आचार्य श्री नानालालजी

आचार्य श्री नानालालजी

आचार्य श्री नानालालजी म. सा. की संक्षिप्त जीवनी

अग्नि का छोटा-सा कण भी वृहत्काय घास के ढेर को क्षण भर में भस्मसात् कर देता है और अमृत का एक लघुकाय बिन्दु अथवा आज की भाषा में होम्योपैथिक की एक छोटी-सी पुड़िया भी अमूल्य जीवनदाता बन जाती है।
हिरोशिमा ओर नागासाकी की वह दर्द भरी कहानी हम भूले नहीं हों तो सहज जान सकते हैं कि एक छोटा-सा अणु-परमाणु कितना भयंकर प्रलय ढा सकता है, ठीक वैसे ही जीवन के प्रवाह में संख्यातीत घटनाओं में से कभी-कभी एकाध साधारण-सी घटना सम्पूर्ण जीवन-क्रम को आन्दोलित कर सर्वतोभावेन परिवर्तन का निमित्त बन जाती है।
श्रद्धेय चरितनायक के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ, आपके सोये हुए देवत्व को अपेक्षा थी किसी ऐसे निमित्त की, जो उपादान का सहयोगी बन, उसे पूर्णता कह प्रदान करे, उस समय तक आप तथाकथित धार्मिक अनुष्ठानों से सर्वथा अपरिचित थे और जितनी मात्रा में परिचय प्राप्त हुआ, वह अत्यन्त अल्प था, अत: आपका गहन चिन्तन उचित सामाधान के अभाव में उन सब क्रियाओं में रूचि नहीं लेता था, इसके विपरीत आप धर्म क्रियाओं को ढकोसला समझते थे और साधु-सन्तों के प्रति भी आपके मन में कुछ विपरित ही धारणा थी, फिर भी आपकी सोच से निसर्ग भवभीरू एवं नैतिक प्रवृति सदैव आपको आरम्भ प्रवृत्तियों से बचाए रहती थी, एक उपदेश पर की बेर में कीट होते हैं, अत्यंत बाल्यकाल में तुरन्त बेर खाने का त्याग कर लेना, आपकी भवभीरूता का प्रबल प्रमाण है।
एक समय की घटना है, आपके बड़े भाई साहब मिठूलालजी, जो कुछ व्यवसाय के साथ-साथ अपनी निजी भूमि पर कृषकों से कृषि का कार्य करवाया करते और कृषि की देख-भाल किया करते थे, उन्होंने आपसे कहा ‘‘कुंए का ऊपरी भाग अधिक पानी बरसने से कारण ढह गया है, अत: उसके पुन: निर्माण के लिये चूने की आवश्यकता होगी, अत: तुम चूना पड़वाने की व्यवस्था करो।”
बौद्धिक प्रतिभा एवं कर्त्तव्य क्षमता में बड़े भाईसाहब से आप अधिक कुशल थे, फिर भी आप उनको पिता की तरह हृदय से सम्मान करते थे और यथासाध्य उनकी आज्ञाओं का पूर्णरूपेण पालन करने का प्रयास करते थे, अत: आपके लिये यह आवश्यक हो गया कि कृप के पुनः निर्माण के लिए सामग्री जुटाई जाए, उसके लिये आपने पत्थर फुड़वाए, कुछ हरे वृक्ष भी कटवाए और चूना तैयार करवाकर कूप- निर्माण का कार्य सम्पन्न करा दिया।
आपका व्यावसायिक दौर क्रमशः विकासोन्मुख होता रहा और आप अपनी पारिवारिक एवं सामाजिक समस्याओं के समुचित समाधान में सफलता प्राप्त करते जा रहे थे, पर नियति को आपके लिए कुछ अन्य ही इष्ट था, वह आपको इस परिवार के लघुतम घेरे से बहुत दूर विराटता की ओर ले जाना चाहती थी, जिसकी भूमिका तो नियति आप से पूर्व ही निर्मित कर दी थी जो आपको मिल गया आपको गांव से करीब आठ मील दूर ‘‘भादसोड़ा’’ ग्राम में।
बात असल में यों बनी- होनहार बिरवान के होत चीकने पात’’’ के अनुसार एक प्रसंग आ गया, आपकी एक अग्रजा भगिनी थी श्रीमती मोतीबाई जिनका पाणिग्रहण भादसोड़ा निवासी सवाईलालजी साहब लोढ़ा से हुआ था।
प्रसंग उस समय का है जब मेवाड़ी मुनि चौथमलजी म.सा. का चातुर्मासिक वर्षावास सम्वत् १६६४ में भादसोड़ा में था, आपकी (आचार्य देव की) बहिन श्रीमती मोतीबाई ने (पंचोले) पांच दिन तक निराहार रहने का तपश्चरण किया, तत्कालीन प्रचलित परिपाटी के अनुसार तपस्विनी बहिन के लिये ऐसे प्रसंगों पर उसके पितृगृह से वस्त्रादि (पोशाक) भेजे जाते थे, तदनुसार आपके लिए भी यह आवश्यक हो गया कि भादसोड़ा बहिन के लिये अपने परिवार से पोशाक आदि उचित सामग्री पहुँचाई जाये, चूँकि ऐसे पावन अनुष्ठान प्राय: गृह-प्रमुखों के करकमलों द्वारा ही सम्पन्न हुआ करते थे, साथ ही आप इस प्रकार की धार्मिक अनुष्ठानों की क्रियाओं से अपरिचित भी थे और आपकी इनमें रूचि भी नहीं थी, अत: अपने अग्रज श्रीमान मिठूलालजी उस समय किसी अन्य कार्य में व्यस्त थे, अत: वे नहीं जा सके, फलस्वरूप आपको ही उपर्युक्त प्रसंग पर जाने का आदेश मिला, आप उचित साधन-सामग्री लेकर इच्छा नहीं होते हुए भी अश्वारूढ़ हो चल पड़े अपने गन्तव्य की ओर…
चिरस्थायी गन्तव्य
वास्तव में यह आपका चिरस्थायी गन्तव्य की ओर ही गमन था, प्रकृति आपको किसी अलौकिक गन्तव्य की प्रेरणा के लिए ही यहां तक खींच लाई थी।
भादसोड़ा अपनी बहिन के यहां पहुंच कर यथायोग्य व्यवहार के साथ रात्रि-विश्राम वहीं पर किया, साथ में लाई हुई सामग्री भेंट कर प्रात:काल पुन: लौटने की तैयारी करने लगे, किन्तु आपके बहनोईजी ने किसी तरह समझाया कि अभी पर्युषणों के दिन चल रहे हैं और कल तो संवत्सरी महापर्व है, कल का दिन पवित्र धार्मिक अनुष्ठानों में व्यतीत होना चाहिए, किसी भी प्रकार सवारी आदि का उपयोग नहीं करना चाहिए और आप आज ही घोड़े को परेशान करना चाह रहे हैं, इस प्रकार कुछ मान-मनुहार के पश्चात् आपको अनिच्छापूर्वक वहां रूक जाना पड़ा।
मेवाड़ी मुनि श्री चौथमलजी म. सा. का चातुर्मास था, अत: समस्त जैन समाज उनके पर्युषण प्रवचनों का लाभ लेने पहुंच रहा था, ‘जिनाग्ाम’ के चरित नायक को भी बहनोईजी आग्रहपूर्वक प्रवचन-स्थल से कुछ दूर बैठ कर प्रवचन श्रवण करने लगे, प्रवचन कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था, फिर भी लोक-लज्जा से बैठे रहे। व्याख्यान समाप्ति के प्रसंग पर मुनिश्री ने कहा कि कल एक ऐसी बात सुनाऊंगा जिससे संसार की दशा का ज्ञान होगा, हमारे चरित नायक को कहानी रूपी बातें सुनने का अधिक शौक था, अत: सोचा कि कल की कहानी सुन लेनी चाहिए, तदनुसार दूसरे दिन भी प्रवचन में गये, जब कुछ रस आने लगा, तो उठकर कुछ आगे समीप जाकर बैठ गए।

आचार्य श्री नानालालजी म. सा. की संक्षिप्त जीवनी (Brief Biography of Acharya Shri Nanalalji in hindi)

सांवत्सरिक प्रवचन होने के कारण प्रवचन का विषय वैराग्योत्पादक एवं धार्मिक अनुष्ठानों के प्रति पे्ररणाप्रद था, संसार की असारता एवं हिंसाकारी आरम्भिक प्रवृत्तियों के निषेध पर बल दिया जा रहा था, चूंकि तत्कालीन वातावरण के अनुसार ग्रामीण सभ्यता में पलने वाले अधिकांश जैन धर्मावलम्बी भी कृषि कार्य किया एवं करवाया करते थे, अत: उनको उद्वोधन देने हेतु मुनिश्री तत्कालीन भाषा-शैली के माध्यम से कह रहे थे, ‘‘बड़े-बड़े वृक्ष कटवाने से बहुत पाप लगता है क्योंकि इस क्रिया से असंख्य अथवा अनन्त वनस्पति कायिक जीवों की हिंसा तो होती ही है, साथ ही अनेक तदाश्रित पशु-पक्षी आदि (चलते-फिरते) प्राणियों की भी हिंसा होती है, हिंसा, असत्य, चोरी आदि पाप-वृत्तियों में रत रहने वाला व्यक्ति मर कर दुर्गति में जाता है, कभी कुछ पुण्य कर्मों से मानव तन भी प्राप्त कर लेता है तो कभी पूरी इन्द्रियाँ नहीं मिलती अर्थात् बहरा, गूंगा, लंगड़ा आदि विकलांग बन जाता है, तो कभी दर-दर का भिखारी बन जाता है और उचित धार्मिक वातावरण मिलना भी कठिन हो जाता है, इसी शृ्रंखला में महाराजश्री ने फरमाया-
यह हृास काल है अत: पंचम एवं षष्ठम आरक (काल विशेष) में इन्द्रिय शक्ति, शारीरिक संगठन आदि क्षीण होते जाएंगे, यहां तक कि छठे आरे में उत्पन्न होने वाला मानव तो बहुत लघुकाय अर्थात् एक हस्त प्रमाण ऊँचाई वाला होगा, बहुत लघु वय में पितृ-पद भोक्ता बन जायेगा, २० वर्ष की उम्र तक को वृद्ध बन १०-१२ संतान का पिता बन जायेगा, इस प्रकार औरों का आद्योपान्त विस्तृत विवेचन किया, प्रवचन तत्कालिन भावप्रवाही, हृदयग्राही एवं वैराग्योत्पादक था, किन्तु यथा
‘‘आम्र वृक्ष पर आने वाली सभी मंजरियाँ फलवती नहीं होती’’
ठीक उसी प्रकार उपदेष्टा वाणी सभी श्रोताओं के सुप्त मानस को जागृत कर दें, यह आवश्यक नहीं, कोई विशिष्ट श्रोता ही उस वाणी को कर्ण-कुम्हारों तक ही सीमित न रखकर हृदय-तन्त्री तक पहुँच पाता है और उनमें भी कोई विरल ही उसे सर्वतोभावेन जीवन परिवर्तन का आधार बना लेता है, उन विरल चेतनाओं में ही श्रद्धेय चरितनायक भी रहे हैं, जिन्होंने प्रवचन के एक-एक शब्द को एकाग्रतापूर्वक सुना एवं उसे मन-मस्तिष्क पर नियोजित कर लिया, व्याख्यान श्रवण करते समय तक उसका नूतन परिवर्तनकारी कोई स्थायी प्रभाव आप पर नहीं पड़ा।
प्रवचन समाप्ति पर अन्य श्रोताओं की तरह आप भी अन्यमनस्कवत् चलते बने, बहन के निवास स्थान पर पहुँचे और अपना अश्व सजाने लगे, बहन एवं बहनोईजी आदि ने बहुत निषेध किया एवम् समझाया कि आज संवत्सरी महापर्व है, आज सवारी आदि नहीं करनी चाहिए, कल प्रात: होते ही चले जाना, किन्तु अपनी धुन के पक्के चरितनायक पर उसका कोई प्रभाव नहीं हुआ, आप अश्वारूढ़ हो चल पड़े एक अदभुत गन्तव्य की ओर, चूँकि उस समय आपकी मातुश्री अपने एक भाई, जो भदेसर में रहते थे, के यहाँ थी, आपने अपनी मातेश्वरी से मिलने हेतु भदेसर की ओर प्रयाण किया, जो भादसोड़ा से लगभग दस मील पड़ता है, उस समय तक आपकी धार्मिक आस्था सुदृढ़ नहीं हुई थी अत: आपने उस रोज संवत्सरी होने से लोक लज्जावश भोजन नहीं किया, किन्तु उपवास-व्रत का प्रत्याख्यान भी नहीं लिया।चिन्तन का मंथन
श्रद्धेय आचार्य देव में अपने शैशव काल से ही चिन्तन की प्रवृत्ति रही है, आप जीवन की किसी भी सामान्य-असामान्य घटना की गहराई में पहुँचने का प्रयास करते और चिन्तन के मन्थन से निष्कर्ष का नवनीत निकाल लेते, वातावरण कुछ ऐसा ही मिला, एकान्त विजन, सुरम्य वनस्थली, वन की नीरवता को भंग करने वाला पक्षियों का कलरव, जो मानव को सतत् चिन्तन के लिए उत्प्रेरित करता है, के मध्य सजग-चेता चरित नायक अश्वारूढ़ हो चले जा रहे थे, वन की मन्द बयार चतुर्दिग् भाद्रपदिय हरियाली की रम्य छटा एवं शांत वातावरण
(जो आचार्यश्री का सदा से ही चिन्तन-क्षेत्र रहा है) का समुचित सुयोग पाकर आचार्य देव के चिन्तन ने एक नूतन अंगड़ाई ली, प्रवचन में अनुश्रुत विषय पर गम्भीर चिन्तन के साथ मन्थन होने लगा, जो कुछ श्रवण किया, उसमें से जितना मानस- पटल पर अंकित रहा, उसी पर धारा प्रवाही चिन्तन चला, जिसने आपकी आपेक्षिक सुषुप्त चेतना को एक झटके के साथ उद्वेलित कर दिया, बिजली की चमक के सदृश आपको एक दिव्य प्रकाश की अनुभूति हुई, चारों तरफ प्रकाश ही प्रकाश पैâल गया। तात्पर्य यह है कि ज्ञान की एक दिव्य रश्मि का प्रकाश आपके अन्त:करण में प्रस्फुटित हुआ, जिसने आपकी समग्र चेतना को एकाएक आलोकित कर दिया, आनंद से भर दिया, तथाकथित धर्म विद्रोही मन, धर्माभिमुख बन धर्म की गहनता एवं सूक्ष्मता के परीक्षण में तत्पर बनने लगा।

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