आत्मिक-आध्यत्मिक उत्थान का अवसर चार्तुमास
आत्मिक-आध्यत्मिक उत्थान का अवसर चार्तुमास आत्मिक-आध्यत्मिक उत्थान का अवसर चार्तुमास (Chaturmas, the occasion of spiritual ) वर्षाकाल के चार महीनों को चार्तुमास के नाम से जाना जाता है। चार्तुमास का समय आषाढी पुनम से लेकर कार्तिक पूनम तक होता है। इसका प्रारंभ आषाढ़ी १४से हो जाता है। प्रत्येक तीन वर्षों के पश्चात् चार्तुमास चार महीनों की जगह पांच महीनों का हो जाता है। इस वर्ष चार्तुमास १८ जुलाई से आरंभ होने जा रहा है। बरसात के मौसम में अत्यधिक सुक्ष्म जीवों की उत्पति होती हैं और उससे सारी धरती आकीर्ण हो जाती है। आवागमन या विहार करने से उन जीवों का घात हो सकता है अतः अहिंसा धर्म का सुक्ष्मता से पालन करने वाले सभी साधु-संत अपने शिष्यों सहित एक ही स्थान पर निवास करते है, वर्षायोग की स्थापना करते है। भारत में जैन साधु-साध्वी ही नहीं बल्कि अन्य धर्मों के साधु-संत भी इस क्रिया का पालन करते हैं तथा इस अवधि में ईश्वर का ध्यान करते हुये जीवदया, करुणा, सेवा, साधर्मिक भक्ति, व्रत, उपवास, परोपकार आदि प्रशस्त कार्यों को करते हैं तथा अपने भक्तों को करने की प्रेरणा देते हैं।वैसे तो साधु की गति सदैव नदी की निर्मल धारा की तरह होती है – सदैव चलते जाओ, बहते जाओ, लेकिन लोगों के अंदर धर्म की भावना प्रबल हो इसलिए परोपकारी गुरु चार मास एक जगह रुकते हैं तथा हमें धर्म की बारीकियां समझाते हैं और सद्मार्ग पर चलने की सीख देते हैं। साधु एक जगह से चलते हैं और दुसरी जगह पहुंचते हैं इस चलने और पहुंचने के बीच एक बड़ी घटना घट जाती है कि यह जहां से चलते हैं, वहां सब सूना-सूना हो जाता है और जहां पहुंचते हैं, वहां सब सोना ही सोना हो जाता हैं। (यह सोना (कनक) भौतिक नहीं बल्कि गुरु वाणी से हमारी आत्मा शुद्ध सोना बनने की प्रिव््रञ्ज्या की ओर अग्रसर हो जाती है) सदगुरु ही हमें ईश्वर तक पहुंचने का सही मार्ग दिखलाते हैं। चार महिनों में इनके उपदेशों का एक अंश भी हम ग्रहण कर लें तो हमारा जन्म सुधर सकता है, प्रेक्षा की एक किरण ही सोते हुए को जगाने का कार्य कर जाती है। कवि दादू दयाल कहते हैः- ‘दादू इस संसार में, ये द्वै रतन अमोल। एक साई एक संतजन, इनका मोल न तोल।।’ जैन धर्म में आकाश, वायु, पृथ्वी और जलसहित वनस्पति को सजीवमान ते हुए इन्हें हमारे वास्तविक जीवन संरक्षक के रुप में माना गया है। जिन शास्त्रों में जलको दूषित नहीं करने तथा उसका उपयोग जरुरत के हिसाब से कम से कम करने की व्याख्या है। (फव्वारे की जगह बाल्टी मग का प्रयोग करें, नल को खुला न छोड़ें, पानी में भी जीव हैं उनकी रक्षा करें। अनावश्यक लाईट का उपयोग न करें, अग्नि के जीवों की सुरक्षा करें।हिंदू धर्म में कहा जाता है कि चार्तुमास के वक्त भगवान् श्री विष्णु क्षीरसागर में शेषशय्या पर योगनिद्रा में शयन करते हैं, इसलिये इन महीनों में शादी-विवाह, गृहनिर्माण यज्ञ आदि कार्य नहीं किये जाते, ये चार मास तप-तपस्या, जप के लिये उपर्युक्त हैैं, अधिकतर हमारे धार्मिक त्यौहार इन्हीं महीनों के बीच में आते हैं। राखी, जैनों का महापर्व- पर्युषण, क्षमा-चापना दिवस, गणेश उत्सव, नवरात्रि, दशहरा, दीपावली आदि पर्व चार्तुमास के दौरान बड़े पैमाने पर हर्षोल्लास के साथ मनाये जाते हंै। अधिकतर लोग श्रावण मास का व्रत, उपवास रखते है। वही इसलाम धर्म में भी रमजान के महीने में एक माह का व्रत रखने का प्रवधान है। पांचो वक्त की नमाज पढ़ना, दान देना, अपने पापों का प्रयश्चित करना, एक सच्चा मुसलमान ‘कुरान’ में लिखे गये नियमों का पालन करता है।हमारे धर्म में व्यक्ति की नहीं व्यक्तित्व की पूजा-उपासना होती है, जो हमें यही संदेश देती हैं कि आप भी परमात्मा के पद को प्रप्त कर सकते हैं इसके लिये आपको अपना आचार-विचार उच्च कोटि का रखना होगा, इसका पालन करने में कठिनाइयां भी आती हैं, पर धर्म में छूट या शैथिल्यता के लिये जगह नहीं है। इन धार्मिक महीनों में जितना ज्यादा हो सके नियमों का पालन करना चाहिये दान-ध्यान, तप-तपस्या, सत्संग अधिक से अधिक करना चाहिये, जैनधर्मालंबियों को रात्रि भोजन का त्याग, दोनों समय प्रितव््रञ्ज्मण करना तथा व्याख्यान सुनने चाहिये।इस तरह से चार्तुमास के अंतर्गत हमें अपनी भौतिक सुख-सुविधायों से युक्ती स्त्रीयाओं का त्याग कर आत्मिक स्तर की क्रियाओं को मांजना होगा, तपाना होगा। शारीरिक व्रत के साथ-साथ मानसिक व्रत भी करना होगा, तभी हर तरह से हम आध्यात्मिक,आत्मिक उन्नति कर पायेंगे। चार्तुमास में देवशयन का रुपक हमें बाह्यमुखी वृतियों से हटकर अंतर्मुखी बनने का संदेश देता है। जीवन का सच्चा सुख परिधि से केन्द्र में जाने में है, अंतर जागरण करो और जीवन को धर्ममय बनाओ। कहते हैं चार्तुमास में बालटी में एक-दो बिल्वपत्र डालकर मन में ‘ॐ नमः शिवाय’ का मंत्र ४-५ बार बोलकर स्नान करें तो विशेष लाभ होता है, उससे शरीर का वायु दोष दूर होता है और स्वास्थ्य स्वस्थ रहता है। याद आती है एक कहानी मुगल बादशाह अकबर ने दरबारियों से पूछा – बारह में से चार गये तो कितने बचे? सबने कहा ‘आठ’, पर बीरबल चुप रहा – बादशाह ने बीरबल से जवाब मांगा-बीरबल ने उत्तर दिया ‘शून्य’। अकबर ने पूछा कैसे? बीरबल बोला, अगर बारह महीनों में से बरसात के चार महीने निकल गये तो न फसल होगी न जीवनयापन, तब सिर्फ शून्य ही बचेगा, और आध्यात्मिक स्तर पर धर्म ध्यान के यह चार महीने निकल गये तब भी बचा ‘शून्य’, इन चार महीनों में साधु-संत एक जगह रहकर धर्म की देशना देते है। मनुष्य को उचित मार्ग समझाते हैं, अगर यह चार महीने हमने प्रमाद में गंवा दिये तो हमारे जीवन में भी बचा सिर्फ ‘शून्य’, अगर चातुर्मास के यह चार महीने न हों तो भौतिक और आध्यत्मिक दोनों सृष्टियों से मनुष्य के लिये क्या बचेगा? सोचकर देखिये सिर्फ ‘शून्य’। सावधान- आध्यात्मिकता में डूबने के लिये बुढापे का इंतजार मत कीजिये, कब यह प्रण तन छोड़ देंगे हमें पता नहीं, पल-पल का सदुपयोग करके इस शून्य का हम धार्मिकी स्त्रीयाओं पीछे लगाकर, उसे अमूल्य बना दें और अपने जीवन बैंक को जीते जी और मृत्यु पर्यंत भी मालामाल कर दें। ‘इस जीने का गर्व क्या, कहां देह की प्रीत बात कहत ढर जात है, बालु की सी भीत’ इसलिये उठिये-जागिये ओर प्रभु के प्रित पूर्ण समर्पित हो जाइये, किसी कवि ने बड़ी सुंदर बात कही है :- ‘प्रभुता को ही सब मरै, प्रभु को मरै न कोय जो कोई प्रभु को मरे तो प्रभुता दासी होय’ अपने जीवन को सार्थक बनाइये और इसकी शुरुआत इसी चातुर्मास से शुरु कर दिजिए। -मंजू लोढा, मुंबई आत्मिक-आध्यत्मिक उत्थान का अवसर चार्तुमास