन किया गया। श्रीमती रफक्खमणिदेवी नाहटा ने १७/०४/२००७ को भूमि क्रय कर अपने ७०वें जन्म दिवस ६ जुलाई, २००७ को न्यास को भेंट कर दी गई।
कहा जायेगा कि १४ साल की लाख कोशिशों के उपरान्त भी जब तक हम सही जगह नहीं पहुँचे, हमें ज़मीन नहीं मिली व जैसे ही सही स्थान सीतामढ़ी पहुँचे, दूसरी-तीसरी यात्रा में ही जगह उपलब्ध् हो गयी। यह स्पष्ट संकेत है कि अधिष्ठायक देव शासन देव ने जगह उपलब्ध् नहीं होने दी व सही जगह पहुँचते ही बिना देरी के जगह उपलब्ध् करवा दी।
जगह का चयन करते वक्त विशेष सावधानी बरती गयी थी कि यात्रियों को पूर्ण सुरक्षा मिले व सहजता व सुगमता से उस जगह पर पहुँच भी सके, इस कारण जगह की कीमत भी बहुत अधिक देनी पड़ी। राष्ट्रीय राजमार्ग पर भूमि है व अच्छी बस्ती व अच्छे लोगों के साथ लगती भूमि है।
‘श्री मिथिला तीर्थ’ की पुनस्र्थापना स्व-द्रव्य से एक ही परिवार-श्री हरख चन्द नाहटा परिवार द्वारा हुई। ज़मीन क्रय से लेकर जिनालय, धर्मशाला व प्रतिष्ठा का सम्पूर्ण लाभ नाहटा परिवार ने लिया। भाग्यशाली हैं कि हमें कल्याणक तीर्थ पुनस्र्थापना का सम्पूर्ण लाभ मिला। धन्य हैं वे जिन्होंने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इसमें अपनी सेवाएँ दी, हमने इस बात का विशेष ध्यान रखा कि यह परमात्मा का कल्याणक तीर्थ है एवं परमात्मा गच्छातीत होते हैं, इसलिये अपनी व्यक्तिगत आस्थाओं से उपर उठ कर किसी भी गच्छ या समुदाय की छाप नहीं लगने दी।
मन्दिर के अन्दर किसी तरह का पट्ट नहीं लगने दिया अर्थात् मन्दिर में गये तो आप व आपका सम्बन्ध् सीधे परमात्मा से होगा, बीच में कोई व्यवधान या नाम प्रलोभन नहीं। प्रतिमा भी एक ही-जिनका कल्याणक तीर्थ उनकी ही एकमात्र प्रतिमा अर्थात् श्री शीतलनाथ जी की, ताकि मन में एकाग्रता बनी रहे।
प्रतिमा की साइज़ २७’’ की है। न्यासीगण से पूछा गया कि कल्याणक तीर्थ के अनुसार क्या प्रतिमा छोटी नहीं तो उत्तर मिला कि कल्याणक तीर्थ है, तभी २७’’ की है अन्यथा २१’’ की प्रतिमा एक आदर्श साइज़ की प्रतिमा होती है। २७’’ से अधिक होने पर प्रक्षाल करते वक्त अशातना की संभावना बहुत प्रबल रहती है, कारण प्रक्षाल का पानी प्रक्षाल करने वाले के अंग पर साधारण रूप में पड़ता ही है, प्रश्नकर्ता तर्क संगत उत्तर सुन संतुष्ट हुये।
श्री मिथिला तीर्थ की पुनस्र्थापना हेतु भूमि पूजन १ फरवरी, २००८ को हुआ व इसके उपरान्त भूमि में मिट्टी भरवा कर राष्ट्रीय राजमार्ग के बराबर लाया गया। तीर्थ का शिलान्यास २५ जून, २०१४ को हुआ। तीर्थ का निर्माण कार्य आनन्दजी कल्याणजी पेढ़ी के अध्यक्ष सेठ श्री श्रेणिक भाई के सुझाव, मन्दिर निर्माण के मार्गदर्शक सत्येन्द्र कुमार कोचर के निर्देशन व श्री पंकज कुमार अग्रवाल एवं श्री नारायण अग्रवाल की देख-रेख में शुरू हुआ। मन्दिर शिल्पश्री हुक्मेश्वर सोमपुरा, तीर्थ वास्तु सलाहकार ई.पी. रेड्डी रहे। मूर्तियों व चरणों के शिल्पकार श्री सत्यनारायण शर्मा, जयपुर हैं। धर्मशाला के आर्किटेक्ट श्री सुधीर गुप्ता हैं।
श्रेष्ठिवर्य श्री हरखचन्दजी रुक्खमणिदेवी नाहटा परिवार ने मन्दिर, प्रतिमायें व धर्मशाला का सम्पूर्ण निर्माण का लाभ लिया। दोनों परमात्मा की प्रतिमाओं की अंजनशलाका अध्यात्मयोगी श्री महेन्द्रसागर जी म.सा. के हस्ते १२ मई, २०१४ को श्री भद्दिलपुर तीर्थ की अंजनशलाका प्रतिष्ठा के शुभ अवसर पर हुई। २३ फरवरी, २०१५ को विधिकारक श्री हर्षद भाई शाह अकोला वालों के मार्गदर्शन में दोनों प्रतिमाओं की चल प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई। प्रतिष्ठा मुहूर्त प्रदाता पूज्य उपाध्याय श्री विमलसेन जी म.सा. ने प्रदान किया।
वर्तमान में सुविधाजनक २७ कमरों की धर्मशाला, भोजनशाला, कार्यालय व कर्मचारी आवास हैं। भोजनशाला अभी शुरू नहीं हुई है, तीर्थ यात्रियों का आवागमन शुरू है।
तीर्थ का पताः श्री मिथिला जैन तीर्थ, श्री जैन श्वेताम्बर कल्याणक तीर्थ न्यास, ‘हरखमणि भवन’, मल्लि-नमि मार्ग, शंकर चौक, डूमरा, सीतामढ़ी, बिहार, भारत-८४३३०१, भ्रमणध्वनि: ७०७९०७२०००, ७०७९१७२०००
- ललित कुमार नाहटा जैन