Category: जुलाई-२०२१

आत्मिक-आध्यत्मिक उत्थान का अवसर चार्तुमास

आत्मिक-आध्यत्मिक उत्थान का अवसर चार्तुमास

आत्मिक-आध्यत्मिक उत्थान का अवसर चार्तुमास आत्मिक-आध्यत्मिक उत्थान का अवसर चार्तुमास (Chaturmas, the occasion of spiritual ) वर्षाकाल के चार महीनों को चार्तुमास के नाम से जाना जाता है। चार्तुमास का समय आषाढी पुनम से लेकर कार्तिक पूनम तक होता है। इसका प्रारंभ आषाढ़ी १४से हो जाता है। प्रत्येक तीन वर्षों के पश्चात् चार्तुमास चार महीनों की जगह पांच महीनों का हो जाता है। इस वर्ष चार्तुमास १८ जुलाई से आरंभ होने जा रहा है। बरसात के मौसम में अत्यधिक सुक्ष्म जीवों की उत्पति होती हैं और उससे सारी धरती आकीर्ण हो जाती है। आवागमन या विहार करने से उन जीवों का घात हो सकता है अतः अहिंसा धर्म का सुक्ष्मता से पालन करने वाले सभी साधु-संत अपने शिष्यों सहित एक ही स्थान पर निवास करते है, वर्षायोग की स्थापना करते है। भारत में जैन साधु-साध्वी ही नहीं बल्कि अन्य धर्मों के साधु-संत भी इस क्रिया का पालन करते हैं तथा इस अवधि में ईश्वर का ध्यान करते हुये जीवदया, करुणा, सेवा, साधर्मिक भक्ति, व्रत, उपवास, परोपकार आदि प्रशस्त कार्यों को करते हैं तथा अपने भक्तों को करने की प्रेरणा देते हैं।वैसे तो साधु की गति सदैव नदी की निर्मल धारा की तरह होती है – सदैव चलते जाओ, बहते जाओ, लेकिन लोगों के अंदर धर्म की भावना प्रबल हो इसलिए परोपकारी गुरु चार मास एक जगह रुकते हैं तथा हमें धर्म की बारीकियां समझाते हैं और सद्मार्ग पर चलने की सीख देते हैं। साधु एक जगह से चलते हैं और दुसरी जगह पहुंचते हैं इस चलने और पहुंचने के बीच एक बड़ी घटना घट जाती है कि यह जहां से चलते हैं, वहां सब सूना-सूना हो जाता है और जहां पहुंचते हैं, वहां सब सोना ही सोना हो जाता हैं। (यह सोना (कनक) भौतिक नहीं बल्कि गुरु वाणी से हमारी आत्मा शुद्ध सोना बनने की प्रिव््रञ्ज्या की ओर अग्रसर हो जाती है) सदगुरु ही हमें ईश्वर तक पहुंचने का सही मार्ग दिखलाते हैं। चार महिनों में इनके उपदेशों का एक अंश भी हम ग्रहण कर लें तो हमारा जन्म सुधर सकता है, प्रेक्षा की एक किरण ही सोते हुए को जगाने का कार्य कर जाती है। कवि दादू दयाल कहते हैः- ‘दादू इस संसार में, ये द्वै रतन अमोल। एक साई एक संतजन, इनका मोल न तोल।।’ जैन धर्म में आकाश, वायु, पृथ्वी और जलसहित वनस्पति को सजीवमान ते हुए इन्हें हमारे वास्तविक जीवन संरक्षक के रुप में माना गया है। जिन शास्त्रों में जलको दूषित नहीं करने तथा उसका उपयोग जरुरत के हिसाब से कम से कम करने की व्याख्या है। (फव्वारे की जगह बाल्टी मग का प्रयोग करें, नल को खुला न छोड़ें, पानी में भी जीव हैं उनकी रक्षा करें। अनावश्यक लाईट का उपयोग न करें, अग्नि के जीवों की सुरक्षा करें।हिंदू धर्म में कहा जाता है कि चार्तुमास के वक्त भगवान् श्री विष्णु क्षीरसागर में शेषशय्या पर योगनिद्रा में शयन करते हैं, इसलिये इन महीनों में शादी-विवाह, गृहनिर्माण यज्ञ आदि कार्य नहीं किये जाते, ये चार मास तप-तपस्या, जप के लिये उपर्युक्त हैैं, अधिकतर हमारे धार्मिक त्यौहार इन्हीं महीनों के बीच में आते हैं। राखी, जैनों का महापर्व- पर्युषण, क्षमा-चापना दिवस, गणेश उत्सव, नवरात्रि, दशहरा, दीपावली आदि पर्व चार्तुमास के दौरान बड़े पैमाने पर हर्षोल्लास के साथ मनाये जाते हंै। अधिकतर लोग श्रावण मास का व्रत, उपवास रखते है। वही इसलाम धर्म में भी रमजान के महीने में एक माह का व्रत रखने का प्रवधान है। पांचो वक्त की नमाज पढ़ना, दान देना, अपने पापों का प्रयश्चित करना, एक सच्चा मुसलमान ‘कुरान’ में लिखे गये नियमों का पालन करता है।हमारे धर्म में व्यक्ति की नहीं व्यक्तित्व की पूजा-उपासना होती है, जो हमें यही संदेश देती हैं कि आप भी परमात्मा के पद को प्रप्त कर सकते हैं इसके लिये आपको अपना आचार-विचार उच्च कोटि का रखना होगा, इसका पालन करने में कठिनाइयां भी आती हैं, पर धर्म में छूट या शैथिल्यता के लिये जगह नहीं है। इन धार्मिक महीनों में जितना ज्यादा हो सके नियमों का पालन करना चाहिये दान-ध्यान, तप-तपस्या, सत्संग अधिक से अधिक करना चाहिये, जैनधर्मालंबियों को रात्रि भोजन का त्याग, दोनों समय प्रितव््रञ्ज्मण करना तथा व्याख्यान सुनने चाहिये।इस तरह से चार्तुमास के अंतर्गत हमें अपनी भौतिक सुख-सुविधायों से युक्ती स्त्रीयाओं का त्याग कर आत्मिक स्तर की क्रियाओं को मांजना होगा, तपाना होगा। शारीरिक व्रत के साथ-साथ मानसिक व्रत भी करना होगा, तभी हर तरह से हम आध्यात्मिक,आत्मिक उन्नति कर पायेंगे। चार्तुमास में देवशयन का रुपक हमें बाह्यमुखी वृतियों से हटकर अंतर्मुखी बनने का संदेश देता है। जीवन का सच्चा सुख परिधि से केन्द्र में जाने में है, अंतर जागरण करो और जीवन को धर्ममय बनाओ। कहते हैं चार्तुमास में बालटी में एक-दो बिल्वपत्र डालकर मन में ‘ॐ नमः शिवाय’ का मंत्र ४-५ बार बोलकर स्नान करें तो विशेष लाभ होता है, उससे शरीर का वायु दोष दूर होता है और स्वास्थ्य स्वस्थ रहता है। याद आती है एक कहानी मुगल बादशाह अकबर ने दरबारियों से पूछा – बारह में से चार गये तो कितने बचे? सबने कहा ‘आठ’, पर बीरबल चुप रहा – बादशाह ने बीरबल से जवाब मांगा-बीरबल ने उत्तर दिया ‘शून्य’। अकबर ने पूछा कैसे? बीरबल बोला, अगर बारह महीनों में से बरसात के चार महीने निकल गये तो न फसल होगी न जीवनयापन, तब सिर्फ शून्य ही बचेगा, और आध्यात्मिक स्तर पर धर्म ध्यान के यह चार महीने निकल गये तब भी बचा ‘शून्य’, इन चार महीनों में साधु-संत एक जगह रहकर धर्म की देशना देते है। मनुष्य को उचित मार्ग समझाते हैं, अगर यह चार महीने हमने प्रमाद में गंवा दिये तो हमारे जीवन में भी बचा सिर्फ ‘शून्य’, अगर चातुर्मास के यह चार महीने न हों तो भौतिक और आध्यत्मिक दोनों सृष्टियों से मनुष्य के लिये क्या बचेगा? सोचकर देखिये सिर्फ ‘शून्य’। सावधान- आध्यात्मिकता में डूबने के लिये बुढापे का इंतजार मत कीजिये, कब यह प्रण तन छोड़ देंगे हमें पता नहीं, पल-पल का सदुपयोग करके इस शून्य का हम धार्मिकी स्त्रीयाओं पीछे लगाकर, उसे अमूल्य बना दें और अपने जीवन बैंक को जीते जी और मृत्यु पर्यंत भी मालामाल कर दें। ‘इस जीने का गर्व क्या, कहां देह की प्रीत बात कहत ढर जात है, बालु की सी भीत’ इसलिये उठिये-जागिये ओर प्रभु के प्रित पूर्ण समर्पित हो जाइये, किसी कवि ने बड़ी सुंदर बात कही है :- ‘प्रभुता को ही सब मरै, प्रभु को मरै न कोय जो कोई प्रभु को मरे तो प्रभुता दासी होय’ अपने जीवन को सार्थक बनाइये और इसकी शुरुआत इसी चातुर्मास से शुरु कर दिजिए। -मंजू लोढा, मुंबई आत्मिक-आध्यत्मिक उत्थान का अवसर चार्तुमास

पर्यावरण और जैन सिद्धांत

पर्यावरण और जैन सिद्धांत

पर्यावरण और जैन सिद्धांत पर्यावरण और जैन सिद्धांत : पर्यावरण हमारे जीवन का महत्व पूर्ण तत्व है, ईश्वर ने इस सृष्टि की रचना की और मुक्त हाथों से हमें प्रकृतिक संपदाआें का खजाना प्रदान किया, लेकिन मनुष्य ने अपनी लालसा और लालच में आकर इन अमूल्य संपदाओं के साथ खिलवाड़ किया, यही वजह हैं कि हमें प्रकृतिक आपदाओं से निरंतर लड़ना पड़ रहा है। अति वर्षा, सुखा, भुकंप, भू संखलन, बर्फ का पिघलना, अतिगर्मी-सर्दी सुनामी आदि का सामना कर ना पड़ रहा है और हजारों मनुष्यों को एक साथ जान-माल से हाथ धोना पड़ रहा है। अगर हम आने वाली पीढ़ियों को एक सुरक्षित संसार देना चाहते हैं तो जरुरी है पर्यावरण की रक्षा, संरक्षण, संवर्धन जैन पद्धति से अगर जीवन को जिया जाये तो यह कोई मुश्किल कार्य नहीं।भगवान महावीर इस युग के सबसे बड़े और पहले वैज्ञानिक हैं, उनका हर उपदेश विज्ञान की भाषा है, हर सूत्र न मात्र आत्म शुद्धि का सोपान है बल्कि शारीरिक स्वस्थता, पारिवारिक आनंद, निरोगी काया, शुद्ध विचार, प्रकृति से प्रेम, सामाजिक जीवन या पन, त्याग, परोपकार निश्चित जीवन इत्यादि अनेकों लाभ हम उनके सिद्धांतों से प्राप्त कर सकते हैं।अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह तथा बह्मचर्य जैन धर्म के इन पांचमूल सुत्रों में प्रकृतिक संसाधनों की सुरक्षा के संदेश निहित है। अहिंसा- प्रणा मात्र के प्रित प्रेम का प्रतीक है और पेड़ों में भी प्रण है, इसलिए इन्हें काटिये मत, इनकी सुरक्षा करें। पेड़ों में देवताओं का वास होता है, यह हमें शुद्ध हवा, फल-फूल-छाया तो देते ही हैं साथ ही इनकी लकिड़यां भी मनुष्य का जीवन-यापन करती हैं।जैन धर्म में आकाश, वायु, पृथ्वी और जलसहित वनस्पति को सजीवमान ते हुए इन्हें हमारे वास्तविक जीवन संरक्षक के रुप में माना गया है। जिन शास्त्रों में जलको दूषित नहीं करने तथा उसका उपयोग जरुरत के हिसाब से कम से कम करने की व्याख्या है। (फव्वारे की जगह बाल्टी मग का प्रयोग करें, नल को खुला न छोड़ें, पानी में भी जीव हैं उनकी रक्षा करें। अनावश्यक लाईट का उपयोग न करें, अग्नि के जीवों की सुरक्षा करें।जैन धर्म में चार्तुमास की परंपरा भी पर्यावरण संरक्षण का ही स्वरुप है, चार्तुमास के दौरान हमारे साधु-संत विहार नहीं करते ताकि हरितिमा, पोधों एवं सूक्ष्म जीवों का संरक्षण हो सके। हजारों वर्षों से हमारे तीर्थंकरों ने हमें जीवन जीने की ऐसी पद्धति बतलाई है, उससे हम अधिक से अधिक प्रकृति के करी बरहकर, स्वस्थ व प्रसन्न जीवन जी सकें। हमारे सभी तीर्थ करों को ‘केवल ज्ञान’ की प्रप्ति किसी न किसी वृक्ष के नीचे रह कर प्राप्त की है। पीपल वट, अशोक वृक्ष हमारे धार्मिक जीवन के महत्वपूर्ण अंग है। हिंदू संस्कृति में भी ऋषी-मुनि जंगलों में रहकर प्रकृति की सुरक्षा के साथ ज्ञान की प्रप्ति करते थे।याद आती है एक कहानी, एक बार एक राजा भेष बदल कर प्रजा के दुःख-सुख जानने के लिये अपने राज्य में भ्रमण करता है, एक दिन उसने देखा एक८० साल की बुिढ़या माई ‘अखरोट का’ पौधा रोप रही थी, राजने विचार किया यह पौधा जब तक बड़ा होगा, इस पर फल लगेंगे तब तक तो यह माई जीवित नहीं रहेगी, यह निरर्थक ही पेड़ लगा रही है, व्यर्थ परिश्रम कर रही है यह सोचकर राजा को दुःख हुआ, वह इस बुिढ़या के पास जाकर यह बात कहते हैं, तब वह बुिढ़या बहुत ही सुंदर जवाब देती हे, ‘‘पथिक-अब तक मैंने दुसरों के लगाये गये पेड़ों से खुब फल खाये है, अब मेरी बारी हैं, जीवन खत्म हो जाये उससे पहले मैं दो-चार पेड़ लगाना चाहती हूं ताकि मेरे लगाये पेडों से दूसरे लोग भी लाभ उठा सकें, पेट भर सकें” यह उत्तर सुनकर राजा गदगद हो गया और बोला ‘जिस देश में आप जैसे परोपकार का भाव रखनेवाले नागरिक है वह देश हमेशा हरा-भरा-खुशहाल रहेगा। अगर हम एक हरी-भरी वसुंधरा के संग सुखी जीवन जीना चाहते हैं तो हमें जैन धर्म के सिद्धांतों का पालन करना होगा और प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में पांच पेड़ों को लगाने का संकल्प लेना होगा। पर्यावरण और जैन सिद्धांत

जैन धर्म है अति प्राचीन धर्म

जैन धर्म है अति प्राचीन धर्म

वैदिक पुराणों के पन्नों सेजैन धर्म है अति प्राचीन धर्म हमारा यह संसार अनादिकाल से विद्यमान है, इस जगत का न कोई आदि है न कोई अन्त, जैसे यह संसार अनादि निदान है वैसे ही जैन धर्म भी अनादि निधन है, ऋग्वेद के पूर्वकाल में भी जैनधर्म विद्यमान था। इतिहास के विभिन्न काल खंडों में जैन धर्म को विभिन्न नामों से जाना जाता था, कभी यह श्रमण धर्म के नाम से, कभी व्रात्य के नाम से, कभी अर्हत के नाम से, तो कभी लोग इसे निर्ग्रन्थ धर्म के नाम से पहचानते थे, परन्तु महावीर युग से इसे जैन धर्म के नाम से जाना जाने लगा।जैन धर्म की प्राचीनता को वैदिक संस्कृत के प्राचीनतम ग्रंथों, वेदों, पुराणों में प्राप्त कतिपय उल्लेखों ने स्पष्ट कर दिया है, इस सन्दर्भ में प्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान डॉ.राधाकृष्ण का कथन उल्लेखनीय है। ‘‘इस बात के प्रमाण पाये जाते हैं कि ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की पूजा होती थी, इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जैन धर्म वर्द्धमान और पार्श्वनाथ से पहले प्रचलित था। यजुर्वेद में ऋषभदेव, अजितनाथ और अरिष्टनेमि, इन तीन तीर्थंकरों के नामों का उल्लेख है, भागवत पुराण भी इस बात का समर्थन करता है कि ऋषभदेव जैन धर्म के संस्थापक थे’’प्रो.विरूपाक्ष वाडिया वेदों में जैन तीर्थंकरोें के उल्लेखों को प्रस्तुत करते हुए बताते हैं कि-‘‘प्रकृतिवादी मरीषि ऋषभदेव का परिवार था। मरीचि ऋषि के स्रोत वेद-पुराण आदि ग्रन्थों में है और स्थान-स्थान पर जैन तीर्थंकरों का उल्लेख पाया जाता है, कोई ऐसा कारण नहीं कि हम वैदिक काल में जैन धर्म के अस्तित्व को न मानें। विविध वैदिक ग्रन्थों में-‘श्रमण’ शब्द को विविध रूपों में परिभाषित किया गया है यथा- ‘श्राम्यन्तीत श्रमण: मपस्यन्ते इत्यर्थ’ अर्थात् जो श्रम करता है, कष्ट सहता है, तप करता है वह श्रमण है, श्रीमद भागवद में श्रमण की व्याख्या इस प्रकार की गयी है- ‘‘श्रमण वातरशना, आत्मविद्या विशारदा’’ अर्थात श्रमण दिगम्बर मुनि होते ऊर्ध्वरेता, वात रशना एवं आत्मविद्या में विशारद होते हैं।वैदिक ग्रन्थों में जैन धर्मानुयायियों को अनेक स्थलों पर व्रात्य भी कहा गया है। व्रतों का आचरण करने के कारण वे व्रात्य कहे जाते हैं, ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि वैदिक आर्य व्रात्यों के जब सर्म्पक में आये तो वे उनसे बहुत प्रभावित हुए और उनके सम्मान में, उनकी प्रशंसा में अनेक मंत्रों की रचना भी की, जबकि व्रात्य यज्ञ विरोधि थे। व्रात्यों की यह प्रशंसा ऋग्वेद काल से अथर्वेद काल तक होती रही, श्रमण संस्कृति और वैदिक संस्कृति दोनों मिलकर भारतीय संस्कृति को अपना गरिमामयी योगदान देते हुए मानव जीवन को संवारते हुए पुराण युग तक आ पहुंचे। विष्णुपुराण के रचना काल में वैदिक ऋषियों के भाव बदल गये और वे व्रात्यों की निन्दा करने लगे, संभवत: इसका कारण यह रहा हो कि व्रात्यों की आध्यात्मिक धारा से प्रभावित होकर वैदिक कर्मकांड मूलक विचारधारा अपने मूल रूप को छोड़ कर औपनिषदिक ज्ञान काण्ड की ओर मुड़ने लगी थी, ऐसा स्थिति में अपने मूल रूप को स्थिर रखने के लिए वैदिक ऋषियों की चिन्ता स्वाभाविक थी, अत: इस काल में व्रात्यों को वैदिक अनुयायियों की दृष्टि में गिराने के प्रयत्न किये जाने लगे। साथ ही व्रात्यों को अंग-वंग-कलिंग और मगध राज्य में जाना निषिद्ध घोषित कर दिया गया। पुराणों में ऐसी भी रचनायें होने लगी कि एक राजा रानी को एक व्रात्य (जैन) से केवल बात करने के अपराध का प्रायश्चित अनेक जन्मों तक करना पड़ा, अथवा प्राणों पर संकट आने की दशा में यदि जैन मंदिर में जाकर प्राण रक्षा की संभावना हो सकती हो तो भी जैन मंदिर में प्रवेश करके प्राण रक्षा करने श्रेयस्कर है, इस प्रकार तमाम वैदिक पुराणों और वेदों में श्रमण, व्रात्य, अहित, ऋषभदेव और जैनधर्म इन शब्दों का प्रयोग जगह-जगह पर हुआ है। वैदिक ग्रन्थों में वातरशन, उर्ध्वमन्थी शब्दों का प्रयोग भी श्रमण मुनियों के लिए हुआ है, जहाँ-जहाँ भी इन शब्दों का प्रयोग हुआ है, अत्यन्त सम्मान पूर्ण आशय से हुआ है, अत: विभिन्न वैदिक ग्रन्थों में उक्त चर्चाओं से स्वत: ही सिद्ध हो जाता है कि जैन धर्म अति प्राचीन धर्म है और यह धर्म वैदिक सभ्यता से बहुत पहले ही भारत में फल-फूल रहा था, इतिहासकार भी अब इस बात को स्वीकार करने लगे हैं कि भारत में वैदिक सभ्यता का जब प्रचार-प्रसार हुआ, उससे पहले यहाँ जो सभ्यता थी वह अत्यन्त समृद्ध और समुन्नत थी। जैन धर्म है अति प्राचीन धर्म

भगवान पार्श्वनाथ जी का अतिशय क्षेत्र कमठाण

भगवान पार्श्वनाथ जी का अतिशय क्षेत्र कमठाण

भगवान पर्श्वनाथ जी का अतिशय क्षेत्र कमठाण जैन धर्म भारत वर्ष का अत्यन्त प्राचीन धर्म माना जाता है, क्रिस्त के जन्म से चार सौ साल पहले मौर्य चक्रवर्ती चंद्रगुप्त को कर्नाटक प्रांत का श्रवणबेलगोला में मानसिक शुद्धि के लिए आश्रय देकर जीवन रक्षण किया था, जैन धर्म बाहर के ठाट-बाट से उपर उठकर भीतरी शुद्धि को महत्व देने वाला धर्म है, जैन धर्म ने उत्तर भारत में जन्म लेकर सारे संसार को अहिंसा का संदेश दिया, दक्षिण भारत के कर्नाटक में जैन धर्म का डंका बजा, कर्नाटक का इतिहास इसका गवाह है, जैन धर्म का मूल तत्व अहिंसा का पालन तथा आत्म दर्शन है।कर्नाटक का मुकुट स्थान बीदर जिल्हा धर्म समन्वय का संगम स्थान है, यहाँ अलग-अलग धर्म के मंदिर, गुरुद्वारे, मसजिद, बुद्धस्तूप तथा जैनों के चैत्यालय भी हैं, बीदर जिल्हे के बहुत से गावों में आज भी जैन तीर्थंकरों की मूर्तियां पाई जाती है। बीदर केन्द्र स्थान से ग्यारह किलोमीटर दूरी पर कमठाण ग्राम के पश्चिम दिशा की ओर भगवान पार्श्वनाथ जी का अति प्राचीन मंदिर हैं, बसवकल्याण तालुके के मिरखल, हुमनाबाद तालुका के केन्द्र स्थान पर पुरातन जैन मंदिर आज भी मौजूद हैं। भाल्की, औराद नगर में भी जैनों के जीर्ण-शीर्ण मंदिर और मूर्तियाँ पाई जाती हैं, बीदर से १८ किलोमीटर की दूर पर स्थित काडवाद ग्राम में सिद्धेश्वर मंदिर के बाहरी प्रांगण में आज भी भगवान महावीर की मूर्ति हमें देखने को मिलती है।कमठाण बीदर जिल्हे का एक बड़ा गाँव है, इस गाँव का इतिहास कर्नाटक के प्राचीन इतिहास से जुड़ा हुआ है। रट्ट वंश के राज्यभार के समय में यह एक बहुत बड़ा खेड़ा गाँव था। कमठाण आज बीदर जिल्हे का एक बड़े गाँव के रूप में जाना जाता है, इस ग्राम के रास्ते में कर्नाटक का बहुत बड़ा पशु वैदिक महाविद्यालय बसा हुआ है, पुरातन काल से इस ऐतिहासिक गाँव में पुरातन विठल मंदिर, वीरशैवों का पुरातन मठ तथा ग्यारहवी शताब्दी के भगवान पार्श्वनाथ जी का मंदिर देखने को मिलता है।११सौ साल पुराना यह पट्टा राज वंश के राज द्वारा निर्मित जैनों के तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथजी के ध्यान मग्न पदमासन की ४१ फीट ऊंची काले पाषाण की नयन मनोहर सुंदर मूर्ति आज भी दर्शनार्थियों को जैन धर्म का अहिंसा संदेश मौन वृत्त से दे रहा है, देखनेवालों को ऐसा प्रतीत होता है कि साक्षात तीर्थंकर मौनव्रत धारण कर तपस्या में जीवंत बैठे हुए हैं। करीब डेढ़ एकर की विशाल पटस्थल पर स्थित यह अतिशय क्षेत्र यात्रियों का यात्रा स्थल बन गया है, इस पुण्य परिसर में ३५ आम के वृक्ष यात्रार्थियों को ठंडी हवा प्रदान कर छांव देने को तत्पर हैं। वास्तु शास्त्र के अनुसार उत्तर दिशा का प्रवेश द्वार बड़ा ही शुभकारी होता हैं, यह जानकर उत्तर दिशा के सड़क और महाद्वार का काम होना बाकी है, पूर्व में भी एक महाद्वार है, मंदिर के सामने ३५ फीट उâंची मानस्तंभ बहुत ही मनमोहक एवं सुंदर है।भगवान पार्श्वनाथजी के गर्भ गृह के नीचे गुफा को अच्छी ढंग से मरम्मत करके वहां पर कांच का सुंदर काम करवाया गया है, यहाँ पर बैठ कर ध्यान करने से मन को शांति मिलती है, ऐसा कहा जाता है। भगवान पार्श्वनाथ जी के गर्भ गृह तथा शिखर में भी बड़े ही सुंदर ढंग से कांच का काम करवाया गया है, यहां पर भगवान पार्श्वनाथजी का प्रतिदिन पंचामृत अभिषेक कराया जाता है, इसके लिए एक शाश्वत पूजा निधि का आयोजन करते हैं, जिसमें करीब ४०० सदस्य हैं, सदस्यता अभियान जारी है, सदस्यता शुल्क ५०१ रु. है, यहां पर पहले जैनों की पाठशाला और छात्रावास था, ऐसा लोग कहते हैं, गुरुकुल में विद्या प्राप्त बहुत से लोग अभी भी बीदर जिल्हे में मिलते हैं, अत: वैसा ही छात्रावास कमठाण अतिशय क्षेत्र परिसर में पुन: स्थापित कर नि:सहाय जैन छात्रों को विद्यादान करने हेतु पंच कमेटी ने निर्णय लेकर ‘श्रुतज्ञान छात्रावास’ नाम से एक छात्रावास निर्माण करने का संकल्प लेकर, उसके लिए स्केच तैयार कराकर इस्टीमेट भी बनवाया है, यहां पर २०० लोगों को बैठने की व्यवस्था वाला एक सुन्दर प्रवचन मंदिर और ५०० व्यक्तियों की क्षमतावाली सभा गृह का निर्माण कार्य भी पूरा हो गया है, अगर दानियों से उदार हस्त से दान मिलता रहा तो यहाँ की पंच कमेटी कुछ ही समय में आधे अधुरे सभी कार्य पूर्ण कर इसे एक प्रेक्षणीय स्थान तथा जैनों का पवित्र यात्रा स्थान बनाने में देर नहीं लगेगी।भगवान पार्श्वनाथजी की मूर्ति १९८९ फरवरी तक जमीन में बनी गुफा में थी, जिसे प. पू. आ. श्री १०८ श्रुतसागर मुनिमहाराज जी ने गुफा के उपरी भाग में एक सुंदर संगमरमरी के वेदी बनवा कर उस पर माघ शुक्ल ५, १९८७ को प्रतिस्थापित करवाया, तबसे इस मूर्ति की प्रभावना और बढ़ गई है, हमेशा यात्रार्थी आकर दर्शन लाभ लेकर जाते हैं, हर साल यहाँ पर माघ शुक्ला ५ से ७ तक तीन दिन बड़े हर्षोल्लास से वार्षिक रथयात्रा महोत्सव मनाया जाता है। आंध्र, महाराष्ट्र और कर्नाटक राज्यों से हजारों की संख्या में यात्रार्थी इस अवसर पर आकर पुण्य प्राप्ति के भागीदार बनते हैं, बीदर नगर के तथा पूरे जिल्हे के जैन समुदाय एकजुट होकर इस क्षेत्र की उन्नति के लिए रात दिन मेहनत कर रहा है, यहां पर यात्रार्थी और दर्शनार्थियों के सुविधा के लिए विश्रांतिगृह, भोजनगृह, पकवानगृह, शौचालय और पानी की सुविधा की गई है, इस गाँव में जैनों के सिर्फ दो ही परिवार बसे हुए हैं, जो मंदिर वâो यथा संभव स्वच्छ तथा सुव्यवस्थित रखने की पूरी कोशिश कर रहे हैं और पधारे दर्शनार्थियों को यथा योग्य सेवा और जरुरी सहुलियत उपलब्ध कराते हैं। भगवान पार्श्वनाथ जी का अतिशय क्षेत्र कमठाण

मैं भारत हूँ परिवार द्वारा सुरेश नावंदर पुणे रत्न से सम्मानित

मैं भारत हूँ परिवार द्वारा सुरेश नावंदर पुणे रत्न से सम्मानित

मैं भारत हूँ परिवार द्वारा सुरेश नावंदर पुणे रत्न से सम्मानित (Suresh Navandar honored with Pune Ratna by main bharat hun family)श्री माहेश्वरी बालाजी मंदिर, कसबा पेठ, तथा महेश सेवा संघ पुणे के भूतपूर्व अध्यक्ष एवं विश्वस्त सुरेश नावंदर को मैं भारत हूँ परिवार द्वारा सामाजिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्र में उत्कृष्ठ सेवा के लिए पुणे रत्न सम्मान दिया गया।‘मैं भारत हूँ’ परिवार की ओर से जूम मिटींग पर ‘भारत को ‘भारत’ कहें वेबिनार में अध्यक्ष ज्येष्ठ पत्रकार बिजय कुमार जैन इस विषय में अपनी भूमिका बतायी। कार्यक्रम के दौरान पुणे रत्न पुरस्कार से २५ लोगों को जूम पर सन्मानित किया गया। प्रमुख रूप से शाकाहार एवं व्यसन मुक्ति आंदोलन के प्रमुख डॉ. कल्याण गंगवाल, ज्येष्ठ समाजसेवी जेठमल दाधीच, संतोष व्यास, जैन कॉन्फरेन्स की महिला अध्यक्षा विमला बाफना, राजेंद्र भट्टड, डॉ. अशोक पगारीया, प्रविण चोरबेले आदि अपने विचार रखे। राष्ट्रीय अध्यक्ष बिजय कुमार जैन करिबन १०० से ज्यादा वेबिनार का आयोजन कर लाखों लोगों को अपने साथ भारत को ‘भारत’ ही बोला जाए, अभियान में जोड़ लिया है। अंत में संगठन मंत्री कानबिहारी अग्रवाल ने आभार प्रदर्शन किया। निशा लड्डा ने सुत्र संचालन किया। सुरेश नावंदर हाल में माहेश्वरी विद्या प्रचारक मंडल के शिष्यवृत्ती समिती के तथा पुणे पश्चिम परिवार प्रतिष्ठान में सदस्य रूप में कार्यरत हैं। मैं भारत हूँ परिवार द्वारा सुरेश नावंदर पुणे रत्न से सम्मानित